Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
नमो त्यु णं समणस्स भगवओ णायपुत्त-महावीरस्स श्रीमत्सूत्रकृताङ्गसूत्रस्य षष्ठोऽध्यायः
वीरस्तुतिः
श्रीमत्सुधर्माचार्येण गणधरभगवता प्रणीता
श्रीमज्ज्ञातृपुत्रमहावीरजैनसङ्घानुगामिनो हि खर्गीयश्रीमन्महर्षिफकीरचन्द्रजिन्महाराजाधिराजस्य चरणान्तेवासिना पुष्पभिक्षुणा-प्रणीतया संस्कृतहिन्दीभाषान्तर
समुल्लसितया विवृत्या सनाथीकृता
कलकत्तानिवासिना क्षेमचन्द्रश्रावकेण गुर्जरभाषया समलंकृता
साच पाञ्चालदेशान्तर्गतपाटोदीनगरे ज्ञातपुत्रमहावीरजैनसद्धेन प्राकाश्यं नीता
२४६६ वीराब्दे, १९९६ विक्रमसवति, शके १८६१ वत्सरे,
सन १९३९ ई., धनसाहाय्यकर्ता लालामनोहरलाल जैनः कानपुरीयः
मूल्यम् ३) रूप्यकम्
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
Published by Gyatputra Mahavira Jāin Saņgh,
Pataudi (Punjab.)
Printed by Ramchandra Yesu Shedge, Nirnaya Sagar Press
26-28 Kolbhat Street, Bombay.
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
44
314 जिनकी कृपासे मेरे मनकी चंचलता नष्ट हुई है, जिनके सदुपदेशसे मेरे अन्तःकरणमें शान्तिका सञ्चार हुआ, जिनके अद्भुत चरित्रयोगसे मुझे सम्प्रदायवादके बन्धन तोडनेका निश्चय मिला, जिनके बोधवचनोंसे अखंड आत्मसुखका मार्ग प्राप्त हुआ तथा जिनकी आज्ञासे इस ग्रन्थके लिखनेका अवसर मिला, जिनके अपार अनुग्रह वात्सल्य एवं उत्साहदानद्वारा मेरी लेखनकलाकी ओर प्रवृत्ति हुई हैं तथा जिनका आश्रय मेरे लिये कल्पवृक्षके समान अभीष्ट फलदायक होता रहा ह उन अध्यात्मशास्त्र प्रेमी, अप्रतिवद्ध विहारैकवती, निष्काम परोपकारी, शांतमुद्रा, महर्षिप्रवर, गुरुवर्य श्रीशातपुत्र-महावीर जैन संघानुयायी श्री १०८ स्वर्गीय श्रीमजैनमुनि फकीरचंद्रजी महाराजाधिराजकी पवित्र स्मृतिमें अन्तःकरणकी विशुद्ध भक्तिपूर्वक वीरस्तुतिकी विवृति और हिन्दीभापान्तर सादर समर्पित है। पुनश्च
जिनके उदारहृदयमें अनन्य समता है, स्याद्वादसिद्धान्तका उज्वल पांडित्य है, जिनकी वाणी चन्दनसे भी अधिक शीतल है और वह मानव संसारके मनस्तापको एक दम मिटाती है, जिन्हें इष्ट और अनिष्ट पुद्गल समूहमें कभी मानसिक विचार नहीं हो पाता, जिन्हें बाह्याडम्बरसे सोलहों आने घृणा रहती है, जिनमें अहमहमिका क्रियाका नितान्त अभाव है, परहितसाधनमें जिनकी शुभप्रवृत्ति सतत जागृत है, बाडाबंदी-पक्षवाद-सम्प्रदायवादटोलावाद-गच्छवादकी दिवारोंको तोडकर तथा स्व-परका भेदभाव मिटाकर जिन्होंने स्वतन्त्रताका अध्यात्म मार्ग पकडा है, जो देश समाज जाति और धर्म हित अपने प्राणोंकी चाज़ी लगा देते हैं, इसके अतिरिक्त जिनमें और भी गाम्भीर्य-शौर्यधैर्यादि अनेक गुण हैं । ज्ञातपुत्र महावीर प्रभुके उन २००० साधु साध्वियोंके कर कमलोंमें वीरस्तुति प्रेम और भक्तिपूर्वक सादर समर्पित है।
ज्ञातपुत्र महावीर जैन संघका लघुतम
. पुप्फ भिक्खु
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रार्थना ' ज्ञातनन्दन सिद्धार्थकुलकिरीट महावीर भगवान्के प्रतिपाद्य धर्मके ११ अंग इस समय भी विद्यमान हैं, उनमें सूत्रकृताङ्ग नाम सूत्र दूसरा अंग सूत्र है, जिसके दो श्रुतस्कन्ध हैं, और उसके पहले श्रुतस्कन्धका छठवाँ अध्याय इस ग्रन्थकी मौलिकवस्तु यह वीरस्तुति है।
और यह सूत्र कालिकसूत्र है, इसका खाध्यायः ३२ *अखाध्याय त्याग कर दिन और रातके पहले और चौथे पहरमें खाध्याय होता है। इस अध्यायका मूल पाठतो अव तक कई पुस्तकोंमें छपकर प्रसिद्ध हो चुका है एवं मूल शब्दार्थ और भावार्थ सहित भी गत वर्षों में कई स्थानोंसे प्रकाशित हुआ है। परन्तु मैने वीरस्तुतिकी टीका और भाषा टीका अनेक प्रन्थोंका सन्दोहन
* वत्तीस अखाध्याय-चार सध्या [ प्रातः काल १, मध्यान्हकाल २, सध्याकाल ३, मध्यरात्रि ४, ] ओंके समय, चार महोत्सव, चार महा प्रतिपदायें, [चैत्र शुक्ला १५, वदी १, आषाढ शुक्ला १५, वदी १, आश्विन शुक्ला १५, वदी १, कार्तिक शुक्ला १५, वदी प्रतिपदा, १२,] औदारिक शरीर सम्बन्धी १० अखाध्याय [अस्थि-१३, मांस १४, रुधिर १५, पडी हुई अशुचि १६, समीप वर्ति प्रज्वलित श्मसान १७, चन्द्र ग्रहण १८, सूर्यग्रहण १९, ग्राम-शहर का राजा-सेनापति-देशनायक-नगरशेठका मरण २०, राज्य संग्राम २१, धर्मस्थानमें मनुष्य २२ और त्तिर्यच पचेन्द्रियका कलेवर २३,] आकाश सम्बन्धी १० अखाध्याय [ उल्कापात २४, दिशाओंके लाल होनेके समय २५, अकाल गर्जना २६, विजली चमकते समय २७, निर्घात-मेघ के समान गर्जना जैसी व्यन्तरकृत ध्वनिविशेष २८, यूपक-शुकृपक्षकी एकम-दोज और तीजके दिनका सान्ध्यसमय २९, यथालिप्त-अमुक अमुक दिशाओंमें आन्तर आन्तर पर विजली जैसा प्रकाश होते समय ३०, धूमिका-धुवाँ बरसते समय ३१, महिका-गर्ममासमें पड़नेवाली धुंध-कोहरा ३२,] रजोवृष्टि-रज-धूलकी वर्षा तथा शरीरमेंसे रुधिर और खून निकलते समय सूत्रोंके वाचनके प्रतिवन्ध कालमें अखाध्याय जानना योग्य है। इन नियमोंके भंग करने वालेके लिये दंड-प्रायश्चित्त-आदि शिक्षा 'निशीथसूत्रके उन्नीसवें अध्यायसे जानना चाहिये ।
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
करके निर्माण की है। इस परिस्थिति में मेरे अन्तेवासी सुमित्त भिक्खु ने यथा संभव इस पुस्तकके प्रुफ देखकर सहायता की है अतः इसका नाम लिखते समय मुझे प्रसन्नता होती है • इस पुस्तकमें अज्ञताके कारण यदि कहीं भूल होगई है तथा सूत्रसिद्धान्तसे विरुद्ध कुछसे कुछ लिख गया हू तो उसका निखालिस हृदयसे "मिथ्या दुष्कृतम्"
वीरस्तुतिके अभ्यासिओ! इसे भावशुद्धि पूर्वक पढिये, पठन और मनन के द्वारा ज्ञातपुत्र महावीर प्रभुके समान बनिये, एवं अपने हृदयसे पुरानी रूढियें एवं पक्षवाद-टोलावाद-सम्प्रदायवाद-गच्छवाद-पार्टीवाजी और मतभेदका कालापाप निकाल डालिये, और समदृष्टि बनकर भारतके दासत्वको दूर कीजिये जगतको भूखेमरनेसे बचाइये, अपने धर्मगुरुओंको राग-द्वेष ईर्ष्या एवं मत्सरताके कीचडसे निकालिये, समाजमें सच्चरित्रता और पारस्परिक सहानुभूति पैदा करनेका प्राण सञ्चार कीजिये, मेरी अन्तिम भावना यही है।
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना
काव्यं चैतदमूल्यमप्यनुपमं शब्दार्थरत्नाकर, श्रीवीरस्तुतिनामतोऽतिप्रथितं पुच्छिस्सुणस्याऽपि च । श्रीमत्सूत्रकृतासूत्रकरसाध्यायस्थसारात्मकं, यनित्यं प्रपठन्ति श्रावकगणाः साधूत्तमाः सादरम् ॥ कण्ठेनैव मुमुक्षवश्च पठनं कुर्वन्ति यस्यानिशं, एवं जैनसमाजकेऽपि निरता खाध्यायमस्य प्रियम् । पाठं चास्य महत्प्रियाप्रियतरं कुर्वन्ति प्रेमान्विता, जातं संस्करणं पवित्रजननं यस्याडप्यनेक मुहुः ।। यत्राऽनन्तदयाकरस्य निखिलं सामर्थ्यसवर्णनं, तम्बाल्पजमनुष्यजस्य नितरां शतश्च वाद्यं भवेत् । आचार्येण सुधर्मणा विरचितं यद्वै कृते योगिनां, योग्यं प्रोक्तमिदं विचार्य सुधियां मोदप्रमोदार्थिनाम् ॥ काव्येऽस्मिन्पुनरुक्तिरस्ति मुनिभिर्नोद्भावनीया क्वचिदृष्ट्याऽध्येतृगणस्यपाठकरणाच्छब्दार्थसौरवात् । श्रीमद्देवगणस्य वाक्यतुलना तादात्म्यदृष्ट्यात्मकात्सत्यासत्यविचारचारुनयनात्सम्पूर्णतत्वं महत् ।। सर्वाङ्गस्य रहस्यवोधजनने स्पष्टं भवेद्वोधनं, श्रीमद्धर्ममयस्य श्रीगणधराचार्यस्य कश्चाशयः। प्रत्येकार्थगतं कियत्कतिविधं भिन्नं तथा प्रस्फुटं, सर्व काव्यगतं समस्तविषयो विज्ञानरूपात्मकम् ॥ आचार्येण सुधर्मणा रसयुते काव्येऽत्र शिष्याय च, स्वान्तःस्थाय च जम्बुदेवमुनये यद्दर्शितं प्रेमतः । ज्ञानं शासननायकत्वमखिलं तीर्थकरत्वं तथा, अन्त्यं श्रेष्ठतमत्वमेव जगतामुद्धारकत्वं पुनः॥ श्रीयोगीन्द्रशिखामणेभंगवतो वीरस्य ज्ञान तथा, चारित्रं खल दर्शनं च बहुधा खाध्यायनानं मुहुः । सुस्पष्टं च निदर्शितं प्रविततं केन प्रकारेण च, तद्वत्तद्गुणसाम्यमेवमखिलब्रह्माण्डमाण्डोदरे ॥ खाध्यायं प्रतिप्रेमिणां च महता सम्भावुकानों पुरः, श्रीमछ्रीगणदेवनायकवराणा सुन्दरं चोत्तमम् । सनित्यं हितकारकाशययुतं तेनैव साकं तथा, अध्यात्म्याख्यरसान्वितागतमहाचार्यामराणामलम् ॥ एवं कोविदकाव्यकौशलयुजा समृह्य सर्वाशयं, टीकायां सुसमन्वितं प्रविततं कृत्वाऽत्र सन्दर्शितम् । जैनानां च नृणा तदन्यविदुषां स्थानं प्रदत्तं पुनः, शास्त्राणा निखिलं समन्वयमदोऽमेदेन शश्वत्कृतम् ॥ अयं निर्विवादः स्वयं सिद्धरूपः, समस्तस्य काव्यस्य मूलं शिखेति । द्वयं सितमध्यात्मतत्वाम्भसा च, कुतो श्राजते गाणपत्यापदेन ॥ महा सुप्रभावस्य तेजोमयस्य, सुधर्माख्यदेवस्य चेकतिब्ध । नरो जीवने खस्य चात्मोपरि ष्टात्प्रभावस्य संस्थापनार्थ प्रयासाद् तथा:ध्यात्मतत्वोत्तमं पाठमेवं, सदा सम्प्रयष्टुं तथाऽभ्यासकार्थम् । मुदा तस्य तत्वार्थ
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
भावार्थकस्य, प्रबोधार्थमत्यन्तमावश्यकत्वम् । अतोऽप्यस्य मूलांशयं सम्प्रचार्य, बृहत्स्तुत्यमेतत्तथाऽध्यात्मपूर्णम् । शुभाऽध्यायजस्य यथा बुद्धिशक्तिः, समस्त यथार्थानुभावं च ज्ञात्वा ॥ सुसंस्कारशब्देन वा भाषया च, समृद्धं कृतं तस्य मुल्योऽस्ति हेतुः । तथा मातृभाषानिवद्धं प्रसिद्धं, जनानामनेकार्थतत्वप्रदीपम् ॥ तथा ज्ञापनार्थं च भावस्य तस्य, ऋजुर्वा मृदुर्वाऽस्य भाषानुवादः। तदाऽऽवश्यकत्वं च तस्यैव भावं, मृदुत्वं प्रगृह्य स्फुटं भासते च ॥ गुर्जरे चानुवादोऽस्य कालीयकत्तानिवासेन क्षेमेन्दुनाऽस्य प्रकाश.। कृतः श्रावकेणाथ तस्यैव तत्व, तथा सुप्रसिद्धोऽनुवादः खतन्त्रः ॥ कदाचिजनानां निपुटदलवृन्दे च जनता, प्रसक्तानामेवं यदि सदुपयोगच भवति। सदैतद्भावेन विबुधजनसेवासु निरतः, प्रकाशं सर्वत्राऽखिलविशदवोधाय कृतवान् ॥ पवित्रोऽयं पाठो बहुरुचिकरो मेऽस्ति मनसा, करोमि स्वाध्यायं मननपरिपूर्णेन सुखतः । महानन्दखादो भवति करणाचास्य सततं, सुलब्धं सौभाग्यं प्रतिदिनवितृष्णो विरमति ॥ मुमुक्षूणां चित्ते सुखरससुशान्ति वितनुते, मुहुर्जिज्ञासा नो बहुविधमलं चास्य विकृतिः। तदा जाता भावाखिलमतिसुपूर्तिर्निगदिता, सदैव ज्ञातव्यं यतिमुनिगणैर्मुक्तिनिलयैः॥ यदाऽऽवश्यकत्वेन यस्याऽस्ति पूर्तिः, प्रजाता च संस्कारतोऽनेकवारम् । समर्थश्व सर्वागतो लब्धमेतत्तदाऽस्योत्तर पत्रमेतद्ददातु ॥ अथो पाठकाना बनाना च व्यक्तं, तथा वाचकोपर्य्यतो मुक्तमेतत् । ममाऽस्य प्रलेखेन वा ज्ञापनेन, न वाऽऽवश्यकत्वं न वा कारणत्वम् ॥ यदा पीयते चामृतं खादवद्भिस्तदा नोच्यतेऽमर्त्यता मेऽस्ति कीहक् । सुमिष्टं च तिकं मदीय कियद्वा, प्रसिद्धं हि लोके रसाखादुकत्वम् ॥ मुदा वर्णनं तस्य जिह्वा करोति, खयं वर्णनस्यातिसेतुं विधत्ते । मया न्यायमार्गानुरोधेन चैव, खकीयायसी लेखनी स्थाप्यतेऽत्र ।
भावार्थ-यह काव्य श्रीमत्सूत्रकृताङ्गसूत्रके छठवें अध्यायकी अनुपम और मौलिक वस्तु है. और 'वीरस्तुति' या 'पुच्छिस्सुणं' के नामसे अतिप्रख्यात है। बहुतसे जैनवन्धुओंको तो यह मुखस्थ होती है, अनेक जिज्ञासु महानुभाव इसका प्रातःसायं व्यवधान रहित नित्य पाठ करते हैं, और जैन समाजमें यह पवित्र पाठ इतना अधिक प्रिय है कि इसके कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।
प्रभुके अनन्तसामर्थ्यका वर्णन करना तो मानो छमस्थ-मानुषी शक्तिके वाहर है, और इस विषयके वर्णनकरनेमें श्रीमान् सुधर्माचार्य जैसे 'महान् ज्योतिर्धर और परम योगीको ही योग्य अधिकारी समझा गया है।
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
''अपलक दृष्टिसे खाध्यायकरनेपर/पाठकोंको इस काव्यमें कई स्थलोंपर कुछ पुनरुक्किएँ भी प्रतीत होंगी, परन्तु प्रत्येक शब्द और शब्द-खामी गणधरन देवके वाक्यका तुलनात्मकदृष्टिसे मनन करनेपर तत्वका सम्पूर्ण और सर्वाङ्ग रहस्य इस प्रकार सरलतासे समझमें आता है कि गणधरभगवान्का मुख्य आशय प्रत्येक शब्द और अर्थमें कितना भिन्न और स्पष्ट है। " :
इस काव्यमें भगवान् सुधर्माचार्य अपने अन्तेवासी शिष्य जम्बूको यह बताते हैं कि शासननायक-चरमतीर्थङ्कर-जगदुद्धारक-श्रीमहावीरयोगीन्द्रचूडामणिके ज्ञान दर्शन और चरित्र आदि गुण किस प्रकारके थे, उन गुणोंकी तुलना जगत् मेरकी सर्वोत्तम सारभूत वस्तुओंके साथ करके प्रभुका महत्व बताया गया है । ' खाध्यायप्रेमी महानुभावोंके सन्मुख श्रीमद्गणधरोंके परमसुन्दर और हितरूप आशयके साथ मिलते जुलते भाव तथा अन्यान्य अध्यात्मरसिक आचार्य और कविकोविदोंके आशयोंका भी इस विवृतिमें समन्वय किया है और जिसमें जैन तथा जैनेतर अन्योंको स्थान देते समय किसी प्रकारका भेद नहीं रक्खा है।
यह निर्विवाद और अपने आप सिद्ध है कि इस काव्यका मूल और शिखा दोनों ही अध्यात्मरसमें परिसिन्चित हैं क्योंकि गणघरपदविराजित महान प्रभावशाली श्रीसुधर्माचार्य भगवान्की तो यह कृति है, और मनुष्यमा त्रको अपने जीवन में अपने आत्माके ऊपर अध्यात्मविषयक प्रभाव डालनेके लिये इस प्रकारके उत्तमोत्तम पाठोंको सदैव बोलते रहनेका अभ्यास रखनेकी तथा उसके तत्वमयभावार्थको समझनेकी भी अत्यन्त आवश्यकता है, अतः इसी मूल भाशयको लेकर इस महान् एवं स्तुत्य अध्यायको यथामति यथाशक्ति एवं यथानुभव संस्कृतविकृति तथा भाषानुवादसे समृद्ध किया है। इसका एक मुख्यकारण यह भी है कि हमें भगवान् महावीर प्रभुकी देन है और उसे उनके तत्वको संसारके कोने कोने तक पहुंचाकर ही पूरा किया जा सकता है। और मातृभाषामें सर्वसाधारण जनताको तत्ववोध और उसका अन्तर्भाव समशानेकेलिये उसके सरलातिसरल भाषान्तरकी भी बड़ी आवश्यकता है। इन्हीं भावोंको लेकर इसका गुर्जर-अनुवाद भी कलकत्ता निवासी श्रीक्षेमचंद श्रावकसे कराया है, और उन्होंने भी इसका गुर्जरगिरामें खतन्त्र अनुवाद किया है। यदि कदाचित यह निपुटी जैनसमाज तथा प्राणीमानके लिए शुद्ध उपयोगी हो
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
सके इस भावसे प्रेरित होकर इसका प्रकाशन किया है। मुझे तो इसके प्रतिसमयके खाध्याय और पाठसे भरपूर शातिसुधाधाराका अव्यवच्छिन्नरूपसे आखादन करनेका पूर्ण सौभाग्य मिल रहा है। अतः मुझे पूर्ण आशा है कि अन्यान्य मुमुक्षुमहानुभावोंको भी इसके निरन्तर पाठ तथा मननात्मक खाध्यायसे अवश्य शान्तरसकी प्राप्ति होगी। यद्यपि इसकी कई आवृत्तिएँ निकलकर प्रकाशित हो चुकी हैं परन्तु यह संस्करण जिस आवश्यकताकी पूर्ति में सर्वाङ्ग सफल हुआ है इसका उत्तर पाठकगणोंके ऊपर ही छोड दिया जाता है, कहने सुनने और लिखनेकी आवश्यकता नहीं है। कारण यह है कि जिस समय अमृतका पान किया जाता है उस समय वह जनताको यह नहीं कहता है कि मेरा खाद कैसा है? उसका वर्णनतो जिह्वा स्वयं करने लगती है तथा उसकी प्रशंसाके पुल बाघ देती है। अत: इस न्यायको लक्ष्यमें रखकर इस लोहलेखनीको विराम देता हूं।
लघुतम'पुप्फ भिक्खु.
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहायक
वीरस्तुतिकी विकृतिके अर्थ जिन जिन पुस्तकों का अवलोकन करके अपने अनुमवानुसार जिन जिनके प्रमाण असित किये हैं उनका नामोल्लेख इस प्रकार है। __ व्याख्यामशप्ति-आचाराग-विशेपावश्यकभाष्य-धन्यकुमारचरित-समवायानसूत्रविवृतिसूयगढांगसत्त-शब्दाधचिन्तामणि-अमरकोष-कुलार्णव-मेदिनी-धनञ्जयनाममाला-धनञ्जयजोश शब्दस्तोममहानिधि-वर्णनिर्णय-वर्णसारसमुच्चय-उत्तराध्ययनसूत्र दशवकालिकसूत्र, मार्कण्डेयपुराण-सुमापितरलसन्दोह-तत्वार्याधिगम-मनुस्मृति-वृहसव्यसंग्रह-परमात्माप्रकाश-याशवल्यस्मृति-स्थानागसूत्र-अमितगतिश्रावकाचार-समयसार-प्रवचनसार-नियमसार-योगशास्त्र-पतचलियोगदर्शन-महारानित्यपाठ-सागारधर्मामृत-पद्यमयपार्श्वनाथचरित्रअभिधानम्पदीपिका-महाभारत-शानार्णव-आवश्यकचूर्णि-जैनप्रकाशकाग्त्यानअक-परिशिष्टपर्व वात्स्यायनसूत्रशुद्धचर्या-मज्झिमनिकाय-पुरुषार्थसिम्युपाय-रलकरण्डश्रावकाचार-धवलसिद्धान्तमूलाचार-आवश्यकभाष्य-प्रशापनासूत्र-प्रवचनसारोद्धार-भगवती आराधनासार स्तोत्रममुच्चय-स्तोत्ररलाकर-काव्यमाला.
इन सब पुस्तकोंके सुलेखक एव अनुवादकोंका एक साथीदारोंके नावेसे इनके साथको में कमी नहीं भूल सकता। तदुपरान्त प्रत्यक्ष या परोक्षमें जिन जिन महानुभाचोंने प्रोत्साहन प्रेरित किया है उन सवका उल्लेख करना भला में क्योंकर विस्मृत करसकू?
विवृतिकारः
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
निदर्शन उपासकके अन्तरमें भक्तिभावका मोघ उछलने लगता है तव स्तोत्र या स्तुतिका साहित्य-सर्जन होता है, इस प्रकारकी भारतीमें कई वार अमूल्य रत्न बहकर निकल आते हैं। विवेचक इन रत्नोंका मूल्य आकने एवं समझनकेलिये लम्बे चौडे भाष्य और टीकाएँ बनाते हैं। जैन साहित्यमें तीर्थंकर भगवान्की स्तुतिओंका साहित्य पुष्कळ प्रमाणमें पाया जाता है। यहा तक तो है कि अन्य कोई दर्शन उसकी बरावरी नहीं करसकता, यह कहदें तो कोई अत्युक्ति न होगी। समर्थ नैयायिक और वैयाकरणी भी काव्यसाहित्यमें जो कुछ अपनी प्रतिमा उंडेलनेको उद्यत हुये हैं तो वह भी स्तुतिसाहित्यका ही प्रताप है। आमका वृक्ष फलोंसे लदा हो, मञ्जरी महकती हो और वसन्तका वायु चलता हो तो कोयल परवश होकर भला पंचमखर निकाले विना क्योंकर रह सकेगी? इसी प्रकार न्याय-दर्शन-व्याकरण या अन्यान्य कठिनसे कठिन शास्त्रोंमें पारंगत समझे जानेवाले पुरुषोंके अन्तरमे किसी समर्थपुरुषके प्रति भक्तिभाव जागृति हो तो वे स्तुतिके साहित्यकी उपेक्षा कभी न कर सकेंगे । चन्द्रदर्शनसे उभरकर वढनेवाले महासागरकी भाति अन्तर भी भक्तिसे सक्षुब्ध बन जाता है। परन्तु परमपुरुषकी स्तुतिओंमें केवल काव्य अथवा साहित्यका ही अश हो यह मान्यता युक्तिसंगत नहीं है। स्तुतिका रचयिता उस समय जव कि कविका आसन स्वीकार करता है परन्तु अपनी विशिष्टताको नहीं छोडता। इसीलिये कि स्तुतिओंके साहित्यम तत्वज्ञान अध्यात्म झलक और बुद्धिचातुर्यके अत्यद्भुत अंश उसे उस समय भी प्राप्त होते हैं। • समग्र आगम-सग्रहके उपोद्घातके समान गिने जानेवाले नन्दीसूत्रमे श्रीदेव वाचक क्षमाश्रमणने मगलाचरणके रूपमें जो गाथायें ग्रंथन की हैं उसमें मूलमें तो श्रमण भगवान महावीर प्रभुकी स्तुतिका ही प्राधान्य है परन्तु उसमें इतना अधिक गम्भीर अर्थ है कि आचार्यमलयागिरि रचित संस्कृत टीकारूप तालिकाको समझे विना उस स्तुतिके गंभीर अर्थकी कल्पना शायद ही किसीकी समझमें आयगी। • श्रीमलयगिरिने स्तुतिके लोकोंकी व्याख्या करते समय आप्तवाद-स्याद्वाद
आत्मवाद-प्रमाणवाद जैसे तत्वज्ञान सम्बन्धी अनेक सिद्धान्तोंको स्पष्ट कर दिखाया है।
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
किया शुद्धतापूर्वक साहरूप शिष्टालाका भी विचार
इसी प्रकार महाकवि धनपालने भी महावीर स्तुति संस्कृतमें रची है। परन्तु उसमें विरोधाभासके अलंकारोका ऐसा संग्रह किया है कि कोई भी रसिक आत्मा उसके रसास्वादनसे पुलकित हुये विना न रहसकेगा। __ आशय यह है कि स्तोत्रके या स्तवनके साहित्यमे कवित्वके उपरान्त अलं, कार और तत्वज्ञानके असंख्य विषयोंके समाविष्ट करनेका एक कालमें रिवाज था। और जो श्रीसूत्रकृतामसूत्रके छठवें अध्यायमें समाई हुई वीरस्तुतिको विचारपूर्वक पढेगा, अवधारण करेगा उसे उसमेंसे उपासनाके रस-आनन्दके उपरांत प्रभु महावीरके यथार्थखरूपका भी विचार सहजमें आ सकेगा। .
प्रकृति के इस प्रवाहरूप शिष्ठाचारात्मक नियमानुसार मुनिश्रीने भी यथासम्भव शुद्धतापूर्वक संस्कृतवाणीमे टीका रचकर इस स्तुतिके मूलले साथ प्रकट किया है, और जैनसाहित्यकी, जैनउपासकोंकी अत्यधिक सेवा की है।
जैनोंका अधिकाश भाग वीरस्तुतिको प्रेमसे कण्ठस्थ करता है तथा आनन्दके साथ भावुकता पूर्वक पढनेका गौरव प्राप्त करता है। अन्यान्य स्तोत्र स्तवन और स्तुतिओंकी अपेक्षा इसमें एक प्रकारकी विशेषता है जिसके कारण यह स्तुति कण्ठस्थ रहकर इतनी स्वीकृति और आदरको प्राप्त है । यह इसमें एक विशेषता है, परन्तु वह विशेषता क्या है ?
महावीरस्वामीके एक समर्थ गणधर श्रीसुधर्मखामी स्वयं अपने भन्तेवासी जम्बूके सन्मुख भक्तिपूर्वक गद्गद होकर वीरप्रभुका प्रताप, प्रभाव और माहास्यका वर्णन करते हैं। श्रीसुधर्माखामीने अपने जीवनकी धन्य घड़ियोंमें जो कुछ देखा सुना एवं अनुभव किया है उसीका वर्णन अपने शिष्यके सामने किया है। स्तुतिको पढते या सुनते समय हमें भी यही प्रतीत होता है कि सुधाखामी महावीर परमात्माकी महिमाका वर्णन करते समय गुप्त दृष्टिसे मानो यही कह रहे हैं कि "अभी बहुत कुछ शेष है, अभी और बहुतसा अनिर्वचनीय है" वे प्रभुके खरूपका कुछ भान करानेकेलिये जगतकी उत्तमोः सम सामग्रीओंके साथ उनकी तुलना करते हैं । मेरु पर्वत, नन्दनवन, चंद्रमा, खयम्भूरमण समुद्र इनमेंसे सभी कुछ, यानी किसी भी सुन्दर वस्तुको वे नहीं भूले हैं। तथापि अन्तमें नेति नेति कहकर मानो विराम पा रहे हैं। प्रभुके गुण अपार होनेसे उनका अन्त ही न मायगा ऐसी सूचना करनेका आभास भी इसमेंसे मिल रहा है।
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३
जिस वीरपरमात्माका शब्दचित्र इतना भव्य है तव उनके साक्षात् परिचयमें आनेवाले श्रीसुधर्माखामीके अन्तरमें इस स्तुतिकाव्यकी स्फुरणा हुई होगी तब उन्होंने कैसी रमणीय भन्यमनस्कताका अनुभव किया होगा । तीनलोककी उत्तमोत्तम रससामग्री भी भगवान्के सत्य स्वरूपके सन्मुख उनको तुच्छ लगती होंगी। इतनेपर भी भगवानकी पहिचान करानेके लिये वे प्रयत्न करते हैं और एक अमर स्तुतिकाव्य रचकर जगत्को सौंप देते हैं।
महावीरके भोंके मनको महावीर भगवान्के यथार्थ स्वरूपकी सुन्दर और गहरी झांकी हो उसकी अपेक्षा मूल्यवान् उपादेय वस्तु और क्या हो सकती है। जैनसघ इस स्तुतिके पठन पाठन और चिन्तनके प्रतापसे उनके सिद्धान्तोंका अनुसरण करनेके लिये भाग्यशाली हो! इतनी ही प्रार्थना करना वस है।
ज्ञातसेवक
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥अभिप्रायाः॥ ज्ञातृपुत्रमहावीरः, सर्वज्ञस्तु जगद्गुरुः । तस्य स्तुतेर्मनोरम्या, सा टीका कस्य न प्रिया ।। निखिलागमविज्ञेन, सिन्धबङ्गविहारिणा। निर्मिता पुष्पचन्द्रेण, सा टीका कस्य न प्रिया ।। गीर्वाणी हैन्दवीभाषा, गुर्जरीया तथैव च । त्रिभाषासङ्गमो यत्र, सा टीका कस्य न प्रिया ।। भववन्धापही च, सूत्रबोधस्य दीपिका । शरण्या सर्वजीवानां, सा टीका कस्य न प्रिया ।। वाच्यवाचकभावस्तु, स्फुटो यत्र विधीयते । लालित्यादिगुणैराट्या, सा टीका कस्य न प्रिया ।। विवुधेन्द्रमुनीन्द्राणां, चरतां शास्त्रवर्मसु । कठाभूषणक भाति, सा टीका कस्य न प्रिया ।। विद्यापीठे तु संस्थाप्य, टीकां पाठ्यविधायकाः । धर्मोन्नतिश्च कर्तव्या, हि पुष्करमुनेर्मतम् ।।
व्याकरण-काव्य-न्यायतीर्थः
पुष्करो मुनि:संसारार्णवसेतुतामुपगता सिद्धान्तचिन्तापरा, कल्याणायनदर्शिकाऽस्त्यविरतं सत्पाणिनां सर्वतः । हिन्दी-संस्कृत-गुर्जरी प्रभृतिभिर्भाषामिराभूषिता, श्रीपुष्पेन्दुमुनीरिता विजयते वीरस्तुतेर्विवृतिः ॥ १ ॥
-
ता० १-९-३९ । विद्यामन्दिर कानपुर.
पाण्डेय देवेन्द्रनाथ शास्त्री
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५
मुणि सिरि उवज्झाय आयारामस्स सम्मइ
मए वीरत्थुइ नामा लहुवी पोत्थियं अवलोइया, सा थुइ पोत्थिया भत्ति भावेण अलंकिया, पोत्थिया भत्तिभावेण विनस्सा, अम्भुअरसस्स प्पयाण कत्ताजहावि कइ वाहं विसएसु मयमेयोऽत्थि किन्तु कत्तुणा भत्तिभावं अणुवमं दंसिता। मम मणो अईव प्पसन्नभूओ, कतुणो पुणो पुणो धनवायं देमि । जेण अइपरीसमेण भत्तिवसेण अईव सग्गह कटु, जणयाए भत्तिमग्गं पदंसिया। सत्थेवि उत्तं, अरिहंताइणां भत्तिभावेण जीवो तित्ययर नामगोयं कम्मं निबंध इयं रयणा संदराऽत्थि, भव्वजणाण अवस्समेव भणणिज्जो, कत्तुणा जहाठाणे अईवउवओगी उद्धरणाणं पससणिज्जो सग्गह कडं, तहा उत्तरज्झयणस्स तवमग्गोऽवि उत्तं, 'गुरुमत्तिभावसुस्सूसा, विणओ एस वियाहिओ' एवं वीरमत्ति वा वीरत्थुइ वि विणयरूवोऽत्थि, तहा उत्तराज्झयणस्स एगूणतीसाए अज्झयणं थूइस्स एवं फलं वण्णिअ जहा-"थय थुइमगलेणं भंते जीवे कि जणयइ? थ० नाणदंसणचरित्तबोहिलामं जणयइ। नाणदंसणचरित्तवोहिलाभसपने य णं जीवे अन्तकिरियं कप्पविमाणोववत्तिगं आराहणं आराहेइ ॥१४॥ अओ वीरत्थुइ अवस्स भणणिज्जो। १९९६ सावणसुक्का एगादसी, सुकवारे,
आयारामो लुहियाणा णयरे, उवज्झाय जइणमुणि
देहली शहर महावीर जैनभवन
ता० २७ अगस्त १९३९ ई० शान्तखभावी, वैराग्यमूर्ति, विद्वान् श्रीमजैनाचार्य पूज्यश्री खूबचन्दजी म० सावकी सम्मति - ८ ' "वीरस्तुति " नामक पुस्तक भाई पचमलालजी द्वारा पठनार्थ मिली, पुस्तक सरसरी नजरसे देखी, अहिंसाके अवतार भगवान् महावीर प्रभुकी स्तुति मूल गाथाओंके साथ हिन्दीभाषामे अच्छे ढगसे लिखी है। वर्तमान समयमें ऐसे २ शुद्ध हिन्दीभाषायुक्त धार्मिक साहित्यकी विशेष आवश्यकता है। ' जैनधर्मोपदेष्टा विद्वान् मुनिश्री फूलचन्द्रजी ने वीरस्तुति लिखनेका स्तुत्य कार्य किया है। आशा है खाध्यायप्रेमी महानुभाव इस वीरस्तुति पुस्तकके खाध्यायसे आत्मकल्याणका लाभ अवश्य उठायंगे। अस्तु ।
हस्ताक्षर-आर्य जैन सुखमुनि द्वितीय श्रावण शु० १३, रविवार, सं० १९९६
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६
4
पुस्तक दर्शनीय है, मूलगत भावोंको काफी सरलताके साथ समझानेकी चेष्टा की गई है । यथा प्रसंग अन्य ग्रन्थोंके उद्धरण सोनेमें सुगन्धिका काम करते हैं यह अतिशयोक्ति न होगी। यदि में कहूं कि वीरस्तुतिका इतना लोकप्रिय संस्करण अभी तक कहींसे भी प्रकाशित नहीं हुआ । .... कुछ स्थान ऐसे भी हैं जहां लेखक स्वतन्त्र होकर चल पडा है, अस्तु तत्तत् स्थलोंपर लेखकसे' हमारा 'मत' मेद है । परन्तु ये सव वातें "एको हि दोषो गुणसंनिपाते, निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवाङ्कः” की सदुक्ति के अनुसार अन्य श्रेष्ठताओं छुप जाती हैं। स्थानकवासी (जैन ) समाजकी ओरसे ऐसी सुन्दर कृति उपस्थित करने के उपलक्ष्यमे श्रीयुत पुष्पभिक्षु वास्तवमें बधाईके पात्र हैं । जैनाचार्य - पूज्यश्री पृथ्वीचन्द्रजी महाराज
ता० २५ अगस्त, सन् १९३९
......
पुस्तक काफी सुन्दर लिखी गई है, बहुत से स्थलोंपर तो व्याख्या काफी प्रभावोत्पादक हो गई है । सस्कृत हिन्दी और गुर्जर तीनों भाषाओं में व्याख्या को ढालकर लेखकने क्या विद्वान् क्या सर्वसाधारण सभीके लिये अध्ययनका मार्ग प्रशस्त कर दिया है ।
श्रीयुत पुष्पभिक्षुने अन्य भी उपयोगी पुस्तकें लिखी हैं, परन्तु प्रभु महाचीरके चरणों में उनकी यह श्रद्धाञ्जलि तो अतीव उत्कृष्ट श्रेणीपर पहुंच गई है। में आशा करूंगा कि समाज उक्त कृतिको अधिकसे अधिक अपनायेगा और प्रभु वीरके गुणगान द्वारा लेखक के श्रमको सफल करता हुआ अपने जीवनको भी सफल वनायेगा ॥
व्याख्यान वाचस्पति पंडित श्री मदनलालजी म०,
ता० २५ अगस्त, सन् १९३९
ग्रन्थ परमोपयोगी है, इसमे कुछ सन्देह नहीं कि मुनिजीने हर एक विषयको वढी गम्भीरता और साथ ही सरलतासे सुसज्जित किया है । आशा है कि ईश्वर संस्तवन प्रेमी ससार इस ग्रन्थसे महान् लाभ उठायेगा। मुनिजीका परिश्रम और विज्ञानबोध इस ग्रन्यके भवलोकन करनेसे अतिप्रशंसनीय प्रतीत होता है ।
सम्मति प्रदाता -
" मुनि बालभिक्षु प्रेमेन्दु : "
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुति नामकी पुस्तक देखी, लेखक मुनिश्रीने अत्यन्त परिश्रमसे तैयार कर जन समाजपर उपकार किया है। तीर्थंकरोंकी स्तुति करना आत्माको पवित्र बनाना है। तीर्थंकरोंकी स्तुतिकरते हुवे उच्चकोटिकीभावना जाय तो तीर्थकर जैसी आत्मा वनजाती हैं। अत. जन समाजको सम्मति देता हूं कि वीरप्रभुकी स्तुति हमेशा पढा करें। जैनाचार्य पूज्यश्री खूबचन्द्रजी महाराजका सम्प्रदायानुयायी-आर्य जैन मुनि हीरालाल २६-८-३९,अंवाला शहर , साहित्याकाशभ्रमणभानु पुप्फभिक्छ रचित संस्कृत और हिन्दी भाषामें वीरस्तुतिका दर्शन किया। आपने इस उम्नतिके युगमें इस प्रकार लेखनी उठाकर जैन ससार पर ही क्या वल्के भव्यसाक्षरसृष्टिका कल्याण कार्य किया है। यह रचना रोचक और हृदयङ्गम है, मानवके आन्तरिक विचार इसका स्वाध्याय करते करते भक्तिसागरमें लहरायमान होने लगते हैं।
वीरस्तुतिके विषयमें मेरा इतना ही कहना वस है कि इसका सम्पादन विज्ञानके युगमे वैज्ञानिक ढंगसे किया गया है, अतः स्थानकवासी जैनसमाजके लिये यह वडे गौरवकी वस्तु है। जैन समाजके मुनि धार्मिक प्रन्थ शास्त्र अथवा अन्यान्य प्रन्योंपर टीका रचना कुछ भूलसे गये थे। लोकाशाहके अनन्तर खतन्त्र साहित्य विकासका उत्सर्जन रुकसा गया था परन्तु पुप्फ भिक्खुने वीरस्तुतिके प्रभावसे उस कमीकी पूर्ति कर दी। हे पुप्फभिक्खु ! साधुवाद ! 'शासन प्रेमी-धनचन्द्र भिक्खु ता० २८-८-३९, इंदौर (मध्यभारत) । अयि, असीमशेमुषिमुषितदोषाः | अर्जितविद्याकोषा. ! धियाधीताध्याताशेपजैनमुनिप्रवरा ! विदितमस्तु अत्र भवता श्रीमता, यन्मुनि पुगवेन श्रीफूलचन्द्रेण रचितं ममा क्रन्दनकं काव्य मया सम्यक्समवलोकि, यनिश्चितं स्वखान्ते यदेतत्काव्यं शिक्षयति जैनमुनीन् यदीदृशेन गुरुणा भाव्यं तदृक्षेण च शिष्येण । ये हि मुनय पूर्वमपरीक्ष्यैव शिष्यान्दीक्षयन्ति तेऽचिरादेव विकृति प्रयान्ति । तान् एषा मुनीन्द्ररचिता कृति सम्यगवबोधयति, ये च जिनधर्माचारप्रचरणे परित्यतनिजप्रयोजना सन्ति, तथा परस्परेामोहनिद्रया निद्रिता वर्तन्ते तेषु मातेव जागृतभावमुत्पादयतीति, नाद्यावधि केनापि जैनमुनिना खसंप्रदायपोषकमीक्षं संस्कृतकाव्यं विरचितं दृष्टिपथमवतरति । एतद्धि न्यूनतापूरकमिति मे मतिः । अहो एतत्काव्यसुधारस खादं सन्तुष्यमाणो मेऽन्तरात्मा नान्तर्माति, नूनं हि एतस्य कवित्वतत्वमनुकरोति कालीदासादीनां कविपुगवाना कविताम् । अस्मिन्सम्यगवबोधिता जैनसम्प्रदायानुसार गुरुशिष्यव्यवस्था, तस्यामपि कवित्वसौष्ठवेन हेम्नि सौरभसन्दोह उत्पादितः । नूनमेषा कृतिर्जनसम्प्रदायानुयायिभिर्मुनिभिः समादरणीया तेषु बहूपकरिष्यतीति मनुतेपण्डित-हंसराजशास्त्री, व्याकरणरता, साहित्याचार्यश्च,
प्रधानाध्यापक , संस्कृतविद्यालय मलेरकोटलाराज्ये (पाचालः)
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राकथन श्रीमत्सूत्रकृतासूत्रके पंचम अध्यायमें 'नरकविभक्ति' का अधिकार प्रदिपादन किया गया है और वह ज्ञातपुत्र महावीर भगवान्ने खयं कहा है। इसके अनन्तर उनका ही चरित्र इस गुणकीर्तनविभूतिरूप छठवें अध्यायमें वर्णन किया है।
शास्त्रोपदेशकके महत्वसे शास्त्रका महत्व है इस सम्बन्धसे इस अध्यायके उपक्रमादि चार अनुयोग होते हैं। उसमें भी उपक्रम अन्तर्गत जो अर्थाधिकार है वह महावीर प्रभुके गुणसमूहका उत्कीर्तनरूप है। अनुयोगका दूसरा मेद निक्षेप है, जिसके दो प्रकार हैं। ओघनिष्पन्न और नामनिष्पन्न ।
ओघनिष्पन्न निक्षेपके रूपमें यह अध्याय और नामनिष्पन्न के रूपमें महावीर स्तुति । उसमें महत् 'वीर' और 'स्तव' के निक्षेप उल्लेखनीय हैं।
'जैसा उद्देश वैसा निर्देश' इस न्यायके अनुसार प्रथम 'महत्' शब्दका निर्णय किया जाता है। यह महत्' शब्द बहुरूप है। जैसे कि 'महाजन' वडा आदमी है। 'महाघोष' अतिरूप है। महामय-प्राधान्य रूप है। महापुरुष सवमें वडा पुरुष है। ये चार अर्थ 'महत्' शब्दके प्राधान्य अर्थमें ग्राह्य हैं। यथा
पाइन्ने महासहो, दव्वे खेत्ते य काले भावेय।
वीरस्स उणिक्खेवो, चउक्कओ होइ णायव्वो ॥
महावीर स्तवमें 'महत्' शब्द प्राधान्य अर्थ में है, और वह नामस्थापना-द्रव्य-क्षेत्र काल और भाव इन मेदोंसे छ प्रकारका है। इस प्राधान्यमें नाम और स्थापनाके मेद तो सुगम ही हैं। द्रव्य प्राधान्य ज्ञ शरीर-भव्य शरीर और ज्ञ भव्य व्यतिरिक्त ये तीन मेद हैं । ज्ञ भव्य व्यतिरिकके सचित्तअचित्त और मिश्र ये तीन प्रकार हैं। उनमें सचित्त मी द्विपद-चतुष्पद' और अपदके मेदसे तीन तरहका है। तथा द्विपदमे तीर्थकर-चक्रवर्ती आदि, चतुपादमें हाथी घोडा आदि और अपदमें कल्पवृक्ष अथवा प्रत्यक्ष रूप-रस-गंध और स्पर्शमें उत्कृष्ट पुण्डरीक कमलादि पदार्थाका प्राधान्य है।
अचित्तमें वैदूर्य आदि विविध प्रभावयुक्त मणिरत्नोंका प्राधान्य है। मिश्रम विभूषित तीर्थकरादि ।
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९
क्षेत्रमें सिद्धक्षेत्रका प्राधान्य है । धर्म - चरित्र के आश्रयसे विदेहक्षेत्र प्रधान है और उपभोगकी अपेक्षा देवकुरु आदि क्षेत्रका प्राधान्य है । काल प्राधान्य- एकान्त सुषम आदि आरक अथवा धर्मचरणके खीकार करने योग्य काल विशेष ।
भाव प्राधान्य क्षायिकभावमें है ।
1
अब 'वीर' शब्दके द्रव्य-क्षेत्र - काल और भाव ये चार भेद निक्षेप ज्ञ शरीर भव्य शरीरको छोड़कर ज्ञ भव्य व्यतिरिक्त में द्रव्यसे वीर द्रव्य के लिये सङ्ग्रामादिमें अद्भुतकाम करनेसे शूर पुरुष अथवा जो कुछ वीर्यवत् हो ।
क्षेत्र वीर - क्षेत्रमें अद्भुत उसके वीरत्वकी गाथायें गाई भी जानना चाहिये । भाव और लोभ परिषह आदिसे विजित न हो । यथा
काम करनेवाला वीर होता है । अथवा जहां जाती हों वह । इसी प्रकार कालके आश्रयसे वीर वह है जिसका आत्मा क्रोध - मान-माया
पंचेंद्रियाणि कोहं, माणं मायं तहेव लोहं च । दुज्जयं चेव अप्पाणं, सव्वमप्पे जिये जियं ॥ भावार्थ- पांच इन्द्रियें - क्रोध-मान- माया और लोभको आत्माके लिये जीतना दुष्कर है । यदि एक आत्मा जीत लिया तो सब कुछ जीतलिया समझना चाहिये ।
जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे एगं जिणेज अप्पाणं, एस से भावार्थ- जो योद्धा लाखों सुभट युक्त दुर्जय सग्रामको जीत लेता है उसकी अपेक्षा आत्माको जीतनेवाला परम जय पानेवाला योद्धा है ।
दुजए जिणे । परमो जभो ॥
इसीप्रकार श्रीमन्महावीर प्रभु अनुकूल प्रतिकूल विचलित न हुये । इस अद्भुतकार्यको करसकनेके भावसे महावीर कहलाये । या द्रव्यवीर व्यतिरिक्त भववाला ।
परिषह और उपसर्गों से कारण वे गुणनिष्पन्न
क्षेत्रवीरकी अपेक्षा वह जहा होता है अथवा जहां उसके गुणोंका कीर्तन होता है । कालसे भी यही जानना चाहिये । भाववीर नो आगमसे वीरनामगोत्रकर्मका अनुभव कर्ता ।
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्तवके सम्बन्ध निक्षेपादि
स्वव-स्तुति के नाम आदि चार निक्षेप हैं, जिसमें नाम और स्थापनाको पूर्ववत् जानना योग्य है। द्रव्य 'स्तव' ज्ञ शरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त जो पांच अभिगमकी मर्यादा करके तीर्थकर भगवान्का सत्कार करना है और भाव स्खवतो जहा गुण विद्यमान हों उनका उपयोग पूर्वक कीर्तन करना है।
अव प्रथम सूत्रके संस्पर्श द्वारसे सम्पूर्ण अध्यायका संवन्ध प्रतिपादन करनेवाली गाथाका वर्णन करते हैं। यथा- "पुच्छिसु जंवू णामो अजसुहम्मा तमो कहेसीय।
एव महप्पा वीरो जयमाह तहा जएजाहि ॥ भावार्थ-जम्बूस्वामीने आर्य सुधास्वामीसे श्रीमान् महावीर प्रभुके गुणों के सम्बन्धमें प्रश्न किया है। सुधाखामीने 'भगवान् ऐसे गुणोंसे युक्त थे' यह कहा और उस भगवान्ने इस प्रकार संसारको जीतनेके वोध दिये अतः आप भी भगवान्की तरह ससार जीतनेका प्रयत्न करें। : अधुना निक्षेपके पश्चात् सूत्रानुगममें अस्खलितादि गुणयुक्त सूत्र कहने योग्य है और वह यह है
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
अह सूयगडांगसुत्तत्स वीरथुइ नाम छठं अज्झयणं
AL
' पुच्छिस्सुण समणा माहणाय, आगारिणो या परतित्यिमा य । से के णेगंत हियं धम्ममा, अणेलिसं साहुस मिक्खयाए ॥१॥ कहं च णाण कहें दसण से, सील कई णायमुयस्स आसी? जाणासि ण भिक्खु ! जहातहेण, अहासुय बूहि जहा णिसंतं ॥२॥ खेयनए से कुसले महेसी, अणतनाणीय अणतदसी । जससिणो चक्खुपहे ठियस्स, जाणाहि धम्म च धिप च पेहि ॥३॥ उख अहेय तिरिय दिसासु, तसा य ने थावर ने य पाणा। से णिचणिच्चैहि समिक्ख पन्ने, दीवेव धम्म समिय उदाहु ॥ ४॥ से सव्वदंस्सी अभिभूय नाणी, पिपरामगघे धिइम ठियप्पा! अणुत्तरे सव्वजगसि विज, गया मवीते अभए अणाऊ ॥५॥ से भूइपण्णे अणिए अयारी, ओहतरे धीरे अणंतचक्खु । अणुत्तरे तप्पर रिए वा, वइरोयर्णिदे व तम पगासे ।। ६ ।। अणुत्तर धम्ममिण जिणाण, या मुणी कासव आसुपण्णे । इंदेव देवाण महाणुभावे, सहस्सणेता दिविण विसिठे॥७॥ से पण्णया मक्खयसायरे वा, महोदही वा वि भणतपारे। अणाइले वा अकसायी मुक्के, सक्केव देवाहिवई जुईम ॥ ८॥ से वीरिएणं पडिपुण्णवीरिए, सुदंसणे वा णगसब्वसेतु । सुरालएवासिमुदा. गरे से, विरायए णेगगुणोववेए॥ ९॥ सय सहस्साण उ जोयणाण, तिकडगे पडगवेजयते । से जोयणे णवणवति सहस्से, उद्यस्सितो हेतु सहस्समेगं ।। १०॥ पुढे णमे चिठ्ठइ भूमिवठिए, ज सूरिया अणुपरियट्टयति । से हेमवण्णे बहुनदणे य, जसि रई वेदयती महिंदा ।। ११॥ से पव्वए सहमहप्पगासे, विरायई कचणमठवण्णे । अणुत्तरे गिरिसु य पव्वदुग्गे, गिरीवरे से जलिए व भोमे ॥ १२ ॥ महीइमज्झम्मि ठिये णगिंदे, पण्णायते सूरियसुद्धलेस्से । एव सिरीए उ स भूरिवण्णे, मणोरमे जोयइ अम्चिमाली ॥ १३ ॥ सुदंसणस्सेव जसो गिरिस्स, पवुच्चइ महतो पव्वयस्स । एतोवमे समणे णायपुत्ते, जाईजसो. दसणनाणसीले ॥ १४॥ गिरीवरे वा निसहाययाण, रुयए व सेठे वलयाययाण । तओवमे से जगभूइपण्णे, मुणीपा मज्झे तमुदाहु पण्णे ॥१५॥ अणुत्तर धम्ममुईरहत्ता, अणुत्तर ज्झाणवर झियाइ। सुसुक्कसुक्क अपगडसुक्क, संखिदुएगतवदातसुक्क ।। १६ ।। अणुत्तरग्ग परम महेसी, असेसकम्म स विसोहइत्ता। सिद्धिंगते साइमणतपत्ते, नाणेण सीलेण य दसणेण ॥ १७ ॥ रुक्खेसु णाए जह सामली वा, जस्सि रति-वेदयती सुवण्णा । वणेसु वा नदणमाहु सेठ, नाणेण सीलेण य भूश्पण्णे ।। १८ ॥ थणिय व सहाण अणुत्तरे उ, चदो व ताराण महाणुभावे । गधेसु वा चंदणमाहु सेठ, एव मुणीण अपडिण्णमाहु ॥ १९ ॥ जहा सयंभू उदहीण सेठे, नागेसु वा धरणिंदमाहु सेठ । क्खोओदए वा रसवेजयते, तवोवहाणे मुणि वेजयते ॥ २०॥ हत्थीम एरावणमाहु णाय, सीहो मिगाण सलिलाण गगा । पक्खीसु वा गरुले वेणुदेवे, निन्वाणवादीणिहणायपुत्ते ॥ २१ ॥ जोहेसु णाए जह वीससेणे, पुप्फेस वा जह अरविंदमाहु । खत्तीण सेठे जह दतवक्के, इसीण सेठे तह वद्धमाणे ॥ २२ ॥ दाणाण सेठ अभयप्पयाण, सच्चेसु वा अणवज्ज वयति । तवेस वा उत्तम
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२
संभचेर, लोगुत्तमे समणे णायपुत्ते ॥ २३ ॥ ठिईण सेठा लवसत्तमा वा, सभा मुहम्मा व समाण सेठा । निव्वाण सेठ्ठा जह सव्वधम्मा, ण णायपुत्ता परमत्यि णाणी ॥ २४॥ पुढोदमे धुणइ विगयगेही, न सण्णिहिं कुन्वा मासुपन्ने । तरिऊ समुदं व महाभवोध, अभयंकरे वीर अणंतचक्खु ॥२५॥ कोह च माण च तहेव माय, लोह चउत्थं अज्झत्यदोसा, एमाणि वंता अरहा महेसी, ण कुव्वद पाव ण कारवेद ॥ २६ ॥ किरियाकिरियं वेणझ्याणुवाय, अण्णाणियाग पडियच्च ठाण । से सव्व वायं इति वेयहत्ता, उवहिए सजमदीहराय ॥२७॥ से वारिया इत्थिसराइमच, उवहाणवं दुक्खक्खयठ्याए । लोग विदित्ता मारं पर च, सव्व पभू वारिय सव्ववार ॥२८॥ सोचा य धम्म अरहतमासियं, समाहित भट्ठपदोवसुद्धं । त सइहाणा य जणा अणाऊ, इदा व देवाहिवा आगमिस्संति ॥ २९ ॥ ति वेमि ।।
सिरि वीरथुई समत्ता
अपने जैन मुनिओंसे प्रार्थना सैकेडों वाँसे अपने अपने असर्वच गुरुओं और बड़े बूढोंके नामसे पुजवी मानेवाली प्रचलित ३२ सम्प्रदायोंसे जैनसमाजको अव तक कुछ भी काम न होकर प्रत्युत अधिकाधिक हानि ही उठानी पड़ी है। पूर्वकालमें भी जव इन गच्छ और पार्टिबाजियोंसे कुछ लाम और उन्नति नहीं हुई तब इस अनावश्यक और वृथाकी वाडावंदी एव सम्प्रदायवादके नामकी पिकापेलकी इस क्रान्तिकारी वैज्ञानिक-नवयुगमें जरासी मी आवश्यकता नहीं है । आजका नवयुग मनुष्य समाजमें साम्यवाद एवं आपसी प्रेमको बढ़ाना अपना मुख्य कर्तव्य समझता है किन्तु इस वे ढगे कुतर्क सिद्ध वैषम्य वादको बिल्कुल नहीं चाहता। इसलिये इन प्रचलित सव सम्प्रदायोंको जड-मूलसे मिटाकर एक मात्र "ज्ञातपुत्र महावीर भगवान् के किसी भी एक नामसे अपनी सम्प्रदायका परिचय देना चाहिये। जिससे जैनसमाजकी मुद्दतसे बिखरी हुई शानशक्ति-सम्पशक्ति और प्रेमशक्तिका फिरसे पुष्ट संग्रह हो सके। अतनिवेदन है कि अपने वडे बूढों के नामका झूठा मोह नाम मात्रको भी न रखकर महावीर भगवानका नाम और उनका स्याद्वादसिद्धान्त ही यत्र तत्र सर्वत्र प्रकाशित करना चाहिये क्योंकि प्रत्येक जैनको भगवान् महावीरकी देन है और वह सम्प्रदायवाद-पक्षवाद-जडवाद गच्छवाद-टोलावाद जातिवाद अधिकारवाद-सचावादको जडसे मिटाकर एकता एव सङ्घठन-शक्तिसे जाति-समाज और देशका दासत्व दूर करके प्राणीमात्रमें प्रेमभाव रखनेसे ही पूरी की जासकती है।
प्रार्थी-- ज्ञातपुत्र-महावीर जैन संघीय
'पुप्फभिख्खु
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषयानुक्रमणिका।
२३
२४
२५
विषय
पृष्ठ | विषय प्रथम गाथा-मंगलाचरण १ ब्राह्मणके १० प्रकार, देव, संस्कृतटीका ... ... २-१६ द्विज, मुनि, नृप। ... दानधर्मकी विशेषता, शीलमें वैश्य, शुद्ध, विलाव, म्लेच्छ, दानधर्मका समावेश, तपमें
चाडाल, खर, अयोग्य दानधर्मका अन्तर्भाव। १७ ब्राह्मण, ब्राह्मण परम्परा। भावधर्म दान ही है, क्या साधु अब्राह्मण, ब्राह्मणोचित यज्ञ, भी दान देता है ? धर्म
ब्राह्मणोचित तीर्थनान, रत्न, कर्मनाश करनेकी
गुजराती अनुवाद। क्सोटी। ... ... १८
द्वितीय गाथा टीका ... वीरप्रभुकी स्तुति, उनकी भाषा टीका ... ... अनेक स्तुतिएँ और मेरा
ज्ञान ... ... ... मसामर्थ्य । ... ... १९
दर्शन ... वीरप्रभुका गुणगान करते समय गुरुशिष्यकी बातें,
चरित्र, ज्ञातपुत्र आचार्य और उसकी पह
गुजराती अनुवाद ... चान। ... ... २०
तृतीय गाथा- ... आचार्यके ३६ गुण, आचा
सं० टीका, र्यको चतुर ग्वालेकी उपमा,
भाषा टीका, उन्हें नमस्कार करनेका
३४ अतिशय, ... प्रयोजन, माचार्यकी विशे
३५ वाणी गुण, ... ... षता। ... ... . २१/ खेदज्ञ-क्षेत्रज्ञ-कुशल-आशुप्रज्ञजम्बू अन्तेवासीका सुधर्मा
महर्षि, ... ... चार्यसे प्रश्न, ब्राह्मण, धर्म, गुजराती भनुवाद, ... ब्राह्मणलक्षण। ... २२. चतुर्थ गाथा-सं० टीका-
४८ ४९ ५३
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय श्रीसुधर्माचार्य वीरप्रभुके गुणोंको प्रकट करते हैं, उपयोगमय, अमूर्त, कर्ता,
सदेह परिमाण, ... भोक्ता, संसारस्थ, सिद्ध, ... ऊर्ध्वगामी, त्रस, ... स्थावर, द्रव्यप्राण, गुजराती
अनुवाद, ... ... पृथ्वीकाय, अपकाय, ... तेजस्काय, वायुकाय, वन
स्पतिकाय, ... ... पञ्चम गाथा- ... स. टीका, भापाटीका, ... गुजराती अनुवाद, छठवीं गाथा- ... स० टीका, भापाटीका, ... सातवीं गाथा-... आठवीं गाथा-... नववी गाथा- ... मेरुकी उपमा, ... ... दशी गाथा-... ... मेरु पर्वतका वर्णन, ... ग्यारहवीं गाथा- ... सुमेरु पर्वत तीनों लोकों
व्याप्त है, .... ...
पृष्ठ विपय
वारहवीं गाथा-... ... तेरहवीं गाथा- ... ...
चौदहवीं गाथा- ... | उपमेयका वर्णन, ... ... ५७ पन्द्रहवीं गाथा. ... ... ८८
निषध पर्वत और रुचकपर्वतकी ___ उपमा ... ... ... . सोलहवीं गाथा- ... लेझ्याओंका वर्णन, ... कृष्णलेश्या-नीललेश्या-कापोती___ लेश्या, ... ... ९३ तेजोलेश्या, पद्मलेश्या-शुक्ल
लेश्या, उनपर उदाहरण, सतरहवीं गाथा- ... | सिद्धिवर्णन ... ... १०१
अठारहवीं गाथा- ... १०१ | शाल्मली वृक्ष और नन्दन७० वनकी उपमाका वर्णन, १०२
उन्नीसवीं गाथा- ... १०३ ७५ / मेघगर्जना-चन्द्र और चन्द७६ / नकी उपमाका वर्णन, ... १०४ ७७ वीसी गाथा-... ... १०४
| महावीर प्रभुमें स्वयंभूरमण ७९ / समुद्र, धरणेंद्र, इक्षुरससे
__भी अधिक महत्ता, ... १०५ ८० इक्कीसवीं.गाथा- ... १०६
-
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५
૧૪૨
१०८
११०
' विषय - पृष्ठ । विषय
पृष्ठ ऐरावत हाथी, सिंह, गंगा गृहस्थके लिये त्याज्य असत्य
और वेणुदेवकी उपमा- __ क्या है... ... ... १४० सेभी .वढकर उपमेयकी
| असत्यका चुरा परिणाम, .. १४१ .: विशेषता, .... ....
मौनसे कल्याण, . ... चाईसवी गाथा- ... तपोंमें ब्रह्मचर्यकी उत्तमता, कृष्ण कमल चक्रवर्तीकी उप
कुशीलताके दोष, ... १४४ माका वर्णन, . . ... ११० कदाचारका परिणाम, वात्स्यातेईसवीं गाथा-... ... यनका मत, मैथुन सेवनसे दानका लक्षण, ... .... १३१
कामज्वर नहीं घटता, '१४७ दानके प्रकार, अभयदान । ब्रह्मचर्यसे ही पूजा, ब्रह्म
सबसे बडा दान है, ... १३१ - चर्यका फल, महावीरप्रभुयाज्ञवल्क्यका मत, यजुर्वेद, के नाम, ज्ञातपुत्र शब्दकी ' 'मनुका मत, दशधर्म, ... १३३
१३३ उत्पत्ति, ... ...१ नियमसारकामत, समन्तभद्रा- चौवीसवीं गाथा-लवस'चार्यकामत, लोकोंका __ तमदेव, सुधर्मसभा, सर्व
मन्तव्य, ... ... १३४ | धर्मकी उपमाका वर्णन, १८२ राज्यसे भी अधिक प्राण प्रिय पञ्चीसवीं गाथा- .... हैं-पीडा-मतलवकी हिंसा छब्बीसवीं गाथा- ... १८६
मी हानिकर, ... ... १३५ कषाय वर्णन, कषायसे हानि, अहिंसाका माहात्म्य, अहिं
इनके हटानेके साधन, ___ साका फल, लोकमत, . कषाय त्यागका फल, वीतपरिणाम, .. ... ... १३६ रागताद्वारा अलग २ कषाअभयदानपर उदाहरण, ... १३७ यके जीतनेका फल, ... १९२ सवसे वही सत्य भाषा, कषायकी आगको वुझाओ, १९३ मनुका अभिप्राय, अस- सताइसवीं गाथा- १९६ त्यका खुलासा, ... १३८ । मतोंका वर्णन, ... ... १९६
yx.
१८४
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
विषय पृष्ठ | विषय
“पृष्ठ अठ्ठाइसवी गाथा- ... १९८ वढवाणवाले श्रीजीवराज स्त्रीससर्गके दोषः ... ... २०९ | सुखलाल कृत महावीर रात्रिभोजनके दोष, ... २१० थुइनो गुजराती काव्यानुपुरुषोंके प्रकार, ... ... २११
वाद, ... ... ... रात्रिभोजन त्याग, ...
प्राकृतस्तोत्र विभाग, ... बुद्धोंके आठ उपदेशोंमें रात्रि
संस्कृत स्तोत्रविभाग, ... __ भोजन वर्जित, ... २१३
हिन्दी कविता विभाग ... २८३ रात्रिभोजनके प्रत्यक्ष दोष, २१४
शान्तरस पूर्ण शान्तिप्रकाश,
वीरस्तु भगवान् खयम् , ... ३१० आयुर्वेदमें रात्रिभोजन त्याज्य है,२१५
वीरयोगतरमः, ... ... रात्रिभोजन त्यागनेवालोंके गुण, २१७
आलोचना पुष्पाञ्जलिः ... ३६५ उनतीसवीं गाथा- ... २२७
भगवान् महावीरकी वैराग्य प्रशस्तिः , ... ... ...
भावना, ... ... ३७० परिशिष्ट भाग-देवचंद्रजी
मालाचरणम्, ... ... ३७७ कृत महावीर भगवान्की
ममाक्रन्दनकाव्यम् ... ३८१ स्तुति, ... ... ... २४२
ममाक्रन्दनकाव्यस्योत्तरार्द्धम् ३९६ आनन्दघनकृत वीरस्तुति, २५० ज्ञातपुत्र महावीरके सिद्धान्त ४११ कुंभट विनयचंद्रकृत वीरस्तुति, २५८ शुद्धिपत्रम् ... ... ... ४१३
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
नमोत्थुणं समणस्स भगवओ णायपुत्त महावीरस्स।
वीरस्तुतिः।
हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसमुल्लसितया
संस्कृतटीकया सनाथीकृता
.
पुच्छिस्सु णं समणा माहणा य, आगारिणो या परतित्थिआ य। से केइ गंतहियं धम्ममाहु, अणेलिसं साहुसमिक्खयाए॥१॥
संस्कृतच्छायाअप्राक्षुः श्रमणा ब्राह्मणाश्च, अगारिणश्च परतीर्थिकाश्च । स क इत्येकान्तहितं धर्ममाह, अनीशं साधुसमीक्षया ॥१॥
अथ ज्ञातृपुत्रमहावीरजैनसंघीया-संस्कृतटीकाकर्तुमंगलाचरणम् । ध्यायं ध्यायमशेषशक्रप्रमुखाऽमार्चिताधिद्वयं, मोक्षश्रीपरिणीतिसम्भवमहानन्दोल्लसन्मानसम् । श्रीवीरमभुमीश्वरं तदनु च ज्ञानप्रदं श्रीगुरुं,.. नाम नाममशेषभव्यमहितं श्रीफूलचन्द्रो मुनिः १.
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः। श्रीमत्सूत्रकृताङ्गमध्यविलसत्सुश्लोकवीरस्तुतेभव्यानां भवबन्धभेदमनसामानन्दसंवर्द्धिनीम् । कुर्वेऽहं विवृति तदर्थगतिकृद्भाषान्तरोद्भासितां, तेन श्रीत्रिशलात्मजाऽन्तिमजिनःप्रीयात्समाराधितः ___टीका-इहापारावारसंसाराटव्यां परिभ्रमणं कुर्बतां प्राणिनां चुल्लुकादिदशभिीतैरतिदुर्लभं मानुष्यं, तत्राप्यायंदेश-कुलाऽऽयु-रारोम्य-समग्रेन्द्रियानुकूलसामग्रीसंयोगो दुर्लभतरः, तत्राप्यतिदुर्लभतमा श्रीजिनधर्मप्रवृत्तिः । तत्रेह जगतीदृशः श्रीसर्वज्ञोक्तधर्मः परममङ्गलः समस्तशारीरमानसादिदुःखोच्छेदकश्चाप्यस्ति । धर्मश्चासौ चतुर्धा दानशीलतपोभावभेदाः, तत्र चतुणा धर्मभेदानां मध्ये सर्वज्येष्ठो धर्मो दानधर्मः, सर्वेष्वपि धर्मभेदेवन्तश्चारित्वात् । तथाहि-लौकिके लोकोत्तरे च सर्वत्र दानप्रवृत्तिज्येष्ठतरा, श्रीमन्तस्तीर्थकरा अपि प्रथमं वर्षीयदानं दत्वा पश्चाद्भिक्षुव्रतं गृहन्ति पुनश्च शीलधर्मेऽपि दानधर्मोऽविच्छिन्न एव, यतो ब्रह्मचर्य्यव्रतग्रहणेऽसंख्यद्वीन्द्रियाणामसंख्यसम्मूच्छिमपञ्चेन्द्रियाणां नवलक्षगर्मिजपञ्चेन्द्रियाणां च कृते प्रतिदिनं ब्रह्मवतिना:भयदान दत्तम् , खजीवस्याऽप्यभयदानमाप्तं तेन गर्भादिदुःखनाशकत्वाचेति; व्यवच्छिन्नतया हि शीलेष्वपि दानस्य मुख्यता । तथैव तपोधर्मेष्वपि दानमन्तर्भवति, यतो षड्जीवनिकायविराधनया च आहारो निष्पाद्यते, परन्तूपवासादितपसि कृते तु तेभ्योऽभयदान प्रदत्तं तस्माचपस्खपि दानमन्तर्भूतम् । भावधर्मे तु सुतरामेव, यतः 'परमकरुणया जीवाजीवाऽहिंसनपरिणतिर्भावः तत्राऽप्यभयप्रदानद्वारा दानमेव पर्यवस्यति, जैनमुनयोऽपि प्रतिदिनं देशनादानं ज्ञानशिक्षादानं च ददति, अतो दानस्य त्रिप्वप्यन्तावान्मुख्यतया प्रथमं दानस्योपादानं
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३ कृतम् । परं तद्भावपूर्वकं हि सफलतामेति । दानादिरूपं हि धर्मरलं प्राप्य सुकुलोत्पत्तिसमस्तेन्द्रियसामग्र्याद्युपेतेनाऽनेकान्तवादरूपमाईतदर्शनपरिज्ञाय चाशेषकर्मोच्छित्तयेऽवश्यं प्रयतितव्यं भव्येनेति । परन्तु कर्मोच्छेदश्चापि सम्यग्विवेकसव्यपेक्षोऽसावपि ह्याप्तोपदेशमन्तरेण न सुलभः, आप्तश्चात्यन्तिकाद्दोषक्षयात् , स चाहन्नेव, स हि श्रीज्ञातपुत्रमहावीरचरमतीर्थकरस्तस्य स्तुतौ कृतयनोऽसीति, कोविदमुख्यैरिह जंगति तस्य गुणवर्णनं बहुधा कृतं परन्त्वहमपि तद्गुणवर्णनोत्कटेच्छया तरलीकृतः सम्यग्दर्शनबलेन क्षयोपशमबलेन च किञ्चिद्विवरीतुं यतिष्ये । किमनन्तमाकाशे पक्षिराजगतं सम्यगवगम्य तेनैव पथा शलमो गन्तुं न वाञ्छति ? वाञ्छत्येवैवमनया रीत्याऽहमप्यल्पज्ञप्रायः परं किञ्चिद्धि श्रीसूत्रकृतागसूत्रे यज्ज्ञातपुत्रमहावीरस्तुतिनामाध्यायस्य व्याख्या वितनोमि, तद्वीरकृपयैव, न ममाल्पज्ञस्य माहात्म्येनेति । अथ श्रीमन्महावीरस्य प्रभोर्गुणा निगद्यन्तेऽतोऽत्र जम्बूनामधेयोऽन्तेवासी सुध
र्माणं धर्माचार्य आ मर्यादया तद्विषयविनयरूपया चय॑ते सेन्यन्ते जिनशासनोन्नत्यर्थोपदेशकतया तदाकाक्षिभिरित्याचार्यास्तमाचार्यम् ; उतंचसुत्तत्थविऊ लक्खणजुत्तो, गच्छस्स मेदिभूओ य, . गणतत्तिविप्पमुक्को अत्थं वाएइ आयरिया ॥१॥
। संस्कृतच्छाया- - सूत्रार्थविल्लक्षणयुक्तो, गच्छस्यालम्बनभूतश्च । ।
गणतप्तिविप्रमुक्तः सन्नर्थ वाचयंत्याचार्या इति । । । ' अथवा आचारो ज्ञानाचारादिः पंचधा, आ मर्यादया वा चारों विहारं आचारस्तत्र साधवः खयं करणाप्रभाषणात्प्रदर्शनाचेत्याचार्याः । आह.. च-, . . . . . . . . . -
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः। , पंचविहं आयारं, आयरमाणा तहा पयासंता, आयारं दंसंता, आयरिया तेण वुचंति ॥१॥
संस्कृतच्छायापंचविघमाचारमाचरमाणास्तथा प्रकाशमाना।
आचारं दर्शयन्त आचार्यास्तेनोच्यन्त इति ॥ इति च विशेषावश्यके
अथवा आ ईषत् अपरिपूर्णा इत्यर्थः, चारा हेरिका ये ते आचाराः, चारकल्पा इत्यर्थः, युक्तायुक्तविभागनिरूपणनिपुणा विनेया अतस्तेषु साधवो यथावच्छास्त्रार्थोपदेशकतया इत्याचार्याः । एषामाचारोपदेशकतयोपकारित्वात् , तमाचार्यम् । *द्वादशाङ्गशास्त्राध्यापयितारमित्यर्थः। "मन्त्रव्याख्याकृदाचार्य इत्यमरः" । मोक्षशा स्त्रोपदेष्टरि, श्रीधर्मगुरौ, "इति शब्दार्थचिन्तामणिः" । अथवा ___ * समवायांगसूत्रगतो द्वादशाझ्याः परिचयः संक्षिप्यात्र उद्धृतः स चैवम् । । आचाराङ्ग:-आयारेणं समणाणं निग्गंथाणं आयार-गोयर-विणयवेणइअ-ठाण-गमण-चंकमण-पमाण-जोग-झुंजण-भासा-समिति-गुत्तिसेज्जोवहि-भत्त-पाण-उग्गम-उप्पाय-एसणा-विसोहि-सुद्धासुद्धग्गहण-वय-नियमतवो वहाणसुपसत्यमाहिज्जइ xxxx पढमे अगे दो सुअक्खंधा, पणवीसं अज्झयणा, पंचासी उद्देसणकाला, पंचासी समुद्देसणकाला, अठारसपयसहस्साई।
भावार्थ:-समवायांगसूत्रगत द्वादशांगी वाणीका संक्षेपसे इस प्रकार परिचय उद्धृत किया जाता है।
___ आचारांग:-आचारांग सूत्र में इस प्रकार के विषयों का वर्णन किया गया है यथा-श्रमण निग्रंथोंका सुप्रशस्त आचार, गोचर (मिक्षाविधि), विनय, वैनयिक, कायोत्सर्गादि सुन्दर और एकान्त स्थान, विहारभूम्यादि गमन, चंक्रमण अर्थात् टहलना, या शारीरिक श्रम दूर करने के लिए उपाश्रयमें वनसे वति में गमन, विधाम, आहारादि खाद्य पेय पदार्थों का माप, खाध्यायादि
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
'खयमाचरते शिष्यानाचारे स्थापयत्यपि । आचिनोति हि शास्त्रार्थमाचार्यस्तेन कथ्यते' । इति कुलार्णवः । “आनायतत्वविज्ञानाचराचरसमानतः। यमादियोगसिद्धत्वादाचार्य इति कथ्यते" ॥१॥ इति शांकरे ॥ अतोऽत्र जिनधर्म एव मन्त्रस्तस्य व्याख्याकृत् , श्रीमान् सुधर्माचार्य इति भावः । तं सुधर्माचार्य प्रति श्रीमन्महावीरचरमतीर्थकुगुणान् पृष्टवान्, विनयेनेति शेषः "सन्मतिर्महतिवीरो, महावीरोनियम, नियोग, भाषा समिति, गुप्ति, शय्या, उपधि, भक्त, पान, उद्गमादि (उद्गम, उत्पाद, एषणा) दोषोंकी , विशुद्धि, शुद्धाशुद्धग्रहण, व्रत, नियम, 'तप और उपधान।
प्रथम सूत्र आचारांग में दो श्रुतस्कन्ध, ८५ उद्देशनकाल, ८५ समुदेशनकाल, तथा १८००० पद संख्या है।
सूत्रकृतः-सूअगडे गं ससमया सूइजंति, परसमया सूइब्नन्ति, सपरसमया सूइज्जति, जीवा सूइज्जति' अजीवा सूइज्जति, जीवाजीवा सूइजति, लोगे सूइज्जति, अलोगे सूइजति, लोगालोगे सूइजति, सूअगडेणं जीवाजीवे पुण्णपावा सवसंवरनिवरणावंधमुक्खावसाणा पयत्था सूइज्जति । xxx xx असो'इस्स किरियावाइयसयस्स, चउरासीए अकिरियवाईणं, सत्तठीए अण्णाणियवाईणं, बत्तीसाए वेणइअवाईणं, तेतीसं उद्देसणकाला, तेतीसं समुसणकाला, छत्तीसं पदसहस्साई।
सूत्रकृतः-सूअगडांग (सूत्रकृतांग ) में प्ररूपित विषय इस प्रकार हैं। खसिद्धान्त, परसिद्धान्त, ख-परसिद्धान्त, जीव, अजीव, जीवाजीव, लोक, अलोक, लोकालोक, जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष तकके सब पदार्थ, इतर दर्शन मोहित नवीन संदिग्ध दीक्षितकी बुद्धिको शुद्ध करनेके लिए १८० क्रियावादी के मत ८४ अक्रिया वादीके मत, ३२ विनयवादीके मत, अज्ञानवादीके .६७ मत, सब मिलकर ३६३ अन्यदृष्टिके मतोंका परिक्षेप करके खसमय स्थापन, . . सूत्रकृतांग सूत्रमें दो श्रुत-स्कंध हैं, २३ अध्याय हैं, ३३ उद्देशन काल है, ३३ समरेशन काल हैं। ३६... पद संख्या है।
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः।
-
-
ऽन्तकाश्यपः । नाथान्वयो, वर्धमानो, यत्तीर्थमिह साम्प्रतम् ।" इति धनंजयनाममाला । अथाऽसावपि भगवान् सुधर्माखाम्येवं गुणविशिष्टो ज्ञातपुत्रो महावीर इति' कथितवांश्च मां प्रतीति शेषः । एवं चासौ वर्धमानोऽर्हन् “सर्वज्ञो वीतरागोऽर्हन् , केवली धर्मचक्रभृत्!' 'इति धनञ्जयः । विष्टपस्य संसारस्य सांसारिकविषयस्येत्यर्थः सचन्दनव' , स्थानांग:-ठाणेणं ससमया ठाविनंति, परसमया ठाविनंति, ससमयपरसमया ठाविनंति, जीवा ठाविनंति, अजीवा ठाविनंति, जीवाजीवा ठाविजंति, लोंगा, अलोगा, लोगालोगा गविजंति, x x x x x तइए अरे 'पणसुअक्खंघा दस अज्झयणा, एकवीसं उद्देसणकाला, एकवीसं समुद्देसणंकाला, वावत्तरि पदसहस्साई।।
स्थानांगः-स्थानांग सूत्र में निरूपण किए हुए ये विषय हैं । खसमय, परसमय, ख-परसमय, जीव, अजीव, जीवाजीव, लोक, अलोक, लोकालोक का स्थापन,
तीसरे ( स्थानाग) अंग में पांच श्रुतस्कन्ध, दश अध्याय, २१ उद्देशनकाल, २१ समुद्देशनकाल, और ७२००० पद संख्या है।
समवायांगः-समवाएणं ससमया सूइज्जति परसमया सूइज्जंति, ससमयपरसमया सूइज्जति, समवाएणं एकाइयाणं एगठाणं एगुत्तरियं, परिवुहिए, दुवालसंगस्स य गणिपिडेगस्स पल्लवग्गे समणुगाइज्जइ, xx xxx चठल्ये अगे, एगे अज्झयणे, एगे सुयक्खंथे, एगे उद्देसणकाले, एगे समुद्देसणकाले एगे चयाले पदसहस्से। . , : -समवायाङ्ग:-समवायागमें खसिद्धान्त, परसिद्धान्त,ख-परसिद्धान्त,
और एक संख्यासे लगा कर अधिकसख्यातक पदार्थोंका परिगणन एवोत्तरिक, परिवृद्धिपूर्वक प्रतिपादन है, अर्थात् प्रथम एकसंख्यक पदार्थोका निरूपण करके फिर द्विसंख्यक पदार्थों का वृत्तान्त है। इस क्रमसे प्रतिपादन करने के वाद द्वादशाग गणिपिटकके पर्यवोंका प्रतिपादन किया गया है। चतुर्थ समवाय ( अग.) से एक अध्याय, एक श्रुत स्कन्ध, एक उद्देशन काल, एक समुद्देशन कालं, और एक लाख चवालिशहजार पद संख्या है। .. .
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
-
-
-
.
-
-
.
.
.
.
ना
नितादेरिति यावज्जयं तिरस्क्रियां चकार । "विष्टपं भुवनं लोको - जगदिति कोषः” । “परिभवः पराभवस्तिरस्क्रियेति कोषः" । अतो
.. व्याख्याप्रज्ञप्तिः-(भगवती) विआहेणं ससमया विआहिजंति, परसमया विआहिजंति, ससमय-परसमया विआहिज्जंति, जीवा विआहिजति, अजीवा विआहिजंति, जीवाजीवा विआहिज्जति, लोगे विआहिजति, अलोगे विआहि.. जंति, लोगालोगे विआहिजंति, विआहे णं नाणाविहसुरनरिंदरायरिसिविविहसंसइभ -पुच्छिआणं, जिणेणं वित्थरे ण, भासिआणं, दव्वगुण-खित्त-काल-- पनव-पदेस-परिणाम-जहत्यि अभाव अणुगम-निक्खेव-णय-प्पमाण सुनिउगोवक्कम विविहप्पकारपगडपयासिआणं. ससारसमुहरुंदउत्तरणसमत्थाणं, सुरवइ.. संपूजिआण, भवियजणपयहिअयाभिनदिआणं, तमरयविद्धसणाणं, सुदिदीव' भूअईहामतिबुद्धिवद्धमाणाणं छत्तीससहस्समणूणया ण वागराणाणं दसणाओ, सुअत्यवहुबिहप्पगारा, सीसहिअत्था xxxxx पंचमे अगे एगे सुअक्खधे, एगे साइरेगे मज्झयणसये, दसउद्देसगसहस्साइ, दससमुद्दसगसहस्साई, छतीस वागरणसहस्साई, चउरासीइं पयसहस्साई।
, । व्याख्याप्रज्ञप्तिः- (भगवती) सूत्र में स्खसमय, परसमय, जीव, अजीव, जीवाजीव, लोक, अलोक, लोकालोक, इत्यादि कथनके अतिरिक्त, भिन्नभिन्न प्रकारसे देव, राजा, राजर्षि, और अनेक प्रकारके सन्दिग्ध पुरुषोंके पूछे हुए प्रश्नोंका जिनेन्द्रदेवने विस्तारपूर्वक जो उत्तर दिए हैं । और वे उत्तर द्रव्य, गुण, क्षेत्र, काल, पर्यव, प्रदेश और परिणाम के अनुगम, निक्षेप, नय, प्रमाण और विविध तथा सुनिपुण उपक्रम पूर्वक यथास्तिभावके प्रतिपादक हैं। जिससे लोक और अलोक दोनों प्रकाशित हैं । जो विशाल ससार समुद्रसे पार कर देने में समर्थ है । इन्द्रों द्वारा पूजित हैं, भव्य लोकोंके हृदयके अभिनन्दक हैं, अन्धकार रूप मैलके नाशक है। सुन्दर और दर्शनीय हैं, दीपक की तरह वस्तुका तथ्य निर्णय देने वाले हैं। ईहा, मति, और घुद्धिके बढानेवाले हैं, जिनकी सख्या ३६००० में पूर्ण होती हैं, और जो उत्तरोंके उपनिवन्धसे वहुत' प्रकारके श्रुतार्योंके समुदायरूप शिष्यों के हितार्थ गुणहस्तरूप हैं। पंचम अग (भगवती):सूत्रमें एक श्रुतस्कन्ध,, साधिक अति उत्तम सौ १०० अध्याय हैं। दशहजार उद्देशक, १०१०० समुद्देशक, ३६००० प्रश्न और ८४१०१६ पद सख्या है। . . . . . . । । .
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः।
वीरः संसारं यथा जितवान् , वयमपि तथैव तज्जयाय प्रयत्न कुर्मः । भगवन् ! बहुविधां नरकविभक्तिं च श्रुत्वा संसारादुद्विममनसः 'केनेयं नरकविभक्तिः प्रतिपादितः' इति मामपाक्षुरिति, पुनश्चैवं भूतो धर्मः
झाता-धर्मकथांग:-~~णाया-धम्म-कहासु णं णायाण नगराई, उज्जाणाई, वणखण्डा, रायाणो, अम्मापियरो, समोसरणाई, धम्मायरिआ, धम्मकहाओ, इहलोइअ-परलोइअ-इडिविसेसा, भोग परिचाया, पवनाओ, सुयपरिग्गहा, तंवोवहाणाई, परियागा, संलेहणाओ, भत्तपञ्चक्खाणाई, पाओवगमणाई, देवलोगगमणाई, सुकुलपञ्चाया, पुण बोहिलामो, अंतकिरिआओ, अ माधविज्जति, xxxxx छठे अगे दो सुअक्खंधा, एगूणतीसं अज्झयणा, ते समासओ दुविहा, पनत्ता, तंजहा, चरित्ता अ, कप्पिा अ, दश धम्म कहाणं वग्गा, तत्थणं एगमेगाए धम्म कहाए पंच पंच, अक्खाइयासयाई, एगमेगाइ भक्खाइआए पंच पंच उवक्खाइआसयाई, एगमेगाए उवक्खाइआए पंच पंच अक्खाइन, उवक्खाइमसयाई, एवामेव सपुवावरणं अद्धठाए भक्खाइकोडिओ, भवंतीतिअक्खायाओ, एगूणतीसं उद्देसणकाला, एगूणतीसं समुद्देसणकाला, संक्खेज्जाई पयसहस्साई,।
शाताधर्मकथा-इस सूत्रमें उदाहरणभूत पुरुषों के नगर, उद्यान, वनखण्ड, राजा, माता पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, ऐहिक और पारलौकिक ऋद्धिविशेष, भोगपरित्याग, प्रव्रज्या, श्रुत परिग्रह, तप, उपधान, पर्याय, संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान, पादपोपगमन, देवलोकगमन, फिर उत्तम कुल में अवतार, पुनर्जन्म, बोधिलाभ और अन्तक्रिया इत्यादि अनेक विषयोंका कथन विस्तारसे कियागया है । छठवें ज्ञाता धर्मकांगमें दो श्रुतस्कन्ध हैं, जिनमें २९ अध्याय हैं, वे अध्याय चरित्र और कल्पिक मेदसे दो तरहके बताए हैं । धर्मकथाके १० वर्ग हैं। जिसकी एक-एक धर्म कयामें ५००५०० आख्यायिकाए हैं, एक एक भाख्यायिकामें ५००-५०० उपाख्यायिकाएँ हैं, एक एक उपाख्यायिकामें ५००-५०० आख्यायिकोपाख्यायिकाएँ हैं, और फिर इसी प्रकार से सपूर्वापर ( सममिलकर ) साढे तीन कोड आख्यायिकाएँ हो जाती हैं। इसमें २९ उद्देशनकाल, तथा २९ समुद्देशनकाल हैं, और संख्यात लाख पद हैं, यानी ५ लाख ७६ हजार पद हैं।
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ९ संसारोत्तारणसमर्थः केन प्रतिपादितः । इत्येतद्बहवो मामिति भावः । ते के इत्याकांक्षायामाह श्रमणाः-साधवो निम्रन्थादयः। "तपखी । उपासकदशांग:-उवासगदसासु णं उवासगाणं नगराई, उबाणाई, चणखंडा, रायाणो, अम्मापियरो, समोसरणाइं, धम्मायरियाई, धम्मकहाओ, इहलोम, परलोइभइविविसेसा, उवासयाणं, सीलव्वय वेरमणगुणपञ्चक्खाण, पोसहोववासपडिवजिआओ, सुअपरिग्गहा, तवोवहाणाई, पडिमाओ, उवसग्गा, संलेहणा, भत्तपश्चक्खाणाई, पाओवगमणाइ, देवलोगगमणाई,सुकुलपश्चाया, पुणो बोहिलाभो, अतकिरिमो, माघविजंति, xxxxx सत्तमें अगे एगे मुअक्खंधे, दशमज्झयणा, दशउद्देशणकाला, दश समुद्देशणकाला, संखेजाई पयसहस्साई।
उपासकदशांग:-इसमें उपासकोंके (श्रावकोंके ) नगर, उद्यान, वनखंड, राजा, मातापिता, समवसरण, धर्माचार्य, इसलोक और परलोककी
दिविशेषका तथा श्रावकोंका शीलवत, विरमण, गुणव्रत, प्रत्याख्यान, पौषघोपवास, श्रुतपरिप्रह, तप, उपधान, प्रतिमा, उपसर्ग, संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान, पादपोपगमन, देवलोकगमन, श्रेष्ठकूलजन्म, बोधिलाम और अन्तक्रियातकका वर्णन है x x सातवें उपासकदशागमें एक श्रुतस्कन्ध, दश मध्ययन, दश उद्देशनकाल, दश समुद्देशनकाल, और सख्यातलाखपद भर्यात् ११५२००० पदोकी सख्या है। . अन्तकृदशांग:-अंतगडदसासु गं अतगडा णं नगराई, उज्जाण, वणखंड, राया, अम्मापिय, समोसरण, धम्मायरिय, धम्मकहा, इहलोइम, परलोइमा, इडिविसेसा, भोगपरिचाया, पवजामो, सुअपरिग्गहा, तवोवहागाई, पडिमाओ, बहुविहाओ, खमा, भन्नवं, महवं, सोअ च सबसहि, सत्तरस्सविहोसजमो, उत्तमं च वंमं, अकिंचणया, तवो, किरियाओ, समिइगुः तिमो चेव, तह अप्पमायजोगो, समाय ज्ञाणेण य, उत्तमाणं दोहंपि, लक्खगाई, पत्ताणय सजम, जिमपरिसहाणं, चविहकम्मक्खवियम्मि, जह केवलस्स
मो, परियामओ जत्तिमो य जह पालिओ मुणिहि, पावोवगओ जहिं, जतियानि मत्ताणि, छेमहत्ता, अतगडो मुणिवरो, तमरयोपविमुक्को, मुक्खसुहमणंतरं, च पत्ता ए ए अमेय एवमाइत्थ वित्वरेण परवेद, xxxxx भठमे मंगे
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०
वीरस्तुतिः ।' ' संयमी, वर्णी, योगी साधुश्च तापसः । ऋषियतिमुनिमिक्षुः संयत: श्रमणो व्रतीति" धनंजयः ।, “यतिमेदे, साधुमेदे वा, मिक्षाजीविनि, शरीरभेदे वेति शब्दस्तोममहानिधिः" । "तपखिनि, श्रमणः परिवाद, संन्यासीति पूज्यपादाः” । जैनमिक्षुके, निम्रन्थे चापि, 'श्राम्यतीति, एगे सुभक्खंधे, दस अज्झयणा, सत्तवग्गा, दस उद्देसणकाला, दस समुद्देसणकाला, संखेन्नाई पयसहस्साई, ,' अन्तकृद्दशांगः-अन्तगडदाग सूत्रमें अन्तकृत् (तीर्थंकरादि) पुरुषोंके नगर, उद्यान, वनखंड, राजा, मातापिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, ऐहिक और पारलौकिक ऋद्धि, भोगपरित्याग,प्रव्रज्याग्रहण, श्रुतपरिग्रह, तप, उपधान, बहुविधप्रतिज्ञाराधन, क्षमा, आर्जव, मार्दव, सल सहित शौच, सतरह प्रकारका संयम, उत्तम ब्रह्मचर्य, अकिचनता, तप, क्रिया, समिति, गुप्ति, अप्रमादयोग, उत्तमखाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग का खरूप, उत्तम संयमप्राप्ति और परिषह जीतनेवाले पुरुषोंका चारप्रकारके घातिक कर्म क्षय होने से केवलज्ञानका प्राप्त करना, (भनन्त चतुष्टयकी प्राप्ति ) मुनि पर्यायके पालन करनेकी अवधि, पादपोपगत पवित्र मुनिवर जितने भकों (भोजन समयों) को बिताकर जहा अन्तकृत् हुए वह विवरण और भी मुनिराज कि जो मुक्तिके अचल सुखोंको प्राप्त हुए, इत्यादि सव वर्णन आठवें (अंतगड) अगमें एक श्रुतस्कन्ध के ही अन्दर है, इसके दश अध्ययन हैं, सात वर्ग हैं, दश उद्देशन' काल हैं, दश । समुद्देशन काल हैं, और सख्यात लाख पद है, अर्थात् २३०४००० पद सख्या है। . . अनुत्तरोपपातिकदशांगः-अणुत्तरोववाइअ दसासु णं अणुत्तरोववाइआणं नगराई, उज्वाणाई, वणखडा रायाणो, अम्मापियरो, समोसरणाई, चम्मायरिया, धम्मकहाओ, इहलोग-परलोगस्स इविविसेसा, भोगपरिम्बाया, पञ्चजामो, सुअपरिग्गहाओ, तोवहाणाई, परियागो, पडिमाओ, सलेहणाओ, भत्तपाण-पन्चक्खापाई, पावोवगमणाई, अणुत्तरोचवाइ ओ, सुकुल पञ्चाया, पुशोवोहिलाभो, अतकिरियामओ, घविजंति, + + + + + नवमे अगे एगे, सुअवधे, दस अज्झयणा, तिणि , बग्गा, दस उद्देसणकाला दस समुद्देसण, काला सक्सेजाई पयसहस्साई, . . . ,
,
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिना ११ श्रमणः । इति "शब्दार्थचिन्तामणिः" श्राम्यति .परंदुःखं जाना तीत्यपि ।' च पुनर्नाह्मणाः ब्रह्मचर्याद्यनुष्ठाननिरताः । "द्विजात्य. अजन्म, भूदेववाडवाः । विप्रश्च ब्राह्मण" इत्यमरः । ब्रह्म परमात्मानं
अनुत्तरोपपातिकः-इस सूत्रमें अनुत्तरोपपातिकोंके नगर, उद्यान, वनखंड, राजा, मातापिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, इत्यादिकका वर्णन है, और ऐहिक तथा पारलौकिक ऋद्धिविशेष, भोगपरित्याग, प्रव्रज्याग्रहण, श्रुतपरिग्रह, तप, उपधान, पाय, प्रतिज्ञा, सलेखना, भक्तपानप्रत्याख्यान, पादपोपगमन, श्रेष्ठकुलमें पुनर्जन्म, बोधिलाभ, अन्तक्रिया, इत्यादि विषयोंका वर्णन है। xx नवम ( अनुत्तरोपपातिक) अगमें एक श्रुतस्कन्ध, दश-अध्याय, तीन वर्ग, दश उद्देशनकाल, दशसमुद्देशनकाल, संख्यातलाख पद-अर्थात् ४६०८००० पद हैं।
__ प्रश्नव्याकरण-पण्हवागरणेसु अठुत्तर अपसिणसयं, अठूत्तरं पसिणापसिणसयं, विजाइसया, नागसुवण्णे हिं सद्धिं दिव्वा सवाया आघविनंति, विम्हयकराणं अइसयमइ अकालदमसमतित्थकरुत्तमस्स ठिइकरणकारणाणं, दुरहिगमदुरवगाहस्स, सव्वसव्वणुसम्मअस्स, अवुहजणवोहकरस्स, पच्चक्खपच्चयकराणं, पाहाणं, विविहगुणमहत्था, जिणवरप्पणीआ आघविजति, + ++ + दसमे अगे एगे सुअक्खधे, पणयालीस उद्देसणकाला, पणयालीसं समुद्देसणकाला, सक्खेन्जाणि पयसहस्साणि ।
प्रश्वव्याकरण-इस सूत्र में एकसो आठ प्रश्न, १०८ अप्रश्न, १०८ प्रश्नाप्रश्न, विद्याओं का अतिशय, और नागकुमार तथा सुवर्णकुमारके साथ होने वाले दिव्य सवाद का वर्णन है। xx.x दशम (प्रश्नव्याकरण) अगमें, एक श्रुतस्कन्ध, ४५ उद्देशनकालें, ४५ समुद्देशनकाल, और सख्यात लाख पद मर्थात् ९२१६००० पद संख्या है। . . .
