Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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विभिन्न लेखक : संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ : ७५ से मंडराया करते हैं. किन्तु स्वामीजी महाराज इन तत्त्वों से सतर्क रहा करते थे. और जब भी साम्प्रदायिक मसला आता तो उनकी सरलात्मा उसे स्वीकार नहीं करती थी. वे नहीं चाहते थे साम्प्रदायिक मोह में घुटना, वे नहीं चाहते थे साम्प्रदायिक प्रतियोगिता में उतरना, वे नहीं चाहते थे बाह्याडम्बर द्वारा जनमानस को आकर्षित करना ! वे चाहते थे सबके साथ मिल-जुलकर रहना, एक-दूसरे के आत्मोत्थान में सहायक बनना, एक-दूसरे के गुणों से प्रेरणा लेना. यही कारण था कि जहाँ साम्प्रदायिकता-ग्रस्त साधु दूसरे सम्प्रदाय या उपसम्प्रदाय के साधु के विशिष्ट गुणों को प्रत्यक्ष देखते हुए भी ग्रहण करने से या उन्हें प्रतिष्ठा देने से हिचकिचाते, वहाँ स्वामीजी महाराज गुणग्राही थे. गुण प्रशंसक थे. 'गुणिषु प्रमोदम्' की भावना उन्होंने जीवन में चरितार्थ कर बताई थी. 'उनकी सरलता दिखाऊ नहीं थी.' प्रदर्शन करना तो उन्हें पसन्द ही न था. उनकी सरलता हृदय के आचरण से, नम्रवाचा से भी प्रकट होती थी. ऐसा मालूम होता है कि उनकी सरलता एवं गुणग्राहिता मानो गुरुभ्रातृयुगल, (ब्रजलालजी महाराज व मिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर') में प्रतिविम्बित हुई हो. काश ! स्थानकवामी सम्प्रदाय का जैन साधु वर्ग उन सरलात्मा का पथानुसरण करता.
श्रीउमेश मुनिजी श्रमण परम्परा के गौरव : श्रद्धेय मुनिहजारीमलजी हमारी गौरवशालिनी मातृभूमि सन्तों, मुनियों, ऋषियों और महात्माओं की तपोभूमि रही है. इसे मर्यादापुरुषोत्तम राम, महान् कर्मयोगी कृष्ण, महान् आत्म-साधक तथा आत्मवेत्ता श्रमण भगवान् महावीर और महात्मा गौतम बुद्ध जैसे मानव-रत्नों की अध्यात्म-क्रीड़ास्थली तथा आत्म-साधना भूमि होने का असाधारण गौरव प्राप्त है. इसे हम योगभूमि कहने में भी संकोच का अनुभव नहीं करेंगे. इसके कण-कण में आज भी सन्त-साधना का साक्षात्कार कराने की क्षमता है, यदि कोई इसे जाने, पहचाने और माने तो ! इतिहास इस बात का साक्षी है कि एक साधारण से साधारण गृहस्थ के द्वार से लेकर बड़े-से-बड़े सम्राटों के राज-प्रासादों ने सन्तों की चरण-धूलि से अपने आपको सौभाग्यशाली माना है. फलतः हमारी संस्कृति और सभ्यता पर उनकी अमिट छाप का पड़ना सहज स्वाभाविक था. इसीलिए विद्वज्जगत् में भारतीय-संस्कृति को सन्त संस्कृति के नाम से प्रसिद्ध होने का गौरव प्राप्त हुआ है. परिणामतः हमारी सांस्कृतिक परम्पराओं पर आज भी सन्तों की छाप अवशिष्ट है. एक समय था, जब भारत में सन्तों का प्रत्येक क्षेत्र पर वर्चस्व था. वह एक तरह से भारत का निर्माता और जनता का निर्देशक बनकर यहाँ के मैदानों में निःसंग भाव से इधर से उधर अर्थात् कश्मीर से कन्याकुमारी तक घूमा, और खूब घूमा ! भारतीय परम्परा के अनुसार सन्त-समाज घुमक्कड़ों का समाज रहा है जो एक प्रान्त की परम्पराओं को साथ जोड़ने में और राष्ट्र को एकरूपता प्रदान करने में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी का कार्य सम्पादित करता रहा है. इसीलिए वह भारतीय वाङ्मय में परिव्राट् या परिव्राजक के नाम से सम्बोधित किया गया है. प्रागैतिहासिक काल पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो वहाँ भी हमें साधारण गृहस्थ की समस्याओं से लेकर बड़ी-बड़ी राजनीतिक उलझाने को सुलझाने में सन्त-परम्परा एक बहुत ही शानदार पार्ट अदा करती हुई नजर आती है. उस समय सन्तों ने राजनीति में भी प्रवेश किया, परन्तु तटस्थ भाव से, तथा जन-हित और जन-कल्याण के भाव-लहरी को हृदय में संजोकर. वह किसी निजी स्वार्थ या राजसत्ता के प्रलोभन से खिचकर इधर नहीं आया, वरन् जनता-जनार्दन की सेवा का ही मुख्य लक्ष्य था-उसका लक्ष्यबिंदु था पथ-भ्रष्ट मानव को सही मार्गदर्शन कराना, उसके जीवन का दिग्भ्रम मिटा कर सही दिशा-निर्देश करना. इस रूप में वह सच्चे अर्थ में एक पथ-प्रदर्शक था, गाइड था, हर दिशा और हर क्षेत्र का.
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