Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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७८ : मुनि श्रीहजारीमलजी रमृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय परम्परा की एक बेजोड़ कड़ी थे-मंत्रि प्रवर, श्रद्धेय हजारीमल जी महाराज अभी कल तक वे हमारे मध्य में थे, पर आज नहीं रहे. उस विमल विभूति के वियोग ने समाज को अनाथ बना दिया है 'वे आज नहीं रहे'-इस तथ्य को मानने से भले ही हमारा भक्ति-परायण मन विद्रोह करे, फिर भी यह सत्य है, कि उनका भौतिक रूप अब हम न देख सकेंगे. उनका अध्यात्मरूप हमारे कण-कण में रम चुका है. अतः उस विमल विभूति का भौतिक वियोग होकर भी आज अध्यात्मसंयोग हमारे जीवन के साथ है. फिर शोक क्यों ? अंग्रेजी साहित्य में मनुष्य-जीवन के लिए दो वाक्यों का प्रयोग किया जाता है-A man is mortal and a man is immortal अर्थात् मनुष्य मरणशील है, और मनुष्य अमर भी है. जैन-दर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु, फिर भले ही वह चेतन हो अथवा अचेतन-पर्याय-दृष्टि से अनित्य होती है, और गुण-दृष्टि से नित्य. श्रद्धेय हजारीमलजी महाराज, आज नहीं होकर भी हैं और होकर भी आज नहीं रहे. भक्त-हृदय की मोह-बुद्धि उनके भौतिक वियोग को देखकर शोक, विषाद और परिताप करती है.. निश्चय ही श्रद्धेय मन्त्री जी महाराज महान् थे क्योंकि महान् बनने के लिए जिन गुणों की आवश्यकता है, वे समस्त गुण उनमें विद्यमान थे. आप कह सकते हैं, और जैसा कि कुछ लोग कहेंगे कि वे महान् नहीं थे, क्योंकि न तो वे प्रवक्ता थे,
और न नामी लेखक ही, परन्तु मेरी दृष्टि में महानता के उक्त दोनों लक्षण सर्वथा निरर्थक हैं. विशेषतः तब, जबकि विचार में उदारता न हो, वाणी में मधुरता न हो और व्यवहार में शिष्टता न हो. जो लोग उस विमल विभूति के सान्निध्य में रहे हैं, वे इस तथ्य को भली-भांति जानते हैं, कि स्वामी जी महाराज का जीवन हिमालय से भी ऊँचा था, और सागर से भी अधिक गम्भीर था. उनके मन की गरिमा ने और वाणी की मधुरिमा ने तथा उनके कर्म की महिमा ने जन-जन के जीवन को भावित किया था, पवित्र किया था और विशुद्ध किया था. वे मन से पवित्र थे, हृदय से सरल थे, बुद्धि से प्रखर थे और व्यवहार से मधुर थे. क्या सन्त और क्या गृहस्थ वे सबसे सहज स्नेह करते थे. उनके जीवन-कोष में कोई भी पराया न था, सब अपने थे. सबको प्यार करना, सबको प्रेम करना, जैसे उनका जीवन-व्रत ही था. नाम तो उनका पहले भी अनेक बार सुना था और वह भी इस रूप में कि मरुधरा के तेजस्वी आचार्य, परम श्रद्धेय जयमलजी महाराज के प्रतिनिधि के रूप में आज भी एक ज्योति अपना प्रकाश विकीर्ण कर रही है, जिसे लोग 'हजारी मलजी महाराज' के नाम से जानते, पहचानते, और मानते हैं. एक युग था, जब कि समग्र मरुभूमि पर पूज्य श्री जय मलजी महाराज का धर्म-शासन ही स्वीकार किया जाता था. उसी पावन परम्परा की विमल विभूति थे 'स्वामी जी महाराज'. इस विमल विभूति का प्रथम दर्शन मुझे ब्यावर में सन् १९५० में हुआ था. पूज्य कवि जी महाराज कुन्दनभवन में और स्वामीजी महाराज ठहरे थे स्थानक में. पूज्य उपाध्याय श्रीअमरचन्द्रजी महाराज श्रद्धय हजारीमलजी महाराज के दर्शनार्थ स्थानक में पधारे थे. तभी मैंने पहली बार उस विमल विभूति के पुनीत दर्शन किए थे. तब मैंने यह कहा था
'दूरेऽपि श्रुत्वा भवदीय-कीर्ति, कर्णो तृप्तौ न च चक्षुषी मे ! तयोविवाद परिहतुकामः समागतोऽहं तव दर्शनाय !!
पूज्य प्रवर ! दूर बैठे-बैठे, अपने कानों से आपका शुभ नाम तो सुना था. परन्तु जो कुछ सुना था, नेत्र उसपर इसलिए विश्वास नहीं करते थे, क्योंकि इन्होंने आपका पवित्र दर्शन नहीं किया था. आज आपका दर्शन पाकर मैं परम प्रसन्न हूँ. इसलिए कि मैंने जैसा सुना था, उससे भी अधिक सुन्दर रूप में आपको देखा है. आज आपको देखकर मैंने अपने श्रोत्र
और नेत्र के चिर विवाद को समाप्त कर दिया है. व्यावर वर्षावास में बोया गया स्नेह-बीज कुछ इस रूप में अंकुरित एवं पल्लवित हुआ कि वर्षावास के बाद भी पूज्य गुरुदेव की मेवाड़यात्रा में उनके साथ ही रहे और साथ ही ब्यावर वापस लौटे. भीनासर सम्मेलन में भी आपके दर्शन हुए. सम्मेलन से लौटते हुए नागौर से कुचेरा पूज्य अमरचन्द्र जी महाराज को आप ही ले गए थे. हमारा कुचेरा वर्षावास
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