Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
View full book text
________________
米菲米茶茶茶茶孫滿滿滿茶茶茶茶葉米米米米
१० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय करते थे. उस समय उनका अभिनय प्रेक्षणीय होता था. दुनिया इसे कायरता कह सकती है परन्तु विचारक उसे उनका बहुत बड़ा गुण मानते और स्वभाव की कोमलता कहते हैं. अपने स्वभाव की कोमलता के कारण वे संघर्षों से सदा दूर रहे और अंत तक जनप्रिय बने रहे. सन् १९५५ में जयपुर में संयुक्त वर्षावास था. उस वर्षावास के मधुर संस्मरण आज भी स्मृति-पटल पर चलचित्रों की भाँति आरहे हैं. पर उन सभी को वाक्यों की कड़ियों में पिरोना कठिन है. एक शब्द में कहा जाय तो उस महापुरुष में पुरानी पीढ़ियों की सब खूबियों के साथ ही नवीन विचार भी पर्याप्त मात्रा में थे. दुर्भाग्य से वे आज हमारे बीच में नहीं हैं पर उनका पावन चरित्र प्रकाशस्तम्भ की तरह सदा हमारा पथ-प्रदर्शन करता रहे. यही मंगल-कामना है.
मुनि श्रीरामप्रसादजी. पुण्या: स्मृतयः
न योऽभूद् मादक्षैः परिचिततरोऽतीतसमये, न पूर्व यस्यासीत्, प्रथिततरनामाऽप्यवगतम् !
हजारीमल्लाख्यं, मुनि-बहुल-भीनासर-भुवि मुनीन्द्रं तं नेत्रे निमिषमिह साक्षात्कृतवती' !! -जिन हजारीमलजी महाराज का हमें पहले परिचय नहीं था, तथा प्रसिद्ध होने पर भी जिनका नाम हमने कभी नहीं सुना था, उन्हें भीनासर में-जहाँ बहुत से मुनि एकत्रित थे-हमारे अपलक नेत्रों ने देखा.
कचाः शुक्लाः शुक्ला हिम इव हिमावास-शिरसि, वपुः शुक्लं शुक्लं सित-पट धरत्वादविकलम् !
तथा शुक्लः शुक्लो मधुरतरहासश्च वदने, समा शुक्ला तस्यावरतति हि मूर्तिः स्मृतिपथे !! -हिमालय पर पड़ी हिम के समान धवल उनके केश थे. उनकी गौर-देह श्वेत-परिधान के कारण और भी उज्ज्वल लगती थी. उनके चेहरे पर मधुरता-पूर्ण मुस्कान की धवलिमा थी. इस प्रकार उनकी शुक्लाति-शुक्ल मूर्ति हमें स्मरण हो रही है.
वयोभिर्दीक्षाब्दैजिन-वचन-शिक्षादि-सुगुणैः, महत्त्व विभ्राणः परमपि दधानो गुरुपदम् !
लघूनां साधूनामपि, सहज-मुद्रां तु कलयन्, कृते स व्याहार्षीद् हसितवदनः स्वागतमिति !! -वे आयु काल और दीक्षा काल से बड़े थे. जिनागम की शिक्षाओं से परिपूर्ण थे तथा अन्य गुणों से भी महान् थे. गुरुत्व का उत्कृष्ट पद उन्हें प्राप्त था. फिर भी अपनी सहज मुद्रा अथवा स्वाभाविकता को बनाये रखते हुए वे छोटे मुनियों के लिए भी प्रसन्नवदन होकर स्वागत पद का प्रयोग करते थे.
न विद्वत्वं तेषां न च विभु-प्रभावः प्रभवताम्, पटुत्वं वा वाण्या लघु-समय-संगेन विदितम् ।
तथापि व्याहृत्या हरति हि मनो मे मधुरता, तथा बालस्येवाऽऽहरति खलु तेषां सरलता !! -- उनके पाण्डित्य को, उनके बड़प्पन के व्यापक प्रभाव को तथा उनकी वाणी के कौशल को बहुत थोड़े समय साथ 'रहने के कारण हम न भी जान सके तो भी उनकी वचन-माधुरी बड़ी हृदयहारी प्रतीत होती थी तथा उनकी बाल-सुलभ सरलता मन को आकृष्ट करती थी.
मदीयैः स्वर्यातैर्गुरुभिरथ वाचस्पति-पदैः, पुरा तेषां प्रीतिः समजनि सुधासार-भरिता !
अहं स्मारं-स्मारं निज-मनसि तामेव नियतम्, पुरस्कर्तुकाव्यै रिममगुरुयत्नं विहितवान् !! -मेरे स्वर्गीय गुरुदेव व्याख्यानवाचस्पति श्रीमदनलालजी महाराज से उनका अमृत-रस-वाही-स्नेह बहुत पहले हो गया था. उसी स्नेह को अपने मन में पुनःपुनः लाते हुए कुछ पंक्तियों द्वारा प्रकट करने का यह लघुतर प्रयत्न किया है.
१. नपुसंक लिंगे द्विवचने प्रयोगः
KYA
Jain Edulcorintem
For Sale & Personal Use Only
www.jinvenorary.org