Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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विभिन्न लेखक : संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ : ७३
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साधना इतनी ऊँची थी कि उनके मधुर व्यवहारों से छोटे सन्तों के हृदय में सहज आत्मिक भाव जाग उठता था. छोटे सन्तों से वे मिलते, उनकी समस्याएँ समझते और उन्हें योग्य मार्ग अपनाने का दिशासंकेत करते. उनसे श्वेताम्बर, दिगम्बर, तेरापंथी. बीसपंथी आदि जैनधर्म की शाखाओं के सन्त तो मिलते-जुलते ही, परन्तु कबीरपन्थी या दादूपन्थी, जो मिलता वह उनका अनुरागी बन जाता, क्योंकि वे समन्वयवादी विचारधारा के संपोषक थे. यही कारण है कि नागौर, कुचेरा, खजवाना, रूण आदि के आसपास के छोटे-बड़े सभी गांवों में जैनेतरों के द्वारा भी जैनों के समान ही उनका सर्वत्र स्वागत सत्कार और सम्मान होता था. अपने आस-पास श्रावक, श्राविकाओं का जमघट होना उन्हें पसन्द नहीं था. वे सदा उन्मुक्त वातावरण में रहना ही पसंद करते थे श्रमण-जीवन का मौलिक प्रेरक सूत्र उनके जीवन में साकार हो उठा था. “काले कालं समायरे" यह उनके जीवन का अत्यधिक प्रिय मंत्र रहा है. उनके मन में यदा-कदा एकान्तवास का संकल्प आता तो वे हमें कहा करते–स्वाध्याय करते समय जब मैं गुणशील उद्यान, श्रीवन उद्यान आदि में ठहरे हुए श्रमण-निग्रंथों के जीवन की झलक पाता हूँ तो मेरा मन अतीत के श्रमण-जीवन की परिकल्पना में ऐसा निमग्न हो जाता है कि मानो थोड़ी देर के लिए सहज समाधि में लीन हो गया हूँ. विहार करते समय जब वे जंगल में ठहरते तो अपूर्व शान्ति एवं समाधि का अनुभव करते थे. उन्होंने अनेक बार कहा था-मैं चाहता हूँ मेरा अंतिम जीवन एकान्त शान्त वातावरण में बीते,स्वामी जी म०की यह भावना साकार हो कर ही रही.उनका स्वर्गगमन एक छोटे-से ग्राम (नोखा चंदावतों का, मेड़ता, मारवाड़) में ही हुआ. इस प्रकार स्वामी जी म० अपने सुदीर्घ श्रमण-जीवन में अनेक साधकों की प्रगति के प्रेरणास्रोत रहे. प्रगतिवादी विचारधारा की अमूल्य निधि हमें सौंप गये. मेरे श्रमण-जीवन के धाता-विधाता आदि से अन्त तक स्वामी जी महाराज थे. अत: परम श्रद्धेय उन विद्यानुरागी गुरु प्रवर के प्रति मेरा मस्तक नत है. युग-युग तक नत रहेगा.
श्रीसुरेशमुनिजी महाराज
शास्त्री, साहित्यरत्न
मधुर मिलन : मधुर स्मृति जीवन की डगर पर चलता हुआ यात्री अनेक व्यक्तियों से साक्षात्कार करता है. उनमें कुछ व्यक्तित्व तो ऐसे होते हैं, जो सिनेमा की तस्वीर की तरह सामने आते हैं और चले जाते हैं ! उनके मिलन में कुछ स्थायित्व नहीं होता. किन्तु कुछ व्यक्तित्व ऐसे उजागर होते हैं, जो अपनी एक ही झलक से, मन को मुग्ध कर जाते हैं, अन्तर में गहरे उतर जाते हैं और मानस-पटल पर अपनी तेजोमय स्मृति की ऐसी रेखाएँ छोड़ जाते हैं, जो मिटाये नहीं मिटती, भुलाये नहीं भूलतीं. बात पुरानी है. सन् १९५० की समझिए ! उपाध्याय कविरत्न श्रीअमरचन्दजी महाराज का वर्षावास ब्यावर में था. ब्यावर के संघ में उन दिनों साम्प्रदायिक तनाव अपने यौवन पर था. सन्तों में भी और गृहस्थों में भी. एक ओर पूज्य जवाहरलालजी महाराज के सम्प्रदाय वालों का ज़ोर-शोर, दूसरी ओर श्रीचौथमलजी महाराज की मान्यता वालों का बोलबाला और तीसरी ओर स्थानक वाला पक्ष यानी पूज्य जयमलजी महाराज की परम्परा वालों की लहर-बहर. इस साम्प्रदायिक तनाव-खिचाव के विष को कम करने के लिए ही, अखिल भारतीय एस० एस० जैन कान्फरेन्स के कुछ प्रमुख तत्त्वों तथा ब्यावर के समूचे संघ के सामूहिक अनुरोध-आग्रह पर ही, कविश्री का वर्षावास ब्यावर में स्वीकार
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