Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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७६ : मुनि श्रीहजारीमलजी स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय जब हम इतिहास की गहराई में पैठ कर उसका पर्यालोचन करते हैं तो इस संत-परम्परा में ही एक अन्य और विशिष्ट परम्परा के दर्शन होते हैं, जो कि श्रमण परम्परा के नाम से जानी, मानी और पहचानी जाती है. इसमें जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं के भिक्षुओं का समावेश हो जाता है. जब जैन परम्परा के भिक्षुओं की जीवन-चर्या की ओर हम नजर दौड़ाते हैं तो हमें वहाँ बहुत ही कठिन-कठोर मर्यादाओं से आबद्ध जीवन के दर्शन होते हैं. इसीलिए जहाँ दूसरी परम्पराओं के सन्त केवल राजनीति में ही उलझ-पुलझ कर रह गए, वहाँ जैन भिक्षु एकांत आत्म-साधना का पथिक बन विचरण करता रहा. उसका क्षेत्र अध्यात्म-साधना रहा. यदि उसने जन-जीवन से सम्पर्क भी स्थापित किया तो वह भी आत्म-साधना के मार्गदर्शक के रूप में उसने भौतिक संसार की ओर नहीं, वरन् सच्चे आत्म-सुख और सच्ची शान्ति द्वारा प्राप्त होनेवाली मोक्ष की पगडंडी-की ओर जनमानस को उत्प्रेरित किया. उसने भुक्ति नहीं, मुक्ति की ओर मानव को अभिमुख रहने की सतत प्रेरणा प्रदान की. हमारे श्रद्धेय श्रीहजारीमल जी महाराज भी अध्यात्म-पथ के पथिक जैन भिक्षुओं की वर्तमान परम्परा में अपनी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर गये हैं. सन्तों के निधन पर शोकसंतप्त होना हमारी सांस्कृतिक परम्परा के अनुरूप नहीं है. सन्त का मरण तो मरण-महोत्सव है. सन्त इस दुनिया में रहता है तब भी अपनी साधना की मस्ती में मस्त रहता है और जब वह पार्थिव शरीर को छोड़ कर अगली दुनिया के लिये प्रयाण करता है, तब भी खुशी-खुशी आनन्द की लहरों में अपने लक्ष्य-बिन्दु को दृष्टि में रख कर जाता है. क्योंकि उसके मानस-सागर में अपनी साधना और कृतित्व के प्रति पूर्ण विश्वास और दृढ़ आस्था की वेगवती लहरें रहती हैं. ये लहरें उसे अनास्था और अविश्वास के कूडे-करकट की गंदगी से बचाए रखती हैं. यह उसकी मौत नहीं-जिसको कि मोह-पाश से आबद्ध यह सांसारिक प्राणी मौत समझने की भूल किया करता है वरन् लक्ष्यप्राप्ति की ओर एक बढ़ता हुआ लौह-चरण होता है. यह एक सर्वविदित तथ्य है कि जब मानव अपने अभीप्सित लक्ष्य की ओर आगे बढ़ चलता है तो वह प्रयाण उसके और उसके स्नेहियों के लिये एक खुशी का पैगाम होता है. श्रद्धेय श्रीहजारीमलजी म० भी इस नश्वर देह को छोड़ कर उस अनश्वर लक्ष्य की ओर एक कदम और आगे बढ़ गये. ऐसा हमें उनके प्रति दृढ़ विश्वास और आस्था होनी चाहिये. मानवजीवन का पुष्प इस संसार के उद्यान में पुष्पित होता हे और एक दिन मुरझा कर परिसमाप्ति की ओर बढ़ जाता है. फूल एक नन्हीं सी कलिका के रूप में खिलता है, महकता है और अपने आस-पास के वातावरण को सुगन्धित से भर-भर देता है. उसकी इस सुरभि से अपना कहा जानेवाला माली और उद्यान से बाहर की दुनिया भी परिचि हो जाती है. ऐसे ही कुछ विशिष्ट मानव भी उच्च श्रेणी में लाकर खड़ा कर देते हैं अपने आपको उनके जीवन-गुणों की सुगन्ध भी हर पास आने वाले, या दूर से ही गुजर जाने वाले के मन-मस्तिष्क को सुरभि से परिप्लावित किए बिना नहीं रहती. वह जन-जन के मन में आत्म-परिचय की छाप छोड़ जाता है. जीवन-सम्पादन का जीवित आदेश देते हुए एक उर्दू के शायर के शब्दों में यूं समझ लीजिए
"फूल बन कर महक, तुझको ज़माना जाने,
तेरी भीनी खुशबू को, अपना बेगाना जाने ! बस, यही जीवन जीने की कला है. जिसको हमारे श्रद्धेय श्रीहजारीमल जी महाराज ने प्राप्त किया था, भारतीय संस्कृति से विरासत के रूप में उन्होंने जीवन को जिया, खूब जिया बड़े ही कलात्मक ढंग से. वे इस संसारोद्यान के एक ही सुन्दर सुगन्धित पुष्प थे. जीवन-तरु की डाली पर रहे तब भी महक का अक्षय भंडार जन-हित के लिए मुक्तकर से लुटाते रहे और जब डाल से पृथक् हुए तब भी अपनी जीवन-दर्शन-सुरभि से सुवासित करते रहेंगे, जो कि आने वाली पीढ़ी के लिए गौरव की बात होगी. ऐसा मेरा उनके प्रति श्रद्धापूर्ण विश्वास है. उन्होंने कब और कहाँ जन्म लिया ? उनका शैशव कैसा बीता ? उनके माता-पिता कौन थे? उन्होंने किस जाति, कुल
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