विपाकश्रुत-विवागसुए णं सुकड-दुकडा णं कम्माणं फलविवागे आपविजंति, से समासओ, दुविहे पन्नते तजहा, दुहविवागे सुविधागे चेव, तत्यणं दस दुहविवागाणि, दस सुहविवागाणि से कि तं दुहविवागाणि ? दुहविवागे सु ण दुहविवागाणं नगराई, उज्जाणाई, वणखंडा, रायाणो; अम्मापियरो, समोसरणाइ, धम्मायरिया, धम्मकहाओ, नगरगमणाई, ससारपवंधे, दुइपरंप
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२
वीरस्तुतिः ।
सिद्धं जानातीति ब्राह्मणः । परब्रह्मज्ञे ब्राह्मण इति शब्दस्तोममहानिषिः । ब्राह्मणलक्षणानीत्थं ब्रुवन्ति वृद्धाः । यथा
'क्षमा, तपो, दया, दानं, सत्यं, शौचं, ह्यणुव्रतम् । विद्याविनयसम्पन्नं प्रथमं ब्रह्मलक्षणम् ॥ १ ॥ शान्तो दान्तः सुशीलच, सर्वभूतहिते रतः । क्रोधावेशं न जानाति, द्वितीयं ब्रह्मलक्षणम् ॥ २ ॥ निर्लोभो निरहंकारः पापत्यागं करोति यः । रागद्वेषविनिर्मुक्तस्तृतीयं ब्रह्मलक्षणम् ॥ ३ ॥ परद्रव्यं यथा दृष्ट्वा पथि गेहेऽथवा वने । अदत्तं नैव गृह्णाति, चतुर्थ ब्रह्मलक्षणम् ॥ ४ ॥ मद्यमांसमधुत्यागी - त्यक्तोदुंबरपञ्चकः । भुनक्ति न निशाहारं पञ्चमं ब्रह्मलक्षणम् ॥ ५ ॥
,
ܐ
राभो, य आघविज्जति, से तं दुहविवागाणि; से किं तं सुहविवागाणि ? सुहविवासुणं सुहविवागाणं नगराई, उजाणाई, वणखंडा, रायाणो, अम्मापियरो, समोसरणारं, धम्मायरिया, धम्मकहाओ, इहलोभ-परलोभ इनिविसेसा, भोगपरिवाभा, पव्वज्जाओ, सुअपरिग्गहा, तवोवहाणाई, परियागा, पडिमाओ, संलेइणाओ, भत्तपाणपश्चक्खाणारं, पावोवगमणाई, देवलोगगमणाई, सुकुल पचाया, पुणबोहिलाहो, अंतकिरियाओ, आघविनंति, x x x x x एकारसमे अंगे वीसं अज्झयणा, वीसं उद्देसणकाला, वीसं समुद्देसणकाला, संक्खेज्वाइं पमसयसहस्वाई |
विपाकश्रुत-इसमें सुकृतकम्मोंका और दुष्कृत कम्मों का फलविपाकपरिणाम बताया गया है । वह फलविपाक सक्षेपसे दो प्रकारका है । यथा दुःखविपाक और मुखविपाक । जिनके १०-१० भेद हैं । दुःखविपाकमें दुःखविपाकवालोंके नगर, उद्यान, वनखंड, राजा, मातापिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्म्मकथा, नगरगमन, संसार प्रबन्ध, दुःखपरम्पराका ब्यौरे वार वर्णन है ।
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
'कैश्चित्तु ब्राह्मणा दशधा प्रोक्तास्त एवम्' यथा-देवो द्विजो मुनी राजा, वैश्यः शूद्रो बिडालकः ।
खरो म्लेच्छश्च चाण्डालो, विप्रास्तु दशधा मताः ॥ १॥ देवः-एकाहारेण सन्तुष्टो, मद्यमांसविवर्जितः ।
पारीणस्तत्त्वविज्ञाने, स विप्रो देव उच्यते ॥१॥ द्विजः-यामिको नियमी चैव, संयमी संयतेन्द्रियः ।।
समो दमक्षमायुक्तो द्विजो विप्रः स उच्यते ॥१॥ मुनिः-रक्षाऽऽहारी दिवाहारी, वनवासे रतः सदा।
कुरुतेऽहर्निशं ध्यानं, स विप्रो मुनिरुच्यते ॥ १॥ । नृपः -अश्वादिवाहनेच्छुर्यो विग्रहे चातिवर्तते ।।
आरंभः शासकः शूरः, स विप्रो हि नृपः स्मृतः ।। १ ।। वैश्यः-कृषिवाणिज्यगोरक्षां, न्यायं सेवां करोति यः।
धातूनां संग्रही नित्यं, स विप्रो वैश्य उच्यते ॥ १ ॥ सुखविपाकमें सुखविपाकवालोंके नगर, उद्यान, पनखंड, राजा, मातापिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, इसलोक परलोक सम्बन्धी ऋद्धि विशेष, भोगपरित्याग, प्रव्रज्याग्रहण, श्रुतपरिग्रह, तप, उपधान, पर्याय, प्रतिज्ञा, संलेखना, आहारपानीका त्याग, पादपोपगमनसंस्तारक, देवलोकगमन, सुकुलावतार, बोधिलाम और अन्तकिया तकका अनुक्रमसे वर्णन है। इसमें २० अध्याय हैं। २० उद्देशनकाल हैं, २० समुद्देशनकाल हैं। और संख्यात लाख अर्थात् १, ८४, ३२००० पद संख्या है।
दृष्टिवादः-दिठिवाएणं, सव्वभावपरूवणया, माघविनंति से समासो पंच विहे पण्णते, तं जहा-परिकम्मं, सुत्ताई, पुव्वगयं, अणुओगो, चूलिमा, ।,
रष्टिवाद-इसमें सब पदार्थों की प्ररूपणा है, और वह दृष्टिवाद परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, (पूर्व) अनुयोग और चूलिका इन मेदोंसे ५ प्रकारका कहा है।
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४ ... वीरस्तुतिः। ... शूद्रः-लाक्षातैलक्रयं चैव, विक्रयं व्याजभक्षकः ।
विक्रेता मद्यमांसानां, स, विप्रः शूद्र उच्यते ॥ १॥ विडालः-भक्ष्याभक्ष्यं न जानाति, नाट्यं वाद्यं करोति यः ।
परस्त्रीगमनं कर्ता, विडालः स हि प्रोच्यते ॥ १॥. ' म्लेच्छ:-वापीकूपतडागानामपूतजलसंग्रहः। ..
परदुःखं न जानाति, विप्रो म्लेच्छः स कथ्यते ॥ १ ॥ चाण्डाल:-~-अहिंसां नैव जानाति, सर्वदा प्राणिघातकः ।
वनं दग्ध्वा कृर्षि कुर्यात् , विप्रश्चाण्डाल उच्यते ॥ १ ॥ सरः-शास्त्राध्ययनजाप्यादिकर्मषटूविवर्जितः ।
जातमृत्युगृहे भोजी, खरो विप्रः स उच्यते ।। १ ।।.. वर्य:-नाच्छादयति परदोष, कुर्यात्स्वपापगोपनम् ।
शुनः पुच्छमिव व्यथ, ब्राह्मधर्मविवर्जितः ॥१॥ जन्मकाले भवेच्छूद्रो, वृद्धिकाले भवेट्विजः ।
शास्त्राभ्यासे भवेद्विप्रो, ब्रह्मविद्राह्मणः स्मृतः ॥ १॥ ... स तत्राब्राह्मणो यथा. . कोहो य माणो य वहो य जेसि, . . मोसं अदत्तं च परिग्गहं च ।
ते माहणा जाइविजाविहणा, ताई तु खेत्ताई सुपावयाइं॥१४॥
(संस्कृतच्छाया) . क्रोधश्च मानश्च बंधश्च येपा, मृपाऽदत्तं च परिग्रहं च। - ते ब्राह्मणा जातिविद्याविहीना-स्तानि तु क्षेत्राणि सुपापकानि ॥१४॥
। उत्तराध्ययन अ० १२ ।
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
यम्।
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता १५
[ब्राह्मणोचितश्रेष्ठयशः] . - , सुसंवुडा पंचहिं संवरे हिं,
इह जीवियं अणवकंखमाणा। . . ' , ' . वोसट्टकाया सुइचत्तदेहा,
महाजयं जयइ जन्नसेढें ॥ ४२ ॥ सुसंवृताः पंचभिः संवर, रिह जीवितमनवकांक्षमाणाः। च्युत्सृष्टकायाः शुचित्यक्तदेहाः, महाजयं यजन्ते श्रेष्ठयज्ञम् ॥४२॥
र उत्तराध्ययन अ० १२ [ब्राह्मणोचितस्नानतीर्थम् ] धम्मे हरए बम्भे संति तित्थे, अणाविले अत्तपसन्नलेसे। जहिं सिणाओ विमलो विसुद्धो, ' सुसीइभूओ पजहामि दोसं ॥ ४६ ॥ एयं सिणाणं कुसले हि दिछ, महासिणाणं इसिणं पसत्थं । .
जहिं सिणाया विमला विसुद्धा, 'महारिसि उत्तमं ठाणं पत्ते ॥ ४७ ॥
संस्कृतच्छाया . . धर्मो हदो ब्रह्म शान्तितीर्थ, अनाविल आत्मप्रसन्नलेश्ये।. .. -- यस्मिन् सातो विमलो विशुद्धःसुशीतीभूतः प्रजहामि दोषम् ॥१६॥ एतत्स्नानं कुशलैदृष्टं, महास्नानमृषीणां प्रशस्तम् । यस्मिन् साता विमला विशुद्धा, महर्षय उत्तमं स्थान प्राप्ताः ॥४७॥
तथाऽगारिणो-गृहवासिनः सदनं सझ भवनं विष्ण्य वेश्माऽथे मन्दिरम्, गेहं निकेतनागारमिति धनंजयः। आ-गृत कम्मणि
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः।
घ, आगमृच्छतीति, प्राप्नोति वेति, आग, आ-ऋ गतावण वेति आगारं,गृहमस्यास्तीत्यागारी, ते। आगारिणः, क्षत्रियादयश्चेति भावः । परतीर्थिकाः परमतावलम्यिनः शाफ्यादयश्चेति वा ते सर्वेऽपि, किं तदिति दर्शयति, स को योऽसावेनं धर्मम् । आगा. रानागारविच्छिन्नमाहोक्तवान् । धृ धारणे धातौ मन्, “स्थाद्ध. ममस्त्रियां पुण्यश्रेयसी सुकृतं वृष" इत्यमरः। 'वत्थुसहावो धम्मो 'यतोऽभ्युदयो निःश्रेयसी स धर्मः,' दुर्गतौ प्रपततांप्राणिनां धारणाद्धर्म रक्षकमेकान्तहितमाहोक्तवानिति । किंभूतं धर्ममनीदृशमतुलम् । कयोकवान् ? साधुसमीक्षया समतयेति भावः ॥१॥
अन्वयार्थ-(समणा) मिक्षु (माहणा) ब्राह्मण (य) और (अगा. रिणो) श्रद्धाल गृहस्थ (य) तथा (परतित्थिया) और और जैनतरमतावलम्बी (पुच्छिस्सु) पूछेगे कि-जिन्होंने ( साहुसमिक्खयाए) अच्छी तरह खाभाविक ज्ञानद्वारा (गंतहियं) सब प्रकारसे कल्याण और उद्धार करनेवाला (मणेलिस) उपमा रहित (धम्म) आत्म-धर्म (आहु) कहा है (से) वे (केइ) कौन थे?॥१॥
भावार्थ-आर्य सुधर्माचार्य भगवानसे उनके सदैव समीपमें रहनेवाले आयुष्मान् जंवू शिष्यने पूछा कि-हे मार्य। संसारसमुद्रसे पार करनेवाला, एकान्त हितकारी एवं अनुपम आत्म-धर्म किसने प्रतिपादन किया है ? मुझसे इस प्रकार अनेक भिक्षु-गृहस्थ एवं अन्यान्य-मतवालोंने प्रश्न किया है ॥१॥
भाषाटीका-इस संसाररूपी गहन वनमें घूमते फिरते प्राणिोंक लिए दश दृष्टान्तोंसे मनुष्यजन्मका मिलना अत्यन्त कठिन है, इसके अतिरिक आर्यदेश [आर्य भोजन, आर्य वृत्ति, आर्य वेशभूषा, आर्य पडौस, आर्य सहवास, आर्य भाषा,] उत्तम कुल, लम्बा आयु, आरोग्य शरीर, समस्त इन्द्रियोंकी इच्छानुकूल सामग्रियोंका संयोग मिलना तो और भी कठिन है, परन्तु श्रीवीतराग भगवान्के धर्ममें प्रवृत्त होना सबसे अधिक मुश्किल है, और जगत्के जीवोंको सर्वज्ञोक 'धर्म ही कल्याण और मंगलका करने वाला है । इसी भाव औषधके अनुपानसे शरीर और मन सम्बन्धी कर्म रोग नाश होते हैं, और वह धर्म ज्ञातपुत्रमहावीर प्रभुने चार प्रकारका प्रतिपादन किया है। जो कि-दान, शील, तप और भावसे पहचाना जाता है।
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
दान धर्म की विशेषता- .
दानको सवसे प्रथम इसलिए कहा है कि यह दान धर्म पिछले तीन भेदोंमे भी समाया हुआ है, लोकोंमें इसलोक, तथा परलोककी अपेक्षासे दान देनेकी प्रणाली सबसे पुरानी है, श्रीमान् तीर्थंकर भगवान् सबसे पहले एक वर्ष दान देकर फिर दीक्षा लेते हैं।
शीलमें भी दान धर्मका समावेश- शील धर्ममें भी दानधर्म ज्योंका त्यों समाया हुभा है, क्योकि ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण करनेपर असख्य द्वीन्द्रिय, और असंख्य सम्मूछिम पंचेन्द्रिय जीवोंको तथा नवलाख गर्भजपंचेन्द्रिय जीवोंको ब्रह्मचर्य पालन करनेसे प्रतिवार अभयदान मिलता है। इतर शास्त्रकारोंने भी इसका बडा माहात्म्य लिखा है।*
- शील व्रतको स्वीकार करके वीर्य (आत्मशक्ति) का रक्षण करता हुआ गर्भादिके जन्ममरण सबंधी कष्टोंसे मुक्त होजाता है, और मानो वह अपने को भी अभयदान देता है । इससे स्पष्ट सिद्ध है कि शीलमें भी दान ही गर्मित है। तपमें भी दानधर्मका अन्तर्भाव
शीलकी तरह तपश्चरण करने में भी दानधर्मकी आराधना छुपी हुई है। यह सब जानते है कि छ. कायकी विराधना (हिंसा या आरंभ) के विना भोजनका बनना असंभव है। परन्तु सावक उपवासादि तप करनेपर इच्छाओंको रोकतेहुए छ कायका आरंभ रोककर उस दिन अनन्त जीवोंको अभय दान देता है, अतः तप करनेसे भी दान धर्मका अनायासही पालन हो जाता है।
* एकरात्रोषितस्थापि, या गतिब्रह्मचारिणः ।। न सा ऋतुसहनेण, प्राप्तुं शक्या युधिष्ठिर! ॥
(मार्कण्ड, ऋषिः) भावार्थ-एक रात भर ब्रह्मचर्य पालन करने से भी जो उत्तम गति तथा श्रेष्ठ फल उस ब्रह्मचारी को मिलता है वह हे युधिष्ठिर ! हजार यज्ञोसे भी अप्राप्य है।
वीर.२
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८
वीरस्तुतिः । भावधर्म तो दान धर्म है ही
भाव प्रवृत्तिको रोक कर करुणा पैदा करनेका नाम है । तथा जीव और अजीवकी अप्रमत्तयोगसे रक्षाकरना भाव है, वहां भी सवको भावकी दृष्टिसे अभयदान ही मिलता है । अतः प्राणीरक्षाका नाम ही भाव या भावशुद्धि है। क्या साधु भी दान देता है ?
जैन मुनि भी प्रतिदिन उपदेशदान, ज्ञानदान, शिक्षादान, रूढिच्छेदक शिक्षा दान देकर मानव समाजपर महान् उपकार करते हैं । इसपर लोक कभी यह भी कह देते हैं कि साधुको अन्नदाता न कहकर दानी या राजाको ही अन्नदाता कहना चाहिए । साधु क्या कभी किसीको रोटी पानी दे सकता है ? मगर इतना तो अवश्य समझ लेना चाहिए कि क्या भोजन अन्न ही हो सकता है ? और कोई वस्तु नहीं, क्या अनसे ही तृप्ति होती है ? यदि सच पूछा जाय तो आत्माकी खुराक अन्न पानी नहीं है । यह तो परवस्तु तथा शरीरको पोषण करनेवाली पौद्गलिकवस्तु है । और आत्माकी निजी खुराक तो उसका ज्ञान, दर्शन, चरित्र, तप, सम, संवेद, निर्वेद, अनुकम्पा आस्तिक्य ही है । इस वास्तविक खुराकको प्राप्त करनेपर आत्माकी सदाके लिए तृप्ति हो जाती है । अतः पूज्य मुनिवर्य्य ज्ञान, दर्शन चरित्रकी आत्मीय खुराक देनेके नाते अन्नदावा भी हो सकते हैं। और इस दानके सुन्दर कार्य भारके संचालक मुनि ही होते हैं जोकि दोनों प्रकारसे निर्द्वन्द्व है।।
शील, तप और भाव गुप्त रीतिसे दानमें ही छुपे हुए हैं । अत एव चारों धर्मोमें पहले दानको प्रमुखस्थान प्राप्त है । परन्तु दान, शील, तप भी भावके सद्भावसे अर्थात् पवित्रमावरूपी सुन्दरलहरके आनेपर सफल हो सकते हैं अन्यथा नहीं। धर्मरत
चतुर्विध अमूल्य धर्मरत्न पाकर श्रेष्ठकुलकीप्राप्ति, समस्त इन्द्रियादिक की अनुकूल सामग्री युक्त मानवका कर्तव्य है कि वह अनेकान्तवादकी शैलीको समझकर जिनेन्द्रके धर्मतत्वका आश्रय पाकर माठकर्मरूप पदोंको तोड़नेका प्रयत्न करे।
कर्म नाश करनेकी कसोटी___ कोका नाश त्याग, वैराग्य, सयम, नियम, तपकी अनिमें आत्माते इस
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभापान्तरसहिता
कार होता है जैसे अमिमें सुवर्णका मल नाश होता है अतःउपरोक्त साध
को साधकका कर्तव्य है कि उन्हें समझनेकेलिए सर्वज्ञप्रभुका उपदेश सुतना चाहिए। और आप्तका रहस्य जानना चाहिए । यह निस्सदेह है कि आप्त अठारह दोषों से रहित होते हैं । वे चार घनघातिक कर्म क्षय करके अनन्त चतुष्टय अर्थात् अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और वह अनन्तसुख दहावस्थामें भी प्राप्त कर सकते हैं। वे साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकारूप बार धर्मतीर्थ स्थापन करनेके नाते तीर्थकर कहलाते हैं । और धर्मका आद्य चयन करनेसे तथा अनन्त विभूति प्राप्त करनेपर वे असंख्य देव और इन्द्रकी नेवा के योग्य होते हैं अतः अर्हन भी हैं। और इस वर्तमान अवसर्पिणीकालके चतुर्थ-भारकमे हमारे इस भारत वर्ष २४ अर्हन हो गए हैं। जेनमें अन्तिम अर्हन् महावीर प्रभु हुए हैं। वीर प्रभुकी स्तुति
ज्ञातृपुत्र महावीर प्रभुका हमपर पूर्ण उपकार है । उनके उपकारों का भूलजाना कृतघ्नता है। उन्हें निर्वाण हुए यद्यपि २४६५ वर्ष होगए हैं तथापि उनका अनुकरण करनेके लिए उनके गुणोंका स्मरण करना, तथा उनकी स्तुति करना हमारा परम कर्तव्य है, अत. आज उनकी स्तुतिरूप व्याख्या करनेकेलिए प्रयत्नशील हुआ हूं।
उनकी अनेक स्तुतिएँ और मेरा असामर्थ्य___ तत्वके अध्येताओंमे मुख्य विद्वानोंने उनके अनन्तगुणोंका अनेक उत्तम शब्दोंमें वर्णन किया है, परन्तु में भी अपने सम्यग्दर्शनके वलसे कुछ स्तुति करूं मुझे ऐसी सूझ पैदा हुई है। यद्यपि मुझमें उन विद्वानों जैसी प्रतिभा तो नहीं, मगर मेरा उत्साह और भकिकी निर्भरता मुझसे वलात्कार प्रेरणा कर रही है। कारण जिस रास्तेसे गरुड अपनी चण्डगतिसे उडकर निकल गया हो क्या उसके पीछे एक छोटीसी तितलीको जानेकी इच्छा नहीं होती ? अवश्य होती है।
इसी प्रकार अल्पज्ञप्रायः मैं भी मानसोत्सुकता से भरपूर होकर जातपुत्र महावीर खामीकी स्तुति 'वीरस्तुति' सूत्रकृताग नामा सूत्रके छठवें अध्यायकी व्याख्याके बहाने अवश्य करसकता हूं। मुझे आशा है कि उसमें मुझे सफलता
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः।
अवश्य प्राप्त होगी। क्योंकि मणिमें डोरा पिरोने की अपेक्षा उसका बेध करना कठिन होता है। अतः उनकी स्तुति रूप कृति तो पहलेसे ही विराजमान है किन्तु मैं तो उनकी स्तुतिरूप मणिको अपनी अननुभूत टूटी फूटी लोक भाषाके डोरेमें ही पिरोनेका सतत प्रयत्न करूंगा । और यह मेरी अनल्पीयसी भक्तिके कारण अधिक कठिन नहीं है । परन्तु यह सब प्रभुकी कृपा ही है। मेरी इसमें कुछ विशेषता नहीं है। क्योंकि उन्होंने २५०० वर्ष पहले आत्मज्ञानका मार्ग भव्यात्माओंकेलिए परिमार्जित कर दिया है। इसमें मुझ सम अल्पमतिकी मजाल नहीं कि कुछ विशेषता पैदा कर सकूँ, यह सब प्रक्रिया उनकी ही वताई हुई तो है। वीर प्रभु का गुण गान करते समयआरंभमें गुरु और शिष्यकी वातें।
। अन्तिम तीर्थकर ज्ञातनन्दन महावीर प्रभुके गुणोंको जाननेकेलिए जिज्ञासु जम्बू ने जोकि एक मुमुक्षु अन्तेवासी शिष्य थे, वे वस्तुका निश्चय करनेमें सदैव सचेष्ट रहते थे, वे तत्वको पाकर असीम श्रद्धा और प्रतीति के साथ मनन करनेवाले महापुरुषों में से एक थे;
आचार्य और उसकी पहिचान __ वे भगवान् सुधर्माचार्यकी सेवामें सदाकाल तत्पर रहते थे। सुधा एक विशेष आचार्य तथा समझदार जैनसमाजके सच्चे नेता थे । वे चतुर समाजको हमेशा संगठन और सच्चरित्री रहनेका पूर्णतया प्रभावोत्पादक उपदेश कियाकरते थे। वे खयं मी विनयशील और आचारयुक्त थे। क्योकि जो खयं परिशुद्ध और गुणसमन्वित होता है वही चरित्राकांक्षीकी अध्यात्ममनोरथ माला को गूंथ सकता है अतः वही आचार्य होनेका सर्वाधिकारी है। कहा भी है कि-"जो सूत्र और अर्थका जाननेवाला है, आत्माके ज्ञानलक्षणको मांजकर जिसने चमकीला कर दिया है । चारोंसंघकेलिए जो (पृथ्वी की भान्ति) अवलम्वनभूत है, संघकी अशान्तिका नाश करदेता है, आत्म-तत्व का उपदेशक है, वही आचार्य होता है", __वह पांच प्रकारके आचारोंका स्वतः पालन करता है। आपकी देखा देखी संघ भी सदाचारका अनुकरण करता है। इस प्रकारसे आचारका याथातथ्यं उपदेश आचार्य के द्वारा ही मिलता है। क्योंकि
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
२१
"जो पाच प्रकारके आचारोंका खय समाचरण करता है, अध्यात्मज्ञानका प्रकाशक है, चरित्रको प्रगटमें पवित्र दृष्टिसे भावके रूपमे भर देता है, वही भाचार्य होता है।" आचार्य के छत्तीस गुण
पाच इन्द्रियोंको वश करते हैं, नववाडविशुद्ध ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं, क्रोध, मान, माया, लोभको दूर करते हैं, पाच महाव्रतोंका पालन करते हैं, पाच आचारोंका समाचरण करते हैं, पाच समिति, तीनगुप्ति इन आठ प्रवचनोंको धारण करतेहैं, ये छत्तिस-गुण उत्पन्न होनेपर आचार्यकी योग्यता आ सकती है अन्यथा नहीं। आचार्य को चतुर गोपालं की उपमा
चतुर ग्वाल सब पशुओंको अपनी विचारदृष्टिमें रखता है । उन्हें किसीके खेतमें नहीं घुसने देता। इसीप्रकार आचार्यभी अपने संघको अशान्ति, कुसम्प, कषाय, रूढिवाद और वैषम्यकी ओर नहीं जाने देता, समाजमें क्लेश होते ही आचार्य तुरन्त मिटा देते हैं । या भव्यात्माओंके जन्म जन्मान्तरोंके क्लेश मिटा देते हैं। उन्हें सन्मार्ग-सम्यग्दर्शनका राह सुझा देते हैं, युक्त, अयुक्त, ससार-मोक्ष, हित-अहित, धर्म-अधर्मका रहस्य भिन्न भिन्न करके समझा देनेका उपकार प्रस्तुत करते हैं। उन्हें नमस्कार करने का प्रयोजन
आचार विषयक उपदेश उन्हीं से प्राप्त होता है, इसलिए तीसरे पदमें उनकोभी नमस्कार किया है, क्योंकि उन्होंने चरित्रोपदेशकताद्वारा हम पर खूव प्रभाव डाला है, हम उन्हें उपकारकी दृष्टि से निरहंकार होकर नमस्कार करते हैं और द्वादशागी-शास्त्र वाणीके पूर्णपाठी तथा औरोंको पढानेका कार्य भी इन्हींके हाथ है। आचार्य की विशेषता- .
,"ज्ञान, दर्शन, चरित्र, तप रूप गुप्त मन्त्रकी उत्तम शैली से ये ही व्याख्या करते हैं।
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः।
"ये मोक्ष शास्त्रके उपदेशक हैं।" . "शिष्योंको सदाचारमें स्थापन करते हैं।" "शिक्षाके पूर्ण-खामी होते हैं।"
"आत्मयोग-सिद्धिका मार्ग इन्हीं से मिलता है।" श्रीमान सुधर्म-आचार्य-आचार्यके समस्त गुणों से मण्डित हैं। जम्वू अन्तेवासी का सुधर्माचार्य से प्रश्न । ___अगाध गुणसमुद्ररूप सुधर्माचार्यसे जिज्ञासु शिष्य जम्वूने अंतिमतीर्थकर भगवान् ज्ञातृपुत्र-महावीरखामीके गुणोंका परिचय प्राप्त करनेके लिए यह पूछा कि वे प्रभु कैसे थे। धर्म-वर-चक्रसे संसारमें रुलानेवाले कर्मोका अन्त उन्होंने किस प्रकार किया। जिसमार्गका अनुसरण उन्होंने किया था यदि हम भी उसी मार्गका आश्रय लें तो हमारा प्रभुके साथ कैसे साम्य हो सकता है ? नरकके दु.खोंको सुनकर जिनका मन अत्यन्त उदास हो गया है, त्याग और वैराग्यसे जो समलंकृत होना चाहते हैं, वे श्रमणादि मुझसे पूछते हैं कि-संसारसे पार करनेवाला धर्म किसने प्रतिपादन किया है ? संसारमें विचरण करते समय वहुतसे श्रमण भी यही प्रश्न करेंगे। वे श्रमण-साधु होते हैं। परिग्रह ग्रन्थीके काटनेवाले हैं। निष्काम तप करते हैं। वे दूसरेके दुःख सुखको अपनी तरह समझनेके कारण खेदज्ञ भी होते हैं।। ब्राह्मण
इसके अतिरिक मुझसे कई ब्राह्मण भी यही पूछेगे। और वे ब्रह्मचर्य पालन करने से, सिद्ध-परमात्माका ज्ञान-मार्ग सुननेसे, परका आत्मा अपने सदृश जाननेसे, ब्रह्मके नामसे प्रसिद्ध हैं। वृद्ध पुरुषों के वताए ब्राह्मण लक्षण
जिसमें सहनशीलता, निरीहता, अहिंसकता, उदारता, सत्य, शौच, पांच अणुवत, विद्या, विनय सम्पन्नता है उस पुरुपमें ब्राह्मणका पहला लक्षण है।
जो शान्त है, इन्द्रियोंको अपने वशमें करता है, पवित्र और दृढ ब्रह्मचारी है। सब प्राणियोंके हित और कल्याणमें सदैव लगा रहता है। जो कभी भी क्रोधके आवेशमें नहीं आता। यह ब्राह्मणका दूसरा लक्षण है।
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभापान्तरसहिता २३ जो निर्लोभी है, अभिमानसे रहित है, सर्वथा पापको त्याग चुका है, राग, द्वेष और मोहसे मुक्त है, यह तीसरा लक्षण है।
मार्गमें, जंगलमें, या किसीके घर में पर वस्तुको देख कर जिसका चोरी करनेको जी नहीं चाहता, चोरी करके परवस्तु नहीं लेता है। वह ब्राह्मणका चतुर्थ लक्षण हैं।
जो मास, मदिरा, मधुका कभी सेवन नहीं करता है; गूलर, अंजीर भादि गले सडे कीडोंवाले फल नहीं खाता है, तथा रातको भोजन नहीं करता है, यह पांचवां लक्षण है।
किसीने ब्राह्मण के १० प्रकार भी कहे हैं। । देव, द्विज, मुनि, राजा, वैश्य, शूद्र, विलाव, गधा, म्लेच्छ, चाण्डाल, ___ इन मेदोंसे ब्राह्मण १० प्रकार के होते हैं।
देव
जो एक वक्त भोजन करता है, मास, मदिरा नहीं खाता पीता, तत्व ज्ञानके पारको पहुँच गया है, वह देव ब्राह्मण है। द्विज
महाव्रती-नियमयुक्त-संयम पालक इन्द्रियविजेता-समतोलन वृत्ति वाला, आत्मा और मनका विजेता-क्षमा और सहिष्णु ब्राह्मण द्विज कहलाता है। मुनि
जो रूखा, सूखा खाकर सन्तोष कर लेता है, दिन में भोजन करता है, सदैव वनमें रहता है, दिन, रात आत्म-ध्यान में लगा रहता है। योगाभ्यासके साधनमें संलग्न है, वह मुनि-ब्राह्मण है।
नृप' जो हाथी घोडोंपर चढ़नेकी इच्छा रखता है, समर भूमि में जाकर युद्ध करता है, अपने देशको दासत्व की शृंखला से मुक्त करके खतन्त्रता दिलाता है। जिसे अन्यायका नाश कॅस्ते दयान आती हो, न्यायसे शासन चलाता हो, साम्यवादकी स्थितिपालकतामें शूर वीर हो, जिसमें कायरता का नाम तक नहीं है । वह ब्राह्मण राजाके समान होता है। '
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः। -
वैश्य___ जो खेती करता है, न्याय नीतिसे व्यापार करता है, पशु । करता है, सदैव न्यायका पक्ष लेता है, जन समाज की सेवा मे तत्पर है दानके अर्थ सब प्रकारके धातुओंका अनुकूल-आर्य वृत्ति से संग्रह - जानता है, वह ब्राह्मण वैश्यके समान है। शूद्र
जो लाख और तैलका क्रय, विक्रय करता है, व्याज खाता है; मदिरा वेचता है, वह शुद्र ब्राह्मण है, विलाव
जिसे भक्ष्याभक्ष्यका ज्ञान नहीं है, जो गाने बजानेका काम करत परस्त्री गामी है, वह ब्राह्मण विलाव प्रकृति का है। म्लेच्छ
वावडी, कुँवा, तालाबसे जो अनछना पानीका व्यवहार करता परके आत्मसंबन्धी दुःखको न जानता हो, वह म्लेच्छ ब्राह्मण है। चाण्डाल
जो जंगलमें आग लगा कर खेती करता है, जो हरेक जीवको डालता है, अहिंसा धर्म से अनभिज्ञ है, वह विप्र चाण्डाल है। खर
शास्त्र अध्ययन और जप तप आदि अध्यात्मीय पट् कर्म करना जानता है, मृतक के घर आहार करता है, उसे खर-ब्राह्मण समझना चाहि अयोग्य ब्राह्मण
जो अन्यके दोषोंको प्रगट करता है, और अपने पापको छुपा देत वह ब्राह्मण धर्मके अयोग्य है, उसका जीवन कुत्ते की पूंछ की तरह व्यर्थ ब्राह्मण-परम्परा
जन्म कालमें वह शुद्ध रहता है, गुण वृद्धि पाकर द्विज होता है, श भ्यास करनेसे विप्र है, और वह अध्यात्मयोग तथा ब्रह्मज्ञान पाकर प्र हो जाता है।
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
२५
अत्राह्मण
जो क्रोध और मान तथा प्राणि-हिंसा- करता है, असत्य बोलता है, चोरी करता है, परिग्रह-तृष्णा युक्त है। वह ब्राह्मण जाति और विद्यासे हीन तथा पतित है, वही अब्राह्मण और पाप क्षेत्र कहलाता है।
ब्राह्मणोचित-सर्वश्रेष्ठ यज्ञ• जो पांच सवर भावोंसे आस्रवद्वारा आनेवाले पापको रोकता है, जिसे जीवित रहनेकी आकाक्षा नहीं होती, जो कायोत्सर्ग द्वारा भात्म-चिंतनमें लगा रहता है, मन, वाणी तथा कायके पापविकारोंसे अलग हटकर जो सर्वथा पवित्र हो गया है। जिसने देहका मोह त्याग दिया है, वह महाजय पानेका उत्तम अधिकारी है, यही श्रेष्ठ यज्ञ करता है। ब्राह्मणोचित तीर्थमान
धर्मरूपी द्रह है, ब्रह्मचर्य शान्तितीर्थ है, आत्माका प्रसन्न लेश्या रूप पवित्र जल है, इसीमें स्नान करनेसे कर्मरहित और निर्मल होकर जन्म मरणसे मुक्त होता है। उसमें सदाके लिए अपुनरावृतिरूप पवित्रता आ जाती है । अध्यात्म दोषोंका सर्वथा अमाव तव ही होता है ॥ ४६ ॥
यह मान आत्मज्ञानके मर्मज्ञोंने देखा है, ऋषियोंका श्रेष्ठतम और महास्नान (महाव्रत) ही है। जिसमें स्नान करनेवाले, पवित्र और कर्मरहित, होनेवाले महर्षिगण उतम मोक्ष स्थानको प्राप्त करते हैं।
इस प्रकार उपरोक्त लक्षणवाले ब्राह्मणों की तरह गृहवासी, क्षत्रियादिक तथा परमतावलम्बी भी यही पूछेगे कि साधु और गृहस्थके भेदसे जो धर्म दो प्रकार का है वह किसने बताया है ? उसका प्रणेता कौन है ? जो धर्म दुर्गतिमें पडनेसे धारण करके आत्माको बचानेवाला है, समदृष्टिसे एकान्त कल्याण और हित करनेवाला है। जिसकी महिमा अतुल और अपार है । उसे किस प्रणेताने समतापूर्वक कहा है ? जिसमें विषमता और पूर्वापर विरोधका नाम तक भी नहीं है ॥१॥ - गुजराती अनुवाद-आ संसाररूपी गहन वनमा भ्रमण करता प्राणिओने माटे दश दृष्टान्ते दुर्लभ एवा मनुष्य जन्मनी प्राप्ति थवी अति कठण छे, तदुपरान्त आर्यदेश, [आर्यभोजन, आर्यवृत्ति, आर्यवेश, आर्यसहवास,
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६
वीरस्तुतिः।
वधु कठण , अध्यात्मिक
सर्वज्ञ कलियु, ए सौथी
आर्यभाषा, आर्यजीवन,] उत्तम कुल, दीर्घ आयुष्य, आरोग्य शरीरे, समस्त इन्द्रियोने इच्छानुकूल सामग्रीनो संयोग अने अध्यात्मिकजीवन गाळनार साधुपुरुषोनो सत्संग ए तेनाथी वधु कठण छ। पण वीतराग प्रणीत धर्ममा प्रयत्नशील वनवू, ए सौथी वधु कठण छ । जगत्ना जीवोने कल्याणकर सर्वज्ञ कथित धर्मज छे, आ भाव औषधिना सेवनथी शारीरिक तेमज मानसिक सर्व रोगो नाश पामे छे, ते धर्म ज्ञातपुत्र श्रीमहावीर प्रभुए दानशील-तप-भाव ए चार प्रकारे वतावेलो छे.
दान धर्मनी विशेषता-दानने सौथी प्रथम एटला माटे कहेवामां आवेल छ के दान धर्मनो पाछलना त्रणे प्रकारोमां पण समावेश थएला छे, जगतमा आ लोक तथा परलोकनी खातर दान देवानी प्रणाली सौथी पुराणी छे। श्रीतीर्थकर भगवान् सौथी पहेला वरसीदान आपीने पछी दीक्षा अंगीकार करेछ।
शीलमां दान धर्मनो समावेश-शील धर्ममा पण दानधर्मनो समावेश थाय छे, ब्रह्मचर्य पालनथी दरेक वखते असंख्य वेइन्द्रिय असंख्य सम्मूर्छिमपंचेन्द्रिय तथा नव लाख गर्भज पञ्चेन्द्रिय जीवोने अभयदान मळे छ । अन्य शास्त्रकारोए पण आ व्रतनुं वहु ज माहात्म्य दर्शावेल छ ।
एकरात्रोपितस्यापि, या गतिर्ब्रह्मचारिणः । न सा ऋतुसहस्रेण प्राप्तुं शक्या युधिष्ठिर ॥
[मार्कण्ड ऋपि] ' भावार्थ-एक रात्रिना पण ब्रह्मचर्य पालनथी जे उत्तम गति तथा श्रेष्ठ फल ब्रह्मचारीने मळे छे, ते हे युधिष्ठिर ! हजार यज्ञोथी पण मळतां नथी।
शीलवतनुं पालन करीने वीर्य (आत्मशक्ति) नुं रक्षण करनार गर्भ, जन्म मरणादि दु खोयी मुक्त थाय छ । एटले के ते पोताने पण अभयदान आपे छ । आथी शीलमां पण दान गर्भित होवानुं स्पष्ट जणाय छ।
तपमां पण दानधर्मनो अन्तर्भाव-शीलनी माफक तपश्चर्यामां पण दानधर्मनी आराधना छुपायेली छे । आ वात सर्व कोई जाणे छ के छकायनी विराधना [हिंसा या आरम्म] वगर भोजन तैयार थई शकतुं नयी । परन्तु
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
२७
इच्छानिरोधरूप उपवासादि तप करवाथी छकायनो आरम्भ वंध थतां ते दिवसे अनन्त जीवोने अभयदान मले छे, तेथी तप करवाथी पण दानधर्मर्नु अनायासे पालन यई जाय छ। --भाव धर्म तो दानधर्म छेज
प्रवृत्तिने रोकी करुणा राखवी तथा अप्रमत्तयोगथी जीव तथा अजीवनी रक्षा करवी, तेनुं नाम भाव छे, त्या पण भावनी दृष्टिए वधाने अभयदान मळे छे, तेथी प्राणीरक्षानुं नामज भाव अथवा भावशुद्धि छ । शुं साधु पण दान दे छे?
हा, जैन मुनि पण हमेशा उपदेशदान, ज्ञानदान, शिक्षादान, रूढिच्छेदक दान दे छे, अने तेथी मानवसमाजपर महान् उपकार करे छ, कोई वखते लोको एम पण कहे छे, के साधुने नहि पण दानी अथवा राजानेज अनदाता कहेवा जोइए, साधु शु कोईने भोजन पाणी आपी शके छ ? पण एटलं तो जरूर समजी लेवू जोइए के शु अनाज मात्र भोजन कहेवाय छ ? चीजी कोई वस्तु नहि, तृप्ति शुं मात्र अनाजथीज थाय छ ? खरी रीते आत्मानो खोराक अन्न पण नथी, ए तो पर वस्तु तथा मात्र देहमुंज पोषण करनारी पौगलिक वस्तु छे पण आत्मानो पोतानो खोराकतो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, शम, सवेद, निर्वेद, अनुकंपा, आस्तिक्य छ। ते वास्तविक खोराकनी प्राप्तिथी भात्मानी हमेशने माटे तृप्तिज थई जाय छे। तेथी पूज्य मुनिवर ज्ञान, दर्शन चरित्ररूपी आत्मीय खोराक आपता होवाथी तेओने अन्नदाता पण कही शकाय, भने आ दानरूपी सुन्दर कार्यना संचालक मुनिज होय छ, के जे वंने प्रकारे निर्द्वन्द्व होय छे ।
शील तप तेमज भाव गुप्तरीते दानमां समायेला छे तेथी चारे धर्ममा दानने प्रथम स्थान आपवामा आवेल छ, परन्तु दान, शील, तप पण भावन सद्भावथी एटले के पवित्र भावरूपी सुंदर लहर आववाथी सफल वनी शके छ, बीजी रीते नहि। धर्मरत
चतुर्विध अमूल्य धर्मरत्न मेळवीने श्रेष्ठकुल तेमज इन्द्रियादिकनी अनुकूल सामग्री प्राप्त भयेल, मनुष्य, कर्तव्य छै के अनेकान्तवादनी शैलीने समनीने
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८
वीरस्तुतिः।
जिनेन्द्र कथित धर्मतत्वनो आश्रय लइने आठकमरूपी जालने तोडवानो तेणे अवश्य प्रयत्न करवो जोइए। कर्मनाशनो उपाय
जेवी रीते अग्निथी सुवर्णनो मेल नाश पामे छे तेवीज रोते त्याग, वैराग्य, सयम, नियम, तपरूपी अग्निथी कर्मोनो नाश थई जाय छ । साधकर्नु ए कर्तव्य छे के उपरोक साधनोने समजवाने माटे देणे सर्वज्ञ प्रभुनी वाणीरूप उपदेश साभळवो जोइए अने आप्त [सर्वज्ञ] कोने कहेवाय ते समजबुं जोइए।
आप्त अढार दोष रहित छे, चार घनघाती कर्मनो क्षय करी अनन्त चतुष्टय [ अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, अनन्त शक्ति ] ने वरेला छ साधु, साध्वी, श्रावक श्राविका ए चार तीर्थना स्थापक होवाथी तीर्थकर कहेवाय छ । धर्मनी आदि करवाधी तेमज अनन्त विभूतिमय होवाथी तेमो असंख्य देव तेमज इन्द्रोधी सेवा योग्य छ । तेथी अर्हत्-पण कहेवाय छ। वर्तमान अवसर्पिणी कालना चोथा आरामां आ भारतवर्षमा २४ तीर्थकर, एटले माप्त पुरुषो थई गएला छ । जेमाना अन्तिम तीर्थंकर ज्ञातृपुत्र महावीर प्रभु छ । वीरप्रभुनी स्तुति
ज्ञातृपुत्र महावीर प्रभुनो आपणापर अत्यन्त उपकार छ । तेमना उपकारोने भूली जवामां कृतन्नता छे, तेथी जोके तेमनुं निर्वाण थया २४६५ वर्ष थई गया छतां मना गुणोनुं स्मरण करवू तथा तेमनी स्तुति करवी, ए आपणुं परम कर्तव्य छे, तेथी आजे हु तेमनी स्तुतिरूप व्याख्या करवा प्रयत्नशील वन्यो छु।
तेमनी अनेक स्तुति अने मारुं असामर्थ्य___ तत्वज्ञोमा मुख्य विद्वानोए अनेक गुणोनुं अनेक उत्तम शब्दोमा वर्णन करेलु छे, परन्तु हुं पण पोताना सम्यग्दर्शनना वलथी काइक स्तुति करूं, एवी उच्च अने पवित्र अमिलापा प्रगट थई । जो के मारामा ते विद्वानो जेवी प्रतिभा नथी, छतां मारा उत्साह अने भक्ति मने वळात्कारे प्रेरणा करी रहेल छ, कारण के जे रस्ते गरुड पोतानी प्रचंड गतिथी उडीने पसार यई गयेल होय छे, ते रस्ते तेनी पाछल एक नाना पक्षीने जवानी इच्छा शुं नथी थती ? जरूर थाय छ ।
।
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २९ एरीते अल्पज्ञ प्राय हुंपण मानवोचित उत्सुकताथी भरपूर वनीने 'वीरस्तुति' नामे श्रीसूत्र कृताङ्गना षष्ठम अध्यायनी व्याख्यारूपे ज्ञातृपुत्र श्रीमहावीर प्रभुनी स्तुति करूं छु मने आशा छ के तेमा मारी प्रसन भक्तिरूप सफलता जरूर थशे ।
मणिमा दोरो परोववा करतां तेने वींधq वधु कठण छ, तेमनी स्तुतिरूप कृति तो प्रथमथी ज छे पण हुँ तो तेमनी स्तुतिरूप मणिमां मारी वीनअनुभवी तूटीफूटी वालभाषारुपी दोरो परोववानो सतत प्रयत्न करीश, अने ते मारी अत्यल्प भक्तिना कारणे अधिक मुश्केल नथी । पण ते वधी प्रभुनी कृपाज छ । तेमा मारी कशी विशेषता नथी । कारण के तेओश्रीए २५०० वर्ष पहेला भव्यात्माओ माटे आत्मज्ञाननो मार्ग सरल करी दीधेलो छ तेमा विशेषता उत्पन्न करवानी मारी अल्पज्ञनी कशी शक्ति नथी । आ सर्व प्रक्रिया तेमनीज वतावेली छ । वीरप्रभुना गुणगान करतीवखते प्रारंभमां गुरुशिष्य संवाद
जिज्ञासु जंबुखामी मुमुक्षु तेमज मुख्य अन्तेवासी शिष्य हता, तेओ वस्तुनो निर्णय करवामा सदा तत्पर रहेता हता। तेओ तत्वने प्राप्त करीने असीम श्रद्धा तेमज प्रतीति साथ मनन करवावाळा महापुरुषोमाना एक हता, तेओ भगवान् सुधर्माऽऽचार्यनी सेवामा सदा तत्पर रहेता हता। आचार्यनी ओळख
ते वखते सुधर्मा एक विशेष आचार्य तेमज समजदार जैनसमाजना साचा नेता हता तेओ चतुरसमाजने सगठित तथा सच्चरित्रवान् बनाववानो पूर्ण प्रभावशाळी उपदेश आप्या करता हता। तेओ पोते पण विनयशील अने आचारयुक्तहता, कारण के जे पोते विशुद्ध तेमज गुणी होय छे तेज बीजाओ माटे चारित्राकाक्षीनी अध्यात्म मनोरथमाला गुंथी शके छे, तेथी आचार्यपणामाटे पूर्ण अधिकारी छ । कथु पण छे के “जे सूत्र तेमज अर्थना जाणकार छ, आत्माना ज्ञानलक्षणने निर्मल वनावीने जेमणे प्रकाशित करेल छे, चारे प्रकारना सघने जेओ पृथ्वीनी पेठे आधारभूत छ। संघनी अशान्तिनो नाश करे छ, आत्मतत्व- उपदेष्टा छे, ते आचार्य होई शके"। - तेओ पाच प्रकारना आचारोनुं पोते पालन करे छे, तेमनी देखादेखीथी संघ पण सदाचारनुं अनुकरण करे,छे, आ रीते आचारनो यथातथ्य उपदेश आचार्य द्वाराज मळी शके छे । कारणके तेओ अध्यात्मज्ञानना प्रकाशक छ ।
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः।
आचार्यना छत्रीशगुण
पांच इन्द्रियोने वश करे छे, नव वाड विशुद्ध ब्रह्मचर्य, पालन करे छ। क्रोध-मान-माया-लोभ दूर करे छ । पांच महाव्रतोनुं पालन करे छ, पांच आचर रोनुं समाचरण करे छ, पाच समिति-त्रणगुप्ति ए आठ दया माताना प्रवचनने धारण करे छ । ए छत्रीस गुणवाला आचार्य कही शकाय, वीजा नहीं । आचार्यने चतुर गोपालनी उपमा
चतुर गोपाल वधा पशुओ पर पोतानी दृष्टि राखे छे, तेमने कोईना खेतरमा दाखल थवा देतो नथी, तेवीज रीते आचार्यदेव पण पोताना संघने अगान्तिकुसम्प-कषाय-रूढिवाद-विषमता-तरफ जवा देता नथी, क्लेश थता वेंतज आचार्य तरत तेने गमावी दे छे, भव्यात्माओना जन्म जन्मान्तरोना क्लेशने मटाडी दे छ, तेमने सन्मार्ग-सम्यग्दर्शननो सरल रस्तो बतावे छ । योग्य-अयोग्य, संसारमोक्ष, हित-अहित, धर्म-अधर्म-विगेरेनी समजण आपे छ । एवा आचार्यप्रभु वादवा योग्य छ। आचार्यने नमस्कार करवानुं प्रयोजन
आचार सम्बन्धी उपदेश तेओनी पासेथी मळे छे, वेथी तेमने त्रीजा पदमां नमन करेलो छे, कारणके चरित्रोपदेशनो आपणा पर तेओ प्रभाव पाडे छे, आपणे तेमने उपकारनी दृष्टिथी निरभिमानी वनीने नमस्कार करिए छीए। द्वादशागी[शान-] वाणीना तेओ पूर्णपाठी छे, तेमज वीजाओने भणाववानु कार्य पण तेमने हाथ छे। आचार्यनी विशेषता
ज्ञान-दर्शन-चरित्र-तप रूप गुप्त मंत्रनी उत्तम शैली थी तेओ व्याख्या करेछे, तेओ मोक्ष शास्त्रना उपदेशक छे, शिष्योने सदाचारमा स्थिर करे छे, शिक्षाना पूर्ण स्वामी छे, आत्म-योग-सिद्धिनो मार्ग तेमनी पासेथी प्राप्त थाय छ, श्रीमान् मुधर्माचार्य आचार्यना वधा गुणोथी विराजमान हता। अन्तेवासी जंवूनो सुधर्माचार्यने प्रश्न
अगाध गुण समुद्ररूप सुधर्माचार्यने जिज्ञासु जंवूए अन्तिम तीर्थकर भगवान् ज्ञातृपुत्र महावीर खामीना गुणोनो परिचय प्राप्त करवाने माटे प्रश्न कों के "तेओ केवा हता? ए धर्मवर- चक्रवाए पोताना वर्मचक्रथी संसारमा रसदा.
मा स्थिर करे छे, शिक्षा
सुधर्माचार्य
काम-योग-सिद्धिनो मार्ग
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३१ वनारां कर्मोनो अन्त तेओए कइ रीते कर्यो ? जे मार्ग- अनुसरण तेओए कयु, ते मार्गनो आश्रय जो अमे लइए तो प्रभु साथे अमारूं साम्य केवी रीते थई शके ? नरकना दु खो साभळीने जेमनुं मन अत्यन्त उदास थई गयुं छे, त्याग अने वैराग्यथी जेओ अलंकृत वनवा इच्छे छे, ते श्रमणादि मने पूछे छे के "ससार रूप समुद्रथी पार उतारनार धर्मनुं प्रतिपादन कोणे करेलुं छे ?" संसारमा विचरता घणा श्रमणो आ प्रश्न पूछशे, ते श्रमण-साधु छे, परिग्रह ग्रन्थीने कापनारा छे, निष्काम तप करे छे, तेओ पोतानी माफक बीजाओना सुख दुःख समजे छ, तेथी ते खेदज्ञ पण होय छ । ब्राह्मण
तदुपरात मने कोई ब्राह्मणो पण पूछशे, ब्रह्मचर्य- पालन करता होवाथी, सिद्ध-परमात्माना ज्ञान-मार्गनुं श्रवण करता होवाथी, अन्य-आत्माओने पोताना समान जाणता होवाथी, ते ब्राह्मण नामथी प्रसिद्ध छ। वृद्ध पुरुषोए वतावेला ब्राह्मणना लक्षणो
जेनामा सहनशीलता, निरासक्ति, अहिंसकता, उदारता, सत्य, शौच, पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत, विद्या विनयसम्पन्नता होय छे, तेमा ब्राह्मण- पहेलं लक्षण छे । जे शान्त होय छे, इन्द्रियोनु दमन करे छ, पवित्र अने दृढ ब्रह्मचारी छ, वधा प्राणिओना कल्याण-कार्योमा जे हमेशा तत्पर रहे छे, जे क्रोध करता नथी, ते ब्राह्मण- बीजं लक्षण छ । जे निर्लोमी छे, निरभिमानी छे, सर्वथा पापना त्यागी छे, राग-द्वेप अने मोहजाळथी मुक्त छे, ते त्रीजुं लक्षण छ । मार्गमां, जगलमा, अथवा कोईना घरमा पर वस्तुने जोईने चोरी करवानी इच्छा सरखी जेमने नथी थती, तेमज चोरी करीने पर वस्तुनुं ग्रहण जेओ करता नथी, ते ब्राह्मण- चोथु लक्षण छ । जे मास, मदिरा, मधुनुं क्यारे पण सेवन करता नथी, गुलर-अजीर विगेरे अभक्ष्यफळ तथा गळेला-सळेला फळ खाता नथी, तथा रात्रिभोजनना त्यागी होय छे, ते पाचमुं लक्षण छ । कोईए १० प्रकारना ब्राह्मण कहेला छे
देव, द्विज, मुनि, राजा, वैश्य, शूद्र, विलाव, गधा, म्लेच्छ, चाण्डाल ए मेदोथी ब्राह्मण दश प्रकारना होई शके छे.
देव ब्राह्मण-जे एक वखत भोजन करे छे; मास, मदिरानुं सेवन करता नथी, तत्वज्ञानना पारने पहोंची गया छे, ते देव ब्राह्मण छ।
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः।
द्विज ब्राह्मण-महाव्रती, नियमयुक्त, संयमपालक, इन्द्रियविजेता, सम. तोलनवृत्तिवाला, आत्मा अने मनना विजेता, क्षमावान् , अने सहिष्णु छे ते द्विज ब्राह्मण छ।
मुनिव्राह्मण--जे लुखो सुको आहार लईने पण सन्तोष माने छे, मात्र दिवसेज भोजन करे छे, हमेशां वनमा वसे छे, दिनरात आत्मध्यानमा मग्न रहे छ, योगाभ्यासनी साधना करे छे, ते मुनिब्राह्मण छ । नृपब्राह्मण----
जे हाथी, घोडा पर स्वारी करवानी इच्छा राखे छे, रण भूमिमां जई युद्ध करे छ, खदेशने गुलामीनी जंजीरथी मुक्त करी तेने खतंत्र वनावे छे, अन्यायनो नाश करवाने जे प्रयत्नशील छे, न्यायथी शासन चलावे छे, साम्यवादनी स्थितिपालकतामा शूरवीर छे, कायरतानो अशमात्र जेनामा नथी, ते नृपब्राह्मण होय छ।
वैश्य ब्राह्मण-जे खेती करे छे, न्यायनीतिथी वेपार करे छ, पशुर्नु पालन करे छे, हमेशा न्यायनो पक्ष ल्ये छे, जनसमाजनी सेवामा तत्पर रहे छ, जे दान देवा अर्थे सर्व प्रकारनी धातुओनो आर्यवृत्तिथी संग्रह करवानुं जाणे छे, ते वैश्य ब्राह्मणछे।
शूद्र ब्राह्मण-जे लाख, तेमज तेलनो वेपार करे छे, व्याज साय छ, मास मदिरा वेचे छे, ते शूद्र ब्राह्मण छ ।
विलाव ब्राह्मण-जेने भक्ष्याभक्ष्यनुं जान नथी, जे गावा वजाववान कार्य करे छे, परस्त्रीगामी छे, ते ब्राह्मण विलाव प्रकृतिनो छ।
म्लेच्छ ब्राह्मणवाव-कुवा-तळावमाथी जे अणगल पाणीनो उपयोग करे छे, परना दुखोनो जे विचार करतो नथी, ते म्लेच्छ ब्राह्मण छ ।
चाण्डाल ब्राह्मण-जे जंगलमां आग लगाडीने खेती करे छे, जे रेक जीवने मारी नाखे छे, अहिंमा धर्मथी अजात छे, ते चाडाल ब्राह्मण छ ।
खर ब्राह्मण-शास्त्र नुं अध्ययन करतां छतां अध्यात्म-यटर्म करवानुं जे जाणता नथी, प्रेतभोजन करे छे ते खर ब्राह्मण छ ।
अयोग्य ब्राह्मण-जे अन्यना दोपो प्रगट करे छ, अने पोताना पापोने छुपावे छे, ते ब्राह्मण धर्म माटे अयोग्य छ, तेनुं जीवन कुतरानी पूछडी माफक व्यर्थ छ।
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
३३
ब्राह्मण परम्परा
जन्मकालमा ते शूद्र होय छे, गुण वृद्धि पामीने द्विज बने छे, शास्त्राभ्यास करवाथी विप्र थाय छे, अने अध्यात्मयोग तेमज ब्रह्मज्ञान प्राप्त करीने ते ब्राह्मण थाय छ ।
अब्राह्मण-जे क्रोध-मान-प्राणी हिंसा-करे छे, असत्य वोले छे, चोरी करे छे, परिग्रह राखे छे, तृष्णा युक्त छे, ते ब्राह्मण जाति अने विद्याथी हीन तथा पतित छ । अने ते पापक्षेत्र कहेवाय छ ।
ब्राह्मणोचित श्रेष्ट यश-पांच इन्द्रियोनु नियमन करनारा, जीवितव्यनी पण परवा नहि करनारा, कायोत्सर्ग द्वारा आत्मचिन्तवन करनारा; मन, वाणी, तथा कायना पाप विकारोथी दूर रहेनारा, अने कायनी आसक्तिथी रहित, एवा महापुरुषो वहारंनी शुद्धिनी दरकार न करता उत्तम अने महाविजयी भावयज्ञने ज आदरे छ। " ब्राह्मणोचित तीर्थस्नान-धर्मरूपी कुंड छे, ब्रह्मचर्यरूपी पुण्यतीर्थ छे, आत्मानी प्रसनलेश्यारूप पवित्र जळ छे, तेमां स्नान करवाथी मरहित अने जन्ममरणथी मुक्त थाय छे, हमेशने माटे अपुनरावृत्तिरूप पवित्रता आवी जाय छे, दोषोनो सर्वथा अभाव त्यारेज थाय छ। ।
एबुं स्नान आत्म कुशल पुरुषोए कयुं छे, अने ऋषिओए.तेज महालानने वखाण्युं छे, जेमा नानकरेला पवित्र महर्पिओ निर्मल थईने [कर्मरहित थईने] उत्तमस्थान (मुक्ति) ने पाम्या छ ।
उपरोक्त लक्षणवाला ब्राह्मणोनी पेठे गृहस्थो, क्षत्रियो; अने परधर्मिओ पण मने पूछे छे के एकांत हितकारी अने अनन्य धर्म यथास्थित कोणे कयो छे ? ते धर्म दुर्गतिमा पडता जीवोने धरी राखे छे, बधार्नु एकान्त कल्याण करे छे, ते अपार महिमामय छे ॥१॥
किंहं चं णाणं कहं दंसणं से, । सीलं कहं णायसुयस्स आसी । , जाणासि णं भिक्खु । जहातहेणं,
अहासुयं हि जहा णिसंतं.२॥ वीर. ३
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः ।
संस्कृतच्छाया
कथञ्च ज्ञानं कथं दर्शनं तस्य, शीलं कथं ज्ञातसुतस्याऽऽसीत् ? जानीषे भिक्षो ! याथातथ्येन, यथाश्रुतं ब्रूहि यथानिशान्तम् ॥२॥
३४
सं० टीका - तथैव तस्य भगवतो ज्ञातृसुतस्य महावीरस्यान्तिमतीर्थकृतः सम्यग्ज्ञानादिगुणावाप्तये प्रश्नयन्नाह —— कथं केन प्रकारेण स वीरो "वि= विशिष्टां, ई = लक्ष्मीं, राति ददातीति सः । अथवा विशेषेण ईर्ते - सकलान् पदार्थान् जानातीति वीरः, यद्वा वि= विशिष्टा इरा = वाग्दिव्यध्वनिरूपा, इरा = पृथ्वी - ईषत्प्राग्भारा स्वरूपाऽस्ति यस्यासौ वीरः, अथवा वीरयति, वीर इवाचरतीति वा वीरः । वीररसपूर्णतामासाद्य कामराज - यमराज - मोहराजान् निराकरोतीति वीरः । यद्वा वि= विशिष्टा इरा गगनगमनं अपुनरावृत्तिरूपं यस्यासौ वीरः । " तस्य भगवतो, ज्ञानं “हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थं हि प्रमाण तो ज्ञानमेव तत्" " तन्निश्चयात्मकं समारोपविरुद्धत्वादनुमानवत्"
अथवा
“त्रिकालगोचरानन्त-गुणपर्य्यायसंयुताः,
यत्र भावाः स्फुरन्त्युच्चैस्तज्ज्ञानं ज्ञानिनां मतम् । ध्रौव्यादिकलितैर्भावैनिर्भरं कलितं जगत्, चिन्तितं युगपद्यत्र, तज्ज्ञानं योगिलोचनम् ॥” पुनश्च--- "अनेकपर्य्यायगुणैरुपेतं, विलोक्यते येन समस्ततत्वम् । तदिन्द्रियानिन्द्रियभेदभिन्नं, ज्ञानं जिनेन्द्रैर्गदितं हिताय ॥ रत्नत्रयीं रक्षति येन जीवो, विरज्यतेऽत्यन्तशरीरसौख्यात्, रुद्धि पापं कुरुते विशुद्धि, ज्ञानं तदिष्टं सकलार्थवद्भिः ॥
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
· क्रोध धुनीते, विदधाति शान्ति, तनोति मैत्री, विहिनस्ति मोहम् ।
पुनाति चित्त, मदनं लुनीते, येनेह बोधं तमुशन्ति सन्तः ॥" तथाच
"आत्मानमात्मसंभूतं, रागादिमलवर्जितम् ।
यो जानाति भवेत्स्य, ज्ञानं निश्चयहेतुजम् ॥" • अथवा ज्ञायते सदसदनेनेति ज्ञानम् । “मोक्षे धीनिमित्यमरः" । अवाप्तवान् , किंभूत भगवतो ज्ञानम् । विशेषाववोधकम् , लोकालोकावबोधक-सर्वभावग्राहकं लोकालोकविषयं, नातः परं ज्ञानमस्ति । न च केवलज्ञानविषयात्परं किंचिदन्यज्ज्ञेयमस्ति । तत्केवलज्ञानं, केवलं परिपूर्ण समग्रमसाधारणं निरपेक्षं विशुद्धं सर्वभावज्ञापकं लोकालोकविषयमनन्तपर्यायमित्यर्थः । शुद्धात्मोत्थसहजपरमानन्दरूपमतीन्द्रियसुख च केवलज्ञानादेवावामोति । अनेन केवलज्ञानचेतनामयत्वेन केवल ज्ञातृत्वादन्येषा कर्मवन्धं वाथवा कर्मफलं च शुभाशुभं केवलज्ञानेनैव ज्ञायते, सूक्ष्मवादरं चराचरं वा पूर्णसर्वज्ञत्वमिति भावः । किमूतं तस्य दर्शनं, सामान्यार्थपरिच्छेदकं दर्शनावरणरहितं चेति । "निर्वर्णनं तु निर्ध्यान, दर्शनालोकनेक्षणमित्यमरः ।" अथवा दृशेरव्यभिचारिणी सर्वेन्द्रियानिन्द्रियार्थप्राप्तिस्तत्सम्यग्दर्शनमिति । प्रशस्त दर्शनं सम्यग्दर्शनम् । सगतं वा दर्शनं सम्यग्दर्शनम् । वाथवा जीवादीनि तत्वानि त एवार्थास्तेषां श्रद्धान तेषु प्रत्यवधारणं, तदेवं प्रशमसंवेदनिर्वेदानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं सम्यग्दर्शनम् । यस्य मोहनीयसप्तकक्षयेन दर्शनं विशुद्धं तदेव सावरणं केवलं दर्शनं भवसम्भूतक्लेशप्राग्भारभेषजमनेन चरणज्ञानयोजिं महाव्रतविशुद्धभावजीवितं भवति । एतत्सद्दर्शनरत्नं मुक्तिदं विश्वलोकैकभूषामणिसदृशं । एवमेव
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
- वीरस्तुतिः । तच्छीलं चरित्रं यमनियमरूपं "शुचौ तु चरिते शीलमित्यमरः" । अस्तित् खात्मभावेऽपि, यदाह मेदनी कोषे,-"शीलं स्वभावे सद्वत्ते योगान्तरे सिते" इति । "शीलं खभावे सद्वत्त" इत्यमरोऽपि । तत्कीदृक् । ज्ञाताः क्षत्रियास्तेषां पुत्रो ज्ञातपुत्रः। “राजन्यः क्षत्रियो ज्ञात इति कोषः” । “णायपुत्ते विसोगे" "गच्छति णायपुत्ते असणाए" "इत्याचारागसूत्रे नवमाध्याये" । ज्ञातपुत्रो भगवान महावीरप्रभुरिति । तस्यासीदिति । यदेतन्मया पृष्टं तच्च हे भिक्षो ! "भिक्षुः परिवाद कर्मन्दीत्यमरः" । सुधर्मस्वामिन् ! याथातथ्येन सम्यक्प्रकारेण जानास्यवगच्छसि । तत्कृत्वं त्वया यथा श्रुतं कर्णगोचरी [ यथा भवति तथा] कृतं, यथा निशान्तं नितरामतिशयेन शान्तं ब्रूह्याचक्ष्वेति भावः। निशान्तमित्यवधारितं यथा दृष्टं तथेति केचित् ।" . अन्वयार्थ-(से) उस (णायसुयस्स) ज्ञातृपुत्र-महावीर भगवान्का (णाणं) ज्ञान (कह) कैसा था, (दंसणं) दर्शन (कह), कैसा था, और (सीलं) चरित्र (कह) कैसा था, [भिक्खु !] हे सुधर्मखामिन् ! आप [जहातहेणं] अच्छे प्रकार [जाणासि ] जानते हो अत एव [अहासुर्य ] आपने जैसा सुना है एवं [जहाणिसंतं] जैसा निर्धारण किया है उसी प्रकार [हि ] फर्माइए।
भावार्थ-आर्य जम्बू नामक जिज्ञासु-शिष्यने निवेदन किया कि हे सुधर्मस्वामिन् ! गुरुवर्य ! आप सव कुछ अच्छीतरह जानते हैं अत एव कृपा करिए और यह फर्माइए कि-भगवान् ज्ञातृपुत्र महावीरका ज्ञान कैसा था ? उन्होंने उस सम्यग्ज्ञानको किस प्रकार प्राप्त किया? और उनका दर्शन सामान्य प्रतिभास तथा यम-नियम और सयमादि शील-चरित्र किसभान्तिके थे ? ॥२॥
भाषाटीका-मोक्ष लक्ष्मीके प्रदाता, सर्वपदार्थोके ज्ञाता, जिसकी वाणी विलक्षण और अमोघ है, जो अष्टम पृथ्वी [ मोक्ष को प्राप्त कर चुकाहै, वीर रंस पूर्ण है, वीरता पूर्वक जिसने कामराज, मृत्युराज और मोहराजको जीत लिया है, जिसका अविरल ज्ञानमें विशेष गमन अर्थात् प्रवेश है, वह वीर
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३७ कहलाता है। भगवान् महावीर चरमतीर्थकर नाम और गुण से महावीर ही थे। उनमें ये सब उपमाएँ पाई जाती थीं।
ज्ञान-उनका ज्ञान कैसा था? क्योंकी प्रमाण ही हितकी प्राप्ति और अहितका परिहार करनेमें समर्थ है, अत. ज्ञानही सबसे ।दृढ और पुष्ट प्रमाणयुक्त होता है।
इसके अतिरिक्त ज्ञान ही वस्तुतत्व का निर्णय करताहै, इसीसे परमोपकारी ज्ञानही है, यथा
जिसमे तीन कालके गोचर अनन्त गुण पर्याय से संयुक्त पदार्थ अतिशयके साथ प्रतिभासित होते हैं। उसको ज्ञानी जनों ने जान कहा है । यह सामान्यरूप से पूर्ण-ज्ञानका स्वरूप है। आकाश द्रव्य अनंत प्रदेशी है, उसके मध्यमें असंख्यात प्रदेशी लोकाकाश है, उसमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल ये अनन्त द्रव्य है, उनके तीन काल सम्बन्धी भिन्न भिन्न अनन्त-अनन्त पर्याय हैं। उन सवको युगपत् (एक समयम) जाननेवाला पूर्णज्ञान आत्माका निश्चयखभाव है। यद्यपि कर्मके निमित्तसे उसके पाच मेद होगए हैं तथापि वह स्वभावस्थित है।
उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य स्वभाववाले पदार्थों से यह जगत् अतिशय भरा पडा है, जिसके ज्ञान में यह एक दम प्रतिविम्बित हो वह ज्ञान परमयोगीश्वरों के लिए तो नेत्र के समान है । क्योंकि अन्य मतों में योगीप्रत्यक्ष ज्ञान को माना है, वह यथार्थ न हो कर उक्त ज्ञानही सत्यार्थ है।
इसके अतिरिक्त यहमी कहा है कि जिसके द्वारा समस्त तत्वों को विचार सरणी से आत्मा स्फुट रूपमें देखता है, जिस तत्वमें अनन्त पाय गुण की सत्ता है, इसे सम्यक्तया जाननेके लिए ज्ञान ही हितकर और पहला साधन है। इसी ज्ञानसे आत्माको जड ससार से अलग कर डालता है।
आत्मकल्याण करनेवालोंकेलिए ज्ञानका सर्व प्रथम आराधन इसलिए __ अभीष्ट है कि इसके द्वारा जीव पौद्गलिक तथा शारीरिक सुखसे विरक्त हो जाता
है। अपने आत्मीय गुण रत्नकी रक्षा इसीकी छन छायामें होती है। फिर उससे प्रवृत्ति-पाप द्वारको रोक कर आत्म शोधनमें लगजाता है।
__ज्ञानकी पूर्ण मात्राके प्रभावसे क्रोधको शान्त करता है, इससे आत्मामें __अपूर्व सम भावकी झाकी होती है। शान्तिके कारण सब प्राणिओंमें अमेद
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८
.
वीरस्तुतिः। ...,
रूपसे मैत्री भाव पैदा करनेका स्वभाव होजाता है। इसके अनन्तर मोह, अवि.. वेक, चित्त विकारके पर्दै तोड डालता है। मोहका सर्वथा नाश होनेपर चित्त . निर्मल और पवित्र हो कर स्थिर होता है, पवित्र चित्तवाला कामदेवका नाश करता है। जिसके ज्ञान-आत्माका उदय होगया हो उसमे इतनी क्रियाओंका भी मननात्मक उदय हो जाता है, इससे ज्ञानी अटल सुखके पदको पानेका पूर्ण साधक बन जाता है।" ____ 'जो आत्माको राग द्वेपसे निकालकर निश्चय हेतु बन जाता है बुद्धिमानोंने उसे भी ज्ञान कहा है।'
__ 'जिससे सत् अर्थात् उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यका और असत्का विवेक हो उठता है, उसे भी ज्ञान ही कहा है।'
, ज्ञान विशेष वस्तुका बोध कराता है, लोक और अलोकके परदे खुल जाते हैं। हथेली पर रक्खे हुए आमलेकी भाति ससारका सब खरूप और घटनात्मक भाव जानने लगता है । वह सपूर्ण ज्ञान केवलज्ञान या ब्रह्मनान है। इससे वढकर ज्ञानकी और कोई भूमिका नहीं है। केवल नाम भी पूर्णताका है, वह 'जान असाधारण है, निरपेक्ष और परमशुद्ध है, सब पर्यायों और भावोंका
जापक है । इससे लोक और परलोक अवगम्य है । जानसे' सहज और उत्कृष्ट 'अनन्त आनन्द मिलता है। यही ज्ञान प्राणिओंके मंबन्धका समय, तथा उनके शुभाशुभ फलका वोव कराता है। तथा सूक्ष्म-चादर, चर-अचरकी पूरी खवर रखने वाला सर्वन कहलाता है। दर्शन
जिसमें किसी प्रकारका व्यभिचार नहीं पाया जाता, संशय, विपर्यय, मिथ्यात्व-या अनध्यवसाय आदि दोपो से रहित हो, इन्द्रिय और मनके विषय भूत समस्त पदार्थोकी दृष्टि श्रद्धारूप प्राप्तिको, अथवा सगत युक्तिसे सिद्ध दर्शनको सम्यग्दर्शन कहते हैं। तथा जीव आदि नव पदार्थोंके भावों पर श्रद्धान पूर्वक 'यथानुरूप धारण करना, जिससे कि-समता भाव अस्थिर वस्तुओंसे विरक्ति दिलानेवाला वैराग्य, कर्म वन्धसे मुक्त होने की निरन्तर अमिलापा, शत्रु मित्रके जटिल प्रश्नको उठाकर अमेट रूप अनुकम्पा और आत्मीय कर्मोका उदय होने पर ही सुख दुख होता है इस रीतिका आन्तिव्यादि लक्षणोंका समुदय
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
३९
होता है । त्याग, वैराग्य तथा विवेक शुद्ध होनेसे वही मुक्तिका अग है। संसारके क्लेशरूपी रोगोंके भारको मिटानेमे औषध रूप सम्यग्दर्शन ही है। जोकि ज्ञान और चरित्रका बीज रूप है। इसीसे महाव्रतोंको पालन करते २ परम आत्मामें स्थिर रहनेकी भावना जागृत होती है। ज्ञानात्माओंका विश्वमें सर्वोपरि भूषण रूप है। इस श्रेष्ठ सम्यग्दर्शनसे नि सशय मोक्ष पाता है जिसके निशंकसे लगाकर प्रभावना तक आठ अग हैं। चरित्र
उत्तराध्ययन सूत्रके २८ वें अध्यायमें वीरप्रभुने स्वयं प्रतिपादन किया है कि मिथ्यात्व, अव्रत, कपाय, प्रमाद और मन वचन कायके अशुद्ध विचारोंसे जो पाप कर्म वाधे गए हैं, जिनका कि शुभाशुभ फल परिवर्तन करना अपने अधिकारमें अब न रह गया है उन काँको जिस पुरुषार्थ-बलसे नष्टकरके आत्माको कषायात्मा, योगात्मासे रिक्त करदेना चरित्र कहलाता है, चरित्रसे भविष्यके लिए प्रवृति मार्गका अवरोध करके तपसे उसे अमिमे सुवर्णकी भाति मल शोधन करता है । जिससे जन्मान्तरके कर्मोका क्षय होनेसे सर्व दु खोंसे रहित हो जाता है।
और यह चरित्र अणुव्रत और महाव्रतके भेदसे दो प्रकारका है। जिससे अपने भावोंको कषाय रहित करनेपर मूलगुण और उत्तरगुणरूप चरित्र एक देश या सर्वथा सयम गुण प्राप्त करता है।
अत भगवान् ज्ञातनन्दन महावीरका चरित्र कैसा था ? झातपुत्र
वे ज्ञात-वंशके क्षत्रियोंके कुलमें उत्पन्न होनेसे ज्ञातपुत्र कहलाते थे। मुनि वनकर ज्ञातपुत्र कभी किसी वस्तु की वियोग दशामें शोक प्रगट न करते । ज्ञातपुत्र किसीके शरण नहीं जाते, तथा सदैव खावलम्बी रहते थे। उनकी भावना राग और द्वेषसे रहित-मध्यस्थ थी । वे अनुकूल, प्रतिकूल प्रसंगों पर लक्ष्य न देकर सयम मार्गमें स्थिर बुद्धिसे अपनी धर्मप्रतिज्ञाओंमें सदा प्रवृत्त एवं दृढ रहते थे।
अत गुरो ? मैंने उनके ज्ञान, दर्शन और चरित्रके विषयमें जो कुछ पूछा है। उसका आपने यथानुरूप अनुभव कर लिया है, अत. जो कुछ सुना देखा है, वह शान्त चित्त होकर मुझसे कहिएगा?
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः।
"मोक्षलक्ष्मीना दाता, ने प्राप्त करीचुक्या छबल छ, ते वीर कहे
- गुजराती अनुवाद-वीरभगवाननां रत्नत्रय सम्बन्धी प्रश्नो-.
मोक्षलक्ष्मीना दाता, सर्व पदार्थोना जाता, जेमनी वाणी अमोघ अने विलक्षण छे, जे अष्टम पृथ्वी मोक्षने प्राप्त करीचुक्या छे वीर रस भरपूर छे,वीरताथी जेमणे कामराज मृत्युराज अने मोहराजने जीती लीधेल छे, ते वीर कहेवाय छे, महावीर प्रभु महावीरज हता, तेमनामा आ वधी वातो हती।। ज्ञान
तेमनुं ज्ञान के हतुं ? कारणके प्रमाणज हितनी प्राप्ति अने अहितनो लाग करवामा समर्थ छे, तेथी ज्ञानज प्रमाण होई शके छे ।
वळी ज्ञानज वस्तु तत्वनो निर्णय करावे छे, तेथी ज्ञानज परम उपकारी छ । ___ पुन कह्यु छ के-जेमा त्रणे काल गोचर अनन्तगुण पर्याय सयुक्त पदार्थ अतिशय साथ प्रतिभासे छे, तेने जानीजनो ए जान कहेलं छे, आ सामान्यपणे पूर्ण ज्ञान- खरूप छे, आकाशद्रव्य अनन्तप्रदेशी छे तेना मध्यमा असख्यात प्रदेशी लोकाकाग छे, तेमा जीव-अजीव-पुद्गल-धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय अने काल ए अनन्तद्रव्य छ। तेना त्रण काल सम्बन्धी भिन्नभिन्न अनन्त पर्याय छे, ते वधाने युगपत् [एक समयमा] जाणवानो पूर्णज्ञान आत्मानो निश्चय खभाव छ।
उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य खभाववाला पदार्थाथी आ जगत् अतिशय भयुं पड्यु छे, जे ज्ञानमा आ वधुं एकदम प्रतिविम्वित थाय छे, ते ज्ञान परम योगीश्वरोने माटे तो नेत्र समान छ।
तदुपरान्त पण कथु छ के-"जेनी द्वारा वधा तत्वोने विचार श्रेणिथी आत्मा स्पष्ट रूपे जुए छे, जे तत्वमा अनन्त पर्याय-गुणनी सत्ता छे, तेने सम्यक् प्रकारे जाणवाने माटे ज्ञानज हितकर अने प्रथम साधन छे, तेनाथी आत्मा जडससारथी अलग थई शके छे।"
आत्मानो कल्याण करवावाळाओ माटे जानतुं आराधन सौथी प्रथम एटलामाटे इष्ट छ के तेनाथी जीव पौगलिक तेमज शारीरिक सुखथी विरक्त बनी जायछे । पोताना आत्मीय गुणरत्ननी रक्षा तेनी छत्र छायामा यई शके छे। वळी तेनाथी- प्रवृत्ति-पापद्वार ने रोकीने आत्मशोधमा लागी जाय छ ।
- ज्ञाननी पूर्ण मात्राना प्रभावथी क्रोध शान्त थई जाय छे । तेनाथी आत्मामा अपूर्व समभावनी झांकी थाय छ । शान्तिना कारणे सर्वप्राणिओमा अभेदरूपे
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभापान्तरसहिता
४१
मैत्रीभाव पैदा करवानो स्वभाव थई जाय छे । मोह अविवेक अने चित्त विकारनो पडदो तूटी जाय छ। मोनो सर्वथा नाश थई जवाथी चित्त निर्मल अने पवित्र वनीने स्थिरता प्राप्त करे छ । पवित्र चित्तवाळो कामदेवनो नाग करे छ । जेनामा ज्ञानात्मानो उदय थएलो छे, तेनामा आटली क्रियाओनो उदय थई जाय छे, तेनाथी अटल सुखना पदने प्राप्त कराववातुं ते साधन बनी जाय छ ।
जे आत्माने राग-द्वैप अने मोहमाथी वहार काढवामां निश्चय हेतुरूप छे तेने पण बुद्धिमानोए ज्ञान कहेलं छे।
ज्ञान विशेष वस्तुनुं वोधक छे, लोकालोकनुं प्रगट खरूप समजाय छे हस्तामलकवत् समारना सर्व खरूपर्नु तथा घटनात्मक भावनु जाणपणुं याय छ । ते सम्पूर्ण ज्ञान केवलज्ञान अथवा ब्रह्मनान छ । तेनाधी अधिक ज्ञाननी वीजी कोई भूमिका नथी । केवल एटले पूर्णता, ते ज्ञान अमाधारण, निरपेक्ष अने परम शुद्ध छे, सर्व पर्याय तेमज भावोनुं नायक छ । तेनाथी लोकालोकनुं ज्ञान थाय छ । तेनाथी सहज तेमज उत्कृष्ट अनन्त आनन्द मळे छ । ते ज्ञान प्राणिओना कर्मवन्धनो समय तथा तेना शुभाशुभ परिणामोनो बोध करावे छ । सूक्ष्म-यादरचराचरनु पूर्णज्ञान सर्वज्ञने होय छ । दर्शन
जेमा कोई प्रकारनो व्यभिचार नथी होतो; संशय, विपर्यय, मिथ्यात्व अथवा अनध्यवसाय आदि दोषोथी जे रहित छे, इन्द्रिय अने मनना विषयभूत सर्व पदार्थोनी दृष्टि-श्रद्धारुप प्राप्तिने सम्यग्दर्शन कहे छे, जीवादि नवतत्वना भावोपर श्रद्धानपूर्वक तेनुं यथानुरूप धारण करवं, जेनाथी समता भाव अस्थिर वस्तुओनी विरक्ति रूप वैराग्य, कर्म बंधथी मुक्त होवानी निरन्तर अभिलाषा, शत्रु मित्र पर अमेदरूपे अनुकम्पा, आत्मीय कर्मोनो उदय थवाथीज सुख दुख थाय छे, ते जातना आस्तिक्यादि लक्षणोनो उदय थाय छे, त्याग-वैराग्य तथा विवेक शुद्ध थवाथी जे मुफिनु अग छे, ससारना क्लेश रूपी रोगोना समूहने मटाडवामा जे औषधरूप छे, ते सम्यग्दर्शन छे, ज्ञान अने चारेनना बीजरूप छे, वेनाथी महाव्रतोतुं पालन करता करता स्थिरतानी भावना जागृत थाय छे, ज्ञानीओर्नु विश्वमा ते सर्वोपरि भूपण छे, ते श्रेष्ठ सम्यग्दर्शनथी नि शंसय मोक्षनी प्राप्ति थाय छे, तेना निश्शंकथी माडीने प्रभावना सुधीना आठ अग छ ।
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२
वीरस्तुतिः। ... चरित्र
उत्तराध्ययनना २८ मां अध्यायमां श्रीवीरप्रभुए खयं प्रतिपादन करेलं है के मिथ्यात्व, अव्रत, कपाय, प्रमाद अने मन-वचन-कायना अशुद्ध योगथी जे पापकर्म बंधाएला छे के जेना शुभाशुभ फलमा परिवर्तन करवानी सत्ता आपणा हाथमा नथी रही, ते कोनो पुरुषार्थवळथी नाश करीने आत्माने कपायात्मा अने योगात्माथी अलग करी देवो, तेनुं नाम चरित्र छे, चरित्रथी भविष्यनी प्रवृत्तिमार्गनो अवरोध करीने जेम अग्निथी सुवर्णनो मेल दूर थाय छे, तेम । तपथी जन्मान्तरना कर्मोनो नाश करीने आत्मा सर्व दु खोथी रहित थाय छे। ।
आ चरित्रना अणुव्रत तथा महाव्रत एम वे मेद छे, पोताना भावोने कषायरहित करवाथी मूल गुण तथा उत्तरगुण रुप चरित्र एक देश अथवा सर्वथा संयम गुण प्राप्त करे छे ।
जम्बूमुनि सुधर्माचार्य ने पूछे छे के भगवान् ज्ञातृपुत्र-महावीरनुं रत्नत्रय केयूँ तुं? शाहपुत्र
तेओ ज्ञातृ वंगना क्षत्रिय कुलमा जन्म्या होवाथी ज्ञातृपुत्र कहेवाता | हता, मुनि वनीने नातृपुत्र कोई वस्तुनी वियोग दशामा शोक नहोता करता, जातृपुत्र कोईने वा न थता, पण सदैव स्वावलवी रहेता, तेमनी भावना रागद्वेष रहित मध्यस्थ हती। तेओ अनुकूल प्रतिकूल प्रसंगो पर ध्यान आप्या वगर संयम मार्गमा स्थिर रहीने पोतानी वर्मप्रतिजाओमा हमेशा प्रवृत्त रहेता हता।
तेथी हे आचार्य भगवन् ! मे तेमनां जान-दर्शन अने चरित्र सम्बन्धी जे प्रश्न कर्यो छे, तेनो आपे यथानुरूप अनुभव प्राप्त कर्यो छे ते जेम तमे सांभब्यु होय अने धार्यु होय ते शान्त चित्ते मने कहो।
खेयन्नए से कुसले महेसी, अणंतनाणीय अणंतदंसी। जसंसिणो चक्खुपहे ठियस्स, - जाणाहि धम्मं च धिइं च पेहि ॥ ३ ॥... ।
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभापान्तरसहिता
४३
संस्कृतच्छाया खेदज्ञः [क्षेत्रज्ञः] स कुशलो महर्पिः, अनन्तज्ञानी च अनन्तदर्शी । यशखिनः चक्षुःपथे स्थितस्य,
जानीहि धर्म च धृतिं च प्रेक्षस्व ॥ ३॥ सं०टीका-स ज्ञातनन्दन-महावीरो भगवान् चतुर्विंशदतिशयसमेतः, पंचत्रिंशद्वाणीगुणोपपेतः "उप अप इतः 'शकन्ध्वादिषु पररूपं वाच्यमिति वार्तिकेन' पररूपत्वे उपपेत इति" । खेदं संसारान्तवर्तिजीवानां कृतकर्मविपाकजं शारीरिक मानसिकं च दुःखं क्लेशं, आत्मीयज्ञानेन जानातीति खेदज्ञः-सदयः । "खेदज्ञः सदयो वीर इति कोषः" । तं परकीयात्मदुःखं विज्ञाय समस्तप्राण-भूत-जीवसत्वानां दु.खापनोदनसमर्थोपदेशदानादियुक्त इति । अथवा 'खेयन्नए' इत्यस्य 'क्षेत्रज्ञ' इतिच्छाया तत्रायमर्थः क्षेत्रमाकाशं तल्लक्षणया तन्मध्यवर्ती धर्माधर्मात्मकालपुद्गलसमूहस्तज्जनातीति क्षेत्रज्ञः । लोकालोकखरूपपरिज्ञातृत्वादिति। पुनश्च वा यथाऽवस्थितात्मखरूपपरिज्ञानादनुभवनादात्मज्ञ इत्यपि साधुरेव । अथवा क्षेत्रं शरीरं तदसारतया जानातीति (दर्शयतीति) वा, क्षेत्रं स्त्रीविषयदोषं तद्रमणानुरक्तजं तज्जानातीति क्षेत्रज्ञः । "क्षेत्र नारीशरीरयो" रित्यमरः । कुशलो-निपुणः, सदसज्ज्ञानप्ररूपकत्वात् । “प्रवीणे निपुणाभिज्ञविज्ञनिष्णातशिक्षित । वैज्ञानिक कृतमुख. कृती कुशल" इत्यमरः । अथवा तानष्टकर्मकुशान् लुनातीति कुशलः। प्राणिनां कर्मोच्छित्तये निर्जरार्थाय निपुणः समर्थः । "पर्याप्तिक्षेमपुण्येषु कुशलं शिक्षिते त्रिष्वित्यमरः" । अथवा प्राणिनां भावुको भद्रकारको मङ्गलप्रदः । "श्वः श्रेयस शिवं भद्रं कल्याणं मंगलं शुभम् । भावुक भविकं भव्यं कुशलं" इत्यमरः । 'आसुपन्ने'
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४
वीरंस्तुतिः।
इति पाठान्तरं तस्याऽयमर्थः । आसुपन्ने आशु शीघ्रं प्रज्ञा यस्यासावाशुप्रज्ञः, सर्वत्र सदोपयोगत्वात् [न तु छद्मस्थः शाट्योऽल्पज्ञ इव विचिन्त्य जानातीति भावः । छमनि शाठ्चेऽल्पज्ञत्वे तिष्ठतीति छद्मस्थः । "कपटोऽस्त्रीव्याजदम्भोपधयश्छद्मकैतवे, कुमृतिनिकृतिः शाट्यमित्यमरः ।” छाद्यते खरूपमनेनेति छद्म, कपटे, छले, व्याजे, अपदेशे, स्वरूपाच्छादने, रजते, नवनीते, शुद्धे, ऽक्षिरोगमेदे च,] महर्षिः महॉश्चासावृपिश्चेति महर्षिरित्यत्यन्तोग्रतपश्चरणानुष्ठायित्वादनुकूलप्रतिकूलपरिषहोपसर्गादिमहातितिक्षासहनाचेति वा, याथातथ्येन तत्वानां प्रकाशकत्वात्सत्यवाक्त्वान्महर्षिः । "ऋषयः सत्यवचस इत्यमरः" । अनन्तज्ञानी-अनन्तमवसानरहितमविनाश्यनन्तपदार्थपरिच्छेदकं वा विशेषार्थग्राहकं ज्ञानमस्यास्तीति अनन्तज्ञानी । एवं सामान्यार्थपरिच्छेदकत्वादनन्तदीत्यथवा विशेपार्थज्ञानमनन्तमनवधिकमपरिच्छिन्नमित्यर्थः सर्वज्ञतेति भावः । सामान्यार्थग्राहकदर्शनं ते द्वे अपि यस्यानन्ते । “अनन्तोऽनवधावित्यमरः" तदेवं भूतस्य युक्तस्य, अनन्तगुणसहितस्य भगवतो यशःसुरासुरनरातिशाय्यतुलं प्रमाणरहितं चास्ति यस्य स यशस्वी-तस्य यशखिनो, लोकस्य जगतश्चक्षुःपथे-नयनमार्गे भवनस्य केवलावस्थायां विद्यमानस्य लोकाः सूक्ष्मव्यवहितपदार्थाविर्भबनेन च दृग्भूतस्य स्थितस्य जानीरावगच्छ । धर्म ससारोद्धरणखभावत्वावच्छिन्नं श्रुतचारित्ररूपं । समतातपस्तुष्टियमार्जवोत्तमक्षमादिविहितात्मपुरुषार्थ वा । 'धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । धीविद्या सत्यमक्रोधं दशकं धर्मलक्षणमिति" स्मृतिः । तथा च
धारणाद्धर्ममित्याह, धर्मो धारयते प्रजाः, धर्म एव हतो हन्ति, धर्मो रक्षति रक्षितः ।।
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभापान्तरसहिता
देशकालवयोवस्थाबुद्धिशक्त्यनुरूपतः
धर्मोपदेशभैषज्य, वक्तव्यं धर्मपारगैः ॥ इति वृद्धाः । निष्पकम्पां चारित्राचलनस्वभावं धृति संयमे धैर्य, अथ वा प्रतिज्ञायाः पालने दृढत्वं धैर्यम् । "धृतिर्धारण-धैर्ययोरित्यमरः।" संयमे धृति रतिमेतीति, तत्प्रणीतां प्रेक्षख सम्यगवबुध्य पालोचयेति भावः। यदि श्रमणैस्तैः सुधर्मखामिभिः कथितस्तत्त्वं भगवतो यशखिनश्चक्षुःपथे स्थितस्य धर्म धृतिं चाववुध्यसे तथैव रीत्यास्माकं कथयेति संगतिः ॥ ३॥
अन्वयार्थ- [से ] भगवान् महावीर [सेयने ] सेद अथवा क्षेत्रआत्माके जानने वालोंमे [कुसले ] प्रवीण [महेसी] महर्पि [ अणतनाणी ] अनन्त-ज्ञानयुक्त [अणंतदंसी ] अनन्त-दर्शनसमन्वित [य] और [ जसतिणो] यशस्वी थे, अत. अर्हन्दशामें ही भगवान्को [चक्नुपहे ] आखोंके विपयरूपसे [ठियस्स ] स्थित [जाणाहि ] जान ! (च) और (धम्म) भगवान्के प्रतिपा. दित धर्मको (च) और (धिई) संयमकी दृटताको देख !
भावार्थ-आर्य-सुधर्माने आठजम्बूसे प्रभुके ज्ञान-दर्शन-चरित्रके तथा यश कीर्तिके सम्बन्धमें यह वर्णन किया कि वीरप्रभु जगत्के दु खोंको कोंके फलसे पैदा होना मानते थे, क्योंकि उनको आत्मासे अलग करनेका उपदेश करते थे। आत्माके सत्-चित्-सुखात्मक स्वरूपके ज्ञाता थे। कर्मरूपी कुशाको उखाडनेमें उद्यमशील थे, महान् ऋषि थे, अनन्त-पदार्थोको एक समयमें जाननेके कारण अनन्तज्ञानी थे, अनन्तदर्शन-केवलदर्शनसमन्वित थे, तथा अखंडकीर्तियुक्त थे, इसलिए भगवान्को अर्हन्दशा में आखोके समान सूक्ष्मपदार्थ दीखते थे, अत ' उनके कहे हुए धर्मको तथा चरित्र सम्बन्धी स्थिरताका. श्रद्धायुक्त दृढविचार करो ॥ ३ ॥
"भापाटीका-ज्ञातनन्दन महावीर प्रभु शासनके पति ३४ अतिशय युक्त और ३५ वाणीके गुणोंसे अलंकृत एवं शोभित थे।
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः।
.
.
