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श्रात्मतत्व-विचार
यह जानते हैं न ? जो गृहस्थ अपने पोष्य वर्ग को 'धर्म' का उपदेश नहीं देता, वह अपना सच्चा फर्ज नहीं बजाता ।
'आत्मा हैं', यह मानने से ही आपका काम पूरा नहीं हो जाता । यह तो पाव मे पहली पौनी है । कोई आदमी बम्बई आया, पर यदि उसके किसी विभाग से परिचित न हो तो आजादी से हिरफिर नहीं सकता, न उसका आनन्द ले सकता है । उसी तरह जो सिर्फ यह जाने कि 'आत्मा है', पर उसके स्वरूप को न जाने, या उसके गुणो से परिचित न हो, वे आत्मा के गुणो का विकास किस तरह कर सकते है ? आत्मसुख का सच्चा आस्वादन किस प्रकार कर सकते है ? इसलिए आत्मा का स्वरूप विशेष प्रकार से समझने की आवश्यकता है ।
आप 'मैं' यानी 'मेरी देह' ऐसा समझकर व्यवहार चलाते है और उसके सिंचन - रंजन में लगे रहते हैं । इस वजह से आपको न तो किसी तत्त्वविचारणा का स्फुरण होता है और न धर्माराधन की फुरसत मिलती है : लेकिन, इस तरह जीवनयापन करनेवाले का क्या हाल होता है, यह देखिये । महेश्वरदत्त की कथा
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विजयपुर - नामक एक वडा नगर था । उसमे महेश्वरदत्त नाम का एक क्षत्रिय रहता था । उसकी पत्नी का नाम गागिला था । इस महेश्वरदत्त के माता-पिता वृद्ध हो गये थे और ऐसी परिस्थिति में थे कि अगर चाहते तो सारा समय ईश्वर भक्ति में, धर्म-व्यान में गुजार सकते थे, लेकिन उसमे उनका चित्त जरा भी नहीं लगता था । जिन्होने सारी जिन्दगी मसार के व्यवहारों में ही गुजारी हो, उनको ईश्वर भक्ति या धर्म-व्यान कहॉ से सूझे ? किसी दिन साधु सन्त के पास जाते हो, व्याख्यान वाणी सुनते हो और कुछ व्रत नियम पालन करते हो, तो बडी उम्र में उनमें विशेष रस उत्पन्न हो और अपना जीवन सुधार सके, लेकिन वे किसी दिन साधुसन्तो का सग नहीं करते थे - वे भले और उनका व्यवहार भला !