Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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विभिन्न लेखक : संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ : ८३
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था. चमत्कृतिपूर्ण था. संयम साधना का परम पवित्र अनुराग उनके कण-कण में व्याप्त हो रहा था. उनके जीवन में संयम अपनी पराकाष्ठा तक पहुँच चुका था. इस तरह संयम-साधना के अध्यात्म आनन्द में वे सदा अप्रमत्त भाव से निमग्न रहा करते थे. भगवती सूत्र में भगवान महावीर ने संयमी पुरुष के सुख का बड़ी विलक्षणतापूर्वक वर्णन किया है. उक्त सूत्र के शतक १४, उद्देश्य है में लिखा है कि एक मास की दीक्षा वाला श्रमण, निर्ग्रन्थ वाणव्यन्तर देवों के सुख को अतिक्रमण कर जाता है. दो मास की दीक्षा वाला नागकुमार आदि भवनवासी देवों के सुखों का अतिक्रमण कर जाता है. इसी प्रकार तीन मास की दीक्षा वाला असुरकुमार के देवों के सुख को, चार मास की दीक्षा वाला ग्रह नक्षत्र एवं ताराओं के सुख को, पाँच मास की दीक्षा वाला ज्योतिष्क देव जाति के इन्द्र चन्द्र एवं सूर्य के सुख को, छः मास की दीक्षा वाला सौधर्म एवं ईशान देवलोक के सुख को, सात मास की दीक्षा वाला सनत्कुमार एवं माहेन्द्र देवों के सुख को, आठ मास की दीक्षा वाला ब्रह्मलोक एवं लान्तक देवों के सुख को, नव मास की दीक्षावाला, आनत और प्राणत देवों के सुख को, ग्यारह मास की दीक्षा वाला नव प्रैवेयक देवों के सुख को तथा बारह मास की दीक्षा वाला श्रमण अनुत्तरोपपातिक देवों के सुख को अतिक्रमण कर जाता है." जहाँ तक मैं जानता हूँ, वहाँ तक कह सकता हूँ कि भगवान् महावीर की उक्त मान्यता श्रद्धेय मंत्री श्रीहजारीमलजी म० के जीवन में व्यवहार का रूप ले रही थी. महाराजश्रीजी अपनी संयम-साधना में तथा त्याग-बैराग्य की आराधना में सदा आनन्दविभोर रहा करते थे. उनके मस्तक पर कभी सलवट नहीं देखी गई. क्या बाल, क्या युवक, क्या वृद्ध, क्या नारी, क्या पुरुष सभी पर वे स्नेह की, प्रसन्नता की—मधुर वर्षा किया करते थे. संयम का वे पूर्णतया आनन्द लूट रहे थे. परम आदरणीय, सन्तहृदय मंत्री श्रीहजारीमलजी म० का परम पवित्र जीवन एक विस्तृत उपवन के समान था. उसमें त्याग, वैराग्य, जप, तप, ब्रह्मचर्य, धैर्य, उदारता, सहृदयता, कठोरता, कोमलता, दुःखी जनों के प्रति वत्सलता आदि ऐसे अनेकों सुगन्धित गुण-पुष्प दिखाई देते थे, जिनकी सुगन्ध ने लाखों हृदयों को सुगन्धित बना दिया था. मंत्री श्री के जीवन का एक-एक गुण इतना विलक्षण और अद्भुत है कि कुछ कहते नहीं बनता. सभी सद्गुणों के सम्बन्ध में कुछ न कह कर आज मैं श्रद्धेय मंत्री श्री के एक गुण का वर्णन करूँगा. वह गुण है
"वज्रादपि कठोराणि, मृदूनि कुसुमादपि" मंत्रीश्रीजी वज्र से भी अधिक कठोर थे, और पुष्प से भी ज्यादा कोमल. बज्र और पुष्प दोनों के परस्पर विरोधी गुण एक स्थान पर कैसे टिक सकते हैं ? इस प्रश्न का उठना स्वाभाविक है. मैं समझता हूँ श्रद्धेय मंत्री का जीवन इस प्रश्न का ही एक समाधान था. उनकी जीवन-घटनाओं से यह सुस्पष्ट हो जाता है कि इस पवित्र जीवन में दोनों विरोधी गुण बिना किसी बाधा के स्पष्टतया देखे जा सकते हैं. मंत्री श्रीजी म. अपने शरीर के लिए वज्र के समान कठोर थे. अपने दुःख में वे कभी घबराए नहीं. भयंकर-से-भयंकर वेदना की घड़ियों में भी इन्होंने जबान से उफ़ तक नहीं की. प्रत्युत् बड़ी शान्ति और धीरता से उसे सहर्ष सहन किया. वस्तुतः साधक की महत्ता इसी बात में है कि संकट की वर्षा हो रही हो, प्रतिकूलता की भीषण आंधियाँ चल रही हों, फिर भी यदि वह डांवाडोल नहीं होता, धैर्य को अपने हाथ से जाने नहीं देता, तथा अपने बौद्धिक सन्तुलन को सर्वथा सुरक्षित रखता है, तो साधक की इन्हीं वृत्तियों से पता चलता है कि वह संसार का एक महापुरुष है. हमारे मंत्री श्रीजी का महापुरुषत्व इन्हीं बातों से अभिव्यजित हो जाता है कि भीषण से भीषण दुःख में भी वे स्वस्थ रहे. जरा भी डांवाडोल नहीं हुए और प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थिति में भी सबको प्रसन्न मुद्रा में दिखाई दिया करते थे. पर जब वे (मंत्री श्रीजी) किसी दूसरे को दुःखी देख लेते तो एक दम सिहर उठते थे. करुणा के मारे उनका हृदय व्याकुल हो उठता था. जब तक उस दुःखी के दुःख को दूर नहीं कर देते थे तब तक उनको शान्ति नहीं मिलती थी. गोस्वामी तुलसीदासजी की
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