३४ अतिशय
(१) केश तथा दाढी मूछ के वाल वढते नहीं, या असुन्दर रीति से नहीं बढते । (२) शरीर नीरोग रहता है । (३) उनके शरीरका सविर तथा मांस दुग्धकी तरह सुन्दर और स्वच्छ होता है, आदेय होता है, घिनौना नहीं लगता। (४) मुखमें कमलकी सी सुगंधि रहती है, असत्य अथवा दुर्गध नहीं होती। (५) आहार और नीहारको चर्मचक्षुवाले नहीं देखते, क्योंकि ये क्रियाएँ गुप्त की जाती हैं। (६) आकाश गत छत्र रहता है, अर्थात् सिद्धों का स्मरण अमेद रूपसे करते रहते हैं। (७) आकाश गत चमर युग्म श्रुत, चरित्र रूप धर्म ऊंचा रहता है। (८) आकाश गत स्फटिकमय सिंहासन, उनका १३ वां गुणस्थान शोभित है। (९) पाटपीठिका सहित ध्वजरूप तीर्थकर नाम कर्मकी कीर्ति आकाशमें गूंजती रहती है। (१०) प्रभु अशोकमय छाया में रहते हैं, वहा जानेसे औरोंका शोक निवारण करते हैं। (११) मार्गमें चलते समय काटेकी तरह तीक्ष्ण और पैने हठवादी विनीत हो जाते हैं । (१२) ऋतु अर्थात् समय अनुकूल तथा धर्मकाल हो जाता है। (१३) १२ योजन तक शान्तिका वायु चलता है। (१४) ज्ञान धारा प्रवाहित होनेसे कर्म रजका अभाव हो जाता है । (१५) भगवान् के समवसरणमें समभावका साम्राज्य छा जाता है। (१६) शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्शमें अनुकूलता और प्रतिकूलता रूप प्रवृति. विकृति भाव जाता रहता है। (१७) निश्चय और व्यवहार नय रूपी चवर दुलते रहते हैं । (१८) प्रभा या अनन्तज्ञानप्रतिमारूप भामंडल पीठ आसन या आत्माकी शोभा युक्त है। (१९) उनकी मधुर भाषा एक योजन तक सुनाई पडती है । (२०) स्त्री, पुरुष, पशु, पक्षी उनकी साकेतिक अर्थ. मागधी भाषाको अपनी भाषामें समझते हैं । (२१) गर्व लेकर आनेवाले लोक प्रभुकी वाणीसे न्याय लेकर निरहंकार होजाते हैं। (२२) प्रभु जहा विचरते हैं वहासे १२५ योजन चारों ओर सात ईतियोंमेंसे कोईमी ईति (भय) नीं होती। (२३) मनुष्य और तिथंच आपसका जातीय द्विष भाव तथा वैर विरोध छोड़ देते हैं। (२४) जनता में किसी प्रकार का भय नहीं होता । (२५) मारि आदिक रोग नहीं होते। (२६) अतिवृष्टि नहीं होती। (२७) अनावृष्टि नहीं होती । (२८) दुर्भिक्ष नहीं होने पाता । (२९) स्वचक्र-अपने राजा या अशुभ कर्मोका उपद्रव नहीं होता। (३०) पर चक्र-पर राजा या पुद्गल प्रपंचका
-
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
1
-
विग्रहादि उपद्रव नहीं उठता । (३१) पहलेका फैला हुआ व्याधि रोगादिक नष्ट :: होजाता है। (३२) वलवान् दुर्यलको नहीं सताता । (३३) पुराण रोगकी . उपशान्ति होजाती है। (३४) नवीन रोगका संवरण होजाता है। र ३५ वाणी गुण
(१) सुन्दर सस्कारित भाषा होती है। (२) वर उच होता है । (३) भाषा ग्रामीण और सादी होती है। (४) स्वर और भापोचारणमें गंभीरता होती है । (५) वोलते समय ध्वनि निकलती है । (६) वाणी सरन होती है। (७) राग युक्त भाषा होती है । (८) सूत्र योडा और अर्थ अधिक होता है। (९) वाणीमें पूर्वापर विरोध नहीं होता। (१०) सन्देह रहित मिन्न २ अर्थ प्रकाशन होता है । (११) निदशकित गुण दाता है । (१२) वाणी
अकाट्य युक्ति युक्त होती है। (१३) चित्त अन्यथा न होकर स्थिर होजाता - है, अत वाणी आकर्षक होती है। (१४) वाणी देश और कालसे उचित संबंध र रखती है । (१५) अधिक विस्तृत होकर भी अनमेल या अरुचिकर नहीं होती। पर (१६) जीवादि वस्तु विचारका ज्ञान कराने वाली भाषा होती है। (१७) उपदेश न करते समय किसीका मर्म प्रकाश नहीं करते। (१८) भाषा पूर्वापर सापेक्ष प्रद होती है। (१९) आख्यायिकाकी तरह वाणी मनको प्रेमास्पद बना देती है। नई (२०) भाषा मधुर और अनादिकालकी भूख मिटाने वाली होती है। (२१) पर उनकी श्रद्धेय भापा खयं सिद्ध होती है। (२२) वस्तुका वास्तविक ज्ञान प्रकट न कराती है। (२३) परनिन्दा रूप और अपनी प्रशसा रूप भाषा नहीं होती। अ (२३) प्रशंसनीय भाषा होती है । (२५) वोलते समय अधिक कालक्षेप नहीं
करते। (२६) चित्तको सन्तोष होता है। (२७) व्याख्यान मध्यम गतिका होता है । (२८) श्रोता कर्म रोगसे मुक्त हो जाता है परन्तु मनन करने
पर । (२९) वाणी अनादि कालकी भ्रमणा मिटाती है। (३०) जिसका वर्णन __ करते हैं उसका संक्रमण उसी विशेष रूपसे करते हैं। (३१) उनकी भाषा वचनान्तर नहीं होती । (३२) पद, अर्थ अलग २ करके वोलते हैं। (३३) सत्त्व और साहस श्रोताओंका बढ जाता है। (३४) धर्मश्रवण करते हुए लोक अघाते नहीं। (३५) जीवादिक की अविच्छिन्न प्ररूपणा करते हैं।
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८
वीरस्तुतिः।
खेदज्ञ
संसारके प्राणियों द्वारा अर्जन किए हुए मार्मिक दुःखविपाकको जानते हैं। कर्म विपाकसे उत्पन्न शारीरिक मानसिक क्लेशोंको प्रभु सदय होकर जानते तथा देखते हैं। उनको दु खोका ज्ञान करानेके अनन्तर प्राण, भूत, जीव और सत्वकी अशान्ति दूर करनेके लिए अहिंसा, सत्य, निस्तृष्ण आदिका उपदेश करके संसारमें शान्तिकी स्थिति स्थापना करते हैं । अत खेदन हैं।
क्षेत्रज्ञ___ आकाशके अनन्त प्रदेशोंमें धर्म, अधर्म, जीव, काल और पुद्गलके अनन्त समूहको जाननेके कारण प्रभु क्षेत्रन भी है। क्योंकि लोक और अलोकके गुप्त और प्रगट सब भावों और विषयोंके ज्ञाता है। यथातथ्य स्व-स्वरूप और परखरूप जाननेसे आत्मज्ञ हैं। तथा इस नखर शरीर क्षेत्र में आत्मा या धर्म रूप सार जाननेसे, तथा स्त्रीके विषय दोप और उसके रमण और अनुरक रहने में जो दोष हैं उसे जाननेके कारण क्षेत्रज्ञ हैं। कुशल
सत् और असत्को अलग करके बता देते हैं, आठ प्रकारके कर्मरूपी तीक्ष्ण कुशको काटनेमें कुशल हैं। निर्जराका पथ बताने में समर्थ हैं, धर्मोपदेश देनेमें मंगलप्रद हैं अत. कुशल भी है।
आशुप्रश___ आपका उपयोग अनन्त होनेसे आशुप्रज्ञ हैं, परन्तु वह उपयोग छनस्थोंकासा नहीं है। [वहतो कुछ देर सोच विचार करनेके पश्चात् जानता है, कार्माण वर्गणाओंद्वारा आत्म-खरूप पर पर्दा पड जाने के कारण उस कर्म सहित संसारी आत्मा की छद्मस्थ सज्ञा है। परन्तु भगवान् तो 'वियह छउमाणं' इस दोपसे निवृत्त हैं]
महर्षिः___अत्यन्त उग्र तपरूपी अनुष्ठान करनेसे, अनुकूल प्रतिकूल परिषह और उपसर्ग सहन करनेसे, नाना तितिक्षाओं को सहनेसे, तत्व वस्तुका वास्तविक रूपमे प्रकाश करनेसे, सत्य वाणीका उच्चारण करनेसे महर्षि थे।
__ अतीत, अनागत, वर्तमानका अनन्त स्वरूप जाननेकी दृष्टिसे अनन्तज्ञानी, तथा सामान्य अर्थका भिन्न करण करनेसे अनन्तदर्शी थे। '
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृवटीका-हिन्दी-गुर्जरभापान्तरसहिता
१९
तर युक्त अयुतानपवित्र करना, आमदोपका इन्द्रिय दमन
उनले अनय और अनुल यश का गायन मनुष्य-असुर और देव सत्र निल कर करते थे। ससारको दो आंखों द्वारा प्रत्लनतया सूक्ष्म और वादर पहा. याच मान भालमांति करा देने उनके प्रतिपादित वनको तथा उनकी धीरता देख ! धर्म
संसारके प्रानिओंना दुखोंसे उद्धार करना उसच्चा खभाव है अतः वह धर्म है तथा ज्ञान और क्रियाके मेदसे धर्म दो तरहका है।
"समता, तप, सन्तोष, सरलता, उत्तम क्षमा, आदिक विहित पुरुषार्थको भी बने कहा है।"
“मनुने धैर्य रखना, शान्ति करना, अकिंचनवृत्ति रखना, इन्द्रिय दनन करना, आत्माको बुरे विचारोंसे हटा कर पवित्र करना, आन्नदोपका निग्रह करना, बुद्धि द्वारा नन्, असत् युज्ञ अयुक्तका निर्णय करना, निष्पाप तथा निस्पृह मल वोल्ना, आए हुए कोषको निष्फल करना, यह १० प्रकारका बर्म बताया है।"
वर्मके पारको पानेवाले पुल्योंने देश काल, अवस्था, बुद्धि, शक्ति, आदि के अनुरूप वर्नोपदेशको ही औषध रूप कहा है। - इसके अतिरिक्त उनकी चरित्र निश्चलता धीरता देख ! क्योंकि वे ‘अपनी प्रतिनामें सर्दव दृढ रहते थे। संयम के अतिरिक्त वे कितीमें अनुरक्त नये ॥2॥
गुजराती यनुवाद-ज्ञातनन्दन शासनपति महावीर प्रभु ३४ अतिशय तथा ३५ प्रकारना वाणी गुणे करी अलंकृत हता।
३४ अतिशय-(१) मायाना केश-दाढीमूछ तथा शरीरना वाळ अने नख मर्यादित होय । (२) नीरोगी अने मेल, रज आदिथी निर्लेप शरीर होय । (३) मास अने लेही गायना दूव नेवा उज्वल अने नीठां होय । (४) श्वानोइवास कनल जेवा मुगन्धित होय । (५) प्रमुना आहार अने निहार चर्मत्र
ओधी अदृश्य होय, कारणके ते क्रियाओ गुप्त करवामां आवे छे । (६) आरा'शमां धर्म चक्र चाले। (७) आकागमा छत्र- रहे। (८) आकाशमां श्वेतवर चामरो विझायः । (९) आकाशमा अत्यन्त स्वच्छ स्फटिक सिंहासन पादपीठ सहित थई आवे। (१०) आकाशमा लवुपताकाओधी परिमंडित रमणीय इन्द्र
वीर.४
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
५० , वीरस्तुतिः । .. ध्वज प्रभुनी आगल चाले । (११) अशोकवृक्ष थई आवे, त्यां जवाथी वीजा
ओना गोकर्नु निवारण थाय । (१२) जरा पाछलना भागमा मस्तक प्रदेशे तेजोमंडल थई आवे, ते दशे दिशाओना अंधकारने दूर करे । (१३) पृथ्वी बहु सपाट अने रमणीय वनी जाय । (१४) कांटा ऊंधा थई जाय, तेनी माफक बहु हठवादी विनीत थई जाय, (१५) विपरीत ऋतु सुखस्पी थई जाय, समय अनुकूल तथा धर्म माटे योग्य थई जाय । (१६ ) शीतल-सुखकरसुगन्धयुक्तवायु एक योजन क्षेत्रमा वहे । अने सर्व प्रकारनी अशुचि दूर करे। (१७) सुगन्धि वृष्टि थाय तेथी आकाशनी रज अने भूमि ऊपरनी रेणु टंकाई जाय, ज्ञानधारा वरसवाथी' कर्म रज दूर थई जाय । (१८) रमणीय पंचवर्ण फूल प्रगटे । (१९) अमनोज्ञ (अशुभ) शब्द-स्पर्श-रस-रूप-गन्ध उपशमें अर्थात् नाश पामे। (२०) मनोज्ञ शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गंध उत्पन्न थाय । (२१) चारे बाजुए वेठेली परिषद भगवान्नो योजनातिक्रमी स्वर वरावर ध्रवण करी शके अने ते शब्दो श्रोताओने प्रिय लागे । (२२) प्रभु अर्धमागधी भाषामां धर्मदेशना आपे । (२३) आर्य अनार्य देशना मनुष्यो-पशुओ-पक्षीओ विगरेने आ भाषा पोतानी भापामा परिणमें, ते हितकर-सुखकर-आनन्दकर अने मोक्षदायी लागे। (२४) जन्मवेर, जातिवेर, शान्त थाय. । (२५) भगवान्ने देखता अन्य दर्शन-मताभिमानी हठ छोडी नम्र बने छ। (२६) प्रतिवादी निरुत्तर धने। (२७) प्रभु विचरे छे त्यांथी २५ योजन चारे दिशामां दुष्कालउदर-तीड विगेरेनो उपद्रव रहे नहि । (२८) महामारी मरकी प्लेग न होय । (२९) स्वचक्रनो भय नहीं थाय । (३०) पर लश्करनो भय न होय । (३१) अति वृष्टि न थाय । (३२) अनावृष्टि न थाय । (३३) दुकाल न पड़े। (३४) उत्पातो अने व्याधिओ तुरत शमी जाय । सत्यवाणीना ३५ गुण
(१) भगवान्नी वाणी संस्कार-लक्षण युक्त होय । (२) बुलंद आवाज वाली वाणी । (३) सादी । (४) गंभीर । (५) पडछंदा युक्त । (६) सरल । (७) उपनीत रागत्व-श्रोतामो धारे के भगवान् मने उद्देशीनेज उपदेश आपे छ । (८.) महार्थ---सूत्र थोडो अर्थ घणो। (९) पूर्वापर वाक्यनी अविरोधी । (१०) शिष्ट । (११) असंदिग्ध, (१२) वाणीमा-अर्थमा दूषण रहित । (१३) हृदयग्राही, (१४) देश कालने अनुकूल । (१५) तत्वनी
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ५१ यथार्थ स्वरूप दर्शक । (१६) जे सम्बन्ध चालतो होय तेनी सिद्धि पुरतुंज कहेवु ते। (१७) पद वाक्यर्नु परस्पर सापेक्ष पणुं । (१८) इष्ट रीतिए तत्वनु कहेवू । (१९) अत्यन्त मधुर-सुखकर । (२०) परना रहस्य विरोरेने प्रकट नहि करनारी । (२१) वस्तुना अर्थ तथा धर्म सहित। (२२) अर्थनो झलकाट उठे एवा पदो सहित । (२३) पर निन्दा अने आत्मप्रशंसा रहित । (२४) कहेला गुणोना योगथी प्रशंसा करवा लायक । (२५) व्याकरणना दोष रहित । (२६) श्रोताओने पोताना विषयनो जवाब मळवाथी आश्चर्य अने वैराग्य उत्पन्न करनारी । (२७) अद्भुत । (२८) अत्यन्त विलम्ब रहित । (२९) मननी भ्रान्ति तथा वाक्य बोलवानी अशक्ति विगेरे दोष रहित । (३०) सर्व सुर-असुर-नर-अने तिर्यंच पोतानी भाषामां समजे तेवी । (३१) वीजा पुरुषोनी अपेक्षाए शिष्योने विषे विशेष बुद्धिने पेदा करनारी । (३२) पदो, वाक्यो स्पष्ट रीते समजाय तेवी चोक्खी। (३३) पराक्रमवाळी अनायासे वाणी प्रकाशे जाय । (३५) कहेवा धारेला अर्थोनी सारी रीते सिद्धि थाय त्यां सुधी अविच्छिन्न वाग्धाराए बोल्या जवाय तेवी । खेदज्ञ
संसारना प्राणिओए संचय करेला मार्मिक कर्मना दु खविपाकने तेओ जाणे छ । कर्मना परिणामे उत्पन शारीरिक तथा मानसिक क्लेशोने प्रभु दयाई वनीने जाणे छे तेमज देखे छे। तेमना दु खोनुं ज्ञान कराववाने तथा प्राण-भूत-जीवसत्वनी अशान्ति दूर करवाने तेओ अहिंसा-सत्य-निस्तृष्ण विगेरेनो उपदेशकरीचे संसारमा शान्तिनी स्थापना करे छे । तेथी भगवान् खेदज्ञ छ । क्षेत्रज्ञ
आकाशना अनन्त प्रदेशोमां धर्म-अधर्म-जीव-काल अने पुद्गलना अनन्त समूहने तेओ जाणे छ । तेथी क्षेत्रज्ञ पण छ । अथवा लोक अलोकना गुप्त अने प्रगट सर्व भाव अने विषयना ज्ञाता छ । यथातथ्य स्वस्वरूप तथा परखरूपना ज्ञाता होवाधी आत्मज्ञ छ । आ नश्वर शरीर क्षेत्रमा तेमना आत्माना अथवा धर्मरूप सारना जाणकार होवाथी, तेमज स्त्रीना विषय दोष अने तेमा रमण करवायी जे दोषो उत्पन्न थाय छे, तेना पण जाणकार होवाथी तेओ क्षेत्रज्ञ छ । कुशल
सत्-असत्ने भिन्न भिन्न करीने वतावे छ । आठ प्रकारना कर्मरूपी तीक्ष्ण
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः। कुशने कापवामां कुशल छ । निर्जरानो मार्ग वताववामां समर्थ छे, धर्मोपदेश देवामा मंगलप्रद छ। आशुप्रज्ञ
तेओनो उपयोग अनन्त होवाथी आशुप्रज्ञ छ । परन्तु ते उपयोग छमस्थोना जेवो होतो नथी । [छमस्थ तो थोडो समय विचारणा कर्या वाद जाणे छ। कार्मण वर्गणाओ द्वारा आत्म स्वरूप पर पडदो पडता कर्म सहित ससारी आत्माने छद्मस्थ कहे छ । परन्तु भगवान् तो "वियट्ट छडमाण" ए दोष थी मुक्त छ । महर्पि
अत्यन्त उग्र तपश्चर्या करवाथी अनुकूल प्रतिकूल परिषह तथा उपसर्ग सहन करवाथी नाना प्रकारना दुःखो सहवाथी तत्ववस्तुनुं वास्तविक रूप प्रगट करवाथी, सत्यवाणी बोलतां होवाथी, तेओ महर्षि हता।
भूत-भविष्य अने वर्तमानना अनन्त स्वरूप जाणवानी अपेक्षाए तेओ अनन्तज्ञानी तथा सामान्य अर्थनुं भिन्नकरण करवाथी अनन्तदर्शी हता।
तेमना अक्षय अने अतुल यशनुं गान मनुष्य-सुर-असुर विगेरे सर्वे मळीने करता हता।
लोकने चक्षुभूत एवा श्रीमहावीरदेवना परूपेला वर्मने तथा तेमनी धीरजने जाण अने देख।
, धर्म
ससारना प्राणिओने दु समाथी उद्धार करवानो तेनो स्वभाव छ । ज्ञान अने क्रिया ए वे प्रकारनो धर्म छे । समता-तप-सन्तोष-सरळता-उत्तम क्षमाविगेरेने पण धर्म कहेवामा आवे छ । धीरज राखवी-शान्तिधारण करवी-अकिचनवृत्ति भजवी-इंद्रिय दमन-आत्माने खराव विचारोथी हटावीने पवित्रवनाववोआत्मदोषनिग्रह-बुद्धि द्वारा सत्-असत्-युक्त अयुक्तनो निर्णय, निष्पाप-निस्पृह-सत्य, क्रोध निष्फल करवो-एम दश प्रकारनो धर्म मनुए पण वतावेलो छ ।
धर्म पारगत पुरुषोए देश-काल अवस्था-बुद्धिष्शक्तिने अनुरूप धर्मोपदेश आप्यो छे।
महावीरप्रभुनी चारित्रमा निश्चलता, धीरता एटले तेओ पोतानी प्रतित्रामा हमे दृढ रहता हता, सदैव सयममाज तेओ मम रहता।
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
उहुं अहेयं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जेय पाणा।। से णिचणिचेहि समिक्ख पन्ने, दीवेव धम्मं समियं उदाहु ॥४॥
संस्कृतच्छाया ऊर्ध्वमधस्तिर्यक्षु दिक्षु, त्रसाश्च ये स्थावरा ये च प्राणिनः । स नित्यानित्याभ्यां समीक्ष्य प्राज्ञः
दीप [द्वीप] इव धर्म समितमुदाह ॥४॥ सं० टीका-अधुना सुधर्माचार्यस्तद्गुणान् ' स्फुटं प्रकटनचिकीर्पराह-ऊर्ध्वमस्तिर्यक्षु दिक्ष्वथवा चतुर्दशरज्ज्वात्मके लोके ये जीवाः "शुद्धनिश्चयनयेनादिमध्यावसानवर्जितवपरप्रकाशकाविनश्वरनिरुपाधिशुद्धचैतन्यलक्षणनिश्चयप्राणेन यद्यपि जीवन्ति, तथाप्यशुद्धनिश्चयनयेनानादिकर्मवन्धवशादशुद्धद्रव्यभावप्राणैर्जीवन्तीति जीवाः । 'उपयोगमयाः' शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन यद्यपि सकलविमलकेवलज्ञानदर्शनोपयोगमयास्तथाप्यशुद्धनयेन क्षायोपशमिकज्ञानदर्शननिवृत्तत्वाज्ज्ञानदर्शनोपयोगमया भवंति । “अमूर्तयः” यद्यपि व्यवहारेण मूर्तकाधीनत्वेन स्पर्शरसगन्धवर्णवत्या मूर्त्या सहितत्वान्मूर्तास्तथापि परमार्थेनामूर्तातीन्द्रियशुद्धवुद्धैकखभावत्वादमूर्ताः । “कर्तारः” यद्यपि भूतार्थनयेन निष्क्रियटकोत्कीर्णज्ञायकैकखभावोऽयं तथाऽप्यभूतार्थनयेन मनोवचनकायव्यापारोत्पादककर्मबीजसहितत्वेन शुभाशुभकर्मकर्तृत्वात् कर्तारः । “सदेहपरिमाणा” यद्यपि निश्चयनयेन सहजशुद्धलोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशास्तथापि व्यवहारेणानादिकर्मवन्धाधीन
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४
वीरस्तुतिः। - - त्वेन शरीरनामकर्मोदयजनितोपसंहारविस्ताराधीनत्वात् घटादिभाजनस्थप्रदीपवत् सदेहपरिमाणाः । “भोक्तारः” यद्यपि शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन रागादिविकल्पोपाधिरहितखात्मोत्थसुखामृतभोक्तारस्तथाऽप्यशुद्धनयेन तथाविधसुखामृताभावाच्छुभाशुभकर्मजनितसुखदुःखभोक्तत्वाद्भोक्तारः । “संसारस्थाः" यद्यपि शुद्धनिश्चयनयेन निस्संसारनित्यानन्दैकखभावास्तथाप्यशुद्धनयेन द्रव्यक्षेत्रकालमावभवपञ्चप्रकारसंसारे तिष्ठन्तीति संसारस्थाः। "सिद्धा" व्यवहारेण स्वात्मोपलब्धिलक्षणसिद्धत्वप्रतिपक्षभूतकर्मोदयेन यद्यप्यसिद्धास्तथापि निश्चयनयेनानन्तज्ञानानन्तगुणखभावत्वात् सिद्धाः । त एवंगुणविशिष्टा जीवाः । "विस्रसोर्द्धगतिकाः।" यद्यपि व्यवहारेण चतुर्गतिजनककर्मोदयवशेनोोधस्तिर्यग्गतिखभावास्तथापि निश्चयेन केवलज्ञानाद्यनन्तगुणावाप्तिलक्षणमोक्षगमनकाले विलसा खभावेनोर्द्धगतिकाश्चेति । अत्र शुद्धाशुद्धनयद्वयविभागेन नयार्था अप्युक्ताः । आगमार्थः पुनः "अस्त्यात्माऽनादिबद्धः” इत्यादिप्रसिद्ध एव शुद्धनयाश्रितं जीवखरूपमुपादेयं शेषं च हेयम् । एवंविधा नीवास्त्रस्यन्त्युद्वेगं भयं प्राप्नुवन्ति यद्वा चरन्ति चेतस्ततो गच्छन्तीति त्रसाः। "चरिष्णु जंगमचरं त्रसमिंगं चराचरमित्यमरः ।" ते त्रसास्तु द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियः मेदाच्चतुर्धा । तथा ये च स्थावराः पृथिव्यम्वुतेजोवायुवनस्पतिभेदात्पंचधा । तिष्ठन्तीति स्थावरा भूताः सत्वाश्चापि, यथा च
"प्राणा द्वित्रिचतुःप्रोक्ता भूतास्तु तरवः स्मृताः ।
जीवाः पंचेंन्द्रियाः प्रोक्ताः शेषाः सत्वा उदीरिताः ॥" "स्थावरो जंगमेतर इत्यमरः ।” एते प्राणानां धारकत्वात्प्राणिनो भवन्ति । प्राणास्तु दशधा यथा-"पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं वलं
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ५५ च, ह्युच्छासनिःश्वासमथान्यदायुः, प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्तास्तेषां वियोगीकरणं हि .हिंसा ।" एते विद्यन्ते यस्य ते प्राणिनो, जीवस्याधुना तु बाह्यप्राणधनपराक्रमत्वात् "शक्तिः प्राणः पराक्रम इत्यमरः।" चार्वाकशाक्यादिमतनिराकरणेन पृथ्व्यायेकेन्द्रियाणामपि जीवत्वमित्यावेदितम् । तान् जीवान्नित्यानित्याभ्यां ध्रुवव्ययाभ्यां समीक्ष्य-ज्ञात्वा केवलज्ञानित्वात्प्रकर्षेण जानातीति प्राज्ञः। द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनयाश्रयणादावेद्येति भावः । स ज्ञातृपुत्रो महावीरो भगवान् तत्व-पदार्थखरूपाणां ज्ञापकतया दीपवदीपः प्रकाशकत्वात् यथार्थधर्ममाह-उक्तवान् । सम्यक्तया समतया श्रुतचरित्रात्मकं धर्म वीतरागभावेन रागद्वेषरहितत्वेन सदनुष्ठानितया चेति । परमकारुणिको हि भगवान् लोकाननुग्रहीतुमेव धर्ममावेदितवान्नतु निजोत्कर्षप्रकाशनार्थमपीति सहृदयै यम् ॥ ४॥ ___ अन्वयार्थ-[से ] उस [पन्ने] आत्मप्रज्ञ केवलज्ञानी प्रभुने [उडे] ऊपर [अहेयं] नीचे और [तिरियं] तिरछी [दिसासु] दिशाओंमें [जे] जो [तसा] त्रस-हिलने सरकनेवाले (य) और [थावर] स्थावर [पाणा] प्राणी है, उनको [णिञ्चणिचहि ] नित्य और अनित्यदृष्टिसे [ समिक्ख ] जान कर [दीवे व] दीवेकी सदृश अथवा विश्वसागरमें डूबते जीवोंकेलिए टापूकी तरह (धम्म) धर्मको [ समियं ] समानभावसे [उदाहु ] वताया ॥ ४ ॥
भावार्थ-आर्य सुधर्म फिरयों वोले कि-भगवान् महावीर त्रस और स्थावर जीवोंको जोकि-ऊपर-नीचे और इधर उधर भरे पडे हैं, सब जगह विद्यमान हैं, और जीवोंको उन्होंने पर्यायकी दृष्टिसे अनित्य और द्रव्यकी दृष्टिसे नित्य बताया है। और उनके उत्तम धर्मका उपदेश जगत्-सागरमें डूबते हुए प्राणिओंको टापूके समान सहारा देते है, और अज्ञानताके अधेरेको मिटानेकेलिए दीवेके समान है। इस प्रवचनसे अनात्मवादका खण्डन हो जाता है
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः।
एवं वृक्ष-वायु-पृथ्वी आदिमें जीव है यह सिद्ध किया है, और जैनदर्शनके प्राणभूत स्याद्वाद-सिद्धान्तका सम्यक् दिग्दर्शन कर दिखाया है ॥ ४ ॥ श्रीसुधर्माचार्य वीर प्रभुके गुणों को प्रकट करते हैं !
भाषा-टीका-सर्वज्ञ-वीर भगवान्ने ऊर्ध्वलोक, मानवलोक, अधो-लोक के सब जीवोंका स्वरूप इस भान्ति वर्णन करके बताया है कि-"जीव" यद्यपि जीवसमूह शुद्ध निश्चयनयसे आदि, मध्य और अन्त से रहित, अपने
और परके गुणोंका प्रकाशक, उपाधिरहित और शुद्ध चैतन्य (ज्ञान) रूप निश्चय प्राणसे ही जीवित है, तथापि अशुद्ध- निश्चयनयसे अनादि कर्मबन्ध के वशसे जो अशुद्ध द्रव्यप्राण और भाव प्राण हैं उनसे जीवित रहने के कारणयह जीव है। उपयोगमय
यद्यपि शुद्धद्रव्यार्थिकनयसे परिपूर्ण तथा निर्मल ज्ञान और दर्शन ही उपयोग हैं इसी से जीवसंज्ञा है, तो भी अशुद्ध-नयसे क्षायोपशमिकज्ञान और दर्शनसे बना हुआ है, इस लिए ज्ञानदर्शनोपयोगमय है। अमूर्त
यद्यपि व्यवहारनयसे यह जीव मूर्त कर्मों के अधीन होने से स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णवाली मूर्तिके द्वारा रचित रहनेके कारण मूर्त है तथापि निश्चय नयसे अमूर्त, इन्द्रियोंसे अगोचर, शुद्धरूप खभावका धारक होने से अमूर्त है। कर्ता
यद्यपि जीव निश्चयनयकी दृष्टिसे किया रहित, उपाधिरहित जाननेके खभावका धारक है । तथापि व्यवहारनयसे मन, वचन तथा कायके व्यापारको उत्पन्न करनेवाले कर्मोसे युक्त होनेके कारण शुभ और अशुभ कर्मोंका करनेवाला है, अत कर्ता है।। सदेह परिमाण
यद्यपि जीव निश्चयनयपूर्वक खभावसे उत्पन्न शुद्धलोकाकाशके समान है और असख्य प्रदेशोंका धारक है, तथापि शरीर नाम कर्मके उदयसे उत्पन्नसंकोच तथा विस्तारके अधीन होने से घडे आदि पात्रोंमें रहे हुए दीपककी सदृश अपने देहके परिमाण जितना है।
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
भोक्ता
यद्यपि जीव शुद्धद्रव्यार्थिक नयसे रागादिविकल्परूप उपाधियोंसे शून्य है, और अपने आत्मासे' उत्पन्न हुए अमृतको भोगनेवाला है, तथापि अशुद्धनयसे उस सुखरूप अमृतपदार्थके अभावसे शुभ कमसे उत्पन्न सुख और अशुभ मसे उत्पन्न दु खोंको भोगता है अत. भोक्ता मी है। संसारस्थ
ससारमै स्थित रह कर अनेक पर्याय बदलता रहने के कारण ससारी है। यद्यपि जीव शुद्ध निश्चयनयसे ससार रहित है और नित्य आनन्दघन रूप एक खभावका धारक है तथापि अशुद्ध निश्चय नयसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव इन भेदोंसे पाच प्रकारके ससारमें रहता है अत यह आत्मा-जीव ससारस्थ भी है। सिद्ध
यह आत्मा सिद्ध भी है। यथाह प्रज्ञापनायाम्-सितं बद्धंअष्टप्रकारं कर्मेन्धनम् , ध्मातं दग्धं जाज्वल्यमानशुक्लध्यानानलेन यैस्ते निरुक्तविधिना सिद्धाः । अथवा 'पिधु गतौ' इति वचनात् सेधन्ति स अपुनरावृत्त्या निवृत्तिपुरीमगच्छन् , अथवा 'पिधु सराद्धौ' इति वचनात् सिद्ध्यन्ति स्म निष्ठितार्था भवन्ति स्म । अथवा "षिधूञ् शास्त्रे मांगल्ये च" इति वचनात् सेधन्ति स्म शास्तारोऽभूवन् , मांगल्यरूपतां चानुभवन्ति स्मेति सिद्धाः । अथवा सिद्धा नित्या अपर्यवसानस्थितिकत्वात् , प्रख्याता वा भव्यरुपलब्धगुणसन्दोहत्वात् , आह च, "मातं सितं येन पुराणकर्म, यो वा गतो निवृतिसौधमूर्ध्नि; ख्यातोऽनुशास्ता परिनिष्ठितार्थो, यः सोऽस्तु सिद्धः कृतमंगलो मे"
अतः स सिद्धो नमस्करणीयश्चैषामविप्रणाशिज्ञान-दर्शन-सुखशक्त्यादिगुणयुक्ततया खविषयप्रमोदप्रकर्पोत्पादनेन भन्यानामतीवोपकारहेतुत्वादिति ।
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः।' ' ';
भावार्थ-"आठ प्रकारके कर्मरूपईन्धनको शुक्लध्यानकी आगसे जिसने जला दिया हो वह सिद्ध होता है, अथवा गत्यर्थक 'षिधु' धातुसे सिद्ध अर्थात् अपुनरावृत्ति की अपेक्षा जो निर्वृत्तिपुरीमें पहुंच गए हैं वह सिद्ध हैं; अथवा निप्पत्यर्थक 'षिधु' धातु द्वारा 'सिद्ध' यानी जिसने अपने अर्थको निष्पन्न किया है, और जो कृतकृत्य होगया हो, वह सिद्ध है, अथवा शास्त्रार्थक और मागल्यार्थक 'बिधूम्' धातुसे 'सिद्ध' यानी जो शासनकर्ता हो, अथवा जो मंगलवके स्वरूपका अनुभव कर्ता हो, या जो स्वयं मंगलरूप हो वह 'सिद्ध' है; अथवा नित्य कारण जिनकी स्थिति अविनाशी है, अथवा भव्य जीवोंको जिनके गुणसमूह उपलब्ध होने से प्रसिद्धि प्राप्त हैं, या जिन्होंने बांधा हुआ पुराना कर्म जला दिया है, जो निर्वृत्तिरूप महलके शिखरके ऊपर जा पहुंचा है, जो प्रसिद्ध है, अनुशासन करनेवाला है, कृतार्थ है, वह सिद्ध प्रभु हमारे लिए कृत मंगल है नमस्कार करने योग्य है, इसीलिए कि-वे अविनाशी-ज्ञान, दर्शन, सुख, शक्ति, आदिकसे युक्त हैं और खविषय आनन्दोत्कर्ष के उत्पादक होनेसे भव्य जीवोंके ऊपर अप्रतिम उपकार करने से वे नमन करने योग्य हैं।" यद्यपि जीव व्यवहार नयके कारण अपनी आत्माकी प्राप्ति रूप उपरोक्त सिद्धत्व युक्त है, और उसके प्रतिपक्षी कर्मोंके उदयसे असिद्ध है, तथापि निश्चय नयसे अनन्तज्ञान और अनन्तगुण खभावका धारक होनेसे सिद्ध है; । ऊगामी
इन कहे हुए गुणोंका धारक जीव खभावसे ऊर्ध्वगमनकरनेवाला है, यानी व्यवहारसे चार गतियोंको पैदा करनेवाले कर्मोके उदयसे ऊंचा, नीचा, तथा तिळ गमन करनेवाला है, तथापि निश्चयनयसे केवलनान, आदि अनन्तगुणोंकी प्राप्ति स्वरूप मोक्षमें चला जानेके कारण खभावसे ऊर्ध्वगमन करने वाला है, इस प्रकार जीवका खरूप शुद्ध और अशुद्ध नयकी दृष्टिसे समझाया गयाहै। और अनादि कालसे कम्यॊद्वारा आत्मा स्वयं वंधकर ससारमें रुल रहा है इत्यादि आगमका अर्थ तो प्रसिद्ध ही है । और शुद्ध नय के आश्रित जीवका स्वरूप उपादेय यानी ग्रहण करने योग्य है और वाकी सब हेय है तथा उनके त्रस और स्थावर ये दो भेद हैं। त्रस
त्रस प्राणी वे हैं जो किसी के द्वारा भय, त्रास, और उद्वेग पाकर, यो
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभापान्तरसहिता ५९ सताया जाकर अपने वचनेके लिए जो इधर उधर भाग फिर सकते हैं, जिनके दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, पाच इन्द्रिय, ये चार प्रकार हैं। स्थावर
पृथिवी, पानी, आग, हवा, वनस्पतिके मेदसे पाच स्थावर हैं। ये अपने ऊपर आए हुए सकट से वचनेके लिए उद्यम करनेमें सर्वथा अशक्त हैं, बहुत थोडी समझ है, और जन्म मरण भी अधिक करते रहते हैं, पृथ्वी, पानी, अमि, वायु के जीव ४८ मिनिट मे १२८२४ वार मर कर जन्म लेते हैं, वनस्पतिमें निगोदजीवकी अपेक्षा ६५५३६ वार जन्मते मरते हैं। हमारा एक श्वास सुखसे आता है और वे १७ वार जन्म कर मरते हैं। अत ये सव स्थावर कहलाते हैं। इन्हीं मे भूत सत्व भी हैं यथा
२-३-४ इन्द्रियवालोंको प्राणी सज्ञक जानना चाहिए । वनस्पतिकी भूत सज्ञा है। पाच इन्द्रिय वालोको जीव सज्ञक माना है। पृथ्वी, पानी, आग, हवाको सत्व सज्ञासे पहचानते हैं। इन सव जीवोंमें १० द्रव्य प्राण होते हैं। जिनकी गणना इस भाति है।
१० द्रव्य प्राण-श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, प्राणेन्द्रिय, रसेंद्रिय, स्पर्शेन्द्रिय, मन, वचन, काय, आयुके प्रमाणु, श्वास उच्छ्रासका लेना छोडना, इत्यादि १० प्राण हैं। यह प्राण धन सब जीवोंको अत्यन्त प्रिय है। जब इन पर मुसीवतका कुल्हाडा वजता है तब उस धनसे मोह एक दम हेटा देता है। स्थावरोंमें जीव सिद्धि होनेसे चार्वाकादि का खण्डन हो जाता है। भगवान्ने इन सब जीवोंको द्रव्यकी दृष्टिसे नित्य और पर्याय की दृष्टिसे अनित्य फर्माया है। इसे द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयके आश्रयसे मी समझाया है। प्रभु स्वयं टापू की तरह डूबते हुए ससारी जीवोंको सहायक भूत हैं, और उनका ज्ञान तत्व-पदार्थ का पृथक् ज्ञान करानेके कारण दीपकके समान हैं। दीपककी तरह स्व-पर रूपका ज्ञान प्रकट हो जाता है। यही भगवान्का धर्म है, जिसे उन्होंने और तीर्थंकरोंकी भाति समता अर्थात् तुलनात्मक दृष्टिसे कहा है। इनका धर्मोपदेश करनेका आशय लोकोंको समभाव-उपशमभाव-अहिंसाभाव तथा सत्यका खरुप समझाकर ससारमें परोपकारिता फैलाना था कुछ अपना उत्कर्ष प्रकट करनेका उद्देश नहीं ॥ ४ ॥
गुजराती अनुवाद-सुधर्माचार्य वीरप्रभुना गुणोनुं वर्णन करे छ ।
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः ।
सर्वज्ञ प्रभु श्रीवीर भगवाने ऊर्ध्वलोक अधोलोक अने त्रिछालोकना समस्त जीवोनुं स्वरुप आ रीते वर्णवेलं छे ।
जीव
जो के जीव समूह शुद्ध निश्चय नयथी आदि-मध्य अने अन्त रहित, ख तथा पर गुण प्रकाशक, उपाधि रहित, अने शुद्ध चैतन्य (ज्ञान) रूप निश्चय प्राणथी जीवित छे । तो पण अशुद्ध निश्चय नये अनादि कर्म बंधना कारणे ने अशुद्ध द्रव्य प्राण अने भाव प्राण छे तेनाथी जीवित रहेवाने कारणे जीव छे ।
६०
उपयोगमय
जो के शुद्ध द्रव्यार्थिक नये जीव परिपूर्ण तथा निर्मल ज्ञान दर्शन मय छे, तो पण अशुद्ध नये क्षायोपशमिक ज्ञान दर्शन युक्त छे, तेथी जीव ज्ञानदर्शनोपयोगमयी छे ।
अमूर्त
व्यवहारनयथी आ जीव मूर्त कर्मोने वश होवा श्री स्पर्श-रस-गंध-वर्ण वाळी मूर्तिथी रचित होवाना कारणे मूर्त छे । पण निश्चय नये अमूर्त, इन्द्रियोथी अगोचर शुद्धरूप स्वभावनो धारक होवाथी अमूर्त छे ।
कर्ता
जीव निश्चयनये क्रिया रहित, उपाधिरहित, जाणवानो खभावनो धारक है; पण व्यवहार नये मन-वचन-कायना व्यापारने उत्पन्न करवावाळा कर्मोथी सहित starना कारणे शुभाशुभ कर्मनो कर्ता छ ।
सदेह परिमाण जीव निश्चय पूर्वक स्वभावथी उत्पन्न शुद्ध लोकाकाश समान छे, तेमज असंख्य प्रदेशोनो धारक छे, पण शरीर नामकर्मना उदये घडा विगेरे पात्रमा रहेला दीवानी माफक सकोच विकोचमय होवाना कारणे देह प्रमाण रहे छे ।
भोक्ता -- शुद्ध द्रव्यार्थिक नये जीव रागादि विकत्परूप उपाधिथी रहित छे, तेमज निजात्मधी उत्पन्न अमृतनो भोक्ता छे, पण अशुद्धनये ते सुखरूप अमृत पदार्थोना अभावे शुभकर्मथी उत्पन्न सुख अने अशुभ कर्मथी उत्पन्न दुखनो भोका छे ।
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
६१
संसारस्थ-ससारमा रहीने पर्याय वदलता रहेवाने कारणे संसारी छे, जो के शुद्ध निश्चय दृष्टिए जीव संसार रहित छे, तेमज नित्य आनंदघनरूप खभावनो धारक छे, तो पण अशुद्ध निश्चय नये द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-भव ए पांच प्रकारे ससारमा रहे छे, तेथी आत्मा-जीव संसारस्थ पण छे।
सिद्ध-आठ प्रकारना कर्मरूप ईंधणने शुक्लध्याननी आग वढे जेणे याळी दीधा होय, ते सिद्ध छ, अथवा गत्यर्थक “षिध्" धातु थी सिद्ध अर्थात् अपुनरावृत्तिनी अपेक्षा जे निवृत्ति पुरीमा पहोंची गया छे, वे सिद्ध छे, अथवा निष्पत्यर्थक "षिधु" धातु थी सिद्ध एटले जेणे पोताना अर्थ निष्पन्न का छे, अने जे कृतकृत्य थई गया छे, ते सिद्ध छे, अथवा शास्त्रार्थक तेमज मांगल्यार्थक "षिधुन्' धातुथी सिद्ध अर्थात् जे शासन कर्ता छ, अथवा जे मंगलत्वना खरूपना अनुभव कर्ता छ, अथवा जे स्वयं मंगलरूप छे, ते सिद्ध छे, अथवा नित्य होवाना कारणे जेनी स्थिति अविनाशी छे, अथवा भव्य जीवोमा जे गुणसमूह उपलब्ध होवाना कारणे प्रसिद्धि पामेला छे, अथवा जेणे पूर्वे वांघेला जुनां कर्मो वाळी नाख्या छ, जे निवृत्ति महेलना शिखर पर विराजे छ, जे प्रसिद्ध छे, शासन कर्ता छे, कृतार्थ छे, ते सिद्ध प्रभु उदासीन रूपेण आपणा मंगलना करनार छ, नमस्कार करवा योग्य छे, एटला माटे के तेओ अविनाशी ज्ञान, दर्शन, सुख, शक्ति आदि थी युक्त छे, अने खविषय आनन्दोत्कर्ष उत्पादक होवाथी भव्य जीवो पर अप्रतिम उपकार करवाने लीधे नमन करवा योग्य छे, जो के जीव व्यवहार नये पोताना आत्मानी प्राप्तिरूप उपरोक सिद्धत्व गुणवालो छ, ने तेना प्रतिपक्षी कर्मोना उदये असिद्ध छे, तो पण निश्चय नये अनन्तज्ञान अने अनन्तगुण स्वभावनो धारक होवाथी ते सिद्ध छ।
ऊर्ध्वगामी-उपरोक्त गुणो धारण करनार जीव खभावधी उर्ध्वगमन करवा वाळो छे, अने व्यवहारे चतुर्गतिमा रखडावनार कर्मोना उदयथी ऊंची, नीची तथा तिरछी दिशामा गमन करवावाळो छे, तो पण निश्चय नये केवलज्ञानादि अनन्त गुणोनी प्राप्ति स्वरूप मोक्षमा जवाना कारणे खभावथी ऊर्ध्वगमन करवावाळो छ, आ रीते शुद्ध अने अशुद्ध नये जीवनुं स्वरूप समजावेलुं छे, अनादिकालथी कर्मबंधथी बंधाएलो आत्मा ससारमा रखडीज रयो छे, इत्यादि
आगमथी प्रसिद्ध छे, शुद्ध नये जीवनुं स्वरूप उपादेय अर्थात् ग्रहण करवा योग्य __ छे, अने वाकी वीजु वधुं हेय छे, तेना त्रस अने स्थावर एवा वे भेद छ ।
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः । . . त्रस-कोई थी भय, त्रास, उद्वेग पामीने अथवा सतामणी पामतां पोताना चचाव अर्थे जे अहीं तहीं हरी फरी के भागी शके छे, ते त्रस छे, तेना वेंद्रिय, तेन्द्रिय, चौरिंद्रिय अने पंचेंद्रिय एवा चार मेद छे; - - -
स्थावर-पृथ्वी-पाणी-अग्नि-वायु अने वनस्पति ए पांच स्थावरना मेट छे। तेओ पोताना पर आवी पडेला संकटोमाथी वचवानो प्रयत्न करवामा सर्वथा अशक्त छे, घणीज ओछी समजवाला छे, जन्म-मरण घणां करे छ; पृथ्वी-पाणी-अमि अने वायुना जीवो ४८ मिनिटमा १२८२४ वार जन्मे छ ने मरे छ, वनस्पतिमां निगोदना जीवो ६५५३६ वार जन्मे मरे छे, एक श्वासोश्वासमां ते एटला भव करे छे, आथीं आ वधा स्थावर कहेवाय छ। आ दरेकमा जीव छे, अने ते केवा स्वरूपे छे ते नीचेनी हकीकते समजाशे ते तमामने शरीर छे, अने तेना शरीरने मनुष्यना शरीर साथे जुदी जुदी रीते सरसाववामा आवे छे ।।
पृथ्वीकाय-जेम मनुष्यने काइ वागेलं होय अने घा पडेल होय, ते रुझाता धीमे धीमे भराइ जाय छे, तेम खोदेली खाणो पण स्वयं भराइ जाय छे, जेम उघाडापगे चालनार मनुष्यना पगर्नु तळिऊ घसाय छे तेम वधतु जाय छे,तेवीज रीते माणसो-पशुपक्षी तथा वाहनोनी आवजाव-थवाथी पृथ्वी पण रोज घसाय छे, ने रोज वधवा पामे छे, जेम वालक वधे छे-तेम पर्वत पण धीमे धीमे नित्य वधे छे, माणसने लोढुं पकडबुं होयतो माणसने लोढा पासे जवं. पडे छे, सारे लोह चुंबक नामनो पत्थर पोताने स्थाने रहीने पोतानी चैतन्य शक्ति थी लोढाने पोतानी पासे खेंची ले छे, माणसना पेटमा पथरीनो रोग थाय छ ते सचेत पत्थर होवाथी नित्य वधे छे, माछलीना पेटमा रहेल मोती पण एक जातनो पत्थर छे, अने ते पण नित्य वधे छे, जेम माणसना शरीरमांना हाडकामां जीव होय छे, तेम पत्थरमा पण जीव होय छ ।
अपकाय-जेम पक्षीना इंडामा रहेल प्रवाही पदार्थ पंचेन्द्रिय पक्षीना पिंड स्वरूपे छ, तेम पाणीना जीवो पण ते एकेन्द्रिय जीवोना पिंड रूपे छे, मनुष्य तथा तिर्यच गर्भ अवस्थामा शरूआतमा प्रवाही पाणी रूपे होय छे, तेम पाणीमां पण जीव समजवा, जेम शियाळामां मनुष्यना मुखमांथी वराळ नीकळे ,, तेम कुवाना पाणीमांधी पण वराळ नीकळे छे, जेम शियाळामां मनुष्य शरीर गरम होय छे, तेम शियाळामों कुत्वानुं पाणी पण गरम होय छे, जेम गरमीमां मनुष्यनुं शरीर शीतळ होय छे, तेम उनाळामा कुवातुं पाणी पण शीतल होय छे,
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
६३
जेम मनुष्यनी प्रकृतिमां पण शरदी तथा गरमी होय छे, तेम पाणी नी प्रकृतिमां पण शरदी तथा गरमी होय छ, जेम मनुष्यनु शरीर शियाळामा अकडाइ जाय छे, तेम शियाळामा तळाव- पाणी पण अकडाई जइने बरफ बने छे, जेम मनुष्य बाल्यावस्था, युवावस्थाने वृद्धावस्था जेवा नवां रूप धारण करे छे, तेम पाणी पण वराळ-वरफ ने वरसाद आदि रूप धारण करे छे, जेम मनुष्यनो देह माताना गर्भमां पाके छे, तेम पाणी पण छ मास वादळामां गर्भ रूपे पाकीने वर्षानुं रूप धारण करे छे, जेम मनुष्यनो काचो गर्भ कोईक वार गळी जाय छे, तेम पाणीनो पण काचो गर्भ गळी जाय छे, जेने करा पया कहेवाय छे,
तेजस्काय-जेम मनुष्य इवासोश्वास सिवाय जीवी न शके, तेम अग्नि पण श्वासोश्वास सिवाय जीवी शकतो नथी, जेम तावमा मनुष्यनुं शरीर गरम रहे छे, तेम अमिना जीवो पण गरम होय छे, मरण पामवाथीं मनुष्यनुं शरीर ठंड पडी जाय छे, तेम अमिना जीवो पण मरी जवा थी ठंडा पडी जाय छ, जेम आगीयाना शरीरमा प्रकाश होय छे, तेम अभिना जीवोमा पण प्रकाश होय छे, जेम माणस चाले छे, तेम अनि पण चाले छे, एटले अग्नि फेलाइने ते आगळ वधतो जाय छे, जेम मनुष्य ऑकसीजन [प्राणवायु] हवा ले छे, ने कार्वन [विषवायु] वहार काढे छे, तेम अग्नि पण ऑकसीजन हवा लइने कार्बन हवा बहार काढे छ ।
वायुकाय-हवा हजारो गाऊ सुधी स्वतन्त्र रीते चाली शके छे, हवा पोताना चैतन्य वळथी मोटा विशाळ वृक्ष तथा मोटा महेलोने पाही नाखे छे, हवा पोतानुं शरीर नानामांथी मोट वनावे छे, वर्तमानकाळमा विज्ञानिओए शोध करीछे, के हवामां थेकसस नामनां सूक्ष्म जंतुओ उडे छे ने ते एटला सूक्ष्म छे के, सोयनी अणी जेटला भागमा एक लाख जंतुओ सुखेथी आराम पूर्वक वेसी शके छे ।
वनस्पति काय-मनुष्यनो जन्म माताना गर्भमा रहया पछी थाय छे, तेम वनस्पतिना जीवो पण पृथ्वीमाताना गर्भमा अमुक समय रहया पछी वहार नीकळे छे, जेम मनुष्यनुं शरीर नित्य वधे छे, तेम वनस्पतिनुं शरीर पण नित्य वधे छ, जेम मनुष्य बालावस्था-युवावस्था ने वृद्धावस्था भोगवे छे, तेम त्रणे अवस्था वनस्पति पण भोगवे छे, जेम मनुष्यना शरीरने कापवाथी लोही नीकळे छे, तेम वनस्पतिना शरीरने कापवाथी माथी प्रवाही पदार्थ विविध रंगना नीकळे छ,
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४
" वीरस्तुतिः। .
जेम खोराक मळवाथी मनुष्य, शरीर पुष्ट थाय छे, अने न मळवाथी सुकाई जाय छे, तेम वनस्पति पण खातर तथा पाणीनो खोराक मळवाथी ते विकास पामे छे, अने तेना अभावे ते सुकाई जाय छे, जेम मनुष्य श्वास ले छे, तेम वनस्पति पण श्वास ले छे, दिवसे कार्वन हवा लईने रात्रे वनस्पति ऑकसीजन हवा बाहर काढे छे, जेम केटलाक मनुष्यो मासाहारी होय छे, तेम वनस्पति पण माखीपतंग आदि नाना जीवोना सत्वने पोतानां पादडा वती चुसी ले छे, या खातर अने हवा द्वारा मांसाहार करे छ, चन्द्रमुखी पुष्प चन्द्रमानी सामे ने सूर्यमुखी पुष्प सूर्यनी सामे खोले छे, अने तेमना अस्त थवाथी बीडाई जाय छ ।
तेमां भूत-सत्व पण छे, जेमके बे-त्रण-चार इन्द्रियवाळा जीवो प्राणी कहेवाय छे, वनस्पतिने भूत, पाच इंद्रियवालाने 'जीव, अने पृथ्वी-पाणी-अग्नि-वायुने 'सत्व' कहे छे, ए वधा जीवोमां १० द्रव्य प्राण होय छे, जेनी गणतरी नीचे मुजव नी छ।
पाच इन्द्रिय, मन, वचन, काय, आयुष्य, श्वासोश्वास, ए दश प्राण छ, आ प्राणधन सर्व जीवोने अत्यन्त प्रिय छ ।
स्थावरोमां जीव होवान सावित थवाना पुष्ट कारणे चार्वाक-नास्तिक आदिनुं खंडन थई जाय छे, आ सर्व जीवो द्रव्य दृष्टिए नित्य अने पर्याय दृष्टिए अनित्य छे, एम महावीर भगवाने फरमावेलुं छे, प्रभु पोते बेट समान डूवता ससारी जीवोने सहायक छे, तेमज तेमनुं ज्ञान तत्वनो निर्णय कराववाने कारणे दीपक समान छे, दीपक समान खरूप-पररूपनुं जान प्रगट थई जाय छे, आ भगवान्नो धर्म छ, के जे तेओए तुलनात्मक दृष्टि थी कहेलो छ। धर्मोपदेश करवानो तेमनो उद्देश लोकोने समभाव-गान्ति-अहिंसा-सत्यनुं स्वरूप समजावीने परोपकार करवानो हतो, पण पोतानो उत्कर्ष प्रगट करवानो न हतो ॥ ४ ॥
से सचदंसी अभिभूय नाणी, णिरामगंधे धिइमं ठियप्पा; अणुत्तरे सवजगंसि विजं, गंथा अतीते अभए अणाऊ ॥५॥
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ६५ -
संस्कृतच्छाया स सर्वदर्शी अमिभूय ज्ञानी, निरामगन्धो धृतिमान स्थितात्मा। अनुत्तरः सर्वजगति विद्वान्, ग्रन्थादतीतोऽभयोऽनायुः ॥५॥
सं० टीका-स ज्ञातूपुत्रमहावीरो भगवान् सर्वदर्शी समासीत्, किं कृत्वा, अमिभूय-यावद्द्वाविंशतिपरिषहान् तिरस्कृत्य पराजय कृत्वेति । पुनः केवलाख्यं ज्ञानमस्यास्तीति सः । "अत इनिठनौ ।" परतीर्थाधिपांधिकत्वमावेदितमित्यनेन ॥ अथ ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष इति तस्य भगवतो ज्ञान प्रदर्श्य क्रियां दर्शयितुमाह ॥ निर्गतोऽपगत आमो विशोधिकोटिरूपो गन्धो यस्मात् सोऽस्ति निरामगन्धो-मूलोत्तरगुणसमन्वितां चरित्रक्रियां कृतवान् इति । धृतिमान् स्थैर्यसम्पन्नो निश्चलतया चरित्राराधकः । स्थितात्मा-निर्मलात्मा शुक्लध्यानीति, यावदथवा स्थित्यात्मा मर्यादान्वितात्मा, यथा “संस्थातुं मर्यादा धारणा स्थितिरित्यमरः ।" अशेषकर्मविगमात्स्थितो व्यवस्थित आत्मा यस्य स स्थितात्मा । परिणामद्वारेण विशेषणं ज्ञानक्रिययोरेतच्चेति भावः । अनुत्तर-उत्कृष्टः श्रेष्ठो नास्मादुत्तरं प्रधानं सर्वस्मिन्नपि जगति विद्यते सोऽनुत्तरः। "अनुत्तर एषां विपर्यये श्रेष्ठ इत्यमरः" । विद्वान् सर्वहेयोपादेयज्ञेयपदार्थवेत्ता, सकलद्रव्याणां करतलामलकवत्प्रत्यक्षदशीति भावः । “विद्वान् विपश्चिद्दोषज्ञः सन्सुघीः कोविदो बुधः, धीरो मनीषी शः प्राज्ञ, इत्यमरः" । ग्रन्थादतीतो ऽन्तर्बाह्यपरिग्रहग्रंथादतीतो रहितः, अथवा कर्मरूपाइन्थादतिक्रान्तो रहितो निर्ग्रन्थ इत्यर्थः । प्रवृत्तिभावेऽथवा कर्मपर्वणोऽतीत इत्याशयः । "प्रन्थिनी पूर्वपरुपी इत्यमरः" । अमयः सप्त प्रकारकं भयं न विद्यते यस्यासावभयो मीतिरहितः । “दरस्त्रासो भीतिभॊः साध्वसं भयमित्यमरः"। अनायुः-नारकतिर्यनृसुरायुरहितत्वात् । दग्धकर्मवीजत्वेन पुनरु
वीर ५
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
, वीरस्तुतिः। ' त्पादस्याभावाच्चेत्यर्थः । "दग्धे वीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुरः । कर्मवीजे तथा दग्धे, नारोहति भवांकुर इति" ॥ ५॥ - अन्वयार्थ-[से] वह [सव्वदंसी ] सब कुछ देखनेवाले भगवान् [अभिभूय ] बायोपशमिक ज्ञानोंको जीतकर [नाणी ] केवलज्ञान संयुक्त, [णिरामगंधे ] निर्दोष चरित्र पालनेवाले [धिइमं ] धीरता समन्वित,[ठितप्पा] अपने आत्म-खरूपमें स्थिर-लय [ सव्वजगसि ] अखिल विश्वमें [अणुत्तरे] सबसे उत्कृष्ट [ विजं ] पदार्थोंके जाननेवाले सर्वज्ञ-सर्वविषयज्ञ [गंथा] परिग्रहग्रन्थीसे [अतीते ] रहित [अभए] सात भयोंसे रहित [अणाउ ] और आयु रहित थे ॥ ५॥
भावार्थ-भगवान् महावीर स्वामी सामान्यरूपसे पदार्थोके जाननेवाले तथा मति-श्रुति-अवधि और मन पर्यव इन चार क्षयोपशमजन्य ज्ञानोंको लाघकर केवलज्ञानसमुत्पन्न थे, और उन्होंने यह भी बताया कि ज्ञान और चरित्रसे ही मोक्ष होताहै अत: प्रभुके ज्ञानका वर्णन करके चरित्रका वर्णन करते हैं। मगर वान्ने मूलगुण और उत्तरगुणोंका पूर्णतासे पालन किया तथा अनेक विघ्न बाधा
और परिषह पडनेपर भी स्वचरित्रमें निश्चल रहे । भगवान् तीनों लोकमें सबसे श्रेष्ठ विद्वान् परिग्रह रहित निर्ग्रन्थ और सातभयसे रहित तथा सव कर्मोंसे मुक्त थे॥५॥ । भाषा-टीका-प्रभु २२ परिषह और शारीरिक मानसिक कष्ट तथा रागा दिक एवं ज्ञानावरणीयादिक आन्तरिक शत्रुओंको जीत कर केवल ज्ञानी होगए। आपने ज्ञानको प्रमुख पद देकर संसारको क्रियाका भी भान कराया । और यह सिद्ध कर दिखाया कि ज्ञान और क्रिया इन दोनोंका आश्रय लेनेसे मोक्ष है। अतः वे स्वयं आमगन्ध-मूल गुण और उत्तर गुणरूपी दोषोंसे रहित थे। आपने धीरतासे चरित्रका पालन किया, आत्माको शुक्लध्यानमें स्थिर किया। कर्मोका सर्वथा नाश करनेके लिए निवृत्तात्मा होकर स्थित रहे, स्थिरता, उनका प्रधान गुणथा। और ब्रह्मज्ञान-पाकर हाथ पर धरे आमलेकी तरह सव चराचरको जान लिया। क्योंकि अन्तर और बाह्य परिग्रहसे रहित होकर कर्म प्रन्थिका सर्वथा मेदनकर चुके थे अतःआप निम्रन्थ थे। यही कारण है कि बौद्धादिक आपको अव तक भी निग्गण्ठके नामसे स्मरणमें रखते हैं। आप स्वयं अभय रहकर औरोंको निर्मय वनानेके अर्थ उपदेश देते और लोकोंमें
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभापान्तरसहिता ६७ सच्चा वीर रस पैदा करते। देव, मनुष्य, पशु और नरकके आयुके लम्बे तारोंको तोड फोड कर नष्ट कर. दिया । क्योंकि जब वीजको सैंक भून दिया जाता है तब उसे बोया भी जाय तव भी वह अकुर नहीं देता अर्थात् उसकी सृष्टि अगाडी नहीं बढती, इसी प्रकार कर्मवीज नष्ट होने पर ससारका संकुर अर्थात् जन्म और मरण नष्ट हो जाता है ॥ ५॥
गुजराती अनुवाद-२२ परिषह, शारीरिक तथा मानसिक कष्ट, रागादिक तथा ज्ञानावरणीयादिक आन्तरिक शत्रुओने जीतीने प्रभु केवलज्ञानी थया, अने ज्ञानने प्रमुख पद आपीने संसारने क्रियानु पण भान कराव्यु, अने सिद्ध करी बताव्यु के ज्ञान भने क्रियाथी मोक्ष छे, मूल तथा उत्तरगुणे दोष रहित सयमना पाळनारा, धैर्यवान् , सर्व कर्म नाश थवाथी स्थित आत्मवान् , सर्व 'जगत्ने विषे प्रधान ज्ञानवान् , वाह्य मने अभ्यन्तर परिग्रह रहित तेमज कर्मग्रन्थीनो मर्वथा नाश करवाथी निर्ग्रन्थ थया आ कारणे बौद्धादिक आपनुं 'निग्गण्ठ' (निर्ग्रन्थ) एवा नामथी स्मरण करे छे, आप सात भय रहित थया, अने बीजाओने निर्भय बनाववाने माटे उपदेश देता, अने लोकोमा साचो वीर रस पेदा करता, चार गतिना आयुष्य रहित ज्ञातृपुत्र श्रीमहावीर देव हता, कारणके ज्यारे बीजने शेकी नाखवामा आवे त्यारे तेने वाववामां आवे तो पण ते उगतुं नधी, आ रीते कर्मवीजनो नाश थई जवाथी ससारना अंकुर जन्म-मरण "नाश पामी जाय छे ।।
से भूइपन्ने अणिए अयारी,
ओहंतरे धीरे अणंतचक्खु । अणुत्तरे तप्पइ सुरिए वा, वइरोइणिंदे व तमं पगासे ।। ६॥
संस्कृतच्छाया स भूतिप्रज्ञोऽनियतवारी, 'ओघेतरो धीरोऽनन्तचक्षुः। अनुत्तरं तपति सूर्य इव, वैरोचनेन्द्र श्व तमः प्रकाशः ॥६॥
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८
वीरस्तुतिः । __ सं० टीका-से इति' । भूति शब्दो वृद्धौ, सम्पदि, ऐश्वर्ये, भसनि वर्तते, भूतिप्रज्ञस्तत्र प्रवृद्धज्ञानोऽनन्तज्ञानवानिति, तथा च भूतौ भसनि कर्मणां भस्मसात्करण इत्यर्थः कर्मक्षय इति यावत् प्रज्ञा यस्य स भूतिप्रज्ञः, तथा समग्रात्मैश्वर्योदयवान् च । “भूतिर्मस्मनि सम्पदि, इत्यमरः" । पुनस्तथा भूतिप्रज्ञो जगद्रक्षाविषयको भूतिप्रज्ञः । सर्वमंगलभूतिप्रज्ञ इत्यपि; । अनियतचारी अप्रतिबन्ध विहरमाणत्वात् , वायुरिवेतिभावः । ओघं संसार तरीतुं शीलमस्येति ओघतरः । उत्पादव्यययोः ओघं परम्परां तरतीति सः । "ओघो वेगे जलस्य च । वृन्दे परम्परायां च, द्रुतनृत्योपदेशयोरिति" मेदिनी! अथवा कर्मणामोघः समूहस्तं तरतीति सः। “ओघो वृन्देऽम्मसां रख इत्यमरः" । घीवुद्धिस्तया राजत इति धीरः, परिषहोपसर्गेऽक्षोभ्यो दृढो वेति धीरः । “धीरोमनीपी ज्ञः प्राज्ञ इत्यमरः ।" अनन्तत्वाचक्षुर्ज्ञानं तत्केवलज्ञानमेव तदेव चक्षुर्भूतः सोऽनन्तचक्षुरिति । यथार्कः सूर्योऽनुत्तरमुत्कृष्टं सर्वतोऽधिकं तपति न तस्मादधिकस्तापे कश्च. नास्ति, तथैव भगवानपि ज्ञानेन सर्वोत्कृष्टः । पुनः कथंभूतो हि सूर्यो, विशेषेण रोचनो दीप्तिमान् , प्रकाशकाधिकत्वात् , इन्द्रोऽसौ यथा तमोऽपनीय-दूरीकृत्य प्रकाशयति, एवमसावपि भगवानज्ञानतमोऽपहृत्य यथावस्थितपदार्थान्प्रकाशयतीत्यर्थः । विरोचन इत्यत्र खार्थेऽणि, वैरोचनः सूर्योऽथवाग्निरिव कर्मेन्धनं ज्वालयित्वा अकर्मकः परिशुद्धो जात इत्यपि । “विरोचनः प्रल्हादस्य तनयेऽऽग्निचन्द्रयोरिति मेदिनी ।" विरोचनो रविरेवेति बहुमतम् , यथा--"तरणि स्तपनो भानुघ्नः पूषार्यमा रविः, तिग्मः पतंगो द्युमणिर्मार्तण्डोऽर्को ग्रहाधिपः इनः सूर्यास्तमोवांतस्तिमिरारिर्विरोचनः । इति धनञ्जयना
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
ममालायाम्" । “धुमणिस्तरणिमित्रश्चित्रभानुर्विरोचन इत्यमरः" विरोचन एवं वैरोचनः सूर्यः। स इच प्रकाशोऽतिप्रसिद्धो, जगद्विख्यातो ज्ञातपुत्र-महावीरप्रभुरित्यर्थः । “प्रकाशोऽतिप्रसिद्धेऽपीत्यमरः” । अथवा सः प्रभु नातपने महान् इति । "प्रकाशोद्योत आतप इत्यमरः ।" ॥ ६ ॥
अन्वयार्थ-[से ] वे भगवान् [भूइपणे ] अत्यन्त बुद्धिमान् [ अणिए अचारी ] विचरते समय प्रतिवन्ध रहित [ ओहंतरे] ससार समुद्रसे पार होनेवाले [धीरे ] धैर्यवान् [अणंतचक्खु] अनन्तज्ञानवान् [अणुत्तरं] सबसे अधिक पवित्र-श्रेष्ठ [तप्पति ] तपश्चरण करनेवाले [ सूरिए वा] सूर्यके समान तथा [वइरोयणिंदे व] वैरोचन नामक अग्नि के सदृश [तमं] अज्ञानान्धकारको नष्ट करके [पगासे ] ज्ञानद्वारा तत्वोंको प्रकाशित करते थे ॥ ६ ॥
भावार्थ-भगवान् महावीरकी प्रज्ञा संसारका मंगल कल्याण एवं रक्षा करनेवाली थी, उनका भ्रमण अप्रतिवद्ध था, क्योंकि वे सर्वथा परिग्रहसे रहित थे, उनका चरित्र संसार समुद्रसे पार करनेवाला था, परिषह-शत्रुओंका आक्रमण समान भावसे सहन करते थे, इसीसे धीर एवं धी-बुद्धिसे राजित-शोभित थे, अनन्त ज्ञेय पदार्थोके ज्ञाता थे, इसीकारण अनन्त ज्ञान सहित थे, विश्वमें सबसे अधिक तप करते थे, और जिसप्रकार सूर्य अन्धकारको नष्ट करता है अथवा वैरोचन नामक अमिके जलनेसे अन्धकार या काष्ठका नाश होता है उसी प्रकार महावीर भगवान् भी अज्ञान अन्धकार या कर्मकाष्टके नाशक थे ॥६॥
भाषा-टीका-वीर भगवान्का ज्ञान चौथी भूमिकासे वढकर अनन्तवृद्धिको प्राप्त होगया। यह अनन्तज्ञानमय ऐश्वर्य सर्वथा घातिया कर्म क्षयकरनेपर ही मिला। तव संसारके लिए आप मंगलभूत और रक्षक बने तथा आपका वायुकी समान अप्रतिवद्ध विचरणथा। आपने ससारके समुद्रको पार किया। उपदेश दान देकर औरोंको भी जन्म मरणसे मुक्त कर दिया, जिससे कहा जा सकता है कि-कर्मके समौघसे आप पार हुए। परिषह और उपसर्ग सहते समय किसी प्रकारका क्षोभ न होनेसे आप धीर थे। इसीके चाद आप अनन्त चक्षुवाले कहलाए। जिस तरह सूर्य उत्कृष्ट तापसे तपता है ।
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
वारस्तुतिः।
उसी तरह महावीर भगवान्मी ज्ञानकी अनन्तताकी अपेक्षा सर्वोत्कृष्ट थे। उस ज्ञानसे भगवान् जनताके अज्ञानाधकारको अपहरण करके यथार्थ रीतिसे ज्ञानका आविर्भाव-प्रकट करनेवालोमसे थे । प्रभुने अग्निकी तरह कर्म रूप ईंधनको भी जलाकर अनन्त संसारकी अज्ञान आत्माओंको प्रकट रीतिसे' परिशुद्ध किया । और सूर्यकी सदृश भगवान् महावीर प्रभु अखिल विश्वमें अद्वितीय प्रसिद्धि प्राप्त महापुरुष थे। अधिकतर संसारमें उन दिनों प्रभुकी ज्ञानक्रान्ति ही सव ओर चमक रही थी ॥ ६ ॥ - गुजराती अनुवाद-वीर परमात्मानुं ज्ञान चोथी भूमिकाथी वधीने अनन्तताने प्राप्त थयु, कर्मोनो क्षय थवाथी भगवान् अनन्तज्ञानवाळा थया, सारे संसारना मंगळ समान तेमज रक्षक तेओ थया, वायु समान अप्रतिबंध विहारी, संसार समुद्रने तारनार भगवान् हता, बीजाओने उपदेश दान करीने जन्म मरणथी मुक्त करावनार हता, परिषह तेमज उपसर्ग सहती वखते आपने कोई पण प्रकारनो क्षोम न थवाना कारणे धीरजवान् , अनन्तज्ञानरूप चढवाळा, तथा सूर्य जेम सर्वथी अधिक तपे छे, तेम प्रभु ज्ञाने करी सर्वोत्तम छे, विरोचन अग्नि जेम सळगवाथी प्रकाश करे तथा इन्द्रनी पेठे अन्धकारने दूर करी प्रकाश करे छ, तेम श्रीमहावीर देव पण अज्ञानरूप अन्धकार दूर करी प्रकाश करे छे, अग्मिनी माफक कर्मरूप ईंधणने वाळी अनन्त संसारना अज्ञान आत्माओने प्रगट रीते परिशुद्ध कर्या, अने सूर्यनी पेठे प्रभु अखिल विश्वमा अद्वितीय प्रसिद्धिने पामेल महापुरुप हता, ते दिवसोमां प्रभुनी ज्ञान-क्रान्ति अधिकतर प्रकाशती हती ॥ ६॥
अणुत्तरं धम्ममिणं जिणाणं, णेया मुणी कासव आसुपण्णे; इंदेव देवाण महाणुभावे, सहस्सणेता दिवि णं विसिट्टे ॥७॥
संस्कृतच्छाया । अनुत्तरं धर्ममिमं जिनानां, नेता मुनिः काश्यप आशुप्रज्ञः। इन्द्र इव देवानां महानुभावः सहस्रनेता दिवि विशिष्टः ॥ ७॥
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ७१ • सं० टीका-अनुत्तरं० इति-अनुत्तरमुत्कृष्टं प्रधानं धर्म जिनानामृषभादितीर्थकृतां सम्बन्ध्ययं 'मुनिः, 'मनेरुच्चेत्युणादिसूत्रेणे प्रत्यये कृते चोपधोत्वे जाते 'मुनि'रिति सिद्धं, परंन्त्वत्र लघूपधगुणादेशः प्राप्तस्तथापि तपरोच्चारणासामर्थ्यात् किदित्यनुवर्तनाच न भवतीति भावः' । “वाचं यमो मुनिरित्यमरः" । "मुनिभिक्षुश्च संयमीति, कोषः" । श्रीज्ञातपुत्रमहावीराख्यः सुमुनिः, काश्यपो गोत्रेण, आशुप्रज्ञः केवलज्ञानी उत्पन्नदिव्यज्ञान इत्यर्थः । नेता, प्रणेता चतुर्विधस्य संघस्य धर्मप्रणेता, चतुष्प्रकारधर्मोपदेष्टा दानशीलतपोभावमेदाद्वा । अथवा साधुसाध्वीश्राद्धश्राविकारूपचतुर्विधसंघस्य प्रभुत्वादपि नेता= नायकः । ताच्छीलिकस्तृन् । “अधिभूर्नायको नेता प्रभुः परिवृढोsघिपः' इत्यमरः । धर्ममित्यत्र कर्मणि द्वितीयैव । ताच्छीलिकस्तृन् तद्योगे 'न लोकाव्ययनिष्ठेत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधात् । यथेन्द्रो दिवि देवलोके खर्गे महानुभावो महाप्रभावः । एवमेव याथातथ्येन सम्यक्प्रकारेण अखिलद्रव्यपदार्थनिश्चयकर्ता महावीर इति । “अनुमावः प्रमावे च सतां च मतिनिश्चय इत्यमरः" । प्राकृतशैल्या णमिति वाक्यालंकारार्थे । सहस्रनेत्रो-विलक्षणसहस्रनयनयुक्तोऽसाविन्द्रः। विशिष्टो रूपवलवर्णादिकैर्विशिष्टो युक्तो हि प्रधानस्तथैव भगवानपि सर्वेभ्योऽपि विशिष्टः प्रणायको महानुभावश्चेति सर्व पूर्ववृत्तान्तं संयोज्यमिति भावः ॥ ७ ॥ । अन्वयार्थ-[जिणाणं ] जिन भगवान्के [इणं ] इस [अणुत्तरं] सर्वे श्रेष्ठ [धम्म ] धर्मके [णेया] नेता [मुणि ] मुनि [कासव ] काश्यपगोत्रीय [महाणुभावे] महाप्रभावशाली भगवान् महावीर [ दिवि ] खर्गमें [सहस्स] हजारों [देवाण ] देव समूहके [इदे व] इन्द्रके समान [विसिठे] रूप और गुण आदिमें सबसे उत्तम और प्रधान [णेता] नेता अर्थात् सपूर्ण ज्ञानयुक्त ईश्वर थे ॥ ७॥ . .
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः ।
• भावार्थ-जिसप्रकार स्वर्गके समस्त देवोंमें इन्द्र, रूप-गुण और ऐश्वर्यादि गुणोंमे प्रधान होता है उसी प्रकार महावीर भगवान् सव लोकोंमें उत्तम और प्रधान थे, आदिजिन प्रमुख पहले २३ तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित धर्मके नेता-प्रचारक थे, इस वचनसे उनकी भ्रमणा दूर होजाती है जो महावीर प्रभुको ही जैनधर्मका संस्थापक मानते हैं, परन्तु श्रीमहावीरदेव तो जैनधर्मके आद्य संस्थापक न होकर उनसे पूर्व होनेवाले २३ तीर्थकरोंद्वारा कथित धर्मके प्रचारकमात्र थे और उस प्रभुका गोत्र काश्यप था ॥ ७॥
भाषा-टीका-ये तरुण तपस्वी मुनि उत्कृष्ट और प्रधान धर्मका सरल और आत्माके लिए उन्नत मार्ग बतानेवाले थे। वह धर्म ऋषभादि २३ तीर्थकरके वताए हुए धर्मसे मिन्न न था। हा कुछ देशकालके अनुसार संशोधन अवश्य किया था परन्तु आप जैन धर्मके आद्य प्रवर्तक न थे, इससे वीर प्रभु जैन धर्मको फिरसे प्रचार करने वाले सिद्ध होते हैं इनसे पूर्व २३ तीर्थंकर और होगए हैं ] प्रभु काश्यप गोत्रकी विमल विभूति थे । दिव्य ज्ञानको पाकर चतुविध संघके लिए धर्मपथ बतानेके नातेसे आप नेता भी थे। क्योंकि संघको
आपने ही तो ज्ञान, दर्शन, चरित्र, अहिंसा, तप, त्याग, संयम आदिमें प्रवृत्त किया था। अपनी भलाई और संसार की भलाई या कल्याणके अर्थ संघको दान, शील, तप, भाव ये धर्मके चार भेद बताए । तथा साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकारूप चार प्रकारके सघको स्थापन करके आपने उनको संगठनकी परम शक्ति का तत्व बताया था। इन्द्र का स्वर्गके देवों पर उसके महान् होनेके कारण महाप्रभाव है, इसी प्रकार पदार्थ विज्ञानका निश्चय प्रगट करने वाले तत्वविदोंमें महावीर प्रभु ऐश्वर्या शाली थे । संसार और मोक्ष की गुत्थीको सुलझानेमें और सारभूत तत्वोको प्रगट करनेमें प्रखरप्रकाशक थे। सात तत्व-नव पदार्थआदि महान् तथा गंमीर पदार्थों का सरल आशय जनतामें आपने ही निपुणतासे प्रगट किया । यथा शक्रंद्रके ५०० प्रधानों की दृष्टि उसीकी और रहती है जिस ओर इन्द्र की दृष्टि होती है। इसी तरह जिस अनेकान्त पथ पर आपकी दृष्टि जमी थी संसारने उसी पथ का अनुसरण किया इस अपेक्षासे आपके मी सहस्रनेत्र थे । रूप, वल, वर्ण, वीर्य आदिमें आप सर्व प्रधान थे, मुनिगणरूपी सितारों में आप मुनिचन्द्ररूपी ईश्वर थे ॥ ७ ॥
गुजराती अनुवाद-आ तरुण मुनिश्रेष्ठ उत्कृष्ट धर्मनो सरळ तेमन
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
७३
आत्माने माटे उन्नत मार्ग वतावनार हता, ते धर्म ऋषभादि २३ तीर्थंकरोए बतावेल धर्मथी भिन्न न हतो, देश कालने अनुसार संशोधन अवश्य करेलु हतुं, पण तेओ जैनधर्मना आदि प्रवर्तक न हता, ते प्रभु काश्यप गोत्रीय क्षत्रियोमांनी विमल विभूति हता, दिव्य ज्ञान प्राप्त करीने चतुर्विध संघने धर्म पथ वतावनार होवाथी तेओ नेता पण हता, कारणके सघने तेओएज ज्ञानदर्शन-चरित्र-अहिंसा-सत्य-तप-त्याग-संयमादिमां प्रवृत्त कर्यो हतो, संसारना कल्याणार्थे तेओए संघने दान-शील-तप-भाव एम धर्मना चार मेद वताव्या, साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकारूप संघनी स्थापना करीने तेओए तेमने सगठननी परम शक्तिनुं तत्व वताव्युं हतुं, देवलोकने विषे इन्द्र जेम देवोमा महाप्रभावान्, हजारो देवोनो नायक अने सर्वोत्तम छे, तेम पदार्थ विज्ञाननो निश्चय प्रगट करवावाळा तत्ववेत्ताओमां महावीरप्रभु ऐश्वर्यशाळी हता, संसार अने मोक्ष तेमज सारभूत तत्वोने प्रगट करवामा प्रखर प्रकाशक हता। सात तत्व-नव पदार्थ आदि महान् तेमज गंभीर पदार्थोनो सरळ आशय निपुणताथी जनतामां तेओए प्रगट कर्यो हतो। जे तरफ इन्द्रनी दृष्टि रहे छे, तेज तरफ तेना ५०० प्रधानोनी नजर पण रहे छे, तेज रीते अनेकान्त पर तेमोनी दृष्टि हती। तेज मार्गर्नु ससारे पण अनुसरण कर्यु । जेथी तेओ पण सहस्रनेत्र गणाया । रूपवल-वर्ण-वीर्य विगेरेमा तेो सर्वोत्तम हता। मुनिगणरूपी ताराओमा तेओ मुनिचन्द्ररूप ईश्वर हता ॥ ७ ॥
से पन्नया अक्खयसागरे वा, महोदही वा वि अणंतपारे । अणाइले वा अकसायी मुक्के, सक्केव देवाहिवई जुईमं ॥८॥
संस्कृतच्छाया स प्रशयाऽक्षयसागरो वा, महोदधिरिव अनन्तपारः। अनाविलोवाअकषायी मुक्तः,शक इव देवाधिपतिद्युतिमान् ॥८॥ 'सं० टीका–स इति, पुनरसौ भगवान् प्रज्ञयाऽक्षयोऽक्षीणज्ञानः, प्रज्ञायत अनयेति प्रज्ञा तयाऽक्षयो, ज्ञातव्येऽर्थे तस्य बुद्धिर्न प्रक्षीयते
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
७४
.
.वीरस्तुतिः। . .
न प्रतिहन्यते वेति, "वुद्धिर्मनीषा धिषणा धीः प्रज्ञेत्यमरः" । अथवा तस्य बुद्धि केवलज्ञानाख्या सा साद्यनन्ता-साद्यपर्यवसाना कालतो, द्रव्यक्षेत्रभावापेक्षयाऽप्यनन्ता तयाऽक्षयः, यथा सागरी महोदधिः खयंभूरमणः समुद्रः स इवानन्तपारः । यथासौ विस्तीर्णो गंभीरजलोऽक्षोभ्यस्तथैव तस्य भगवतो विस्तीर्णा प्रज्ञाऽनन्तप्रज्ञा, स्वयंभूरमणसमुद्रादनन्तगुणितो गंमीरोऽक्षोभ्यश्च, अनाविलोऽकलुपजलः, "कलुपोऽनच्छ आविल इत्यमरः" । नाविलोऽनाविलो निर्मलस्तथैव कर्मलेशाभावादकलुपज्ञानो निर्मलज्ञान इति । न कषायी-अकपायी ज्ञानावरणीयादिकर्मवन्धनवियुक्तत्वात् । मुक्तःकर्मरहितोऽपुनरावृत्ति प्राप्तः । सर्वलोके पूज्यत्वेऽपि, निश्शेषान्तरायक्षयेऽपि निरवद्यभिक्षामात्रोपजीवित्वाद्भिक्षुः । पुनश्च स ज्ञातृपुत्रीयो महावीरो भगवान् दीप्तिमान् , शक्र इव देवाधिपतिरिव कान्तिमानिति, "शक इन्द्रः सुनासीरः शतक्रतुरिति धनञ्जयः"1"जिप्णुर्लेखर्षभः शक्र इत्यमरः" ॥ ८॥
अन्वयार्थ-[से] वे भगवान् महावीर [पन्नया ] वुद्धिकी अपेक्षा अनन्तपारवाले तथा [अणाइले] पवित्र जलसे भरपूर [महोदहीवावि] खयम्भूरमण समुद्रकी तरह [अक्खयसायरे ] अक्षीण समुद्र थे तथा [अकसाइ] चार कषायसे रहित [ मुक्के ] आठ कर्मोंसे रहित [देवाहिवइ ] असंख्य देवोंके अधिपति [ सक्केव ] इन्द्रकी तरह [ जुईम ] दीप्तिमान् चमकीले थे ॥ ८॥
भावार्थ-भगवानको किसी अन्य पदार्थसे उपमा न दी जा सकनेके कारण समुद्रसे हि एक देशीय उपमा दी गई है। अर्थात् जिसप्रकार स्वयंभूरमणसमुद्र अनन्तपार युक्त है उसी प्रकार भगवान् भी द्रव्य क्षेत्र-काल और भावकी अपेक्षा अनन्त ज्ञानवान् थे, समुद्रके निर्मल जलके समान उनका ज्ञान भी स्पष्ट और आवरण रहित था, इसी प्रकार कषायसे रहित तथा आठ कोंक बंधसे मुक्त थे, जैसे इन्द्रका प्रभाव देवोंपर होताहै उसी प्रकार प्रभुका प्रभाव भी प्राणीमात्र पर. था ॥८॥
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
७५
भाषा-टीका-प्रभुका ज्ञान कोष अक्षय था, क्योंकि उनकी बुद्धि भी केवलज्ञानरूपा थी। जो कि आदि-अनन्त थी। जिसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल, मावकी पूर्ण अनन्तता थी। विस्तीर्ण और खच्छ तथा गंभीर खयम्भूरमण समुद्र की सदृश प्रभु गंभीर तथा अक्षोभ्य और पवित्र गुणोंमें उससे भी अनन्तगुण अधिक थे । आपका अनुभव, विचार तथा ज्ञान जल अनाविल यानी कालुष्यता-पूर्वापर विरोधरहित था, जिसमें कर्म मलका लेश कोई खोजेसे भी न पा सके। ज्ञानावरणीयादिक आठ कर्म-बन्धनसे रहित होनेके कारण आपमें कषाय कहां हो। इसीसे आप जीवन मुक्त थे। आप तीनों लोकोंके पूज्य होने पर भी निरवद्य भिक्षा लेते । आप शूरवीर शकेंद्रकी तरह द्युतिमान् और प्रतापी-महापुरुष थे। और यह वात विश्व विख्यात थी ॥ ८॥
गुजराती अनुवाद-प्रभुनो ज्ञान भण्डार अखूट हतो, कारणके तेमनी बुद्धि पण केवलज्ञान रूपे हती, जे सादि-अनन्त हती । जेम स्वयंभूरमण नामे मोटो समुद्र अनन्त-अपार अने निर्मल जलवाळो छे, तेमज प्रभु गंभीरअक्षोभ्य-अने पवित्रं गुणोमा तेनाथी पण अनन्तगणा अधिक हता। तेओर्नु अनुभव-विचार तथा ज्ञान जल अत्यन्त निर्मल हतुं । शोधवा छतां पण कर्मरूप मेल तेमा मळी शके नहि । ज्ञानावरणीयादिक कर्मवन्धनथी रहित थवाने कारणे तेमो अकषायी-कषाय रहित हता। तेथी आप जीवन्मुक्त हता, त्रिलोक पूज्य होवा छतां आप निरवद्य मिक्षाए आजीविका करनार हता । देवोना खामी शकेन्द्रनी पेठे तेओ तेजस्वी तथा अनन्त प्रतापी अने महापुरुष हता ॥ ८॥
से वीरिएणं पडिपुण्णवीरिए, सुदंसणे वा णगसबसेठे। सुरालएवासि मुदागरे से, विरायए णेगगुणोववेए ॥९॥
संस्कृतच्छाया ' स वीर्येण प्रतिपूर्णवीर्यः, सुदर्शन इव नगसर्वश्रेष्ठः।. । सुरालयवासिमुदाकरः स, विराजतेऽनेकगुणोपपेतः ॥९॥
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः ।
___ सं० टीका-स इति, वीर्यान्तरायस्य निःशेषतः क्षीणत्वात् स भगवान् वीरो वीर्येणौरसेन धृतसंहननादिवलेन प्रतिपूर्णवीर्यः, अनन्तशक्तिमानित्यर्थः । अथवोत्कर्षवत्तया प्रतिपूर्णप्रभाववान् अथवा सर्वशक्तिमान् । “सवीर्यमतिशक्तिभाक्” इति । "वीर्य बले प्रभावे चेत्यमरः" । नगानां पर्वतानां मध्ये यथा, "शैलवृक्षौ नगावगावित्यमरः" "नगः शिलोच्चयोऽद्रिश्च शिखरीति धनंजयः" । सुदर्शनो मेरुः केवलकल्प्यजम्बूद्वीपमध्ये श्रेष्ठस्तथैव गुणैर्भगवान् श्रेष्ठः । यथा सुरालयः खर्गस्तन्निवासिनां देवानां मुदाकरो हर्षकर आनन्दजनको मनोनोकूलवर्णगंधरसस्पर्शप्रभावादिगुणै राजते । एवं भगवानप्यनन्तगुणैः शोभते, विराजतेऽनेकैर्गुणैरुपेतो भगवान् वीर इति ॥ ९॥ . ___अन्वयार्थ--[से ] वे भगवान् [वीरिएणं ] वल-वीर्यसे [पडिपुण्णवीरिए] प्रतिपूर्ण शक्तिवाले थे, तथा [वा] जिसप्रकार [सुदसणे] सुमेरु पर्वत [णगसव्वसेठे] सव पहाडोंमें अवलोकनीय और महान् एवं श्रेष्ठ है, उसी प्रकार महावीर प्रभु भी सर्वश्रेष्ठ थे, और सुमेरु पर्वत जिसप्रकार [सुरालएवासिमुदागरे] देवोंको प्रसनता उत्पादक होता है उसी प्रकार भगवान् सव पाणीवर्गकेलिए हर्षदायक थे, तथा जैसे सुमेरु [ णेगगुणोववेए ] अनेक गुणोंसे शोभित है वैसेही भगवान् भी अनन्त उत्तमोत्तम गुणोंसे समलङ्कत थे ॥ ९॥
भावार्थ-भगवान्का वीर्यान्तराय कम्म विल्कुल नष्ट हो गया था, अतएव उनमें अनन्तवीर्य-अनन्त वलका प्रादुर्भाव हो गया था, जैसे सुमेरु-पर्वत सब पहाडोंमें श्रेष्ठ है उच्च है उसी प्रकार भगवान् भी शक्ति आदि गुणोंमें उच्च और सर्वश्रेष्ठ थे । तथा जिस प्रकार स्वर्ग देवोंकेलिए हर्षोत्पादक है उसी प्रकार सुमेरु भी हर्ष जनक है वैसे ही भगवान् भी प्राणीमात्रकेलिए हर्षको उत्पन्न करनेवाले थे। सुमेरु जैसे अनेक गुणोंसे-सुनहरी रग और चन्दनादि गन्ध तथा उत्तम फलोंसे शोभित होता है, भगवान् भी ज्ञान-शक्ति-सुखादि गुणोंसे विराजमान थे ॥९॥
भापा-टीका-वीर्यान्तरायका सर्वथा क्षय होनेसे भगवान् अनन्त शक्तिमान् . और धैर्य, शौर्य, सहिष्णुतादि शारीरिक वलसे वलिष्ट थे,
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
७७
प्रतिष्ठाशालियों में भगवान् अद्वितीय प्रभाववाले थे। जहां जीवोंको केवलज्ञान प्राप्त होता है उस जम्बूद्वीपके मध्यमें जिस प्रकार सुमेरु पर्वत दृढ, अचल, और श्रेष्ठ है इसी प्रकार प्रभुकी वाणी भी अनेकान्त रूप सकल श्रेष्ठ है तथा वे खयं भी पर्वतकी तरह दृढ थे । सुमेरुपर्वत खर्गवासिओंको वडा सुहावना लगता है और हर्ष पैदा करता है इसी भान्ति प्रभु भी ज्ञान, दर्शन, सुख और शक्ति आदिक अनन्त गुणोंसे युक्त और भव्य आत्माओंके लिए अनुपम आनन्ददायक थे ॥ ९ ॥ • गुजराती अनुवाद-वीर्यान्तरायनो सर्वथा नाश थवाथी भगवान् अनन्त-शक्तिमान् हता, तेमज धैर्य-शौर्य-सहिष्णुतादि शारीरिक वले करी प्रतिपूर्ण वलवान् हता। प्रतिष्ठा शालिओमा भगवान् अद्वितीय प्रभाव वाळा हता, ज्या जीवोने केवलज्ञान प्राप्त थाय छे ते जंबूद्वीपमा मेरु पर्वत जेम दृढअचल-भने श्रेष्ठ छे, तेम भगवान् पण वीर्यादिक गुणे करी श्रेष्ठ तथा दृढ हता। मेरु पर्वत जेम स्वर्गवासी देवोने हर्ष उत्पन्न करे छे तथा अनेक गुणोए करी शोभित छे, तेमज प्रभु पण ज्ञान-दर्शन-सुख अने शक्ति आदिक अनन्त गुणोए करी शोमे छे, तेमज मव्यात्माओने आनन्द प्रद छे ॥ ९ ॥
सयं सहस्साण उ जोयणाणं, तिकंडगे पंडगवेजयंते। से जोयणे णवणवति सहस्से, उद्बुस्सितो हे सहस्समेगं ॥१०॥
संस्कृतच्छाया शतं सहस्राणां तु योजनानाम् , त्रिकण्डकः पण्डकवैजयन्तः। स योजने नवनवतिसहने ऊोच्छ्रितोऽधः सहस्रमेकम् ॥१०॥
सं० टीका-पुनश्चापि मेरुवर्णनायाह, 'सयं इति,' स सुमेरुयोजनसहस्राणां शतमुच्छ्रितोऽस्ति "मेरुः सुमेरुहेमाद्रिः रत्नसानुः सुरालयः इत्यमरः।" तथा त्रीणि कण्डकानि यस्य स त्रिकण्डकः । भौम
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८
वीरस्तुतिः। - - जाम्बूनदं-वैदूर्य चेति भेदात् । स किं भूतः, पण्डकवैजयन्तः, पण्डकवनं शिरसि व्यवस्थितं, वैजयन्तीकल्पं पताकाभूतं यस्य स तथोक्तः। "पताका वैजयन्ती स्यात्केतनं ध्वजमस्त्रियामित्यमरः" । असौ मेरुर्नवनवतिसहस्र योजने ऊोच्छ्रितः भूतलादुपरि प्रवृद्ध उन्नतो वा "उच्चप्रांशून्नतोदग्रोच्छ्रितास्तुङ्ग" इति, “जातोन्नद्ध प्रवृद्धाः स्युरुच्छ्रिता इति चामरः" । अधः भूमेरधस्ताद्देशे एकं सहस्रं योजनमवगाढ इत्यर्थः । एकसहस्रोनलक्षयोजनं पृथिवीत ऊर्ध्व, सहस्रमेक च योजनं भूमाविति भावः ॥ १० ॥
अन्वयार्थ-[से] वह सुमेरु पर्वत [ सयं सहस्साण ] एक लाख [जोयणाणं] योजनका है, [तिकंडगे] उसके तीन भाग हैं, [पंडगवेजयंते] पाण्डुक वन जिसकी ध्वजाके समान है, तथा [णवणवते ] ९९ निनानवे [ सहस्से ] हजार [जोयणे ] योजन [उद्धस्सिते ] ऊंचा है, और [ एगं] एक [सहस्स] हजार योजन [हेठं] बुनियादमें नीचा है ॥ १० ॥
भावार्थ-इस गाथा भगवान्की उपमा भूत सुमेरुगिरिका वर्णन किया है, सुमेरु एक लाख योजन ऊंचा है, निनानवे हजार योजन जमीनसे ऊपर तथा एक हजार 'योजन जमीनमें है, इसके. तीन कंडक-भाग हैं, उन तीन कण्डिकाओंमें सबसे ऊपरकी कण्डिका पर पाण्डुक वन है। और मानो वह ध्वजाकी तरह जान पड़ता है, जिसप्रकार यह सुमेरु पर्वत तीनों लोकोंमें व्याप्त है उसी भाति भगवानके मी ज्ञान-दर्शन-चरित्रादि गुण समस्त लोकालोकमें व्याप्त हैं ॥१०॥
भाषा-टीका-वह सुमेरु पर्वत ऊचाईमें एक लाख योजन है, जिसके तीन काण्ड-भाग हैं । जिनके क्रमसे भौम-जाम्बूनद-वैदूर्य नाम हैं। उस पर पण्डकवन उंचाईमे सबसे अधिक होनेके कारण सुन्दर ध्वजाकी तरह उसकी सुशोमाको और भी बढाकर मानो चार चांद लगा रहा है । जिस मेरुकी जड जमीनमें १००० योजन तक पाई जाती है । और वह ९९००० योजन पृथ्वीके ऊपरी भागमें आकाशकी चोटीकी तरह शोभित है। उसके तीनों भाग तीनों लोकोंमें अवकाश पाए हुए हैं। इसी तरह प्रभुके कथन किए हुए तीनों रन
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
७९
सुमेरु की भाति विशाल और महान् हैं, तथा तीनों लोकके भव्यप्राणियोंके मन-वचन-काय योगमे समाविष्ट-ओत-प्रोत हैं ॥ १० ॥
गुजराती अनुवाद-ते मेरु पर्वत उंचाइमा एक लाख योजननो छ, तेना एक भूमिमय, बीजो सुवर्ण मय अने त्रीजो वैडूर्य रत्न मय एवा त्रण कांड (भाग) छे; तथा ते मेरु पर्वतनी टोच ऊपर पंडग वन ध्वजानी माफक शोभी रथु छ । वे मेरु पर्वत नवाणुं हजार योजन ऊंचो भने एक हजार योजन नीचे जमीनमा छ। तेना त्रणे भाग पूणे लोकमां अवकाश प्राप्त छ। तेवीज रीते. प्रभुना वतावेला ज्ञान-दर्शन-चरित्र रूपी त्रणे रत्न सुमेरुनी पेठे विशाल छे, अने त्रणे लोकना भव्योना मन-वचन-काय मां सम्पूर्ण रीतिथी समाविष्ट छ ॥१०॥
पुढे णभे चिठ्ठइ भूमिवठ्ठिए, जं सूरिया अणुपरिवयंति । से हेमवन्ने बहुनंदणे य, जंसि रइं वेदयती महिंदा ॥ ११॥
संस्कृतच्छाया स्पृष्टो नभसि तिष्ठति भूम्यवस्थितः, यं सूर्याः अनुपरिवर्तयन्ति । स हेमवर्णों वहुनन्दनश्च,
यस्मिन् रतिं वेदयन्ति महेन्द्राः ॥ ११ ॥ सं० टीका-स्पृष्टः संलग्नो नभस्याकाशेऽथवा नभो व्याप्य तिष्ठति स मेरुः, "स्पृष्टिः पृक्तावित्यमरः” । तथैव भूमि पृथिवीं चावगाय स्थितः । ऊर्ध्वाधस्तिर्यक् सस्पर्शीति भावः । यथा च यं मेहें सूर्यादयो ज्योतिष्का अंगारकादिग्रहा अप्यनुवर्तयन्ति यस्य पार्श्वतः परिम्रमन्तीत्यर्थः । हेमवर्णों वा कनकाभो निष्टप्तकाञ्चनसदृशस्तथा बहूनि चत्वारि नन्दनवनानि यस्य स बहुनन्दनवनः । भूमौ तु भद्रशालवनं ततः पञ्चयोजनशतान्यारुह्यातिकम्योल्लंघ्य मेखलायां शैल
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः।
नितम्बदेशे मध्यभाग इत्यर्थः । “मेखला खनबन्धे स्यात्काञ्ची शैलनितम्बयोरिति मेदिनीकोशः" । नन्दनवनमायाति । तथा द्विषष्टियोजनसहस्राण्यधिकान्यतिक्रम्य सौमनसवनम् । ततः षट् त्रिंशत्सहः खाण्यारुह्योल्लंघ्य शिखरे पण्डकवनमिति मेरोश्चत्वारि वनानि । यस्मिन् मेरौ महेन्द्रा त्रिदशालयात् खर्गात्समागत्य रमणीयतमशब्दादिगुणेन रति रमणक्रीडां वेदयन्त्यनुभवन्ति । अतश्चतुर्नन्दनवनाद्युपेतो विचित्रकीडास्थलसमन्वितः स मेरुः ॥ ११ ॥
अन्वयार्थ-[से ] वह सुमेरु णमे] आकाश को [पुढे] छूकर [चिठ्ठइ ] ठहरा हुआ है, तथा [भूमिवठिए] भूमिको छूकर स्थित है, [] जिसकी [ सूरिया ] सूर्य [अणुपरिवठ्यंति ] प्रदक्षिणा करते हैं, और जो [हेमवन्ने] सोनेके समान परम कान्ति युक्त है, जिसमें [बहु] बहुत अर्थात् चार [नंदणे ] नन्दनादि वन हैं [जंसी] तथा जिसमें [महिंदा ] महेन्द्र आकर [रति] सुखका [वेदयती ] अनुभव करते हैं ॥ ११ ॥ .
भावार्थ-वह सुमेरु पर्वत ऊपरके भागमें आकाशको व्याप्त करके तथा नीचे भूमिको स्पर्श करके स्थित है, इसलिए वह ऊर्ध्वलोक-अधोलोक और तिर्यक् लोकको स्पर्श करता है । ज्योतिष्क विमान उसकी प्रदक्षिणा करते हैं। उसका रग सुवर्णकी तरह पीला है। उसके ऊपर चार वन हैं; समान भूमिमें भद्रशाल वन है, उसके पाचसो योजन ऊपर नन्दन वन है, उसके वासठ हजार योजन ऊपर सौमनस वन है, उससे छत्तिस हजार योजन ऊपर पाण्डुक वन है, इस प्रकार वह अनेक क्रीडास्थलासे युक्त है, और उसमें देव तथा देवेन्द्र आकर रति-क्रीडाका अनुभव करते हैं ॥ ११ ॥
. भाषा-टीका-उस सुमेरु पर्वतने ऊर्ध्व लोक-अधोलोक और मनुष्यलोक इस प्रकार तीनों लोकोंके आकाशको छू लिया है । जिसकी तगडीकी जगह सूर्य चाद तथा प्रहगण चारों ओर परिकमा देते रहते हैं । तव वह तफे हुए सोनेकी तरह, चमचमाट करने लगता है। उसके चारों और के बहुतसे वनोंमें चार मुख्य सुन्दर वन हैं । और प्रथम समतल भूमि पर भद्रशाल वन है। उस जगहसे ५०० योजन ऊपर जानेसे मानो उसकी तगडीकी
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ८१ जगह नन्दन वन आता है। उससे ६२००० योजन ऊपर सौमनस वन है। उससे ३६००० योजन ऊपर शिखरके पास पंडकवन है। ये सुमेरुके चार सघन वन हैं। यहां पर वडे २ महेन्द्र और देव गण आकर मनोहर खेल कूद करते हैं । उसका सौन्दर्य निहारनेके लिए स्वर्गसे चल कर आते हैं । इसी भाति भगवान् भी सुवर्णके रंग जैसे सुन्दर हैं। इनके पास ज्ञान, दर्शन, चरित्र, तप तथा तत्व, पदार्थ, नय, निक्षेपादि चार सुन्दर विचार स्थल हैं, जिनमें आत्माका अनुपम आनन्द आता है । और इस क्रीडास्थली पर भव्यं जन खावलम्बी होकर सहजानन्द लूटते हैं ॥ ११॥
गुजराती अनुवाद-ते मेरु पर्वत ऊर्ध्व दिशामा आकाशने स्पर्शी रह्यो छे, एटले ऊर्ध्वलोक-अधोलोक अने. मनुष्यलोकने स्पर्शी रह्यो छे, जे मेरु पर्वतनी आसपास सूर्यप्रमुख ज्योतिषी-देवो प्रदक्षिणा करी रया छ । ते मेरुपर्वत सुवर्णना जेवी कान्तिवाळो छ। तेनी चारे बाजुए घणा वनोमा चार मुख्य सुंदर वन छे। समतल भूमिपर भद्रशाल वन छे, त्याथी ५०० योजन ऊपर जतां नन्दनवन आवे छे, त्याथी ६२००० योजन ऊंचे सौमनस वन छ। त्याथी ३६००० योजन ऊंचे शिखरनी पासे पंडकवन छे। मेरु पर्चेतना आ चार नन्दनवना मोटा इन्द्रो पण आवीने इच्छानुसार मनोहर क्रीडा करे छ। तेनुं मनोमोहक सौन्दर्य जोवाने खर्गमा थी आवे छे। ते रीते भगवान् महावीर प्रभु पण सुवर्ण समान सुदर छ। तेमनी पासे ज्ञान-दर्शन-चरित्र तथा तप तेमज तत्व-पदार्थ-नय-निक्षेपादि चार सुन्दर विचार स्थल छ । जेमा आत्माने मानन्द मावे छ । तेमज ते क्रीडा स्थल पर भव्य जनो खावलम्बी बनीने सहजानन्द लूटे छै ॥ ११॥
से पधए सहमहप्पगासे, ... ! . विरायई कंचणमठ्ठवन्ने । “. . . . . अणुत्तरे गिरिसु य पवदुग्गे, . . गिरिवरे से.जलिएव भोमे ॥ १२॥
वीर. ६
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
८२ . वीरस्तुतिः । . .
संस्कृतच्छाया . . . - - स पर्वतः शब्दमहाप्रकाशो, विराजते कञ्चनमृष्टवर्णः। . अनुत्तरो गिरिषु च पर्वदुर्गा, गिरिवरः सज्वलित इव भौमः ॥१२॥ • सं० टीका-स मेरुनामापर्वतः सुदर्शनः शोभनदर्शनः सुगिरिमन्दरो हेमाद्रिरित्यादिभिःशब्दैःपर्यायवाचकैर्महान् प्रकाशः प्रसिद्धिमानीतः । “प्रकाशोऽतिप्रसिद्धेऽपीत्यमरः" । यः, स शब्दमहाप्रकाशो विराजते शोमते, वा सुरासुरकिन्नरादिगन्धर्वगायनशब्दैमहाप्रकाशो दीप्यमानः । काञ्चनस्येव मृष्टः शुद्धो, "निर्णिक्तं शोधितं मृष्टं निश्शोध्यमनवस्करमित्यमरः" । वर्णो यस्य स काञ्चनमृष्टवर्णः । अनुत्तरः प्रधानस्तथा गिरिषु पर्वतेषु मध्ये पर्चभिर्मेखलादिभिः सन्धिभिर्वा "पर्व क्ली महे ग्रन्थौ, प्रस्तावे लक्षणान्तरे, दर्शः प्रतिपदोः सन्धाविति मेदिनी कोषः । अथवा च दंष्ट्रापर्वतैर्वा दुर्गो दुर्गमः, "दुर्गो मानिल्योः स्त्री दुर्गमे निष्विति मेदिनी" । सामान्यप्राणिनां दुरारोहो गिरिरिति भावः । स गिरिवरः पर्वतप्रधानो मणिमिरौषधिभिश्च ज्वलितो दीप्यमानो भौम इव मंगलग्रह इवाथवा मृदेश इवेति भावः । "भौमः कुजे च नरके पुंसि भूमिभवे त्रिष्विति मेदिनी" ।। १२ ।। __अन्वयार्थ-[से ] वह [पव्वए ] सुमेरु पर्वत [ सद्दमहप्पगासे ] अनेक सुशब्दोंसे गूंजता है, तथा [कंचणमठुवने] सोनेकी तरह पीले वर्णसे [विरायई ] शोभा प्राप्त है, [गिरिसु] सव पर्वतोंमें वह [अणुत्तरे] सर्वश्रेष्ठ है, [पन्वदुग्गे ] वह पर्वत मेखला आदिके कारण दुर्गम है, और [से ] वह [गिरि वरे] सवमें प्रधान सुमेरु [भोमे व] मंगल ग्रह तथा पृथ्वीकी तरह [जलिए] कान्तियुक्त है ॥ १२ ॥
भावार्थ-शब्दका स्वभाव गूंजनेकाहै, छोटे पर्वत और गुंवोंमें आवाज करनेपर उसमें प्रतिध्वनि हो उठती है और वह पहली आवाजसे भी
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ८३ अधिक गंभीर होती है, इसीप्रकार सुमेरु पर्वत देवोंका क्रीडास्थल है और वह भी उनकी प्रतिध्वनिओंसे गूंज उठता है तथा वह गूंज सबसे प्रवल है। इसी प्रकार महावीर-परमात्माकी दिव्यध्वनि सवसे प्रबल और जोरदार है, यही कारण है कि-भगवान्के सदुपदेशका प्रभाव अमिट और शीघ्र होता है । पर्वतके सुनहरी रंगके समान प्रभुका पीतवर्ण युक्त शरीर दर्शनीय और मनोहर था । जिसप्रकार सुमेरुपर चढना कठिन है उसीप्रकार भगवान्की सर्वज्ञताको जीतना भी दुष्कर है ॥ १२ ॥
भाषा-टीका-वह सुमेरु पर्वत अधिराज है, दर्शनमें सौन्दर्य्यशाली है। बुद्धिमान् अच्छी २ शब्दोपमाएँ देकर प्रख्यात कर चुके हैं। जिसपर गान्धचौका मनोमोहक गायन होता है, सोनेसे लीप पोत कर मानो अभी शुद्ध किया गया है इसीसे सव' पर्वतों में उसे प्रधानता दी गई है, उसकी उंचाई और अधिक सन्धियोंके कारण उसपर मनुष्योंको पैरोंसे चढना सांस तोडने जैसा है । अत सामान्य प्राणी उसे चढ कर पार नहीं पासकते । इसी लिए उसे प्रधानता दी गई है। उस पर मणिमाणिक्य जैसे बहुमूल्य रन और कई अलौकिक जही बूटिया मंगलग्रह की तरह चमकती हैं । इसी भाति वीर भगवान्का दर्शन अनेकान्त है, परम सुन्दर है। जिसकी अकाट्य तर्कमयता प्रसिद्ध है। जिसकी गौतम जैसे दार्शनिकोंने प्रशंसा की है । उस दर्शनका सुन्दर वर्ण अर्थात् शब्दों में निर्माण हुआ है । तथा वह सव दर्शनोंमें प्रधान है। साधारण तथा अनुभव शून्य मानवोंके लिए अगम्य और दुरारोह है। जिनकी २८ लब्धिरूप औषधिओंकी चमक विलक्षण है । जो धर्मकी प्रभावनारूप आरोग्यता प्रदानकरनेके अर्थ काममें लाई जाती हैं । इसीसे दुरामहरूपी रोग शान्त होते है ॥ १२॥ . गुजराती अनुवाद-वळी ते मेरु पर्वत मंदर १, मेरु २, मनोरम ३, सुदर्शन ४, स्वयंप्रभ ५, गिरिराज ६, रनोचय ७, तिलकोपम ८, लोक'मध्य ९, लोकनालि १०, रान ११, सूर्यावर्त १२, सूर्यवरण १३, उत्तम १४, दिशादि १५ और अवतंस १६, ए सोळ नामे करी महा प्रकाश (प्रसिद्ध) वान् थई शोभे छ । जेना पर गान्धर्वोना मनोमोहक गायनो थाय छे । सुवर्णनी पेठे शुद्ध वर्णवाळो सर्व पर्वतोमा प्रधान छ । तेनी उंचाई अने अधिक संधिोने लीधे मनुष्योने माटे तेना पर चढवू पण अशक्य छ । वळी ते गिरिराज मणि
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
८४
वीरस्तुतिः ।
अने औषधिओए करी देदीप्यमान छे, तेज रीते वीर भगवान्नुं अनेकान्त दर्शन परम सुंदर अने मनोहर छे । जेनी अकाव्य 'तर्कमयता प्रसिद्ध छे। जेनी गौतम जेवा दार्शनिकोए पण प्रशंसा करेली छे । ते दर्शननुं सुन्दर वर्ण अर्थात् शब्दमां निर्माण थएलुं छे । तथा ते सर्व दर्शनोमा प्रधान अने सर्वोत्तम छे । साधारण तथा अनुभव शून्य मनुष्योने माटे अगम्य तथा अति दुरारोह छे । जेनी २८ लब्धिरूप औषधिओनी चमक सहुथी विलक्षण छे । के जे धर्मनी प्रभावना करवामां उपयोगमां लाववामां आवे छे। तेनाभी दुराग्रह रोग जडमुळधी नष्ट थईने शान्त थई जाय छे ॥ १२ ॥
मूल
महीह मज्झमि ठिते णगिंदे, पन्नायते सूरियसुद्धलेस्से; एवं सिरीए उ स भूरिवण्णे, मणोरमे जोय अचिमाली ॥ १३ ॥
संस्कृतच्छाया
मह्यां मध्ये स्थितो नगेन्द्रः, प्रशायते सूर्य्यवच्छुद्धलेश्यः । एवं श्रिया तु स भूरिवर्णः, मनोरमो द्योतयत्यर्चिमाली ॥१३॥
सं० टीका - मां मध्यदेशेऽन्तर्भागे यो जम्बूद्वीपस्तस्यापि बहुमध्यप्रदेशे स नगेन्द्रः स्थितः । पुनश्च सौमनस, विद्युत्प्रभ, गन्धमादन, माल्यवंतदंष्ट्रापर्व्वतचतुष्टयोपशोभितः समभूभागे दशसहस्रयोजन - विस्तीर्णः, शिरसि सहस्रमेकमधस्तादपि दशसहस्राणि नवति योजनानि योजनैकदेशभागैर्दशभिर्भागैरधिकानि विस्तीर्णश्चत्वारिंशद्योजनोच्छ्रितचूडोपशोभितो नगेन्द्रः पर्वतप्रधानो मेरुः । प्रकर्षवत्तया जगति सूर्य'वच्छुद्धलेश्यो निर्मलकान्तिः सूर्यसमप्रभ इति । एवमनन्तरोक्तया श्रिया तु शब्दाद्विशिष्टतरया कान्त्या स मेरुर्भूरिवर्णोऽनेकवर्णोऽनेकरंगाद्युपेतः
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ८५ "वर्णों द्विजादौ शुक्लादावित्यमरः वीरपक्षे भूरि-भूतं बहुलं "प्रचुरं प्रभूतं प्राज्यं मदनं बहुलं बहु, पुरुहूः पुरुभूयिष्टं, स्फारं भूयश्च भूरि चेत्यमरः" । वर्णः परिस्तोमो यस्य स भूरिवर्णः, दीर्घसिंहासनस्य प्रवेणीति । "प्रवेण्यास्तरणं वर्णः परिस्तोमः कुथो द्वयोरित्यमरः" । अथवा मूरिः वर्ण काञ्चनं तस्येव वर्णो (कान्तिः) यस्य स तथा। "वर्णेऽपि भूरीत्यमरः" । अथवा भूरिर्बहुलो, वर्णःस्तुतिर्यस्य स तथा । "स्तुतिर्वर्णं तु वाऽक्षर इत्यमरः" । "वर्णः स्तुतौ ना इति मेदिनी"। अथ किं भूतः स मेरुमनोरमश्वारुःशोमनः, "सुन्दरं रुचिरं चारु, सुषमं साधुशोभनम् ; कान्तं मनोरममित्यमरः" । एवमेव वीरोऽप्येवं विधो जगति मनोरमः । पुनश्च अर्चिःकिरणस्तस्य माला विद्यते यस्य सोऽर्चिमाली सूर्य इव द्योतयति दिश इति शेषः । “दीधितिर्भानुरुसोंऽशुर्गभस्तिः किरणः करः । पादो रुचिर्मरीचिर्मा तेजोचिरिति धनंजयः" ॥ १३ ॥
अन्वयार्थ-[महीइ] पृथ्वीके मज्झम्मि] बीचमें [ठिये] स्थित [णगिंदे] पर्वतोमें प्रधान सुमेरु [पन्नायते ] लोकमें उत्कृष्ट रूपसे जाना जाता है, तथा [ सूरियसुद्धलेस्से] सूर्यके सदृश शुद्ध तेजवाला [एवं ] इसी भांतिकी [सिरीए] लक्ष्मीसे [उ] अधिकाधिक [ भूरिवने] विचित्र रनों से शोभित रहनेके कारण नानावर्ण युक्त और [मणोरमे ] मनको मोहित करने वाले [अधिमाली ] सूर्यकी तरह [ जोयइ ] दशों दिशाओंको प्रकाशित करता है ॥ १३ ॥
भावार्थ-रसप्रभा पृथ्वीके मध्यभागमें जम्बू द्वीप है, और इसके बीचमें सब पर्वतोंमें प्रधान सुमेरु पर्वत है, यद्यपि सुमेरु पर्वत दोनों धातृ खंड
और दोनों पुष्करार्द्ध द्वीपमें भी हैं, किन्तु उनकी उंचाई ८५ हजार योजन ही है, और जम्बूद्वीपके मध्यभागस्थ सुमेरु एक लाख योजन ऊंचा है, अतः यह सवमें प्रधान गिनाजाता है। इसी प्रकार ऋषि-मुनि और महात्माओंमें महावीर प्रधान थे, सुमेरु पर सूर्यकी कान्ति पड़ने पर जैसे वह चमकने लगता है वैसे ही
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
८६ : , वीरस्तुतिः। .. भगवान्का शरीर भी प्रभाशाली था, वे अज्ञानान्धकारके नाशक थे, भगवान्का शरीर खयं प्रकाशित था, तथा औरोंको ज्ञान का प्रकाश भी देता था ॥ १३ ॥ — भाषा-टीका-पृथ्वीके विचले प्रदेशमें जम्बूद्वीपके मध्यस्थलमें यह मेरु पर्वत समस्त पहाडोंके राजाकी तरह स्थित है। सौमनस, विद्युत्प्रभ, गन्धसादन, माल्यवन्त इन चार दाढापतोंसे वह बडा मनोहर लंगता है, वह पृथ्वीके सम भाग में दशहजार योजन विस्तीर्ण है, ग्यारह २ हजार योजन पर एक २ हजार योजन घट कर शिखर पर एक हजार योजन रह जाता है। वह जगत्में सूर्यकी तरह शुद्ध कान्ति और निर्मल आकृति युक्त है। और जिसमे अनेक वहु मूल्य धातु और उत्तमरत्न पाए जाते हैं।
वीर पक्षमें-सोनेकी तरह जिनके शरीरकी चमक दमक है | जिनके गुण चान्दकी तरह स्वच्छ हैं। जिनकी स्तुतिएँ महती हैं। जिन्हें अपुनरावृत्ति रूप अक्षर-मोक्ष प्राप्त है। जिनका सत्संग अनन्त सुख दाता है। सुमेरुकी तरह मनोरम हैं, जो सूर्यकी किरणोंकी तरह तेजखी हैं ॥ १३ ॥ . गुजराती अनुवाद-पृथ्वीना मध्य भागमां सर्व पर्वतोनो इन्द्र मेरु पर्वत सूर्यनी पेठे शुद्ध कान्ति भने निर्मल आकृतिवाळो छ । सौमनस, विद्युप्रम, गन्धमादन, माल्यवान, ए चार दाढाओथी पर्वत वहुँ सुन्दर देखाय छ । ते पृथ्वीना समभागमा १०००० योजन पहोळो छ । अग्यार अग्यार हजार योजन पर एक एक हजार योजन घटतां शिखर पर एक हजार योजन पहोळो छ । तेमा अनेक वहुमूल्य धातुओ एवं रत्नो मळी आवे छे । वीर पक्षे. सुवर्णसमान जेना शरीरनी शोभा छे, जेना गुणो चन्द्रमानी पेठे स्वच्छ छ । जेणे अपुनरावृत्तिरूप अक्षर-मोक्ष प्राप्त करेल छ, जेमनो सत्सग अनन्त सुख दाता छ । सुमेरु नी पेठे जे मनोहर छे, ने सूर्यना किरण समान तेजखी छे ॥ १३ ॥
सुदंसणस्सेव जसो गिरिस्स; पवुच्चई महतो पव्वयस्स। एतोवमे समणे नायपुत्ते, जाईजसोदसणनाणसीले ॥१४॥
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
- संस्कृतच्छाया सुदर्शनस्येव यशो गिरेः, प्रोच्यते महतः पर्वतस्य । एतदुपमः श्रमणो शातपुत्रो, जातियशोदर्शनशानशीलः ॥१४॥
सं० टीका-भगवतो वीरस्यैतद्यशः कीर्तनं महतः पर्वतस्य सुदर्शनस्य मेरोगिरेरिव प्रोच्यते, महतः पर्वतस्यैतदुपम एतत्तुल्यः । साम्प्रतमेतदेव भगवति दान्तिके योज्यते । एषः अनन्तरोक्तमेरुगिरिरित्यर्थः, उपमा उपमानं सादृश्यप्रतियोगी यस्य स एतदुपमः। कः । श्राम्यति-तपस्यतीति श्रमणः। तपोनिष्टप्तदेहो ज्ञातपुत्रः श्रीमहावीरप्रभुर्जात्या="जातिर्जातं च सामान्यमित्यमरः ।" यशसा= कीर्त्या "यशः कीर्तिः समज्ञाचेत्यमरः ।" सकलदर्शनज्ञानचरित्रवतांमध्ये श्रेष्ठः प्रधानः । जात्यादीनां कृतद्वन्द्वानामतिशायने 'अर्श आदित्वादच्' प्रत्ययविधानेनाक्षरघटना विधेयेति भावः ॥ १४ ॥
अन्वयार्थ-[महतो] महान् [पव्वयस्स] पर्वत [ सुदंसहस्सेव] सुदर्शन [गिरिस्स ] मेरु पर्वतका [जसो] यश. कीर्ति जैसे प्रतिपादित है उसीप्रकार [पवुच्चइ ] भगवान्की कीर्ति करते हैं [एतोवमे] पूर्वकथित उपमासे' अलंकृत [समणे] श्रमण [नायपुत्ते] ज्ञातपुत्र-महावीर भगवान् [जाइजसोदसणनाणसीले ] जाति, यश, दर्शन, ज्ञान और शीलमें सर्वश्रेष्ठ थे ॥ १४ ॥
भावार्थ-भगवान्की एक देशीय उपमा तो सुमेरु पर्वतसे दीगई, और इसी प्रसगको लेकर सुमेरुका यशोगायन कियाहै, और अब फिर उपमेयकाभगवान् महावीरका वर्णन करते हैं। वे ज्ञात वंशके क्षत्रिय कुलमें उत्पन्न भगवान् समस्त जातिवालोंमें और अखिल यशखियोंमें, समस्त ज्ञानियोंमें तथा दर्शनवालोंमें और सब चरित्रनिष्ठोंमें श्रेष्ठ थे ॥ १४ ॥
भाषा-टीका-भगवान् वीरका यश सुमेरुकी सदृश महान् था, यह उपमा उनके ही ऊपर भलि भाति घटती है। वे श्रमण थे, तपसे शरीरको सोनेकी तरह तपा डाला था, ज्ञात वंशके क्षत्रिय पुत्र थे। जिनकी जाति-यश. कीर्तिसमस्त ज्ञान, दर्शन और चरित्र समन्वित है। श्रेष्ठतर तथा प्रधानतर है ॥१४॥
लाटीका भगवाना है। वे श्रमण थकी जाति-यश. काही
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
८८
... वीरस्तुतिः।
गुजराती अनुवाद भगवान् ज्ञातनन्दन वीरप्रभुनो अनुपम यश सुमेरु पर्वत समान 'महान् छ । ए पूर्वोक्त उपमाए श्रमण भगवान् महावीरदेव जातिए-यशे-दर्शने-ज्ञाने-अने आचारे सर्वोत्तम छ।
मूल . गिरिवरे वा निसहाययाणं.' - ' रुयए व सेठे वलयायताणं ।।.. - तओवमे से जगभूइपन्ने, "
मुणीण मज्झे तमुदाहु पण्णे ॥ १५ ॥
संस्कृतच्छाया गिरिवरो वा निषध आयतानां, रुचको वा श्रेष्ठो वलयायतानाम्। तदुपमः स जगद्भुतिप्रज्ञः, मुनीनां मध्ये तमुदाहुः प्रशाः ॥१५॥
सं० टीका-दृष्टान्तद्वारेण पुनरप्याह, निषधः तन्नामा पर्वतो यथा गिरिवराणामायतानां दीर्घाणां, "दीर्घमायतमित्यमरः । मध्ये, जम्बूद्वीपेऽन्येषु वा द्वीपेष्वपेक्षया दैर्येण श्रेष्ठ उत्तमः । पुनश्च वल्यायतानां कटकायतानां मध्ये "आवापकः पारिहार्यः कटको वलयोsस्त्रियाम्" इत्यमरः । रुचकः पर्वतः श्रेष्ठोऽन्येभ्यो वलयाकारत्वेनेति भावः। हि रुचको द्वीपान्तर्वर्तिमानुषोत्तरगिरिरिव वृत्तायतो वर्तुलायतः, "वर्तुलं निस्तलं वृत्तमित्यमरः" ।, असंख्येययोजनपरिक्षेपेण परिधिनेति । तथा स वीरोऽपि तदुपमः । यथा वायत्तवृत्तताभ्यां प्रधानधेति। तथैव भगवानपि जगति संसारे भूतिप्रज्ञः प्रभूतज्ञातपरिज्ञया श्रेष्ठ इत्यर्थः । परमुनीनामपेक्षया प्रकर्षेण जानातीति प्रज्ञः सर्वज्ञश्चेति । तदेवं खरूपविद-आहुः, उदाहृतवन्तः कथितवन्तः ॥ १५ ॥
, अन्वयार्थ-[वा] जैसे' [निसह] निषध पर्वत [आययाणं ] लम्बे पर्वतोंमें [गिरिवरे ] श्रेष्ठ पर्वत है, तथा [व], जैसे [रुयए] रुचक पर्वत ६ वलयाययाणं ] गोलाकार पर्वतोंमें [ सेठे] श्रेष्ट है, [तभोवमे ] इनकी तरह
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
[से ] भगवान् महावीर भी [जगभूईपन्ने] संसारमें प्रभूतप्रज्ञा-अनन्त ज्ञानयुक्त हैं । अत: [पने] प्रकृष्ठ ज्ञानवालोंने [तं] उन्हें मुणीण] सव मुनिराजोंके [मझे] बीचमें [उदाहु ] उत्कृष्ट कहा है ॥ १५ ॥
भावार्थ- हरिवर्ष क्षेत्रके पर्वतका नाम निषध पर्वत है, वह लम्बाई में सबसे बडा है, तथा रुचक नामका पर्वत गोलाईमें अद्वितीय है जिसके समान अन्य दूसरा नहीं है। उसी प्रकार भगवान् महावीर भी ज्ञानमें अद्वितीय थे उनके समान पूर्णज्ञानी उस समय कोई और नहीं था, अत एव बुद्धिमान् अन्य दार्शनिकोंने उनको उत्कृष्ट कहा है ॥ १५॥
भाषा-टीका-निषध पर्वत सव लम्बे पहाडोंमें श्रेष्ठ है, चूडीकी तरह गोल पहाडमें रुचक पर्वत सर्वाधिक सुन्दर है, इसी तरह वीरप्रभु भी जगत्में भूतिप्रज्ञ-अध्यात्म विद्या में अद्वितीय है। और वह अन्य मुनिओंकी अपेक्षासे है। उनके स्वरूपको जाननेवालोंने यथार्थतया कहा है कि वह सर्वज्ञ हैं ॥१५॥
गुजराती अनुवाद-लावा पर्वतोमा निषध नामक पर्वत मोटो छ। गोलाकार पर्वतोमा रुचक पर्वत श्रेष्ठ छे। ते उपमाए श्रीमहावीर शासनदेव जगत्मा प्रज्ञाए करी श्रेष्ठ कया छ, अध्यात्म विद्यामा अद्वितीय अने सर्वमान्य छ । तथा सर्व मुनिओने विषे प्रज्ञावन्त कह्या छे । तेमना खरूपने जाणवावाळाओए यथार्थज कयुं छे के तेओ सर्वज्ञ छे ॥ १५॥
अणुत्तरं धम्ममुईरइत्ता, अणुत्तरं ज्झाणवरं झियाई । सुसुक्कसुकं अपगंडसुक्कं, संखिंदुएगंतवदातसुकं ॥ १६ ॥
. संस्कृतच्छाया ' अनुत्तरं धर्ममुदीर्य, अनुत्तरं ध्यानवरं ध्यायति । सुशुक्लशुक्लमपगण्डशुक्लं, शंखेन्द्वेकान्तावदातशुक्लम् ॥ १६ ॥
सं० टीका-अनुत्तरं प्रधानमुत्कृष्टं धर्ममुत्प्रावल्येनेरयित्वा= कथयित्वा प्रकाश्य, च, "प्रोक्ते प्रेरिते, क्षिप्त इति शब्दार्थचिन्ता
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
९०
. . . . , वीरस्तुतिः। . . ..
मणिः ।" यश्चानुत्तरमत्यन्तमुत्तमं ध्यानवरं श्रेष्ठध्यानं च ध्यायति, उत्पन्नकेवलज्ञानो भगवान् मनोवाक्काययोगनिरोधकाले सूक्ष्म काययोग निरुन्धन् शुक्लध्यानस्य तृतीयं भेदं सूक्ष्मक्रियामप्रतिपाताख्यं तथा च चतुर्थ निरुद्धयोग शुक्लध्यानमेदं व्युपरतक्रियमनिवृत्ताख्यं च ध्यायत्यतस्तदेव दर्शयति, सुष्टु प्रशस्तं शुक्लवच्छुक्लं ध्यानं विशुद्धलेश्यं शुक्ललेश्य* तथाऽपंगतं गंडमपद्रव्यं दोषजनकद्रव्यं यस्य तदपगतगंडं, यदि - * लिम्पत्यात्मीकरोत्यात्मा, पुण्यपापे यया खयम् । सा लेश्येत्युच्यते सद्भिर्द्विविधा द्रव्यभावत. ॥ प्रवृत्तियौगिकी लेश्या, कषायोदयरजिता । भावतो द्रव्यतो देहच्छवि: घोढोभयी मता॥ कृष्णा नीलाऽथ कापोती, पीता पद्मा सिता स्मृता। लेश्या षड्मिः सदा तामिर्गृह्यते कर्म जन्ममि ॥ योगाविरतिमिथ्यात्वकषायजनितोऽङ्गिनाम् । संस्कारो भावलेश्यास्ति-कल्माषास्रवकारणम् । कापोती कथिता तीत्रो नीला तीव्रतरो जिनैः, कृष्णा तीव्रतमो लेश्या, परिणाम शरीरिणाम् । पीता निवेदिता मन्द पद्मा मन्दतरो वुधै । शुक्ला मन्दतमस्खासा, वृद्धि षट्स्थानयायिनी ॥ निर्मलस्कन्धयो
छेत्तुं भावा शाखोपशाखयो । उम्चये पतितादाने भावलेश्या फलार्थिनाम् ॥ षट् षट् चतुर्पु विज्ञेयास्तिस्रस्तिस्रः शुभास्त्रिषु; शुक्ला गुणेघु षट्वेका लेश्या निलेश्यमन्तिमम् ॥ रागद्वेषग्रहा विष्टो, दुर्ग्रहो दुष्टमानस । क्रोधमानादिमिस्तीत्रैर्ग्रस्तोऽनन्तानुवन्धिभिः ॥ निर्दयो निरनुक्रोगो, मद्यमासादिलम्पट । सर्वथा कदनासक्तः कृष्णलेश्यान्वितो जनः । कोपी मानी मायी लोमी, रागी द्वेपी मोही शोकी, हिंस्र क्रूरश्चण्डश्चोरो, मूर्ख. स्तब्ध स्पर्धाकारी । निद्रालु कामुको मन्द , कृत्या. कृत्याविचारक ।महारम्भो महामूझे नीललेश्यो निगद्यते ॥ शोकभीर्मत्सरासूयापरनिन्दापरायण , प्रशंसति सदात्मानं स्तूयमान प्रहृष्यति। वृद्धिहानी न जानाति, न मूढः स्वपरान्तरम् , अहंकारग्रहग्रस्त , समस्ता कुरुते क्रियाम् । श्लाधितो नितरां दत्ते, रणे मर्तुमपीहते । परकीययशोध्वंसी, युक्त कापोतलेश्यया ॥ समदृष्टिरविद्वेषो, हिताहितविवेचक , वदान्य सदयो दक्ष , पीतलेश्यो महामना । शुचिर्दानरतो भद्रो, विनीतात्मा प्रियंवद , साधुपूजोद्यत साधु पालेश्यो नयक्रिय । निर्णिदानोऽनहंकार , पक्षपातोज्झितोऽशठः, रागद्वेषपराचीन , शुक्ललेश्यः स्थिराशयः । चेजः पद्मा तथा शुक्ला,लेझ्यास्तिन, प्रशस्तिका ।सवेगमुत्तमं प्राप्त क्रमेण प्रतिपद्यते॥
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ९१ वा *गंडमुदकफेनं बुद्बुदं तद्वन्निर्मलं चेति, निर्दोषार्जुनसुवर्णक्च्छुक्लम् , तथा च शंखेन्दुवदेकान्तावदातं शुभं शुक्लं शुक्लध्यानोत्तर मेदद्वयं ध्यायतीति भावः । "गण्डः कपोले, पिटके, दोषजनके, जलबुद्बुदे, इति शब्दार्थचिन्तामणिः" ॥१६॥ ' अन्वयार्थ-[अणुत्तरं] सबसे उत्तम [ धम्म ] धर्मको [उईरइत्ता कहकर भगवान् [अणुत्तर] प्रधान [ झाणवर ] व्युपरत-क्रिया-निवृत्ति नामक ध्यानको [ झियाइ] चिन्तवन करते हैं, अर्थात् [सुसुक्कसुकं ] उत्तम श्वेतवर्ण तरह शुक्लनामक श्रेष्ठ और पवित्र ध्यान जोकि-[अपगंडसुकं ] अर्जुन संज्ञक सुवर्णकी तरह अथवा जलके फेनकी तरह या [ सखिंदु एगंतऽवदातसुकं ] शंख और चन्द्रमाकी तरह एकान्त सफेद है उसका भगवान्ने ध्यान किया ॥ १६ ॥
भावार्थ-भगवान् महावीरने ऐसे धर्मका पूर्ण उपदेश किया है, जोकि समस्त धर्मोमें प्रधान है तथा शुक्लध्यानको धारण किया, वह शुक्नध्यान अर्जुन नामक सुवर्णके समान और जलके फेनकी तरह तथा शंखकी तरह और चन्द्रमाके समान खच्छ है । भगवान् सूक्ष्मकाययोगका निरोध करते हुए शुक्लध्यानके तीसरा मेद-सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक ध्यानका विषय चिन्तवन करते हैं, तथा फिर जवं योगका निरोध करते हैं तब व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्लध्यानके विषयको धारण करते हैं ॥ १६ ॥
अत्रोदाहरणं यथा__ वैरिग्रामविघाताय, केपि षट्पुरुषा पुरा । चलिता. समुदायेन, तेष्वेक इदमब्रवीत् ॥ १॥ सवं हन्तव्यमेवात्र, द्विपदं वा चतुष्पदम् ॥ अन्य. प्राह मनुष्याणां वधोऽस्तु पशुमि किमु -॥ २ ॥ तृतीयः प्राह हन्तव्या नरा एव नहि स्त्रियः॥ तूर्येणाभाणि हन्यता, पुरुषेष्वयि सायुधा ॥ ३ ॥ पञ्चमोऽप्याह ये नन्ति ते वध्या सायुधेवपि, षष्ठस्त्वाह विना शत्रून्, घात कार्यो न कस्यचित् ॥४॥ इति मिनं मनस्तषामभूल्लेश्याविशेषतः । ता कृष्णनीलकापोत, तेज. पद्मसिताभिधाः ॥ ५॥ तदेव तारतम्येन, विशुद्धपरिणामतः । येन सर्वे रिपुभ्योऽन्ये, रक्षिताः स हि सत्तम ॥६॥
* गंडो फोटे कपोलमि" इत्यमिधानप्पदीपिका ।
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः।
'.
. भाषा-टीका-जिसमें रोग, द्वेषका त्याग हो और ज्ञान पूर्वक त्याग, बैराग्य, संयम, स्वामिमान, सहानुभूति आदि गुण पाए जायें तथा मानव जीवनको उन्नत वनानेकेलिए और संसार में उत्कृष्ट धर्मको प्रकट करनेके लिए प्रभुने उपदेश किया, जो कि-अमेद रूपमें था, और वह धर्म प्राणी मात्रके लिए कहा था। इसकी खयमेव सिद्धिकेलिए उत्कृष्ट ध्यानका आश्रय लिया; उस ध्यानके प्रवल प्रतापसे उस पावन पुरुषको फल स्वरूप केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ। इसके अनन्तर मी मन, क्वन, कायके योगोंका निरोधन करनेके कालमें सूक्ष्मकाययोगको रोककर शुक्रध्यानके तीसरे पदको प्राप्त करना आरम्भ किया; जिस स्थितिमें मन और चनके व्यापारको रोक दिया जाता है तथा काययोगका भी आधा भाग रुक जाता है। यह शुक्लध्यानका तीसरा चरण तेरहवें गुणस्थानपर. वर्तमान सूक्ष्म प्रक्रिया रूप होजाता है। . और जिस स्थितिमें मन, वचन, कायकी अप्रतिपाति रूप निवृत्ति होती है वह शुक्ल यानका चौथा पाद है । अर्थात् कर्मरहित केवलज्ञानरूपी सूर्यसे पदार्थोंका प्रकाश करनेवाले सर्वज्ञ भगवान् जव अन्तरमुहूर्त प्रमाण आयु बाकी रह जाता है तव सूक्ष्मकिया अप्रतिपाति नामक शुक्लध्यानके योग्य वन जाते हैं, उस समयकी चेष्टा अचिन्त्य होती है, बादरकाययोगमें स्थिति करके वादरवचनयोग और वादरमनोयोगको वे सूक्ष्मतम करते हैं, पुनः भगवान् काय. योगके अतिरिक्त वचनयोग मनोयोगकी स्थिति करके वादरकाययोगसूक्ष्म करते हैं, तत्पश्चात् सूक्ष्मकाययोगमें स्थिति करके क्षणमात्रमें उसी समय वचनयोय
और मनोयोग इन दोनोंका सम्यक् प्रकारसे निग्रह करते हैं, तब यह सूक्ष्म क्रिया ध्यानको साक्षात् ध्यानके करने योग्य बना लेती हैं, और वे वहां एक सूक्ष्म काययोगमें स्थित होकर उसका ध्यान करते हैं । इस तरह प्रभुका यह सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति ध्यान है।
और अयोग गुणस्थानके उपान्त्य अर्थात् अंत समयके प्रथम समयमें देवाधिदेवके मुक्तिरूपी लक्ष्मीकी प्रतिबन्धक कर्मोकी प्रकृतिएँ शीघ्रमेव नष्ट होजाती हैं। भगवान् अयोगी परमेष्ठीको उसी अयोगगुणस्थानके उपान्त्य समयमे साक्षात् रूम और निर्मल “समुच्छिन्न क्रिया" नामक चौथा शुक्ल ध्यान प्रकट हो जाता है।
भगवान्का यह प्रशस्त और शुक्लसे भी अधिक शुक्लध्यान हैं। लेश्याकी दृष्टिसे महान् शुक्ललेश्य हैं। "लेझ्या आत्मामें पुण्य पापको लिप्त करके जब अपने
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ९३ जैसा बनालेती है अत. उसे लेश्या कहते हैं," वह दो तरहकी है। प्रवृत्ति और यौगिकी ये दो भेद है । प्रवृत्ति कषायके रंगमें रग लेती है । भावसे असत् परिणति या परपरिणति रूपा है। योग, अविरति, मिथ्यात्व, कषाय, जन्म, कर्म संस्कारोंसे भावलेश्या होती है । जोकि पाप और आस्रवका कारण हैं।" ___ कापोती तीव्र भाव है, नीला तीव्रतर और कृष्णा तीव्रतम भाव है, यह अशुद्ध विचारोंका क्रम है। पीता उस पापकी मन्दताका नाम है, पद्मा मन्दतर है, शुक्ला मन्दतमको कहते हैं; अशुभ भावलेल्या निर्मलताका नाश करती है, शुभभावलेश्या कर्म कालिमाको प्रध्वंस कर देती है। अन्तिम लेश्या सहजानन्द निलेश्य पद देनेमें निमित्त भूत है।
कृष्णलेश्या. आत्मा इस दुर्भावके फंदमें पड कर राग, द्वेषके ग्रहसे प्रसा जाता है, परपरिणति
और जड पूजाका दुराग्रह इसीसे आता है, मन दुष्ट और म्लान रहता है, अनन्तानु वन्धीके तीव्र क्रोध, मान, माया, लोभ कषायसे ग्रसित होता है, सदैव भावोम निर्दयता बनी रहती है निकल नहीं जाती, यह पापका समाचरण करके उसका कभी पछतावा नहीं करता, यह मांस मदिराका लम्पट होता है, कुत्सित कर्ममें आसकि बनी रहती है। इन लक्षणोंसे समन्वित मनुष्य कृष्णलेश्यायुक्त समझना चाहिए। नीललेश्या
जिसमें क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, शोक हो। नृशंसता, क्रूरता, हिंसकता रहती हो, चाण्डाल वृत्ति हो; चोर, मूर्ख, स्तब्ध, औरोंका तिरस्कार करता हो, नीन्दकी अधिकता, कामुकता, मन्दबुद्धि, जडता तथा सत्असत्में अविवेकी हो, महा आरम्भ, महामूर्छा-मोह हो तो समझो कि इसमें नीललेश्या है। कापोतीलेश्या
शोक, भय, ईर्षा, मत्सरभाव, औरोंकी निन्दा, अपनी प्रशंसा करना, कोई अपनी स्तुति करे तो प्रसन्न होना, हानिलामको न जानना ख और परमें विपर्यय विवेचना हो, अहंकार-ग्रह ग्रस्त हो; अच्छी, बुरी सब प्रकारकी क्रियाएँ कर डालता हो, अपनी प्रशंसा सुनकर अन्यको सर्चख तक अर्पण कर डालता हो, लडाईमें मरनेकी इच्छा रखता हो, अन्यकी यशः कीर्तिका नाश कर डालता हो, इन लक्षणोंसे कापोतीलेश्या समझनी चाहिए।
प्रकारकी क्रिया
इच्छा रखता हो अन्यको सर्वस
हो, इन ल
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
९४
वीरस्ततिः।
'
तेजोलेश्या
यह पुरुष समदृष्टि होता है, अधिकमात्रामें द्वेष नहीं रखता, औरोंके कल्याण और अहितको सोचता हैं, अपने युद्धि वलसे युक्त और अयुक्तका ज्ञान कर लेता है, किसी अन्यकी शोचनीय दशा पर उसे दया आजाती है, चातुर्य्यता पूर्ण और अनिन्द्य व्यवहार है, ये पीतलेश्याके लक्षण हैं। यमलेश्या
कर्मकी निर्जरा करके पवित्र होनेकी प्रबल इच्छा हो, सुपात्रोंमें सात्विक दान वितरण करके सहजानन्द लूटता हो, जिसका अन्तर और वाह्य अत्यन्त मृदु और सरल हो, आत्मामें सदैव विनय और नम्रता रहती हो, शत्रुओंका प्रेमसे आदर करता हो, आत्म ज्ञानको उदयमें लाना ही जिसका ध्येयहो, सच्चरित्र पालक साधु हो तो समझो कि इसमे. नीति युक्त क्रिया है, यह पद्मलेश्याका लक्षण है। शुक्ललेश्या
अमिमानका लेश तक न हो, अपने चरित्रका फल मागनेकी अमिलाषासे निदान न करता हो, पक्षपातका अत्यन्त अभाव हो, सम्यग्ज्ञानकी पूर्णता हो, रामद्वेषका अत्यन्ताभाव हो, समाधि और अध्यात्मिकतामें स्थायी भाव हो, आस्तिक्यता हो, ये लक्षण शुक्ललेश्याके हैं,।
तेजोलेश्या, पद्मा और शुक्ला ये तीन प्रशस्त लेश्या हैं, क्रमसे' सवेगको उत्तम रीतिसे वढानेमें सहायिका हैं, . इन्हें उदाहरणसे समझाते हैं,
चोरोंका एक समुदाय किसी ग्रामको लूट कर भाग गया, तव उस वस्तीके लोकभी उनसे बदला लेनेकी इच्छासे अपने समुदायको संगठित बनाकर चले जा रहे थे उनमें छ. आदमी अलग २ छ. प्रकृतिके थे। रस्तेमें चलते २ पहले ने यह कहा कि- - - .. [१] हम सब वहां जाकर सारे ग्रामके जीवोंको मार देंगे, उनकी पली हुई चिडिया तकको भी न छोड़ेंगे। . [२] दूसरेने कहा हम उनके पशु पक्षियोंको कुछ न कहेंगे।
[३] उनकी स्त्रियोंको कुछभी कष्ट न देंगे। क्योंकि औरोंकी वहु बेटिएँ अपने जैसी ही होती हैं।
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ९५ - [४] पुरुषों में भी उनको मारना चाहिए जिनके हाथोंमें शस्त्रहों, निश्शस्त्र शत्रुका मारना नीतिविरुद्ध है। । [५] उसी शस्त्र-धारीको मारा जायगा जो हम पर आक्रमण करेगा, - [६] शत्रुको छोडकर भूलकर भी किसी निरपराधके ऊपर हाथ न डाला जाय।
इस प्रकार मिन २ विचार मिन्न २ लेश्याओंके द्वारा होते हैं, अनुक्रमसेपवित्र विचारों द्वारा जो कर्मरूपी शत्रुके अतिरिक्त अन्य सबकी रक्षाकरता हो. वही नरपुंगव सबमें प्रधान और उत्तम है। __ इसी प्रकार भगवान् वीर प्रभुका मी शुक्ललेश्या युक्त ध्यान है, जिसमें निर्दोष
आत्म द्रव्य अर्थात् आत्माका अन्तरग भाव खच्छ है। जिनका पवित्रध्यान चन्द्रमा और शंखकी तरह उज्वलवर्ण है, इस प्रकारके शुक्लध्यानका उपदेश संसारकी आत्माओंके हितार्थ प्रभुने खयं किया है ॥ १६ ॥
गुजराती अनुवाद-जेमा राग द्वेषनो त्याग होय, एवा ज्ञानपूर्वक त्याग, वैराग्य, सयम, खामिमान, सहानुभूति विगेरे गुणो होय, एवो धर्म मानव जीवनने उन्नत बनाववा माटे ससारमा सर्वोत्कृष्ट गणाय छे ते धर्मने प्रगट करवाने माटे प्रभुए उपदेश आप्यो के जे अमेद रूपे हतो। वळी ते धर्म प्राणिमात्रने माटे कहेलो हतो। तेनी सिद्धिने माटे तेओए उत्कृष्ट ध्याननो आश्रय लीधो । तेना फल खरूपे तेमने केवलज्ञान प्राप्त थयुं । ते पछी पण मन, वचन, कायना योगोर्नु निरुधन करवाना समये सूक्ष्म काय योगने रोकीने शुक्लध्याननोत्रीजो पायो प्राप्त करवानो आरम्भ कर्यो, जे स्थितिमा मन-वचनना व्यापारोने रोकी देवामा आवेछ, तथा काय योगनो पण अ| भाग रोकाई जाय छ । आ शुक्लध्याननो त्रीजो पायो वेरमे गुणस्थाने वर्तता जीवोने होय छे । अने जे स्थितिमा मन वचन कायनी अप्रतिपातिरूप निवृत्तिथई जाय छे ते शुक्लध्याननो चोथो पायो छ ।
कर्मरहित केवलज्ञानरूपी सूर्यथी पदार्थोनो प्रकाश करवावाला सर्वज्ञ भगवान्नु ज्यारे अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आयुष्य बाकी रहीं जाय छे, त्यारे सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति नामे शुक्न ध्यानने तेओ योग्य बनी जाय छे ते समयनी स्थिति अचिन्य होय छे । बादरकाय योगमा स्थिति करीने वादर वचनयोग अने वादर मनोयोगने ते सूक्ष्मतम करे छ 1 वळी भगवान् काययोग सिवाय वचनयोग, मनोयोगनी स्थिति सूक्ष्म करीने बादर काययोग पण सूक्ष्म करे छे। ते पछी सूक्ष्मकाययोगमा स्थिति करीने क्षणमात्रमा तेजे समये वचनयोग अने मनोयोग
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
- वीरस्तुतिः। - - , ए बन्नेनो सम्यक् प्रकारे निग्रह करे छे। त्यारे ते सूक्ष्म क्रिया ध्यानने साक्षात् ध्यान करवा योग्य बनावी ले छे। अने ते त्यां एक सूक्ष्म काययोगमां स्थिति करीने तेनुं ध्यान करे छे। आ रीते प्रभुनु आ "सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाति" ध्यान छ ।
अयोग गुणस्थानना उपान्त्य अर्थात् अन्तसमयना प्रथम समये देवाधिदेवनी मुक्तिरूपी लक्ष्मीने प्रतिवन्धक कर्मोनी प्रकृतिओ शीघ्र नाश पामी जाय छे भगवान् अयोगी परमेष्टीने ते अयोग नामा गुणस्थानना उपान्त्य समये साक्षात् रूप अने निर्मळ “समुच्छिन्नक्रिया" नामे शुक्लध्याननो चोथो पायो प्रगट थाय छे ।' - ते भगवान् प्रधान धर्म प्रकाशीने प्रधान-उज्वळमां उज्वळ, दोष रहित, उज्वळ शंख अने चन्द्रमानी पेठे एकान्त निर्मल सर्वध्यानमा सर्वोत्तम एवं शुरू ध्यान ध्याय छ।
लेश्यानी दृष्टिए पण तेमनी महान् शुक्ललेश्या छ।
आत्मामां पुण्य पापने लिप्त करीने पोताना जेवां वनावी-ल्ये, तेने लेश्या कहे, छे, ते बे जातनी होय छे। ते प्रवृत्ति अने यौगिकी होय छे । प्रवृत्ति कषायना रंगमा रगी ल्ये छ । भावथी असत् परिणति तथा पर परिणतिरूप छे । योग-अवि. रति-मिथ्यात्व-कषाय-प्रमादजन्य कर्मसस्कारोथी भावलेल्या होय छे । के जे पाप, अने आस्रवनुं कारण छ।
कापोती तीव्र भाव छे, नीला तीव्रतर अने कृष्णा तीव्रतम भाव छ। आ अशुद्ध विचारोनो, क्रम छ । पीता पापनी मन्दतानुं नाम छे, पद्मा मन्दतर अने शुका मन्दतमने कहे छे । अशुभ भाव-लेश्या आत्मानी निर्मलतानो नाश करे छे, शुभ भावलेल्या कर्ममेलनो नाश करे छे, अन्तिम लेश्या सहजानन्द-निर्लेशीप, अपाववामा निमित्तभूत छ।
कृष्णलेश्या- आ दुर्भावनाना फंदमा पाठीने जीवने राग-द्वेषना ग्रहथी असाय छे, पर परिणति अने पुद्गलपूजा-जडपूजानो दुराग्रह तेना थी आवे छे, मन दुष्ट अने म्लान रहे छ, अनन्तानुवन्धीना तीन क्रोध-मान-माया-लोभथी घेरायेलो होय छे, भावोमां थी निर्दयता जती नथी, पाप कार्य करीने तेनो कदी पस्तावो यतो नथी। मांस मदिरानो भोगी होय छे, कुकर्ममा आसक्त होय छे। आ लक्षणो वाळो मनुष्य 'कृष्णलेश्या' चामे जाणवो।
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
९७
नीललेश्या
जेनामा क्रोध-मान-माया-लोभ-राग-द्वेष-मोह-शोक-भय-जुगुप्सा होय, नृशं. सता क्रूरता-हिंसकता होय, चाण्डालवृत्ति होय, चोर-मूर्ख-स्तब्ध होय, वीजाओनो तिरस्कार करतो होय, निद्रानी अधिकता-कामासक्ति-मंद बुद्धि-जडता होय, सत् असत्मां अविवेकी होय, महाआरम्भ-महामूर्छा मोह होय, आ लक्षणो वाळो जीव नीललेझ्या वाळो जाणवो । . कापोती लेश्या
शोक-भय-ईर्षा -मत्सर-अन्यनी निन्दा, पोतानी प्रशंसा तथा पोतानी कोई प्रशंसा करे तो प्रसन्न थर्बु, आत्माना हानि लाभने न समजे, ख. परमा विपर्यय बुद्धि होय, अहंकारग्रस्त-सारी नरसी सर्व प्रकारनी क्रियाओ करी बेसे, पोतानी स्तुति 'साभळीने सर्वस्व पण आपी दे, लडाईमा मरवानी इच्छा राखे। आ लक्षणो वाळो जीव कापोती लेश्या वाळो समजवो ।
तेजोलेश्या___ आ लेश्यावाळो समदृष्टि होय छे, अधिक मात्रामा द्वेष नथी करतो, अन्यना कल्याण अकल्याणनो विचार करे छे । पोताना बुद्धिबलथी युक्त अयुक्तनुं ज्ञान विचारे छ। कोई अन्यनी शोचनीय दशा पर तेने दया आवे छ । चातुर्यतापूर्ण तेमज अनिंद्य व्यापार होय छ । आ पीतलेझ्याना लक्षण छ । । पद्मलेश्या
कर्मनी निर्जरा करीने पवित्र तथा कर्मरहित वनवानी इच्छा होय । सुपात्रे दान दईने सहजानन्द लूटे। आन्तर तेमज वाह्य व्यवहार जेनो अत्यन्त मृदु अने सरल होय । आत्मामा हमेशा विनय अने नम्रता होय । शत्रुपर पण प्रेम राखे । आत्मज्ञान प्राप्तिनो जेनो ध्येय होय। सच्चरित्र पालक साधक होय, नीति युक्त क्रियावन्त होय । आ पद्मलेश्या वाळानां लक्षणो छ । शुक्ललेश्या
अमिमान लेशमात्र पण न होय, पोताना चरित्रनुं फळ मागवानी अभिला. षारूप निदान न करे, निष्पक्षपाती होय, सम्यक् ज्ञाननी पूर्णता होय, राग द्वेषनो अत्यन्त अभाव होय, समाधि तेमज अध्यात्मिकतामां स्थिर होय, आस्तिक्य होय, आ लक्षणो शुक्ललेश्याना जाणवा ।
वीर. ७
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः ।
तेजो, पद्मा अने शुक्ला ए त्रण प्रशस्त लेश्या छे, क्रमे करीने संवेगने उत्तसरीते वधारवामां सहायरूप छे ।
९८
- लेश्याओने उदाहरणथी समजावे छे
चोरोनो एक समुदाय कोई गामने लुंटीने चाल्यो गयो त्यारे ते गामना लोको तेनो वदलो लेवानी इच्छाए संगठित वनीने चाल्या जाय छे । ते मा छ माणसो जुदी जुदी छ प्रकृति ना हता, रस्तामा चालता चालता पहेलाए कर्छु के( १ ) आपणे वधा त्या जईने आखा गामना जीवोनो नाश करी नाखीशुं, तेमना पाळेला पक्षिओने पण नहिी छोडीशुं
(२) बीजाए कह्युंके आपणे तेमना पशु पक्षिओने कई ईजा नहि करिए । (३) भी जाए कह्युं के आपणे तेमनी स्त्रीओने कोई पण जातनुं कष्ट नहि आपिए । कारणके अन्यनी वहु दीकरीओ आपणी वहु दीकरीओ जेवी छे ।
( ४ ) चोथाए कह्युं के पुरुषोमा पण जेना हाथमा शस्त्र होय तेनेज मारवा जोइए, निश्शस्त्र शत्रुने मारवा नीति विरुद्ध छे ।
( ५ ) पाचमाए कछु के शस्त्रधारिओमा पण जेओ आपणा पर आक्रमण करे तेनेज मारवा ।
(६) छठाए क्युंके शत्रु सिवाय भूलथी पण कोई निरपराधीने न मराय ।
आ रीते जुदा जुदा विचारो जुदी जुदी लेश्याओ द्वारा थाय छे । अनुक्रमे पवित्र विचारो द्वारा जे कर्मरूपी शत्रु सिवाय बीजा वधानी रक्षा करे वे नरपुं व सर्वमा प्रधान अने उत्तम छे ।
आ रीते भगवान् वीरप्रभुनुं पण शुक्ललेश्या युक्त ध्यान छे । जेमा आत्माना अन्तरग भाव स्वच्छ होय छे, तेमनु पवित्र ध्यान शंखनी पेठे उज्वऴ वर्णनुं छे । आ रीते जगत् जीवोना हितार्थे शुक्लध्याननो उपदेश पण वीर प्रभुश्रीए करेलछे १६
मूल
अणुत्तरग्गं परमं महेसी, असेसकम्मं स विसोहइत्ता । सिद्धिं गते साइमणंतपत्ते, नाणेण सीलेण य दंसणेण ॥ १७ ॥
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
- (संस्कृतच्छाया) - अनुत्तराय्यां परमां महर्षिः, अशेषकर्म स विशोध्य । सिद्धिं गतः साद्यनन्तप्राप्तः, शानेन शीलेन च दर्शनेन ॥१७॥ - सं० टीका-तथा चासौ भगवान् शैलेश्यवस्थाऽऽपादितशुक्लध्यानस्य चतुर्थमेदानन्तरं साद्यपर्यवसानां सिद्धि मोक्षं । “योग्यमेदेऽन्तर्धाने मोक्ष इति शब्दस्तोममहानिधिः" । "मोक्खो, निरोधो, निवाणं, दीयो, तण्हक्खयो, परं, । ताण, लेणं, अरूवं च, सन्तं, सर्च, अनालयं । असंखतं, सिवं, अमत, सुदुद्दस्सं, परायणं, सरणं, अनीतिकं, तथा । अनासवं, धुवं, अनिदस्सना, कता, अपलोकितं, निपुणं, अनन्तं, अक्खरं, दुक्खक्खयो अव्यापज्झं च, विवट्ट, खेम, केवलं, । अपवग्गो, विरागो, च, पणीतं, अचुतं, पदं । योगक्खेमो, पारं पि, मुत्ति, सन्ति, विसुद्धि, यो । विमुत्य,ऽसंखताधातु, सुद्धि, निब्बुतियो (सियु)" इत्यभिधानप्पदीपिका । "मोक्षस्तु मुक्तिपाटलिमोचने" इति मेदिनी" । गति मोक्षगति या पञ्चमी तां प्राप्त । सिद्धिगतिमेव विशिनष्टि, अनुत्तरा चासौ सर्वोत्तमत्वात् , अग्र्या च लोकाग्रमागे व्यवस्थितत्वादनुत्तराऽत्र्या तां परमां प्रधानां गतिं चेति । महर्षि-रसावत्यन्तोग्रतपो विशेषो वा सर्वज्ञः । “महर्षिः सर्वज्ञेपु, विद्यासम्प्रदायप्रवर्तकेषु चेति, शब्दार्थचिन्तामणिः" । "महेसी, च विनायको, समन्तचक्खु, सबन्नु, इत्यभिधानप्पदीपिका" । निष्टप्तदेहत्वादशेष कर्म ज्ञानावरणादिकं विशोध्यापनीय दूरीकृत्य च विशिष्टेन ज्ञानेन दर्शनेन शीलेन क्षायिकेण तां सिद्धिं गतिं प्राप्त इति, ॥ १७ ॥
___ अन्वयार्थ-[स] वे [महेसी ] महर्षि भगवान् [असेसकम्म] सब काँको [ विसोहइत्ता] भलिभाति क्षय करके [अणुत्तरग्गं] सब प्रकारसे प्रधान
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
१००
, वीरस्तुतिः ।
लोकके अग्रभागमें [गते] जा विराजे, [ साइमणंत] और आदि-अनन्त, तथा [परमं ] उत्कृष्ट [ सिद्धिं ] मोक्षको [नाणेण ] ज्ञान [ सीलेण] चरित्र [य] और [ दंसणे ] दर्शनके द्वारा प्राप्त हुए ॥ १७ ॥
भावार्थ-भगवान्ने क्षायिकज्ञान, क्षायिकदर्शन और क्षायिकचरित्र द्वारा सर्वोत्तम लोकाग्रभागमें धारण करनेवाली मुक्तिको सकल कर्मोंका अन्त करके उसे पाया, वह मुक्ति सादि अनन्त है, कई लोक मोक्षसे वापिस आना मानते हैं, किन्तु वह युक्कि संगत नहीं है, क्योंकि ससारमें रुलानेवाले राग-द्वेष-क्रोध-मान-मायादि विकार हैं, जहातक ये विकार हैं वहांतक मोक्ष नहीं, और मुक्तात्मामें कोई विकार
नहीं है । अत: विकार रहित आत्मा ससारमें क्योंकर पुनरावर्तन कर सकता है ? 'यदि उसमें रागादिका सद्भाव मानाजाय तो वह मोक्ष नहीं, यदि मोक्ष होनेपर पुनः
अवतरित होते हों तो वहमी ठीक नहीं,क्योंकि विकारोंको विकारही पैदा कर सकते हैं, जब मुक्तात्मा निर्विकार है तो विकारकी उत्पत्ति क्योंकर हो सकती है ॥१७॥
भाषा-टीका-भगवान् शैलेशी अवस्थासे शुक्लध्यानके चतुर्थ मेदको पानेके अनन्तर आदि अनन्त मोक्षरूप अपुनरावृत्ति धाममें जा विराजे । लोकके अग्रभागमें व्यवस्थित होनेसे वह परमप्रधान है, उसे उस सर्वज्ञ-महर्षि ने देहको तपसे तपा कर जानावरणीयादि आठ कर्मोका विशोधन करके ( वह भी अपने निजी पुरुषार्थ से,) फिर ज्ञान, दर्शन चरित्र के द्वारा सिद्धि गति-मोक्षको पाया । - आकाश सबमें अनन्त है, उस पूर्ण लोकालोकाकाशमे सिद्ध परमात्माका ज्ञान घनीभूत होकर भरा पड़ा है। उस सिद्धावस्थाके होने पर वे निद्रा, तन्द्रा, भय, भ्रान्ति, राग, द्वेष, पीडा, संशयसे रहित हो जाते हैं। तथा शोक, मोह, जरा, जन्म, मरण, आदि भी नहीं रहते है । क्षुधा, तृषा, खेद, मद, उन्माद, मूर्छा, मत्सर का भी अत्यन्ताभाव है। इनकि आत्मामें अव घटावटी भी नहीं है, इनका आत्म वैभव कल्पनातीत है । सिद्ध भगवान् शरीर रहित हैं, इन्द्रिय रहित हैं, विकल्प, संकल्प नहीं है, अनन्तवीर्यत्व प्राप्त हैं, अपने खभावसे कमी स्खलित नहीं होते। सहज और नित्य आनन्दसे आनन्द रूप हैं । जिनके मुखमें कमी 'विच्छेद नहीं होता है । परमपद में विराजित हैं, ज्ञानके प्रकाशसे प्रकाशित हैं। परिपूर्ण, सनातन, ससारकी खटपटसे रहित हैं एवं जिनको अव कुछ भी करना वरना नहीं है, अचला स्थिति है, आत्म प्रदेशों की क्रियासे रहित हैं । सन्तृप्त हैं,
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
१०१
मन्ना बार
भावादित
तृष्णा रहित हैं, सदा तीन लोकके शिखर पर विराजित हैं । अनुपमेय हैं, आकाश और काल कि तरह प्रभु अनन्त है, और वचन अगोचर हैं ॥ १७ ॥
गुजराती अनुवाद-भगवान् शैलेशी अवस्थाथी शुक्लध्यानना चोथा भेदने प्राप्त कर्या पछी आदि अनन्त मोक्षरूप अपुनरावृत्ति स्थानमा जइ बिराज्या, ते मोटा ऋषीश्वर [महावीर देव ] समस्त कर्म खपावीने पोतानाज पुरुषार्थथी ज्ञान, दर्शन, चरित्रे करी, सर्वोत्तम लोकने अग्र भागे उत्कृष्ट सिद्धगतिने पाम्या ।
__ आकाश अनन्त छे, ते पूर्ण लोकालोक-आकाशमा सिद्ध-परमात्मानुं ज्ञान भर्यु पच्यु छे, ते सिद्धावस्थामा निद्रा, तन्द्रा, भय, भ्रान्ति, राग, द्वेष, पीडा, संशय नथी; शोक मोह-जन्म-जरा-मरणादि पण नथी; क्षुधा-तृषा-खेद-मद-उन्मादमूर्छा-मत्सरनो अत्यन्त अभाव छे, तेमनो आत्मा अगुरु लघुत्व गुणने प्राप्त थयो छ, तेमनो आत्मवैभव कल्पनातीत छ, सिद्ध भगवान् शरीर-इन्द्रिय-सकल्प-विकल्पथी रहित छे, अनन्त वीर्यवान् छे, ख-खभावथी की पण स्खलित थता नथी, सहजानन्द प्राप्त छ, निराबाध सुखवाळा छे, परम पदमां विराजमान छे, ज्ञानप्रकाशथी प्रकाशित छे, सदैव नित्य-परिपूर्ण छ, सनातन छ, संसारना प्रपंचोथी रहित छे, कृतकृत्य छ, अचल छे, अरुज छे, अक्षय छे, आत्मप्रदेशोनी क्रियाथी रहित छे, सन्तृप्त छे, तृष्णा रहित छे, त्रणलोकना अग्रभागे विराजे छ, अनुपमेय छ, आकाश भने कालनी पेठे प्रभु अनन्त छे, तेमज वचनातीत छे ॥ १७ ॥
चर पुन
र सरते
ये पाने
मात्र
E
इनम
रुक्खेसु णाते जह सामली वा, .. जस्सि रइं वेययंती सुवण्णा। वणेसु वा णंदणमाहु सेहूं, . . . नाणेण सीलेण य भूतिपन्ने ॥१८॥
संस्कृतच्छाया वृक्षेषु क्षातो यथा शाल्मली वा, यस्मिन् रति वेदयन्ति सुपः। वनेषु वा नन्दनमाहुः श्रेष्ठं, ज्ञानेन शीलेन च भूतिप्रशः ॥ १८ ॥ . सं० टीका-पुनरपि वीरस्य स्तुति दृष्टान्तद्वारेणाह, वृक्षेषु मध्ये यथा ज्ञातः प्रसिद्धो देवकुरुव्यवस्थितः शाल्मलीवृक्षः, स च भुवन
मा
% 3E
करना
हैं ,
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०२
.
वीरस्तुतिः।
पतिदेवानां क्रीडास्थानम् , "शाल्मले शाल्मलीवृक्ष इति हैमः" यस्मिन् वृक्षे व्यवस्थिता अन्यतश्चागत्य सुपर्णा-मुवनपतिविशेषा देवा । रति रममाणा रतिं रमणं क्रीडां वेदयन्त्यनुभवन्तीति । वनेषु मध्ये नन्दनं देवानां क्रीडास्थानं श्रेष्ठम् प्रधानं "नन्दनं, मिस्सकं, चित्तलता, फारुसकं, वना इत्यभिधानप्पदीपिका" । एवं भगवान् वीरोऽपि केवलाख्येन ज्ञानेन समस्तपदार्थाविर्भावकेन शीलेन चारित्रेण यथाख्यातेन स्वभावेन सहजधर्मविशेषेण सद्वत्तेन साधुचरित्रेण प्रधानस्तथा भूतिप्रज्ञः प्रवृद्धज्ञानोऽनन्तज्ञानो भगवान् इति भावः ॥ १८ ॥
___ अन्वयार्थ-[जह ] जैसे [ रुक्खेसु] वृक्षोंमें [ सामली ] शाल्मली वृक्ष [वा ] तथा [वणेसु] वनोंमें [नंदणं ] नन्दनवन [ सेठं] श्रेष्ठ [ णाए] समझा जाता है [जस्सिं] जिसमें कि-[ सुवन्ना] सुपर्ण-कुमार नामक भुवनवासी देव [ रतिं] आराम क्रीडाका [वेदयती ] अनुभव करते हैं उसी प्रकार भगवान् [नाणेण] ज्ञानसे [य] और [सीलेण] चरित्रसे श्रेष्ठ तथा [भूइपने] प्रभूत. ज्ञानशाली [आहु ] कहलाते थे ॥ १८ ॥
भावार्थ-वृक्षोंमें सेमलवृक्ष सुंदर सघन छाया युक्त होता है, यह वृक्ष पृथ्वीकायिक और नित्य है। तथा ससारके समस्त वनोंमें नन्दनवन खूबसूरत है, क्योंकि कथित दोनों स्थानोमें रहनेवाले तथा वाहरसे आनेवाले सुपर्णकुमार जातिके भुवनवासी देव, आनन्दमें आमोदप्रमोदसे अनेकप्रकारका विलास करते हैं, उसीप्रकार भगवान् महावीर प्रभु भी सबमें उत्तम थे, कारण उस समय प्रभुके मुकावलेमें उनके ज्ञान और चरित्रकी वरावरी करनेवाला कोई भी व्यक्ति न था, इसीलिए सेमल और नन्दनवनकी उपमा देकर भगवानकि स्तुति की गई है ॥१८॥
भाषा-टीका-शाल्मली वृक्षकी शीतल छाया होनेसे वह सब वृक्षोंमें श्रेष्ठ है, और वह भुवनवासी देवोंका क्रीडा स्थल है, । वनोंमें जिसप्रकार नन्दनवन उत्तम वन है,,इसी प्रकार भगवान् 'महावीर प्रभु भी केवलज्ञानके कारण श्रेष्ठ हैं, जिससे सर्वपदार्थोका उन्हें प्रत्यक्ष आविर्भाव है । ज्ञानके साथ साथ उनमें यथाख्यात चरित्रमें भी 'पूर्णश्रेष्ठता प्राप्त है । जोकि आत्माका 'सहज खंभावं समन्वित गुण है ॥ १८॥
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
१०३
गुजराती अनुवाद-शीतल छाया होवाने लीधे शाल्मली वृक्ष सर्व वृक्षोथी श्रेष्ठ छे, ते भुवनवासी देवोनुं क्रीडा स्थान छे, वनोमा जेम नन्दनवन श्रेष्ठ छे, तेमज भगवान् महावीर पण केवलज्ञाने करी सर्वोत्तम छे, जेनाथी सर्व पदार्थोनो प्रत्यक्ष आविर्भाव तेमने थाय छे, ज्ञाननी साथे यथाख्यात चरित्रमा पण तेओ श्रेष्ठ छे के जे आत्मानो सहज खभाव छ ॥ १८ ॥
थणियं व सद्दाण अणुत्तरे उ, चंदो व ताराण महाणुभावे । गंधेसु वा चंदणमाहु सेहूं, एवं मुणीणं अपडिन्नमाहु ॥ १९॥
संस्कृतच्छाया स्तनितं वा शब्दानामनुत्तरं तु, चन्द्रो वा ताराणां महानुभावः।। गन्धेषु वा चन्दनमाहुः श्रेष्ठम्, एवं मुनीनामप्रतिज्ञमाहुः ॥ १९ ।। . सं० टीका-यथा च शब्दानां मध्ये स्तनितं मेघगर्जितं "स्तनितं गर्जितं मेघनिर्घोषो रसितादि चेत्यमरः । तदनुत्तरं प्रधान तुशब्दो विशेषणार्थः, आह च, “समुच्चयेऽवधारणे, नियोगे, प्रशंसायां, उक्तशंकानिवृत्तौ, पादपूरणे, विशेषणार्थे चेति कोषः” । तथा च तारकाणां-नक्षत्रगणानां मध्ये चन्द्रो महानुभावः, "नक्खत्तं, जोति, में, तारा, ( अपुमे) तारको इत्यभिधानप्पदीपिका" । सकलरजोनिवृत्तिकारिण्या कान्त्या मनोरमः श्रेष्ठः । गन्धेषु चेति गुणगुणिनोरभेदान्मतुब्लोपाद्वा, गन्धवत्सु मध्ये यथा चंदनं मलयजं गोशीर्षकाख्यं "चन्नं (नित्थियं) गंधसारो मलयजो (प्यथ)" "गोसीसं तलप्पण्णिकं, (पुमे वा) हरिचंदनं" "इत्यभिधानप्यदीपिका" । मलयज मलयपर्वतादौ-जायते तद् वा तज्ज्ञाः श्रेष्ठमाहुः । एवं मुनीनां महर्षीणां च मध्ये भगवन्तं । पुनश्च नास्य प्रतिज्ञा इहलोकपरलोकानां शंसिनी
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०४ . .. वीरस्तुतिः। .. विद्यत इत्यप्रतिज्ञः, इहलोकपरलोकाशंसारहितप्रतिज्ञस्तमेवंभूतं महावीरम् श्रेष्ठमाहुरिति ॥ १९ ॥ * अन्वयार्थ-[व] जैसे [थणिय ] मेघकी गर्जना [सद्दाण] सवशब्दोंम [अणुत्तर उ] प्रधान है-सबसे बढकर है, और [व] जैसे [चंदो] चन्द्रमा [ताराण] सव तारोंमें [महाणुभावे] उज्वल और मनोहर है, [वा] इसीप्रकार गिंधेमु] सव सुगन्धित पदार्थोम [चंदणं] चन्दनको [ सेठं] अच्छा [ आहु] कहा है [एवं ] इसी प्रकार भगवान्को भी [मुणीणं ] सब मुनिओंमें [अपडिण्णं ] इस लोक और परलोककी प्रतिज्ञा-कामनासे विरक्त [आहु] कहा है ॥ १९ ॥
भावार्थ-जैसे सव शब्दों मेघकी गर्जनाका शब्द वडा प्रवल होता है, सबके सव शब्द उससे नीची कक्षामें हैं, तथा सव नक्षत्र मण्डलमें चांद सवमें उज्वल और सुन्दर है, और समस्त सुगन्धित पदार्थोंमें मलयज चन्दन सुरभि
और उत्तम है, उसी प्रकार समस्त मुनिओंमें भगवान् महावीर उस समय सवमें प्रधान थे, क्योंकि उनमें आत्मासे भिन्न इसलोक और परलोक संबंधी किसी भी विषयकी कामना न थी ॥ १९ ॥
भापा-टीका-शब्दोंमें मेघकी गर्जनाका शब्द सबसे बड़ा होता है, असख्य तारों और नक्षत्रोंमें चंद्रमा तेजस्वी शीतल और महानुभाव है, सुगन्ध वस्तुओंमें मलयवनका गोशीप चन्दन श्रेष्ठ होता है। इसी प्रकार मुनि महर्षिगणोंमें भगवान् सवमें विलक्षण श्रेष्ठतापूर्ण थे। उनकी सब प्रतिज्ञाएँ इस लोक
और परलोक सम्बन्धी विषयाकांक्षाओंसे रहित थीं ॥ १९ ॥ - गुजराती अनुवाद-शब्दोमां जेम मेघनी गर्जनानो शब्द, ताराओने विषे जेम चन्द्रमा, अने सुगंधीओमां जेम गोशीर्ष चन्दन श्रेष्ठ छे, तेम मुनि महपिंगणोमां भगवान् श्रीमहावीर श्रेष्ठ छे, तेमनी सर्व प्रतिनाओ आ लोक अने परलोक सम्वन्धीनी वांछना रहित छे ।। १९ ।।
जहा सयंभू उदहीण सेढे, ... नागेसु वा धरणिंदमाहु सेठे। ..
खोओदए वा रसं वेजयंते, . ...', तवोवहाणे मुणि वेजयंते ॥ २०॥ . .
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतीचा-हिन्दी गुर्जरमान्तरसहिता
१०५
संस्कृतच्छाया रथा खयन्मूल्धीनां श्रेष्टः, नागेपु वा घरणेन्द्रमा टम् । कोदोदकं वा रतं वैजयन्तः, तप उपचानेन मुनिजयन्तः ॥ २० ॥
सं० टीका-यथा स्वयं भवतीति वयवो देवान्तत्रागय मन्न इति, स्वयंपूरनन्तदेदवि. सन्द्राणां नये यया लयंदननः मन्द्रः समनीयस्तगरपय॑न्तवती श्रेष्ठः प्रधानो नहत्तरः । नागेषु व नुवनपतिविशेषेषु नव्ये घरगेन्द्र नागानामिन्द्रं यया मनाहुः । ननुस इवोदकं जल यत्य : इनुलोदकः, म यया रनमामिलेनि वृद्धा, वैजयन्त प्रधानः । तनुः मन्दानां पताकदोपरि वन्नरजेन्द्रो स्श्व प्रधानः सनचिन्तयैव तप उपचानेन विशिष्टत्पाविदोष ननुते जगतिकालावन्सानिति ननिर्भगवान् वैजयन्तः प्रशनः सनन्तलोकन्य नहातमन्ना वैजयन्तीर सोपरिश्यवसितः ॥ २०॥
अन्वयार्थ-जनमा तनमन्छादन झान न्हे अंट है परन्टपरमेन्द्र नागमन जति भन्न्री देदोन है चीन मेदन [निजातेदाने मुल है, उसी प्रबलिकहते इन्न - चानने भावन्द ते इन दुचले हैं . २०
भावार्थस्य मान वरन्नन, ते कर र देव रद काटे हैं. न्य, अपने चिनजर है, वह घर
करमा गेर दिन सन्तुष्ट मन्दे दे। नया कारभुलानि पापेन्द्र मान मन्द राम पर से स्ट . २०॥ मागरीकार भले दोन सन्नर मनुः मा
देश, धन ल्ल मान।
र सनरास
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०६
. वीरस्तुतिः।
. .
शान्तिकर और खादिष्ट वस्तु है, इसी प्रकार विशेष तपसे जगत्की तीनों कालकी अवस्थाओंको नित्य और परिवर्तन शील माननेवालोंमें मुनि-भगवान् महावीर प्रभु श्रीध्वजाकी तरह समस्त लोकमें महान् तपसे तप कर निकले हुए कुंदनकी तरह सुशोमित थे ॥ २० ॥
गुजराती अनुवाद-सर्व समुद्रोमा खयंभूरमण समुद्र मोटो छे, तेन कांठा पर देवताओ वायुसेवन करवाने आवे छे, भुवनपति देवोमा धरणेन्द्र देवराज प्रधान छे, मीठा अने सरस पदार्थोमा शेरडीना रस शान्तिकर तेमज मीष्ट तथा खादिष्ट छे, तेवीज रीते तप उपधानथी जगत्नी त्रणे कालनी अवस्थाओने नित्य तेमज परिवर्तनशील माननाराओमा मुनींद्र श्री भगवान् महावीर प्रभु समस्त लोकमां शुद्ध कुन्दननी माफक सुशोभित छ ॥ २० ॥
हत्थीसु एरावणमाहु णाए, सीहो मिगाणं सलिलाण गंगा। ' पक्खीसु वा गरुले वेणुदेवो, णिवाणवादीणिह णायपुत्ते ॥ २१॥ .
(संस्कृतच्छाया) हस्तिष्वैरावणमाहुर्शात, सिंहो मृगाणां सलिलानां गंगा। पक्षिषु वा गरुत्मान् वेणुदेवो, निर्वाणवादिनामिहज्ञातपुत्रः॥२१॥
सं० टीका-हस्तिषु करिवरेषु मध्ये, यथैरावतं शक्रवाहनं ज्ञातं प्रसिद्धं "ऐरावतोऽभ्रमातंगरावणाम्रमुवल्लभाः इत्यमरः" । "कुंजरो, वारणो हत्थीत्यभिधानप्पदीपिका"। दृष्टान्तभूतं वा प्रधानमाहुस्तज्ज्ञाः, अथवा हस्तं रतं रत्नत्रयं तदस्यास्तीति हस्ती तेषु हस्तिषु, "हत्थो पाणिम्हि, रतने, गणे, सोण्डाय, भन्तरे; इति अमिधानप्पदीपिका" । ऐरावतो नागरंगस्तद्वच्छोमनीयः । अथवा हस्तो नागस्तोयदस्तन्मध्य ऐरावत इवेति । अथवा धृतवस्तुहस्तिषु हि ऐरावतो नारंगो नारंगसहशः
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०६
वीरस्तुतिः। . . शान्तिकर और स्वादिष्ट वस्तु है, इसी प्रकार विशेष तपसे जगत्की तीनों कालकी अवस्थाओंको नित्य और परिवर्तन शील , माननेवालोंमें मुनि-भगवान् महावीर प्रभु श्रीध्वजाकी तरह समस्त लोकमे महान् तपसे तप कर निकले हुए कुंदनकी तरह सुशोमित थे ॥ २० ॥
गुजराती अनुवाद-सर्व समुद्रोमा खयंभूरमण समुद्र मोटो छे, तेन कांठा पर देवताओ वायुसेवन करवाने आवे छे, भुवनपति देवोमा धरणेन्द्र देवराज प्रधान छे, मीठा अने सरस पदार्थोमा शेरडीना रस शान्तिकर तेमज मीष्ट तथा खादिष्ट छे, तेवीज रीते तप उपधानथी जगत्नी त्रणे कालनी अवस्थाओने नित्य तेमज परिवर्तनशील माननाराओमा मुनींद्र श्री भगवान् महावीर प्रभु समस्त लोकमा शुद्ध कुन्दननी माफक सुशोभित छे ॥ २० ॥
मूल हत्थीसु एरावणमाहु णाए, सीहो मिगाणं सलिलाण गंगा। पक्खीसु वा गरुले वेणुदेवो, णिवाणवादीणिह णायपुत्ते ॥ २१॥
(संस्कृतच्छाया) हस्तिष्वैरावणमाहुतिं, सिंहो मृगाणां सलिलानां गंगा। पक्षिषु वा गरुत्मान् वेणुदेवो, निव्वाणवादिनामिहज्ञातपुत्रः॥२१॥ * सं० टीका~हस्तिषु करिवरेषु मध्ये, यथैरावतं-शक्रवाहनं ज्ञातं प्रसिद्धं “ऐरावतोऽभ्रमातंगरावणाप्रमुवल्लभाः इत्यमरः" । "कुंजरो, वारणो हत्थीत्यभिधानप्पदीपिका" । दृष्टान्तभूतं वा प्रधानमाहुस्तज्ज्ञाः, अथवा हस्तं रत्नं रत्नत्रयं तदस्यास्तीलि हस्ती तेषु हस्तिषु, "हत्थो पाणिम्हि, रतने, गणे, सोण्डाय, भन्तरे, इति अमिधानप्पदीपिका"। ऐरावतो नागरंगस्तद्वच्छोभनीयः । अथवा हस्तो नागस्तोयदस्तन्मध्य ऐरावत इवेति । अथवा धृतवस्तुहस्तिषु हि ऐरावतो नारंगो नारंगसदृशः
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०८
,
वीरस्ततिः।
.
',
ऐरावतकी तरह उच्च कोटिकी है। अथवा हाथमें जिस प्रकार नारगी सुन्दर लगती है उसी तरह प्रभु मी जगती-तल पर नारगीकी तरह भव्य प्राणिओंके हृदयोम मुन्दर लगते हैं । हरिणादिक जंगली जीवोंमें सिंह वलिष्ट होता है, इसी तरह मरत क्षेत्रकी अपेक्षा मानवसृष्टिमें वीर प्रभु सिंहकी तरह आत्म-बलसे बलवान् थे, जैसे सब प्रकारके जलोंमें गंगाजल अनेक औषधियोंसे मिश्रित होनेके कारण तिम्र्मल है, ऐसे ही प्रभु भी कर्म-लेपसे अलिप्त होनेसे अत्यन्त खच्छ हैं।
और पक्षिओंमें गरुड नामक वेणुदेव प्रधान है, इसी प्रकार निर्बाण अर्थात् जो सिद्धक्षेत्र है जहा कर्म-मलका अत्यन्त अभाव है, उसका खरूप बतानेमे
तथा उसके पानेके उपाय बताने में ज्ञातपुत्र महावीर प्रभु सर्वोपरि हैं। उनका निर्वाण सबमें उच्चकोटिका और अकाट्य है ॥ २१ ॥
गुजराती अनुवाद-जेम ऊंचा तथा सुन्दर हाथिओमा ऐरावत हाथी निष्कलंक अने उत्तम छे, केमके तेनापर इन्द्र सवारी करे छे, अथवा ज्ञान-दर्शनचरित्ररूप जे त्रण रत्नो छे, तेमां प्रभु पण हाथीनी पेठे जे ऊंचा छ, अथवा ते रत्नत्रय मनोहर वेमज उपादेय छ, अथवा हस्तिनो अर्थ वादळ पण थाय छे, जेमनी वाणी समोघ वाणी छे, अने ऐरावत हाथीनी पेठे उच्च कोटिनी छ, अथवा जेम नारंगी हाथमां सुंदर लागे छे तेम प्रभु पण भूतल पर नारगीनी जेम भव्य प्राणीमोना खच्छ हृदयने सुंदर लागे छे, मृगादिक जनावरोमां सिंह बलिष्ठ होय छे, तेम मरतक्षेत्रनी अपेक्षाए मानव सृष्टिमा श्रीवीरप्रभु कर्मरूप मृगोने जीतवा सारु सिंह समान आत्मवलमा वलवान् छे, अनेक प्रकारनी औषधि-युक्त होवाने लीधे गंगाजल सर्व जलमां निर्मल छे, तेमज प्रभु पण कर्म लेपथी अलिप्त होवाने लीधे अत्यन्त विशुद्ध छे, पक्षिओने विष गरुड [ वेणुदेव] प्रधान छे, तेवीज रीते निर्वाण (सिद्ध) क्षेत्र के ज्या कर्ममळनो अत्यन्त अभाव छ, तेनुं खरूप वताववामा न्च्या तेनी प्राप्तिनो उपाय बताववामा ज्ञातपुत्र महावीर प्रभु सर्वोपरि छ ॥२१॥
:: जोहेसु णाए जह वीससेणे,
, पुप्फेसु वा जह अरविंदमाहु। - खत्तीणसेठे जह दंतवक्के, . .
. इसीण सेढे तह वद्रमाणे ॥ २२ ॥ - ..
Namo
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
१०९
संस्कृतच्छाया योघेषु ज्ञातो यथा विश्वसेनः, पुष्पेषु वा यथाऽरविन्दमाहुः । क्षत्रियाणां श्रेष्ठो यथा दान्तवाक्यः,
ऋषीणां श्रेष्ठस्तथा वर्द्धमानः ॥ २२॥ सं० टीका-योद्धेषु वीरपुरुषेषु भटेषु मध्ये ज्ञातो विदितो दृष्टान्तभूतो वा विश्वा-सेना हस्त्यश्वरथपदातिप्रभृतिचतुरंगबलसमेता (इति वृद्धा) यस्य स विश्वसेनश्वार्द्धचक्रवर्ती तथाऽसौ प्रधानः । "विष्वक्शेनो जनार्दन" इत्यमरः इत्यनेन विश्वसेनःशब्दः विष्वक्से नस्यापभ्रंशोऽपिभवितुमर्हतीत्याधुनीका मताः । पुष्पेषु च "स्त्रियः सुमनसः पुष्पं प्रसूनं कुसुमं सुममित्यमरः।" तन्मध्ये यथाऽरविन्दं महोत्पलकमल “वा पुसि पद्मं नलिनमरविन्दं महोत्पलमित्यमरः।" प्रधानमाहुस्तथा क्षतात् रिपुकृतखण्डान्नष्टकर्मणस्त्रायन्त इति क्षत्रिया "राजन्नो, खत्तियो, खत्तं, मुद्धामिसित्त, बाहुजा इत्यमिधानप्पदीपिका ।" "राजा तु खत्तिये वुत्तो नरनाहे पभुम्हि च" इत्यभिधानप्पदीपिका।" राजानोऽपि तेषां मध्ये दान्ता उपशान्ता यस्य वाक्येनैव शत्रवस्स दान्तवाक्यश्चक्रवर्ती “सब्बभुम्मो चक्कवत्ती इत्यभिधानप्पदीपिका ।" यथा चासौ श्रेष्ठः प्रधानस्तदेवममुना प्रकारेण बहून् दृष्टान्तान् प्रशस्तान् अनुकूलान् प्रदाधुना भगवन्तं महावीरजिनवरेन्द्रं दार्शन्तिकं खनामग्राहमाह । तथैव ऋपीणां "तापसो तु इसी (रितो) इत्यभिधानप्पदीपिका ।" मध्ये श्रीमद्वर्धमानोऽन्तिमतीर्थकरो महावीरखामी श्रेष्ठः ॥ २२ ॥
अन्वयार्थ-[जह] जैसे [जोहेसु] योद्धाओं में [वीससेणे] कृष्ण-वासुदेव [णाए] प्रधान है [ वा] और [पुप्फेसु] फूलोंमें [ अरविंद ] सहस्रदलकमल सुगन्धित होता है तथा [जह ] जैसे [खत्तीण ] क्षत्रियोंमें [ दंतवक्के ] चक्रवर्ती [सेठे] प्रधान है [ तह ] उसी प्रकार [इसीण] ऋषियोंमें [वद्धमाणे ] भगवान् वर्धमान [ सेतु] प्रधान [आहु ] कहलाते थे ॥ २२ ॥
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
११०
वीरस्तुतिः। - भावार्थ-कृष्ण-वासुदेवसे बढकर अन्य कोई योद्धा नहीं है, गन्धयुक्त 'फूलोंमें कमल अच्छा होता है, समस्त भूमिके क्षत्रियोंमें चक्रवर्ती मुख्य कहलाता है, उसी भाति भगवान् महावीर उस समयके सव ऋषि-मुनिओंमें सर्वश्रेष्ठ थे ॥२२॥
भापा-टीका-लडाके वीरोंमें पुष्कल हाथी, घोडे रथ पैदल आदि चतुरनीकका आधिपत्य भोक्ता अर्धचक्री वासुदेव कृष्ण प्रधान होता है । फूलोंमे हजार पंखुडियोवाला अरविंद नामक कमल श्रेष्ठ है। सताए गए वे मनुष्य जिसके ' कि-शत्रुओंने हृदयके सैंकडों टुकडे कर डाले हैं। तथा उन (कर्म रूपी) शत्रुओंसे जो सुरक्षित रखनेवाला हो वही क्षत्रिय होता है । उन्हींको दीप्तिमान राजा कहा जाता है। उनमें उपशान्त गुण प्रधान होता है जिसके कथन मात्रसे शत्रु शिथिल पड जाते हैं वही चक्रवर्ती भी होता है अत एव वह सवमें मुख्य है। इसी प्रकार इन सुन्दर दृष्टान्तोंको जिनपर अनायासमें ही घटाया जाता हो ऐसे वे हमारे परम पवित्र वर्धमानखामी अन्तिम जिन-भगवान् सव ऋषिमहर्षियोंमें श्रेष्ठ थे ॥ २२ ॥
गुजराती अनुवाद-योद्धाओमा गज-अश्व-रथ-पायदल, ए चतुरगी सेनानो अधिपति अर्ध चक्रवर्ती वासुदेवकृष्ण सर्वोत्तम छे, फूलोमा हजार पाखडीवाळु अरविंद कमल श्रेष्ठ छे, शत्रु (कर्मरूपी शत्रु) थी रक्षा करनार क्षत्रिय कहेवाय छे, तेने दीप्तिमान् राजा कहे छे, तेनामा उपशान्त रस प्रधान होय छ, जेना कथन मात्र थी शत्रु शिथिल थई जाय छे, ते चक्रवर्तीज होय छे, ते सर्वोत्तम छे, तेवीज रीते आवा सुन्दर-दृष्टान्तो जेना पर घटी शके ते अमारा परम पवित्र, पतित पावन, जगदुद्धारक वर्धमान भगवान् अन्तिम जिन सर्व ऋषिओमा श्रेष्ठ छे ॥ २२ ॥
दाणाण सेठं अभयप्पयाणं, सच्चेसु वा अणवजं वयंति। तवेसु वा उत्तमवंभचेरं, लोगुत्तमे समणे णायपुत्ते ॥ २३ ॥
संस्कृतच्छाया , दानानां श्रेष्ठं अभयप्रदानं, सत्येपु वाऽनवयं वदन्ति । तपस्सु वोत्तम ब्रह्मचर्य, लोकोत्तमः श्रमणो ज्ञातपुत्रः ॥ २३ ॥
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता १११ ., सं० टीका-तथा च खपरानुग्रहार्थमर्थिने दीयत इति दानं, अथवा ख-खत्वनिवृत्तिपूर्वक परखत्वोपादानं दानं, यद्वा श्रद्धा भक्तिस्तया परिग्रहममत्वत्यागभावेन कर्मनिर्जराऽर्थ चानुकम्पया यहीयते तद्दानं;* तच्चतुर्धा वाऽनेकधा, परन्तु तेषां दानानां मध्ये प्राणिनां जीवानां .: *तुष्टिश्रद्धाविनयभजना लुब्धता क्षान्तिसत्वप्राणत्राणव्यवसितगुणज्ञानकालज्ञताब्य । दानाशक्तिर्जननमृतिमिश्चास्तिको मत्सरेयो, दक्षात्मा यो भवति स नरो दातृमुख्यो जिनोक ॥कालेऽन्नस्य क्षुधमवहितो दित्समानो विघृत्य, नो भोक्तव्यं प्रथममतिर्यस्सदा तिष्ठतीति । तस्याप्राप्तावपि गतमलं पुण्यराशिं श्रयन्तं, तं दातारं जिनपतिमते मुख्यमाहुर्जिनेन्द्रा. ॥ सर्वाभीष्टा बुधजननुता वर्मकामार्थमोक्षाः, सत्सख्याना वितरणपरा दु खविध्वंसदक्षा । लब्धु शक्या जगति नयतो जीवितव्य विनैव, तद्दानेन ध्रुवमसुभृता कि न दत्तं ततोऽत्र ॥ कृत्याकृत्य कलयति यतः कामकोपौ लुनीते, धर्मे श्रद्धा रचयति परा पापबुद्धिं धुनीते। अक्षार्थेभ्यो विरमति रजो हन्ति चित्त पुनीते । तदातव्यं भवति विदुषा शास्त्रमत्र व्रतिभ्य ॥ भा-- भ्रातृखजनतनयान्यन्निमित्तं यजन्ति, प्रज्ञासत्वव्रतसमितयो यद्विना यान्ति नाशम् । क्षुडु खेन ग्लपितवपुषो भुंजते च त्वभक्षं, तद्दातव्यं भवति विदुषा सयतायानशुद्धम् ॥ सम्यग् विद्याशमदमतपोध्यानमौनव्रतान्यं, श्रेयोहेतुर्गतरुनि तनौ जायते येन सर्वम् । तत्साधूना व्यथितवपुषा तीनरोगप्रपञ्चैस्तद्रक्षार्थ वितरत जना. प्राशुकान्यौषधानि ॥ सावद्यत्वान्महदपि फल नो विधातुं समर्थ, कन्यास्वर्णद्विपहयधरागोमहिष्यादिदानम् । त्यक्त्वा दद्याजिनमतदयामेषजाहारदानं, भूत्वाऽप्यल्पं विपुलफलदं दोषमुक्तं वियुक्तम् ॥ नीतिश्रीतिश्रुतिमतिधृतिज्योतिभक्तिप्रतीति, प्रीतिशातिस्मृतिरतियतिख्यातिशतिप्रगीति । यस्माद्देही जगति लभते नो विना भोजनेन तस्माद्दानं स्युरिह ददता ता. समस्ता. प्रशस्ता ॥ दद्रिकव्यसनमथनकोषयुद्धप्रवाधा पापारम्भक्षितिहतधिया जायते तन्निमित्तम् । यत्सगृह्य श्रयति विषयान् दुखितं यत्खयं स्याद्य खाद्य प्रभवति न तच्छाप्यतेऽत्र प्रदेयम् ॥ साधू रत्नत्रितयनिरतो जायते निर्जिताक्षो, धर्म दत्ते व्यपगतमलं सर्वकल्याणमूलम् । रागद्वेषप्रमृतिमथनं यद्गृहीत्वा विधत्ते, तद्दातव्यं भवति विदुपां देयमिष्ट तदेव ।। धर्मध्यानव्रतसमितिमृत्सयतश्चारु पात्र, व्यावृत्तात्मात्रसहननत. श्रावको मध्यम तु। सम्यग्दृष्टिव॑तविरहित. श्रावक स्याजघन्यमेव त्रेधा जिनपतिमते पात्रमाहुः
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
११२
'वीरस्तुतिः ।
"सबे जीवा वि इच्छन्ति जीविऊ न मरीजिऊ" वा जीवो जीवितुमिच्छतीत्युक्तत्वाज्जीवितार्थिनां वाऽभयदानं त्राणकारित्वाच्च श्रेष्ठं । ।
श्रुतनाः ॥ यो जीवानां जनकसदृश. सत्यवाग्दत्तभोजी, सप्रेमस्त्रीनयनविशिखामिन्नचित्तः स्थिरात्मा, द्वेधा ग्रन्थादुपरममना सर्वथा निर्जिताक्षो, दातुं पात्रं व्रतपतिममुं वर्यमाहुर्जिनेन्द्रा ॥ यद्वत्तोयं निपतति घनादेकरूपं रसेन, प्राप्याधारं सगुणमगुणं याति नानाविधित्वम् । तद्वद्दानं सफलमफलं प्राप्यमप्यति मत्वा, देयं दानं , समयमभृतां सयताना यतीनाम् ॥ यद्वत्क्षिप्तं गलति सकलं छिद्रयुक्ते घटेऽम्मस्तिन तालावूनिहितमहितं जायते दुग्धमद्यम् । आमामने, रचयति मिदा तस्य नाशं च याति, तद्वद्दत्तं विगततपसे केवलं ध्वंसमेति ॥ शश्वच्छीलव्रतविरहिताः क्रोधलोभादिवन्तो, नानारम्भप्रहितमनसो ये मदनन्थशक्ता । ते दातार कथममुखतो रक्षितुं सन्ति शक्का, नावा लोहं न हि जलनिधेस्तार्यते लोहमय्या ॥ क्षेत्रद्रव्यप्रमृतिसमयान् वीक्ष्य बीजं यथोप्तं, दत्ते सस्यं विपुलममलं चारुसंस्कारयोगात् । दत्तं पाने गुणवति तथा दानमुकं फलाय, सामग्रीतो भवति हि जने सर्वकार्यप्रसिद्धि । नानादु खव्यसननिपुणान्नाशिनोऽतृप्तिहेतुः, कारातिप्रचयनपरास्तत्वतो वेत्यभोगान् । मुक्त्वाकाक्षा विषयविषया कर्मनिर्नाशनेच्छो, दद्यादानं प्रगुणमनसा संयन तायापि विद्वान् ॥ यस्मै गत्वा विषयमपर दीयते पुण्यवद्भिः, पाने तस्मिन् गृहमुपगते सयमाधारभूते ॥ नो यो मूढो वितरति धने विद्यमानेऽप्यनल्पे, तेनात्मात्र खयमपधिया वञ्चितो मानवेन ॥ दीर्घायुष्कः शशिसितयशोव्याप्तदिक्चक्रवालः, सद्विद्याश्रीकुलबलधनप्रीतिकीर्तिप्रताप. । शूरो धीर. स्थिरतरमना निर्मयश्चारुरूप स्त्यागी भोगी भवति भविना देह्यमीतिप्रदायी। कारण्यं दहति शिखिवन्मातवत्पातिदु खात्सम्यनीतिं वदति गुरुवत्खासिवद्यद्विभर्ति । तत्वातत्वप्रकटनपटुस्पष्ट. माप्नोति पूतं, तत्सज्ञानं विगलितमलं नानदानेन महँ. ॥ दाता भोका बहुधनयुतः सर्वसत्वानुकम्पी, सत्सौभाग्यो मधुरवचनः कामरूपातिशायी; शश्वद्भक्त्या बुधजनगतैः सेवनीयाड्रियुग्मो; मर्त्यः प्राज्ञो व्यपगतमदो जायतेऽन्नस्य दानात् ॥ रोगैर्वातप्रमृतिजनितैर्वन्हिमिम्वुिमन ,साजीणव्यथनपटुमिर्वाधितुं नो स शक्य । आजन्मान्त परमसुखिना जायते चौपधाना, दाता यो निर्भरकुलवपु स्थानकान्तिप्रताप ॥ दत्वा दानं जिनमतरुचि. कर्मनिर्नाशनाय, भुक्त्वा भोगांत्रिदशवसती दिव्यनारीसनाथः मावासे वरकुलवपुजैनधर्म विधाय, हत्वा कर्म स्थिरतररिपुं मुक्रिसौख्यं प्रयाति.॥
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
११३
यतः
"यथा मम प्रियाः प्राणास्तथाऽन्यस्यापि देहिनः ।।
इति मत्वा न कर्तव्यो, घोरप्राणिवधो बुधैः ॥" अन्यच्च--
"अहिंसा परमो धर्मो, हिंसा सर्वत्र निन्दिता" इति श्लोकमर्धमभ्यस्य खमनसि सदैव दयैव धारणीया, यदि कोऽपि लोभावेशेन रसनातृप्तये धनार्जनाशया विजयाभिलाषेण च आमोदप्रमोदार्थ जन्तून्निहन्यात्तदा तेषां नरकपतनमवश्यं भावि । पातञ्जलयोगदर्शनादावपि चाहिंसायामेव प्रमुखत्वम् , यथाह- '
"अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः" । अहिंसा-सत्यमित्यादियमास्तेषां मध्येऽहिंसैव प्राथमिकी; पुनश्च
"वितर्कवाधने प्रतिपक्षभावनम्" । वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभक्रोधमोहपूर्वका मृदुमध्याधिमात्रा दुःखाज्ञानानन्तफला इति प्रतिपक्षमावनम् ।
तथा चान्यदपि
"अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधाने वैरत्यागः । तद्विपक्षिणी हिंसा तस्य लक्षणं यथा--
"प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा" प्रमत्तो यः कायवाझ्मनोयोगैः प्राणन्यपरोपणं करोति सा हिंसा । हिंसा, मारणं, प्राणांतिपातः, प्राणवघो, देहान्तरसंक्रामणं, प्राणन्यपरोपपणमित्यनर्थान्तरम् । न हिंसाऽहिंसों । इति तत्वार्थसूत्रम्, तथा च योगसूत्रस्य व्यासकृतभाष्येऽपि 'तत्राऽहिंसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामभिद्रोहः।' .
.. ...
वीर. ८
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
per .
१.१४
वीरस्तुतिः ।
तथैव याज्ञवल्क्यसंहितायाम् - "कर्म्मणा मनसा वाचा, सर्वभूतेषु सर्वदा, अक्लेशजननं प्रोक्तमहिंसत्वेन योगिभिः । " तस्यां स्मृतावाचाराध्याये -
"अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । - दानं दया दमः शान्तिः, सर्वेषां धर्मसाधनम् ॥
r
" मा हिंसी स्तृतीयमत्रः ।
न
पुरुषं जगदिति" यजुर्वेदसंहितायां षोडशोऽध्याय
- पुनश्च मनुः-
" धृतिः क्षमा दमोsस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । अहिंसा सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम् ||" 1 तथा च महाभारते -
मा हिंस्यात् सर्वाभूतानीति 'शतपथे' । तथा च मनुः - पंचमाध्याये
"योऽहिंसकानि भूतानि, हिनस्त्यात्महितेच्छया, स जीवश्च मृतश्चैव, न क्वचित्सुखमेधते " ॥ ४५ ॥
६
"अहिंसा परमो धर्मो हिंसाऽधर्मस्तथाविधः । सत्यं तेऽहं प्रवक्ष्यामि, यो धर्मः सत्यवादिनाम् ॥”
.. धर्मिंजनानामुत्कृष्टं प्राथमिकं धर्मन्त्वहिंसैवेति यथा "अहिंसा परमो धर्मस्तथा ऽहिंसा परो दमः ।
et
1
अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः ॥" "अहिंसा परमो यज्ञस्तथाऽहिंसा परं फलम् ।
अहिंसा परमं मित्रमहिंसा परमं सुखम् ||"
f
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ११५ "सर्वयज्ञेषु वा दानं, सर्वतीर्थेषु चा स्तुतम् । . . . . .
सर्वदानफलं वापि, नैव तुल्यमहिंसया ॥" . . . तथाहि नियमसारे.- ,
: कुलजोणिजीवमग्गण-ठाणाइसु जाणऊण जीवाणं। तस्सारंपनियतणपरिणामो होइ पढमवदं ॥ ५६॥
कुलयोनिजीवमार्गणास्थानेषु ज्ञात्वा जीवानाम् । । तस्यारंभनिवृत्तिपरिणामो भवति प्रथमव्रतम् ॥ ५६ ॥ ___ कुलविकल्पो योनिविकल्पश्च जीवमार्गणस्थानविकल्पाश्च प्रागेव प्रतिपादितास्तत्रैव तेषां मेदान् बुध्वा तद्रक्षापरिणतिरेव भवत्यहिंसा । तेषां मृतिर्भवतु वा न वा, प्रयत्नपरिणाममन्तरेण सावद्यपरिहारो नास्ति । अतः प्रयलपरेऽहिंसाव्रतं भवतीति। . तथा चोक्तं श्रीसमन्तभद्रस्वामिना
"अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परम, . न सा तत्रारम्भोऽस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ ।
ततस्तत्सिद्ध्यर्थ परमकरुणो ग्रन्थमुभयं,
भवानेवात्याक्षीन्न हि विकृतिवेषोपधिरतः ॥" मुनीनामहिंसा सर्वथा पालनीया-हिंसायाः फलं दुष्परिप्णासात्मकं परिजानीहि यथा
"पंगुकुष्ठिकुणित्वादि, दृष्ट्वा हिंसाफलं सुधीः ।। निरागस्त्रसजन्तूनां, हिंसां संकल्पतस्त्यजेत् ॥' ; "आत्मवत्सर्वभूतेषु, सुखदुःखे प्रियाप्रिये, चिन्तयनात्मनोऽनिष्टां, हिंसामन्यस्य नाचरेत् ।"
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
११६ । वीरस्तुतिः।...यदाहुलौकिका अपि । , , .... , "श्रूयतां धर्मसर्वस्वं, श्रुत्वा चैवावधार्यताम् ।
आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत् ॥” : .. राज्यादधिक प्राणा: प्रियाः। यथा,"प्राणी प्राणितलोमेन, यो राज्यमपि मुश्चति । तद्वधोत्थमघं सर्वोदिानेऽपि न शाम्यति ॥" - fमार्यमाणस्य- हेमाद्रि, राज्यं वाऽथ प्रयच्छतु ।, तदनिष्टं परित्यज्य, जीवो जीवितुमिच्छति ॥" दीर्यमाणः कुशेनापि, यः खांगे हन्त दूयते ।
निर्मन्तून् स कथं जन्तुनन्तयेन्निशितायुधैः ।।" तथोक्तं"स्सातलं यातु यदन पौरुषं, क नीतिरेषाऽशरणो ह्यदोषवान् ; निहन्यते यद्वालिनातिदुर्बलो, हहा महाकष्टमराजकं जगत् ।।" पुनश्च-"म्रियखेत्युच्यमानोऽपि, देही भवति दुःखितः ।
मार्यमाणः प्रहरणैर्दारुणैः स कथं भवेत् ॥" पुनरपि हिंसकानिन्दति
"कुणिर्वरं वरं पंगुरशरीरी वरं पुमान् । ..' अपि सम्पूर्णसागो, न तु हिंसा परायणः ॥" स्वार्थिकी हिंसापि हानीया, यथा"हिंसा विघ्नाय जायेत, विघ्नशान्त्यै कृतापि हि। कुलाचारधियाऽप्येषा, कृता कुलविनाशिनी ॥" "अपि वंशक्रमायाता, यस्तु हिंसां परित्यजेत् । सं श्रेष्ठः सुलस इव, कालसौकरिकात्मजः ॥"
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ११७ ॥ हिंसां कुर्वन विशोधयंति निजात्मानम् ॥ "दमो देवगुरूपास्तिनमध्ययनं तपः। - - . * सर्वमप्येतदफलं, हिसां चेन्न परित्यजेत् ॥" : ॥शास्त्रे सूक्ष्महिंसां धर्मार्थ प्ररूपकोऽपि कुशास्त्रः॥
"विश्वस्तो मुग्धधीर्लोकः, पात्यते नरकावनौ । '. अहो नृशंसर्लोभान्धैर्हिसाशास्त्रोपदेशकैः ॥" । अहिंसामाहात्म्यम्- : "मातेव सर्वभूतानामहिंसा हितकारिणीः। ' अहिंसैव हि संसारमरावमृतसारिणिः ॥" ।। ... "अहिंसा दुःखदावाग्निप्रावृषेण्यघनावली ।। .:: भवनमिरुगार्तानामहिंसा परमौषधिः ॥" • अस्याः फलम् 4. "दीर्घमायुः परं रूपमारोग्यं श्लाघनीयता। .: । अहिंसायाः फलं सर्व, किमन्यत्कामदैव सा ॥", ' अत्रान्तरे- . . . . . . . . T, हेमाद्रिः पर्वतानां हरिरमृतमुजां चक्रवर्ती नराणां, 73 " शीतांशुज्योतिषां खस्तरुरवनिरुहां चण्डरोचिर्पहाणाम् ॥ ....
सिन्धुस्तोयाशयानां जिनपतिरसुरामर्त्यमाधिपानां,..... .: यद्वत्तद्वद्वतानामधिपतिपदवीं यात्यहिसा किमन्यत् ॥ . .
. .अत एवं प्राणवियोगानुकूलो व्यापारो हिंसा सर्वशास्त्रे निषिः छैन । जैनैरपि प्राणिनामतिपातो.दुःखं प्राणातिपातो विरतिरूपः सर्वतः साधूनां, देशतः श्रावकाणां चेति भावः । जीवानां जीवनवल्लमत्वाযথাঃ
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
"वीरस्तुतिः ।
}
" दीयते म्रियमाणस्य, कोटिर्जीवितमेव वा, धनकोटिं परित्यज्य, जीवो जीवितुमिच्छति ॥" अत्राभर्यदानप्रदानप्राधान्यख्यापनार्थमुदाहरणं चेदम् । बसन्तपुरेऽरिदमननामा राजाऽऽसीत् स कदाचित्प्रासादस्त्रो हि चतुर्वधूसमेतश्च क्रीडति स्म । ताभिरपि स्वखर्कलाभिर्महीप प्रमोदयित्वा वरो लब्धः । पुनश्च राज्ञीभी राज्ञि स वरो न्यासीकृतः । एकदा कश्चिच्चौरो रक्तश्यामकरवीरकृतमुण्डमालो रक्तपरिधानः प्रहतवध्यडिण्डिमो राजमार्गेण नीयमानः राजपत्नीभिर्दृष्टो नृपेण सह दृष्ट्ा च पृष्टं, 'किमनेनाकारी' ति, तदैकेन राजपुरुषेणावेदितं यथानेन परद्रव्याद्यपहारेण राजविरुद्धं धर्मविरुद्धं च कर्म कृतं तस्य परिणामस्वरूपो राज्ञा प्राणदण्डो दत्तश्चास्ते, ततस्तन्मध्य एकया महत्या राज्ञ्या नृपपार्श्वे पूर्वदत्तो वरो याचित एकदिनं चोरोऽयं मोच्यो, यथाऽहमुपकरोमीति । वरं प्राप्य च भोजनादिना स्वागतं कृत्वा खर्णखण्डसहस्रदानैस्तुष्टीकृतः सः । द्वितीयदिने द्वितीयया लक्षघनैः सत्कृतः । तृतीयया कोटिमितैः खागतीकृतः । चतुर्थ्या तु राजानुमत्याऽऽमरणाद्रक्षितः । अभयंवचनं दापितमभयदानेन ततस्तांस्तामुपहस्याहुः । त्वयास्य किं दत्तम् । तयोक्तं मया यद्दत्तं तत्काभिरपि न दत्तं । एवं तासां पारस्परिकेऽधिकोपकारविषये विवादे न्यायार्थं राजाऽऽकारितस्ततो राज्ञोपगम्यः कलहकारणं पृष्टं तदा तामिरावेदितं, अस्माकं मध्ये केनाधिकमुपकृतम् । राज्ञा स एव चोर आहूतः पृष्टश्चेति यथा त्वया - कस्या उपकारोऽमानितः । तेनाऽमाणि, 'चतुर्थ्यामात्राऽभयं दापयित्वा निर्भयः कृतः । अतस्तस्या : बहूपकारं मन्ये, सर्वदानानां मध्येऽमयदानस्यप्रधानत्वात् ।
११८
क
+
}
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
११९
तथा च सत्येषु वाक्येषु यदनवा पापरहितं परपीडाऽनुत्पादकं वचनं तच्छेष्ठं वदन्ति । यथाह दशवैकालिके-- . .
"तहेव काणं काणेति, पंडगं पंडगं ति वा
वाहियं वावि रोगित्ति; तेण चोरेति नो वए।" तथा च मनुः।
“सत्यं ब्रूयात्मियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियम् ।
प्रियं तन्नानृतं ब्रूयादिति"। एवमेव तत्वार्थसूत्रे__असदभिधानमनृतम् ॥ ९ ॥ ७ ॥
असदिति सद्भावप्रतिषेधोऽर्थान्तरं गर्दा च। तत्र सद्भावप्रतिषेधो नाम . सद्भूतनिन्हवोऽभूतोद्भावनं च । तद्यथा नास्त्यात्मा, नास्तिपरलोकः, इत्यादि भूतनिन्हवः । श्यामाकतण्डुलमानोऽयमात्मा अंगुष्ठपर्वमानोऽयमात्मा, आदित्यवर्णो, निष्क्रिय इत्येवमाद्यमभूतोदावनम् । अर्थान्तरं यो गां ब्रवीत्यश्वमश्वं च गामिति । गति हिंसापारुष्यपैशुन्यादियुक्तं वचः सत्यमपि गर्हितमनृतमेवास्तीति भावः ।
एतन्मध्य एतत्प्रमाणानि-यथा
"क्रोधलोभमदद्वेषरागमोहादि कारणैः, असत्यस्य परित्यागः सत्याणुव्रतमुच्यते ।" "हासकर्कशपैशुन्यनिष्ठुरादिवचो मुचः । द्वितीयाणुव्रतं पूतं, लमंते देहिनः स्थितिम् ॥". । । "यद्वदन्ति शठा धर्म, यन्म्लेच्छेप्वपि निन्दितम् ।
( वर्जनीयं त्रिधा वाक्यमसत्यं तद्धितोद्यतैः-॥" पुनर्यत्रासत्यप्रसंगः समजनि तत्र मौनं कार्य परमसत्यं न वाच्यं, यथा हि सागारधर्मामृते--- - :
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
१.२४ वीरस्तुतिः।., "आवश्यके मलक्षेपे, पापकार्ये च वान्तिवत् , ,
मौनं कुर्वीत शश्वद्वा, भूयो वाग्दोषविच्छिदे ।" - .. मौनमाहात्म्यं यथा-. . . . . . "सन्तोषं भाव्यते तेन, वैराग्यं तेन दयते । संयमः पोप्यते तेन, मौनं येन विधीयते ॥" ," . "लौल्यत्यागात्तपोवृद्धिरभिमानस्य रक्षणम् । ततश्च समवाप्नोति, मनः सिद्धिं जगत्रये ॥" "वाणी मनोरमा तस्य, शास्त्रसन्दर्भगर्मिता
आदेया जायते येन, क्रियते मौनमुजवलम् ॥" "पदानि यानि विद्यन्ते, वन्दनीयानि कोविदः । सर्वाणि तानि लभ्यन्ते, प्राणिना मौनकारिणा ॥" "न सार्वकालिके मौने, निर्वाहव्यतिरेकतः। ,
उद्योतनं परं प्राज्ञैः, किंचनापि विधीयते ॥" सत्याणुव्रतरक्षणार्थमाह
"कन्यागोक्ष्मालीककूटसाक्ष्यन्यासापलापवत् । : - स्यात्सत्याणुव्रती सत्यमपि खान्यापदे त्यजन् ॥" · नियमसारेऽप्येवम्-
: "रागेण वा दोसेण वा मोहेण वा मोसभासऽपरिणाम । -
जो पजहहि साहु सया विदियवयं होइ तस्सेव" ।। ५७ ।।
( रागेण वा द्वेषेण चा मृषाभाषा परिणामं । । । : 1 यः प्रजहाति साधुः सदा द्वितीयव्रतं भवति तस्यैव ।
अत्र मृषापरिणामः सत्यप्रतिपक्षः, स च रागेण वा द्वेषेण वा
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता १२१ मोहेन वा जायते तदा यः साधुः आसन्नभव्यजीवस्तं परिणाम परित्यजति तस्यैव द्वितीयं व्रतं भवतीति । "व्यक्तिव्यक्तं सत्यमुच्चै पन् यः । वर्गस्त्रीणां भूरिमोगैकभाक् स्यात् ।। अस्मिन् पूज्यः सर्वदा सर्वसद्भिः, सत्यात्सत्यं चान्यदस्ति व्रतं किम् ॥" अलीकफलमुपदर्शयति यथा"मन्मनत्वं काहलत्वं, मूकत्वं मुखरोगिताम् । वीक्ष्यासत्यफलं कन्यालीकाद्यसत्यमुत्सृजेत् ॥" . "मूकाजडाश्च विकला, वाग्धीना वाम्जुगुप्सिताः।
पूतिगन्धमुखाश्चैव, जायन्तेऽनृतभाषिणः ॥" पुनश्च प्रतिषेधमाह- . .
"सर्वलोकविरुद्धं यद्यद्विश्वसितघातकम् ।
यद्विपक्षश्च पुण्यस्य, न वदेत्तदसूनृतम् ॥" पुनश्च"असत्यतो लघीयस्त्वमसत्याद्वचनीयता ।
अधोगतिरसत्याच्च, तदसत्यं परित्यजेत् ॥" .. "असत्यवचनं प्राज्ञः, प्रमादेनापि नो वदेत् ।
श्रेयांसि येन भज्यन्ते, वात्ययेव महाद्रुमाः॥" ॥ यदाहुमहर्षयः सय्यम्भवाः, दशबैकालिके । "अइअम्मि य कालम्मि, पचुप्पण्णमणागए, .. ", जमलु तु न जाणेज्जा, एवमेअं ति णो वए।" (अतीते च काले, प्रत्युत्पन्नमनागते, यमर्थ तु न जानीयात् , 'एवमेतत् इति नो वदेत् ।)
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२२
.
वीरस्ततिः।
.. - '
', "अइअम्मि य कालम्मि, प्पचुप्पण्णमणागए।
जत्थ संका भवे तं तु, एवमेति णो वए।" . "अतीते च काले, प्रत्युत्पन्नमनागते, ॥ . . . .
यत्र शंका भवेत्तत्तु, 'एवमेतत्' इति नो वदेत् ॥" (अइअम्मि य कालम्मि, प्पचुप्पन्नमणागए । ' निस्संकिअं भवे जं तु, एवमेकं तु निदिसे।। . , "अतीते च काले, प्रत्युत्पन्नमनागते ॥
निश्शंकितं भवेद्यत्तु, 'एवमेतत् तु निर्दिशेत् ॥", पुनरप्यहिकान् दोषानाह"असत्यवचनाद्वैरविषादाप्रत्ययादयः। प्रादुःषन्ति न के दोषाः, कुपथ्यायाधयो यथा ।" "निगोदेष्वपि तिर्यक्षु, तथा नरकवासिषु ।।
उत्पद्यन्ते मृषावादप्रसादेन शरीरिणः ॥" "अल्पादपि मृषावादाद्रौरवादिषु संभवः ।
अन्यथा वदंतां जैनी, वाचं त्वहह का गतिः ॥" "ज्ञानचारित्रयोर्मूलं, सत्यमेव वदन्ति ये।
धात्री पवित्री क्रियते, तेषां चरणरेणुभिः ॥" "अलीकं ये न भाषन्ते, सत्यव्रतमहाधनाः। 'नापराद्धूमलं तेभ्यो, भूतप्रेतोरगादयः ॥", .. "शिखी मुण्डी जटी नमश्चीवरी यस्तपस्यति । । सोऽपि मिथ्या यदि जूते, निन्द्यः स्यादन्त्यजादपि ॥" "एकत्रासत्यजं पापं, पापं निश्शेषमन्यतः । । द्वयोस्तुलाविधृतयोराधमेवातिरिच्यते ॥",
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका - हिन्दी - गुर्जर भाषान्तरसहिता
“पारदारिकदस्यूनामस्ति काचित्प्रतिक्रिया । असत्यवादिनः पुंसः, प्रतीकारो न विद्यते ॥" "कुर्वन्ति देवा अपि पक्षपातं, नरेश्वराः शासनमुद्वहन्ति । शीती भवन्ति ज्वलनादयो यत्तत् सत्यवाचां फलमामनन्ति ॥ " तथा च ज्ञानार्णवेऽप्याह
3
“र्यः संयमधुरां घत्ते, धैर्यमालम्ब्य संयमी,
स पालयति यन, वाग्वने सत्यपादपम् ।” "अहिंसात्रतरक्षार्थं, यमजातं जनैर्मतम् । नारोहति परां कोटिं, तदेवासत्यदूषितम् ॥” “ असत्यमपि तत्सत्यं, यत्सत्वाशंसकं वचः । सावद्यं यच्च पुष्णाति, तत्सत्यमपि निन्दितम् ॥” "अनेकजन्मक्लेशानां, शुद्ध्यर्थं यस्तपस्यति ।
सर्व सत्वहितं शश्वत्स ब्रूते सूनृतं वचः ॥" “सूनृतं करुणाक्रान्तमविरुद्धमनाकुलम् ।
अग्राम्यं गौरवाश्लिष्टं वचः शास्त्रे प्रशस्यते ॥ | " "मौनमेव हितं पुंसां, शश्वत्सर्वार्थसिद्धये ।
. वचो वाचि प्रियं तथ्यं, सर्वसत्वोपकारि यत् ॥" “असद्वदनवल्मीके, विशाला विषसर्पिणी, : उद्देजयति वागेव, जगदन्तर्विषोल्वणा ॥" "पृष्टैरपि न वक्तव्यं, न श्रोतव्यं कथंचन । "वचः शंकाकुलं पापं, दोषांट्यं चाभिसूयकम् ॥" “मर्मच्छेदि मनःशल्यं, च्युतस्थैर्यं विरोधकम् । निर्दयं च वचस्त्याज्यं, प्राणैः कण्ठगतैरपि ॥
1
3
१२३
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२४
___...
वीरस्तुतिः।
---
"धर्मनाशे क्रियाध्वंसे, सुसिद्धान्तार्थविप्लवे ।
अपृष्टैरपि वक्तव्यं, तत्खरूपप्रकाशने ॥" . ., , • "या मुहुर्मोहयत्येव, विश्रान्ता कर्णयोर्जनम् । " विषमं विषमुत्सृज्य, साऽवश्यं पन्नगी न गीः ॥" :
"न तथा चन्दनं चन्द्रो, मणयो मालतीलजः।।
कुर्वन्ति निर्वृतिं पुंसां, यथा वाणी श्रुतिप्रिया-" , "अपि दावानलप्लुष्टं, शाडलं जायते वनम् । - .. न लोकः सुचिरेणापि, जिह्वानलकदर्थितः ॥", । "सतां विज्ञाततत्वानां, सत्यशीलावलम्बिनाम् ।
चरणस्पर्शमात्रेण, विशुद्ध्यति धरातलम् ॥", . "नृजन्मन्यपि यः सत्यप्रतिज्ञाप्रच्युतोऽधमः। - --
स केन कर्मणा पश्चाजन्मपकाचरिष्यति ॥ "खण्डितानां विरूपाणां, दुर्विधानां च रोगिणाम् ।
कुलजात्यादिहीनानां, सत्यमेक विभूषणम् ॥" . . "न 'हि खप्नेऽपि संसर्गमसत्यमलिनैः सह।..
कश्चित्करोति पुण्यात्मा, दुरितोल्मुकशंकया 1 ) "सुतखजनदारादिवित्तबन्धुकृतेऽथवा । -
आत्मार्थे न वचोऽसत्य, वाच्यं प्राणात्ययेऽपि च ॥" इत्यादिप्रमाणैः सत्यमनवयं पापरहितमेव श्रेष्ठम् ॥
(अर्थ ब्रह्मचर्यमाह-):... ' तपस्सु चेच्छाया निरोधव्यापारेषु द्वादशप्रकारेषु मध्ये, यथैवोत्तम नवविधब्रह्मचर्यगुप्त्युपेतं ब्रह्मचर्य प्रधानं भवति । कमनीयकामिनीमनोहराङ्गानिरीक्षणद्वारेण समुपजनितकौतूहलचित्तवान्छापरित्यागेनाथवा
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता खवेदोदयामिधाननोकषायतीव्रोदयेन संजातमैथुनसंज्ञापरित्यागलक्षणशुभपरिणामेन च ब्रह्मचर्य्य श्रेष्ठं भवति सर्वेषु तपस्विति भावः ।
आह च- . "भवति तनुविभूतिः कामिनीनां विभूति, स्मरसि मनसि कामिस्त्वं तदा मद्वचः किम् : सहजपरमतत्वं खस्वरूपं विहाय ब्रजसि विपुलमोहं हेतुना केन चित्तम् ।"
॥ अब्रह्म दोषा यथा-|| "सन्तापरूपो मोहांगसादतृष्णानुबन्धकृत् ।
स्त्रीसम्भोगस्तथाप्येष, सुखं चेत्का ज्वरेऽक्षमा ॥" ॥ परदाररतौ सुखाभावः, अनायुष्यकारित्वं च ॥ यथा"न हीदृशमनायुष्यं, लोके किञ्चन विद्यते ।
यादृशं पुरुषस्येह, परदाराभिमर्शनम् ॥" अथ ब्रह्मचर्यमाहात्म्यमाह"खस्त्रीमात्रेऽपि सन्तुष्टो, नेच्छेद्योऽन्याः स्त्रियः सदा । सोऽप्यद्भुतप्रभावः स्यात्किं वयं वर्णिनः पुनः ॥" ॥ ब्रह्मचारिणी सती दृष्टान्तेन स्पष्टयति-॥ "रूपैश्वर्यकलावर्य्यमपि सीतेव रावणम् ।
परपूरुषमुज्झन्ती, स्त्री सुरैरपि पूज्यते ॥" अन्यच्च तत्वार्थस्त्रे--- -
। स्त्रीमैथुनमब्रह्म-॥११-७ स्त्रीपुंसयोमिथुनभायो मिथुनकर्म वा मैथुनं, . . तदब्रह्म-- . .. . .
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
१२६ । वीरस्तुतिः। . ...
अन्यच्चापि.- . : "मातृखेसूसुतातुल्या, निरीक्ष्य परयोषितः ।
खकलत्रेण यस्तोषश्चतुर्थ तद्णुव्रतम् ॥" , "दुःखानां निधिरन्यस्त्री, सुखानां प्रलयानलः। व्याधिवदुःखवत्त्याज्या, दूरतः सा नरोत्तमैः ॥” . "स्वभर्तारं परित्यज्य, या परं याति निस्त्रपा। .. विश्वासं श्रयते तस्यां, कथमन्यः खयोषिति ॥" "किं सुखं लभते मर्त्यः सेवमानः परस्त्रियम् । . केवलं कर्म बध्नाति, श्वभ्रभूम्यादिकारणम् ।।" -
. यत:
"विन्दन्ति परमं ब्रह्म, यत्समालम्ब्य योगिनः। .
तगतं ब्रह्मचर्य स्याद्धीरधौरेयगोचरम् ॥" . __ "एकमेव व्रत श्लाध्य, ब्रह्मचर्य जगत्रये ।।
यद्विशुद्धिं समापन्नाः पूज्यन्ते पूजितैरपि ॥" तन्मते दशधा मैथुनम्"आद्यं शरीरसंस्कारो, द्वितीयं वृष्यसेवनम् , . तौर्यत्रिकं तृतीयं स्यात् , संसर्गस्तुर्यमिष्यते । योषिद्विषयसंकल्पः, पञ्चमं परिकीर्तितम् । । तदंगवीक्षणं षष्ठं, संस्कारः सप्तमं मतम् ॥" "पूर्वानुभोगसम्भोगस्मरणं स्यात्तदष्टमम् । ' नवमं भाविनीचिन्ता, दशमं वस्तिमोक्षणम् ॥" "किम्पाकफलसंभोगसन्निमं तद्धि मैथुनम् । आपातमात्ररम्यं स्याद्विपाकेऽत्यन्तमीतिदम्॥" ।
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
१२७
"विरज्य कामभोगेषु, ये ब्रह्म समुपासते ।
एते दश महा दोषास्तैस्त्याज्या भावशुद्धये ॥ . . . "सिक्तोऽप्यम्बुधरवातैः, प्लावितोऽप्यम्बुराशिमिः । . '
न हि त्यजति सन्तापं, कामवहिप्रदीपितः ॥", : "मूले ज्येष्ठस्य मध्याहे, व्यञ नभसि भास्करः ।
न प्लोषति तथा लोकं, यथा दीप्तः स्मरानलः ।" ! "हृदि ज्वलति, कामामिः, पूर्वमेव शरीरिणाम् ।
भस्मसात्कुरुते पश्चादंगोपाझानि निर्दयः ॥" मोगिदंष्टस्य जायन्ते, वेगाः सप्तव देहिनः ।
"सरभोगीन्द्रदंष्टानां दश स्युस्त भयानकाः ॥" । इमे ते दश-यथा-.
. "प्रथमे जायते चिन्ता, द्वितीये द्रष्टुमिच्छति ।
तृतीये दीर्घनिश्वासाश्चतुर्थे भजते ज्वरम् ॥" । "पंचमे दह्यते गात्रं, षष्ठे भक्तं न रोचते । सप्तमे स्यान्महामूर्छा, उन्मत्तत्वमथाष्टमे ॥" .. .
"नवमे प्राणसन्देहो, दशमे मुच्यतेऽसुमिः। ५ - एतेर्वर्गः समाक्रान्तो, जीवस्तत्वं न पश्यति ॥" .
"नासने शयने याने, खजने भोजने स्थितिम् । ।
क्षणमात्रमपि प्राणी, प्राप्नोति सरशल्यतः ॥" - "दक्षो मूढः क्षमी क्षुद्रः, शूरो, मीरुलघुर्गुरुः ।
तीक्ष्णः कुण्ठो वशी भ्रष्टो, जनः स्यात्स्मरवंचितः ॥" "यदि प्राप्तं त्वया मूढ !, नृत्वं जन्मोग्रसंक्रमात् ।। तदा तत्कुरु येनेय, सरज्वाला विलीयते ॥". . .
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२.
वीरस्तुतिः ।'' इदानीमामुष्मिकमैहिकं चाब्रह्मफलमुपदय गृहस्थोचित पुनरपि ब्रह्मचर्यव्रतमाह; . . , , , , ,
"षण्ढ़त्वमिन्द्रियच्छेदं, वीक्ष्याऽब्रह्मफलं सुधीः ।।
भवेत्स्वदारसन्तुष्टोऽन्यदारान् वा विवर्जयेत् ॥, "रम्यमापातमात्रे यत्परिणामेऽतिदारुणम् । किंम्पाकफलसंकाशं, तत्कः सेवेत मैथुनम् ॥", .. "यद्यपि निषेव्यमाणा, मनसः परितुष्टिकारका विषयाः। किम्पाकफलादनवद्भवन्ति पश्चादतिदुरन्ताः ॥", "कम्पः खेदः श्रमो, मूर्छा, प्रमिानिर्बलक्षयः ।, राजयक्ष्मादिरोगाश्च, भवेयुमैथुनोत्थिताः ॥१ , “योनियन्त्रसमुत्पन्नाः, सुसूक्ष्मा जन्तुराशयः। पीड्यमाना विपद्यन्ते, यत्र तन्मैथुनं त्यजेत् ।।" १.
योनौ जन्तुसद्भावं वात्स्यायनः कामशास्त्रकारोऽप्याह । वात्स्यायनश्लोको यथा- , ..
"रक्तजाः कृमयः सूक्ष्मा, मृदुमध्याधिशक्तयः ।,
जन्मवर्त्मसु कण्डूति, जनयन्ति तथाविधाम् ॥" , कामज्वरचिकित्सार्थमौषधमिव मैथुनसेवनमिति यो मन्येत तं प्रत्याह-, , , , .
"स्त्रीसम्मोगेन यः कामज्वरं प्रतिचिकीर्षति ।
स हुताशं घृताहुत्या, विध्यापयितुमिच्छति ।।" . इतर अप्याहु:"न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । . ) हविषा कृष्णवर्मेव, भूय एवामिवर्धते ॥" , .
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता १२९ ॥ स्त्रियाऽपि परपुरुषो भुजग इव त्याज्यः॥
"ऐश्वर्ये राजराजोऽपि रूपे मीनध्वजोऽपि यः। . सीतया रावण इव, त्याज्यो ना- नरः परः ॥" पुनश्च-"प्राणभूतं चरित्रस्य, परब्रह्मैककारणम् ।
समाचरन् ब्रह्मचर्य, पूजितैरपि पूज्यते ॥" यतः-"चिरायुषः सुसंस्थाना, दृढसंहनना नराः।
तेजखिनो महावीर्य्या, भवेयुर्ब्रह्मचर्य्यतः ॥" एतैर्ज्ञायते ब्रह्मचर्यमाहात्म्यम् ॥ तथैव सर्वलोकोत्तमरूपसम्पदा सर्वातिशायिन्या क्षायकज्ञानदर्शनशीलातपुत्रो ज्ञातनन्दनोऽन्तिमजिनः श्रमणः प्रधानः॥ यतो भगवतो महावीरस्य बहूनि नामानि सन्ति । यथा___“समणे भगवं महावीरे नाते, नातपुत्ते, नातकुलनिवत्ते, विदेहदिन्ने, विदेहजच्चे, समणे भगवं महावीरे, कासवगोत्ते, अम्मा. पियुसतिए वड्डमाणे, सह सम्मुदिए समणे, भीमभयमेरवं ओरालं अचेलयं परिसहं सहइत्तिक? देवेहिं से नाम कयं समणे भगवं महावीरे ॥ श्रीआचारागसूत्रम्-११, १५, १६-१७ "एवं से उदाहु अणुत्तरनाणी, अणुत्तरदंसी अणुत्वरणाणदेसणधरे अरहा णायपुत्ते भगवं, वेसालिए वियाहिए"।
(श्री सूयगडांगसूत्रम् १-२)..' , भगवतो महावीरस्य ज्ञातवंशो यथाऽऽह सिद्धान्ते । -- "छबिहा कुलारिया मणुस्सा प० तं० उग्गा, मोगा, राइण्णा,
इक्खागा, णाता, कोरबा" || , - (श्री. ठाणांग सूत्रम् ४९७)
वीर. ९
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३० : वीरस्तुतिः। ..
“जात्यार्थ्या, इक्ष्वाकवो, विदेहा, हरयोऽम्वाष्ठा, ज्ञाताः कुरवो, वुवुनाला, उग्रा, भोगा, राजन्या इत्येवमादयः क्षत्रिया आर्यकुलोद्भवाः" ।।
'.. . .. (तत्त्वार्थसूत्रम् ३-१५) ज्ञातखण्डोद्यानोऽपि ज्ञातवंशस्य परिचयमादत्ते, यथा--! .
"वहिया ये 'णायसंडे आपुच्छिताण णायए सबे।। दिवसे मुहत्तसेसे कमाणामं समणुपत्तो ।।..---
। (आवश्यकचूर्णि पृ० २६७) पुनश्च- .
. . .. • “उत्तरखत्तियकुण्डपुरसंनिवेसस्स मज्झेणं निगच्छत्ति र ता जेणेव *णायसंडे' उजाणे तेणे व उवागच्छइ............महावीरे लोयं करेइ ।" (श्री आचारांगसूत्रः२-१५-८०) । श्रीहेमचन्द्राचार्योऽपि परिशिष्टपर्वणि ज्ञातनन्दनमिति शब्दप्रयोग कृत्वा प्रणमस्करोति, यथा
- कल्याणपादपाराम, श्रुतगंगाहिमाचलम् , . ... 'विश्वाम्भोजरविं देवं, वन्दे श्रीज्ञातनन्दम् ॥ , इत्यादिप्रमाणैर्भगवान् महावीरो ज्ञातवंशमलंकृतवान् । ' अन्वयार्थ जैसे [ दाणाण ] दान-धर्ममें [अभयप्पयाण ] अमयदान [सेठं] श्रेष्ठ है, [वा] और [सच्चेसु] सत्योंमें [अणवजं ] पाप रहित-दूसरोंको पीडा न देनेवाला सत्य-वचन [वा ] और [तवेसु ] सव तपोंमें [वंभचेरं] ब्रह्मचर्यको [उत्तम ] अच्छा [वयंति ] कहा है, उसी प्रकार [-समणे ] दयालुश्रमण [ णायपुत्ते ] ज्ञातृ-पुत्र-महावीर [ लोगुत्तमे ] लोकमे ] श्रेष्ठ थे ॥ २३ ॥ । भावार्थ-ख परके हितकेलिए किसीवस्तुका निष्काम अर्पण करना दात है, दान अनेक प्रकारका होनेपर भी 'अभयदान' सव दानोंमे उत्तम है,
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता १३१ इसी प्रकार सत्य भी भनेक प्रकारका है, तथापि दूसरेको जिस सत्यसे पीडा न हो ऐसा सत्य-प्रियसत्य उस सत्यसे अच्छा है जिससे दूसरोंको पीडा हो, और सब तपोंमे ब्रह्मचर्य तप सर्वोत्कृष्ट है, उसी प्रकार भगवान् महावीर भी लोकमें सर्वोत्तम थे ॥ २३ ॥
भाषा-टीका-अपनी और औरोंकी उन्नति तथा' भलाई के लिए जो परोपकारकी दृष्टिसे दिया जाय उसे दान कहते हैं । या अपने अधिकारको वस्तुमेंसे हटा कर जिस वस्तु पर किसी अन्यको अधिकार देदेना भी दान कहा जा सकता है। परन्तु यहा तो श्रद्धा और प्रतीति के साथ भक्ति भाव पूर्वक, परि'ग्रहका ममत्व भाव छोडकर कर्मीकी निर्जराके लिए अनुकम्पासे तथा मन, वचन कायकी शुद्धिसे फलकी इच्छा न रख कर दाता जिस पानमें कुछ पवित्र वस्तु देता है उसीका नाम दान है। । : और वह अनदान, औषधदान, ज्ञानदान, अभयदानके मेदसे' चार प्रकारका है। परन्तु उन सवमें प्राणियोंका भय हटा कर उन्हें सर्वथा निर्भय करदेना ही सर्वोत्तम दान अभयदान माना गया है। क्योंकि आत्मामें दश प्राण होने से प्राणी कहलाता है। जीवित रहनेकी इच्छा या जीवित रहना ही इसका खभाव रहनेसे इसकी 'जीव सज्ञा' है। दशप्राण 'द्रव्य'प्राण' हैं और भाव 'प्राण' अनन्त चतुष्टय कहलाते हैं, वास्तवमें यह जीव तीनों कालमें इन्हीं प्राणोंसे जीवित रहता है। अतः सव जीव जीवित रहनेकी इच्छा रखते हैं मरना कोई नहीं चाहता, किसीको मरना अभीष्ट नहीं है। अत जीवित रहनेके अभिलाषुओंको 'समय' दान देकर उनका सब प्रकारसे रक्षण करना मनुष्यका श्रेष्ठतम कर्तव्य है।
कहा भी है कि-"जिस प्रकार मुझे अपने प्राण प्रिय हैं उसी प्रकार अन्य देह धारियोंको भी अपना जीवन प्रिय है। स्वर्गका निवासी इन्द्र और विष्ठेका कीडा, महलमें रहने वाला राजा और झोपडीमें रहने वाला गरीब लकडहारा समान जीवन चाहते हैं। यह समझ कर किसी भी प्राणीके 'मन' नामक प्राणको भी कट न देना चाहिए।" . .
"क्योंकि अहिंसा परम धर्म है, हिंमा सव जगह पर निन्दित की गई है, यह स्वयंको प्रिय न होने के कारण औरों को भी अप्रिय है। क्योंकि अपनी और औरों की मनोदशामें कोई अन्तर नहीं है। अत. चतुर मनुष्य अपने मनमें
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३२
.
वीरस्तुतिः।
सदैव यही भाव रखता है कि किसी भी तरह जगत् के जीवोंका कल्याण मंगल या भलाई करूं, परोपकार में स्वयं लग कर औरों को भी लगानेका प्रयत्न करूं अपनेमें दोषमात्रका लेश तक न रख कर औरों को भी निर्दोष बनानेका सतत प्रयत्न करूं । आत्माके अनन्त सुखसे सुखी वन कर औरों को भी सुख के स्थान पर ले जाऊं
परन्तु यदि कोई प्राणी इन भावोंके विपरीत चल कर लोभ का दास बन कर, जवानकी लालसाके जालमें फँसकर, धन कमानेकी इच्छासे, या लडाईमें विजय पानेकी आशासे, अपने मनको बहलानेकी गरजसे निरपराध और दीन जीवों को मार डालता है, तव इस पाप दोष से दूष्य होकर उस अधम या खार्थी को नरक-(दु.ख) में अवश्य जाना पडता है। इसी सिद्धान्तकी सब प्रकारके महापुरुषोंने रक्षाकी है । सब ने जन्म लेकर इसको उच्चकोटिमें लानेका प्रचार किया है। महर्षि पतंजलि' ने तो इसको ही वडा पद दिया है। पाच यमोंमें जीव रक्षा सबसे पहला यम है। । .
“किसीने क्रोध, लोभ, मोहके वश होकर हिंसा करने, कराने, अनुमोदन करनेको वितर्क कहा है। इस पापका परिणाम उनके मतमें अनन्त दु:ख फल बताया गया है।"
"कहीं अहिंसाकी प्रशंसा यहा तक की गई है की प्राणधारियोंसे वैर भाव तक त्यागदेना चाहिए। साधक तव ही अहिंसाका साधन कर सकता है।" ।
श्रीमदुमाखामीने भी तत्वार्थसूत्रमें यही कहा है कि जो कोई भी जीवं प्रमाद अर्थात् असावधानता युक्त होकर काययोग, वचनयोग और मनोयोगके द्वारा प्राणोंका 'अतिपात' या व्यपरोपण करता है, उसको 'हिंसा' कहते हैं। हिंसाकरना, मारना, प्राणोंका अतिपात-त्याग अथवा वियोग करना, प्राणोंका वध करना, जीव-कायसे अलग करके देहान्तरको सक्रम करा देना, भवान्तर-त्यन्तरको 'पहुंचा देना, और प्राणोंका व्यपरोपण करना, इन सब शब्दोंका एक ही भाव है।
“यदि कोई जीव प्रमादी अर्थात् मद, विषय, कषाय, निद्रा, विक्थाके वश होकर ऐसा कार्य करता है, अपने या परके प्राणोंका व्यपरोपण करनेमें प्रवृत्त होता है, तब वह हिंसक हिंसाके दोषका भागी समझा जाता है। परन्तु प्रमाद छोड कर प्रवृत्ति करनेवालेके शरीरादिके निमित्तसे यदि किसी जीवका वध होजाय
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता १३३ तब वह उस दोषका भागी नहीं समझा जाता । क्योंकि इस लक्षणमें प्रमादका योग मुख्य रूपसे बताया है और अप्रमत्त अवस्थाका नाम 'अहिंसा' है। ___इसके अतिरिक्त योग सूत्रके व्यास कृत भाष्यमें मी अहिंसाका लक्षण गांधते समय उन्होंने बताया है कि सर्वदा सब प्रकारके जीवोंसे कभी द्रोहका न करना 'अहिंसा' है।
याज्ञवल्क्यस्मृतिमें-योगी जनोंने मनवचन काय से किसीको क्लेश न पहुंचाना 'अहिंसा' कहा है।।
____ "अहिंसा, सत्यबोलना, परवस्तुको विना आज्ञा न लेना, आत्माको पवित्र बनाना, इन्द्रियोंका वश करना, दान देना, दया करना, मनो विकारोंके प्रवाहको दमना, शान्त रहना, इन सबको धर्म साधन बताया है।"
___ यजुर्वेद-यहां भी यही उपदेश दिया है कि "हे पुरुष! तू जगत् के किसी भी प्राणीकी हिंसा मत कर "मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे, १८-३ अपनी आखोंसे सवको मित्रकी दृष्टि से देख शत्रुकी सी दृष्टि किसी पर मत डाल।"
मनुका पांचवा अध्याय-"जो मनुष्य अपने कल्याणकी तो इच्छा प्रगट करता है परन्तु प्राण, भूत, जीवोंकी हिंसा कर डालता है, वह जीव अपनी इस जीवित दशामें और मर कर परलोकमें कमी भी सुख न पायगा।" . दशधर्म-"धैर्यरखना, शातिकरना, आत्माको पापसे विरत करना, चोरी न करना, आन्तरिक पवित्रता रखना, इन्द्रियोंको वशमें रखना, सत्य बोलना; क्रोध न करना, अहिंसाका पालन करना, इस प्रकार धर्मके दश लक्षण कहे हैं। जिनमें अहिंसाको भी स्थान प्राप्त है।"
महाभारत-"मैं यह सत्य कहता हूं कि-सत्यवादियोंका धर्म अहिंसा है. और यही सब धाम प्रधान है, तथा हिंसा करना अधर्म और पाप है।"
अहिंसा वचनामृत-"अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा उत्कृष्ट दमन है, महिंसा उत्कृष्ट दान है, अहिंसा प्रधान तप है, अहिंसा परम यज्ञ है, अहिंसा, परम फल है, अहिंसा परम मित्र है, अहिंसा उत्कृष्ट सुख है।"
सब प्रकारके यज्ञोंमें अनेक प्रकारके दान करना, सब तीर्थोमें अनेक स्तुतिएँ गाना, सव दानोंका फल या परिणाम अहिंसासे बढ कर नहीं है । अर्थात् वे कर्म अहिंसाकी पराक्री नहीं कर सक्वे".
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३४
; .' । वीरस्तुतिः ।
, नियमसार-"कुलस्थान, योनिस्थान, जीवसमासस्थान, मार्गणा स्थान इत्यादि मेदोंको भलि भान्ति जान कर जीव रक्षा. करनेके भावको 'अहिंसा कहते है। जीवोंकी मृत्यु होती है या नहीं इस प्रकारके विचारमें लगे हुए परिणामके सुधारके विना पाप हिंसा रूप क्रियाका त्याग होना कठिन है, . अतः इस रक्षाके प्रयत्नमें लगना ‘अहिंसा' है।" , ,
समन्तभद्राचार्य कहते हैं कि-"जगत् में इसे सब जानते है किअहिंसा परब्रह्म स्वरूप है, अर्थात् आत्माकी वीतरागता ही अहिंसा है, जहा वीतरागता है, वहीं आत्मा का शुद्ध स्वरूप है, जिस आश्रमके चरित्रमे अणुसात्र भी आरभ नहीं है वहीं यह पूर्ण अहिंसा प्राप्त होती है। आशय यह है कि आदर्श पुरुषोका सच्चरित्र रूप आचरण ही अहिंसा है, अत अहिंसाकी सिद्धिके लिए ही परम दयालु प्रभुने आरभ और परिग्रहको त्याग दिया। प्रभु विकार शील वेश और परिग्रहमें अनुरक्त नहीं थे। क्योंकि जहा परिग्रहकी आसक्ति नहीं है वहां ही ऊंचे दर्जेका अहिंसा धर्म है। 'जिनधर्म की जय' इसी लिए वोलते हैं कि इसमें पूर्ण 'अहिंसा का पालन किया जाता है। यही त्रस जीवका घात करनेवाले विचारोंको जड मूलसे हटानेका कारण है। तथा 'पंच काय' रूप इकेन्द्रिय स्थावर जीवोंके नाना प्रकारके होनेवाले वधसे वह विलकुल दूर है और वह सुन्दर सुखसे भरपूर समुंद्रके समान अगाध है।" -
"मुनिओंका' कर्तव्य है कि वे सर्वथा अहिंसाका पालन करें, क्योंकि हिंसाका परिणाम दु.खजनक है, जिसे महापुरुषोंने महान् अनुभवसे बताया है। जिनके ये वचनामृत हैं।"
“पैरसे लाचार है, शरीरकी चमडीको फोड कर कोड वाहर टपकने लगा है, हाथ कटे हुए हैं, और भी अनेक रोगोंसे ग्रस्त है। उसे देख कर समझ लेना चाहिए कि उन्हें यह दारुण दु.ख अन्य प्राणियोंकी हिंसा करनेसे भुगतना पड़ा है अतः चतुर -पुरुषका यह कर्तव्य है कि-निरपराधजीवकी संक्ल्पमात्रसे कमी "हिंसा' ने करे ।" , ____ "सुखदु खमें, अच्छे-बुरेम, युक्त अयुक्तमें, अपनी आत्मोकी तरह अन्ये आत्माओंको समझ कर कभी किसीका हिंसा रूप अनिष्ट नकरे .. '
3 'लोकोंकी यह मन्तव्य है कि-"धर्मका सम्पूर्ण अग सुन कर तथा मनमें विवेक रख कर उसका निर्णय पूर्वक यह सार है कि जवे मुझे अपने
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
१३५
प्रतिकूल कुछ अच्छा नहीं प्रतीत होता है, तव औरों को उनके प्रतिकूल आचरण कब इष्ट है।"
"सवको अपने प्राण ही प्रिय हैं, राज्य नहीं"-"प्राणी अपने प्राणोंकी रक्षाके लोभमें राज्य को भी तृणकी तरह छोड देता है। अत एवं किसीके प्राणोंका नाश करनेसे जो पाप होता है वह समस्त पृथ्वी दान कर देनेसे भी दूर नहीं होता।" |
"मरनेवालेकों चाहे राज्य भी प्रदान करो, या सुवर्ण का पहाड अर्पण करदो, परन्तु जीवनके सन्मुख वे वस्तुएँ उसे कुछ भी अच्छी नहीं लगतीं, इसी लिए वह उन सब को छोड कर जीवित रहनेकी 'अपील' करता है।"
पीडा-"जरासा काटा पैर में लग जाता है, मगर वह सारे अगों में भारी पीडा उत्पन्न कर देता है, परन्तु जो निरपराध जीवोंको तीक्ष्ण शस्त्रसे मौतके घाट उतार देता है, उस मरनेवालेके दुखका क्या ठिकाना है। उसे तो अवश्य अनिर्वचनीय वेदना होती है।"
"यह कहा की नीति है जो अशरण, निरपराध, दुर्वल प्राणी वलवान् के द्वारा मारा जाता है, हाय ! हमें तो कष्ट के साथ कहना पडता है कि-जगत् में अराजकता छा गई है, अव यहा न्यायको कहां स्थान रह गया है।"
"यदि कोई किसीके कानोंको यह सुनादे कि तू मरजा! तव सुननेवाला यह सुनते ही काप उठता है, शरीर भयभीत और दुखी हो जाता है । जो पैनें
और कठोर शस्त्रसे किसीको मारने लगता है तब उसकी क्या दशा होती होगी। उसके दुखका अनुभव सिवाय उसके भला और कौन कर सकता है।"
- "हाथका कट जाना अच्छा है, विना पैर रहना भी कुछ बुरा नहीं, मगर सम्पूर्ण शरीरके अगोंको पाकर हिंसा करनेवाला पुरुष सर्वथा निकम्मा है, अर्थात् वह किसी कामका नहीं है।" ' . .
मतलव साधने की हिंसा भी हानिकर है-"विघ्नकी शान्तिके लिए की गई हिंसा भी विघ्नके लिए ही होगी। वहुतसे यह कह डालते है कि हमारे कुलका यही 'आचार' चला आता है, मगर वह कुछ कुलकी भलाईके लिए नहीं है, वह तो कुल नाश के लिए ही होगा, शान्तिके लिए नहीं। अपने वंशम चली आनेवाली कुलक्रमागत हिंसाको जो भी प्राणी छेड केर शुद्ध हो
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३६
वीरस्तुतिः।
*
:
जाता है, वह काल सूर कसाईके पुत्र 'सुलस' की तरह सब मनुष्योंमें पवित्र और श्रेष्ठ गिना जाता है।"
- "जो इन्द्रियोंको तो वश रखना चाहता है, तथा देव और गुरु की आत्मीय सेवा करता है, यथा शक्य दान भी देता है, तत्वको पढ कर पढाता भी है, तप भी करता है, परन्तु जरासी भी हिंसाको यदि धर्म मान्यतासे कर देता है तव तो उपरोक्त सवकी सव क्रियाएँ निष्फल हैं, अत. सिद्ध हुआकि धर्मके नाम पर की गई हिंसा भयंकर पापकारिणी है।" ___"जिस शास्त्रमें धर्मका नाम लेकर हिंसा करनेका उपदेश क्रिया हो वह शास्त्र न होकर कुशास्त्र समझा जाना चाहिए अर्थात् वह शस्त्र है शास्त्र नहीं।" . ___ "यह कितना आश्चर्य है कि मनुष्य तक को मार देनेवाले, लोभान्ध होकर पथ भ्रष्ट होजाने वाले, हिंसा विधायक शास्त्र बनाकर, तथा पाप करनेका उपदेश ठेकर, लोकोंको मूर्ख बना रहे हैं, अन्ध विश्वासी बनाकर मानो नरकके कूडेमें डाल रहे हैं।"
अहिंसाका माहात्म्य-"अहिंसा माता की तरह सवकी पालिका और हितकारिणी है। अहिंसा ही शत्रुओंके मनमें अमृतका सचार करनेवाली है। अहिंसा दु.खरूपी दवानलको वुझानेमें अमोघ और प्रधान मेघ है, संमार भ्रमणा यानी जन्म मरणके रोगसे पीडितोंके लिए तो आरोग्यता देनेमे समर्थ औषधि' है।"
अहिंसाका फल-"लम्बी आयु, खच्छ और सुन्दर रुप, नीरोगता, ससारमें निर्मल यशः कीर्ति, इत्यादि सामग्रिएँ अहिंसा पालन करनेके उपलक्षमें ही तो मिली हैं। अधिक क्या कहा जाय अहिंसा सव मनोरथ पूर्ण करनेवाली है।" . किसीने ठीक ही कहा है कि-"पहाडोंमें सुमेरु, अमृत पीने वालोंमें ठेवता, मनुष्योंमें चक्रवर्ती, ज्योतिष् चक्रमें चाद, ठंढी छायां देनेवालोंमें फलदार वृक्ष, ग्रहोंमें सूर्य, जलाशयोंमें समुद्र, सुर-असुर-मनुप्य तथा चक्रवर्तियोंमें वीतराग के पदकी तरह सव व्रतोंमें 'अहिंसा' को सवमें बडप्पन तथा प्रधानता प्राप्त है। अर्थात् इससे वढ कर और वडा व्रत क्या हो सकता है।" - निष्कर्ष-इन सब शास्त्रोंका मीलान करनेसे यह स्वयं सिद्ध हो जाता है कि-हिंसा सव शास्त्रोंमें वर्जित है; जैनोंने तो इसका नाम प्राणातिपात कहा है,
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
१३७
जिस का आशय यह होता है कि-किसी के एक-प्राणको भी निरर्थक न दुखाना चाहिए। साधु मुनिराज इसका सम्पूर्ण अग पालन करते है। और गृहस्थ जन इसका एक भाग ही निमा सकते हैं क्योंकि सवको अपना जीवन सब वस्तुओं से अधिक प्रिय है।
जैसे कहा है कि-"यदि मरनेवालेको यह कहा जाय कि-तुम सोनेके "एक क्रोड सिक्के लेकर हमें अपनी जान मारनेकेलिए कहदो, तब वह धनके ढेरको छोडकर जीवित रहनेकी आशा प्रगट करेगा। क्योंकि जान देदेनेपर उसकेलिए धन किस कामका है । अत सबको अपना जीवन प्रिय है। इस लिए सब दानोंमें अभय दान श्रेष्ठ है।"
अभयदान पर उदाहरण-"अरिदमन वसन्तपुरका राजा है, वह अपनी चार रानियोंसे नित्य रग रलिया करता है। एक दिन उन रानिओंने गाना, वजाना, नाचना आरभ किया; राजा उनकी गान्धर्व विद्या पर लटू होगया
और बोला कि आज तुम जो कुछ मागोगी वही दूंगा। रानिओंने कहा कि इस समय तो हमें किसी वस्तुकी आवश्यकता नहीं है, कालान्तरमें माग लेंगी, अब हमारा वर अपने पास जमा कर लीजिए; राजाने कहा अच्छा।"
__एक बार रानियोंने एक चोरको देखा कि जिसे लाल कपडे, और जूतोंका हार पहिना कर वध्य भूमि ले जाया जा रहा है। रानियोंके साथ राजा भी महल पर टहल रहा था, देखकर उन्होंने पूछा कि प्राणनाथ ! इसने क्या अपराध किया है। राजाने उसी समय एक सिपाहीको बुलाकर पुछवाया, उसने कहा कि पृथ्वीनाथ ! इसने चोरी जैसो अकार्य करके राज और धर्मके विरुद्ध कार्य किया है, अत आपनेही तो इसको 'प्राणदंड' पानेकी आज्ञा दी है। ' यह सुनकर उनमें से एक रानी ने कहा कि प्राणवल्लभ! आप मेरा 'वर' यह दें कि इसे एक दिनके लिये न मारें जिससे मैं इस पर कुछ उपकार कर सकू । राजाने कहा "तथास्तु" । रानीने उसे महलमें लिवा कर कहा तुझे आजके लिए बचा दिया है, अतः आज खा पी और मौज कर। यह कह उसका खूब अन और वस्त्रसे खागत किया, सवेरा होने पर उसे एक हजार दीनार देकर अपने महलसे विदाकर दिया।
इसी प्रकार दूसरी और तीसरी रानीने भी एक एक दिन रक्खा और भमसे एक लाख और एक कोड सोनेके तिकोंका पारितोषिक दिया।
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३८
'..., वीरस्तुतिः ।
' मगर चौथी रानीने उसे कुछ भी न देकर उसका वह प्राणदंड का अपराध राजासे कह कर क्षमा करा दिया। तव यह सुन उन तीनोंने कहा कि इसे तूने क्या दिया है ? चौथी रानीने कहा कि मैंने इसे वह वस्तु दी है, जिसे तुम सब मिल कर स्वप्नमें भी नहीं दे सकी । यह सुनकर वे सब क्रुद्ध होकर उसके गले पड गई और बोली कि हमने तो उसे क्रोडपति बनादिया है और तुम कहती हो कि हमने इसपर तुनके जितना उपकार भी नहीं किया। चौथीने कहा कि धनसे भी अधिक सवको अपने प्राण प्यारे होते हैं । मैंने इसे प्राणदान दिलं वाकर सदाके लिए सुखी बना दिया है। अब इसे मरनेका भय नहीं है जिससे मैंने सबसे बडा उपकारका कार्य किया है। यदि मेरे कहेका विश्वास न हो तो राजासे इसका न्याय कराना चाहिए। इतना कहनेके वाद राजाको तुरन्त महलमें बुलवाया गया, और रानियोंका वह मुकदमा सुन कर राजाने चोरको बुलाया और पूछा कि भाई ! सत्य कह तू किस रानीका अधिक उपकार मानता है।
उसने नम्रतासे सिर झुका कर कहा कि-यों तो सवने मुझ पर भारी उपकार किया है, मगर चौथी रानीका सबसे अधिक उपकार मानता हूं, क्योंकि उसने अभयदान दिलवाया है। तीनों रानियोंने क्रोडौंका धन भी दिया और एक एक दिन मरनेसे भी बचाया मगर मुझे तो सदैव यही भय बना रहता था कि धनका क्या करूंगा जव कि कल मर जाना है। मगर चौथी रानीने मुझे उसी मौतके संकटसे उवारा है । अवमे यावज्जीवन पर्यन्तके लिए निर्भय हूं। अतः इस उपकारको अपने तनका पुरस्कार देकर मी नहीं चुकाया जा सकता। क्योंकि सर्व दानोंमें अभयदान प्रधानतम है। . , सर्वोच्च भाषा सत्य है-इसी प्रकार सत्य वचनोंमें निरवद्य, पापरहित, दूसरेकी पीडाको हटानेवाली भाषा सर्वोत्तम हैं। क्योंकि काना, नपुंसक, रोगी, चौरादिके नॉमसे पुकारनेपर भी उसके मनको आघात पहुंचता है। .. : मनुका मत-“सत्य, प्रिय, और अन्यके मनके अनुकूल वचन,वोलो, असत्य, और अप्रिय सत्य कभी मत बोलो.।", . , , ,
असत्य-असत् शब्दके तीन अर्थ हैं, सद्भावका प्रतिषेध, और अर्थान्तर वा गर्हानिन्दा । वस्तुके खरूपका अपलाप करनेको सद्भावका प्रतिपेध कहते हैं। यह दो प्रकारका है । सद्भूत पदार्थका निषेध-तथा-असद्भूत पदार्थको
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
१३९
को कई
karn.
निरूपण । जैसे "नास्ति आत्मा" आत्मा कोई खतन्त्र पदार्थ नहीं हैं, अथवा "नास्ति परलोक ", परलोक-मरणके वाद जीवका अन्य भव धारण करना वास्तविक नहीं है। इत्यादिक भूतनिन्हव है। क्योंकि इससे' सद्भूत पदार्थका अपलाप होता हैं। आत्माका परलोकमें भवान्तर धारण, करना वास्तविक सिद्ध. पदार्थ है। युक्तियुक्त और अनुभवगम्य है । इसका निषेध करना सद्भूतका अपलापनामक मिथ्या वचन है। आत्माको श्यामाकतण्डुल-सामकके चावल कीतरह छोटे प्रमाणमें बताना, अथवा अगूठेके पोरवे के बराबर समझना, या यह कहना कि-आदित्य वर्ण है, निष्क्रिय है, इत्यादि सव वचन अभूतोद्भावन नामक असत्य वचन हैं । क्योंकि इस तरहके वचनों द्वारा आत्माका जो वास्तविक स्वरूप नहीं है, उसका उल्लेख किया जाता है।
अर्थान्तर शब्दका अर्थ है मिन अर्थको सूचित करना, जो पदार्थ है उसको दूसरा पदार्थ ही वताना वास्तविक न कहना अर्थान्तर है। जैसे कोई गौको कहे कि यह घोडा है, अथवा घोडेको कहे कि यह गौ है, इस तरह के वचनको अर्थान्तर नामक असत्य कहते हैं।
गर्दा नाम निन्दा करनेका है, अत जितने भी निन्द्य वचन हैं वे सक गर्हित नामके असत्य वचन समझने चाहिए। जैसे कि-'इसको मार डालो' या 'मरजा' 'इसे कसाईको देदो,' इत्यादि हिंसा विधायक वचन वोलना, तथा मर्मभेदी-मन दुखानेवाले अपशब्द कहना, गाली देना, कठोर वचन कहना, परुषरूम शब्दोंका प्रयोग करना, एवं पैशून्य किसी की चुगली करना, आदि गर्हित वचन कहलाते हैं। यदि वे गर्हित वाक्य. कदापि सत्य भी हों तथापि असल माने जाते हैं । क्योंकि वे निन्ध हैं । तथा प्रमादयुक्त जीवके वचन भी असत्य समझे जाते हैं । प्रमाद पूर्वक कहे जाने वाले वचन असत्य होते हैं। और प्रमाद को छोडकर कहे गए असत्य वचन भी सत्य हो सकते हैं, जैसे किसी रोगी वालकको पताशेमे दवा रख कर देते हैं और कहते हैं कि-ले यह पताशा है।
सत् शब्दके दो अर्थ होते हैं, विद्यमान और प्रशंसा। अत एव असत्शब्दसे अविद्यमान और अप्रगस्तता ये दोनों ही अर्थ लेने चाहिए। सद्भूत निन्हव अमद्भूतोद्भावन और अर्थान्तर ये अविद्यमान अर्थको सूचित करनेवाले होनेसे असल हैं। और जो गर्हित वचन हैं वे अप्रशस्त होनेसे असत्य,हैं, तथा प्रमादका सम्बन्ध भी दोनों ही स्थानों पर पाया जाता है।
R
11-
-
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४०
वीरस्तुतिः।' ' .
इसके अतिरिक्त असत्य की विवक्षा होने पर कषाय असत्य निमित्त वन जाता है, कषायका उदय आनेपर असत्यका प्रयोग अवश्य, किया जाता है। अतः क्रोध-लोभ-मान-राग-द्वेष-मोहादिके कारणसे असत्य. बोलनेका त्याग करना सत्याणुव्रत कहलाता है।
हंसीमें, कठोर शब्द का प्रयोग करते समय, चुगली करते समय, अप्रशस्त वचन कहते समय, झूठा वाक्य कहना अनिवार्य हो जाता है, और देहधारीको आत्म स्थिति उस समय प्राप्त होती है जब दूसरा अणुव्रत स्वीकार कर लिया जा सके।
कीसी ने कहा है कि-जिसे मूढता के कारण धर्म के नामसे पुकारता है, और जो म्लेच्छोंमें भी निन्द्य समझा जाता है, उस असत्य को मन, वचन-कायसे त्याग देना ही उचित है, यदि हितको अपनानेकी अभिलाषा है तो असत्य न कह कर मौनको स्वीकार करले। क्योंकि इतने स्थानों पर सव मौन भाव भजते हैं,
जैसे-“प्रतिक्रमण करते समय, मलमूत्र त्यागते वक्त, पापके कार्यको छोडते समय, निरन्तर मौन रख लेवे, क्योंकि मौन कर लेनेसे वाणीके दोषोंका नाश हो जाता है।" 'मौनसे क्लेश नष्ट होता है, सन्तोष भाव जागृत हो जाता है, वैराग्यका प्रदर्शन होता है, सयमकी पुष्टि हो जाती है।' 'जिह्वाके खाद छोडनेसे ही तपकी वृद्धि होती है। अमिमानकी रक्षा होजाती है, समता आनेसे मनकी सिद्धि हो जाती है ।' 'वाणी मनोरमा वनजाती है, आदेय होकर प्रशंसा पात्र बन जाता है, मौन रखने वालेके चरणयुगल वन्दनीय होते हैं। परन्तु मौन देश और कालको विचार कर करना चाहिए। यदि कहीं बोलनेसे ससारको सद्बोध और चरित्रका लाभ हो तो वहा चुप न रहना चाहिए। मगर वाणी सदा सत्यवती होनी चाहिए।'
__ गृहस्थके लिए त्याज्य असत्य क्या है ? "गृहस्थ को कन्या, पशु, पृथ्वी, के सम्बन्धमें असत्य कुछ भी न कहना चाहिए, न ही उसे कमी झूठी गवाही देनी चाहिए, कमी किसी की थापन-यानी धरोहर मार कर उसे कोरा जवाब न देना चाहिए, इन पांच वातोंको ध्यानमें रखने वाला सल्याणुब्रती है। यदि अपने या अन्यके ऊपर सत्य कहनेसे आपत्ति आ सकती हो तो उम समय सत्य न कह कर मौन कर लेना उचित है।"
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
१४१
-
-
.
-
-
___ "और जो साधु-सजन पुरुष राग, द्वेष और मोहसे असत्य बोलनेके __ परिणामको जव छोडता है, तब ही दूसरा सत्याणुव्रत होता है, क्योंकि , असत्य
वोलनेका भाव सत्य भावसे विपरित होता है, और यह असत्य भाव राग भावसे, द्वेष भावसे और मोह भावसे जीवमें पैदा होता है, अर्थात् यह मनुष्य इप्टे पदार्थों में व विषयोमें राग द्वारा उनकी प्राप्ति और रक्षाके लिए असत्य कहता है, वह अनिष्ट पदार्थोंमें वा विषयोंमें द्वेषपूर्वक उनके दूर होनेके लिए या उनका सम्बन्ध न पानेके लिए असत्य कहता है, अथवा मिथ्या बुद्धिसे ससारमें मोहके कारण उस मिथ्या भावकी रक्षाके अर्थ असत्य बोलता है, जो कोई निकट भव्य जीव साधु पुरुष इस प्रकारके असत्य बोलनेके परिणामोंको त्याग देता है उसी में सत्य व्रतकी योग्यता आती है।"
"जो सत्यभावके रग रग कर प्रगटमें सत्यका व्यवहार करता है वह सजनोंद्वारा आदरणीय होता है, यह बात इस लिए सर्वथा सत्य है कि सत्य से बढ कर अन्य दूसरा कोई व्रत नहीं।"
असत्य बोलने का निकृष्ट परिणाम-"झूठ बोलनेवाला गूंगा बनता है, या उसे मूकगति का जीव बनना पडता है। वह स्पष्ट नहीं बोल सकता। किसीको उसकी सुन्दर सम्मति मी प्रिय नहीं लगती। मुखरोगसे पीडित रहता है। ये सब झूठ बोलनेके दुष्परिणाम जान कर कन्यादिके विषयमें असत्य कमी न वोलना चाहिए।" "झूठ बोलने वाले, मूर्ख, विकलांग, वाणीहीन रह जाते हैं। उनकी बातें सुन कर लोकों को घृणा हो उठती है।
और उनके मुखसे दुगंध आया करती है।" "जो सर्वलोक से विरुद्ध है, जिस वाणीसे विश्वासघात हो जाता है, जो पुण्यका प्रतिपक्षी है वह ऐसा वाक्य कभी न कहे।" "जो झूठ बोलता है उसमें तुच्छता आजाती है, अपने आपको ठग लेता है, अधोगतिगामी होता है, अत झूठ वर्जनीय है।" "झूठ प्रमादसे भी न बोलना चाहिए, क्योंकि कल्याणकार्यरूपी वृक्ष असत्यकी आधीसे गिर जाते हैं।" "भूत, भविष्यत् , वर्तमानकी वातोंकों यदि पूर्णतया न जानता हो तो न कहे, कि इस तरह होगा।" "तीनों कालकी बातोमें शका हो तो उसे न कहे।" "यदि तीनों कालकी बातें बिलकुल निश्शंक हैं तव उन्हें लोकोंमें उपदेशके रूपमें सुना सकता है।" "असत्य बोलनेसे वैर विरोध वढ जाते हैं, पोल खुल जाने पर पछतावा होता है।
-
-
-
An
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४२
. ..... - वीरस्तुतिः । - ....
कोई उस पर विश्वास नहीं करता, वदनाम मुफ्तमें हो जाता हैं। 'कुपथ्य करनेकी तरह न जाने क्या २ दुःख-दोष झूठे मनुष्यमें बढ जाते है।" "झूठ बोलने वाला नरक, निगोद, और पशु योनिमें जन्म लेकर मरता रहता है।" "थोडा सा असत्यका प्रयोग करनेवाला मी नरकमें उत्पन्न होता है।" • "ज्ञानिओंने ज्ञान और चरित्रका मूल तो सत्य ही बताया है, सत्यवादीके , पैरोंकी धूलिसे पृथ्वी पवित्र हो जाती है।" "जो सदा सत्य बोलते हैं उनका भूत, प्रेत, सर्प, सिंह आदि कुछ भी नहीं विगाड सकते, ।” “सिर मुंडा कर, जटा रखा कर, नग्न रह कर, कपडे पहिन कर या तपको तप कर मी जो असत्य बोलता है तव तो उसे अछूतसे भी बढ कर निन्द्य समझना चाहिए।" “एक तरफ तो असत्यका पाप है, दूसरी ओर ससारके सब पाप हैं, यदि इन दोनों पापोंको तोला भी जाय तो असत्यका पाप वढ निकलेगा।" "डाकुओं
और व्यभिचारिओंके पापका प्रायश्चित हो सकता है, परन्तु असत्यवादीका प्रतिकार नहीं ।” “सत्यवादीका देवोंको भी पक्ष होता है, राजा भी उस पर शासन नहीं चला सकता, उन पर अमिका उपद्रव नहीं होने पाता, . क्योंकि सत्यकी महिमा अपार है।"
“सत्यका संसार भरके योगियोंने खूब ही गायन किया है, जिसमें शुभचन्द्राचार्यके कुछ वचनामृत आपके पठनार्थ सामने रखते हैं। उन्होंने कहा है कि-"जो संयमी मुनि धीरज रख कर सयमकी रक्षा या मुनि दीक्षाकी धुराको धारण करता है, वह मुनि वचनके जंगलमें सत्य रूपी वृक्षका आरोप करता है।" "यमनियमादिव्रतोंका समूह एक मात्र अहिंसाकी रक्षाके लिए कहा है,अहिंसा व्रत यदि असत्यसे दूषित होतो वह ऊंचे पदको कभी मी नहीं पासकता । असत्य वचनके होनेसे अहिंसाका प्रतिपालन अशक्य है।"
"जो वचन जीवोंका इष्ट हित करनेवाला हो तो वह असत्य भी सत्य है। और जो वचन पाप सहित हिंसारूप कार्यको पुष्ट करता है वह सत्य भी 'असत्य है और निन्द्य भी है।" "जो मुनि अनेक जन्मके उत्पन्न दुखोंकी शान्तिके लिए तपश्चरण करता है वह निरन्तर सत्यही वोलता है, क्योंकि असत्यवचन बोलनेसे मुनित्वका होना असम्भव है।" "जो वचन सत्य हो, करुणासे भरपूर हो, किसीके विरुद्ध न हो, आकुलता रहित हो, असभ्य या
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
२४३
गवॉरू भाषामें न हो तथा ग्राम्य नाम इन्द्रियोंका भी होता है यानी इन्द्रियोंके विकारोंको पुष्टंकर वचन न हो, गौरवका वढोंनेवाला हो, जिसमें किसीका हलकापन न बताया गया हो, वही वचन शास्त्रमें प्रशंसनीय है।" । -
- निरन्तर-मौन करना भी पुरुषों के कल्याण के लिए हैं"यदि वोलनेका काम पडे तो सर्ल्स और प्रिय तथा सब जीवोंके कल्याणके लिए बोलना चाहिए।" "मगर दुष्ट चरित्रीके मुखकी वावीमें वही भारी असत्यवाणीकी सापनी रहती है, जो जगत् भरको 'दुखी कर देती है?". "जिस वातके सत्य होनेमें सन्देह है, पर पाप रूप भी 'अवश्य है, और दोषोंसे युक्त है, 'एवं ईर्ष्याको बढानेवाली है, वह अन्यके पूछने पर भी न कहे ।" "किसीका मर्म दुःखानेवाला, मनमें घाव करनेवाला, स्थिरताका नाश करनेवाला, विरोध खडा करनेवाला, तथा दया रहित वचन कण्ठम प्राण आनेपर भी न कहे।" "जंहा धर्मका नाश होता. हो, चरित्रको धका पहुँचता हो, देशकी खतघ्रता नष्ट होती हो, समीचीन सिद्धान्तकी लोप होता हो, उस जगह देश, धर्म और जातिके उत्थानके लिए विना पूछे भी विद्वानोंको अवश्य बोलना चाहिए। उस समय चुप चाप खडे २ तमाशा देखना. सत्पुरुषोंकी कार्य नहीं है।" "जो वाणी लोकोंके कानोंमें पुन: पुन पड कर जहर उगलती है, जीवोंको मोहरूप कर डालती है। सन्मार्गको भुला देती है, वह वाणी'न होकर एक सापनी जैसी है, जिसके सुनते ही प्राणी उत्तम मार्गको छोडकर कुमार्गमें पड़ जाते हैं।" "कानोंको जितना सुख मनोहर वाणी देती है, उतना सुख चन्दन, चन्द्रमा, चन्द्रमणि, मोती, मालती, आदि शीतल पदार्थ नहीं दे सकते।" । "अमिसे जला हुआ वन तो किसी समय हरा भरा हो जाता है, परन्तु जिव्हारूपी आगसे पीडित होकर लोक कभी नहीं पनपता।" "जो सच बोलते हैं, तत्वके असली स्वरूपको समझ सके हैं, जिनको सत्य और शीलका ही अवलम्बन है, उनके पैरों से पृथ्वी पवित्र हो जाती है और वही लोक उत्तम हैं। जो असत्य बोलते है वे ही नीच होते हैं।" "जो नीच पुरुष मनुष्यजन्म प्राकर..भी सत्यकी प्रतिज्ञासे रहित है, वह संसार रूपी कीचडसे और क्या करनेसे पार हो सकेगा?" "जिनके हाथ नाक कान कटे हों, रूप रग नामको
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४४
, वीरस्तुतिः। ...
भी न हो, दरिद्री और रोगी हो, कुलं, जाति, वर्णसे हीन हो, तब क्या हुआ उनका भूषण सत्य है, सत्यसे पवित्र और सुखी हैं। उनकी शोभा सत्यसे है।" "जो पुरुष असत्यसे मलिन हैं, उनके साथ पाप रूपी कालिमाके भयसे कोई भी धर्मज्ञ पुरुष सपनेमें भी उसका साक्षात्कार नहीं करता।" "झूठेकी संगतिसे सच्चको भी कलंक लेना पडता है।" "पुत्र, खजन, श्री, धन और मित्रोंके जाने या विमुख होने पर अथवा प्राण जाने पर भी झूठ नहीं बोलना चाहिए।"
इत्यादि वचनामृतोंको पीकर जो पाप रहित और श्रेष्ठ सत्य बोलता है, वही जगत्में प्रधान पुरुष है।
सत्यकी तरह सब प्रकारके तोंमें अर्थात् जिन तपोंमें इच्छाओंका रोकना अनिवार्य है वे तप १२ प्रकारके कहलाते हैं, उनमें उत्तम और नव विध ब्रह्म गुप्तिसे गुप्त किया गया ब्रह्मचर्य नामक तप उत्तम है।
सुन्दर स्त्रियोंके मनोहर अंगोंको देख कर उनसे क्रीडा करनेकी जिसके चित्तमें इच्छा खडी होती है उसको त्याग देनेसे अथवा वेद नामक नोकषायके तीव्र उदयसे मैथुन सेवनकी इच्छाका त्यागना ब्रह्मचर्यव्रत है, उसे स्पष्ट करनेके लिए सत्पुरुष कहते हैं कि हे कामी पुरुष, ! अनुपम सहज, परम तत्वरूप, निजखरूपको छोड कर अति सुन्दर स्त्रियोंकी शरीर आदि विभूतिको मनमें क्यों याद करता है, और उनके मोहमें किस लिए फँसा पडता है।
अब्रह्मचर्य के दोष-स्त्री सम्भोगसें सन्ताप पैदा होता है, पित्तको बढाता है, काम ज्वर फैल जाता है, हिताहितको नशाकर मोहको बढाता है। शरीर नि.सत्व होता है। तृष्णामें जकडा जाता है, अतः कामेच्छामें और ज्वरमें कुछ भी अन्तर नहीं रह जाता। और इन दोषोंको जान कर भी यदि कोई सर्वथा शीलका पालन न कर सके तो गृहस्थका कर्तव्य है कि विवाहित पत्निमें अवश्य सन्तोष पैदा करे। क्योंकि इस प्रतिज्ञामे भी अनेक तरह की इच्छा, ओंका मर्दन कर देता है।
कहा भी है कि-अपनी स्त्री मात्रमें सन्तोष करनेके अनन्तर जो अन्य स्त्री मात्रकी कमी इच्छा तक भी नहीं करता है, उसमें भी सुदर्शन शेठ की तरह अद्भुत प्रभाव पैदा हो जाता है, तब ब्रह्मचारीके प्रभावकी प्रशंसा क्यों कर की जासकती है, क्योंकि वह तो अवार्य है। . . . . . .'
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
१४५
इसी भांति स्त्रीका भी परमधर्म है कि-पर पुरुष चाहे रूपमें, ऐश्वर्यमें, कलामे कितना भी बढा चढा क्यों न हो, उसे जहरका पुतला समझ कर त्याग देना चाहिए जिस प्रकार सीताने रावणको छोड दिया था । वही स्त्री देवोंसे पूजित होती है जिसने मैथुनके विकार को जीता है ।
मैथुन नाम जोडे का है, प्रकृति में स्त्री पुरुषका ही जोडा समझा जाता है, दोनोंका परस्पर संयोग या सभोगके लिए जो भावविशेष उत्पन्न होता है अथवा दोनों मिलकर जो संभोग क्रिया करते हैं उसको मैथुन कहते हैं, और उस मैथुनको 'अब्रह्म' कहते हैं । इसमें भी प्रमत्तयोगका सम्बन्ध है, क्योंकि उस अभिप्रायसे जो भी क्रिया की जायगी, फिर चाहे वह परस्पर दो पुरुष या दो स्त्री ही मिल कर क्यों न करें, अथवा अनंग क्रीडा आदि ही क्यों न हो वह सव अब्रह्म है, और जो प्रमादको छोडकर क्रिया करते हैं उसको मैथुन नहीं कहते। जैसे कि पिता भाई आदि पुत्री भग्नि आदिको जव गोदमे लेकर प्यार करते हैं तब वह अब्रह्म नहीं कहला सकता, क्योंकि उनमें 'प्रमत्तयोग' नहीं है। इस प्रमत्तयोगकी यदि एक अशमें निवृत्ति की जाय तो वह ब्रह्मचर्याणुव्रत कहलाता है । जैसे कहा है___ "माता वहन बेटीकी तरह परस्त्रीको जानता हुआ जो अपनी विवाहिता स्त्रीमें ही सन्तोष करता है, वह चौथा अणुव्रत कहलाता है।" "उत्तम पुरुष परस्त्रीको व्याधि भौर दुखके समान समझ कर दूरसे ही छोड़ देते हैं, क्योंकि परस्त्री सदैव दु खोंका घर है, और सुखोका नाश करनेके लिए प्रलयकी आग जैसी सिद्ध हुई है।" "जो स्त्री अपने पतिको छोड कर परपुरुषमें रमण करने चली जाती है, उसे परले सिरेकी निर्लज्ज समझना चाहिए। जव इस आचरणसे अपनी स्त्रीका भी विश्वास नहीं है तत्र परस्त्रीका किस वात पर विश्वास किया जा सकता है।" "परस्त्रीका सेवन करके पुरुष क्या सुख पाता है। केवल नरक निगोदमें रुलनेके अतिरिक्त और कुछ नहीं। अतः मनुष्योंको 'ब्रह्मचर्य व्रतका पालन करना चाहिए।" "इस व्रतका आश्रय-लेकर योगीजन परब्रह्म परमात्माका और अपना खरूप अमेदरूपसे जान लेते हैं । उसीका अनुभव करते हैं, और इसे धीर वीर पुरुष ही धारण करनेमे समर्थ है। अल्पसत्ववाले, शीलरहित, इन्द्रियोंके दास, दुर्वल पुरुषतो इसका खममे भी समाचरण, नहीं करसकते, क्योंकि यह ब्रह्मचर्य असिधारा महाव्रत है।"
वीर. १०
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४६
, वीरस्तुतिः। । "इन तीनों भुवनोंमें ब्रह्मचर्य नामक व्रत ही प्रशंसनीय है, जो इसे निर्मलभावोंसे पालते हैं वे पूज्य पुरुषों द्वारा भी पूजित होते हैं।" "जो ब्रह्मचर्य पालनमें अनुरक्त रहते हैं वे दश प्रकारके मैथुनोंका सर्वथा त्याग कर देते हैं।" जैसे
(१) शरीरका संस्कार-शृंगारादिकरना। (२) पुष्ट रसका सेवन करना। । (३) गाना-वजाना-देखना-सुनना। (४) स्त्रीका संसर्ग करना । , (५) स्त्रीमें
किसी प्रकारका सकल्प-विचार करना । (६) स्त्रीके अंग उपागोंको देखना । (७) उसे देखनेका सस्कार बनाए रखना। (6) पूर्व कृत भोगोंका पुनः स्मरण करना (९) अगाडीके लिए भोगने की चिन्तवना करनी । (१०) शुक्र (वीर्य)का क्षरण कर देना। • ये दश भेद मैथुनके हैं, ब्रह्मचारीके लिए ये सर्वथा त्याज्य हैं।
"जिस प्रकार किम्पाकफल (इन्द्रायण फल) देखने सूंघनेमें रमणीय है परन्तु विपाक होनेसे तो हलाहल विषका काम कर डालता है। इसी भान्ति यह मैथुन भी कुछ काल पर्यन्त रमणीक और सुन्दर तथा सुखदायक प्रतीत होते हैं, परन्तु विपाक समय यानी अन्त समयमें बहुत ही भयप्रद प्रतीत होते हैं ।" "जो पुरुष काम और भोगोंमें विरक्त होकर सदा ब्रह्मचर्यका सेवन करते हैं उनको भावशुद्धिके लिए दश प्रकारका मैथुन त्याग देना चाहिए । क्योंकी इन दोषोंके त्यागे विना भावोंमें निर्मलता नहीं आती। उत्तम भाव-ही कामके वेगको रोक सकता है।"
कहा भी है कि-"सर्पसे डसे गए प्राणीके सात वेग होते हैं, परन्तु कामरूपी सर्पके द्वारा डसे गए जीवोंके दश भयानक और वडे वेग होते हैं, वे ये हैं।"
कामके उद्दीपनसे पहले पहल चिन्तामें घिर जाता है कि कामका सम्पर्क क्योंकर हो, दूसरे वेगमें उसे देखनेकी इच्छा हो जाती है, ३ दीर्घ निश्वास लेकर छोडता है, और कहता है कि हाय उसे देख भी न सका, ४ ज्वर हो आता है, ताप मान वढ जाता है, ५ विना ही आगके शरीर जलने लगता है, ६ भोजन नहीं रुचता, ७ महा मूर्छा हो जाती है, कुछ भी चेत नहीं रह पाता। ८ उन्मत्त यानी पागल सा वन जाता है, आय वाय वकने लगता है, ९ प्राणों का रखना दूभर हो जाता है तथा उसे यह सदेह हो ,जाता है कि में अव जीवित नहीं रहूंगा। और दशवां वेग ऐसा आता है कि जिससे
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
१४५
वह मर भी जाता है, इनमें व्याप्त होकर यह जीव यथार्थ तत्व अर्थात् वस्तु खरूप को नहीं देखता । जव लोकव्यवहार ही का ज्ञान विदा हो जाता है तव परमार्थका ज्ञान क्यों कर हो सकता है। क्योंकि सव वातोंमें वह बिल्लकुल अस्थिर बन जाता है।
__ "जिसको कामरूपी कांटा चुभता है वह प्राणी बैठने, सोने, चलने, फिरने, भोजन करनेमें तथा खजन पुरुषोंमें क्षण भर भी स्थिरताको प्राप्त नहीं होता। अर्थात् सव अवस्थाओंमें डिगमिगाया रहता है।" "कामसे ठगा जाकर मनुष्य चतुर होकर भी मूर्ख बन जाता है, क्षमाशील-क्रोधी हो जाता है, शूर वीर कायर वन जाता है, बडप्पनसे गिर कर छोटा रह जाता है, उद्यमी पुरुष आलसी बन जाता है। और जितेन्द्रिय भ्रष्ट हो जाता है ।" अतः मूर्खता न करके मनुष्यको मनुष्य जन्म सार्थक बनानेके लिए ब्रह्मचर्य्य पालन करना चाहिए। क्योंकि तोंमें उत्तम ब्रह्मचर्य ही तप है।" ।
कदाचारका परिणाम-बैलके नपुंसक बनानेकी क्रिया देखकर, लंपटका राजा द्वारा इन्द्रिय छेदन देख कर, सुधीको कुशील त्याग कर खदार सन्तोष व्रत लेकर परदारका त्याग कर देना योग्य है।" "मैथुनका सेवन किंपाकफलकी तरह आरभमे अच्छा लगता है परन्तु' परिणाममें दारुण कष्ट होता है।" "शरीरमें कम्प, पसीना, थकान या शिथिलता, चकर आना, घृणा होना, पौरुषेयका क्षय, तपेदिक क्षय-आदि रोग मैथुन सेवनसे होजाते हैं।" "योनि-यन्त्रमें असख्य जीवराशीकी उत्पत्ति हो जाती है, और मैथुन करते समय वे जीवित नहीं रह सकते।"
वात्स्यायनका मत है कि-"रकमें कीडे हो जाते हैं, वे जीव सूक्ष्म होते हैं, और सम्पर्कके समय मर जाते हैं।"
मैथुन सेवनसे काम ज्वर घट नहीं सकता-"अनिमे घी डालकर अग्निको वुझानेकी घृथाकी चेष्टाकी तरह स्त्रीसयोगसे काम ज्वर कमी शान्त नहीं हो सकता। अत. स्त्रिऍ भी पर पुरुषको सर्पके समान समझकर उन्हें त्याग दें।" क्योंकि- "ऐश्वर्यमें चाहे इन्द्रके समान हो और सुन्दरतामें कामदेवका अवतार हो तब भी सनारियोंकी दृष्टि में सीताने रावण का जिस प्रकार त्यागकिया इसी प्रकार पर पुरुष त्याज्य हैं।"
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः ।
A
ब्रह्मचर्य से ही पुजता है - ब्रह्मचर्य सच्चरित्रका प्राण है, परब्रह्मके पानेमे निमित्तरूप है, जो ब्रह्मचर्यका समाचरण करते हैं, वे पूज्य पुरुषोंद्वारा पूजित होते हैं ।
१४८
ब्रह्मचर्य का फल - वडी आयु, सुडौल शरीर, शरीर पर विलक्षण तेज, महान् शक्ति, यशः कीर्ति, प्रतिष्ठापात्रता, ये सब ब्रह्मचर्य से प्राप्त होते हैं ।
-"]
शरीरकी दृढतर रचना, ' ससारमें मान मर्यादा,
इसी प्रकार सव लोकोंकी उत्तम रूप सम्पदा पाकर तथा सर्वातिशायी क्षायिक ज्ञान दर्शन शीलशाली पुरुषोंमें 'ज्ञात वंश में जन्म प्राप्त, अन्तिम जिनेंद्र श्रमणमहात्माओं में प्रधानतम थे ।
महावीरके नाम-श्रमण भगवान् महावीर प्रभुके वर्धमान, विदेहदिन्न, ज्ञातपुत्र, काश्यप, वैशालिक, महावीर, सन्मति, श्रमण, भगवान् इत्यादि अनेक नाम थे । ये सब नाम उनकी अमुक अवस्थाके सूचक हैं। क्योंकि भगवान् महावीर स्वामीका जीवन सासारिक अवस्था और साधक अवस्थामै विभक्त है । वर्धमान, विदेहदिन (महावीर प्रभुकी माताका नाम 'विदेहदिन्ना' भी था " तिसला ति वा, विदेहदिन्ना ति वा, पियकारिणी ति वा - ( आचाराग २-१५ १३ ) । त्रिशला माता विदेहमें जन्मीं थीं जिससे उनका नाम विदेहदिन्ना था । अतः माताके इसी नाम पर महावीर प्रभुका मातृपक्षका नाम भी विदेहदिन्न पढ गया था, ज्ञातपुत्र, काश्यप और वैशालिक ये ३ नाम उनकी सासारिक अवस्थाको बता रहे हैं । महावीर, सन्मति, और श्रमणभगवान् ये तीन नाम उन्होंने साधक अवस्थामे अपने आत्मवीर्यादि गुणोंसे प्राप्त किए हैं, 'वर्धमान' पिताके पक्षका नाम था, और विदेहदिन्न मातृपक्षका नाम था । ज्ञातपुत्र यह 'वंश' सम्वन्धी नाम था, काश्यप 'गोत्र' का नाम था, और ‘वैशालिक’ जन्मस्थानके सम्बन्धका 'अर्थसूचक' नाम है, तब महावीर नाम उनके आत्म वीर्यका, सन्मति उनके आत्म ज्ञानका और 'श्रमण भगवान्' नाम श्रमण संस्कृतिके तात्कालीन अग्रसर रूपक 'अर्थसूचक' नाम है ॥ २३ ॥
शातृपुत्र - उपर्युक्त सव नामोंमें भगवान् महावीरके 'ज्ञातपुत्र' नामके विषय में हमको विचार करना है, यह ' ज्ञातपुत्र' नाम उनके वंशका सूचक है, यह बात जैनागम और बौद्धागममे ठौर २ कही गई है ।
2
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
१४९
भगवान् महावीर का 'श्री आचाराग' और 'कल्पसूत्र' आदि सूत्रोंमें उनके जीवन चरितके अनुसार उनका जन्म क्षत्रियकुण्ड ग्राममें 'ज्ञातवंशीय'
और 'काश्यपगोत्रीय' सिद्धार्थ क्षत्रिय राजाके घर त्रिशला क्षत्रियाणीकी कुक्षिसे हुआ था। . यह ज्ञातृवंश उस समयके प्रसिद्ध ईक्ष्वाकु, आदि क्षत्रियोंके विशाल कुलोंकी तरह प्रसिद्ध 'वंश' समझा जाता था। इस ज्ञातृवंशके क्षत्रिय प्रायः 'ज्ञातृक' के नामसे पहचाने जाते थे। और उनके इस 'ज्ञातृ कुलके सम्बन्ध से उनके नगरों के बाहर बनाए हुए खड-उद्यानों के नाम भी 'ज्ञातृखंड' के नामसे प्रसिद्ध थे । भगवान् महावीर प्रभुने 'कुण्डग्राम के समीपवर्ती 'ज्ञातृखंड' नामक वागमें दीक्षा ली थी । शास्त्र वचन तो इसकी खूब ही पुष्टि करता है। . जिनागममें 'ज्ञातृपुत्र' का प्रतिशब्द 'नायपुत्त' या 'नातपुत्त' के रूपमें
और वुद्धागममें 'नाथपुत्त' या 'नाटपुत्त' के रुपमें जिस शब्दप्रयोगका उल्लेख देखेनमें आता है, वह भगवान महावीर के 'ज्ञातृवंश' का ही अर्थसूचक नाम है, इसे मान लेनेमें हमको ऊपरोक कारण मिलते हैं, 'नायपुत्त' या 'नातपुत्त' में दोनों नाम सस्कृत में 'शाहपुत्र' शब्दके ही प्राकृत रूप हैं, और 'नाथपुत्त' या 'नाटपुत्त' ये दोनों नाम भी इसी शब्दके 'पाली' रूप हैं। प्राकृत में 'त' को 'य' और पाली मे 'त' को 'थ' और 'थ' को 'ट' भी साधारणतया हो जाता है । दिगम्बर सूत्रोंमें 'शातपुत्र' का 'नाथपुत्त' इस शब्दको व्यवहृत होता देखा जाता है। इस प्रकार भाषा और भावकी दृष्टिसे देखते हुए भी ये सब अलग २ नाम मूल 'शातपुत्र' शब्दमें मिल जाते हैं । ये सब नाम 'ज्ञातपुत्र' शब्दसे वनाए गए हैं। इसमें शंका करने के लिए जरासा भी स्थान नहीं है। प्राचीन कालमें वंशके नामसे परिचय 'करानेकी प्रथा होनेसे भगवान् महावीर प्रभुके जीवनविषयक परिचय श्रीजिनागमोंमें और वौद्धागमोंमें 'नातपुत्त' या 'नाथपुत्त' शब्दसे और भगवान् महावीरके शिष्योंका परिचय 'नातपुत्तीय' या 'नाथपुत्तीय' शब्दसे विशेषत दिया गया है।
श्रीजिनागमके १२ अगोंमें छठवा अग "णायधम्मकहाओ" है, उसमें उपर्युक्त आया हुआ 'णाय' शब्द भी भगवान् महावीरका वंशवाचक "नायपुत्त" के साथ गहरा सम्बन्ध रखता है। प्राकृतमें 'न' को 'ण' हो जाना तो
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५०
वीरस्तुतिः ।
एक साधारण नियम है । इस अंग का गुजराती अनुवाद भी 'भगवान् महा वीरनी धर्मकथाओ, यह करनेमें आया है, इस अगका परिचय श्रीसमवायागसूत्रमें किया गया है, उसमें बताया है कि - "इस अंग में ज्ञाताओं के नगरोंका, उद्यानोंका, मातापिता का, "इत्यादि परिचय दिया जायगा' यह लिखा है, टीकाकारने ज्ञाताओंका उदाहरणभूत अर्थ किया है, परन्तु " ज्ञाता" अर्थात् 'ज्ञातृवंशी क्षत्रिय ही अर्थ पूर्वापर विचार करते हुए अधिक निश्चय होता है ।
भगवान् महावीरका परिचय श्रीजिनागमों में 'नायपुत्त' - 'ज्ञातपुत्र' के अतिरिक्त और नामोंसे भी दिया गया है, तथापि वहां पर 'नायपुत्त' शब्द 'की ही विशेष प्रधानता रही है । वहुत से प्राचीनतम सूत्रोंमें भगवान् महावीर प्रभुकी गुण गाथाका सृजन विशेषतः 'नायपुत्त' शब्दसे ही किया गया है -
यथा
“न ते सन्निहिमिच्छन्ति, नायपुत्तवओरया” १८ "न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्त्रेण ताइणा मुच्छा परिग्गहो वुत्तो इइ वुत्तं महेसिणो” " एयं च दोसं दट्टणं, नायपुत्त्रेण भासियं सवाहारं न भुंजंति, निग्गंथा राइभोयणं" " एयं च दोसं दट्टणं नायपुत्त्रेण भासियं, अणुमायं पि मेहावी, मायामोसं विवज्जए"
२१
२६.
४९
" एवं से उदाहु अणुचरनाणी, अणुत्तरदंसी अणुत्तरनाणदंसणधरे, अरहा नायपुत्ते भगवं वेसालिए वियाहिए "
१८ भावार्थ - " जो भगवान् 'ज्ञातपुत्र' के वचनों पर पूर्ण विश्वास रखते हैं वे किसी वस्तु का संग्रह करके नहीं रखते ॥ १८ ॥
प्राणीमात्रकी रक्षा करनेवाले 'ज्ञातपुत्र' महावीर प्रभुने वस्त्र पात्रको परिग्रह न बताकर मूर्च्छा यानी ममत्व भावको ही परिग्रह बताया है, यह महर्षिओंने कहा है; ॥ २१ ॥ ( दशवै० अ० ६ )
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता १५१ 'ज्ञातपुत्र' महावीर प्रभुने कहा है कि मर्यादामें रहनेवाले साधु इस दोषको भलिभान्ति देखकर थोडासा भी कपट पूर्वक झूठ न बोलें ॥ ४९ ॥ __इस दोषको देखकर निम्रन्थ रात्रि भोजन छोडदे, क्योंकि 'ज्ञातपुत्र' ने इसके दोष प्रत्यक्षमें वताए हैं। ___"इस प्रकार अनुत्तरज्ञानी अनुत्तरदर्शन युक्त अर्हन् प्रभु 'ज्ञातपुत्र' महावीर विशाला नगरमें इस प्रकार व्याख्यान करते थे ॥ १८॥"
इन प्रमाणोंके अतिरिक्त इस अध्यायमें तो २-१४-२१-२३-२४ की गाथाओंमे प्रभुकी स्तुति 'ज्ञातपुत्र' शब्दका ही सकेत रखकर की गई है। इस तरह श्रीजिनागमके प्रमाणभूत ग्रन्थोंमें 'नायपुत्त' या 'नातपुत्त' को भगवान् महावीरके वंशवाची नामका उपयोग अनेक स्थलों पर पुष्कल रूपमें किया है, इन सब शब्दप्रयोगोंके उद्धरण करने की यहा जरासी आवश्यकता भी प्रतीत नहीं होती । मात्र हेमाचार्य ने परिशिष्टपमे जो 'ज्ञातनन्दन' भगवान् महावीरको वंदन किया है उसीका यहा उद्धरण देकर अगाडी वढ चलेंगे।
उन्होंने मंगलाचरणमें कहा है कि-"जो कल्याण वृक्षोंका वगीचा है, श्रुतिरूप गंगाका हिमालय है, विश्वकमलके लिए सूर्यकी भांति है उस ज्ञातनन्दन महावीरको में नमस्कार करता हूं।"
बौद्धपिटकोंमें भगवान् महावीर का अपना उनके शिष्योंको और उनके सिद्धान्तोंका परिचय उनके वंशवाची 'नाथपुत्त' या 'नाटपुत्त' के शब्दव्यवहारसे ही दियागया है। उनके श्रमण निम्रन्थोंके लिए 'नाथपुत्तीय' शब्द का उपयोग किया गया है । इस नामके अतिरिक्त भगवान् महावीरके जीवन सम्बन्धी परिचयके लिए अन्य किसी शब्दका प्रयोग किया हो यह देखने में नही आया, सिर्फ 'नाथपुत्त' के साथ 'निग्गंठ' शब्द का प्रयोग हुआ है । मगर वह शब्दतो उनकी साधु अवस्थाका सूचक है। और वह 'नाथपुत्त' शब्दका विशेष्य न हो कर एक विशेषण है।
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५२
.
. , वीरस्तुतिः ।
- - इससे प्राचीन कालमें 'वंशवाचक' -नामसे परिचय देनेकी प्रथा स्पष्ट जानी जा सकती है। महात्मा बुद्ध भी उनके मूल नाम "सिद्धार्थ" की अपेक्षा उनके 'गोत्रसूचक' नाम "गौतम" के नाम से और 'वंशसूचक' "शाक्यपुत्र" के नामसे अधिक प्रसिद्ध थे।
भगवान् महावीरका वंश 'ज्ञातृवंश' था और इस ज्ञातृवंशसे उनका 'वंशसूचक' नाम 'नायपुत्त' प्रसिद्ध हो गया, जिसे हम ऊपर देख गए हैं। मगर इस वंशका अगाडी चलकर कितना विस्तार और कितना विनाश हुआ इसका इतिहास प्राय. लुप्त है । इस लुप्तप्राय. इतिहास का शोध करना 'अत्यावश्यक' है । इस इतिहास को तलाश करने के लिए हमारे पास वौद्ध साहित्य एक अनन्य साधन है।
भगवान् 'महावीर' और 'महात्मा बुद्ध' ये दोनों एक समयके समकालीन धर्मक्रान्तिकारी महापुरुष होगए हैं। तदुपरान्त वे दोनों एक ही देशके निकटस्थ प्रान्तके निवासी राजवंशी पुरुष थे इन कारणोंको लेकर महात्मा बुद्धको एक प्रान्तसे दूसरे प्रान्तमें विहार करते हुए भगवान् महावीरकी जन्म भूमिमें जानेका और वहा भगवान् महावीरके वश-सम्बन्धी लोगोंके साथ वार्तालाप करनेका प्रसग प्राप्त होना यह एक स्वाभाविक वात है।
. 'वुद्धपिटक' के 'महावग्ग' नामक सूत्र में म० बुद्ध भगवान् महावीरकी जन्मभूमि कुण्डग्राममें 'और उसके पासमें 'ज्ञातृको' के ग्रामोंमे एवं वैशालि नगर जानेका और वहा 'निर्ग्रन्थ श्रावक' 'सिंह' सेनापतिके साथ वातचीत करनेका उल्लेख मिलता है। इस उल्लेखके आधार पर भगवान् महावीर का 'ज्ञातृवंश' और उनकी जन्मभूमिके विपयमें हमको बहुत कुछ परिचय मिलेगा। इसी धारणासे ये उल्लेख उतारने उचित प्रतीत हुए।
*अथ भगवान् जहा कोटिग्राम था वहां गए, वहा भगवान् कोटिग्राम मे विहार करते थे,
* देखो, विनयपिटक महावग्ग पृ० २४१-'कोटिग्राम,
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
१५३
.. अम्वापाली गणिकाने सुना कि भगवान् कोटिग्राममे आगए । अम्बापाली गणिका सुन्दर-सुन्दर (भद्र) यानोंको जुडवा कर, सुन्दर यान पर चढ़ कर, सुन्दरयानों के साथ वैशालिसे निकली। और जहां वह कोटिग्राम था वहा चली । तब वह 'लिच्छवी' जहा कोटिग्राम था वहा गए ।।
"एक समय भगवान बुद्ध नादिक (ज्ञातिका) के गिझिकावसथमें विहार करते थे"
( मज्झिमनिकाय पृष्ट १२७ । चुल्ल-गोसिंग-सुत्तन्त
वैशाली कोटिग्राममे इच्छानुसार विहार कर जहां पर वैशाली का महावन है वहा गए, वहां भगवान् बुद्ध वैशाली महावन की कूटागार शाला में विहार करते थे।
उस समय बहुतसे प्रतिष्ठित 'लिच्छवि' संस्थागार-(प्रजातन्त्रसभागृह) में बैठे थे । वे सब मिलकर बुद्ध का गुण वखानते थे। धर्म का, सघ का, गुण वखानते थे, उस समय निग्गंठों का श्रावक (जैनों का श्रावक) सिंह सेनापति उस सभामें बैठा था ।............... ......तव सिंह सेनापति जहा 'निग्गंठ नाथपुत्त' थे वहा गया, जाकर "निग्गंठ नाथपुत्त' से बोला कि भते में................... .........
सिंह ? तुम्हारा घर दीर्घकाल से निगंठों के लिए प्याऊ की तरह रहा है।................................... .............................................. उस समय बहुतसे निगंठ (जैन साधु) वैशाली में एक ...........................
........................ ...... चिरकालसे यह आयुष्मान् (निगठ) बुद.......... ..... .......हैं।
'विनय पिटक' 'महावग्ग', तथा 'मज्झिम निकाय' में आए हुए इन उल्लेखोंसे हमें साफ २ मालूम हो जाता है कि 'महात्मा बुद्ध' 'महावीरस्वामी'
.
.
.
.
.
.
।
.
.
.
.
.
.
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५४
वीरस्तुतिः।
अम्बापालीवन म कर दिया था। वहा आवक था, उसे निम्रन्थ
की जन्मभूमि 'कुण्डग्राम'-पाली भाषामे 'कोटिग्राम' में गए थे। और कुण्डप्रामके पासकी वसनेवाली वैशाली नगरीमेंसे वहां महात्मा बुद्धको अम्बा. पाली नामक वेश्या और लिच्छवीक्षत्रिय मिलने आए थे। कोटिग्राम से म० बुद्ध जहां 'मातिका' 'ज्ञातृक' रहते थे वहा गए थे। और वहा 'जातिका' ज्ञातृकोंके 'गिंजिकावसथ'-ईंटोंके घरमें ठहरे थे। इस स्थानके पास ही एक अम्वापालीवन नामक उद्यान भी रहा है जिसे अम्बापालीने वुद्ध और उनके संघको समर्पण कर दिया था। वहा से म० बुद्ध वैशाली गए और वहा सिंह नामक सेनापति जो कि निर्ग्रन्थोंका श्रावक था, उसे अपना अनुयायी बनाया, सिंह सेनापति महात्मा बुद्धको मिलने जाने से पहले निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र महावीर प्रभुके पास अनुज्ञा लेने आया था। तव भगवान् महावीरने सिंह सेनापति को "तू क्रियावादी हो कर अक्रियावादी श्रमण गौतमके पास उसे मिलने क्यों जाता है ? यह कह कर न जानेकी सम्मति दी थी"। परन्तु वह अपनी इच्छानुसार श्रमण गौतमके पास गया और वह वहीं श्रमण गौतम बुद्धका अनुयायी होगया।
उपरोक्त उल्लेखसे हमारे विषयको पुष्ट करने वाली चार वातें जानने को विशेष तया मिलती हैं।
(१) वौद्रोंका कोटिग्राम* ही जैनोंका कुंड ग्राम मालूम होता है, इन दोनों नामोंमें शाब्दिक सादृश्यके अतिरिक्त उस ग्राम के पास 'ज्ञातृक'-ज्ञात वंशके क्षत्रियोंका निवास स्थान और वैशाली नगरीकी निकटता होनेके कारण ये दोनों वस्तुएं 'कुण्डग्राम' और वही 'कोटिग्राम' होनेकी मान्यता पुष्ट हो जाती है।
(२) कोटिग्रामके पास ज्ञातृकों का निवासस्थान, भगवान् महावीरका वंश 'ज्ञातृवंश' था यह और भी पुष्ट कर देता है, और साथ २ कुण्डग्रामके, आस पास 'ज्ञातृक'-'ज्ञातृवंश' के क्षत्रियोंके खंड-'उद्यान' थे, और वहां
• * वौद्धप्रन्योंमें कुंडग्रामका नाम कोटिगाम और भ० म० को ज्ञातिपुत्रके स्थान पर नातिपुत्र लिखा है । देखो "भारतका प्राचीनराजवंश" पृष्ठ ४० ले० विश्वेश्वरनाथ राय ॥
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
१५५
'शातृवंशी क्षत्रिय रहते थे। यह इस विचारको और भी दृढ कर देता है । यह "ज्ञातृक" का उल्लेख और ये 'ज्ञातृक' भ० महावीरकी जन्म जातिवाले 'ज्ञात' क्षत्रिय ही होंगे यह कल्पना की और निर्देश करता है।
(३) 'ज्ञात' जाति लिच्छविओंकी एक शाखा थी* इस वातकी पुष्टिके लिए भी 'वैशाली के लिच्छवी क्षत्रिय महात्मा बुद्वको मिलने आए थे' इस उल्लेखसे पता चल जाता है कि भगवान् महावीर की माता भी लिच्छवि वंशकी ही थी और 'सिंह सेनापति' जोकि-भगवान् महावीर का श्रावक था वह भी लिच्छवि वंशका ही था। ये दोनों बातें ज्ञातृ जातिको लिच्छविओंकी शाखा का होना ही पुष्ट करती हैं।
(४) कुण्डग्रामके पास विदेहकी राजधानी वैशाली नगरी थी। इस नगरी का कुण्डग्राम एक शाखापुरके समान था। भ० महावीर प्रभुका "वैशालिक" नाम भी इस नगरके नाम से ही प्रसिद्ध था, विशाला नगरी में सिंह सेनापति नामका जो निग्रन्थ श्रावक लिच्छवी रहता था वह भगवान् महावीर की सलाहको न मानकर महात्मा बुद्धके पास गया था। इससे भी महात्मा बुद्ध वैशाली नगरमे आया था तव भगवान् महावीर प्रभु भी उसी नगरमे थे, यह स्पष्ट जान पडता है।
ऊपरके उल्लेख में जो 'जातिका' शब्द लिखा गया है, उस शब्दका मूल वहुतोंने 'नादिका' भी निकाला है, और उसका अर्थ 'इस नामके जलाशयके तट पर बसा हुआ एक ग्राम किया जाता है । मगर यह भ्रमपूर्ण है । इस प्रकार हर्मन जेकोबी उसका मूल शब्द जातिका ही वताता है।
और वह शब्द 'ज्ञातृवंश' के क्षत्रियों का वाचक है यह कह कर समर्थन करता है।
* प्रसिद्ध जैन तीर्थंकर महावीरकी माता भी लिच्छवी वंश की ही थीं। देखो 'भारतका प्राचीन राजवंश पृ. ३७८ लेखक विश्वेश्वरनाथ राय ।
* हर्मन जेकोबी की 'Sacred Books of The Last' नानक अन्यमालासें प्रकाशित 'आचाराग और कल्पसूत्र' नामक जैनसूनोंके अनुवाद की प्रस्तावना, पृष्ट १०॥
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः ।
। इस जातिका शब्द पर त्रिपिटकाचार्य श्रीयुत राहुलसकृत्यायन ने इस पर विशेष प्रकाश डालाहै । उसने अपनी 'बुद्धचर्या' *नामक हिन्दी पुस्तकों 'नादिका' का मूल शब्द "नाटिका"-ज्ञातृका,, वताया है। और 'ज्ञातृका' शब्द ज्ञातृवंशके क्षत्रियोंका सूचक है यह सप्रमाण वताया है। वे अगाडी चलकर यह भी बताते हैं कि-ज्ञातृ जाति लिच्छवियोंकी शाखाथी । और वैशाली नगरीके आसपास ही रहने वालीथी । यह ज्ञातृ जाति आज भी वैशाली नगरी (जिला मुज़प्फरपुरके अन्तर्गत है, बसाडके पास) के आस पास जथरिया नामक जातिसे पहचाना जाता है, यह जथरिया शब्द भाषाकी दृष्टिसे भी 'ज्ञात' शब्दके साथ गहरा सबंध रखता है ।
जरिया शब्द 'ज्ञात' शब्दका अपभ्रंश शब्द प्रतीत होता है । 'ज्ञात' शब्दमेंसे जथरिया शव्दका अवतरण किस प्रकार होगया इसके विषयमें राहुलजीने भाषाकी' दृष्टिसे निम्न प्रमाणसे विचार कियाहै । ज्ञातृजाति, ज्ञातज्ञातर-जातर-जतरिया जथरिया-जैथरियाके गाँवमे नादिका-ज्ञातृका-नत्तिकालतिका-रत्तिका-रती जिसके नामसे वर्तमान रत्ती पर्गना (जि० मुजफ्फरपुर) है । बुद्धच- २९ पृ० ।
इस प्रकार 'जथरिया' शब्द 'ज्ञात'का अपभ्रंशहै राहुलजी इस रत्ती पर्गनाका मूल नाम अपने उपरोक्त उल्लेखमे आए हुए 'नादिका' शब्द से उत्पत्ति बताते हैं।
* उस समय वही भारी निग्गंठोंकी परिषद (जैन साधुओंकी जमात) के साथ निग्गंठ नाटयुत्त (महावीर) नालन्दामें ही निवास करते थे।
(१) 'नाटपुत्त'-'ज्ञातृपुत्र'लिच्छवियोंकी एक शाखा थी । जो वैशाली के आस पास रहतीथी। ज्ञातृसे ही वर्तमान जथरिया शब्द बना है । महावीर
और जथरिया दोनोका गोत्र काश्यप है । आज भी जथरिया भूमिहार ब्राह्मण इस प्रदेशमें बहु सख्यामें है। उनका निवास रत्ती पर्गना भी ज्ञातृ-नती-लतीरतीसे बना है।
१११ पृष्ठमें निगंठ पुत्तका भी उल्लेख किया है जो कि सं०नि० ४०1१1८ से उद्धृत किया गया है।
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता १५७ इस प्रकार 'जथरिया' और उसका वर्तमान निवास 'रती' ये दोनों शब्द 'ज्ञात' शब्दके साथ घनिष्ट सवन्ध रखते हैं और इस सवन्धसे 'जथरिया 'ज्ञातृक'-ज्ञातृवंशी ही हैं, और उनका प्राचीन निवास स्थान जोकि 'नादिका' या 'नाटिका' के नामसे पहचाना जाता था वही वर्तमान रती परगना है यह राहुलजीका दृढ मन्तव्य है । इनके इस दृढ और पुष्ट मन्तव्यमे दूसरी यह मी युक्ति है कि-इन 'जथरियोंका' मूल गोत्र काश्यप है। वही काश्यपगोत्र भगवान् महावीर और उनके ज्ञातृवशी क्षत्रियोंका भी था।
इन जथरिया-ज्ञातृवशी क्षत्रियोंके विषयमें सूचना करते हुए श्री राहुलजी बताते हैं कि ये 'जथरिया' लोक वर्तमान समयमे अपनेको ब्राह्मण बताते है। ये दान नहीं लेते। पंजाव प्रान्तमेंमी जमना नदीके किनारे बसने वाली एक जाती रहती है। वे भी दान नहीं लेते। उस देशमे उनको तगा कहते है। शायद यह त्यागीका अपभ्रष्ट होगया हो । हा तो इन 'जथरिया' जातिके लोकों को भूमिहार ब्राह्मण कहा जाता है। मगर और लोक इनको ब्राह्मण नहीं मानते। इससे स्पष्ट सिद्ध है कि-वास्तवमे ये लोक क्षत्रिय ही हैं। इसका दूसरा कारण यह भी है कि ये 'जथरिया' नाम सिंहान्त वाले हैं। जो क्षत्रियोंके नामके साथ आजकल पीछेसे लगाया जाताहै और इनके नामके पीछे ठाकुर शब्द भी जोडा जाता है । यह भी क्षत्रिय सूचक ही है । इस वंशमें आजकल भी बहुतसे जमीनदार और राजा भी हैं । दर्भगा नरेश इसी जातिसे अलंकृत सुने जाते हैं।
बौद्धसाहित्यके उल्लेखोसे तथा राहुलजीके कथनसे इतना अवश्य माना जा सकता है कि भगवान् महावीरका वंश 'ज्ञातृवश' था। और वे ज्ञातृवंशीय क्षत्रिय कुण्डग्रामके पास रहते थे । और इन ज्ञातृवंशीय क्षत्रियोंके ग्राममे महात्मा बुद्ध आए थे। वर्तमान समय में ये ज्ञातृवंशीय क्षत्रिय 'जथरिया के नामसे प्रसिद्ध हैं । और वे प्राय. विहारप्रान्त के मुजफ्फरपुर जिलेके रत्ती नामक पर्गनेमें रहते हैं। और ये 'जथरिया' अपने नामके पीछे सिंह और ठाकुर शब्दका उपयोग भी करते है । और काश्यप गोत्र होनेसे ज्ञातृवंशीय क्षत्रिय हो सकते हैं । मगर ये लोक आजकल अपनेको भूमिहार ब्राह्मण कहते हैं। वस्तुत• इसके पीछे सत्य खरूप कहा तक छुपा हुआ है इसे शोध करके प्रकट करनेकी वही ही आवश्यकता है, इस सत्य शोधसे भगवान महावीर प्रभुके
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५८
" ,, , , वीरस्तुतिः।
ज्ञातृ-वंश और उनके जीवनके सम्बन्धका बहुतसा अज्ञानान्धकार जो कि अपने आसपास फैल गया है वह अन्धकार दूर हो जायगा ।
गुजराती अनुवाद-पोतानी तेमज अन्यनी पूर्ण उन्नति तथा मलाईने माटे जे परोपकार दृष्टिथी आपवामां आवे तेने 'दान' कहे छे, अथवा वस्तुपरथी पोतानो अधिकार छोडी दईने वीजा कोईने अधिकार आपवो ते पण 'दान' कहेवाय छे, परन्तु अहीं तो श्रद्धा अने प्रतीतिनी साथे भक्ति-भाव पूर्वक परिग्रह परनो ममत्व-भाव छोडीने कर्मोनी निर्जरा खातर अनुकम्पाथी तथा मन-वाणी-कायनी शुद्धि सहित फलनी इच्छा वगर दाता जे प्राशुक अने पवित्र वस्तु आपेछे तेने 'दान' कहे छ ।
ते दानना चार प्रकार-अन्नदान-औषधदान-अभयदान अने ज्ञानदान, ए दानोंमां प्राणिओनो भय दूर करी तेने सर्वथा निर्भय करवा ते सर्वोत्तम दान मनाय छ । भने आ मानवदेहमा दश प्राण छे, तेथी 'प्राणी' कहेवाय छे, जीवित रहेवानी इच्छा अथवा जीवित रहेवानो तेनो खभाव होवाथी तेनुं नाम 'जीव' पण छे, अने ए दश प्राण द्रव्य प्राण छे, अने ज्ञान-दर्शन-सुख-शक्ति रूप अनन्त-चतुष्टय भाव प्राण छ, वास्तविक रीते त्रणे कालमा आ प्राणोथी सदा आ जीव जीवित छे, सर्व जीवो जीववानी इच्छा राखे छे, मर कोई इच्छतो नथी, तेथी जीवित रहेवानी इच्छावाळाने अभय दान दईने तेनुं सर्वप्रकारे रक्षण करवु श्रेष्ठ छ । कोईने साचा दिलथी अभयदान पण आप्युं होत तो आ जीवनी मोक्ष थई जात, परन्तु आत्माने ज्ञानदान न मळवाथी पोताने जीववानुं स्वार्थ राख्यु, वीजा जीवोने पण जीवQ प्रिय छ ए भान भुलावी दीधुं । कोइए कडं पण छे के
"जे रीते मने मारं जीवन प्रिय छे, तेमज अन्य जीवोने पण पोतानुं जीवन प्रिय छे, स्वर्गमा रहेनार इन्द्र तेमज विष्टानो कीडो, महलमा वसनार भूपति तेमज झुपडीमां रहनार गरीव कठीभारो, ए दरेक जीवq इच्छे छे, तेम समजीने कोई पण प्राणीना मन नामा प्राणने पण निरर्थक कष्ट न देवू जोइए"।
अहिंसा परम धर्म छे-अहिंसा-परम धर्म छे, हिंसा सर्व जग्याए निंदाय छे, ते पोताने पण वधारे अप्रिय छे, तो वीजाओने पण अवश्य अप्रिय छे, कारण के पोतानी तेमज परनी मनोदशामां कंइ अन्तर नथी, तेथी चतुर मनुष्योनी सदा आ भावना रहे छ के कोई पण प्रकारे जगत्ना जीवोनुं कल्याण
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
१५९
करु । भलाई करूं, परोपकारमा हुं पोते लाग्यो वळग्यो रहुं ने बीजाओने लगाडवानो प्रयत्न करूं । मारामां लेशमात्र पण दोष न रहेवा दऊं ने बीजाओने निर्दोष बनाववानो पण सतत प्रयत्न करूं । आत्माना अनन्त सुखथी सुखी बनी बीजाओने सुखना स्थान पर लई जाऊं।
जो कोई प्राणी आ भावोथी विपरीत चालीने, लोभना दास वनीने, जीभनी लालच जाळमा फसीने, द्रव्योपार्जननी इच्छाथी, लडाईमा विजय मेळववानी इच्छा थी, पोताना मनने व्हेकाववाना हेतुए, निरपराध दीन-प्राणिओनी "हिंसा' करे छ त्यारे तेनाथी उपार्जन करेला पापथी दूषित थईने, ते खार्थीने नरकमा अवश्य जवू पडे छ, आ सिद्धान्त सर्व महापुरुषोंने मान्य छ, वधाए तेने उच्चकोटिए पहोंचाडवानो प्रचार को छे, महर्षि 'पतंजलिए' तो तेने सर्वथी मोटुं स्थान आप्युं छे, पाच यमोमा सौथी प्रथम 'यम' जीवरक्षा छे,
"क्रोध-लोभ-मोहने लीधे हिंसा करवी, कराववी, भने अनुमोदवी तेने वितर्क कहे छ, भने ते पापर्नु परिणाम तेमना मते अनन्त दु.ख वताववामां आव्युं छे।"
कोई जग्याए तो अहिंसानी प्रशसा एटले सुधी करवामा आवी छे के प्राणिओनी साथे वैर भाव पण त्यागी देवो जोइए । त्यारेज साधक अहिंसा साधी शके छ।
श्रीमद् उमास्वामीए-तत्त्वार्थसूत्रमा कयुं छे के "जे कोई जीव प्रमाद अर्थात् असावधानता युक थईने मनो योग-वचन योग अने काययोग द्वारा प्राणोनो 'अतिपात' वा 'व्यपरोपण' करे छे तेने हिंसा कर कहे छ।
हिंसा करवी-मारवु-प्राणोनो अतिपात त्याग अथवा वियोग करवो, प्राणोनो वध करवो, जीवने कायथी अलग करचो, भवान्तर अथवा गत्यन्तरमा पहों. चाडी देवो, अगर प्राणोनुं व्यपरोपण करवू, ए वधा शब्दो एकार्थवाची छ ।
जो कोई जीव प्रमादी अर्थात् मद विषय-कषाय-निद्रा अने विकथाने वश थईने एवं कार्य करे, पोताना वा परना प्राणोना व्यपरोपणमा प्रवृत्त वने, त्यारे ते हिंसक हिंसाना दोपनो भागी कहेवाय छे, प्रमादनो त्याग करीने प्रवृत्ति करवावाळाना शरीरादिकना निमित्तथी जो कोई जीवनो वध थई जाय तो ते दोपनो भागी कहेवातो नथी । एटले 'अप्रमत्त' अवस्थानुं बीजु नाम 'अहिंसा' छ।
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६०
. . - वीरस्तुतिः।
",
- तदुपरान्त 'योगशास्त्र' ना व्यासकृत भाष्यमां अहिंसानी व्याख्या : प्रमाणे करवामा आवी छ । के "सर्वदा सर्वप्रकारना जीवोनी साथे कदी पण द्रोह न करवो ते अहिंसा छ । ___याज्ञवल्क्य -स्मृतिमा का छे के मन, वचन, कायथी कोईने पण क्लेश न पहोंचाडवो ते ज 'अहिंसा' छ ।
___ अहिंसा-सत्य-आज्ञा विना पर वस्तु न लेवी, आत्माने पवित्र राखवो; इन्द्रियोनुं दमन करवु, दया पाळवी, मनोविकारना प्रवाहने रोकवो, शान्तिमय जीवन जीवचुं, ए वधाने धर्मसाधन वताववामां आव्युं छे। . . - यजुर्वेद-तेमां पण उपदेश आपवामां आव्यो छे. के-हे पुरुष! तुं जगत्ना कोई पण प्राणीनी हिंसा करीश नहि । "मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे” १८-३, पोतानी आखोथी सर्वने मित्र दृष्टिए जोवा जोइए। शत्रु जेवी दृष्टि कोईना पर पण न करवी ।
मनुनो पांचमो अध्याय-"जे मनुष्य पोताना कल्याणनी तो इच्छा प्रगटकरे छे, परन्तु प्राण-भूत जीवोनी हिंसा करे छे. ते जीव आ लोकमां, अने मरीने परलोकमा क्यारे पण सुख मेळवी शको नहि। , दशधर्म-"धैर्य धारण करवू, शान्ति राखवी, आत्माने पापथी विरक्त वनाववो, चोरी न करवी, आन्तरिक पवित्रता रासवी, इन्द्रियोने वश करवी, सत्य बोलवु, क्रोध न करवो, अहिंसाचं पालन करवू, आरभ अने परिग्रहने मुकवा ए प्रकारे धर्मना दश लक्षण वतावेला छे ।"
महाभारत-"आ हुं सत्य कहुं छु के सत्यवादिओनो धर्म अहिंसा छे. अने ते प्रधान छे, अने हिंसा करवी, ए अधर्म छे, पाप छ। .. अहिंसावचनामृत-अहिंसा परम धर्म छे, अहिंसा उत्कृष्ट दमन छ, अहिंसा उत्कृष्ट दान छ, अहिंसा प्रधान तप छे, अहिंसा परम यज्ञ छ, अहिंमा परम ,फळ छे, अहिंसा परम मित्र छे, अहिंसा उत्कृष्ट सुख छे अहिंसा एज उत्तम जीवन छ । . . - "सर्व प्रकारना यज्ञोमा अनेक प्रकारचें दान कर, सर्व तीर्थमा अनेक स्तुतिओ गांवी, सर्व दानोनुं फल अहिंसा करतां सारुंनथी, एटलेके ते कर्म अहिंसानी,साथे वरावरी करी शकतुं नथी।" . . . . .
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
१६१
., नियमसार-कुलस्थान, योनिस्थान, जीवसमासस्थान, मार्गणास्थान; इत्यादि मेदोने सारी रीते जाणीने जीवरक्षा करवाना भावने 'अहिंसा' कहे छे, जीवोनुं मृत्यु थाय छे के नहि, ए प्रकारना विचारमा लागेला परिणाम वगर पाप-हिंसारूप क्रियानो त्याग थवो कठिन छ,, तेथी ते रक्षाना प्रयत्नमा लागवू, ते 'अहिंसा' छ।
समन्तभद्राचार्यजीर्नु कथन छ के-जगत्मा आ सर्व जाणे छे के अहिंसा परब्रह्म खरूप छ, अर्थात् भात्मानी पूर्ण वीतरागताज 'अहिंसा' छ । ज़्या वीतरागता छ त्या आत्मानुं शुद्ध-खरूप छे, जे आश्रमना चरित्रमा, अणुमात्र पण आरंभ नथी, त्या आ 'अहिंसा' प्राप्त थाय छ । आशय ए छ के. आदर्श पुरुषोनुं सुन्दर तेमज सच्चरित्र रूप आचरण 'अहिंसा' छ । तेथी अहिंसानी सिद्धिने माटेज परम दयाळु प्रभुए आरम्भ परिग्रहनो त्याग कर्यो छ । प्रभु विकारशील वेश तेमज परिग्रहमा अनुरक्त नथी । कारणके ज्या परिग्रहनी आसक्ति नथी त्याज ऊचा प्रकारनी अहिंसा-धर्म छे 'जैन धर्मनी जय' ते माटे बोलवामा आवे छ के तेमा पूर्ण अहिंसानु पालन करवामा आवे छे, ते त्रस जीवोनी घात करवावाळा विचारोने जडमूलथी नाश करवानुं कारण छ । तेमन पंचकायरूप एकेन्द्रिय जीवोनी घातथी पण तद्दन पर छ । अहिंसा त्रणे लोकना जीव समूहने सुख देनारी छ । तथा सुन्दर भने अक्षय सुखथी भरपूर समुद्र समान अगाध छ । - सर्वथा अहिंसानू पालन करवू, ए मुनिओनो धर्म छे, कारणके हिंसानुं परिणाम दु ख जनक छे, एम महापुरुषोए महान् अनुभवथी वताव्यु छे। । “पगे लंगडो छे, शरीरमाथी रक्त पित्त वहे छे, हाथ कपायेला छे, तेमंज अन्य अनेक रोगथी भरपूर छे, तेने जोईने समजी लेवु जोइए के आबु दारुण दु ख अन्य प्राणिओनी हिंसा करवाधी तेने भोगवq पडे छ । आथी निरपराध जीवोनी सकल्पमानथी पण हिंसा न करवी । ए चतुर पुरुषोनु कर्तव्य छ ।". : सुख दुखमा, भला बुरामा, युक्त अयुक्तमा, पोताना जेवा अन्य आत्मा
ओने समजीने क्यारे पण कोई- “हिंसारूप' अविष्ट न कर, ।, - , - - लोकोनुं मन्तव्य-लोकोनुं मा मन्तव्य छ के-धर्मना संपूर्ण अंगो साभळीने, मनमा विवेक राखीने तेनो निर्णय पूर्वक आ सार छे के ज्यारे मैंने
वीर. ११
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६२ . वीरस्तुतिः। .... माराथी प्रतिकूळ सारं नथी लागतुं त्यारे बीजामओने तेमने प्रतिकूळ क्याथी सारं लागे? - "वधाने पोतानो प्राण प्रिय छे राज्य नहि"-पोताना प्राण बचाववानी खातर इष्ट मित्र अने राज्यने पण तृणनी समान छोडी दे छे, तेथीज कोईना प्राणनो नाश करवाथी जे पाप थाय छे. ते समस्त पृथ्वीनुं दान करवा छता दूर थई शकातुं नथी।
___ मरनारने भले राज्य आपो के सुवर्णना पहाड अर्पण करों परन्तु जीवतरनी पासे ते वस्तुओनो कंइ हिसाव नथी। तेथी ते सर्वने छोडीने जीवता रहेवानी अपील करे छ। - "जरा कांटो पगमा लागे छे तोते आखा शरीरमा भारे पीडा करे छे तो जे निरपराध जीवोने मोतने आरे पहोंचाही दे छे, ते मरनारना दु खोनी वेदना अनिर्वचनीय छ ।” . "अशरण, निरपराध, दुर्वलप्राणी बलवानना हाथे मराय छे, ते त्यांनी नीति ? हाय 1 कष्टनी साथे अमारे कहेवु पडे छे के जगत्मा अराजकता व्यापी गई छे, त्या न्यायने स्थान क्याथी मळे, जो कोई कोईने सभळावे छ 'तुं मरी जा' एम साभळनार पण आ साभळतां ज कंपी उठे छ, शरीर भय- ' भीत अने दुखी थई जाय छे। तो जे बीजाने कठोरता पूर्वक शस्त्रथी मारे छ त्यारे तेनी शी दशा थती हशे? तेना दु.खना अनुभव वगर तेनुं वर्णन कोण करी शके ?"
"हाथर्नु कपाईं सारं छे, पग वगरना रहेवामा पण कंइ खरावी नथी, पण शरीरना सम्पूर्ण अगोने प्राप्त करवा छतां 'हिंसकपुरुष' कोई कामनो नथी।" . स्वार्थ साधवानी हिंसा पण हानिकारक छे-"विघ्ननी शान्तिने माटे करेली हिंसा पण विघ्नने माटेज थाय छे। घणाओ एम कही ये छे केअमारा कुलनो आ रिवाज चाल्यो आवे छे । परन्तु ते कुलनु जराय भलु करी शकतों नथी । ते कुलना नाश माटेज थाय छे शान्तिने माटे नहि । पोताना वंधमा परम्परागत चालती आवेली हिंसाने जे प्राणी छोडी ये छे, अने शुद्ध अहिंसक बने छ, ते 'कालसूर कंसाई' ना पुत्र 'सुलस' नी पेठे सर्व मनुष्योमा पवित्र भने श्रेष्ट वने छ।” - . .
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता १६३ "जे इन्द्रियोने तो वशमा राखे छे; देव-गुरुनी सेवा पण करे छ, यथा शक्ति दान पण आपे छे, तत्व भणे भणावे छ, तप पण करे छ, पर्ण धर्म चुद्धिए जरा पण हिंसा करी बेसे छे त्यारे तो तेनी उपरोक सर्व क्रियाओ निष्फल छे, तेथी साबित थयुं के धर्मना नामे करवामा आवेली हिंसा वज्रलेप समान भयंकर पापकारिणी छे।" "भने जे शास्त्रमा धर्मना नामे हिंसानो उपदेश करवामा आव्यो होय ते शास्त्र नथी पण शस्त्र समान छ ।” “ए केQ आश्चर्य छे जे मनुष्य सुद्धाने मारवानो उपदेश देवावाळा, लोभान्ध वनी पथ भ्रष्ट वनवावाळा, हिंसा विधायकशास्त्र वनावीने तथा पाप करवानो उपदेश आपीने लोकोने मूर्ख बनावी रह्या छ, अन्धश्रद्धालु बनावीने मानो नरकना कुंडमां नाखी रया छे !"
अहिंसानु माहात्स्य-"अहिंसा मातानी जेम सर्वनुं पालन करनारी अने हितकारिणी छे । अहिंसाज शत्रुभोना मनमां अमृतनो संचार करावनारी छ । अहिंसा दु ख रूपी दावानलने बुझाववामा अमोल अने प्रधान वर्षा छ । संसार भ्रमण अर्थात् जन्म मरणना रोगथी पीडित जीवोने आरोग्यता अर्पनारी समर्थ औषधि छ ।"
अहिंसा फल-दीर्घायुष्य-पवित्र अने सुन्दर रूप-नीरोगता-संसा. रमा निर्मल यश. कीर्ति इत्यादि सामग्रीओ अहिंसा पालनथी ज मळे छ, अधिक शुं कहेवू, अहिंसा सर्व मनोरथ पूर्ण करवावाळी आदि शक्ति छ ।"
कोईए ठीकज कह्यु छ के-“पर्वतोमा सुमेरु अमृत पीनारामां देवता, मनुष्योंमा चक्रवर्ती, ज्योतिष चक्रमा चन्द्र, वृक्षोमा ठंडी छाया आपनार फळदार अशोकवृक्ष, ग्रहोमा सूर्य, जळाशयोमा समुद्र, सुर असुर मनुष्य तथा चक्रवर्तिओमा वीतरागनी समान सर्व व्रतोमां पण अहिंसा व्रत सर्वोत्तम छ । ते व्रत अनुपम छ ।”
निष्कर्ष-आ सर्व शास्रोनो विचार करतां ए खयमेव सिद्ध थाय छे के हिंसा सर्व शास्त्रोमा वर्ण्य वतावी छे। जैनोए तो तेनुं नाम 'प्राणातिपात' का छ । तेनो भाशय ए छे के कोईना एक प्राणने पण निरर्थक दु.ख न देवु जोइए। साधु मुनिराज तो तेनुं सर्वाशे पालन करे छ। भने गृहस्थ तेनुं अमुक अंशे पालन करी शके, छे । । ।
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६४ , वीरस्तुतिः। , " :
. "पोतानुं जीवन, सर्व कोईने वधी वस्तुमओ करता अधिक प्रिय छे, जेम कमु छे के-"जो मरनारने एम कहेवामा आवे के तुं एक करोड सोनामहोर लईने तारो जीव दई दे । त्यारे ते धनना ढंगलाने छोडीने जीववानी आशा प्रगट करशे । कारणके जीव गयो पछी तेने माटे धन शा कामर्नु ? सर्वने जीववु, वहालुं लागे छे। तेथी सर्व दानोमां अभयदान श्रेष्ठ छ। ,,
. अभयदान पर उदाहरण-वसन्तपुरंमां अरिदमन नामे राजा राज करतो हतो, ते पोतानी चार राणिओ साथे आनंद भोगवतो। एक दिन ते राणिओए गावं, वजावतुं नाचवू शरु कयुं । राजा तेमनी गाधर्व विद्या ऊपर प्रसन्न ,थई गयो, अने वोल्यो के “आजे तमे जे कई मागशो ते हुँ आपीश ।" राणिओए जवाव आप्योके अत्यारे तो अमने कोई पणे वस्तुनी आवश्यकता नथी, पण यथा समय ऊपर मागी लइशं, अमने आपेल वरदान हमणां आप जमा राखो, राजाए का “बहु सारं" ' एक वार राणीओए.. एक चोरने जोयो के जेने लाल कपडां तथा जोडानो हार पहेरावीने वध्यभूमि तरफ लई जवामां आवतो हतो । राणीओनी साथे राजा पण महेलं पर टेलतो हतो। चोरने जोईने राणीओए राजाने पूछयु के प्रजानाथ ! "आणे शो अपराध कर्यो छे ?” राजाए एक सिपाईने वोलावीने पूच्यु । तेना जवावमा तेणे कथु के-पृथ्वीनाथ ! तेणे चोरी जेवू राज्य तेमज धर्मविरुद्ध अकार्य कर्यु छ, तेथी आपेज तेने प्राणदंडनी शिक्षा फर्मावी छ।
' : ते सांभळीने तेमांनी एक राणीए कह्य के न्यायवल्लभ ! आप मने मारु वरदान आपो.के तेने एक दिवसने माटे जीवनदान आपवामां आवे, के जेथी हु तेना पर कांइक उपकार करी शकुं" राजाए कह्यु "तथास्तु" : राणीए तेने महेलमा बोलावी कम्युं के "तने आजने माटे बचावी दीधो छ माटे खा पी ने मोजकर" एम कहीने अन्न वस्त्रथी तेनुं खागत करवामा आव्युं । सवार थता तेने १००० दीनार आपीने विदाय करवामां आव्यो । - ए रीते वीजी अने त्रीजी राणीए पेण एक एक दिवसनुं जीवित दान दईने अनुक्रमे एक लाख अने एक करोड सोनामहोरनुं दान आप्यु । . , पण चोथी राणीए तेने कंड पण आप्या वगर तेने प्राण दंडनी सजा राजानी पासे क्षमा करावी दीधी। सारे साभळीने ते त्रणेए कांके ,“एने तें झुं
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता १६६ आप्यु ?” चोथी राणीए कह्यु के. "में तेने ए वस्तु आपी छे के जे तमे वधी मळीने स्वप्नमा पण न आपी शको" ते साभळीने ते बधी क्रोध करीने तेने गळे पडीने बोली के “अमे तेने क्रोडपति बनावी दीधो अने तुं कहे छ के अमे एना पर तारा जेटलो उपकार पण नथी कर्यो !” चोथीए कयु के “धन थी पेण अधिक प्रिय सौने पोताना प्राण होय छे।" में तेने प्राण दान अपावीने हमेशने माटे सुखी बनावी दीधो छ । हवे तेने मरवानो भय नथी रह्यो। जेथी में सौथी मोटुं कार्य कर्यु छ । जो मारी आ वात पर तमने विश्वास न होय तो राजानी पासे आनो न्याय कराववो जोइए" एटली वात थया पछी राजाने महेलमा बोलाववामां आव्यो। राणीओनो मुकद्दमो साभळीने राजाए चोरने बोलाव्यो अने पूछ्युं "तुं साचुं कहे के कई राणीनो तु अधिक उपकार माने छे ?”
तेणे विनय पूर्वक शिर झुकावीने कयु के-एम तो बधीए मारा पर. भारे उपकार को छे, कारण के तेणे मने अभयदान अपाव्यु छ। त्रणे राणीओए क्रोडोनु धन आप्यु अने एक एक दिवस मरता वचाव्यो पण ए भय माथे रह्योज हतो के काले तो मरी जवानुं छे, तो आ धनने शु करु ? पण चोथी राणीए मने सकटमाथी बचावी दीधो छ । जेथी हु जावजीव सुधी निर्भय वनी गयो, तेथी आ उपकारनो वदलो मारो देह अपने पण नहि चुकावी शकुं । “कारणके सर्वदानोमा अभयदान श्रेष्ठ छ ।" __एज प्रकारे सत्यवचनो निरवद्य-पापरहित-अन्यनी पीडा दूर करवावाळी भाषा सर्वोत्तम छे, कारण के काणा-नपुंसक रोगी-चोरादिने तेना नामे बोलाववाथी पण तेना मनने आघात पहोंचे छ।
मनुनो मत-"सत्य-प्रिय-तेमज मनने अनुकूळ बोलो, असत्य तेमन अप्रिय सत्य पण न बोलो। आ प्रसग मा असत् शब्दना जैनसिद्धान्तमा त्रण अर्थ छ । सद्भावनो प्रतिषेध, तेमज अर्थान्तर तथा गर्दा-निन्दा । वस्तुना स्वरूपना अपलापने सद्भावनो प्रतिषेध कहे छे । ते वे प्रकारे छे। सद्भूत पदार्थनो निषेध तेमज असद्भूत्त पदार्धनु निरूपण । जेमके "नास्ति आत्मा" अर्थात् आत्मा कोइ स्वतन्त्र पदार्थ नथी, अथवा "नास्ति परलोक " परलोक ' अर्थात् मरण पछी जीवने अन्य भव धारण करवो पडे, ए वास्तविक नथी, ‘एं वगेरे भूत निन्हव छ। कारण के तेथी सद्भूत पदार्थनो अपलाप थाय छे । आत्मा तेमज परलोक जीवनु भवान्तर धारण करवु वास्तविक रीते सिद्ध पदार्थ छ, युक्तियुक्त तेमंज
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६६
.. वीरस्तुतिः। ' . ' , .. अनुभवगम्य छे, तेनो निषेध करवो ते सद्भूतनुं अपलाप नामे मिथ्यावचन छे, आत्माने श्यामाक तंडुल-सामकना चावलनी जेम नाना प्रमाणवालो बतावत्रो अथवा अगुठाना टेरवा वरावर समजवो अथवा एम कहेवु के ते रक्त वर्णनो छ । निष्क्रिय छे, 'वगेरे सर्व वचन अभूतोद्भावन नामे असत्यवचन छे, कारणके आ जातना वचनो द्वारा आत्मानुं जे वास्तविक स्वरूप नथी तेनो उल्लेख करवामां आवे छ । अर्थान्तर-एटले मिन्न अर्थ, एक पदार्थने अन्य रूपे वताववो, वास्तविक न कहेवो, ते अर्थान्तर छ। जेम कोई गायने घोडो कहे, अने घोडाने गाय कहे, जड़ने ईश्वर कहे अने ईश्वरने गुलाम कहे। ते-अर्थान्तर नामे असत्य कहेवाय छे ।
गर्दा-एटले निन्दा करवी, तेथी जेटला निंद्य वचनो छे तेने वधाने गर्हित नामे असत्य वचन समजवां जोइए, जेमके "आने मारी नाखो !" "मरी जा" "आने कसाईने सौंपी दो" विगेरे हिंसामय वचन वोलवा तेमज मर्म मेदीमनने दु.ख थाय तेवा अपशब्द कहवा, गाळो देवी, कठोर वचन कहेवा, क्रूर शब्दो वापरवां, पैशून्य-कोईनी चुगली करवी, वगेरे गर्हित वचन कहेवाय छ । जो ते गर्हित वाक्य कदाच सत्य पण होय, छतां ते असत्य मनाय छ । कारण के ते निन्द्य छ । प्रमाद सहित जीवना वचनो पण असत्य मनाय छे, प्रमाद युक्त कहेला वचन असत्य होय छे, अने प्रमाद रहित कहेवामा आवेल असत्य वचन पण सत्य होइ सके छे, जेवी रीते कोई रोगीवाळकने पतासामा दवा राखीने आपतां कहे छे के आ पतासुं छे।
सत्' शब्दना वे अर्थ थाय छे, विद्यमान तेमज प्रशंसा-तेथीज असत् शब्दना अविद्यमान अने अप्रशस्त ए वे अर्थ लेवा जोइए । सद्भूत-निन्हव-असद्भूतोद्भावन तेमज अर्थान्तर ते अविद्यमान अर्थ दर्शावनार होवाथी असत्य छ । गर्हित वचन अप्रशस्त होवाथी असत्य छे तेमज प्रमादनो सवन्ध पण बनेनी साथे छे,
ते सिवाय कषाय असत्यनुं निमित्त वने छ । कषायनो उदय थता असत्यनो प्रयोग अवश्य करवामां आवे छे । तेथी क्रोध-मान-माया-लोभ-राग-द्वेप-मोहादिने लीधे असत्य बोलवानो त्याग करवो, तेने सत्य अणुव्रत कहे छ। - मश्करीमा-कठोर शब्द वापरता-चुगली करतां-अप्रशस्तवचन कहता-असत्य शब्द वोलवानुं अनिवार्य थई जाय छ । ज्यारे वीजं अणुव्रत स्वीकाराय छे लारे. ज देहधारिओने आत्मस्थिरता प्राप्त थाय छे।
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता १६७ कोईए कहुं छे के जेने मूढताने कारणे धर्म एवं नाम आपवामां आव्यु छे, वळी जेने म्लेच्छो पण निन्द्य समजे छे, ते असत्यनो मन-वचन-कायथी त्याग करवो एज योग्य छे, जो हितनी वाञ्छा होय तो असत्य न बोलता मौननो खीकार करवो जोइए । कारण के नीचेनी बावतोमा सौ मौन राखे छे; जेवा के
प्रतिक्रमण करती वखते, मलमूत्र त्यागती वखते, पाप कार्य छोडती वखते निरन्तर मौन सेववु, कारण के मौनना सेवनथी वाणीना दोषो लागता नथी।
मौनथी कलेशनो नाश थाय छे, सन्तोष भाव आवे छे, वैराग्य आवे छे, ने सत्य अने सयमनी पुष्टि थाय छे, जीभनो खाद त्यजवाथी तपनी वृद्धि थाय छ, अमिमानथी बची जवाय छे, ने सत्य-समता आवे छ । वाणी मनोरमा बनी जाय छे, वचनो प्रशसा पात्र थई जाय छ, मौन सेवनार पूज्य बने छे, परन्तु देश कालनो विचार करीने मौन- सेवन करवु जोइए। जो क्याय बोलवाथी संसारने सद्वोध तेमज चरित्रनो लाभ थतो होय तो त्या मौन न रहेQ जोइए, वाणी हमेशा सत्य होवी जोइए ।
गृहस्थने माटे त्याज्य असत्य-गृहस्थे कन्या-पशु-भूमि सम्बन्धी जुळुन बोलवु जोइए, खोटी साक्षी पण न देवी जोइए, तेमज कोईनी थापण ओळववी न जोइए, आ पाच वातोने ध्यानमा राखनार सत्याणुव्रती छ, जो सत्य बोलवाथी पोतापर अथवा बीजा पर आपत्ति आवी पडे तेम होय तो त्या मौन राखवु योग्य छ ।
अने साधु ज्यारे राग-द्वेष अगर मोहथी असत्य बोलवाना परिणामने छोडे छे, त्यारे वीजें सत्य व्रत कहेवाय छे। कारणके असत्य वोलवानो भाव सत्य भावथी विपरीत होय छे । अने आ असत्य भाव, राग-द्वेष के मोह भावथी जीवमा उत्पन्न याय छ । यानी मनुष्य इष्ट पदार्थ अथवा विषयोनी प्राप्ति अथवा रक्षानी खातर राग द्वारा असत्य बोले छे, अनिष्ट पदार्थ अथवा विषयोने दूर करवाने माटे अथवा तेनो संयोग न थाय ते माटे द्वेषयुक्त असत्य बोले छे । अथवा मिथ्या बुद्धिथी ससारमा मोहने लीधे ते मिथ्यामावनी रक्षाने माटे असत्य बोले छे, जे कोई निकट भवी जीव आ प्रकारना असत्य बोलवाना परिणामने त्यागी दे छे, तेनामा सत्य व्रतनी योग्यता आवे छे । जे सत्य भावना रगथी रगाइने प्रगट रीते सत्य व्यवहार करे छे, ते सजनोनो पण पूज्य बने छे, तेथी आ वात तद्दन साची छे के सत्य थी वधारे महान् वीजु कोई व्रत नथी।
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६८ । । वीरस्तुतिः । “
। असत्य बोलवा, निकृष्टं परिणाम-जुठं बोलनार मरीने मूगो बने छ, अथवा तेने मूक गतिवाळो जीव वनवू पडे छे, ते स्पष्ट बोली शकतो. नयी । कोईने तेनी सम्मति पण प्रिय लागती नथी । मुख रोगथी पीडाय छे, आ.वधु जुठं वोलवानु दुष्ट परिणाम जाणीने कन्यादि सम्बन्धी असत्य कदी पण न वोल, जोइए । असत्य बोलनार मूर्ख-विकलांग-वाणी हीन थाय छ । तेनी वातो सांभळता लोकोने तिरस्कार थाय छे । अने तेना मुखमाथी दुर्गन्ध नीकळे छ । जे लोक विरुद्ध छे, जेथी विश्वासघात थाय छे। जे पुण्यर्नु प्रतिपक्षी छे, तेQ वचन क्यारेय पण न बोलवू जोइए । जे जूठ बोले छे तेनामा तुच्छता आवे छे, ते पोताने छेतरे छे, अधोगति (नरक) मां जाय छे, तेथी जूठ सटा वर्जनीय छ । जूठ प्रमादथी पण न वोलQ जोइए, कारण के हितकार्यरूपी कल्पवृक्ष असत्यरूपी आधी थी पड़ी जाय छ । भूत-भविष्यत्-वर्तमाननी वातोनु पूर्णपणे. जान न होय तो 'ते आम हशे' एम न कहेवू, जे वातमा शंका होय ते न कहेवी, जो त्रणे कालनी वातोमां तद्दन निश्शंक पणु होय तो कहेवी। असत्य बोलवाथी वेर विरोध वधे छे, पोल खुली जवाथी पस्तावो थाय छे, कोई तेना पर विश्वास करतु नथी, वदनामी श्राय छे, कुपथ्यना सेवननी पेठे अनेक दु.खो जूठ बोलवाथी थाय छ । जूठ बोलनार नरक-निगोद-अने पशु योनिमा जन्म मरण करे छ । थोड असत्य बोलनार पण नरक निगोदमा जाय छ । ज्ञानिओए ज्ञान अने चरित्रनु मूल सत्यज वताव्यु छे, सत्यवादिओनी चरण रजथी पृथ्वी पवित्र थाय छे-। जे हमेशा सत्य बोले छे तेने भूत-प्रेत-सर्प-सिंह-कंइ, पण करी शकता नथी। माथु मुडावीने, जटा राखीने, नग्नावस्था धारण करीने, साधु वेश प्रहरीने, अथवा तपश्चर्या करीने जे अमत्य बोले छे, तेने अछूत करता पण वधु निन्द्य समजवो। एक तरफ असत्यनु पाप अने बीजी वाजु आखा संसारना सर्व प्रापो राखवामां आवे तो असत्यनु पाप वधी जाय । लुटारा तेमज व्यभिचारी
ओना पापर्नु प्रायश्चित होय छे पण असत्यवादीने माटे नथी । सत्यना पक्षे देवो पण ऊभा रहे छे, राजा ,पण तेना पर पोतानी सत्ता नथी चलावी सक्रतो, तेने अग्नि उपद्रव,वरी शक्तो नथी, आम सत्यनो महिमा अपार छ । समस्त योगिओए सत्सनी खूवज प्रगसा करी छे, जेमाथी शुभचन्द्राचार्यना केटलाक वचनो आनीचे आप्या,छे। "जे सयमी मुनि.धीरज पूर्वक सामनी रक्षा करे छे, वा मुनिदीक्षानी चुराने वारण करे ले, ते वचनरंपी जंगलमा सत्यरुपी वृक्ष रोपे छ ।”
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
१६९
"यम-नियमादि व्रतोनो समूह एक मात्र अहिंसानी रक्षाने माटेज कह्यो छे, अहिंसा व्रत जो असत्यथी दूषित होय तो ते उच्चपद कदी पण प्राप्त न करी शके, असत्य वचन साथे अहिंसाचं पालन अशक्य छ।” “जे वचन जीवोनुं हित करनारु होय ते असत्य छता सत्य छे । अने जे वचन पाप सहित हिंसा रूप कार्यनी पुष्टि करे छे, ते सत्य छता असत्य छ निन्छ छे।" "जे साधक अनेक जन्मोना दु खोनी शान्ति अर्थे तप करे छे, ते निरन्तर सत्यज बोले छे, कारणके असत्य बोलनारने साधकपणु संभवतुं नथी ।" "जे वचन सत्य होय छे, करुणाथी' भरपूर होय छे, अविरुद्ध होय छे, आकुलता रहित होय छे, असभ्य न होय, इन्द्रिय विकारोने पुष्ट करनार न होय, गौरव वधारनार होय, कोईने हलका पाडनारुं न होय, तेज वचन शास्त्रमा प्रशंसनीय गण्डे छ ।” “निरन्तर मौनतुं सेवन कल्याणकारी थाय छे, जो बोलवानी जरूर पडे तो सत्य-प्रिय-तेमज हितकर वोलवू जोइए।" "पण दुष्ट चरित्रीना मुखमा वाणी क्रूर असत्यं वाणी रूपी नागण रहे छे, के जे आखा जगत्ने दुखी करे छे।” “जे वात सदेह युक्त होय, पापरूप होय, दोष सहित होय, ईर्षाने वधारनारी होय, ते वीजा ना पूछवा छता पण न कहेवी ।" "मर्ममेदी, मनने पीडा उपजावनार, स्थिरता नाशक, विरोध करावनार, तेमज दया रहित वचनो प्राण जाता पण न बोलवा ।" "ज्या धर्मनो नाश थई रह्यो होय, चारित्रने नुकसान पहोंचतु होय, देशनी खतन्त्रता नाश पामती होय, समीचीन सिद्धान्तनो लोप थतो होय, त्या देशवर्म-तेमज जातिनी उन्नति खातर वगर पूछ्ये पण विद्वानोए बोलवू जोइए, ते समये मौन धारण करणे योग्य न कहेवाय ।" "जे वाणीना श्रवणथी जीवो मोह मुग्ध वनी जाय, सन्मार्ग भूली जाय, साम्प्रदायिकता अने पक्ष-पात आवी जाय, वाडावदीमा फसावनारी ते वाणी नथी, पण सापणी छे, कारण, के तेना श्रवण मात्रथीज प्राणी उत्तम मार्गने छोडी कुमार्गे जाय छे।" "मनोहर वाणी जेटलं सुख आपे छे तेटल सुख चंदन-चन्द्रमा चन्द्रमणी मोतीमालती वगेरे शीतल पदार्थो आपी शकता नथी ।" "अग्निथी दग्ध वन क्यारेक पण लील बनी शके छे, पण वाणीरूपी आगथी पीडित मनुष्य कदी पण प्रफुल्ल वनी शकतो नथी ।" "जे सत्य-वक्ता छ, तत्त्वना स्वरूपने समजे छे सदाचारी छे, तेना चरण स्पर्शथी पृथ्वी पवित्र बने छे, ते.लोकोज़ उत्तम छे, अने जे असत्य वचन बोले छे, ते नीच अने शुद्द छ ।" "जे नीच पुरुष मनुष्य-,
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७०
, , . , वीरस्तुतिः ।,
जन्म प्राप्त करीने पण असत्य बोले छे, ते ससार रूपी सागरनो पार केवी रीते पामी शके ?" "जेनां नाक-कान-हाथ, कपायेला होय, रूप रगर्नु नाम पण न होय, दरिद्री तेमज रोगी' होय, कुल-जाति अने वर्ण थी हीन होय, तो थयु ? तेनु तो भूषण सत्य छ, सत्यथी पवित्र तेमज सुखी बनी शके छे, तेनी शोभा सत्यथी छे ।" "जे पुरुप असत्य-कालिमाथी मलिन छे, तेनो साथ पाप रूपी-काळाशना भयथी कोई पण धर्मज्ञ पुरुष स्वप्नमां पण करतो नथी।" “जूठानी संगतिथी साचो पण कलंकित थाय छे, जेम मेला लूगडानी संगतिथी खच्छ अने निर्मळ गंगाजलने पण दडर्नु प्रहार सहवु पडे ।" "पुत्र-खजन-स्त्रीधन तेमज मित्रो विमुख बने, वा चाल्या जाय, तेमज प्राणनाश थाय छतां असत्य न बोलवु जोइए। इत्यादि वचनामृतोनुपान करी जे कोई पाप रहित तेमज श्रेष्ठ सत्य बोले छे, ते जगत् प्रधान पुरुष छ ।”
तपमा श्रेष्ठ तप कयो? सत्यनी पेठे सर्व प्रकारना इच्छा निरोध तपमां नव विधि ब्रह्म-गुप्तिए गुप्त एवो ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ छ । सुन्दर स्त्रीओना मनोहर अगोने जोईने तेनी साथे रमण करवानी जे इच्छा चित्तमा उत्पन्न थायछे, तेने त्यागी देवी, अथवा वेद नामे नो-कषायना तीव्र उदय थी मैथुन सेवननी जे इच्छा उत्पन्न थाय छे तेनो नाश करवो ए ब्रह्मचर्य व्रत छ । तेने स्पष्ट करवा माटे सत्पुरुषो कहे छे के हे कामी-पुरुप ! अनुपम-सहज-परमतत्व रूप निज खरूपने छोडीने अति सुन्दर स्त्रीजनोना गरीर आदिना रूपने मनमा शा माटे याद करे छ, अथवा तेना मोहमा शा माटे फसाय छे ।।
___ अब्रह्मचर्यना दोष-स्त्री सभोगथी सन्ताप थाय छे, पित्त वधे छे, काम ज्वर उत्पन्न थईने शरीरनु नाश करे छे, हिताहितने भुलावी दे छे, शरीर नि.सत्व बनी जाय छे । तृष्णाना बंधनमा फसाई पडे छे, तेथी कामेच्छा अने ज्वरमा जरा पण अन्तर नथी। आ दोषो जाणीने जो सर्वथा शीलनुं पालन शक्य न लागे तो गृहस्थे पोतानी विवाहित पत्निमा सन्तोष राखवो, कारणके आ प्रतिज्ञा थी पण अनेक प्रकारनी इच्छानु मर्दन थाय छे, कथु पण छे केखपनिमा सन्तुष्ट रहेनार, अन्य स्त्री माननी क्यारेय पण इच्छा न करनारमा पण सुदर्शनशेठनी पेठे अद्भुत प्रभाव उत्पन्न थाय छे, तो पछी सर्वांशे ब्रह्मचर्य पाळनार ब्रह्मचारीना प्रभावनी तो वातज शी? एटले तेनो प्रभाव अवर्ण्य छे अने अकथनीय ! पर पुरुष भले रूपमा, ऐश्वर्यमा, कळामा, गमे तेटलो आगळ
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
१७१
वधेलो होय, पण तेने झरनुं पुतळं समजीने स्त्रीए जेम् सीताजीए रावणने त्यागी दीधो हतो, तेम तेने त्यागी देवो जोइए, जे स्त्रीए मैथुन विकारने जीती लीधा होय ते देवोने पण पूज्य छे अने इच्छनीय छ ।
मैथुन एटले शुं? मैथुन एटले जोड, प्रकृतिमा स्त्री-पुरुषy जोडं समजवु, बनेनो परस्परनो संयोग, अथवा सभोगने माटे जे भाव विशेष थाय छे, अथवा बने मळीने जे सभोग क्रिया करे छे, तेने मैथुन कहे छे अने तेनेज अब्रह्म कहे छे, तेमा पण प्रमत्तयोगनो सवंध छे। कारणके तेने लीधे जे कई क्रिया करवामा आवे, पछी भले ते परस्पर बे पुरुष अथवा बे स्त्रीओ मळीने करती होय, अथवा अनश क्रीडा आदि का न होय, ते सर्व अब्रह्म छ । जे प्रमत्त दशाने छोडीने क्रिया करे छे, तेने मैथुन कहेवातुं नथी, जेमके पिता-भाई विगेरे पुत्री-अथवा व्हेन आदिने गोदमा लईने प्यार करे छे, ते अब्रह्म कहेवातु नथी, कारण के तेमा प्रमत्त-योग नथी । आ प्रमत्तयोगनी ओछा वत्ता अशे पण निवृत्ति करवामा आवे तो ते ब्रह्मचर्याणुव्रत कहेवाय छे । जेमके कयुं छे के-"माताव्हेन-पुत्री समान परस्त्रीने जाणे, ने पोतानी विवाहिता स्त्रीमा सन्तोष माने, ते चोथु अणुव्रत कहेवाय छ।" "उत्तम पुरुष परस्त्रीने व्याधि समान समजी ने दूरथीज त्यजी दे छे, कारणके परस्त्री तो सदैव दु खोनुं घर छे, अने सुखोने नाश करनार प्रलय काळनी आग समान छ।" "जे स्त्री पोताना पतिने छोडीने परपुरुष साथे रमण करेछे, तेने प्रथम पंक्तिनी निर्लज्ज समजवी जोइए, ज्यारे आ प्रकारना आचरण थी पोतानी स्त्री पर पण विश्वास न रहे तो परस्त्रीनो विश्वास केम राखी शकाय " "परस्त्रीनुं सेवन करनार पुरुषने नरक निगोद मा रखडवानु रहे छे, तेमां कशु सुख तो नथी ज, तेथी मनुष्योए ब्रह्मचर्य व्रतनुं पालन करवु जोईए।" "आ व्रतनु पाळन करनार योगीओ परब्रह्म परमात्मानु ज्ञान पामे तेमज ख-खरूपने अभेद रूपे जाणी शके छे, तेनो अनुभव करी शके छे । तेने धीरवीर पुरुषोज धारण करी शके छे । अल्पसत्ववाळा-शीळरहित-इन्द्रियोना दास-दुवेळ पुरुषो तो खप्नमा पण आनुं समाचरण करी शकता नथी, कारणके ब्रह्मचर्य पण महावत छ ।" "त्रणे जगतमा ब्रह्मचर्य व्रत प्रशंसनीय छ, जे तेनु निर्मल भाव पूर्वक पालन करे छे, ते पूज्यना पण पूज्य छ ।
जे ब्रह्मचर्य पालनमा अनुरक्त छे ते दश प्रकारना मैथुननो सर्वथा त्याग करे छ।
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७२
, वीरस्तुतिः।
5. - (१) जेमके शरीर शणगार, (२) पुष्ट पदार्थ- सेवन कर, (१३) गावं, वजावू, जोवं, सांभळवू, (४.) स्त्री संसर्ग करवो, (५). स्त्री सबंधी सकल्प विकल्प करवा, (६) स्त्रीना अग उपांग जोवा, (७) तेने जोवाना विचारो करवा, (८). पूर्वकृत भोगोनुं स्मरण करवू, (९) भविष्यमा भोगोनी चिन्तवणा करवी, (१०) वीर्य स्खलन करवु, . .
, आ दश मेद मैथुनना छे, ब्रह्मचारीने माटे ते सर्वथा त्याज्य छ। । - "जेवी रीते किपाक फळ देखवा-सुंघवा मा रमणीय छे, पण परिणामे हालाहल झेर समान छे, तेवींज रीते मैथुन पण थोडा वखत माटे रमणीय-सुदर अने सुखदायक मालुम पडे छे, परन्तु परिणामे अत्यन्त भयप्रद नीवडे छ ।" “जे पुरुष कामभोगोथी विरक्त बनीने सदा ब्रह्मचर्य पाले छे, तेणे भावशुद्धि माटे दश प्रकारना मैथुननो त्याग करवो जोइए, केम के आ दोषोना त्याग कर्या वगर भावशुद्धि-निर्मलता थती नथी, भावज कामना वेगने रोकी शके छे, कम्युं पण छे के
"सर्प करडेल माणसने सात वेग होय छे, परन्तु काम रूपी सर्पथी डंसायेल जीवने दश महा भयानक वेग होय छे, ते नीचे मुजब छ। ..
(१) कामना उद्दीपनथी चिंता उत्पन्न थाय छे, के काम भोगनी क्यारे प्राप्ति थशे, (२) जोवानी इच्छा उत्पन्न थाय छे, अने निश्वास मूके छे (३) अफसोस करे छे, के स्त्रीने जोई पण न शकाइ । (४) ज्वर आवे छे, तापमान वधे छे, (५) गरीर वळवा लागे छे, दाह उपजे छ (६) भोज, ननी रुचि नथी रहेती, (७) महा मूर्छा उत्पन्न थाय छे, जरा पण चेत रहेतु नथी, (८) उन्मत्त वनी जाय छे, जेम तेम वकवाद करे छ । (९) प्राण चाल्या जवानी शंका रहे छ। (१०) मृत्यु पण थई जाय छ। ,
, काम वासनाथी घेरायेलो जीव यथार्थ तत्व वस्तु स्वरूप समजी शकतो नथी, ज्यारे लोक व्यवहारनुं ज्ञान पण नाश पामे छ त्यारे परमार्थनुं ज्ञान तो क्याथी थाय 2 वधी वातोमा तेनुं मन अस्थिर वनी जाय छ। ' • "जेने काम रुपी कटक वागे छे, ते वेसवामा, सुवामा, चालवामा, फरवामा, भोजन करवामां अस्थिर वनी जाय छे।” “काम वासनावाळो पुरुप चतुर होवा छता मूर्व वनी जाय छे, क्षमाशील छता क्रोधी वने छ, शूरवीर कायर बने छ, महान् हलको वने छे, उद्यमी आळमु वने छे, अने जितेन्द्रिय भ्रष्ट बने ,"
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
१७३
"तथी मूर्खता कर्यावगर मनुष्यजन्म सार्थक बनाववाने मनुष्ये ब्रह्मचर्य- पालन करवु जोइए।
कदाचारनुं परिणाम-"बेलने नपुसक बनाववानी क्रिया, लपटोने यती सजा वगेरे जोइने बुद्धिमाने कुशीलनो त्याग करीने खदारसन्तोषव्रत अगीकार करीने परस्त्रीनो त्याग करवो जोइए, मैथुन सेवन किंपाक फळनी पेठे आरम्भमा सारु लागे छे, पण परिणामे दारुण कष्ट आपे छे।" "मैथुन सेवनथी शरीर कम्प; परसेवो, थाक, शिथिलता, चक्कर आववा, तिरस्कार थवो, वलनो क्षय, ज्वरादि रीगो थाय छे।" "योनिमा असख्य जीव राशीनी उत्पत्ति थाय छे, अने मैथुन सेवन वखते तेनो नाश थाय छे ।
वात्स्यायननो मत छे के रक्तमा सूक्ष्म जीवो पेदा थइ जाय छे, ने सयोग वखते ते मरी जाय छ। मैथुन सेवनथी काम ज्वरनी शान्ति नथी थती
अग्निमा घी होमवाथी जेम ते शान्त थतो नथी, तेमज स्त्री सम्बन्धी वैषयिक सयोगथी काम ज्वर शान्त थतो नथी, पण वधे छ। स्त्रीए पण पर पुरुषने नाग समान समजीने तेओनो त्याग करवो जोइए कारणके ऐश्वर्यमा भले इन्द्र समान होय, सौन्दर्यमा कामदेवनो अवतार होय तो पण जेम सीताए रावणनो लाग को तेम सन्नारीओए पर-पुरुषनो त्याग करवो जोइए।
ब्रह्मचर्यनुं फळ-ब्रह्मचर्य सच्चरित्रनु मूळ छे, परब्रह्म प्राप्तिनुं निमित्त छे, जे ब्रह्मचर्यनु पालन करे छे ते पूज्यना पण पूज्य छ । दीर्घ आयुष्य, सुन्दर शरीर, शरीर रचनामा दृढता, गरीर पर विलक्षण तेज, महान् शक्ति, यश कीर्ति, ससारमा मान, प्रतिष्ठा, ए सघळु ब्रह्मचर्यथी प्राप्त थाय छ ।
आ रीते सर्वलोकनी उत्तम-रूपसम्पदा वगेरे मेळवीने तेमज भायक ज्ञानदर्शन-शीलसमन्वित पुरुषोमा ज्ञातवंशीय अन्तिम जिनवरेंद्र श्रमण-भगवान्महावीर प्रधानतम हता ।।
काश्यप-गोत्रीय-श्रमण भगवान् महावीर प्रभुना वर्धमान, विदेहदिन्न, ज्ञातपुत्र, काश्यप, वैशालिक, महावीर, सन्मति, वीर, श्रमण भगवान् इलादि अनेक नाम हता, ते वधा नामो तेनी अमुक अवस्थाना सूचक छ। कारण के मगवान् महावीर स्वामीन जीवन सासारिक तेमज साधक अवस्थामा जुहूं जुहूँ हतुं । वर्धमान, विदेहदिन (महावीर प्रभुनी मातानुं नाम "विदेहदिन्ना' पण हतुं,
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७४
वीरस्तुतिः ।
त्रिशला माता विदेह कुलमां जन्म्या हता, तेथी तेमनुं नाम विदेहदिन्ना पड्युं हतु, माताना आ नामथी महावीर प्रभुनु मातृपक्षनु नाम पण 'विदेहदिन्न' पढी ग हतुं ) ज्ञातृपुत्र, काश्यप, अने वैशालिक ए नामो तेमनी सासारिक अवस्था ना सूचक छे, महावीर, सन्मति अने श्रमण भगवान् आ त्रण नामो तेमणे साधक अवस्थामा पोताना आत्म-वीर्यादि गुणोथी प्राप्त कर्या हता, वर्धमान पितृपक्षनु नाम, अने विदेहदिन्न मातृपक्षनुं नाम हतु । ' ज्ञातृपुत्र' ए वंश परथी नाम पड्यु | 'काश्यप' - गोत्रथी नाम पढ्यं हतु । वैशालिक' जन्मस्थानना सम्बन्धनु सूचक छे । 'महावीर' आत्म-वीर्यसूचक, 'सन्मति' आत्मज्ञान सूचक अने 'श्रमण भगवान्' श्रमण संस्कृतिना तात्कालिक अग्रेसर अर्थसूचक छे ।
ज्ञातपुत्र
उपरोक्त सर्व नामोमाथी भगवान् महावीरना 'ज्ञातृपुत्र' अथवा 'जातपुत्र' नामना सम्बन्धमा आपणे विचार करवानो छे आ ज्ञातपुत्र नाम तेमना वशनु सूचक छे । ए वात जैनागम तेमज बौद्धागममा अनेक जग्याए कहेली, छे ।
श्रीआचारांग तेमज कल्पसूत्र आदिक सूत्रोमा तेमना जीवनचरित्र अनुसार भगवान् महावीरनो जन्म 'क्षत्रिय कुंड' गाममा ज्ञातवंशीय अने 'काश्यपगोत्रीय ' सिद्धार्थ राजाने त्या त्रिशला क्षत्रियाणीथी थयो हतो ।
आ ज्ञातृवंश ते समये प्रसिद्ध ईक्ष्वाकु उग्र आदि क्षत्रियोना कुळनी पेठे प्रसिद्ध वश पण हतो |
आ ज्ञातृवंशना क्षत्रियो प्राय. 'ज्ञातृक' नामथी ओळखाता, अने तेमना आ 'ज्ञातृ ' कुलने लीधे तेमना नगरोनी बाहर वनावेला खड = उद्यानोना नाम पण 'ज्ञातृखंड' पड़ेला हता, भगवान् महावीरे कुडग्रामनी नजीक 'ज्ञातृखंड' नामक बागमा दीक्षा अगीकार करी हती, शास्त्र वचनो तो आ वावतनी खूव पुष्टि करे छे ।
जिनागममां 'ज्ञातृपुत्र' ने बदले 'नायपुत्त' अथवा " नातपुत्त" तेमज बुद्धागममा “नाथपुत्त" अथवा "नाटपुत्र" शब्द प्रयोग करवामा आव्यो छे । ते भगवान् महावीरना ज्ञातृवंशनुंज अर्थ सूचक नाम छे । ते मानवामां आपणने उपरोक्त कारणो छे । "णायपुत्त" अथवा " नातपुत्त" ए बन्ने नामो सस्कृत भाषाना "ज्ञातृपुत्र" शब्दना प्राकृत रूप छे। अने "नाथपुत्त" अथवा "नाटपुत्त” ए वने नामो पाली रूप छे । प्राकृत मां 'त' नो 'य' अने पाली भाषामा 'त' नो 'थ' अने 'थ' नो 'ट' पण साधारणरीते थाय छे। दिगम्बर सूत्रोमा ज्ञातृपुत्रनो
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
१७५
"नाथपुत्त" शब्द प्रयोग जोवामा आवे छे, आ रीते भाषा अने भावनी दृष्टिए 'जोता पण आ बधा अलग अलग नामो मूळ 'ज्ञातृपुत्र''शब्दमा मळी जाय छ ।
आ वधा नामो "ज्ञातृपुत्र" शब्दथी वनेला छे ते नि शंक छ । प्राचीन काळमां वशना नामथी परिचय आपवानी प्रथा होवाने लीधे भगवान् महावीरनो जीवन विषयक परिचय श्रीजिनागमोमा तेमज बौद्धागमोमा 'नात्पुत्त' अथवा 'नाथपुत्त' शब्दथी आपवामा आव्यो छे। तेमज भगवान् महावीरना शिष्योनो पण परिचय "नातपुत्तीय" अथवा "नाथपुत्तीय" ए शब्दथी विशेष करीने आपवामा आव्यो छे.
श्रीजिनागमना १२ अगोमा छटुं अग "णायधम्मकहाओ" छ। तेमां आवेल "णाय” शब्द पण भगवान् महावीरना वंशवाचक 'नायपुत्त' नी साथे गाढ संवन्ध राखे छ । प्राकृतमा 'न' नो 'ण' थाय छ। आ अंगनो गुजराती अनुवाद "भगवान् महावीरनी धर्मकथाओ" एम करवामा आव्यो छे। आ अगनो परिचय श्रीसमवायागसूत्रमा आपेल छ । तेमा बताव्यु छ के "आ अगमा ज्ञाताओना नगर-उद्यान-माता पिता वगेरेनो परिचय आपवामां आवशे।" टीकाकारे ज्ञाताओनो उदाहरणभूत अर्थ को छ । परन्तु ज्ञाता एटले 'ज्ञातृवंशीय क्षत्रिय ए अर्थ पूर्वापर विचारता निश्चित थाय छे।
भंगवान् महावीरनो परिचय श्रीजिनागमोमां 'नायपुत्त' ज्ञातपुत्र सिवायनां घणां नामोथी आपवामा आव्यो छे, तो पण त्यां 'नायपुत्त' शब्दनी विशेष प्रधानताछे । घणा प्राचीन सूत्रोंमा भगवान् महावीर प्रभुना गुणग्राम 'नायपुत्त' शब्दथी करवामा आव्या छे जेमके -
"जे भगवान् “ज्ञातपुत्रना" वचनो पर पूर्ण विश्वास राखे छे, ते कोई 'वस्तुनुं संग्रह करता नथी" १८
"प्राणीमाननी रक्षा करवावाळा "ज्ञातपुत्र" महावीर प्रभुए वस्त्र पात्रने परिग्रह नथी कस्यो, पण मूर्छ या ममत्वभावने ज परिग्रह कह्यो छे, एम महर्षिओए कहां छे।" २१
[दशकालिक अ० ६] "ज्ञातपुत्र" महावीर प्रभुए कह्यु छ के-मर्यादामा रहेनार साधु आ दोषने सारी रीते जोई ने जरा पण कपट पूर्वक जुठ न बोले " 1 "आ दोषने जोइने निग्रन्थ रात्रि भोजननो त्याग करे, कारणके "ज्ञातपुने" आना प्रत्यक्ष दोष वताव्या छ।" (दशवकालिक० अ० ६) . अनुत्तर ज्ञानी अने अनुत्तर दर्शन युक्त अर्हन् प्रभु 'ज्ञातपुत्र' महावीर प्रभु विशाला नगरीमा आ.रीते व्याख्यान करता हता।
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७६
: वीरस्तुतिः। - *
:
। आ प्रमाणो उपरान्त,आ अध्यायमा २-१४-२१-२३-२४ मी गाथाओमा प्रभुनी स्तुति "ज्ञातपुत्र" शब्दथी करवामां आवी छे । आ रीते श्रीजिनागमना प्रमाणभूत ग्रन्थोमा 'नार्थपुत्त' अथवा 'नांतपुत्त' शब्दनो प्रयोग भगवान् महावी. रना वशवाची नाम तरीके अनेक स्थळे करवामां आव्यो छे, अने ए वधानो उल्लेख करवानी अहीं जरा पण जरूर नथी, हेमाचार्ये परिशिष्टपर्चमा जे 'ज्ञातनन्दन' भगवान् महावीरप्रभुने वदन करेल छ तेनोपण उल्लेख करीशू, तेमणे मंगलाचरणमा कयुं छे के --- . . . "जे कल्याण वृक्षना वाग छे, श्रुतिरूप गंगाना हिमालय छे, विश्वकमळने सूर्यरूप छे, ते भगवान् “ज्ञातनन्दन” महावीरने हु नमस्कार करूं छु ।”
' बौद्ध पिटकोमो भगवान् महावीरनो तेमना शिष्योनो तेमज तेमना सिद्धातोनो परिचय तेमना वंशवाची 'नाथपुत्त' अथवा 'नाटपुत्त' शब्दथी आपवामां आव्यो छे, तेमना श्रमण निग्रन्थो माटे 'नाथपुत्तीय' शब्दनो उपयोग करवामा आव्यो छ, आ नाम सिवाय भगवान् महावीर प्रभुनो जीवन परिचय आपता वीजा कोई शब्दनो प्रयोग करेलो जोवामां आवतो नथी, मात्र 'नाथपुत्त' नी साथे 'निग्गंठ' शब्दनो प्रयोग करेलो होय छे, पण ते शब्दतो तेनी साधु अवस्थानो सूचक छ । ते 'नाथपुत्त' शब्दनुं विशेषण छ । • आधी प्राचीन कालमा वंशवाचक नामथी परिचय आपवानी प्रथा होवानु स्पष्ट जणाय छे, महात्मा बुद्ध पण तेमना मूल नाम सिद्धार्थ करता तेमना गोत्र' सूचक नाम 'गौत्तम' अने वंश सूचक नाम 'शाक्यपुत्र'-थी अधिक प्रसिद्ध छ ।
___भगवान् महावीर प्रभुनो 'ज्ञातृवश' हतो, अने ए 'ज्ञातृवश' थी तेमनु वंशसूचक नाम 'नायपुत्त' प्रसिद्ध छे, जे आपणे ऊपर जोई गया । परन्तु आगळ चालता तेनो केटलो विस्तार तेमज विनाश थयो, तेनो इतिहास जाणवामा आवतो नथी। ए इतिहासनी शोध अत्यन्त आवश्यक छ । ते इतिहास नी शोध माटे आपणी पासे बौद्ध साहित्य एक अनन्य साधन रूप छे1
भगवान् महावीर तेमज महात्मा बुद्ध ए बने समकालीन-धर्मक्रान्तिकारी थई गया, वळी तेओ वने एकज देशना नजिक नजिक आवेला प्रान्तमा रहेनारा राजवशी पुरुष हता, आवावतो विचारता महात्मा बुद्धने एक प्रान्तथी वीजा प्रान्तमा विहार करता भगवान् महावीरना वश सम्बन्धी लोकोनी साथे वार्तालाप करवानो प्रसग प्राप्त थयो होय ए तद्दन खाभाविक छे।
.
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
१७७
बुद्धपिटकना 'महावग्ग' नामे सूत्रमा महात्मा बुद्ध, भगवान् महावीरनी जन्मभूमि "कुंड ग्राम" मा तेमज तेनी नजीक 'ज्ञातृओ' ना गामोमा अने वैशाली नगरीमा जवानो तेमज त्या 'निग्रन्थ' श्रावक सिंह सेनापतिनी साथे वातचीत करवानो उल्लेख'आवे छे, ते उल्लेख ना आधारे भगवान् महावीर प्रभुना 'ज्ञातृवंश' अने तेमनी जन्मभूमि सम्बन्धी आपणने घणु जाणवायूँ मळे छे, ते कारणथी ते उल्लेख आ नीचे उतारवामा आव्यो छे ।
__ ज्या कोटिग्राम [ देखो विनयपिटक महावग्ग पानु २४१ कोटिग्राम ] तुं त्या भगवान् गया, कोटिग्राममां भगवान बुद्ध विहार करता हता, अम्बापाली गणि: काए साभल्यु के भगवान् अहीं आवी गया छे, तेथी तेणे सुन्दर रथ जोडाव्यो, ने तेमा बेसीने सुन्दर रथोनी साथे वैशालीथी नीकळीने 'कोटिग्राम' तरफ चाली।
त्यारे ते लिच्छवी ज्या कोटिग्राम हतुं त्या गया।
कोटिग्राममा इच्छानुसार विहार करी ज्यां वैशालीनु महावन हतुं त्यां गया, त्या भगवान् बुद्ध वैशाली महावननी 'कूटागार शाला' मा विहार करता हता।
ते वसते घणा प्रतिष्ठित लिच्छवि 'संस्थागार' [प्रजातन्त्र-सभागृह ] मा बेठा हता, तेओ वधा वुद्धनी प्रशंसा करता हता, धर्म अने सघना गुणोतुं वर्णन करतां हता, ते वखते निग्रन्थोना श्रावक (जैन-श्रावक) सिंह सेनापति ते सभामां बेठ हता .... . .. .. ... ... .......
.....................। त्यारे सिंह सेनापति ज्यां निग्रन्थ (निग्गठ-नाथ पुत्त) ज्ञातपुत्र हता त्या गया, जइने 'निग्गठनाथपुत्त' ने कह्यु के हे पूज्य ! हू......... ...... । सिंह ! तारुं घर लावा समयथी निग्रन्थो माटे विसामारूप छे,...... .........ते समये घणा 'निग्ग' [जैन साधु] वैशालीमा एक.........लाबा कालथी आ आयुष्मान् (निग्गठ) वुद्ध............... ....... छे ।"
"एक समये भगवान् बुद्ध नादिकाना 'गिंजकावसथ' मा विहार करता हता [मज्झिमनिकाय पार्नु १२७]
"विनयपिटक' 'महावग्ग' तथा मज्झिमनिकायमा आवेला आ उल्लेखोथीं आपणने साफ साफ मालुम पडे छे के महात्मा बुद्ध-महावीर खामीनी जन्मभूमि कुंडग्राम (पाली भाषामा कोटिग्राम ) गया हता, अने कंडग्रामनी पासेनी वैशाली'
वीर. १२
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
.. .. वीरस्तुतिः। , . . :
१५८ नगरीमा थी त्यां महात्मा बुद्धने, अवापाली नामे वेश्या अने लिच्छवि क्षत्रिय मळवा आन्या, हता, कोटिग्रामथी महात्मा बुद्ध ज्या 'नातिका' ज्ञातृक लोक रहेता हता, त्या गया हता, अने त्या 'आतिका' (ज्ञातृका) लोकोना ईंटोना घरमा हता। ते स्थाननी पासेज 'अम्बापाली' वन नामे उद्यान हतुं जे अम्वापालीए बुद्ध अने' तेमना सघने - समर्पण करेल हतुं । त्याथी महात्मा बुद्ध वैशाली गया अने यां सिंह नामे सेनापति के जे निग्रन्थोनो श्रावक हतो, तेने पोतानो अनुयायी वनाव्यो । सिंह सेनापति महात्मा बुद्धने मळवा जता पहेला 'निग्रन्थ' ज्ञातृपुत्र महावीर प्रभुनी पासे अनुज्ञा लेवा आव्यो हतो। सारे भगवान् महावीरे सिंह. सेनापतिने "तु क्रियावादी होवा छता अक्रियावादी श्रमण गौतमने मळवा शा माटे जाय छे ?” एम कहीने न जवानुं कयुं हतु । पण ते पोतानी इच्छानुसार श्रमण गौतमनी पासे गयो अने त्या ते श्रमण गौतम बुद्धनो अनुयायी बन्यो ।"
ऊपरना उल्लेखथी आपणा विषयने पुष्ट करनारी चार वात विशेष प्रकारे जाणवानी मळे छ।
: (१) बौद्धोनुं 'कोटिग्रामज' [वौद्ध ग्रन्थोमा 'कुंडग्राम' नुं नाम 'कोटिग्गाम' अने भगवान् महावीरना 'ज्ञातिपुत्र' ने बदले 'नातिपुत्त लखेल छे। जुओ "भारतका प्राचीन राजवंश" पार्नु ४० लेखक विश्वेश्वरनाथ राय) जैनोनुं 'कुड, ग्राम' जणाय छे, आ वने नामोमां शाब्दिक सरखापणुं छे । ते उपरात ते गामनी नजीक ज्ञातृक ज्ञातृवंशना क्षत्रियोनुं निवासस्थान अने वैशाली नगरी, नजिकपणुं होवाने लीधे 'कुंडंग्राम अने 'कोटिग्राम' बने एकज होवानुं निश्चित थार्य छ ।
- (२) कोटिग्गामनी पासे ज्ञातृओनें निवासस्थान, भगवान् महावीरनो वंश ज्ञातृवंश हतो, ते वळी वधु पुष्टि करे छ। तेमज कुंडग्रामनी आसपास ज्ञातृक ज्ञातृवंशना क्षत्रियोना खंड=उद्यान हता। अने त्यां ज्ञातृवंशी क्षत्रियो रहेता हता, ते आ वावतने वधु दृढ करे छ। आ 'ज्ञातृक' नो उल्लेख ए विचारनो निर्देश करे छे के आ ज्ञातृक भगवान् महावीरनी जन्म-जातिवाळा ज्ञातृक्षत्रिय हशे।
(३) 'ज्ञातृ' जाति “लिच्छवि' ओनी एक शाखा हती [प्रसिद्ध जैन तीयकर महावीरनी माता पण 'लिच्छवि' वंशनीज हती, जुओ 'भारतका प्राचीन राजवंश' पार्नु २७८ ] आ वातनी पुष्टि 'वैशालीना लिच्छवि क्षत्रिय महात्मा बुद्धने मळवा आव्या हता' ते उल्लेखथी मळे छ । भगवान् महावीरनी माता पण लिच्छवि वंशनी हती, भने सिंह सेनापति के जे भगवान महावीरनो श्रावक
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
१७९
इतो, ते पण लिच्छवि वंशनोज हतो, आ बने वातो ज्ञातृजाति लिच्छविओनी एक शाखा हती, एम सावित करे छे ।
।
। । (४) कुंडग्रामनी पासे विदेहनी राजधानी वैशाली नगरी हती, कुंडग्राम आ नगरीना एक परा जेवी हती । भगवान् महावीरउँ 'वैशालिक' नाम पण भा नगरीना नामथी पच्यु हतुं, विशाला नगरीमा सिंह सेनापति नामे जे निग्रन्थ धावक लिच्छवि रहतो हतो, ते भगवान् महावीरनी सलाह न मानीने महात्मा बुद्धनी पासे गयो हतो, भाथी स्पष्ट जणाय छ के महात्मा बुद्ध अने भगवान् महावीर बने एकी वखते वैशालीमा हता।
. . ऊपरना उल्लेखमा जे 'नातिका' शब्द लखेलो छे, ते शब्दनुं मूल घणांओए 'नादिका' कहेलं छ, भने तेनो अर्थ 'ते नामना जलाशयपर वसेलु एक गाम एवो करे छे, पण तेमा तथ्य नथी, हर्मन जेकोयी [जुभो हर्मन जेकोवी कृत Sacred Books The East नामे. ग्रन्थमाळामा . प्रकाशित 'आचारांग भने कल्पसूत्र' नामे जैन सूत्रोना अनुवादनी प्रस्तावना, पार्नु १०] मूल शब्द 'नातिका' ज छे, अने ते ज्ञातृवंशना क्षत्रियोनो वाचक छ तेम सुमर्थन करे छ। .
___ आ 'नातिका' शब्द पर त्रिपिटकाचार्य श्रीयुत राहुल सांकृत्यायने विशेष प्रकाश पाठ्यो छे, तेमणे पोताना 'वुद्धचर्या'* नामे हिन्दी पुस्तकमा 'नादिका': नो मूल शब्द 'नाटिका-ज्ञातृका' वतावेल छे, अने 'ज्ञातृका' शब्द ज्ञातृवंशना
* ते वसते घणी मोटी निर्गन्ध परिषद् (जैन साधुओनी सभा) साथै निप्रन्थ 'नाटपुत्त' (महावीर ) नालंदामा निवास करता हता। .
१ नाटपुत्त-ज्ञातृपुत्र, ज्ञातृ लिच्छविओनी एक शाखा इती; के जे वैशालीनी आसपास रहेती हती, ज्ञातृमाथीज वर्तमान 'जथरिया' शब्द बन्यो छे, महावीर तेमज जथरिया ए वनेनुं गोत्र काश्यप छ, आजे पण- जयरिय, भूमिहार ब्राह्मण आ प्रदेशमां मोटी संख्यामां छे, तेमनुं निवास रत्ती परगना; पण ज्ञातृ-नाती-लत्ती रत्ती थी ज वनेलं छे। . . . . -" ' १११ में पाने निग्रन्थ सूत्रनो पण उल्लेख कयों छे के जे सै० नि ४०% १-१८ थी उद्धृत करवामां आव्यो छे ।। . . . . . .,
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८०
वीरस्तुतिः। संत्रियोनो सूचक छे, एम सप्रमाण वताव्युं छे, आगळ ऊपर वळी तेओ एम पण वतावे छ के 'ज्ञातृजाति' लिच्छविओनी शाखा हती। अने वैशालीनी आजु. माजुमा रहेती हती, औ ज्ञातृजाति आजे पण वैशाली नगरी [जिल्ला मुजफ्फरपुरनी अंदर वसाडनी पासे छे] नी आसपास जथरिया नामे जाति वसे छे, आ जयरिया शब्द भाषा दृष्टिए पण ज्ञातृशब्दनी साथे गाढ संवन्ध धरावे छ ।
__ जयरिया शब्द 'ज्ञात' शब्दनो अपभ्रंश जणाय छे, ज्ञातृमांथी 'जथरिया' शब्द केवी रीते वनवा पाम्यो ते सवंधमां भाषा दृष्टिए उक्त राहुलजीए नीचे मुजब विचार कर्यो छे।
ज्ञात-आति, ज्ञातृ-ज्ञातर-जातर-जतरिया-जथरिया जैथरियाना गाममां 'नादिका' ज्ञातृका=नत्तिका-लत्तिका-रत्तिका-रत्ती जे नामथी वर्तमान रत्ती परमणा [ जि० मुजफ्फरपुर] छ । बुद्धचर्या पार्नु ५२८ ॥
मा रीते 'जथरिया' शब्द 'ज्ञातृ' नो अपभ्रंश छे। राहुलजी आ रत्ती परगणानुं मूल नाम पोताना उपरोक्त उल्लेखमां आवेला 'नादिका' शब्दथी उत्पन्न थयेलं वतावे छ।
. आ प्रकारे 'जथारेया' अने तेमनुं स्थान रत्ती ए बने शब्द ज्ञात शव्दनी साथे गाढ संबंध धरावे छे, अने आ संबंधथी जथरिया ज्ञातृक ज्ञातृवंशीज छे, अने तेमनुं प्राचीन निवासस्थान के जे नादिका अथवा नाटिका नामथी ओळखाय छे ते वर्तमान रत्ती परगनुं छे, एवो राहुलजीनो दृढ अभिप्राय छ । वळी तेमना आ अभिप्रायमां बीजीवात ए पण छे के आ 'जथरियार्नु मूळ गोत्र काश्यप छे, ते काश्यप गोत्र भगवान् महावीर अने तेमना ज्ञातृवंशी क्षत्रियो, पण हतुं ।
- आ जथरिया ज्ञातृ वंशी क्षत्रियोना संबंधमां श्रीराहुलजी बतावे छे के आ 'जथरिया' लोको वर्तमानमा पोताने ब्राह्मण कहेवटावे छे, तेयो दान लेता नथी, [पंजावमा जमना किनारे वसनारी एक जाति रहे छे ते पण दान नथी
ती ते देशमा तेमने 'तगा' कहे छे, संभव छ के ते शब्द त्यागीनो अपभ्रंश होय, पण तेओना गोत्रो गोड ब्राह्मणोधी मळी आवे छे ] अहीं तो जरिया जातिना लोकोने भूमिहार ब्राह्मण कहेवामां आवे छ । परन्तु वीजा लोको तेमने जाह्मण मानता नथी । तेथी स्पष्ट मालुम पडे छे के वास्तवमा तेओ क्षत्रिओज
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
१८१
छ । आनु बीजं कारण ए पण छे के आ 'जथरिया' नाम 'सिंहान्त' वाला छे, के जे क्षत्रियोना नामनी साथे आज काल पाछळ लगाडवामां आवे छे, वळी तेमना नामने छेडे ठाकोर शब्द पण जोडवामा आवे छे, ए पण क्षत्रिय सूचक ज छ, आ वशमा हालमा पण घणा जमीनदार तथा राजाओ छ, दरभंगा नरेश आ जातिना छे, कोई दरभंगाना प्रथम राजा रघुनन्दनने आ वंशमांज समाविष्ट करे छ भने वर्तमान दर्भगा नरेशने श्रोत्रीय ब्राह्मण माने छ ।
बौद्ध साहित्यना उल्लेखथी तेमज राहुलजीना कयनथी आटलं अवश्य मानवु जोइए के भगवान् महावीरनो वंश ज्ञातृवंश हतो, अने ते ज्ञातृवंशीय क्षत्रिय 'कुंडग्राम' नी नजीक रहेता हता, वळी आ जातृवंशीय क्षत्रियोना गाममां महात्मा बुद्ध आव्या हता, वर्तमानमा आ ज्ञातृवंशीय क्षत्रिय जथारेयाना नामथी प्रसिद्ध छे, अने ते घणे भागे विहार प्रान्तना मुजफ्फरपुर जिल्लाना रत्ती नामे परगणामा रहे छ । वळी ते जथरिया पोताना नामने छेडे सिंह तेमज ठाकोर शब्दनो उपयोग पण करे छे । अने काश्यप गोत्र होवाने लीधे जातृवंशीय क्षत्रिय होवाने सभव छ, पण आजकल ए लोको पोताने भूमिहार ब्राह्मण कहे छ। आमा केटले अशे तथ्य छे, तेनी शोध करवानी अत्यन्त आवश्यकता छ, आ सत्यशोधथी भगवान् महावीर प्रभुना ज्ञातृवंश तेमज तेमना जीवन सम्बन्धमा अज्ञानान्धाकार जे आपणी आजु बाजु फेलाई गयो छे, ते दूर थई जशे।
ठिईण सेठा लवसत्तमा वा, सभा सुहम्माव सभाण सेठा। निबाण सेठ्ठा जह सवधम्मा, ण णायपुत्ता परमत्थि नाणी ॥२४॥ .
संस्कृतच्छाया स्थितीनां (स्थितिमतां) श्रेष्ठा लवसत्तमा वा, सभा सुधा वा सभानां श्रेष्ठा । निर्वाणश्रेष्ठा त्यथा. सार्वधर्मा, न ज्ञात्पुत्रात्परमस्तिं ज्ञानी ॥२४॥
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८२ - वीरस्तुतिः। - सं० टीका स्थितिमा सुखोपभोक्तॄणां वा जीवानां चोर्डानां देवानामिति, तन्मध्ये यथा लवसत्तमा पञ्चानुत्तरजास्तदुत्पन्ना देवाः सर्वोत्कृष्टस्थितिवर्तिनः प्रधानाः, यदि वा तेषां सप्तलवायुष्कमभविष्यत्तदा-सिद्धिगमनमभविष्यदिति चापि । अतस्तेऽभिधीयन्ते कथ्यन्ते लवसत्तमाः श्रेष्ठतमाः । समानां परिषदां मध्ये यथा सौधर्मा "स्यात्सु धर्मा देवसमेत्यमरः” परिषच्छेष्ठा "सुधम्मा तु सभा मता इत्यमिधानप्पदीपिका ।" बहुभिः क्रीडास्थानः सभ्यजनगोष्ठीमिरुपेतत्वात्तथा। यथा सर्वेऽपि धर्मा निर्वाणफलं दर्शयन्ति वा सर्वेभ्यो हितं सार्चमहैद्दर्शन-सर्वेषां जीवानां हितकर्ता उत नाहितकारकोऽतः सोर्हत्प्रणीतधर्मों निर्वाणप्रदाने श्रेष्ठ इति भावः । यत एवं ज्ञातृपुत्रात्सर्वज्ञाच्छीमहावीरात्वप्रकाशात् परं प्रधानमन्यच्च विज्ञानं नास्त्येव सर्वथा भगवानपरज्ञानिभ्योऽपिंको ज्ञानीति भावः ॥ २४ ॥
अन्वयार्थ-[जह] जैसे [ठिईण ] आयुष्मानोंमे [लवसत्तमा] पांच अनुत्तर विमानोंमें निवास करनेवाले देव [ सेठ्ठा ] श्रेष्ठ होते है, [सभाण ] सव सभाओंमे [ सुहम्मा ] सौधर्म-इन्द्रकी [ सभा] समा [ सेठ्ठा ] श्रेष्ठ है, [ सव्वधम्मा] ससारके सब धोंमें [ निव्वाणसेठ्ठा ] मोक्ष धर्म प्रधान है, किन्तु [णायपुत्ता] ज्ञात-पुत्र महावीरसे [परमं] बढकर [णाणी ] ज्ञानी कोई भी [न] नहीं [ अत्यि ] है ॥ २४ ॥
भावार्थ-उत्कृष्ट स्थितिमे सर्वार्थ-सिद्धिके देव प्रधान है, क्योंकि सुखपूर्वक रहते हुए इतना वडा आयु पांचवें अनुत्तर विमानके देवोंके अतिरिक्त अन्य किसीकी नहीं है, उनके वरावर सुख भी किसी दूसरेको नहीं है, तथा जिस प्रकार सौधर्म-इन्द्रकी सभा अन्य सभाओंसे सुन्दर है, और सव आस्तिक परलोक-वर्ग-नरक-आत्मा आदि पदार्थों को माननेवालोंमे धर्मका फल एक मुक्ति ही है, क्योंकि मिथ्यामार्गकी पुष्टि करनेवाले भी मोक्षको खयं प्रधान मानते हैं, उसी भांति भगवान् भी समस्त ज्ञानिओंमें परमोत्कृष्ट ज्ञानी थे, ॥ २४ ॥
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
१८३
भाषा-टीका-अधिक आयुवाले सुखी जीवोंमें लवसत्तम अर्थात् पाच अनुत्तर विमानमें उत्पन्न देवोंका आयु सबसे अधिक श्रेष्ठ और सुखी है। इन्हें लवसत्तम इस लिए कहते हैं कि यदि इनका आयु सात लव अधिक होता तो इन्हें मोक्ष हो जाता। सभाओंमें सुधा अर्थात् शकेन्द्रकी सभा सर्व श्रेष्ठ है, क्योंकि वहा सभ्यपुरुषोंकी गोष्टी अधिक पाई जाती है। सारे धर्मोका निचोड सवने मोक्ष बताया है। अर्थात् धर्मका अन्तिम परिणाम श्रेष्ठ निर्वाण माना है। या जो सबके लिए हितकर हो उसको सार्व कहते हैं। वह अर्हन होता है। उसका कहा हुआ धर्म श्रेष्ठ और निर्वाण प्रद है। इसी तरह ज्ञातृपुन महावीर प्रभुसे बढकर सर्वज्ञ-ज्ञानी कोई नहीं है ॥ २४ ॥
.. गुजराती अनुवाद-अधिक आयुष्यवाळा सुखी जीवोमा लवसत्तम अर्थात् पाच अनुत्तर विमानवासी देवोनुं आयुष्य सर्वथी अधिक श्रेष्ट अने सुखी छे, [तेमनु आयुष्य जो सात लव वधारे होत तो तेओ मोक्षे जात, ते कारणे तेमने लवसत्तम कहे छे] सभामा सुधर्मा शकेन्द्रनी सभा सर्व श्रेष्ठ छे । कारण के त्या सभ्यपुरुषोनी गोष्टी अधिक प्रमाणमा थाय छ। बधा धर्मोनो सार मोक्ष छे, अर्थात् धर्मर्नु अन्तिम परिणाम श्रेष्ठ निर्वाण मनाय छे, जे वधाने माटे हित कर होय तेने सार्व कहे छे, ते 'अर्हत्' होय छे। तेमणे कहेलो धर्म श्रेष्ठ निर्वाण प्रद छ । आ प्रकारे 'ज्ञातृपुत्र' महावीर प्रभुथी अधिक सर्वज्ञ कोई नथी ॥२४॥
पुढोवमे धुणइ विगयगेही, न सपिणहिं कुबइ आसुपन्ने । तरिऊ समुदं च महाभवोघं, अभयं करे वीर अणंतचक्खू ॥२५॥
संस्कृतच्छाया पृथ्युपमो धुनोति विगतगृद्धिर्न सन्निधिं करोति आशुमशः।' तरित्वा समुद्रमिव महाभवौघमभयंकरो वीरोऽनन्तचक्षुः॥ २५॥ ___ सं० टीका-पुनश्च स भगवान् यथा पृथ्वी सकलाधारा वर्तते सर्वान् त्रसस्थावरान् धारयति सा, तथैव सर्वसत्त्वानामभयप्रदानतः
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८४ : .. वीरस्तुतिः। . सदुपदेशदानाद्वा महावीरः सत्त्वाधार इति, अथवा पृथ्वी सर्वसहा, एवं भगवानपि परिषहोपसर्गान सम्यक सहते. कर्मरजांसि धनोति दरीकरोतीति भावः, अष्टविधं कमापनयति वेति शेषः । तथा विगता प्रणष्टा सबाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु गृद्धिर्लिप्सा वा गाय, तृष्णा भरमभिलाषो यस्य स विगतगृद्धिः । तथा सन्निधानं सन्निधिः स च द्रव्यसन्निधिः सचयः । धनधान्यद्विपदचतुष्पदरूपो द्रव्यसन्निधिः, भावसन्निधिस्तु कपायविपयादयो वा, सामान्येन कषायास्तमुभयरूपमपि सन्निधिमथवेन्द्रियजन्य विषयं तन्न करोतीति भावः । “संनिधाने, अन्तिके, इन्द्रियगोचरे, सन्निधिरिति शब्दार्थचिन्तामणिः"। "सन्निधिः संनिधानेऽपि पुमानिन्द्रियगोचर इति मेदिनी"। "पञ्चक्खे सन्निधाने च, सन्निधि परिकित्तितो, इत्यभिधानप्पदीपिका" । भगवान्न करोतीन्द्रियगोचरं विषयं प्रगटं प्रत्युत नाशयतीति भावः । वीरस्तथैवाशुप्रज्ञः सर्वत्र सदोपयोगान छद्मस्थवन्मनसा प-लोच्य पदार्थपरिच्छित्तिं विधत्ते करोति । छाद्यते खात्मरूपमनेनेति छद्म, तन्मध्ये तिष्ठतीति छद्मस्थो हि स केवलज्ञानरहितो भवति । परन्तु भगवान् सर्वज्ञः । स एवंभूतः समुद्रपारमिव महाभवौघं संसारसमुद्रं समुत्तीर्य तीर्ला, बहुदुःखाकुलं चातुरगतिकं संसारसागरं तीर्णः सर्वोत्तमं निर्वाणमासादितवान् । अभयं प्राणिनां प्राणरक्षानुकूलं व्यापारं खतः परतश्च सदुपदेशदानात्करोतीत्यभयंकरश्च, भयोपपदात्करोतेः 'मेघर्तिभयेषु कृत्र' इति 'ख' प्रत्यये रिवत्वात् 'अरुर्द्विषदजन्तस्य चेति मुमागमः।' तथाऽष्टविधकर्मविशेषेणेरयति, प्रेरयति, कम्पयति, दूरीकरोतीति वीरः । तथा अनन्तमपर्यवसान-नित्यं ध्रुवं ज्ञेयानन्तत्वात् वाऽनन्तं चक्षुरिव चक्षुः केवलज्ञानं यस्य स तथेति ॥ २५॥
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
१८५
- अन्वयार्थ-[वीर ] भगवान् महावीर [पुढोवमे] पृथ्वीकी तरह सबके आधारभूत अथवा पृथिवीकी सदृश परिषह-उपसर्ग आदि सहनेवाले [धुणति] आठ कर्मोकी मूल प्रकृतिओंको और उत्तर प्रकृतिओंको नष्ट करते हैं, [विगयगेहि ] अमिलाषा रहित तथा जो [ सण्गिहिं] द्रव्य आदिका संचय [न] नहीं [कुव्वति ] करते, [आसुपने] और जिनका ज्ञान सदा शीघ्र उपयोगयुक्त है, [समुई ] समुद्रकी [व] भाति [महाभवोघं ] पर्यायोंके समूहरूप अनन्त संसारको [तरिउ] पार होकर [ अभयंकरे ] अपने और औरोंके द्वारा जीवोंकी रक्षा करनेवाले और [अणन्तचक्खु ] अनन्त-ज्ञानयुक्त थे ॥२५॥
भावार्थ-ससारके प्राणी पृथ्वीपर सव प्रकारके कार्य करते हैं, किन्तु पृथ्वी किसीपर अप्रसन्न नहीं होती, प्रत्युत सब कुछ सहती है, इसी प्रकार भगवान् महावीर भी परिषह और उपसर्ग आदि सब कुछ सहते थे, न किसी पर प्रसन्न होते थे न अप्रसन्न, जिस तरह पृथ्वी सबके लिए आधार रूप है, भगवान् भी दयाल होनेसे आधारभूत थे, महावीर प्रभु आठ कर्मोसे रहित और बाह्य-वस्तुके ममत्वसे दूर थे, तथा छद्मस्थकी तरह जाननेके लिए उन्हें वस्तुके सोचने या विचारनेकी आवश्यकता न थी, क्योंकि भगवान् प्रतिसमय उपयोगात्मक ज्ञानसे युक्त थे, तथा अनेक दु खोंसे भरपूर ससार समुद्रसे पार होकर मुक्त होने वाले, खयं जीवरक्षा करनेवाले और उपदेशद्वारा औरोंकी रक्षा करानेवाले, तथा अनन्त-पदार्थोके ज्ञाता-दृष्टा थे ॥ २५ ॥ __ भाषाटीका-पृथ्वीकी सदृश सब प्रकारके प्रखर परिषह और उपसर्ग प्रभुने सेंही-वृत्तिसे सहन किए। तथा आठ कर्मरूपी रज मैलको नष्ट करके निर्लेप हुए। फिर उनकी वाहर और भीतरकी सब तृष्णा और आगाएं नष्ट होगईं। अत अब उन्हें किसी भी पदार्थमें अनुरक्ति नहीं है। अव वे द्रव्य सन्निधि ससारोपयोगी वस्तुएँ, भावसन्निधि इन्द्रियोंके विषय और कषाय का संग्रह न करेंगे। या वे इन्द्रियोंके विकारोंको प्रगट न होने देकर उनका सर्वथा नाश कर चुके हैं। उन्हें अव सर्वज्ञोपयोगी होनेसे छयस्थकी तरह मोच विचार कर वातें कहनेकी आवश्यकता नहीं। क्योंकि सर्वज्ञ हथेली पर धरे हुए आमलेकी तरह सब चराचर का अनन्त ज्ञान पाए हुए हैं। और फिर ससारसमुद्रको पार करने के अनन्तर सुदर निर्वाण को पाया है जहा से कभी पुनरावृत्ति न होगी। क्योकि वीरतासे आठ काँकी अनन्त कार्मण वर्गणाओंका अत्यन्त अभाव कर
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८६ , वीरस्तुतिः।' . ..., दिया है । और अब केवल ज्ञानरूप अनन्तचक्षुयुक्त हैं। और वह चक्षु सादि अनन्तरूप है। प्रभुकी अनन्त ज्ञानरूपा लक्ष्मी इसीसे अपार है ॥ २५॥
गुजराती अनुवाद-ते भगवान् महावीर प्रभु पृथ्वीनी पेठे सर्वप्राणि, ओने आधारभूत छे, अने पोताना पवित्र उपदेशधी सर्वनो भय दूर करनार छ, अथवा पृथ्वीनी जेम सर्व प्रकारना प्रखर परिषह तेमज उपसर्ग सिंहसमान वृत्तिथी सहन करनार छे, आठ कर्मरूपी रज मेलनो नाश करीने निलेप थया छे। वळी - वाह्य तेमज आन्तरिक सर्व तृष्णा अने आशानो तेमणे नाश कर्यो छे, तेथी कोई पण पदार्थमा तेमने आसक्ति रही नथी, हवे तेओ द्रव्यथी संसारोपयोगी वस्तुओ अने भावथी इन्द्रिय विषयो तेमज कषायनो संग्रह करणे नहिं, तेओए इन्द्रिय विकारोनो सर्वथा नाश कर्यो छे, तेओ सर्वज्ञ होवाथी छद्मस्थनी पेठे विचार करीने बोलवानी तेमने आवश्यकता नथी, कारणके तेमने हस्तामलकवत् त्रिलोकनु अनन्तनान प्राप्त थयु छे, तेमज वळी संसारसमुद्रनो पार पामी सुन्दर निर्वाण प्राप्त कर्यु छे, के ज्याथी पुनरावृत्ति करवी नहि पडे । वीरता पूर्वक अष्टकर्मरूपी अनन्त कार्मणवर्गणाओनो अत्यन्त अभाव कर्यो छे, केवलज्ञानयुक्त छे, ते सादि । अनन्तरूप छ । प्रभुनी अनन्तज्ञानरूपी लक्ष्मी अपार छे ॥ २५ ॥
कोहं च माणं च तहेव मायं, लोभं चउत्थं अज्झत्थदोसा। एआणि वंता अरहा महेसी, ण कुवइ पाव ण कारवेइ ॥ २६ ॥
(संस्कृतच्छाया) क्रोधं च मानं च तथैव मायां, लोभं चतुर्थमध्यात्मदोपान् । एतान् वान्त्वाऽर्हन्महर्षिन करोति पापं न कारयति ॥ २६ ॥
सं० टीका-क्रोधं कषायरूपमात्मेतरगुणं द्वेषोपयोगं "दोसो कोधे गुणोतरे इत्यभिधानप्पदीपिका" । "दोसो च पटिघं च वा; कोघाऽघाता कोप रोसा इत्यभिधा०"। मानमहंकारं च, "मानो विधा
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
१८
च उण्णति" "गब्वोऽभिमानोऽहंकारो" इत्यभिधानप्पदीपिका"। मायां छद्मत्वं कपटं, "माया तु संबरीत्यभिधानप्पदीपिका" । लोमं पुद्गलवस्तुसंचयव्यापारं "अभिज्झा वनथो वानं, लोभो रागो इत्यभिधानप्प दीपिका" । वान्त्वा त्यक्त्वा वा एतान् दोषान् कषायानध्यात्मदोषान् परिहायाऽसौ भगवान् महर्षिर्जातस्तथा स्वयं पापमास्रवं, "पापं, च किब्विसं, वेराऽघं दुचरितं, दुक्कतं, अपुझाऽकुसलं, कण्हं, कुलसं, दुरिताऽगु च" । अथवा पापमपराधं “पापापराधेसु" अथवा पापं कर्मपंकं "पापे च कद्दमे । अथवा पापं युद्धं चापि, “पापे युद्धे रवे" अथवा पापं कलिः कलहं "पापे कलि"। वा पापं वैरं ह्यपि "पापे च पटिये वेरं" "इत्यादीन्यभिधानप्पदीपिका"। न करोत्यन्यैन कारय: तीत्येते कषायदोषास्त्वपि हितमिच्छंस्त्याज्या एव, यथाह सिद्धान्ते-,
"कोहं माणं च मायं च, लोहं च पाववढणं,
वमे चत्वारि दोसे उ, इच्छंतो हिअमप्पणो" ॥ ३७ ॥ इमे चत्वारः कषायाश्चतुरो दोषान् समुत्पादयन्ति, यथा- "कोहो पीइं पणासेइ, माणो विणयनासणो,
माया मित्ताणि नासेइ, लोहो सबविणासणो" ॥ ३८ ॥ , एतानात्मदोषानेतैः प्रयत्नैरपनयेत् ॥ "उवसमेण हणे कोहं, माणं महवया जिणे, मायमज्जवभावेण, लोहं संतोसओ जिणे" ॥ ३९॥ .
नो चेत्संसारे परिभ्रमणं, यथा"कोहोअ माणो अ अणिग्गहीआ, माया अ लोहो अ पवमाणा। चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स" ॥४०॥
(द० अ०८)
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
११८८
.
वीरस्तुतिः।
.
: अथ कषायप्रत्याख्यानस्य फलमाह-कसायपञ्चक्खाणे णं भंते जीवे किं जणयइ ? कसायपच्चक्खाणे णं वीयरागं भावं जणयइ, वीयरागभावे पडिवन्ने वि य णं जीवे समसुहदुक्खे भवइ ॥ ३६॥
(उ० अ० २९॥) वीतरागताफलमाह-वीयरागयाणं भंते जीवे किं जणयह ! वी० नेहाणुवंधणाणि तण्हाणुबंधणाणि य वोछिदइ, मणुन्ना मणुन्नेसु सद्दफरिसरूवरसगंधेसु चेव विरज्जइ ॥ ४५ ॥ ' कषायविजयस्य पृथक्त्वफलं दर्शयति-कोहविजएणं मंते जीवे किं जणयइ ? को० खंति जणयइ, कोहवेयणिजं कम्म न बंधइ, पुवबद्धं च निजरेड् । खतिए णं भंते जीवे किं जणयइ ? ख० परीसहे जणयइ ॥ माणविजएणं भंते जीवे किं जणयइ ? मा० मद्दवं जणयइ, माणवेयणिज कम्मं न वंधइ, पुबबद्धं च निजरेइ; मद्दवयाएणं भंते जीवे किं जणयइ ? म० अणुस्सियत्त जणयइ, अणुस्सियत्तेणं ( अनुत्सुकत्वेन ) जीवे मिउमद्दवसंपन्ने (मृदुमार्दवसम्पन्नो) अठ्ठ मयठ्ठाणाई निठ्ठावेइ (क्षपयति) ॥ मायाविजएणं भते जीवे कि जयणइ ? मा० अज्जवं जणयइ । मायावेयणिजं कम्मं न बंधइ, पुबबद्धं च निजरेइ । अजवयाएणं मंते जीवे कि जणयइ ? अ० काउज्जुययं, भावुजुययं, भासुज्जुययं अविसंवायणं. जंणयइ, अविसंवायण (यथार्थ) संपन्नयाए णं जीवे धम्मस्स आराहए भवइ ॥ लोहविजएणं मंते जीवे कि जणयइ ? लो० सतोस जणयइ, लोहवेयणिज्जं कम्म न बंधइ, पुबबद्धं च निजरेइ ।। ७० ॥ मुत्तिएणं भंते जीवे किं जणयइ ? मु० अकिचणं जणयइ, अकिचणेय जीवे अत्थलोलाणं पुरिसाणं अपत्थणिज्जो भवइ ॥ ४७॥
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता १८९ कषाया अग्नय उक्ता अत एनान् शमयन्तु यथा"संपज्जलिया घोरा, अम्गि चिट्ठइ गोयमा,
जे डहंति सरीरत्थे, कहं विज्झाविया तुमे" ॥ ५० ॥ । सम्प्रज्वलिता घोरा, अग्नयस्तिष्ठन्ति गौत्तम !,
ये दहन्ति शरीरस्थाः कथं विध्यापितास्त्वया ॥ "महामहप्पसूयाओ गिज्झ-वारि जलुत्तमं, सिंचामि सययं देह, सित्ता नो डहन्ति मे" || ५१ ॥ [ महामेघप्रसूतात् गृहीत्वा वारि जलोत्तमम् ।। । सिंचामि सततं देह, सिक्ता नो दहन्ति माम् ॥ "अग्गीय इ इ के वुत्ता, केसी गोयममबवी,
केसीमेवं वुवंतं तु गोयमो इणमववी" ॥ ५२ ॥ "कसाया अम्गिणो वुत्ता, सुयसीलतवो जलं,
सुयधाराभिहया सन्ता मिन्ना हु न डहन्ति माम् ॥" [ कषाया अग्नय उक्ताः श्रुतशीलतपोजलम् । । । श्रुतधाराभिहता. सन्तः, मिन्ना खलु न दहति माम् ॥ )
(उतराध्यन सूत्र, अ० २३) . अथैतेषां वृद्धव्याख्यामाहक्रोधः परापकाराय कुत्सितचित्तवृत्तिभेदः, परानिष्टाभिलाष इत्यथवाऽनिष्टविषयद्वेषहेतुक इत्यर्थः । आत्मन्युत्कर्षाभिमानात्मकं मानमिति । कापट्यभावं छद्म मिथ्याबुद्धिहेत्वज्ञानमेदो दम्भश्वेत्यर्थः । परद्रव्येष्वतिशयामिलाषो लोभः, । परानिष्ठाभिलाषः क्रोधः, क्षमैव क्रोधविजये समर्थः, क्रोधावेशेन सर्वस्यान्धत्वमधैर्यत्वं हृदयशून्यता
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९०
वीरस्तुतिः ।
च भवति । अतः क्षान्त्यैव नश्यति । मत्समो नान्योऽस्तीति मननं मानं । अथवाऽऽत्मन्यविद्यमानगुणारोपणोत्कर्षरूपा बुद्धिर्मानो महति धनाये सत्यपि ह्यनुक्षणं वर्धमाने तदभिलाषो लोभोऽथवा परवित्तादिकं दृष्ट्वा नेतुं ( ग्रहीतुं ) यो हृदि जायतेऽभिलाषो लोभश्च सः ।
इतरेऽप्याहुर्यथा
“लोभ एव मनुष्याणां, देहसंस्थो महान् रिपुः । सर्वदु: - खाकरः प्रोक्तो, दुःखदः प्राणनाशकः ।" "सर्वपापस्य मूल हि, सर्व्वदा तृष्णयान्वितः, विरोधकृत् त्रिवर्णानां सर्व्वीर्तेः कारणं तथा ।" " लोभात्त्यजन्ति धर्मं च, मर्यादां वै तथैव च मातरं भ्रातरं हन्ति, पितरं बान्धवं तथा ।" "गुरुं मित्रं तथा तातं लोभाविष्टो न किं कुर्य्यादकृत्यं पापमोहितः " ॥
पुत्रं च भगिनीं तथा, २६ ॥
7
·
अन्वयार्थ --- भगवान् महावीर ( कोहं ) क्रोधको (च) और ( माण ) मानको (च) और (मायं) मायाको ( तहेव ) इसीप्रकार ( चउत्थं ) चौथे ( लोभं ) लोभको अर्थात् ( एआणि ) इन सब ( अज्झत्थदोसा ) अध्यात्मिक आत्मसंवन्धी दोषोंको (वंता ) त्यागकर ( अरहा ) अर्हन् तथा ( महेसी ) महर्षि हुए; और (पावं ) पाप (ण) न ( कुव्वइ ) स्वयं करते है (ण) न ( कारवेइ ) औरोंसे प्रेरणासे कराते हैं ॥ २६ ॥
भावार्थ - कारणके नाश होनेपर कार्यका भी नाशहोजाता है संसारके चढने में कारणभूत क्रोध- मान-माया और लोभ हैं, अतः इनके नाश होनेपर समार- कर्मवर्गणाकामी नाश हो जाता है, इसलिए भगवान् क्रोधादिका नाश करके अर्हन् अवस्था एवं महर्षिपदको प्राप्त हुए, क्योंकि वास्तवमें कषायका नाश किए विना कोई भी महर्षि नहीं बन सकता, और भगवान् न वयं पाप करते हैं न औरोंको पापमें प्रेरित करते हैं ॥ २६ ॥
भाषा टीका - क्रोध कषायका पहला भेद है, इसके आवेशमें आकर जीव द्वेषका उपयोग करने लगता है, इससे औरोंका अनिष्ट तक भी कर डालता हैं, चित्तकी वृत्ति गर्म और खराव होजाती है, अनिष्ट करते समय क्रोधका ही
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता १९१ उपयोग होता है । मान दूसरा कषाय है, इसकी मात्रा का कोई प्रमाण नहीं है, इसे अहकार मी कहते हैं, इसके कारण 'वाहरे में यही कहता रहता है, इसके आवेशमें मात्र अपनीही बढती चाहता है । माया नाम कपट करने का है, इससे दंभ क्रिया करता है, सरलता का नाश कर डालता है, अपनी चिद्वृत्ति का मालिक नहीं रह पाता । पराये धनमें अतिशय अभिलाषा रखना लोभ है, जिससे किसी दूमरेका अहित करना बायें हाथका खेल समझता है।
. __ . क्रोध शान्तिसे जीता जा सकता है, शान्तिके विना क्रोधके आवेशमें
अन्धा हो जाता है। इससे अधीरता, अस्थिरता और हृदयशून्यता आ जाती है। अत. क्रोधको समभावसे नष्ट करना चाहिए।
मुझसे बढकर अन्य कोई नहीं, इस मान्यताके आने पर मानसे घिर जाता है, और अपनेमें अविद्यमानगुणको उत्पन्न करनेकी बुद्धि पैदा करता है, इससे अन्य सबको छोटी दृष्टिसे देखता है। स्पष्ट वात न कहना माया है। अधिक धनकी आय होने पर मी प्रतिपल जिसकी अभिलाषा बढती रहे उस अवस्थाका नाम लोभ है, या पराएं धनको देख कर उसके स्वीकार करने की इच्छाको हृदयमें उत्पन्न करना लोभ है, यह लोभ मनुष्योंके शरीरमें सबसे बडा शत्रु है, यह सब दु खोंकी खान और प्राणनाशक है, सब पापोंका मूल है, तीनों वर्गों के लोक इसके कारण विरोध खडा कर रहे हैं, सबके दुःखोंका कारण यही सिद्ध हुआ है। लोभसे प्रेरित होकर माता, पिता, भाई, बंधु और धर्म की मर्यादा 'तकको नष्ट कर डालता है। गुरु, मित्र, पिता, पुत्र, भगिनी आदिको लोभसे मार कर नाश करता है, तथा वह कौनसा अपकृत्य है जिसे लोभ वश न करसकता हो ।
परन्तु भगवान्ने इन चारोंका वर्मन कर दिया, इनको त्याग दिया, ये चारों दोष कोई साधारण दोष नहीं हैं, बल्कि ये अध्यात्म दोष है, इनसे अध्यात्मिकता मष्ट होती है । इनसे अनन्त ससारमें रुलना पडता है। भगवान महावीर इन कपायों को नष्ट करके महर्षि बने थे। तव फिर उनमेंसे खयं पाप या आस्रव करने का विभाव भी जाता रहा। अव ये किसी अपराधको नहीं करते, कर्म फीचसे सर्वथा अलिप्त हैं । जन्म-जरामरणरूपी ससारके युद्धसे मुक्त हैं । कलइका इनके आत्मामें अत्यन्ताभाव है। ये प्रभु निर्वैर है, आशय यह है कि प्रभु सयं पाप नहीं करते, न किसी अन्यको पाप या आस्रवका उपदेश ही करते हैं, न कराते हैं। क्योंकि पाप करना, कराना कपाय और. अशुभयोगसे होता है,
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९२'
- वीरस्तुतिः।
-
प्रभुमें इनका अत्यन्ताभाव है । अत: प्रभुके अनुवर्तिओंका भी यह मुख्य कर्तव्य है कि वे भी कषायोंको छोडें; जैसे दशवकालिकमें कहा है कि
क्रोध-मान-माया लोभ पापको बढाने मे उत्तेजना देते हैं, यदि हितकी इच्छा है तो चारों ही कषायोंका वमन करो अर्थात् त्याग करो।"
'ये चारों कषाय अनन्त दोषोंकों वढाने वाले हैं, तथापि इनमें एक एक मुख्य दोष है।'
जैसे-“क्रोधसे प्रीतिका नाश होता है, मान विनयका नाश करता है, माया-कपट करनेसे मित्रता टूट जाती है, लोभ तो प्रेम, विनय और मित्रता इन तीनों का ही नाशक है।
इनके हटाने के साधन-क्रोधको शान्तिसे, मानको मार्दवतासे, मायाको सरल और उदार आर्जवतासे तथा लोभको सन्तोषसे अलग हटादो नहीं तो संसारमे अनन्त परिभ्रमण करना होगा ।
क्योंकि-यदि क्रोध और मानका निग्रह न किया हो, तथा माया और लोभको वढा रहा हो तब तो ये चारों ही कषाय संसारकी जडको सींचकर बढा देते हैं। । कषायके त्याग का फल-उत्तराध्ययन के २९ वें अध्यायमें गौतम. प्रश्न पूछते हैं कि-भगवन् ! कषाय को छोड देनेसे क्या लाभ उत्पन्न होता है ?
गौतम ! कषाय त्यागसे वीतरागभाव उत्पन्न होताहै । वीतरागभाव आने पर सुखदु खमें समान भाव हो जाताहै।
वीतरागता का फल-- - वीतरागता के पानेसे क्या लाभ होता है ? गौतम ! वीतरागतासे स्नेह वंधन और तृष्णाका वन्धन नष्ट करडालता है, मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्द-रूपरस-गंध और स्पर्शसे वैराग्यद्वारा विरक्त होता है।
__ अलग २ कपायके जीतने का फल-क्रोध के विजयसे क्या प्राप्त होता है ? क्रोधके विजयसे क्षमा के गुणको प्रगट करताहै। क्रोधसे उत्पन्न होनेवाले कमाको न बांधकर पूर्वकालमें वाधे हुए कम्माका क्षय करदेता है। शान्तिसे परिषह जीतनेका अभ्यास तथा सहिष्णुता उत्पन्न करता है। -
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
转
है.
33 15
1
उत्तर
हुरु
संस्कृतटीका- हिन्दी-गुर्जर भाषान्तरसहिता
१९३
हे पूज्यनीय ! मानके विजयसे क्या लाभ होता है ? मानके विजयसेनिरभिमानिता या मार्दवताका अद्वितीयगुण पैदा होता है । मान-जन्य कर्मका प्रतिबंध न करके पहले के बांधे हुए कर्म्मकी निर्जरा करता है ॥ मार्दवतासे क्या लाभ होता है ? इससे अभिमान रहित होजाता है । वह किसी भी पदार्थ में उत्सुक नहीं होता । कठिन स्वभावको न रख कर वह फिर कोमल और मृदुताका सम्पादन करके जाति, कुल, बल, रूप, तप, ज्ञान, लाभ और ऐश्वर्य इन आठमदोंका सहार करता है जोकि आत्मशत्रु रूप हैं ।
मायाका विजय करने से जीव क्या पाता है ? इससे प्रकृति सरल हो जाती है। कपटसे भोगेजानेवाले कर्म नहीं बांधता । और पहले प्रतिबंधको तोडदेता है । निष्कपटतासे जीवको क्या प्राप्त होता है ? निष्कपटतासे काय, मन और भाषासे सरल होकर 'यथार्थ भाव पैदा करता है, किसीको ठगता नहीं, ऐसा जीव धर्मका सम्यक् आराधक वन जाता है ।
लोभको जीतनेसे क्या लाभ होता है ? इसे जीतनेसे संतोषरूपी अमृतको पाता है । और तज्जन्य कर्मका बंध नहीं डालता । और पहले बाधे हुए कर्म्मको बखेर देता है । निर्लोभतासे जीवको क्या लाभ होता है ? इससे अकिंचन भाव यानी निस्पृहताका गुण मिल जाता है । क्योंकि निष्कामजीवीको धनके लोभी कभी नहीं चिपटते ।
कषाय भी एक आग है इसे बुझाओ ! जैसे कहा भी है कि - चारों ओर आग सुलग रही है, वह सबको जला रही है, किसी भी शरीर धारी प्राणीको इसने नहीं छोडा, सव जीव इसमें निरन्तर जल रहे हैं ।
गौतम | आपने उसे किस प्रकार बुझाया ।
·
केशिन् ! महामेघसे एक उत्तम जल पैदा हुआ है, उसी पानी को लेकर अपनी देहको निरन्तर सींचता रहता हूं जिससे वह आग मुझे नहीं जलासकता ।
• गौतम ! वह कौनसा अमिहै, ? गौतम बोले, केशिमुने । कषाय ही सबसे भयंकर अमिहै । उसे ज्ञान, दर्शन, चरित्र और तपके जलसे सींचकर ठंडा कर दियाहै । वह जल जिनवाणीरूप मेघधारा से पाया है । उसीसे उसे बुझाया है । अतः वह आग अव मुझे नहीं जला सकती ॥ २६ ॥
वीर. १३
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९४
वीरस्तुतिः । । । ....गुजराती अनुवाद--कषायनो पहेलो मेद, क्रोध छे, आवेशमा आवी जीव द्वेष करे छे, तेथी बीजार्नु अनिष्ट पण करी बेसे थे, चित्तवृत्ति गरम तथा खराव वनी जाय छे । अनिष्ट करती वखते क्रोधनोज उपयोग थाय छे, कषायनो बीजो मेद मान छ । तेनी मात्रानुं करुं प्रमाण नथी, तेने अहंकार पण कहे छे, तेना आवेशमा मात्र पोतानीज चढती इच्छे छे । माया नाम कपटनुं छे, तेनाथी दम्भ करे छे, सरळतानो नाश थाय छे, चित्तवृत्ति-कब्जे रहेती नथी। परधनमा अतिशय अभिलाषा ए लोभ छे, तेनाथी अन्यर्नु अहित करी बेसता वार लागती नथी। .. कषाय निग्रहनो उपाय-क्रोध शान्तिथी जीति शकाय छे, शान्ति वगर क्रोधना आवेगमा अन्ध बने छ । अधीरता-अस्थिरता-तेमज हृदयशून्यताआवे छे तेथी क्रोधनो सममावथी नाश करवो जोइए।
माराथी मोडें कोई नथी, ए मान्यता मानथी आवे छे, अथवा पोतानामा न होय तेवा गुणो पोतानामा छे, एवी बुद्धि थई जाय छे, तेथी वधाने हलका माने छे, स्पष्ट वात न कहेवी ते माया छे, ।
___ पुष्कळ धन होवा छता हरेक क्षणे वधुनी अमिलाषा राखवी ते लोभ छे, अथवा परधन जोइने ते लई लेवानी हृदयमा इच्छा उत्पन्न थवी ते 'पण लोम छे, लोभ मनुष्यनो मोटामा मोटो शत्रु छे, सर्वना विरोधD ए कारण छ । लोभथी प्रेरित वनीने माता-पिता-भाई-बन्धु-अने धर्मनी मर्यादा पण रहेती नथी । गुरुमित्र-पुत्र-भगिनी वगेरेनो नाश लोभथी करे छे । लोभथी सर्व प्रकारना अकृत्य करे छ।
परन्तु भगवाने आ चारे कयायोनो नाश करी दीघो छ, आ चारे दोषो कोई साधारण दोष नथी, ते तो अध्यात्म दोप छ । तेनाथी अध्यात्मिकतानो नाश थाय छे, तेनाथीज अनन्त ससारमा रखडवू पढे छे, भगवान महावीर प्रभु ते कषायोनो नाश करी महर्षि वन्या, हवे तेओ पाप-आस्रव करता नथी, कर्म मळथी तेओ अलिप्त छे, जन्म-जरा-मरणथी मुक्त छे, कलहनो अत्यन्ताभाव घई गयो छे, प्रभु निर्वैर छे, आशय ए छे के प्रभु पोते पाप करना नथी, कोई बीजाने पाप या आस्रवनो उपदेश पण करता नथी, करावता नथी, कारणके पाप करवू, करावयु, ते कषाय अने अशुभयोगो थी-थाय छे, प्रभुमा तेनो अत्यन्त अभाव
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका- हिन्दी-गुर्जर भाषान्तरसहिता
१९५
छे, तेथी प्रभुना अनुयायिओनुं पण ए कर्तव्य छे के तेओ पण कषायने मूके; दशवैकालिकमा कह्युं छे के - "क्रोध मान माया लोभ पाप वृद्धि करनार छे, जो हित चाहता हो तो चारे कषायोनो त्याग करो !”
#
आ चारे कषायो अनन्तदोष वधारनार छे, तो पण तेनामा एक एक मुख्य दोष छे, जेमके - क्रोध प्रीतिनो मान विनयनो, माया-कपट मित्रतानो अने लोभ प्रेम-विनय अने मित्रतानो नाश करे छे ।
;
तेने दूर करवाना उपाय - क्रोधने शान्ति थी, मानने नम्रता राखवाथी, मायाने उदार सरळताथी, अने लोभ सन्तोषथी दूर करं नहि तो ससारमा अनन्तकाल परिभ्रमण करवुं पडशे ।
क्रोध-माननो निग्रह न कर्यो होय, माया अने लोभमा वृद्धि करी होय तो आ चारे कषायो तारा माटे संसार जाळनी अनन्त वृद्धि करशे 1
कषायत्यागनुं फल – उत्तराध्ययनना २९ मा अध्ययनमा गौत्तमस्वामी प्रश्न पूछे छे के हे भगवन् ! कषायना त्यागथी जीव शुं पामे छे ?
गौत्तम ! कषाय त्यागथी वीतराग भाव उत्पन्न थाय छे अने वीतरागभावने पामेला जीव ने सुखदु ख समान बने छे ।
वीतरागतानुं फल - वीतरागपणाथी शुं पामे छे ? गौत्तम ! निरासक्तिथी स्नेह बंधन तथा तृष्णा बंधनने ते जीव छेदी नाखे छे, तथा मनोज्ञ अने अमनोज्ञ शब्दरूप-रस- गन्ध-स्पर्श इत्यादि विषयोमा वैराग्य- विरक्ति -त्यागभावने पाने छे ।
C
अलग २ कषाय जयनुं फल - हे पूज्य ! क्रोधना विजयथी आ जीब शु पामे छे ? गौतम ! क्रोध विजयथी जीव क्षमाना गुणने प्रगटावे छे, क्रोधथी उत्पन्न थता कर्मोने बाघतो नथी । अने पहेला वाध्या होय तेने खपावे छे, शान्तिथी परिषह जीतवानो अभ्यास तथा सहिष्णुता विगेरे विगेरे गुणो उत्पन्न थाय छे
J
हे पूज्य ! मानना विजयथी जीव शुं पामे छे ? मानना विजयथी निरभिमानता या मृदुताना अपूर्वगुणने प्रगटावे छे, अने मानजन्य कर्मने बांधतो नथी, अने पहेलां जे बंधार्युं छे तेनी निर्जरा करे छे,
मृदुताथी जीव शुं पामे छ ? तेनाथी जीव अभिमान रहित थाय छे, अने कोमल मृदुताने प्राप्त करी जाति-कुल-बल-रूप-तप-ज्ञानलाभ अने ऐश्वर्य ए आठ प्रकारना मद रूपं शत्रुनो संहार करे छे,.
ご
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः ।
मायाना विजयथी जीव शुं पाने छे ? मायानां विजयथी सरलभावपण पाने छे, अने मायाथी वेदवा पडतां कम बंधातो नथी, अने पूर्व बंधायां होय तो
.
V
ते दूर करे छे ।
१९६
1
निष्कपटताथी जीव शुं पामे छे ? निष्कपटताथी मन-वचन अने कायधी सरलता अने सुंदरता प्राप्त करे छे, अने कोईनी साथे ते ठगाई करतो नयी, देवो जीवात्मा धर्मनो सम्यक् आराधक वने छे,
हे पूज्य ! लोभना विजयथी जीव शुं पामे छे ? लोभना विजयथी सन्तोष रूप अमृतने मेळवे छे, लोभ जन्य कर्म वाधतो नधी, अने पूर्वे बंधायेला छे तेने विखेरे छे ।
F
निर्लोभताथी जीव शुं पामे छे ? तेनाथी जीव अपरिग्रही वने छे, अने धनलोलुपी पुरुषोना कष्टो, पराधीनताओथी बच्ची जाय छे, अने राष्ट्रनी दासत्व श्रृंखलाओने निर्लोभी थइने तोडे छे अने देशने स्वतन्त्र बनावी शके छे.
कषाय पण एक आग छे, तेने शान्त करो — जेमके चारे तरफ आग सळगी रही छे, ते वधाने एकदम वाळी रही छे, शरीरधारी प्राणीने पण वे छोडेल नथी, ते अग्निने हे गौतम! तमे शी रीते बुझावी नाखी, 2
हे केशी ? महा मेघमाथी उत्पन्न थयेला पाणीना प्रवाहमांथी ते उत्तम पाणी लई सतत हुं ते अग्निने ठारी नाखुं घुं, अने तेथी ते ठरेली अभि मने लेशमात्र बाळी शकती नथी ।
गौतम ! ते अनि कई ? गौतमे जवाब आप्यो केशी मुने । कपायोज भयं • कर अभि छे, ज्ञान-दर्शन-चरित्र-तप रूपी जलनी धाराओ तीर्थंकररूपी महामेघथी वरसेली छे, सत्यज्ञाननी धाराओथी, हणायेली ते कपायो रूपी अग्नि साव ठरी जाय छे, तेथी ते आग मने लेशमात्र पण चाळी शकती नथी ॥ २६ ॥
मूल किरिया किरियं वेणइयाणुवायं, अण्णाणियाणं पडियच्च ठाणं । से. संघवायं इति वेयइत्ता,, उवडिए संजम दीहरायं ॥ २७ ॥
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
383
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता १९७
संस्कृतच्छाया क्रियाक्रियं वैनयिकानुवाद, अशानिकानां प्रतीत्य स्थानम् । । स सर्पवादमिति वेदयित्वा,
उपस्थितः संयमदीर्घरात्रम् ॥ २७॥ . सं० टीका-क्रियावादिनामशीतिर्शत भेदाः । अक्रियावादिनां चतुरशीतिभेदाः । विनयवादिना द्वात्रिंशत् , अज्ञानवादिनां सप्तषष्टीति त्रिषष्टिशतभेदाः पाषण्डिनां सर्वलिङ्गिनां "पाषण्डाः सर्वलिंगिन इत्यमरः ।" "[कुटीसकादिकाचतुत्तिस द्वांसछिदिडिओ इति छन्नुवुती एते] पासण्डा सम्पकासिता इत्यभिधानप्पदीपिका ।" वा मनोनीतधर्मिणां स्थानं पदं वा सादृश्यं स्थितिमवस्थामात्मनो ज्ञात्वा, "स्थानं सादृश्येऽवकाशे स्थितौ वृद्धिक्षयेतर इति मेदिनी।" सर्वधर्माणामन्तर्भेदं रहस्यं ज्ञात्वेति भावः । वा स्थिति तेषां स्थानं निकटं त्यक्त्वेत्याशयः । "अवकाशे स्थितौ स्थानमित्यमरः।" पक्षमित्यपि सम्यक् प्रतीत्य परिच्छिद्य ज्ञात्वा च स भगवान् सर्ववादं सर्वमन्तव्यं कथयित्वा सर्वेषामेकान्तवादिनां खरूपं कथनं भावं च परिज्ञाय दीर्घकालं यावज्जीवपर्यन्तं संयमे धर्मे सम्यगुपस्थितः स्थितवान् ॥ २७ ॥
अन्वयार्थ- [से] वह भगवान् महावीर [ किरियाकिरियं] क्रियाचाद और अक्रियावादके तथा [वेणइयाणवाय ] विनयवादी और [अण्णाणियाणं] अज्ञानवादियोंके [ ठाणं ] पक्षको [ पडियच्च ] जानकर तथा [ सव्ववायं]
और सव वादोंके-पक्षको (इति) सम्यक् प्रकारसे ( वेयइत्ता) समझाकर [सजमदीहरायं ] यावजीव सयममें [उवठ्ठिए] उपस्थित रहे ॥ २७ ॥
भावार्थ-समारमें अनेक मतोंका प्रचार है, कोई कियासे मोक्ष मानता है, कोई भकिया वादी है वे मात्र ज्ञानसे मुक्ति होना मानते हैं, कोई विनय करनेमें मोक्ष मानते हैं और कोई अज्ञानसे। और भी इनके अनेक सिद्धान्त हैं,
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९८ . ... वीरस्तुतिः। -..', उन सवको प्रभु अच्छे प्रकारसे जानकर तथा औरोंको इसका तथ्य समझा कर : संयममें तत्पर होगये थे,अर्थात् जैसा उपदेश करते थे वैसा आचरणमें भी लाते थे ॥ २७ ॥ १ , . . .'
भाषाटीका:-क्रियावादियोंके १८० मत, अक्रियावादियोंके ८४ मत, विनयवादियोंके ३२ मत, और अज्ञानवादियोंके ६७ इस प्रकार पाषंडियोंके ३६३ मेद सर्वधर्मलिंगिओंके होते हैं । बाद्धोंने ९६ पाषंड माने हैं । मनोनीत धर्मका नाम पाषंण्ड है। या सर्वधर्मका नाम पाषंड है। प्रभुने उनकी तुलना स्याद्वादसे कर दिखाई । जिस अग्नि परीक्षामें कोई पाषंड न डट सका। परन्तु प्रभुने इनसे सर्वधर्म समभाव रखना बताया। उनमें युक्तायुक्तविभाग करके असत्य का त्यागना सर्वश्रेष्ठ माना । - इस प्रकार खुसमय, परसमय का मन्तव्य समझाकर यावज्जीवतक संयमधर्ममें एकरस होकर तत्पर (स्थिर) रहे थे ॥ २७ ॥ ..
गुजराती अनुवाद-क्रियावादीना १८० मत, अक्रियावादीना ८४, विनयवादीना ३२ अने अज्ञानवादीना ६७ ए सर्व ३६३ पाखण्डिओना मेद जाणवा, वोद्धोए ९ मेद मान्या छे, मनोनीत धर्म पाखण्ड कहेवाय छे, तेनी तुलना स्याद्वादथी करी वतावी, ते अग्निपरीक्षामा कोई पाखण्डी टकी न शक्यो। प्रभुए सर्व धर्म समभाव राखवानुं पण वताव्यु, तेमा योग्यायोग्यतुं जाणपणुं पण वतावीने असत्यनो त्याग सर्व श्रेष्ठ मान्यो। आरीते खसमय, पर-समयनुं मन्तव्य समजीने, उत्तम दशविध संयममा (धर्ममा) जावजीव सुधी सावधान पणे रह्या ॥ २७॥ ।
से वारिया इत्थी सराइभत्तं, ' उवहाणवं दुक्खखयठ्याए।
लोगं विदित्ता आरं परं च, - 'सवं प्पभू वारिय सबवारं ॥२८॥
.., । संस्कृतच्छाया 'स वारयित्वा स्त्रियं सरात्रिभक्त, उपधानवान् दुःखक्षयार्थम् । . लोकं विदित्वाऽऽरं पारं च, सर्व प्रभुारितवान् सर्ववारम् २८
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता १९९ सं० टीका-स वीरभगवान स्त्रियं स्त्रीसम्पर्क सम्भोगं च मैथुनं स्त्रीवेदपुरुषवेदोदय, रात्रिभोजनसहित निरन्तरं वारयित्वा परित्यज्य, उपलक्षणादन्यान्यपि प्राणातिपातादीनि ग्राह्याणि । परन्तु रात्रिभोजने तु सुतरां त्रसानामपि हिंसाऽनिवार्य्यसयोगेन भवत्यवेत्यनेन रात्रिभोजनं त्याज्यमेवेति भावः । यथाहपुरुषार्थसिद्ध्युपाये
"रात्रौ मुंजानानां यस्मादनिवारिता भवति हिंसा, 'हिंसाविरतस्तस्मात्त्यक्तव्या रात्रिभुक्तिरपि" ॥ १२९ ॥ "रागाद्युदयपरत्वादनिवृत्ति तिवर्तते हिंसा ।।
रात्रिंदिवमाहरतः कथं हि हिंसा न सम्भवति" ॥ १३० ।। “यद्येवं तर्हि दिवा कर्तव्यो भोजनस्य परिहारः । भोक्तव्यं तु निशाया नेत्थं नित्यं भवति हिंसा" ॥ १३१॥ नैवं वासरभुक्तर्भवति हि रागाधिको रजनिभुक्तौ ।। अन्नकवलस्यभुक्तर्भुक्ताविव मांसकवलस्य ॥ १३२ ॥ अकाले भुञ्जानः परिहरेत् कथं हिंसाम् ।। अपि बोधितः प्रदीपो भोज्यजुषां सूक्ष्मजीवानाम् ॥१३३॥ कि वा बहुप्रलपितैरिति सिद्धं यो मनोवचनकायैः ।
परिहरति रात्रिमुक्ति सततमहिंसां स पालयति ॥ १३४ ॥ अहिंसाणुव्रतपालको नरो रात्रिभोजनं वर्जयतीति दर्शयनाह; सागारधर्मामृते- अहिंसाव्रतरक्षार्थ, मूलवतविशुद्धये । नक्तं भुक्तिं चतुर्धाऽपि सदा धीरस्त्रिधा त्यजेत् ॥ २४ ॥
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
२००
.. वीरस्तुतिः। . . : जलोदरादिकृयूकाधकमप्रेक्ष्यजन्तुकम् ।
प्रेतायुच्छिष्टमुत्सृष्टमप्यश्नन्निश्यहो सुखी ॥ २५ ॥ अथवा वनमालादृष्टान्तेन रात्रिभोजनदोपस्य पातकं दर्शयति
"त्वां यद्युपैमि न पुनः सुनिवेश्य राम, लिप्ये वधादिकृदधैस्तदिति श्रितोऽपि । सौमित्रिरन्यशपथान्वनमालयैक, दोषाशिदोषशपथं किल कारितोऽस्मिन् ॥ २६ ॥ लौकिकसंवाददर्शनेनापि रात्रिभोजनप्रतिषेधमाह ।
यत्र सत्पात्रदानादिकिञ्चित्सत्कर्म नेष्यते । कोऽद्यात्तत्रात्ययमये, खहितैषी दिनात्यये ॥ २७ ॥ भुञ्जतेऽन्हः सकृद्वा द्विर्मध्याः पशुवत्परे । रात्र्यहस्तगतगुणान् , ब्रह्मोद्यान्नावगामुकाः ॥ २८ ॥ योऽत्ति त्यजन् दिनाद्यन्तर्मुहूर्तों रात्रिवत्सदा । सवयेतोपवासेन खजन्मार्द्ध नयन कियत् ॥ २९ ॥ तथा च-श्रावकस्यैकादशप्रतिमासु षष्ठ्या प्रतिमायां श्रावको रात्रिभुक्तित्यागी भवति । यथाह' समन्तभद्रस्वामी श्रावकाचारे
अन्नं पान खाद्यं लेां, नानाति यो विभावाम् । । १ . स च रात्रिभुक्तिविरतः, सत्वेष्वनुकम्पमानमनाः ॥ १४२॥
पुनश्च-मुनिस्तु महात्रतं समेत्य रात्रिभोजनात्सर्वथा विरमति यथाह दशवकालिके-तस्य षष्ठवतं कृतम्-.
अहावरे छठे भंते ! वए राइभोयणाओ वेरमणं, सचं भंते ! राइभोयणं पञ्चक्खामि, से, असणं वा, पाणं वा खाइमं वा साइमं वा,
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २०१ नेव सयं राइं मुंजेज्जा नेवऽन्नेहिं राई भुंजाविज्जा राइं भुजंतेऽवि अन्नेन समणुजाणेजा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । छठे भंते ! वए उवढिओमि सबाओ राइभोयणाओ वेरमणं । ___"अहावरे" इत्यादि । अथापरस्मिन् षष्ठे भदन्त ! व्रते रात्रिभोजनाद्विरमणं, सर्व भदन्त ! रात्रिभोजनं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत् । तद्यथाअशनं, वा पानं वा खाद्यं वा खाद्यं वेति, 'अश्यत इत्यशनम् ,'-ओदनादि, 'पीयत इति पानं-मृद्वीकापानादि, 'खाद्यत इति खाद्यं खजूरादि, 'खाद्यत इति खाद्य' ताम्बूलादि, 'नैव स्वयं रात्रौ भुंजे, नैवान्यै रात्रौ मोजयामि, रात्रौ भुंजानानप्यन्यान्नैव समनुजानामि; इत्येतद्यावज्जीवमित्यादि च भावार्थमधिकृतपूर्वविधम् । विशेषस्त्वयम्-रात्रिभोजन चतुविधम् । तद्यथा द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च । द्रव्यतस्त्वशनादौ, क्षेत्रतोऽर्धतृतीयेषु द्वीपसमुद्रेषु, कालतो रात्र्यादौ, भावतो रागद्वेषाभ्यामिति । स्वरूपतोऽप्यस्य चातुर्विध्यम् , तद्यथा-रात्रौ गृह्णाति रात्रौ भुंक्ते, १ रात्रौ गृण्हाति दिवा भुक्ते २, दिवा गृण्हाति रात्रौ भुक्ते ३, दिवा गृहाति दिवा भुंक्ते ॥ ४ ॥ संनिधिपरिभोगे द्रव्यादिचतुर्भगी पुनरियम्-द्रव्यतो नामैको रात्रौ भुक्ते नो भावतः १, भावतो नामैको नो द्रव्यतः २, एको द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि ३, एको नो द्रव्यतो नो भावतः ॥ ४ ॥ तत्रानुद्गते सूर्ये उद्गत इत्यस्तमिते वाऽनस्तमित इत्यरक्तद्विष्टस्य कारणतो, वा रात्रौ भुञानस्य द्रव्यतो रात्रिभोजनं नो भावतः । रात्रौ भुज इति मूर्छितस्य तदसम्पत्तौ भावतो नो द्रव्यतः । एवमेव सम्पत्तौ द्रव्यतोऽपि, भावतोऽपि चतुर्थो भंगः पुनः
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०२ . वीरस्तुतिः। . ... ... शून्यः । एतच्च रात्रिभोजनं प्रथमचरमतीर्थकरतीर्थयोः-ऋजुजडवक्रजडपुरुषापेक्षया मूलगुणत्वख्यापनार्थ महाव्रतोपरि पठितं मध्यमतीर्थकरतीर्थेषु पुनः ऋजुप्रज्ञपुरुषापेक्षयोत्तरगुणवर्ग इति ॥ . • · तथा च योगशास्त्रेऽपि-- . . . . . . .
___ अन्नं प्रेतपिशाचाद्यैः, संचरद्भिनिरंकुशैः।। . . उच्छिष्टं क्रियते यत्र, तत्र नाद्यादिनात्यये ॥ ., तथा- . , घोरान्धकाररुद्धाक्षः, पतन्तो यत्र जन्तवः।
नैव भोज्ये निरीक्ष्यन्ते, तत्र भुञ्जीत को निशि ? . रात्रिभोजने दृष्टान् दोषानाह..' "मेघां पिपीलिका हन्ति, यूका कुर्याजलोदरम् ।
कुरुते मक्षिका वान्ति, कुष्ठरोगं च कोलिकः ॥" "कण्टको दारुखण्डं च, वितनोति गलव्यथाम् । व्यञ्जनान्तर्णिपतितस्तालु विध्यति वृश्चिकः ॥" "विलमश्च गले वालः, खरमंगाय जायते ।
इत्यादयो दृष्टदोषाः, सर्वेषां निशि भोजने ॥" यदाहुः
*मेहं पिपीलियाओ, हणंति वमणं च मच्छिया कुणइ, जूया
' * मेघां पिपीलिका मन्ति, वमनं च मक्षिका करोति, • यूका जलोदरत्वं, कोलिक. कुष्ठरोगं च । बालः खरस्य भंगं, कण्टको लगति गले दारु,च, तालनि विध्यति अलिव्यंजनमध्ये भुज्यमानः ।
जीवाना-कुन्थ्वादीना, घांतनं भाजनधावनादिषु । ''- एवमादिरजनीभोजनदोषान् , के. कवयितुं शक्नोति ॥
. .
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २०३ जलोयरतं, कोलियओ कोढरोगं च ।। बालो सरस्स भंग, कंटो लग्गइ गलम्मि दारु च । तालुम्मि विधइ अली, वंजणमज्झम्मि भुजंतो ।। जीवाण कुंथामाईण घायणं भायणघोयणाईसु । एमाइरयणिभोयणदोसे, को साहिऊ तरह ?,
नाप्रेक्ष्यसूक्ष्मजन्तून् , निश्यद्यात्प्राशुकान्यपि, अप्युद्यत्केवलज्ञान हतं यन्निशासनम् ॥ *जइवि हु फासुगदवं कुंथूपणगावि तहवि दुप्पस्सा, पञ्चक्खनाणिणो वि, हु राइभत्तं परिहरति । जइवि हु पिवीलगाई, दीसंति पइवमाईउज्जोए, ,
तहवि खलु अण्णाइन्नं, मूलवाविराहणा जेण ॥ लौकिकसंवाददर्शनेनापि रात्रि-भोजनं प्रतिषेधति यथा"धर्मविन्नैव मुंजीत, कदाचन दिनात्यये,
वाह्या अपि निशाभोज्यं यदभोज्यं प्रचक्षते ।" तच्छास्त्रमेव कथयति
"त्रयीतेजोमयोभानुरिति वेदविदो विदुः ।।
तत्करैः पूतमखिलं, शुभं कर्म समाचरेत् ॥" पुनश्चैतदेवाहनिवाहुतिन च स्लानं, न श्राद्धं देवतार्चनम् ।
दानं वा विहितं रात्रौ, भोजनं तु विशेषतः ॥" * यद्यपि खळ प्राशुकद्रव्यं, कुन्युपनका अपि तथापि दुष्प्रेक्ष्याः । प्रत्यक्षज्ञानिनोऽपि खलु रात्रिभकं परिहरन्ति ॥ यद्यपि खल पिपीलिकादयो दृश्यन्ते प्रदीपायुद्योते । तथापि खल्वनाचीर्ण, मूलवतविराधना येन ॥
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०४
वीरस्तुतिः।
पुनश्च-"दिवसस्याष्टमे भागे, मन्दीभूते दिवाकरे। . . ___ नक्तं तु तद्विजानीयान्न नक्तं निशि भोजनम् ॥" . "देवैस्तु भुक्तं पूर्वान्हे, मध्यान्हे ऋषिभिस्तथा । . '
अपराहे च पितृभिः, सायान्हे दैत्यदानवैः ॥" , "सन्ध्यायां यक्षरक्षोमिः, सदा भुक्तं कुलोद्वह। ..
सर्बवेलां व्यतिक्रम्य, रात्रौ भुक्तमभोजनम् ॥" आयुर्वेदेऽप्युक्तम्"हृन्नामिपद्मसंकोचश्चण्डरोचिरपायतः ।
अतो नक्तं न भोक्तव्यं, सूक्ष्मजीवादनादपि ॥" परपक्षसंवादमभिधाय स्वपक्षं समर्थयते
"संसज्जीवसंघातं, भुञ्जाना निशि भोजनम् ।
राक्षसेभ्यो विशिष्यन्ते, मूढात्मानः कथं नु ते ? ॥"" एतदेवाह"वासरे च रजन्यां च, यः खादन्नेव तिष्ठति ।
शृंगपुच्छपरिम्रष्टः, स्पष्टं स पशुरेव हि ॥" रात्रिभोजनविरतानां सविशेषपुण्यवत्वं दर्शयति
"अन्हो मुखेऽवसाने च, यो द्वे द्वे घटिके त्यजन् ।
निशाभोजनदोपज्ञोऽनात्यसौ पुण्यभाजनम् ॥" ननु यो दिवैव 'भुंक्ते 'तस्स रात्रिभोजनप्रत्याख्याने फलं नास्ति ? फलविशेषो वा कश्चिदुच्यतामित्याह
"अकृत्वा नियमं दोषाभोजनादिनभोज्यपि । फलं फलेन्न निर्व्याजं; न वृद्धिर्भाषितं विना ॥"
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २०५ पूर्वोक्तस्य विपर्ययमाह-. "ये वासरं परित्यज्य, रजन्यामेव भुंजते ।
ते परित्यज्य माणिक्य, काचमाददते जडाः ।" ननु यदि नियमः सर्वत्र फलवान् ततो यस्य "रात्रावेव मया भोक्तव्यं न दिवसे" इति नियमस्तस्य का गति? रित्याह
"वासरे सति ये श्रेयस्काम्यया निशि मुंजते ।
ते वपन्त्यूषरक्षेत्रे, शालीन् सत्यपि पल्वले ॥" रात्रिभोजनस्य दुर्विपाकफलमाह"उलूककाकमार्जारगृध्रशम्बरशूकराः ।
अहिवृश्चिकगोधाश्च, जायन्ते रात्रिभोजनात् ॥" वनमालोदाहरणेनायमपि रात्रिभोजनदोषस्य त्यागमहत्तां दर्शयति यथा
"श्रूयते ह्यन्यशपथाननादृत्यैव लक्ष्मणः ।
निशाभोजनशपथं, कारितो वनमालया ॥" शास्त्रं निदर्शनं च विना सकलजनानुभवसिद्ध-रात्रिभोजनत्यागफलमाह
"करोति विरतिं धन्यो, यः सदा निशि भोजनात् ।
सोऽर्द्ध पुरुषायुषस्य, स्यादवश्यमुपोषितः ॥" तदेवं रात्रिभोजनस्य भूयांसो दोषास्तत्परिवर्जने तु ये गुणास्तान् वक्तुमसाकमशक्तिरेवेत्याह__ • "रजनीभोजनत्यागे, ये गुणाः परितोऽपि तान् । i न सर्वज्ञाहते कश्चिदपरो. वक्तुमीश्वरः ॥ ७० ॥
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
.
२०६ ।"वीरस्तुतिः। . : ..': अमितगतिश्रावकाचारेऽपि रात्रिभोजनस्य निषेधः कृतः।
यत्र राक्षसपिशाचसंचरो, यत्र जन्तुनिवहो न दृश्यते । यत्र मुक्तमपि वस्तु भक्ष्यते, यत्र घोरतिमिरं विजृम्भते ॥ यत्र नास्ति यतिवर्गसङ्गमो, यत्र नास्ति गुरुराजदर्शनम् । यत्र संयमविनाशि भोजनं, यत्र संसजति जीवमक्षणम् ॥ यत्रं सर्वशुभकर्मवर्जन, यत्र नास्ति गमनागमक्रिया; तत्र दोषनिलये दिनात्यये, धर्मध्यानकुशला न' भुंजते ॥ मुंजते निशि दुराशयाय के, गृद्धिदोषवशवर्तिनो जनाः । भूतराक्षसपिशाचशाकिनी, संगतिः कथममीभिरस्य च ॥ बल्भते दिननिशीथयोः सदा, यो निरस्तयमसंयमक्रियः । शृंगपुच्छशफसंगवर्जितो, भण्यते पशुरयं मनीषिभिः ॥ आमनन्ति दिवसेषु भोजनं, यामिनीषु शयनं मनीषिणः ।, ज्ञानिनामवसरेषु जल्पनं, शान्तये गुरुषु सेवनं कृतम् ॥ भुज्यते गुणवतैकदा सदा, मध्यमेन दिवसे द्विरुज्वले; येन रात्रिदिवयोरनारतं, भुज्यते स कथितो नराधमः ।। ये विवयं वदनावसनियोर्वासरस्य घटिकाद्वयं सदा । भुंजते जितहृषीकवाजिनस्ते भवंति भवभारवर्जिताः ॥ ये व्यवस्थितमहः सुसर्वदा, शर्वरीषु रचयन्ति भोजनम् । निम्नगामिसलिलं निसर्गतस्ते नयन्ति शिखरेपु शाखिनम् ॥ सूचयन्ति सुखदायि येऽगिनां, रात्रिभोजनमपास्तचेतनाः । पावकोद्धत्तशिखाकरालितं, ते वदन्ति फलदायिकाननम् ॥ . ये ब्रुवन्ति दिनरात्रिभोगयोस्तुल्यतां , रचितपुण्यपापयोः । ते प्रकाशतमसोः समानतां, दर्शयन्ति सुखदुःखकारिणोः ।।
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २०७ । रात्रिभोजनमधिश्रयन्ति ये, धर्मबुद्धिमधिकृत्य दुर्धियः ।
ते क्षिपन्ति पविवन्हिमण्डलं, वृक्षपद्धतिविवृद्धये ध्रुवम् ॥ ' ये विधृत्य सकलं दिनं क्षुधा, मुंजते सुकृतकांक्षयां निशि ।
ते विवृध्य फलशालिनी लती, भस्मयन्ति फलकांक्षया पुनः ।। ये सदापि घटिकाद्वर्य निधा, कुर्वते दिनमुखान्तयोर्बुधाः । भोजनस्य नियमो विधीयते, मासि तैः स्फुटमुपोषितद्वयम् ॥ रोगशोककलिराटिकारिणी, राक्षसीव भयदायिनी प्रिया । कन्यका दुरितपाकसंभवा, रोगिता इव निरन्तरापदाः ॥ . देहजा व्यसनकर्मपंडिताः, पन्नगा इव वितीर्णमीतयः। निर्धनत्वमनपायि सर्वदा, पात्रदानमिव दत्तवृद्धिकम् ॥ संकटं सतिमिरं कुटीरकं, नीचवित्तमिव रंध्रसंकुलम् । ' नीचजातिकुलकर्मसंगमः शीलशौचशमधर्मनिर्गमः ॥ . व्याधयो विविधदुःखदायिनो, दुर्जना इव परापकारिणः । सर्वदोषगणपीड्यमानता, रात्रिभोजनपरस्य जायते ॥ . पद्मपत्रनयनाः प्रियंवदाः, श्रीसमाः प्रियतमा मनोरमाः ।। सुन्दरा दुहितरः कलालयाः, पुण्यपंक्तय इवाचविग्रहाः ॥ भ्रंशितव्यसनवृत्तयोऽमलाः, पावना हिमकरा इंवागंजाः ।। शक्रमन्दिरमिवास्ततामसं, मन्दिरं प्रचुररत्नराजितम् ॥ .. लब्धचिन्तितपदार्थमुज्वलं, मूरिपुण्यमिव वैभवं स्थिरम् । '. सर्वरोंगगणमुक्तदेहता, सर्वशर्मनिवहाधिवासिता ॥.....
ज्ञानदर्शनचरित्रभूतयः, सर्वयाचितविधानपण्डिताः । . . सर्वलोकपतिपूजनीयता, रात्रिमुक्तिविमुखस्य जायते ॥ -:
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०८
वीरस्तुतिः। ... शूकरी शंवरी वानरी धीवरी, रोहिणी मंडली शोकिनी क्लेशिनी । दुर्भगा निस्सुता निर्धवा निर्धना, शर्वरीभोजिनी जायते भामिनी ॥ , वान्धवैरंचिता देहजैर्वन्दिता, भूषणैर्मूषिता व्याधिभिर्वर्जिता। । श्रीमती हीमती धीमती धर्मिणी, वासरे जायते भुक्तितः शर्मणी ॥
रात्रिभोजनविमोचिनो गुणा, ये भवन्ति भवभागिनां परे। 1, तानपास्य जिननाथमीशते, वक्तुमत्र न परे जगत्रये ॥ ।
इत्यनेकशास्त्रसम्मतरात्रिभोजनं परिहेयमिति भावः । उपधानं तपः, प्रणयं च प्रकर्षण नयं न्यायं "उपधान विषे गण्डौ प्रणयेऽपि नपुंसकमिति मेदिनी" । तद्विद्यतेऽस्यासावुपधानवान् , तपोनिष्टप्तदेहो नयवानपि, दुःखक्षयार्थ दुःखप्रणाशनार्थमारं प्रान्तभागं, पारं परं लोकं "पारं परतटे प्रान्ते इति मेदिनी"। "पारं मुत्ति इत्यमिधानप्पदीपिका बौद्धकोषः" । ऐहलोकं पारलोकं, अथवाऽऽरं मनुष्यलोकं पारं दूरवर्ति तीरं 'पारं परम्हि, तीरम्हि' इति अभिधानप्प०" । अथवा नरकादिकं खरूपतस्तत्प्रापणहेतुं ततश्च ज्ञात्वा सर्वमेव तत् , प्रमुभगवान् सर्ववारं बहुशो निवारितवान् त्यक्तवान् एतदुक्तं कथितं प्राणातिपातादिकं निषेधादिकं खतोऽनुष्ठाय परांश्च-स्थापितवान् , नहि खतोऽस्थितः परांश्च स्थापयितुमलमित्यर्थः खयमधर्मे स्थितः पराञ्जनान्धर्मे स्थापयितुमसमर्थः । स्तुतिकृतोक्तमिति । "ब्रुवाणोऽपि न्यायं खवचनविरुद्धं व्यवहरन्, परं नालं कश्चिद्दमयितुमदान्तं खयमिति । भवानिश्चित्यैवं मनसि जगदाधाय सकलं, स्वमात्मानं तावद्दमयितुमदान्तं व्यवसितः" ॥ २८॥
अन्वयार्थ-[से ] उस [उवहाणवं] तपखी [प्रभु] भगवान् महावीरने [दुक्खक्खयट्टयाए] आठ प्रकारके कर्मरूपी दुखोंको दूर करनेकेलिए
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २०९ [सराइभत्तं ] रात्रि भोजन सहित [ इत्थी ] स्त्री-सभोगादि पापोंको [वारिया] छोडकर [ सव्वं] तथा समस्त [आरं] इस [लोग] लोकको (च) और [परं] परलोकको [विदित्ता] जानकर [सव्ववारं] अधिकाधिक प्रमाणमें समस्त परभावका [वारिया निवारण किया ॥ २८ ॥ • भावार्थ-जो वक्ता जिस प्रवृत्तिका उपदेश करता है वह वैसा ही वर्तन भी करता है, तव ही उसके उपदेशका प्रभाव पड़ता है। महावीरप्रभुने मोक्षपानेका जो उपदेश किया उसमें वे स्वयं भी सलम रहे हैं। इसीसे कहा गया है कि भगवान्ने आठ कर्मरूपी दुखोंका नाश करनेके लिए स्त्री-संसर्ग तथा रात्रिभोजन और १८ पापोंका वय त्याग किया था। इसके अतिरिक्त घोर तप करते हुए इसलोक-परलोक अथवा मनुष्यलोक नरकलोकादिका रहस्य जानकर उन सवका त्याग किया ॥ २८॥ .
भाषा-टीका-भगवान् स्त्रीससर्ग और स्त्रीके पडोसमें रहने तकके कहर त्यागी थे। उन्होंने ब्रह्मचर्य्य पालन करनेके लिए नव वाड विशुद्ध शील पालन करना बताया है। यहां तक तो कहा है कि जिस स्थान पर स्त्री वैठकर गई है, ब्रह्मचारी उस स्थान पर एक घटा तक विल्कुल न बैठे । क्योंकि उसके अशुद्ध और गर्म परमाणुओंका प्रभाव सुशीलके लिए हानिकर है। यही ब्रह्मचारिणीके लिए भी समझना चाहिए। इसके अतिरिक्त आप रात्रिभोजनके भी प्रत्यक्ष विरोधमें थे, क्योंकि रात्रिमें भोजन करनेसे त्रस जीवोंकी हिंसाका होना अनिवार्य सयोग है । इसी कारणसे रात्रिभोजन करना मना किया है।
रात्रिभोजन इस लिए वर्जित है कि रात्रिमें भोजन करनेवालोंके लिए हिंसाका निवारण करना अशक्य है। अत. हिंसाका त्यागी रातमें भोजन न करे । मगर जो जीव तीव्र राग भाव रखते हैं उनसे इसका त्याग नहीं हो सकता। क्योंकि जिसे भोजनसे अत्यधिक अनुराग होगा वह ही प्राणी रात दिन खाता पीता रहेगा। और जहा राग वन्धन होता है वहा प्रमत्तयोग व्यापार अवश्य रहता है । और प्रमत्त प्राणी हिंसा अवश्य करेगा।
घहुतसे यह भी कहते हैं कि यदि सदाकाल भोजन करनेमें हिंसा होती है तो दिनमें भोजन न करके रातको ही खाना चाहिए? क्योंकि इस प्रकार करनेसे सदैव तो हिंसा न होगी । मगर यह बात नहीं है, यद्यपि उदरके
वीर. १४
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१०
। वीरस्तुतिः। । ।
भरने की अपेक्षा सब प्रकारके भोजन समान हैं। परंतु अन्नक्के भोजनमें जितना साधारण राग भाव है, उतना मांस भोजनमें नहीं । मांस भोजन में विशेष राग भाव है। जितना घास 'खानेवाली गायको चारा मिलने पर खाते समय सामान्य रागभाव है, उतना थोडा रागभाव चूहे मारनेवाली विल्लीको नहीं । विल्लीको मास भोजनमें विशेष रागभाव है। क्योंकि अन्नका भोजन सहजमें मिल जाता है और मांसका भोजन अतिशय कामादिककी अपेक्षा अथवा शरीरादिकके मोहकी अपेक्षा विशेष प्रयत्नसे तैयार किया जाता है। इसी तरह दिनका भोजन सव मनुष्योंको सहज ही प्राप्त होजाता है। इसीलिए उसमें साधारण रागभाव पाया जाता है, परन्तु रात्रि भोजनमें तो शरीरादिक व कामादिक पोषण करनेकी अपेक्षा विशेष रागभाव आता है। अत एव रात्रिभोजन सर्वथा त्याज्य ही है।
इसके अतिरिक्त दीपकके प्रकाशमें वारीक जीव आखोंसे ठीक २ नहीं दीखते, तथा रात्रिमें दीपकके प्रकाशसे नाना प्रकारके ऐसे छोटे बडे जीव धूमने लगजाते हैं, जो दिनमें कभी दिखलाई नहीं पडते । अत एव रात्रि भोजनमें तो प्रत्यक्ष हिंसा है, और रात्रिमें भोजन करनेवाला हिंसासे कभी वच नहीं सकता। अतः जिस महाभाग्यशालीने रातमें आहार करना सर्वथा छोड. दिया है वही सच्चा अहिंसक है । रात्रि भोजनके छोडे विना अहिंसाव्रतकी सिद्धि नहीं हो सकती । अत एव कोई २ आचार्य इसे अणुव्रतमें भी गर्मित करते हैं।
सागारधर्मामृतमें कहा है कि अहिंसावतका साधक रात्रि भोजनका त्याग अवश्य करता है। क्योंकि मूल व्रत की शुद्धि के लिए तथा अहिंसाव्रतकी रक्षाके निमित्त रात में चार प्रकार का आहारकरना तीनयोगसे धर्मी जीवोंके लिए वर्जित है। - पुराने विचारके मनुष्यों का यह भी मत है कि रात होनेपर भूत प्रेत आकर आहारको झूठा करदेते हैं। और बहुतसे जीव ऐसे भी हैं जिनको रात्रिमें देखना कठिन है। यदि जूं आदि जीव भोजन में खाया जाय तो जलोदर जैसे राजरोगोंका हो जाना कुछ असंभव नहीं। अत: रात्रि भोजनका त्यागी ही उपरोक्त आपत्तियोंसे मुक्तहोकर इन्द्रिय विलासके जालसे छूट सकता है।
वनमालाने रात्रिभोजनके दोप की शपथ दिलवाई थी।
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
२११
जैन रामायणमें कहा है कि रामजी लक्ष्मण और सीताके साथ दक्षिणापथमें घूमते २ कूर्चनगरमें आ निकले। वहां महीधरराजाने अपनी वनमाला नामक पुत्रीका विवाह लक्ष्मणसे करदिया । कुछदिन रहकर वहाँसे जव तीनों विदा होनेलगे तब वनमाला भी लक्ष्मणके साथ चलनेलगी। परन्तु लक्ष्मणने उसे साथमें न चलनेकी सम्मति दी। यह सुन खामीके विरहमें कातरभाव होकर वोली कि नाथ ! आप मुझे वापस कवतक आकर ले जाओगे? यह विश्वास न होनेसे साथ ही रहूंगी । लक्ष्मणने उसे विश्वास दिलानेके लिए प्राणातिपात जैसे अनेक पापकी कडी शपथ ली । तब उसने उन शपथोंपर असन्तोष प्रकट किया और रात्रिभोजनके पापकी शपथ दिलाई । लक्ष्मण वह शपथ लेकर रामके साथमें जामिला। उस समय रात्रि भोजनका पाप चार प्रकारकी हत्याओंसें भी अधिक समझा जाता था।
किसीने कहा है कि सुपात्र-पुरुष दिनमें आते हैं वे रातको नहीं आ पाते, अतः दिन अस्त होनेपर उनको आहार देनेसे वंचित रह जाता है। अत दानी और कल्याणकी कामना रखनेवालापुरुष रातमें भोजन करना त्याग देता है।
पुरुषोंके तीन प्रकार-उत्तम पुरुष मध्यान्ह समय भोजन करते हैं, मध्यम पुरुष दोवार खाते हैं, परन्तु जो सर्वज्ञके कहे हुए धर्मसे अनभिज्ञ हैं, वे पशुकी तरह दिनरात चरते रहते हैं ।
दो घही दिन चढनेतक रात्रि निकट रहती है, दो घडी दिन वाकी रहने पर रात्रि समीप में आ जाती है, अत. सवेरे का दुघडिया धर्माराधन
और स्वाध्यायके लिए है । तथा साझके दुघडियेमें प्रतिक्रमणका आरंभ होजाता है। अतः उन दो दो घड़ियोंको छोड कर जो आहार करते हैं वे प्रशंसनीय पुरुष हैं। क्योंकि उनका आधा जन्म-समय तो उपवास करने में ही व्यतीत हो गया है।
श्रावककी ११ प्रतिज्ञा (प्रतिमा) ओंमें छठवी प्रतिज्ञा रात्रिभोजनके छोडने की होती है, जिसमें अन्न, पानी, खानेकी वस्तु मिमई आदि, और पान सुपारी आदि खादकी वस्तुएँ तथा चाटनेकी वस्तुएँ आदि जो रातमें नहीं भोगता वह सब उसप्राणी जीवोंकी अनुकम्पा करनेवाला सचा गृहस्थ है।
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१२
,
वीरस्तुतिः। . . '
: छठा व्रत मुनिओंका रात्रि भोजन त्याग है-मुनिवर्ग तो महाव्रतोंको लेकर रात्रिभोजनसे सर्वथा विरक्त हो जाता है। दशवैकालिकम , उसका छठवां व्रत इस प्रकार किया गया है। और वह गुरुके सन्मुख यों प्रतिज्ञा लेता है कि
__ भगवन् ! में रात्रिभोजन करनेका त्याग करता हूं। और अन्न, पानी, खाद्य खाद्यादि पदार्थोंका रात्रि के समय न भोजन करूंगा, न कराऊंगा, न करने वालेकी अनुमोदना भी करूंगा। सारी उमरभरकेलिए तीनकरण और तीन योगोंसे अर्थात् मन-वचन-कायासे रातमें, आहार न करूंगा न कराऊंगा, तथा अनुमोदन भी न करूंगा । हे भगवन् ! उस रात्रिभोजनके पापरूप दंडसे में पीछे हटता हूं, उसका प्रतिक्रमण करता हूं, अपने आत्माकी साक्षीसे उसे निय समझता हूं, गुरुकी साखसे उसको घृणित समझता हूं, और आत्मासे उस पाप का त्याग करता हूं।
अहिंसा महाव्रतकी रक्षाकेलिए रात्रिभोजनका त्याग किया गया हैऔर वह भी इस जन्मके अन्तिम श्वास तक छोडा गया है।
उसे महाव्रत न कह कर व्रत इसलिए कहा है कि महाव्रतोंकी तरह इसका पालन करना अधिक कठिन नहीं है। इसीकारणसे इसे मूलगुणमें न रख कर उत्तरगुणमें रखलिया है।
और इसे महाव्रतोंके पीछे इस लिए पढा है कि प्रथम और अन्तिम तीर्थकरके समय मनुष्य समुदायका खभाव ऋजुजड और वक्रजड होता है।
और मध्यके तीर्थंकरोंके समयके मनुष्योंकी बुद्धि ऋजुप्रज होनेसे इसका पाठ सुगमतया समझनेके लिए महाव्रतके पीछे जोड दिया है। इससे यह भी सिद्ध है कि महाव्रतोंकी भाति ही इस व्रतका पालन भी किया जाया करे । द्रव्य-क्षेत्रकाल-भावकी तथा मिश्रणामिश्रणकी दृष्टिसे इसके अनेक प्रकार हैं जैसे-द्रव्यसे अशनादि, क्षेत्रसे अढाई द्वीपमे, कालसे रातके समय और भावसे द्वेपरहित होकर इसका पालन करना आवश्यक है। . इसके अतिरिक्त और प्रकार भी पाए जाते हैं। जैसे कि-आहारादि रातमें ग्रहण करना और रातमें खाना, रातमें ग्रहण करना और दिनमै साना, दिनमे ग्रहण करना और रातमें खाना, दिनमें ग्रहण करना और दिनमें खाना।
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
in...--
--.
bur.autLHalandana
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २१३ इन चारों भंगोंमें पहलेके तीन,भंग साधुके लिए अशुद्ध अर्थात् प्राह्य नहीं हैं, और अन्तिम शुद्ध भंग ग्राह्य है। ___ द्रव्य और भावकी अपेक्षासे भी रात्रिभोजनके चार भंग वन जाते हैं। जैसे-केवल द्रव्यसे, केवल भावसे, द्रव्य और भाव दोनोंसे, तथा द्रव्य और भावसे रहित। सूर्योदय या सूर्यके अस्तका सन्देह होनेपर भी भोजन किया जाता है, वह केवल द्रव्यसे रात्रि भोजन है भावसे नहीं है । “में रातमें भोजन करूं" ऐसा विचार हो जाय और खाया पिया कुछ नहीं है तब वह केवल भावसे रात्रि भोजन है, द्रव्यसे नहीं। बुद्धि काम करते हुए भी रात्रिमें आहार कर लेना, यह द्रव्य और भाव दोनोंसे है और न रात्रिमें भोजन करना न करने की अभिलाषा ही खडी करना यह द्रव्य और भावसे रहित भंग है।
बुद्धोंके आठ उपदेशोंमें भी रात्रिभोजन वर्जित है, जैसे१ 'पाणातिपाता' वेरमणि सिक्खापदं 'समा दियामि' । २ 'अदिन्नादाना' वेरमणि सिक्खापदं समा ‘दियामि। ३ 'अब्रह्मचारिया' वेरमणि सिक्खापदं समादियामि । ४ 'मुषावादा' वेरमणि सिक्खापद समादियामि । ५ 'सुरामेरय-मज्झ-पमादठाना' वेरमणि सिक्खापदं समादियामि । ६ 'विकालभोजना' वेरमणि सिक्खापदं समादियामि ।
७ 'नच्चगीतवादित विसुकदस्सन माला गन्धविलेपनधारण, मंण्डन भूपणठाना' वेरमणि सिक्खापदं समादियामि । ८ 'उच्चाशयन, महाशयना, वेरमणि सिक्खापदं समादियामि ।
भावार्थ में किसी प्राणधारी जीवका प्राण लेनेसे विरक्त होता हूं। २ किसी दूसरेकी वस्तु विना दिए न लेनेकी प्रतिज्ञा करता है। ३ सब प्रकारके स्त्रीसमागम से वंचित होनेकी प्रतिज्ञा करता हूं। ४ सव प्रकारके झूठ बोलने की प्रतिज्ञा लेकर विरक्त होता हूं।
५ किसी प्रकारका मादक द्रव्य या गाजा-भाग-मदिरादिक सेवन करनेसे विरक होता हूं।
६ असमय अर्थात् दोपहरके बाद भोजन करनेसे वाज़ आकर विरक्त होता हूं [ वौद्ध लोक दोपहर बाद कुछ नहीं खाते और रातमें भी नहीं खाते]
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१४
वीरस्तुतिः।
. .
७ नाचने, गाने, ढोल बजाने आदि अनेक प्रकारके तमाशे देखने तथा फूलमाला, गन्ध, लेपनादिक लगाने तथा आभूषण शृंगार करनेसे विरक्त होता है। , ८ ऊचे और वढे आराम देनेवाले आसनों और बडी शय्याओंमें शयन करनेका त्याग करता हूं। इत्यादि-छठवें नियममें रात्रि भोजन इनके यहां भी वर्जनीय है।
घोर अन्धकारमें आखों से कुछ नहीं दीखता, उस समय रातमें उडने- - वाले जीवोंका भोजनमें पडजाना भी सभव है अतः रातमें कौन खा-पी सकता है ?
रात्रि भोजनके प्रत्यक्ष दोप___ “भोजनमें कीडी खाई जाने पर बुद्धिका नाश करती है, यूका खाई जाय तो जलोदर हो जाता है, मक्खीसे वमन हो जाता है, पेटमें मकडी जानेसे कोढ हो जाता है । काटा या लकडी का टुकडा गलेमें पीडा कर देता है। शाक भाजीमें विच्छ आजाय तो वह हलक को डंक मारकर वेध देता है । गलेमें यदि वाल अटक जाय तो खरका भंग हो जाता है, रातमें खानेसे ये दोप प्रत्यक्ष हो जाते हैं।” “रातमें वरतन मल कर साफ करते समय कुंथुवा आदि वहुतसे जीव मसले जाते हैं।" “रातमें प्राशुक वस्तुएँ भी न खानी चाहिए क्योंकि मोदक फलादिकों के जीव रातमें दिख नहीं सकते।" "सूर्यके तेजमे ऋग् यजुः साम, इस तरह तीनों वेदोंका तेज है यह वेदज्ञोंका कहना है, और इसीलिए सूर्यका नाम त्रयीतनु पडा है, उसके किरणोंसे सव कुछ पवित्र हो जाता है, और समस्त शुभकर्म उसके प्रकाशमें हो, उसके अभावमै शुभकर्म जो भोजन पानादिक हैं वे न करने चाहिए।"
"वेदज्ञ कहते हैं कि आहुति, स्नान, श्राद्ध और देवार्चन दान आदि रात्रिमें विधान करने योग्य नहीं हैं। परन्तु रात्रिभोजन तो बिल्कुल त्याज्य है।"
"दिनके आठवें भागमें सूर्यका प्रकाश मन्द हो जाता है, अत बुद्धिमानोने उसे भी रात्रि समझा है । और उस समय भी भोजन वर्जनीय है।" , "देवता पहले पहरमे जीम लेते हैं, ऋपि मध्यान्हमें भोजन करते हैं, तीसरे पहरमें पितृलोकोंकी भोजन-निवृत्ति होती है, चौथे पहरम दैत्य और दानव भोजनसे निवटते हैं । सन्भ्यामें यक्ष राक्षस खाते हैं, अतः हे युधिष्ठिर! सव देवताओंकी वेलाका अतिक्रम होनेसे रात्रि भोजन अभोजन है।"
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका - हिन्दी - गुर्जर भाषान्तरसहिता
२१५
आयुर्वेदमें रात में खाना पीना मना है
"सूर्यके अस्त हो जाने पर हृदयकमल और नाभिकमल अतिशय सकु - चित हो जाते है, अत रातमें भोजन न करना चाहिए, क्योंकि अनेक सूक्ष्म जीव खाए जाते हैं, और रातमें खाया गया भोजन स्वास्थ्यकर नहीं होता, और भलि भान्ति जाठरी में जाकर उसका पाक-भी नहीं बनता ।"
" जो दिनरात वे समय खाने पीनेमें ही मस्त रहता है वह बिना सींग पूंछ का पशु समान है । अत. मनुष्यको दिनमें भी नियमित भोजी-भोजन संयमी होना चाहिए ।"
दो घडी दिन चढे तक तथा दो घडी दिन रहने पर जो भोजन पान त्याग देता है, वह रात्रिभोजनके दोषोंको जाननेवाला पुण्यका भागी होता है ।"
2
" जिसने दिनमें भोजन करनेका अभ्यास या रिवाज तो डाल लिया है, मगर प्रतिज्ञा नहीं ली है तो क्या उसे निवृत्ति रूप पुण्य नहीं मिलता ? इसका उत्तर यह है कि- किसीने रकम तो कर्जमें देदी है मगर व्याज नहीं खोला है, अत वह वसूल करते समय व्याज लेनेका हकदार नहीं होता क्योंकि दुनियादारोंमें बोलीका मूल्य है ।"
“जो दिनमें भोजन करना त्याग कर रातमें ही खाना पसद करता है, वह मानो माणिक्यको छोडकर काचके टुकडेको पसद करनेवाला जड बुद्धि है ।"
“दिनके होते हुए भी जो कल्याणकी इच्छासे रात्रिमें भोजन करते हैं वे सुन्दर और कमाए हुए 'खेत' को छोड कर मानो खारीली - नमकीन रेहीदार भूमिमं धान्य वोना चाहते हैं ।"
“रात्रिमें खानेसे उल्लु काक- विलाव- गिद्ध-राक्षस साप-विच्छ्र-गोह-चमगीदडबागुल आदि अनेक बुरी योनिऍ पाते हैं ।
" जो पुरुष रात्रि भोजन त्याग देता है वह धन्यवादका पात्र है, क्योंकि वह अपनी आधी आयु उपवासमें बिता रहा है ।"
"रात्रि - भोजनके त्यागमें जो जो गुण हैं, उनके विषयमें अधिक क्या कहा जाय उसके सब प्रकारके लाभ सर्वज्ञ ही जानते हैं ।"
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१६
। वीरस्तुतिः।
- -
इसके अतिरिक्त अमितगति श्रावकाचारमें भी अनेक दोष दिखाए हैं,
जैसे-“रातमें राक्षस और पिशाच घूमते हैं, जीवोंके समूहको भलि प्रकार देखा नहीं जाता, जिस वस्तुका नियम किया हो उस पदार्थको भी अनजानपनसे खा सकता है, और उससमय घोर अन्धकार छाया रहता है।" "उस समय सुपात्र साधु महापुरुषोंका भी आना कठिन है, जिसमें गुरुदेवका सेवा सत्कार नहीं किया जा सकता, और सयमका निरन्तर विनाश हो जाता है, यहा तक कि छोटे मोटे जीव भी भक्षण कर जाता है ।" "जिसमे दानादिक शुभकर्म-भी वर्जित हैं, लोकोंका आना जाना उस समय विल्कुल बंद हो जाता है, जो एकान्त दोषोंका घर है, जिसमें दिनका अभाव होजाता है, ऐसी रात्रिमें धर्मध्यानकुशल मनुष्य भोजन कमी नहीं करते।" "जो दुराशयके कारण जीभके खादके फेरमें पड कर रात्रिमे भोजन कर लेते हैं वे भूत प्रेतोंकी संगतिको न ... छोड सकेंगे।" "जिसने यम-नियम-संयमकी क्रियाओंकात्याग कर दिया है,
और दिनरात खाने पीनेमें ही पिला पडता है, उसे बुद्धिमान विना सींग पूंछका पशु ही समझते हैं । मगर उसके पशुओ जैसे खुर ही तो नहीं हैं" "बुद्धिमान् शारीरिक सुख और जीवरक्षाके लिए दिनमे भोजन करते हैं, रात्रिम आरामसे सोते है, ज्ञानीजन समय विचार कर वोलते हैं, तथा आत्मशान्तिके लिए गुरु जनकी सत्सगति और सत् शास्त्रका श्रवण-मनन और निदिध्यासन करते हैं ।” “गुणवान् और उत्तम पुरुष सदैव दिनमे एक वार भोजन करते हैं, मध्यम-पुरुष उज्वल दिनमें दो वार आहार करते हैं, और जो दिनरात निरन्तर चरते ही रहते हैं वे मनुष्योंमें अधम हैं ।" "जो पुरुप दिनके आदि और अन्तकी दो घडियोको छोड कर भोजन करते हैं, उनको कमी स्वास्थ्य बिगडनेका भय नहीं रहता, वे इन्द्रियोंके घोडों को जीतकर संसार भरके कप्टसे एकदम हल्के हो जाते है ।" "जो पुरुष अपने पास दीपक रसकर रातको खाते हैं मानो वे स्वभावसे नीचेकी ओर वहनेवाली नदीके जलको वृक्षकी चोटीके ऊपर पहुचाया चाहते हैं" "जो रात्रि भोजनको सुखदायक जीवन मानता है वह आगसे जले हुए वनको मानो फलदायक मानता है, मगर यह अनहोनी वात है।" "जो दिन और रातके खानेमें वरावर पुण्य और पापकी मान्यता रखते है वे मानो सुख और दु.खके प्रदाता प्रकाश और अन्धकारको समान देखते हैं।" "जो धर्मबुद्धिसे रातमें खाते हैं, वे निश्चयसे वृक्षोंकी पद्धतिको वढानेके
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
Non-Sat
sASHRADDHELL
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
२१७
लिए मानो वज्र और आगको फेंक रहे हैं।" “जो पुण्यकी अभिलाषासे दिन भर तो खूब भूखे रहते हैं, और रात पड़ने पर खाने लग पडते है वे फलदार लताको पुनः फलकी इच्छासे मानो काट रहे हैं।" "जो पुरुष दो घडी दिन चढे तक सवेरे नवकारसी तप रखते हैं, और दो घडी दिन रहनेपर चरम प्रत्याख्यान कर देते हैं, वे एक मासमें मानो दो उपवासका फल प्राप्त कर लेते हैं।" “रातमें खानेवालोंको ये सामग्रिए मिलती हैं, उन्हें रोग और शोक युक्त तथा कलह करनेवाली राक्षसीकी तरह डरानेवाली स्त्री मिलती है, महापापसे उत्पन्न अन्तराय-दु ख देनेवाली कन्या प्राप्त होती है, पुत्र व्यसनी और काले सापकी तरह डरावने होते हैं, घरमें दरिद्रता रहती है, छिद्रान्वेषक नीचपुरुषकी लक्ष्मी की तरह संकट रूप अन्धकारसे परिपूर्ण घर होता है। नीच जातिमें पैदा होकर नीच कर्म करने पड़ते हैं । समभाव-सत्य-शील-निर्लोभताका अभाव रहता है, अन्यका अनिष्ट करनेवाले दुर्जनकी तरह अनेक दुःख देनेवाली व्याधिसे घिरा रहता है। समस्त दोषोंके समूहसे पीडित रहता है । इत्यादि अनेक दोषोंकी उत्पत्ति हो जाती है।"
मजलते हैं, रोग र सब प्रकारके आन्तरिक सम्पत्तुिर नर आदि
रात्रि भोजन त्यागने वालोंके गुण-"कमल पत्रके समान आखोंवाली, प्रिय वचन बोलनेवाली, मनोहर लक्ष्मीकी समानता रखनेवाली स्त्री उसे प्राप्त होती है, कला और विद्याकी खान, पुण्यकी पंक्तिकी तरह सुन्दर शरीरवाली, कन्या मिलती है ।" "व्यसन प्रवृत्तिसे रहित चन्द्रमाकी भाति उसके घर निर्मल चरित्रवान् पुत्र होता है। इन्द्रके मन्दिरकी तरह अन्धकार रहित प्रचुर रत्नोंसे शोभित मकान मिलते हैं। स्थिर वैभव पाते हैं, वाञ्छित पदार्थ मिलते हैं, रोग रहित सुन्दर शरीर धर्मसाधनके लिए प्राप्त होता है, अधिक क्या कहा जाय उसे सब प्रकारके सुख समूह प्राप्त होते हैं।" "इसके अतिरिक्त ज्ञान-दर्शन और चरित्रकी आन्तरिक सम्पत्तिसे मी उसका आत्मा अलंकृत होता है, १४ ब्रह्माण्डोंका पति होकर सुर-असुर नर आदि के पूजनीय होते हैं, वैभवके पानेका इन्हें अहंकार भी नहीं होता, न्यायसे धन कमाते हैं, कर्मशूर होते हैं, रात्रि-भोजनसे विमुख और लागिओको ये सामग्री संयोग म्मेलते हैं ।" "वे वान्धवों द्वारा पूजित होते हैं, जिनकी पुत्रादि द्वारा ख्व सेवा होती है, नीरोग होते है, लक्ष्मी जैसी शर्मीली बुद्धिमती स्त्री
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१८ , वीरस्तुतिः। , " मिलती है, जिसका स्वभाव धर्मात्मा और सच्चरित्रानुगामी होता है, ये सब सुख दिनमें यत्नपूर्वक भोजन करनेवाले सत्यवादीको मिलते हैं।"
' इत्यादि अनेक शास्त्र संमत होनेसे रात्रिभोजनको अप्राकृतिक और दूषित समझकर छोड देना चाहिए। प्रभु महावीर रात्रिभोजनके स्वयं त्यागी थे, और औरोंको भी त्याग करनेका उपदेश करते थे, तथा सदैव तपश्चरण किया करते थे, अपार नम्रता थी, उनकी वाणी अनन्तनयोंसे शुद्ध थी। उन्होंने संसार और मोक्षका स्वरूप बताया था, सब प्रकारके आस्रवोंसे आप रहित थे, औरोंको भी आस्रवके पापजालसे सदा रोकते थे, क्योंकि जो स्वयं अधर्मी और अनीतिमान् हो वह औरोंको धर्म और नीतिमें क्योंकर स्थापन कर सकता है। जो स्वयं धर्मिजन-नैतिक जीवन व्यतीत करनेवाला हो वही औरोंको पापकर्मके गढेसे निकाल सकता है । किसीने कहा भी है कि "जो खयं तो न्याय की वात कहता हो, परन्तु न्यायके विरुद्ध आचरण करता हो तो वह
औरोंपर अपना कुछ भी प्रभाव नहीं डाल सकता, क्योंकि 'अदान्त' कभी इन्द्रिय निग्रह नहीं कर सकता।"
और प्रभुने इस लोक और परलोक को जानकर पापोंसे सर्वथा निवृत्ति प्राप्त की थी ॥ २८ ॥ र गुजराती अनुवाद-भगवान् महावीर प्रभु स्त्रीसंसर्ग अने स्त्रीनी नजीक रहेवाना पण कट्टर त्यागी हता, तेमणे नववाड विशुद्ध ब्रह्मचर्यनु पालन करवानुं कर्तुं छे, ने स्थान पर स्त्री वेठी होय त्या ब्रह्मचारी एक कलाक सुधिमा नज बेसे, कारण के तेना अशुद्ध परमाणुओ सुशील पुरुपने हानिकर छ । एज ब्रह्मचारिणी माटे समजी लेबु । रात्रिभोजन त्यागी
ते उपरान्त तेओ रात्रिभोजनना पण प्रत्यक्ष विरोधी हता, कारण के रात्रिभोजनथी प्रस जीवोनी हिंसा थाय छे, तेथी रात्रिमा भोजन करवानी मना करवामा ,आवी छे, हिंमा त्यागी रात्रिभोजन न ज करे, जे जीव तीव्र राग भाव-सहित होय छे, ते तेनो त्याग करी शकतो नथी, कारणके जे जीवने भोजन पर अधिक प्रीति होय छ, ते रात्र के दिवशे खातो पीतो ज रहेशे, ज्या राग वन्धन होय छे त्या प्रमत्तभाव जरूर रहे छे, अने प्रमत्तभावयुक्त प्राणी हिंसा अवश्य करे छे.
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
MALA
-HaramuparnamaA
NRAR
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
२१९
घणामो एम पण कही दे छ के जो भोजन करवामां सदा काळ हिंसा थई जाय छे, तो दिवसे भोजन न करता रात्रेज खावं जोइए, कारण के तेम करवाथी सदा काळनी हिंसा थती नथी, परन्तु ते वात ठीक नथी, जो के उदर भरणनी अपेक्षाए सर्व प्रकारना भोजन समान छ, पण शाकाहारी भोजनमा जेटलो साधारण अने सात्विक भाव छ, तेटलो मांस भोजनमां सालिक-भाव नथी, मांस भोजनमां विशेष रागभाव छ, । घास खानारी गायने घास खाती वखते जेटलो सामान्य रागभाव छ, तेटलो उंदर मारनारी हिंसक विलाडीमा नथी, बिलाडीने मास भक्षणमा विशेष राग भाव छ । 'अन्न भोजन' सहजमा उत्पन्न थाय छे भने मळे पण छे, अने मास भोजन अतिशय कामादिकनी खातर अथवा शरीरादिकना मोहनी खातर विशेष प्रयत्ने करवामां आवे छे, ए रीते दिवसर्नु भोजन सर्व मनुष्योने सहजज प्राप्त थाय छे, तेथी तेमा साधारण रागभाव थाय छे, परन्तु रात्रिभोजनमा तो शरीरादिक तथा कामादिकना पोषणनी खातर विशेष राग भाव आवे छे, तेथी पण रात्रिभोजन त्याज ज छ।
दीपकदोष-वळी दीवाना प्रकाशमा झीणा जन्तुओ आंखथी वरावर देखाता नथी, तेमज रात्रे दीवाना प्रकाशथी जुदी जुदी जातना एवां नाना मोटा जन्तुओ फरवा लागे छे, के जे दिवसे क्यारेय पण देखाता नथी, तेथी रात्रिभोजनमा प्रत्यक्ष हिंसा छे, ने रात्रिभोजन करनारा हिंसाधी पण क्यारेय वची शकता नथी, ।
तेथी जे भाग्यशाळी रात्रि भोजननो सर्वथा त्याग करे छे, ते साचो अहिंसक छे, रात्रिभोजनना त्याग वगर अहिंसा व्रतनी सिद्धि नथी थई शकती। तेथी कोई कोई आचार्य तेनो प्रथम अणुव्रतमा समावेश करे छ ।
सागारधर्मामृतमा कमु छ के अहिंसाव्रतनो साधक रात्रिभोजननो अवश्य त्याग करे छे, कारण के मूलव्रतनी शुद्धिने माटे तेमज अहिंसा प्रतनी रक्षा खातर राने चार प्रकारनो आहार त्रियोगे करी धमी आत्माओ माटे चर्जित छ ।
जुना विचारोना मनुष्योनो ए पण मत छे के रात्रि थतां भूत प्रेत आवीने माहारने अभडावी दे छे, वळी घणां जीवो एवां छे, के राने ते जोवा वहु मुश्केल
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२०
।
. वीरस्तुतिः।
पडे छे, जो जू आदि जीव भोजनमा खवाई जाय तो जलोदर जेवा राजरोगो यवानो संभव रहे छे, तेथी रात्रिभोजनना त्यागीज उपरोक्त आपत्तिोयी वचीने दूर रही शके छे, ।'
वनमाळा नामनी राजकन्याए पोताना पति लक्ष्मणजीने रात्रिभोजनना दोषना सोगन खवडाव्या हता। जैन रामायणमा लखेलुं छे के रामचन्द्रजीलक्ष्मणजी अने सीतानी साथे दक्षिणमां फरता फरता कूर्चनगरमां आवी पहोंच्या, त्यां महीधर राजाए पोतानी वनमाळा नामे पुत्रीना लग्न लक्ष्मण साथे कर्या, थोडा दिवसो रह्या वाद त्यांथी ज्यारे त्रणेय विदाय थवा लाग्या त्यारे वनमाळा पण लक्ष्मणनी साथे चालवा लागी, त्यारे लक्ष्मणे तेम न करवा कडुं । ते साभळीने स्वामीना विरहथी दुःखी थता ते वोली के नाथ ! आप मने पाछा फरतां लई जशो के केम, ते वावतनो मने विश्वास न होवाथी हुँ आपनी साथेज रहीश, लक्ष्मण तेने विश्वास बेसे ते खातर प्राणातिपात जेवा पापनी भयंकर प्रतिज्ञा करी, त्यारे तेणे ते ते प्रतिज्ञाओ पर असन्तोष प्रगट करीने रात्रिभोजनना पापनी प्रतिज्ञा लेवढावी, लक्ष्मणे पण ते प्रतिज्ञा खीकारी लीधी अने ते राम साथे जई मल्या । ते समये रात्रिभोजननुं पाप चार प्रकारनी हत्याओथी पण वधु मानवामा आवतुं हतुं ।
कोईए कडुं छे के-सुपात्र पुरुष दिवसे आवे छे, तेओ राने आवता नथी, तेथी दिवस अस्त थता तेमने आहार देवानुं वनी शकतुं नथी, तेथी दान तथा कल्याणनी इच्छा पूर्ण राखनारा पुरुषो रात्रे भोजन करवानो त्याग करे छ । पुरुषोना त्रण प्रकार
उत्तम पुरुष मध्यान्ह समये भोजन करे छे, मध्यम पुरुप वे वखत खाय छे । परन्तु जे सर्वज्ञ कथित धर्मथी अनमिज्ञ छे ते पशुनी पेठे दिवसने रात खाधा करे छ।
वे घडी दिवस चडतां सुधी रात्रि नजीक गणाय छे, वे घडी दिवस वाकी रहेता रात्रि समीप गणाय छे, तेथी सवारनी वे घडी धर्माराधन तथा खाध्याय माटे छे, अने साजनी वे घडी प्रतिक्रमण माटे छे, तेथी ते वब्वे घडिमोने छोडी जे आहार करे छे, ते पुरुप प्रशंसनीय छे, कारण के तेम करवाथी जीवननो अर्धभाग तो उपवासमां व्यतीत थाय छ ।
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २२१ श्रावकनी ११ प्रतिज्ञा (पडिमा) मां छठी रात्रि भोजन त्यागनी छ । जे अन्न-पान-खादिम-खादिमनी वस्तुओनो उपयोग रात्रे करतो नथी, ते सर्व जीवोनी अनुकम्पा करवावाळो साचो गृहस्थ छे. मुनिओर्नु छटुं व्रत-रात्रिभोजन त्याग छे,
मुनिओ तो रात्रिभोजननो सर्वथा त्याग करे छे, दशवैकालिकसूत्रमा रात्रिभोजनत्यागरूप छळु व्रत आ प्रमाणे कयुं छे, शिष्य गुरुनी समीपे प्रतिज्ञा करे छे-के हे भगवान् ! हु रात्रिभोजननो जीवन पर्यन्त सर्वथा त्याग करूं छु, हुं जीवन पर्यंत त्रण करण अने त्रण योगे करी अर्थात् मन-वचन अने काय द्वारा अन्न पाणी-खाद्य खाद्य (मेवा विगेरे खोराक अने मुखवासादि) एम चारे प्रकारना आहार राने करीश नहि, करावीश नहि, भने करनारने अनुमोदन पण आपीश नहि, पूर्वे जे रानि भोजन सम्बन्धी पाप कर्यु होय तेनाथी हुँ निवृत्त थाऊं छु, आत्म साक्षीए ते पापने निंदु छु, आपनी पासे ते पापने अवगणुं छु, मने हवेथी ते पापकारी कर्मथी मारा आत्माने सर्वथा अलग करुं छु, इत्यादि।
अहिंसा महाव्रतनी रक्षाने माटे रात्रिभोजननो त्याग करवामा आवे छे, भने ते पण यावज्जीव सुधी त्याग करेलो छ,
तेने महाव्रत न कहतां व्रत तरीकेज गणाव्युं छे, तेनुं कारण ए छे के महानतोनी पेठे तेनु पालन बहु कठिन नथी, ते खातर तेने मूल गुणमां न गणता उत्तर गुणमा गणाव्युं छे, ।
वळी महाव्रतोनी पाछळ तेने एटला माटे गणाव्यु के-प्रथम अने अन्तिम तीर्थकरना समयना मनुष्योनो खमाव ऋजु जड वक्र जड अनुक्रमे होय छे, तेनो पाठ सुगम रीते समजाववाने माटे महाव्रत साथे तेने जोडी देवामा आव्युं छे, तेथी ए सावित थाय छे के महाव्रतोनी पेठे आ व्रतर्नु पण पालन करवानु छ ।
दन्य-क्षेत्र-काल-भावनी तेमज मिश्रामिश्र द्रष्टिए तेना अनेक प्रकारो छे, जेमके द्रव्यथी असनादि, क्षेत्रथी अढी द्वीपमा, कालथी रानें भावथी द्वेष रहित यईने तेनुं पालन करवू आवश्यक छे.
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२२
वीरस्ततिः।
“
ते उपरान्त बीजा पण प्रकारो छे, जेम के आहारादि राने ग्रहण . करवाने रात्रे खावां, रात्रे ग्रहण करवां ने दिवसे खावां, दिवसे ग्रहण करवां ने रात्रे खावां, दिवसे ग्रहण करवां ने दिवसे खावां, आ चार प्रकारमांनां पहला । त्रण साधुने माटे अशुद्ध अर्थात् अग्राह्य छ, ने छेवटनो प्रकार शुद्ध भने ग्राह्य छ ।
___ द्रव्य भने भावनी अपेक्षाए पण रात्रिभोजनना चार भांगा थाय छे, जेमके केवळ द्रव्यथी, केवळ भावथी, द्रव्य अने भाव वंनेथी, द्रव्य अने भावथी रहित, । सूर्योदय अथवा सूर्यास्तनो सन्देह पडवा छतां पण भोजन करवामा आवे छे, ते केवळ द्रव्यथी रात्रिभोजन छे, भावथी नहि, । “हुं रात्रे भोजन करीश" एवो विचार थाय, ते केवळ भावथी रात्रिभोजन छे, भले पछी कांइ खाधुं पीधुं न होय, जाणवा छता पण रात्रे भोजन करवू, ते द्रव्य अने भाव वंनेथी छे, अने रात्रे भोजन न कर, तेमज इच्छा पण न करवी, ते द्रव्य भाव वंनेथी रहित प्रकार छ । वौद्ध मतमां रात्रिभोजन वर्जित
बुद्धना आठ उपदेशोमां रात्रिभोजन वर्ण्य गण्युं छे, जेमके(१) कोई प्राणधारीनो प्राण नहिं लेवानी हुं प्रतिज्ञा करूं छु. (२) अदत्तादान (चोरी) नो त्याग करुं छु. (३) सर्व प्रकारना स्त्रीसमागमना त्यागनी प्रतिज्ञा करूं छु. (४) सर्व प्रकारना असत्य वचनथी विरमुं छु.
(५) कोई पण प्रकारना मादक द्रव्य गाजो, भांग, मदिरादिकना न सेवननी प्रतिज्ञा करुं छु.
(६) असमय-अर्थात् वपोर पछी भोजन करवाथी विरमुं छु, (बौद्धो वपोर पछी तेमज रात्रे पण काई खाता नथी.)
(७) नाच-गान-ताल भादि अनेक प्रकारना तमासा जोवानी क्रियाथी तथा फूलमाला-गन्ध विलेपन आदि लगाढवाथी तेमज शणगार पहेरवाथी विरमुं छु ।
(८) ऊंचा तेमज मोटा आराम देनारा आसनो तेमज मोटी शय्यामओ पर सुवानो त्याग करूं छु, वगेरे ।। ,
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २२३ आमांना छट्ठा नियममा रात्रिभोजननो पण त्याग आवी जाय छे । अने अंधारामा आखोथी कंइ देखातुं नथी ते वखंते रात्रे उडनारा जीवडाओर्नु भोजनमा पंडवानुं संभवित छे, तेथी रात्रे कोण खाय पीए ? रात्रिभोजनना प्रत्यक्ष दोष
"भोजनमां कीडी खवाई जाय तो बुद्धिनो नाश थाय छे, जू खवाई जाय तो जळोदर थई जाय छे, माखीथी वमन थई जाय छे, करोलिओ आवी जाय तो कोठ थाय छे । कांटो तेमज लाकडानो टुकडो आवी जाय तो गळामा पीडा करे छे, शाक भाजीमां वींछी आवी जायतो तेना डंखथी बहु पीडा थाय छे, गळामां वाळ अटकी जाय तो खर भंग थई जाय छे, रात्रि भोजनथी मावा अनेक प्रत्यक्ष दोषो थाय छे," । "राने वासणो साफ करती वखते कुंथुवा आदि घणा जीवडाओनो नाश थई जाय छे।" "राने प्राशुक वस्तुओ पण न खावी जोइए, कारणके मोदक, फळादिना जीवो राने देखी शकाता नथी।" वेदमां "वेदज्ञो कहे छे के-सूर्यना तेजमा ऋग्-यजु तथा साम एम प्रणे प्रकारना वेदोनुं तेज छ । भने तेधी सूर्यनाम त्रयीतनु पच्यु छ, तेना किरणो थी वस्तु पवित्र बनी जाय छे, एटले समस्त शुभ कर्म तेना प्रकाशमा करवां जोइए, तेना अभावमां नहि,।" "वेदज्ञ कहे छे के आहूति-नान-श्राद्ध-देवार्चन दानादि रात्रिमा करवा योग्य नथी, रात्रिभोजन तो बिल्कुल त्याज्य छे," "दिवसना माठमां भागमा सूर्यनो प्रकाश मन्द थई जाय छे, तेथी बुद्धिमानो तेने पण रात्रि गणे छे, अने ते समये पण भोजन वयं छे।" "देवता पहले पहरे जमी ले छे ऋषि मध्यान्ह समये जमे छे, त्रीजा प्रहरे पितृलोको भोजन पानथी निवर्ते छे, चौथा प्रहरमा दैत्य दानव जमी ल्ये छे, संध्यामां यक्षराक्षस खाय छे, हे युधिष्ठिर ! सर्वदेवताओनो समय अतिक्रमी जवाथी रात्रिभोजन अमोजन छ, ।
आयुर्वेदमा रात्रे खावा पीवानी मनाई छे__ "सूर्यास्त थता हृदय कमल तेमज नामि कमल अतिशय संकोचाई जाय छे, तेथी राने भोजन न करवु जोइए, अने रात्रिमा सूक्ष्म जीव खवाइ जाय छे राने खाधेलं भोजन तन्दुरुस्तीने नुकसान करे छे, तेमज तेनुं पाचन वरावर थई शकतुं नथी।" "जे दिवसे ने राने असमये खावा पीवामां मस्त रहे छे, ते शींग-पूछ वगरना पशु समान छे, तेधी मनुष्योए दिवसे
समस्त शुभ प छ, तेनाणे प्रकारना
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२४
- वीरस्तुतिः । ..
पण. नियमितभोजी तेमज भोजन संयमी, वनवू जोइए ।" "सत्पुरुषो वे घडी दिवस रहे त्यारे वाळु करे छे अने वे घडी दिवस चढ्यां पहेला. गमे ते जातनो आहार करे नहिं, ते रात्रि भोजनना दोपथी वची जाय छे।" "जेणे दिवसे भोजन करी लेवानो रिवाज पाज्यो होय पण, प्रतिज्ञा न करी होय तेने तेनुं निवृत्तिरूप पुण्य मळतुं नथी, कारण कोइए रकमतो आपी पण व्याजनु नाम पाड्यु नथी, तेथी ते वसुल करती वखते व्याजनो हकदार नथी, कारणके दुनियादारोमा पण वोलनुं मूल्य छे।" "जे माणस दिवसमा भोजन करवानुं मुकीने रातमाज खावू पसद करे छे, ते अज्ञ माणस चळकता एवा माणिक्यरत्नने छोडी दईने काचना टुकडाने पसद करनार जेवो खरे खर जडवुद्धि छे, " "दिवस होवा छतां कल्याणप्राप्ति इच्छनार मनुष्य जे रात्रि भोजन करे छे, ते खरेखर एक सारी रीते खेडेला खेतरने छोडी दईने एक खारी रेती वाळी लवण भूमिमा धान्य वाववा चाहे छे, एम समजबुं ।" "राने भोजन करवाथी घुवड, कागडा, विलाडा, गीध, राक्षस, सूवर, साप, वींछी, घो आदि योनिओ मनुष्यने प्राप्त थाय छ, ।" "जे व्यक्ति रात्रि भोजननो त्याग करे छे ते धन्यवादने पात्र छे, केमके ते पोतानी अर्घा जिंदगी उपवासमाज गाळे छे।" “रात्रि भोजनना त्यागमा जे जे गुण रहेला छे, ते विषयमा वधारे शुं विवेचन करवं, सर्वज्ञ होय तेज आ वावतमा वधू जाणी शके छ,”
वळी अमितगति श्रावकाचार-मा पण आनो खूब निषेध करेल छ। ___ "जेमके-जे समये राक्षसो तेमज पिशाचो फरे छे, जे समये जन्तुओनो समूह वरावर जोई शकतो नथी, एटले अमुक वस्तुनी वंधी होवा छतां पण अजाण पणे खवाई जाय छे, कारणके ते वखते घोर अंघारु रहे थे।" "ते समये साधु महापुरुषोनुं आवq पण कठण छे, जेथी गुरुदेवनी सेवा किवा अतिथि सत्कार विल्कुल थई शकतो नथी तेमज सयमनो पण निरन्तर नाश थतो जाय छे, जीवोना भक्षण सुद्धा थई जाय छे।" .
"जे वखते टानादिक शुभ कार्यने माटे वर्जित छे, जे समये लोकोनु जबुं आवळू वंध थई जाय छे, ते समय एकान्त दोषोनुं घर छे, ज्यारे दिवसनो अभाव होय छे, एवा रात्रिना समयमा धर्मध्यानमां कुशल मनुष्य विल्कुल भोजन करी शकेज नहि।" "जे दुराशयथी जिन्हा इन्द्रियनी तृप्तिने माटे
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
-
--
-
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
२२५
NEET पर
ना रात्रि भोजन करीले छे तेओ भूतप्रेतनी संगतिने छोडी शकता नथी।" है। जेमणे यम नियम संयमनी क्रियाओनो त्याग करी दीधो छ भने रात ___ दिवस खावा पीवामांज मस्त रहे छे, तेमने बुद्धिमानो शींगडा के पूछ वगरना
जनावर तेमज खरी वगरना पशुओनी उपमा भर्प छ ।” "सस्कारी विद्वानो सुख मेळववा माटे दिवसे भोजन करे छे, राने सुई जाय छे, ज्ञानी पुरुष समय विचारी वोले छे, तेमज आत्मानी शान्ति माटे गुरुजननी सत्सगतिसत्शास्त्र श्रवण-मनन-निदिध्यासन विगेरे समाचरीने सेवा चाकरी करे छे ।" "गुणवान् तेमज उत्तम पुरुष हमेशां दिवसमा एकज वार भोजन करे छे, मध्यम पुरुष धोळा दिवसमां वे वखत आहार करे छे, अने जे दिवस अने रात हमेशां भोजन कर्या करे छे ते नराधम छे ।" "जे पुरुष दिवसनी पहेली तमज छेल्ली घडी छोडी वच्चना दिवसना भागमा भोजन करे छे ते इन्द्रियोना घोडाने जीती ससार ना भारथी हलको थई जाय छे ।" "जे पुरुष पोतानी पासे दीवो राखीने रात्रे भोजन करे छे, ते पुरुष कुदरती रीते नीचाण तरफ वहेनारी 'नदी ना नीरने जाणे वृक्षना शिखर सुधी पहोचाडवा चाहतो होयनी ? ( अर्थात् नदीनुं पाणी वहेतुं वहेतुं कदी पण वृक्षना शिखरे पहोंची शकतु नथी तेम तेवा पुरुषनो आत्मा अधोगति सिवाय उच्चगतिने प्राप्त करी शकतो नथी)जे रात्रि भोजनने मुखदायक जीवन माने छे, ते आगथी वळेल वनने फळदायक माने छे, परन्तु तेम वनवू असंभवित छे ।" "जे दिवस तेमज रात्रिना भोजनने समान गणे छे, तेओ सुख तेमज दु खना देनार प्रकाश तेमज अन्धकारने समान गणे छे।" "जेओ रात्रिभोजनमाज धर्म माने छे तेओ खरेखर वृक्षोनी हारमाळा वधारवा माटे वज्र तेमज आग फेंकी रह्या छे, (वृक्षोनी हारमाळा वधारवा माटे जळ सिंचननी जरूर छे तेने बदले वज्र प्रहार या अग्नि कोई फैके ते वृक्ष वधवाने बदले जेम नाश पामे छे, तेमज रात्रि भोजनथी धर्म वधवाने वदले नाश पामे) "जेओ पुण्यनी अभिलापाथी माखो दिवस भूख्या रहे छे, अने राने खावामाज मच्या रहे छ तेओ फळेला वृक्षोने तेमज लताओने कापी नाखी फरीथी फळवानी वांछना करे छे एम समजबुं । जे मनुष्यो वे घही दिवस चख्या सुधी नवकारसी तप करे छे, अने वे घडी दिवस वाकी होय त्यारे चौविहार करे छे तेओ मासमा
वीर. १५
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२६
वीरस्तुतिः।
.वे उपवासनु फळ प्राप्त करे छे, एम समजवू । “रात्रिभोजन करनारने नीचे लख्या मुजव सामग्री प्राप्त थाय छ, रोग शोक अने कलह करनारी, राक्षसी माफक भय उपजावे तेवी स्त्री मळे छे, तेमज महापापथी पेदा थयेल अन्त. राय दु.ख देनारी कन्या प्राप्त थाय छे, व्यसनी तेमज काळा सापनी माफक विहामणा पुत्र थाय छे, घरमां दरिद्रता तो सदा रह्याज करे छे ।" नीच जातिमा जन्म धरी नीच कर्मो करवा पडे छे, शील-निर्लोभपणुं-समभाव-आदि गुणो नो अभाव रहे छे, बीजार्नु अनिष्ट करनार दुर्जननी माफक ते केटलीए जातनी व्याविधी घेराएलो रहे छे, सर्व दोषोना समूहथी पीडायेलो आप्रमाणे अनेक दोषोनी उत्पत्ति थई जाय छ ।
रात्रि भोजननो त्याग करनारने नीचे मुजब फळनी प्राप्ति थाय है, . कमळपत्रसमान आखोवाळी, प्रियवचन बोलनारी, लक्ष्मीसमान सुन्दर स्त्री प्राप्त थाय, तेमज विद्या कलामा निपुण पुण्यनी पंक्ति माफक सुन्दर शरीर अने निर्मळ चरित्रवाली तेने कन्या प्राप्त थाय छ।" कोई पण आतना । व्यसनथी रहित तेमन चन्द्रमाना जेवा पवित्र कर्म वाळा पुत्र : मळे छे, : इन्द्रना भवननी माफक उजासवाळु मणिरत्नोथी भरपूर सुशोभित मकान । प्राप्त थाय छ, । स्थायी वैभव प्राप्त थाय छे, मनोवाछित फळ मळे छे, नीरोगी सुन्दर शरीरनी प्राप्ति थाय छे, ए प्रकारे वधी रीतथी सुख प्राप्त थाय छे।" "ते उपरान्त ज्ञान-दर्शन-चरित्रनी पण सम्पत्तिने पामे छे, आखा विष्वनो पूजनीय पति बने छे, रात्रिभोजनथी दूर रहेनार तेमज त्यागीओने आ समृद्धि प्राप्त थाय छे ।" अने-"रात्रे आहार करवाथी भंडणी-भीलडी-वादरीमाछली-गळामा रसोडी(गिलड)वाली-रोहिणी-कुत्तरी-शोक-क्लेशवाळा तेम ज खोड खापणवाळा पुत्र जणनारी विधवा धनहीना एवी एवी अनेक कष्टकर योनि प्राप्त थाय ।" "तेओ (रात्रि भोजननो त्याग करनारा) वन्धुगणमा पूजनीय मनाय छे, पुत्रो तेमनी सेवा करे छे,लज्जा अने सयमरूपी आभूपणयो युक्त रहे छे, शरीरे नीरोगी होय छे, लक्ष्मी जेवी अने बुद्धिमती तथा शरमाळ स्त्री मळे छे, तेमनो स्वभाव पण धर्मात्मा माफक होय छे, दिवसे भोजन करनारने आवा सुखनी प्राप्ति थाय छे।"
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २२७ आवा अनेक शास्त्रोना प्रमाण सांभळीने रात्रिभोजननो त्याग करवो जोइए । प्रभुए पण रात्रिभोजननो त्याग कर्यो हतो। तपश्चरण नम्रता अने विनय साचवता हता, तेमा नम्रता तो अपार हती, तेमनी वाणी अनन्त नय युक्त, तेमज शुद्ध हती, ते वाणी थी संसार अने मोक्षनुं खरूप समजाव्यु हतु, वधा मास्रवोधी पण रहित हता, बीजाओने पण आस्रव अने पापथी रोकता, केमके जे पोते अधर्मी अने अनीति वाळो होय तो ते बीजाओने धर्म अने नीतिमां केम स्थापन करी शके, अने जो पोते धार्मिक अने नैतिक जीवन व्यतीत करनार होय तेज वीजाने पापथी के आस्रवरूप खाडाथी बहार काढी शके छे, कारण के कोइए कहुं पण छे के जे खयं तो न्यायनी वात करतो होय अने न्यायथी विरुद्ध आचरण करतो होय तो ते बीजामो ऊपर पोतानी काई पण छाप पाही शकतो नथी, जे पोते अ-दान्त होय ते क्यारे इन्द्रिय निग्रह करी शके ? परन्तु प्रभुतो पोते दान्त हता, उपधानवान् हता, तप वढे शरीर शुद्ध तुं, प्रभु आ लोक तेमज परलोकनु ज्ञान मेळवी पापमय प्रवृत्तिथी सदावे माटे दूर रखा हता।
सोचाय धम्म अरिहंतभासियं, समाहियं अठ्ठपदोविसुद्धं । तं सद्दहाणाय जिणा अणाऊ, इंदा व देवाहिवा आगमिस्संति; त्ति बेमि॥२९॥
संस्कृतच्छायाश्रुत्वा च धर्ममहद्भापितं, समाहितमर्थपदोपशुद्धम् । तंश्रद्दधानाजनाअनायुष, इन्द्रावा देवाधिपा आगमिष्यन्ति ॥२९॥
(इति ब्रवीमि)
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२८ . वीरस्तुतिः ।
सं० टीका-अधुना श्रीसुधर्माखामी तीर्थकरगुणान् प्रख्याय जम्बूखामिनमाह, श्रुत्वा च, दुर्गतिधारणाद्धर्म, श्रुतचारित्ररूपमर्हद्भाषितम. हत्कथितं, सम्यगाख्यानं-सुष्ठप्रणिगदितं, चार्थपदैः, अर्थैः प्रयोजनैः । कारणैरभिधेयैर्वा "अर्थो विषयार्थनयोधनकारणवस्तुषु, अभिधेये च शब्दानां निवृत्तौ च प्रयोजन इतिमेदिनी ।" अथवा, "अत्यो पयोजने सद्दाभिधेय्ये बुद्धिय्यं धने, इत्यभिधानप्पदीपिका ।"' पदैर्वाचकैः शब्दैः, “पदं शब्दे च वाक्ये च व्यवसायप्रदर्शयोरिति । मेदिनी।" निर्वाणैर्वा, "अप्पवग्गो-विरागो च पणीतं अञ्चतं पदं इत्यभिधानप्पदीपिका ।" अथवा निमित्तैः, "निमित्तं कारणं ठाणं पदं, इत्यभिधानप्पदीपिका ।" वा परित्राणैः संसारादपकर्मणो चा, “पदं ठाने परित्ताणे निवाणम्हि च कारण इत्यभिधानप्पदीपिका ।" स्थैय्यॆश्चिन्हे , स्थानरुद्यमैः वाणैर्बाणसदृशैः शब्दैः सुप्तिडन्तरूपैः प्रदेशैः श्लोकपादैर्वाः “पदो चरण च वा इत्यभिधानप्पदीपिका ।" उपशुद्धं चोपसामीप्येन शुद्धं सितं वा पूतं निर्मलं, “सुद्धो केवलपूतेसु" "सुचि शुद्धे सिते पूते इत्यभिधानप्पदीपिका ।" वा प्रयोजनैरान्तराशयैर्विवृतिभिर्वा हेतुभिरभिलाषैः शुद्धं दोषराहित्यमित्यर्थः 1 धर्म श्रद्दधाना जनास्तथाऽनुतिष्ठन्तो नरा अनायुषोऽपगतायुकर्मता युक्ता इति शेपाः कर्मरहिताः सन्तः सिद्धा मोक्षगता भवेयुरिति भावः । सायुपश्चन्द्रा अहमिन्द्रा देवाधिपा आगमिप्यन्ति-तं पदं प्राप्स्यताति भावः । इति शब्दो ब्रवीमीति ॥ २९॥ . नाना निवन्धेभ्यःसारमुद्धृत्य श्रीमत्सूत्रकृतागसूत्रगतवीरस्तुतिनामाषष्ठाध्यायस्यातिविस्तृतगमीरदुरूहतत्वपदार्थभक्तिभावावलेखाद्यति
Arthamabi
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २२९ सरलतया बुबोधसिषाधयिषया ज्ञातपुत्रमहावीरजैनसङ्घीया नाम्नी संस्कृतटीका हैन्दवीटीका-गुर्जरभाषाटीका यथाशक्ति-मतिरचिताऽत्र प्रमादादिनाऽथवाऽल्पधिया च भाविनी मदीयां स्खलनां संशोधयन्तस्तत्त्वपदार्थनयनिक्षेपसम्बन्धिभावं प्रदर्शयन्तो धीरा मो चेदनुग्रहणीयुस्तर्हि बहुलजनोपकारोद्योगसन्तुष्टेन श्रीज्ञातूपुत्र-महावीरप्रमुशासनस नानुग्रहतोऽहमिति सम्भावयेयमिति प्रार्थयते श्रीज्ञातृपुत्रमहावीरजैनसङ्घानुयायिनां लघुतमः पुष्पभिक्षुः॥ इति श्रीज्ञातपुत्रमहावीरजैनसचान्तर्गतमुनिफकीरचन्द्रशिष्येण पुष्पभिक्षुणा विरचिता वीरस्तुत्याः संस्कृत-भाषाटीका च समाप्तेति शम् ॥ .
अन्वयार्थ-[समाहितं] सम्यक् प्रकारसे कहे हुए [य] और [अट्ठपदोवसुद्धं] अर्थ और पदोंसे निर्दोष [अरिहतभासिय] अर्हन् प्रभुद्वारा उपदिष्ट [त ] उस [ धम्मं] धर्मको [सोच्चा] सुनकर [सदहाणा ] श्रद्धा प्रतीति करनेवाले [जणा ] मनुष्य [देवाहिव] देवोंके स्वामी [ इदा] इन्द्र [व] और [अणाऊ] आयुरहित सिद्ध परमात्माके पदको [आगमिस्सति ] प्राप्त होंगे ॥२८॥
___ भावार्थ-श्रीसुधर्माचार्य अपने अन्तेवासी शिष्यके प्रश्नोंका इसप्रकार उत्तर देते हुए यो उपसहार करते हैं कि अर्हन् भगवान् द्वारा कहे गए धर्मका जो पूर्ण श्रद्धान करते हैं वे या तो भायुरहित और कर्म रहित होकर मुक्तिको प्राप्त करते हैं या इन्द्रादि पदको पाते हैं या पाएँगे ॥ २८ ॥
भापाटीका-सुधर्माचार्य श्रीतीर्थंकर प्रभुके गुणोंका वर्णन करते हुए अपने जम्बूनामक अन्तेवासी शिष्यसे कहते हैं कि-जो भव्य दुर्गतिमें पडनेसे बचानेवाले ज्ञान और चरित्ररूप धर्मको अईन भगवान्से भाव पूर्ण तथा परिणामयुक्त अभिप्रायको सुनकर निर्धारण करते हैं, वे आयुष्यादि सव कर्म वन्धनोंसे मुक्त होकर या तो अपुनरावृत्ति-निर्वाणधाम (मोक्ष) को प्राप्त होते हैं या आयुवाले स्थानमें अनुकूल सुस भोगनेवाले 'अहमिन्द्र' होते हैं, अथवा
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
- वीरस्तुतिः। - -
असंख्य सुरासुरोंका आधिपत्य भोगनेके लिए इन्द्रपदको प्राप्त करते हैं, यह मैंने अर्हन् भगवान्से जैसा सुना है, वैसा तुझे कहकर सुनाया है*।
लता यहां इन सबके मया कोई २ अरहाभापाका शब्द है कि
।
• * इस गाथामें 'भरहंत' यह प्राकृत भाषाका शब्द है जिसका संस्कृत अनुवाद 'अर्हत्' होता है, कोई २ 'अरहोन्तर' 'अरथान्त' पद भी बताते हैं। यहां इन सबके अर्थोपर यदि विचार किया जाय तो आशय वही निकलता है जो अर्थ 'अर्हत्' शब्दका होता है।
(१) 'अहं' धातुका मर्थ पूजा या योग्य अर्थ होता है, इस अर्धके अनुसार अतिशय वन्दनीय-सेवनीय-स्मरणीय होनेके कारण वे 'अर्हन्' (अरहंत) कहलाते हैं। क्योंकि इनके पाचों कल्याणकोंमें अनेक देवों और ६४ इन्द्रोंद्वारा अनेक विलक्षण सेवा सम्बन्धी घटनाएं होती है, और वे मनुष्योंकी अपेक्षा अतिशययुक्त महापुरुष होते है, और अतिशायक होनेके कारण उनका यह 'अरहंत' नाम सार्थक तथा यथार्थ है । जैसा कि 'धवल' अन्यमे भी कहाहै कि. अतिशयभावपूजार्हत्वादहन्तः, स्वर्गावतरणजन्माभिषेकपरिनिष्कमणकेवलज्ञानोत्पत्तिपरिनिर्वाणेषु देवकृतानां पूजानां देवासुरमानवप्राप्तपूजाभ्योऽधिकत्वादतिशयादहत्वाद्योम्यत्वादहन्तः ।।
(धवलसिद्धान्त) अरिहंति वंदणनमंसणाणि अरिहंति पूयसकारं, अरिहंति सिद्धिगमणं 'अरहंता' तेण उच्चति ।
(मूलाचार) भावार्थ-जो भाव पूजाके योग्य तथा अनुकरणीय महाआदर्शपुरुप हों उनको 'अर्हन्' कहते हैं। जिनके जीवनमे अनेक दिव्य घटनाएँ विलक्षण रूपसे परिघटित होती हैं, जैसेकि- वर्गसे अवतरण, जन्मोत्सव, परिनिष्क्रमण (दीक्षा ग्रहण), केवलज्ञानकी उत्पत्ति, मोक्षारोहण आदि घटनाओंके होते समय देव-असुर-मानव इत्यादिके द्वारा महान् उत्सवका मनाना, या मनुष्योंको उनका अनुकरण करते हुए उनके समान आत्मज्ञ एवं सर्वज्ञ होना, इत्यादि महानताके योग्य होनेसे वे 'अर्हन्' कहलाते हैं।
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २३१. जो वन्दना और नमस्कारके योग्य हैं, पूजा और सत्कारके योग्य हैं, सिद्धि (मोक्ष) गमनके योग्य हैं, अत एव वे 'अरहंत' कहे जाते हैं।
(२) रहस्' का अर्थ एकान्त होता है, यानी समस्त पदार्थोको निकटवी-दूरवती-सूक्ष्म तथा स्थूल पदार्थोके अनन्त समूहको प्रत्यक्षमें हथेलीपर रक्खे हुए आमलेकी तरह जो स्पष्ट जानते और देखते हैं । अर्थात् जिसे गुप्त या प्रगट एकान्त कुछ भी अप्रगट नहीं है। इसलिए 'अरहोऽन्तर' नाम, यथार्थ है । जैसे कहा मी है कि___"न' विद्यते रह एकान्तो गोप्यमस्य, सकलसन्निहितव्यवहितस्थूलसूक्ष्मपदार्थसार्थसाक्षात्कारित्वादित्यरहोऽन्तरः ।" (स्थानाङ्गसूत्रम्)
भावार्थ-जिसके लिए एकान्त-गोपनीय पदार्थ कुछ भी न हो, ससा. रभरके छोटे वडे सव पदार्थोका जो साक्षात्कार करनेवाला हो वह 'अरहोऽन्तर' कहलाता है।
"अथवा 'अविद्यमानं' रह एकान्तरूपो देशोऽन्तश्च मध्यं गिरिगुहादीनां सर्ववेदितया समस्तवस्तुस्तोमगतप्रच्छन्नत्वस्याभावेन येषां तेऽरहोन्तरः"
(भगवतीसूत्र) भावार्थ-जिसे सर्वज्ञताके कारण सर्ववस्तु समूह गत सर्व प्रकारके पदार्थोका एक बहुत वडा समूहगत प्रच्छन्नताका अभाव हो, इस प्रकारका रह. (एकान्तरूप प्रदेश) नहीं है, अर्थात् उनके अनन्तज्ञानके सन्मुख कोई ऐसा प्रदेश और वस्तु समूह नहीं है, जिसके वे ज्ञाता और दृष्टा न हों, वे तो अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शनके द्वारा ससारके पूर्ण रहस्य को जानते हैं, इसीसे पहाडोंकी गुफा आदिका अन्तर (मध्यभाग) तकका सम्यक् ज्ञान अपने सर्वज्ञत्व द्वारा जान लेते हैं, बारीकसे वारीक तथा एकान्त और मध्यप्रदेशके जाननेवाले हैं, अतः 'अरहोऽन्तर' नाम सार्थक ही है।
(३) 'अरथान्त' ऐसी संस्कृतच्छायाके अनुसार यह अर्थ निकलता है कि-जिसके पास समस्त परिग्रहका अभाव है, और वुढापा आदि उपलक्षगवाला अन्त-विनाश नहीं है वह 'अरथान्त' है और वे वीतराग सर्वज्ञ देव होते हैं। जैसे
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३२ . वीरस्तुतिः। '.
*"अविद्यमानो रथः स्यन्दनः सकलपरिग्रहोपलक्षणभूतः, अन्तश्च विनाशो जराद्युपलक्षणभूतो येषां ते 'अरथान्ताः' ...
. . (भगवतीसूत्र) भावार्थ-जिनका आत्मारूपी 'रथ' अप्रतिहत शक्तिवाला होनेसे कहीं रुक नहीं सकता, अर्थात् तीनलोक और अलोकको भी जानता है, अत: उसकी 'अरथान्त' संज्ञा इसी कारण सार्थक मानी गई है।
.. (४) "अरहन्त" शब्दका यह अर्थभी निकलता है कि-"गग-द्धपक कारणभूत-त्रिलोकवर्ती अनन्त पदार्थोके ज्ञाता-दृष्टा होनेपर भी जो किसी पदार्थमे, आसक्ति नहीं रखता, वीतराग खभावशील है, इससे 'अरहन्त' कहलाते हैं। जैसे___"क्वचिदप्यासक्तिमगच्छत्सु वीतरागत्वात् प्रकृष्टरागादिहेतुभूतमनोज्ञेतरविषयसम्पर्केऽपि वीतरागत्वादिकं स्व-खभावमत्यजन्तोऽर्हन्तः।"
(भगवतीसूत्रम्) इसके अतिरिक्त "अरिहंत" पाठ भी प्रचलित है जिसके अनुसार यह अर्थ होता है कि अरि-कर्मशत्रुका नाश करनेसे अरिहत कहे जाते हैं, जैसे कहा है कि- "अरिहननादरिहन्तृ (तः) नरकतिर्यमानुषप्रेतावासगताशेपदुःखप्राप्तिनिमित्तत्वादरिर्मोहस्तस्यारेहननादरिहन्तः ।"
(धवलसिद्धान्त) • "मोहरज-अंतराय-हणण गुणादो य णाम अरिहंतो"
(मूलाचार) , भावार्थ-"( कर्मरूप) शत्रुका हनन करनेसे 'अरिहंत' कहलाते हैं, क्योंकि-नरक-तिर्यंच-मनुष्य और देव इन चारों गतिओंकी समस्त दु.खप्राप्तिका निमित्त यह कर्मशत्रु ही है, जिसमें भी मोहशत्रुसबसे बलवान् है अतः उसको हनन करनेसे 'अरिहंत' नाम सार्थक है।"
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २३३ "मोह रज और अन्तराय कर्मका हनन करनेसे 'अरिहंत' नाम सार्थक है।" राग दोस कसाये य, इंदियाणि य पंच य । । परिसहे उवसग्गे, णासयंतो णमोरिहा ॥
(मूलाचार) . भावार्थ-राग-द्वेष और चारों कषाय तथा पाच इन्द्रियोंके २३ विषयोंका और २२ परिषह एवं उपसर्गके विनाश करनेसे भी 'अरिहंत' कहे जाते हैं।
राग दोस कसाए य, इंदियाणि य पंच वि परिसहे । उवसग्गे नासयंता, नमोरिहा तेण वुच्चति ॥ ९९८ ॥
(विशेषावश्यक भाष्य) इंदिय-विसय-कसाए-परिसहे वेयणा-उवसग्गे । ए ए अरिणो हंता, अरिहंता तेण वुचंति ॥ ९९९ ॥ अट्ठविहंपि य कम्मं, अरिभूयं होइ सव्व जीवाणं । तं कम्ममरिं हंता, अरिहंता तेण वुच्चति ॥ ९२० ॥
(आवश्यकभाष्य) "रज या आवरणका नाश करनेसे भी 'रिहंत' कहलाते हैं। क्योंकि ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्म रजके समान वाह्य और अन्तरग त्रिकालके समस्त विषयभूत अनन्त अर्थ-पर्याय और व्यंजन-पर्याययुक्त वस्तुओंको विषय-करनेवाले ज्ञान और दर्शनका आवृत्त करनेसे 'रज' कहते है, इसी प्रकार मोह भी रज है, क्योंकि जैसे धूलसे भरे हुए मुखवाले लोगोंमें कार्यकी मन्दता देखी जाती है, उसी प्रकार मोहसे जिनका आमा व्याप्त है, उनमें भी आत्मोपयोगकी मंदता या कुटिलता पाई जाती है। इस लिए रजरूप ज्ञानावरणादि कर्मके अभावसे 'भरिहंत' कहलाते हैं । यथा
“रजो हननाद्वा अरिहन्तः, ज्ञानदृगावरणानि रजांसीव- बहिरंगान्तरगावशेषत्रिकालगोचरान्तरार्थव्यंजनपरिणामात्मकवस्तुविषयवोधानु
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३४
वीरस्तुतिः।
..
भवप्रतिवन्धकत्वाद्रजांसि, पुनर्मोहोऽपि रजः । भस्सरजसाऽऽपूरिताननानामिव भूयो मोहावरुद्धात्मनां जह्यभावोपलंभत्वात् । .
(धवलसिद्धान्त) अथवा 'रहस्य' अन्तराय कर्मका नाम भी है, जिसके क्षय करनेसे भी 'अरिहंत' कहे जाते हैं, अन्तराय कर्मका नाश तीन घातिया कोंके नाशके साथही नियमसे होता है । अत अविनाभावी सम्वन्धसे यह अर्थ निकलता है कि जिसने चारों घातिया कर्माका नाश करके अघातिया कमाको भी निशक वनादिया हो वे 'अरिहंत' कहलाते है,। यथा__ "रहस्यमन्तरायस्तस्य शेषघातित्रितयविनाशाविनाभाविनो हि प्रणष्ट-वीजवन्निःशक्तीकृताघातिकर्मणो-हननादरिहन्तः ।"
(धवलसिद्धान्त) (५) एक पाठ 'अरुहंत' भी बनता है, क्योकि 'रुह' धातुका अर्थ 'अकुर उगना' है, अर्थात् जिसका भवरूप अंकुर नष्ट होगया है वे 'अरुहंत' कहलाते हैं, यानी कर्मरूपी वीजके जल जाने पर पुनः समाररूप अकुरकी. उत्पत्ति नहीं होती। क्योंकि__ "न रोहति भूयः ससारे न समुत्पद्यत इत्यरुहः, ससारकारणानां कर्मणां निर्मूलकत्वात् ।"
भगवती-प्रवचनसारोद्धारतथा च प्रज्ञापनासूत्रस्य कारिकायामप्येवं, पुनः "दग्धे वीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्करः । कर्मवीजे तथा दग्धे, न रोहति भवांकुरः ॥” इति भापाटीका समाप्ता ॥
गुजराती अनुवाद-सुधर्माचार्यजी श्रीतीर्थकर प्रभुना गुणोना वर्णन करता पोताना जम्बूनामा (समीपमा रहेनार) शिष्यने कही रया छे के जे भव्य प्राणी आत्माने दुर्गतिमा पडता बचाववावाला ज्ञान अने चरित्ररुप धर्मर्नु, 'अईन्' भगवान् पासेथी भावपूर्ण तेमज परिणाम युक्त अभिप्राय श्रद्धा अने
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २३५ भक्तिपूर्वक चरित्रवान् थईने श्रवण करे छे, अने त्यार पछी तेनुं मनन करी निदिध्यासन करे छे, ते आयुष्यादि सर्व कर्म बंधनोथी मुक्त थई अपुनरावृत्ति याने निर्वाण पद प्राप्त करे छे, अथवा दीर्घायुष्य वाळा स्थानमा अनुकूल सुख भोगवनार 'अहमिन्द्र' वने छ, अथवा देव दानवोना अधिपति एवा. इन्द्रपदने पामे छे, आ में 'अर्हन्' भगवान् ज्ञातपुत्र-महावीर प्रभु पासेथी जेवी रीते साभळ्यु छे तेज प्रमाणे तने कही सभळावू छु ।
_ * “अरहत' आ प्राकृत भाषानुं शब्द छे, जेनी सस्कृतच्छाया 'अर्हन्' थाय छे, कोई कोई एना अरहोन्तर-अरथान्त-अरुहन्त-वाचक शब्दो थाय छे, एम तेओनुं मन्तव्य छे, अहीं आ चारे अर्थ ऊपर आ प्रमाणे विचार करी शकाय ।
(१) 'अर्ह' घातुनो अर्थ भाव पूजा एवो थाय छे, ते अर्थ अनुसार अतिशय वन्दनीय, सेवनीय होवाथी 'भईन्' (अरहंत) कहेवाय छे, केमके तेमना पाचे कल्याणकोमा देवो तेमज चौसठ इन्द्रो द्वारा अनेक जातनी सेवा सम्बन्धी केटलीए विलक्षण घटनाओ बनी छे, तेमज तेमनो आत्मा मनुष्योनी अपेक्षाथी पर छे, जेथी तेमनामा विशेषपणुं होवाथी 'अरहंत' नाम यथार्थ छे, धवल' ग्रंथमा पण कडुं छे के___"जे वदन तेमज नमस्कारने योग्य छे, सेवा अने सत्कारने योग्य छ, सिद्धि गमनने माटे उपयुक्त छे, माटे 'अरहत' कहेवाय छे ।"
(२) "रहस्नो अर्थ एकान्त थाय छे, एटले जे समस्त पदार्थोनो निकटना चाहे दूरना, स्थूल चाहे सूक्ष्म पदार्थोना समूहने हथेली पर राखेल आमळानी माफक देखी रया छे, जेमने माटे गुप्त के एकान्त एवी कोई वस्तु या स्थान नथी।"
(३) "अरथान्त-" ए सस्कृतच्छाया-अनुसार एवो अर्थ नीकळे छे के रथ अर्थात् वहिर तेमज अन्तर दृष्टिए समस्त परिग्रहनो जेनी पासे अभाव छे एवा वीतराग सर्वज्ञ देवने 'अरथान्त' कहे छे।" "अथवा जेनो आत्मा रूपी रथ अप्रतिहत शकिवालो होवाथी क्यांय पण रोकाई शकतो नथी, अर्थात् त्रणे लोक तेमज अलोक सुधी पण पहोंची वळे छे, याने जाणी शके छे, जेथी 'भरथान्त' आ नाम पण सार्थक मानेलं छे।"
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
. वीरस्तुतिः।
-
।
(४) "अरहंत" शब्दनो अर्थ एवो अर्थ पण नीकले छे के "राग-द्वेपना कारणभूत त्रिलोकना अनन्त पदार्थोने जाणवा देखवा छतां कोई पदार्थमा आसक्ति नथी, एटले के वीतरागखभाव शीलज छे, एटला माटे 'अरहंत' कहेवाय छे।"
___ "भा उपरान्त "अरिहंत" ए पाठ पण प्रचलित छ, जेना प्रमाणे आ अर्थ थाय छे, के–अरि-कर्मरूपी शत्रुनो नाग करवाथी 'अरिहंत' कहेवाय छे।" जेमके
"राग-द्वेष-कषाय-पाचे इन्द्रियोना २३ विषय, २२.परिपह, तेमज अनुकूल प्रतिकूल उपसर्गना विनाशथी पण 'अरिहंत' कहेवाय छ।" ।
“रज अर्थात् आवरणोनो नाग करवायी पण 'अरिहंत' कहेवाय छे, केमके-ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीयकर्म रजनी माफक छे, वाध्य तेमज अन्तरंग त्रिकाळना समस्त विषय भूत अनन्त अर्थ पर्याय तेमज व्यजन पर्याययुक्त वस्तुओना विपयमा लीन छे, ज्ञान तेमज दर्शनना ढाकणरूप बने छे, एटले रजनी माफक आत्मा ऊपर मेलना थर चडवाथी ज्ञान अने दर्शननो प्रकाश वहार नीकळवा देतो नथी, जेमके रजथी छ्यायेला मोढावाळा लोकोमा मदता जणाई आवे छे, एवीज रीते मोहथी जेनो आत्मा घेराएलो छे, तेमनामा आत्मोपयोगनी मन्दता याने कुटिलता नजरे पडे छे, आ कारणथी रजरूप जानावरणादि कर्मना अभावथीज 'अरिहंत' कहेवाय छे।"
__“अथवा रहस्य-अन्तराय कर्मनु नाम छे, तेनो क्षय करवाथी पण 'अरिहत' कहेवाय छे, अन्तराय कर्मनो नाश त्रण घाति कौना नाशनी साये साथेज नियम प्रमाणे थाय छे, आकारणथी अविनाभावी सवधी आवो अर्थ नीकले छे के जेणे चार धाति कर्मोने पण शक्तिहीन वनावी दीधा ते 'अरिहत' कहेवाय छे।"
"अथवा 'अरुहंत' पाठ पण वनी शके है, 'रुह' धातुनो अर्थ 'अंकुरनुं उगवू' एवो थाय छे, एटले जेना भवरूप अकुर नष्ट बह गया छे, ते 'अरहंत' कहेवाय हे, कारण के कर्मरूप वीज वली जवाथी फरीथी ससार रूप 'अंकुर' पेदा नज थाय" । इति गुर्जरानुवादः ।
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २३७
' प्रशस्तिः । - महावीरो देवो विदितभवकीर्तिर्जिनवरः, सदा भव्याऽऽधारो निजशरणगैर्वन्धचरणः । मुदाऽन्त्यो यस्तीर्थकर इति पदाब्योऽस्ति नितरां,वचस्तत्वे तस्य प्रतिदिवसमेवार्पितमनाः ॥१॥ फकीरेन्दुर्मिक्षुर्गुरुरिति तमःस्तोमतरणिः, सुपुष्पस्तच्छिप्यो विनययुतभिक्षुर्विधिरभूत् । द्विपञ्चाकेन्द्वब्दे जननमभवद्यस्य कुतले, गृहीता सद्दीक्षा भवभयहराऽस्मिंश्च व्रतितः ॥ २॥ रसाष्टाकेन्द्वब्दे सकलमुनिवृन्देऽतिविशदा, स चेदानीं नाम्ना कुसुममुनिदासो शिवरुचि । 'हिमागारे देशे गिरिषु बहुशीतेषु विहरन् , गतो यो यत्रास्ते विविधतरुवृन्दोऽखि विमलः ॥ ३ ॥ प्रसिद्ध राज्ये च जिनमतधराव्येन सहिते, समेतो 'नादोने' गुरुभिरतिपूते निवसता । कृतं चातुर्मास्य कलिकलुषतापौघशमनं, समाचीणे यत्राऽखिलजिनपथाऽऽराधनपरम् ।। ४ ॥ सुमित्र'स्थादौ हि हितकरसुदीक्षाऽपि नितरां, सदैवं पुष्पेन्दुर्विचरति सुमित्रेण सहितः । जिनाज्ञासंसक्तः परहितकरः साधुनिरतः ॥ स एवाऽयं भिक्षुः *सकलदलदोपेन रहितः ॥ ५॥ हिमाच्छादिते सुप्रदेशे च भ्राम्यन् , शिमाला (शिमला) कुलुक्कादिदेशान्तरस्थ. । दृगाकानवचन्द्रकाव्दे प्रकाश । मुहुर्दृष्टवान् भूरिशोमां नगस्थाम् ॥ ६॥ सहस्रकोशान्तं पदगमनशीलो मुनिवरः, सुपुष्पेन्दुर्भिक्षुः प्रथमगमनं यत्र कृतवान् । सुमित्रेण खेन गुरुचरणभृङ्गेन सहितः, सुशिष्येणागम्यं नगरमभिगम्य प्रविततम् ॥ ७ ॥ 'कराची' सुस्थानं निखिलपशुरक्षां च विदधन्, व्यागारं कृत्वा सकलजनश्राद्धैः सह मुदा । निहालेन्दुर्यत्राधिपतिरपि
९२
* सम्प्रदाय-पक्षवादादिना रहित.। । कुल्लु इति भाषायाम्
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३८
वीरस्तुतिः। .. जातोऽत्र विषये, भुवि ख्याते सिन्धोर्विषमविषये कोऽपि न मुनिः ॥ ८॥ जिनाज्ञासक्तानामपि च न गतः कोऽपि *सुमुनिः, सहस्राब्देनापि विहरणमभूद्यत्र न यतेः । मुनेः पुष्पेन्दोश्च गमनमभवद्यत्र प्रथमं, ततः पूर्वनीत्वा दिशमपि सुडोल्यां च गुरुणा ॥ ९॥ विहारप्रदेशेऽपि गत्वा च पूर्व, कृता धर्मशिक्षा विशेषेण तत्र । अयं चातिरम्यो विहारप्रदेशो, महावीरदेवस्य जन्मास्ति यत्र ॥१०॥ अयं सुप्रदेशोऽधुना हासयुक्तः, सदा राक्षसप्रायजातश्च यस्मात् । महाकालिकामंदिरे यत्र हिंसा, सदा जायते प्राणिनां कोटिशश्च ॥११॥ शरांकांकचन्द्रे मिते वत्सरेऽस्मिन्महावीरतीर्थकरस्य जयन्त्याम् । नदीदीर्घदामोदराख्या तटे च, समागत्य पुप्पेन्दसंज्ञो हि मिक्षः ॥१२॥
अहिंसोपदेशं चिलाकारिग्रामे, प्रदत्वा पशूनां त्रयं यूपमुग्रम् , वधस्थानमुत्पाट्य यः क्षिप्तवांश्च, सदा वा प्रचारः प्रशस्योऽस्ति यस्य सदैवं बहून्यन्यकार्य विधाय, प्रदेशं भ्रमन्नन्ततो याति नूनम् ॥१३॥ यश्चात्र प्रथमं सुरेतरमये देशे शुभे वत्सरे, वन्ाकांकविधौ मिते च अरियाग्रामे कृतं भिक्षुणा । चातुरमास्यकृतं ततश्च प्रथमं 'बंगे' गुरो. सेवकः, वेदांकांकविधौ समे च गुरुणा साकं गतः पुष्पकः ॥ १४ ॥ सर्वानन्दमये शुभे च नगरे 'कालीयकत्ता'ऽभिधे, यत्राष्टादशसंख्य क्राश्च शतका जैना मता श्रावका । चातुरमास्यकृतं महच्च सुखतो श्राद्धा मुनेः सेवकाः, यत्रास्ते कलिकत्तपत्तनवरा वीथी सु पोलोक' की ॥ १५ ॥ सन्ति स्थानकवासिनश्च बहव श्वेताम्बराः श्रावकाः, ये कुर्वति समाजकार्यमथवा यस्याधिपाः प्रेमिणः । सङ्केतं मुनिनेत्र
* शिक्षा कर्तुमिति शेप.। 'चलकरी' इति भापा।
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २३९ समिततरं श्रेष्ठा महान्तो मुहुर्जेनाराध्यमुनिष्वपि व्रतधरेष्वेवं गुणाः सन्ति च,॥ १६ ॥ जैनाः सघसुकार्यकारिणी सभा यत्रास्ति नित्य मुहुः । सभ्या श्रावककेऽपि सन्ति सततं नेत्रेन्दुसख्या गुणाः ॥ अत्रैव सुनयः त्रयो नव मिते मासे निवासोऽभवत् । एवं चेन्मनुजो नवैव वितते गर्भ मुहुर्जायते ॥ १७ ॥ सम्प्रदायस्य वादस्य पक्षपातस्य बन्धनम् । त्रोटयित्वा खयं जातः, खतन्त्रश्च सदा मुनिः ॥ १८ ॥ ज्ञातपुत्रमहावीरजैनसघे व्यवस्थितः । नीरक्षीरविभागार्हः, स्वयं तन्मयतां ययौ ॥ १९॥ महावीरस्य च प्रमोः, स्तुतेष्टीका कृता वरा । दिवसे दीपमालायां, याता पूर्णा च संवति ॥ २० ॥ कलिकाताख्यनगरे, वेदांकनवचन्द्रके। श्रीपुष्पचन्द्रमुनिना, शिवाक्षिरसांगुष्ठतः ॥ २१ ॥ मुनिभि. प्रार्थ्यते शश्चन्महावीरस्य शासने । खयं तन्मुनिचर्यायां, मौनमाश्रित्य तिष्ठति । भवान् परिग्रहत्यागी, यद्यस्ति कथमीदृशः ॥ २२ ॥ सम्प्रदायप्रवादस्य, परिग्रहरतः कथम् । सम्प्रदायप्रवादस्य, पक्षं कृत्वा पुन, पुन. ॥ २३ ॥ भवन्तः स्वसमाजेन सह यान्ति रसातलम् । भवन्तोऽनन्तससारपापसृष्टिं कृता कथम् ? वर्धयित्वा च खस्यैव पतनं कथमिच्छतः ॥ २४ ॥
भुजङ्गप्रयातच्छन्दः । यदा जीवहिंसापरित्यागिनश्चेद्भवन्तस्तदा सम्प्रदायस्य जाले। . जनान् सर्वतश्चात्र घोरे निवध्य, कथ कुर्वते ज्ञानचारित्रनाशम् ॥२५॥ अनेनाथ देहेष्वनन्तानुवन्धि-कषायस्य बन्ध कृत तत्र नूनम् । - दृढ शृंखलावद्धजीवा भवन्तः, पतिष्यन्ति चैवं द्रुतं शर्करादौ ॥२६॥ विपक्षानुरोधे महामोह एव, समानः स्त्रिया सर्वथा त्यागयोग्यः । सदा सेवनेनास्य नाशं व्रजन्ति, भवद्ब्रह्मचर्यादिकं शश्वदन ॥ २७ ॥
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४०
वीरस्तुतिः । विपक्षाख्यवेश्याऽनुरागोऽपहेयः, सदा ब्रह्मचर्यानुरक्तैर्भवद्भिः । महावीरदेवस्य नाम्ना खकीयं, मुदा जैनसंघ सृजन्त्वन जैनाः ॥२८॥ यतो बन्धनान्मुक्तभावं व्रजन्तु, भवादुस्तराज्जन्मतो वापि दुःखात् । यदास्य प्रसंगं भवन्तश्च जैना, न जातु त्यजन्ति ब्रुवन्ति भवस्थाः ॥२९॥ जनो ब्रह्मचारी न कोऽप्यस्ति लोके, नितान्तं व्यभिचारवन्तं न रम्यं । महावीरतत्वोपदेशस्य सारमनेकान्तवादं बुधाश्चानमन्ति ॥ ३० ॥ भवन्तः सदैकान्तवादे प्रवृत्ताः, स्वतश्चेतरेषां न द्वात्रिंशदाख्यम् । खकं सम्प्रदायं विशुद्धं गदन्ति, तथाऽन्यं च निंदां हि कुर्वन्ति नित्यम् ।। यतो वर्धमानस्य वाचो भवन्तो, विलुपन्ति मिथ्यैव कि सत्यमेतत् ? । तदेवं भवन्तं हि जानन्ति सिद्धा, महाऽसत्यपापानुरागेऽनुरक्तम् ॥३२॥ ब्रुवन्तीह पक्षानुरागं विशेषमह चामुके सम्प्रदाये प्रवृत्तम् । सदा चेदृशं भावरोग त्यजन्तु, न हि स्याच्च कल्याणभावं कदापि ॥३३॥ परित्यज्य भेदात्मकी बुद्धिमुग्रां, तदा वर्धमानस्य सिद्धान्तमानम् । " विजानन्तु श्राद्धाश्च वीरं भजन्तु, सदाक्षेपवन्तो भवन्तो भवन्तु ॥३४॥
गुरुवों दीक्षायां ग्रहणसमये स्तेयकरणं, परित्याज्यं चेत्यं कथयति भवत्क्षेममनिशम् । परिशश्वद्यूयं प्रतिपदविवाद च कुरुथ, तदेवास्तेयाख्यं व्रतमपि प्रणष्टं प्रतिदिनम् ॥ ३५ ॥ ततो धर्मे नाशं ब्रजति भवतां वृत्तिरखिला, अतस्त्वत्तश्चौरो न हि सुभुवि कश्चिन्मुनिवर ! अतोऽनित्यं साधो ! परिहर मतालम्बनमहो! न हि स्यात्कल्याणं कचिदपि विशेष व्रतधर ! ॥ ३६ ॥ राग-द्वेषवियुक्तानां, समताभावमागताः। वीतरागाः प्रवर्तन्ते, साधवो न हि चेतरे ॥३०॥ त्वय्यस्ति यदि रागश्च, द्वेषभावस्तथापरः । देहभावोऽप्यहंभावोमोहमावस्तथैव च ॥ ३८ ॥ नो गतो यदि वो देहान्मुधैव वेपधा
4duate
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २४१ रणम् । तथोज्वलतरो वेषो, धूर्तत्वं प्रतिभावयेत् ॥ ३९ ॥ कैतवं समनुप्राप्य, पापकृन्मुनिराडयम् । वीतरागा न केऽपीह, प्रवदन्तीति योगिनः ॥ ४० ॥ अद्यप्रभृतिमुनिभिहीयतां पदवी मुहुः । मानापमानयोर्बुद्धिस्तुल्यैव परिधार्यताम् ॥ ४१ ॥ सर्वदा भिक्षुवर्यैश्च, समदर्शिमिरेव च । शासनं जिनराजस्य, वर्धनीयं विशेषतः ॥ ४२ ॥ ज्ञातव्यं मुनिमिस्तत्वं, मानवधर्ममाचर ! वीरशासनसेवायां, प्रवृत्ताश्वेतसा यदि ॥ ४३ ॥ पदवीधारणं मिथ्या, प्रवृत्तिस्तत्र निष्फला । नाग्रहस्तत्र कर्तव्य, इति चिचे समाश्रय ॥ ४४ ॥ जगति *बहुलेशस्य, मान्यता च सनातने (धर्मे) । तथैव जैनधर्मेषु, (मुनिवर्येषु) बहाचार्यस्य मान्यता । इति रोगसमृद्धिः स्याद्विपरीतं कथं भवेत् ॥४५॥ खयं वैद्यश्च रोगार्ता, नान्येषां दुःखहो भवेत् । आचा
र्याणां बहुत्वस्य, प्रथा हेया मनीषिभिः ॥ ४६ ॥ अखिलजैनसंघस्य ह्येकश्वाचार्य एव च । कर्तव्यः सर्वथा विद्वन् ! न पुनस्सं विलोपयेत् ॥ ४७ ॥ समाज कुष्ठवन्नित्यं, क्लिद्यतीति विभावय । कथनेन च कि तद्वच्छ्रवणेन च किं बहु ॥ ४८॥ समाजोऽद्य प्रयागस्य तीर्थवलियतां मुदा । धारात्रयं मिलित्वैव स्वच्छा स्याद्वादरूपिणी ॥४९॥ गंगेवेयं च ज्ञातव्यं, मुनिभिः सुधिभिः सदा । इत्येवं प्रार्थना शश्वपुष्पेन्दोभिक्षुकस्य च ॥ ५० ॥
६ समाप्तोऽयं ग्रन्थः।
. * बहुला. ईशस्येति पदच्छेदः ।
वीर. १६
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४२
वीरस्तुतिः। . परिशिष्ट नं० १ वीरस्तुति-गुर्जरगायन
कडखाकी चाल तार हो तार प्रभु मुझ सेवक भणी, जगत्मां एटलुं सुजश लीजे। दास अवगुण भर्यो जाणी पोता तणो,
दयानिधि दीनपर दया कीजे ॥१॥ ' भावार्थ-किसी समय श्रीजिनागमके अभ्यास द्वारा ससार भ्रमण करते हुए, ज्ञानावरणादि आवरणोंसे ढके जानेपर भी अपनी अनन्त शक्तिको जान कर अनादि परभावानुपंगताके दोषसे उद्विग्न मात्मा अपनी साधक शक्तिको न देखकर परम निर्यामकके समान २४वें तीर्थंकर श्रीज्ञातृपुत्र-महावीर भगवान्के नामका गरण निर्धारित करता है, और श्रीवीरपरमात्माको अन्तरमें अनुभूत करके प्रार्थना सहित विनति करता है और अपनेको प्रभुका दास निश्चित रूपमें समझकर मानो पुकार पुकार कर कहता है कि-हे नाथ ! हे दीनदयालो! है प्रभो! मुझसा निर्वल तत्वसाधक आपकी आज्ञाओंके पालन करने में कहा समर्थ है, मुझे तो मात्र नामका सेवक समझ कर तार? तार ? इस गुणरोधकरुप दु.खसे निस्तार! ओह प्रभो! तुझ से प्रभुको छोडकर और किसे कहूं? यह इतनासा सुयश आपही लीजिए और मुझे भवजलधिसे पार कीजिए! भगवन् ! मुझे यह भी ज्ञात है कि-प्रभुको तो सुयशकी कुछ भी अभिलाषा नहीं है। परन्तु उपचारसे भविवश आपके नाममें आतुर होकर यह सब कुछ कहकर में ही अपनी अज्ञानताका परिचय दे रहा हूं; यद्यपि में अपनेको आपका दास समझता हूं, मगर यह दास तो रागद्वेष-असंयम-अनुष्ठानाशंसादि दोप-एकान्ततादोप-अनादर आदि दोपरूप अवगुणसे भरा हुआ है । तो भी में तेरा ही कहलाता हूं । अत एव हे दयानिधे ! भावकरुणासमुद्र में दीन-रंक- अशरण-टुःखित-तत्वशून्य-सम्यग्ज्ञानादिसे शून्य भावदरिद्र, तत्वमार्गका विराधक-असयमचारी-महाविकारशील-आपकी आज्ञासे विमुख-अनादिकालका उद्धत, आदि २ अनेक दुर्गुणांसे पूर्ण हूं। इसी लिए मुझ दीन-हीन पर दया कीजिए। तेरी कृपा ही त्राण-शरणके योग्य हो जायगी। यद्यपि 'भर्हन्' प्रभु सदा कृपावान्
।
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
२४३
ही होते हैं तब उन्हें और नवीन कृपा क्या करनी है ? तथापि अर्थाको घरगाठका विचार नहीं होता, इसलिए यह वचन मुझसे 'अर्थी' का ही है, और जो दयावान् होता है उसकी विशेषता इसी प्रकार वर्णन की जाती है। मतः देव! तुम कृपाके भंडार हो, तुम्हारा अवलम्बन लेकर ही पार हो सकूँगा, यह सत्य और निस्सदेह है।
राग-द्वेषे भर्यो मोह-वैरी नड्यो, लोकनी रीतमां घणुंए रातो। क्रोध वश धमधम्यो, शुद्धगुण नवि रम्यो,
भम्यो भवमांहे हुं विषय मातो ॥२॥
भावार्थ-हा तो भगवन् ! यह दास कैसा है ? सुनिए, यह राग-द्वेषके कीचडमें फंसा हुआ है, जगत्-सागरमें ड्वा पडा है, गुणी जनोंसे ईर्ष्या करता है, मोहके नशेमें बेसुध है, तत्वकी बातोमें विल्कुल अज्ञात है, विपर्यासका कुछ ठिकाना ही नहीं है। मोह वैरीने भारी झपट मारी है जिसके कारण अपने उस मोहभावसे स्वयं उसके नीचे दव गया है। तथा लोककी रीतिभांति, चाल-ढाल, अन्धश्रद्धा, उलटी टेढी रूढी आदिमें खूब ही मस्त है, लोकोंकी गतानुगतिकता भेडचालमें ही सदा मन है, अपनी गाठकी अकलसे कुछ भी नहीं विचारता, लोकोंको प्रसन्न करनेकी वडी चाह लगी रहती है । लोकोंसे डरता भी खूव है इसी कारण गुप्त अनाचार सेवन करता है, तव लोकोंने भी वुगला-भक्तकी ही उपाधि दी है। क्रोधसे पारा गर्म हो जाता है, चंडपरिणाममें धमधमायमान है। जिस प्रकार धौंकनीकी प्रेरणासे अमि तप उठता है इसी तरह क्या वल्के इससे भी अधिक क्रोधके द्वारा तप जाता हूं । शुद्ध गुण जो सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञान-परमशुद्ध चरित्र-क्षमा-मार्दव-आर्जव आदि आत्मगुण हैं, उनमें कमी रमण नहीं करता, न कमी में उनमें तन्मय ही होता हू, अपने खरूपका ग्रहण भी कभी नहीं किया, सदैव तुसके समान निस्सार परभाव या विभावको ही खीकार किया है, नरक-तियेच मनुष्य-देव आदि चार गति रूप संसारचक्रम इसी कारण मारां मारा फिरता हूं। तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप समृतिमें, पाच इन्द्रियोंके विषय-खादमें उन्मत्त और उन्मम हो रहा हूं। विषयग्रस्त हो कर इस भाति विश्वचक्रका कडुवा अनुभव ले रहा हूं, में वही अंघमदास हूं,
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४४ . वीरस्तुतिः । अतः मुझे तार, तार! हे नाथ! दीनबन्धो! निष्कारण दयालो ! मुझे तार भव दुःखसे वचा, वचा ॥२॥
आदयों आचरण लोक उपचारथी, शास्त्र-अभ्यास पण कोई कीघो।' शुद्ध श्रद्धान वळी आत्म-अवलम्ब विन, तेहवो कार्य तेणे को न सीघो॥३॥ .
भावार्थ-शायद कभी कोई यह कहे कि-आवश्यक करणादि आचरण बहुतवार स्वीकार किया है, मगर उस चरित्रको तो लोकोपचारसे ही किया था जिससे फिर वह आत्मामें विष तथा गरलके समान परिणत हुआ, क्योंकि अन्यान्य अनुष्ठानसे क्या हो सकता है, यदि भावधर्म नहीं हो तो उसके विना सब कुछ वृथा है, और उसे उपचार गतानुगतिकतासे अगीकृत किया समझा जाता है। इसके उपरान्त कोई यह भी कहेगा कि-उच्चगोत्र-यशोनामकर्म आदिके विपाकसे ज्ञानावरणीयके क्षयोपशमके योगसे शास्त्रोंका पूर्ण अभ्यास भी तो किया है, शास्त्रोंका पठन-पाठन किया है, शास्त्रके गर्भमसे यथार्थ अर्थको निकाल कर जगत्में उसका दिव्य प्रसार किया है। तथा अध्यात्म-भावनासे स्पर्शज्ञानानुभावके विना उस श्रुतका अभ्यास किया गया परन्तु शुद्ध और यथार्थ स्याद्वादउपेतभावधर्मके विना शेप भावधर्मकी रुचिसे दान-दयादिक जो पुरुषार्थ किया गया है उन सवको कारण समझना चाहिए परन्तु मूल धर्म नहीं । धर्म तो वस्तुकी सत्ता है, और वह आत्माके अन्तर्गत-खरूपतासे पारिणामिकताकी दशाम स्थित है। उसमे से जो धर्म प्रकट होता है, वह शुद्ध-श्रद्धान, शुद्धप्रतीति, तथा पुनः मात्माके स्वरूपको प्रकट करानेवाली रुचि तथा आत्माके स्वगुण सम्बन्धी अवलम्बनके विना जो आचरण किया जाता है तथा जानाभ्याससे यदि वह कार्य किया जाता है, जिस कार्यसे आत्माका सम्यक् साधन होता है, उसे किसीने निर्मित नहीं किया प्रगट नहीं किया। जिसके कारण जो आत्मगुण प्रकट हो सकता था वह नहीं हुआ। अतः हे परमेश्वर ! इस अधमाधम दासको तेरी ही कृपा पार कर सकती है इसलिए तार, तार, दास समझकर तार, अपना दास समझकर तार ॥ ३॥ .
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २४६ खामी दर्शन समो निमित लही निर्मलो, जो उपादान ए शुचि न थाले । दोषको वस्तुनो अहवा उद्यम तणो,
खामी सेवा सही निकट लाशे॥४॥ .
भावार्थ-वामी श्रीवीतराग हैं, जो अन्यके कार्यके भकर्ता हैं, परभावादिके अभोका हैं, इच्छा लीला चपलता कौतुहल आदिसे सर्वथा रहित हैं, क्योंकि इच्छा तो जनतावान् अर्थात् न्यूनतावालेमें होती है, और परमेश्वरतो पूर्ण आनन्दी सहजानन्दी है, इसीलिए स्वामी इच्छा रहित हैं, और लीला मी सुखकी लालसावालेको ही होती है, और लालचीपना सुखकी ऊनतासे होता है, इसीकारण प्रभुमें लालचीपना भी नहीं है । ऐसे निजानन्दविहारी खामीके दर्शनके समान निर्मल निमित्तको प्राप्त करके, आत्माका उपा. दान-मूलपरिणति यदि शुद्ध न होगी तो जानना चाहिए कि यातो वस्तुका दोष (जीव अवगुणावृत) है, या शायद जीवका दल ही अयोग्य है, कहना न होगा कि इस जीवकी सत्ता किस ढंगकी है ? अथवा क्या अपने उद्यममे कुछ कमी है ? क्योंकि कठोर प्रयत्न और सतत उद्यम करनेपर तो आत्माका सुधार अवश्य होना ही चाहिए था मगर अवतक कुछ न हुआ । इससे स्पष्टसिद्ध है कि-यह जीव अपनी जनताके कारण अपने ओत्मीय गुणोंका स्मरण नहीं करता, इसलिए अब क्या करना चाहिए? और कोई उपाय भी तो नहीं सूझता। यही समझ कर श्रीअर्हन् भगवान् महावीर प्रभुकी सेवाको ही मैंने आत्म स्मरणके लिए अमोघ शस्त्र ( साधन) समझा है। प्रभुसेवा ही प्रभुकी समीपताको दिलायगी । क्योंकि वहिरात्मभाव तो इस अवस्थामें अत्यन्त दुष्ट है। परन्तु जिनराजकी सेवनासे यह दुष्टता छूटायगी ॥ ४ ॥
खामी गुण ओळ्खी खामीने जे भजे, : दर्शन शुद्धता तेह पामे। . ज्ञान चारित्र तप वीर्य उल्लासथी, कर्म जीपी वसे मुक्ति धामे ॥५॥ . .'
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४६
वीरस्तुतिः।' भावार्थ-खामी अर्थात् शासनपति, अर्हन् प्रभु, श्रीमहावीर भगवान्के गुणोंको पहचान कर जो प्राणी अरिहंतको भजता है उनकी सेवा करताहै, वह दर्शन अर्थात् सावरण केवलज्ञान सम्यक्त्व खखरूपकी झांकी अवश्य प्राप्त करता है। उसे दर्शनकी निर्मलता होती है, यथार्थ आत्म ज्ञान भासता है, चरित्र खखरूपमे रमण करता है, तप तत्वकी एकाग्रताको प्राप्त करता है, वीर्य आत्मसामर्थ्यका उद्भव करता है, उसके उल्लाससे ज्ञानावरणादि कर्मोको जीत (क्षय कर) ता हुआ मोक्ष-निरावरण रूप सम्पूर्णसिद्धतारूप अपुनरावृत्ति धाममें जाकर निवास करता है ॥ ५ ॥
जगद् वत्सल महावीर जिनवर सुणी, चित्त प्रभु चरणने शरण वास्यो। तारजो बापजी ! विरुद निज राखवा, दासनी सेवना रखे जोशो॥६॥
भावार्थ-जगत् त्रय वत्सल (हितकारी) चौवीसवें महावीर जिनवरके गुणोंको सुनकर मेरा मन प्रभुके चरण (चरित्र) रूपी शरण (मनन) मे वस गया है, अतः हे प्रभो ! भो परमेश्वर ! मेरा आत्मा पलटा खाकर आत्मका समस्तसाधन करे, ऐसी शक्तिका उद्भव तो मुझमे नहीं दीख पडता, इसीलिए सरल भतिका आश्रय लेकर कहता हूं कि वापू! मुझ दासको आप ही पारकरना, और आप अपनी तारकताका विरुद सुरक्षित रखनेके लिए इस दासकी सेवना (भकि) के सामने मत देखना, जो आपकी आज्ञानुसार भक्ति करता है वह निस्सन्देह पार होता है, परन्तु जगत्तारक ! मेरे लिए यह सब कुछ होना दुर्लम है, लेकिन जिसप्रकार काठकी समातिसे लोह और पत्युरभी पार हो जाते हैं इसी प्रकार आपके संयोगसे पार हो जाऊंगा, और मुझे अंव नियमरूपसे यही एक अन्तिम आधार प्रगटरूपमें दीख रहा है ॥६॥
विनति मानजो शक्ति ए आपजो, भाव स्याद्वादता शुद्ध भासे। साधि साधकदशा सिद्धता अनुभवी, "देवचन्द्र विमल प्रभुता प्रकाशे ॥ ७॥
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
२४७
भावार्थ-प्रभो! मेरी इतनी विनय तो अवश्य मानलेना, और मेरा यह वचन मी सरल भक्तिकी प्रेरणासे निकला है। हा वह वात मानना कि मुझे एक वार आत्मसामर्थ्य अर्पण करना, और ऐसा भाव भी प्रदान करना किजिसभावसे वस्तुधर्म यानी स्याद्वादकी कसौटीसे नित्य-एक-अनेक-अस्ति-नास्तिभेद-अमेदद्वारा छहों द्रव्योंके अनन्तशुद्ध धर्म, शंकादि दूषण रहित भासने लगें। साधकदशाकी साधना करके वे मेदरत्नत्रयी, सिद्धता, निष्पन्नता, वास्त'विकताका अनुभव करके उसे भोगने लगें । समस्त देवोंमे चन्द्रमा के समान सिद्ध भगवान्की विमल-निर्मल प्रभुताको प्रगट करे, अर्थात् स्याद्वाद ज्ञानके 'द्वारा साधकता प्रगट होती है, और उस साधकतासे' सिद्धता प्रगट होती है, यही एक विलक्षण सार पद्धति है ॥ ७ ॥
गुजराती भावार्थ-कोइक अवसरे श्रीजिनागमना अभ्यासे करीने ससार भ्रमण निमित्त जे ज्ञानावरणादि आवरणे आवृत पोतानी अनन्त आत्म शक्ति जाणीने अनादि परभावानुषंगता दोषने दुःखे उद्विग्न आत्मा ते पोतानी साधकता शक्ति अणदेखतो परमनिर्यामक समान चौवीशमा श्रीवीरभगवान्नां चरण शरण निर्धारीने, श्रीमहावीरप्रभुनी आगल प्रार्थना सहित विनति करे छे 'जे-हे नाथ! हे दीनदयाळ! हे प्रभुजी | मुझ सरीखो जे तत्वसाधक तथा आज्ञानिर्वाह मा असमर्थ, तेने मात्र नामथी सेवक जाणी तार, तार । ए गुणरोधक रूप दु खथी निस्तार, तुज सरीखा प्रभु विना बीजा कोने कहुं ? जगत्मा एटलं सुजशं लीजे, यद्यपि प्रभु तो सुजशना कामी नथी, परन्तु उपचारे भक्ति आतुरताए कहे छे जे मुज सरीखो दास ते यद्यपि राग द्वेष असयम अनु. ठानाशंसादिदोष, एकतादोष अनादरादिदोषरूप अवगुणे करी भर्यो छे, तो पण ताहरो कहेवाय छे । ते माटे हे दयानिधि ! भाव करुणाना निधान ! दीन जे हुँ रक,, अशरण दुखित-तत्वशून्य-ज्ञानादिसम्पदारहित-भावदरिद्रीमार्गनो विराधक-असयमसंचारी-महाविकारी-तमारी आज्ञाथी विमुख-अनादिनो उद्धृत एहवा मुझ ऊपर कृपा करीजे, ताहरी कृपा तेहीज त्राण (शरण) थशे,। यद्यपि अरिहंत तो कृपावंतज छे तो नवी कृपा शी करवी छे, तो पण अर्थी विचारे नहीं, माटे अर्थार्नु ए वचन छे, जे दयावंतनेज एम कहेवाय छे, जे हे देव ] तमे दयाना.भंडार छो, तमनेज अवलबे तरीश | ए सत्य ज छे त्री
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४८ , वीरस्तुतिः। .
· दास केहवो छे, राग द्वेषे भर्यो; जगत्मा पड्यो, गुणथी इर्ष्या करे छे, मोह जे मुंजितपणुं ते तत्वनी अजाणता-विपर्यासता, हेतुयें मोहवेरी नज्यो, तेथी दवाणो छे, तथा लोकनी जे रीत केतां चाल ते मांहे घणोज मातो छे, लोकनी चाल (गतानुगतिकता) माहे मन छे, लोकरंजननो अर्थी छे, क्रोध जे ताता चण्डपरिणाम तेहने विषे धमधमी रयो छे, जेम धमण धमतां अग्नि तपे, तेम तपी रह्यो छे, शुद्धगुण जे सम्यग्दर्शन-सम्यक्ज्ञान-शुद्धचरित्र-क्षमादया-माईव आर्यवादि आत्मगुण, तेने विपे रम्यो नहीं, तन्मयी न थयो । ते रूप न ग्र[, वळी भन्यो-चतुर्गतिरूप भवचक्रमाहे द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप संसार तेने विष हुं विषय-जे पांच इन्द्रियना खाद, ते माहे मातो=केता मन थयो थको एम संसारचक्र अनुभव्युं ते हवे प्रभु मुझने तार, तार, हे नाथ ! दीनवन्धु | निष्कारण दयाल ! मुजने तार, भव दुखथी उगार ॥२॥
कदाचित् कोई कहेशे जे आवश्यककरणादिक आचरण आदर्यु अगीकार कयु, परन्तु ते सर्व लोकोपचारथी एटले विष तथा गरल तथा अन्यान्यानुष्ठानथी भावना धर्म विना उपचारे अगीकार कर्यु, तथा कोई कहेशे के उच्चगोत्र यशोनाम कर्मादिकना विपाके ज्ञानावरणीय क्षयोपशमना योगे शास्त्राभ्यास पण कीघो, शास्त्र भण्या, शास्त्रना यथार्थ अर्थ पण जाण्या, तथा अध्यात्मनी भावनाए स्पर्शज्ञानानुभावविना श्रुताभ्यास कीधो, परन्तु शुद्ध अने यथार्थ स्याद्वादोपेत भावधर्म विना शेष भावधर्मनी रुचिये जे दान-दयादिक प्रवर्तन करे छे ते सर्व कारण समजवां, परन्तु मूलधर्म नथी, धर्म ते वस्तुनी सत्ता, आत्माने विषे स्व-खरूपपणे परिणामकताए रयो छे । ते माहे जे प्रगट्यो ते धर्म, एहवू शुद्ध श्रद्धान शुद्धप्रतीति-तथा वळी आत्मानी खरूप प्रगट करवारूप रुचि तथा आत्माना स्वगुणने आलंवन विना जे आचरण तेणे आचरणे तथा श्रुताभ्यासे तेहवु कार्य-जे कार्यथी आत्मानुं साधन थाय, ते कोई नीपन्यु नहि, जे यकी आत्मगुण कोई प्रगटे ते थयु नहि, ते माटे अहो परमेश्वर! ताहरीज कृपा पार उतारशे, निस्तारशे, ते माटे तार! तार! ॥ ३ ॥ , खामी श्रीवीतराग जे परकार्यना अकर्ता, परभावादिना अभोका, इच्छालोला चपलता रहित, एटले जे इच्छा होय छे ते तो ऊणतावंतने छे, ते माटे इच्छारहित छे, वळी लीला पण सुखनुं लालच करनारने होय छे, अने लालचीपणुं ते सुखनी ऊनताए थाय छे। ते माटे प्रभुमा लालचीपणु नथी, एहवा स्वामीनां दर्शन (मत) समान निर्मल निमित्त लहीने जो ए आत्मार्नु उपा.
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
२४९
दान-मूल परिणति पवित्र नहि थशे तो जाणवू जोईये जे वस्तु-जीवनो ज दोष-अवगुण छे, एटले रखे ए जीवनो दल अयोग्य होय! ए जीवनी सत्ता केवी रीतनी छे? अथवा पोताना उद्यमनी खामी छे ? केमके आकरे प्रयत्ने उद्यम करीने तो आत्माने समरवो जोइये, तो ए जीव पोतानी ऊणाशने लीधे आत्मा समरतो नथी । ते माटे हवे शुं करवू? जे बीजो उपाय कोई नथी, तो श्रीअरिहंतनी सेवा तेहीज निश्चे निकट केता नजीकता लाशे, केता पमाडशे, एटले आ आत्मा तो हवे दुष्ट जेवो थइ रह्यो छे, परन्तु श्रीजिनराजनी सेवनाथी दुष्टता तजी देशे ॥ ४॥ ___खामी जे श्रीअरिहंत तेहना गुणने ओळखीने जे प्राणी श्रीअरिहंतने भजे सेवे छे, ते दर्शन सम्यक्त्वरूप गुणने पामे छे, दर्शननी निर्मलता,पाम्या पछी, ज्ञान यथार्थ भासन, चरित्र-ख-खरूपमा रमण तप-तत्वमा एकाग्रतावीर्य-आत्म-सामर्थ्य, तेहना उल्लासथी ज्ञानावरणादि कर्मोने जीपीने मुक्ति निरावरणरूप सम्पूर्ण सिद्धतारूप धाम-स्थानकमा जइने ते वसे छे ॥ ५ ॥
जगत्रयवत्सल-त्रण जगत्ना हितकारी, एहवा महावीर भगवान् चोवीशमा जिनवर, तेहना गुण साभळीने मारो मन प्रभुने चरणने शरणे वसाव्यो छे। ते माटे हे प्रभो! परमेश्वर! माहरो आत्मा तो पलटीने सर्वसाधन करे, एहवी शक्ति देखाती नथी, माटे भद्रक भक्तिए कहुं छु जे हे तात ! हे दीनवन्धो! मुज दासने तमे तारजो, तमारं तारकतानुं विरुद राखवा माटे दासनी सेवना भक्ति सामु जोशो मा, जे ए आज्ञा प्रमाणे भक्ति करे तो तरे, ए वात तो खामिन् ! माहरामा थवी दुर्लभ छे, पण तमारे सयोगे तरीये, एहीज नियमा आधार छे ॥ ६॥" __"माहरी एटली विनति मानजो, ए पण भद्रिकपणाथी भकिनुं वचन छे, जे शक्ति-एवी सामर्थ्य मापजो, ते कहे छे, जे भाव-वस्तुधर्म, ते स्याद्वादरीते नित्य-एक-अनेक-अस्ति-नास्ति-मेद-अभेदपणे छ द्रव्यना अनंताधर्म शुद्ध, शंकादि दूषणरहित भासे,-जाणपणामां आवे, ते साधि-निपजावीने साधकंदशा ते मेद रत्नत्रयी-सिद्धता-निष्पन्नता-अनुभव भोगवे, सर्वदेवमाहे चन्द्रमा समान, सिद्धभगवान् तेहनी विमल=निर्मळ जे प्रभुता, ते प्रकाशे-प्रगट करे, एटलेस्याद्वाद शाने साधकता प्रगटे, साधकताथी सिद्धता प्रगटे छे, एहीज सार पद्धति छे ॥७॥
देवचन्द्र
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५०
.....,वीरस्तुतिः।' . वीरस्तुति
वीर जिनेश्वर चरणे लागु, वीरपणुं ते मागुं रे। मिथ्यामोह तिमिर भय भागं, जीत नगारुं वाग्य रे ॥१॥
शब्दार्थ-वीर जिनेश्वर चौवीसवें वीर प्रभुको, चरणे लागुं-नमस्कार करताहूं, (और) वीरपणुं ते-उनके समान, वीरपणुं शूरवीर भाव, मागुं रेमें उनके पाससे यांचा द्वारा मांग लेता हूं (उनका वीरत्व ऐसाहै कि-जिसके सन्मुख) मिथ्यामोह-मिथ्यात्व मोहनीय रूप, तिमिर भय अन्धकारका भय, भागुं-दूर भाग खड़ा हुआ है, और-जीत नगारु,-जयका नगारा, वाग्यु= रे-वज रहा है।
भावार्थ में चौवीसवें जिनेश्वर श्रीमहावीरखामीकी भाव वन्दना करता हूं, और कर्मरूप शत्रुओंको जीतनेके लिए उनमें जो योद्धापन अथवा जैसा श्रीवीर भगवान्में वीरत्व है, में भी अपनेलिए वैसाही चाहता हूं, और जिनमें मिथ्यात्व मोहनीय कर्मरूप अंधकारका भय नष्ट होगयाहै, और फिर जीतका डंका बजगया है।
परमार्थ में श्रीवीरभगवान्की भावोंसे वन्दना करके अपने लिए वीरत्व पानेकी माग पेश करता हूं, श्रीवीरभगवान् कैसे हैं, जिनका कि-मिथ्यात्वादि मोह दूर होगया है, तथा कर्मरूपी शत्रुओंको पराजय करनेसे जिनका जयपटह वजने लगा है, ऐसे श्रीभगवान्को नमस्कार करके में वीरता मागता हूं ॥१॥
छउमत्थ वीरज लेश्या संगे, अभिसधिज मति अंगे रे, ' सूक्ष्म थूल क्रियाने रंगे, योगी थयो उमंगे रे, वी० ॥२॥
शब्दार्थ-छउमस्थ-छद्मस्थ अवस्थाकी, वीरज लेश्या क्षायोपामिक वीर्यवाली, लेश्या-आत्म परिणामकी एक दशा, ( उसके) सगे-सयोगके द्वारा (तथा ) अभिसधिज-अभिसंधि जनित-योगाभिसन्धिजनित-योगको ग्रहणकरनेकी-अपने आप ही होनेवाली इच्छासे उत्पन्न-मति=बुद्धि, (उसके) अगेरे-उसकी छायाके कारण (तथा) सूक्ष्म आत्मिक, (और) थूल-व्यावहारिक, क्रियाने रगे-क्रियाका समाचरण करनेके उत्साहसे (वीरभगवान्) योगी थयो-योगी वनगए, उमंगेरे-उमंगके साथ-न कि जवरदस्तीसे,
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
२५१
भावार्थ-छमस्थ अवस्थाकी क्षायोपशमिक वीर्यवाली आत्मपरिणविके योगसे, और योगको ग्रहण करनेकी अपनी निजी इच्छासे उत्पन्न होनेवाली बुद्धिसे, आत्मिक और व्यावहारिक क्रिया करनेके उत्साह द्वारा श्रीवीर भगवान् वही भारी उमंगके साथ योगी हुए हैं।
परमार्थ-इस गाथाका भावार्थ भलि प्रकार समझमे नहीं आता, अतः गुरुगम्यतासे' इसका अर्थ समझना चाहिए । तथापि यथा मति लिखा गया है, छद्मस्थ अवस्थामै आत्माको क्षायोपशमिक वीर्यका उद्गम जव प्राप्त होता है और उस समय उसके साथ वैसी ही शुभ लेश्या मिलजाती है, अतः फिर अन्वयरूप वीर्यकेद्वारा कर्मग्रहण करता है, इस कर्मग्रहण करने की दशाको अभिसंधिज कहते हैं, और तव फिर मति उपर्युक्त वीर्यको प्रहण करती है।
देहकम्पनरूप सूक्ष्म-क्रिया, और शरीरसकुचनरूप, एवं उसका प्रसरण करणरूप, प्रसारणकी क्रियाको स्थूल क्रिया कहते हैं, इस प्रकार स्थूल और सूक्ष्म क्रियाके रंगसे सब आत्मा वडी उमंगसे योगी होते हैं। अर्थात् । मन-वचन- और कायके योगको प्राप्त होते है ॥ २॥
असंख्य प्रदेशे वीर्य असंखो, योग असंखित कंखेरे, पुद्गल गण तेणे लेशु विशेषे, यथाशक्ति मति लेखेरे ॥३॥
शब्दार्थ-असख्य प्रदेशे आत्माके असंख्य प्रदेश हैं, (अत. उन उन प्रदेशोंका वीर्य एकत्र करने पर) वीर्य असखो-असख्य-जो गिना न जाय इतना भात्म-बल है, (इसीसे आत्मा) योग असखित असंख्य योग-मनवचन-काय के व्यापार, (उनकी) कंखेरे-अमिलषित अर्थको पूर्ण करनेमे समर्थ होता है, [ और ] पुद्गल गण-पुद्गलकी विविध वर्गणाओंको, तेणे इसी कारण, लेशु विशेषे लेश्या विषेशसे-भिन्न भिन्न लेश्याओंसे, यथाशक्तिशक्तिके अनुसार, मतिबुद्धि, अनुभवाकित रहती है, एकके पश्चात् एक को ग्रहण करके माप करती रहती है ।
परमार्थ-आत्माके असख्य प्रदेश हैं, और उन एक एक प्रदेशमें असंख्य वीर्य-शक्ति है, इससे असंख्य गेगकी आकांक्षा उत्पन्न होती है,
और योग सामर्थ्यके अनुसार आत्मा कर्म-वर्गणाके पुद्गलोंको यथाशक्ति ग्रहण करता है ॥ ३॥..
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५२
वीरस्तुतिः । . • उत्कृष्टे वीरजने वेसे, योग क्रिया नवी पेसे रे, ।। '' योग तणी ध्रुवताने लेसे, आतमशक्ति न खेसे रे ॥ ४ ॥ .
शब्दार्थ-(लेकिन) उत्कृष्टे वीरजने वेसे उत्कृष्ट कार्यके आवेशमेंजव कि सबसे अधिक वीर्य-उल्लास होता है तव, योगक्रिया-मन-वचनकायरूपी योगका व्यापार, नवी पेसेरे प्रवेश ही नहीं करता, होता ही नहीं, (क्योंकि उस समय) योगतणी-योगकी, ध्रुवताको-अचलताको, लेशे लवलेशमात्र भी, आत्मशक्ति आत्मवल, न खेसेरे-डिगाता नहीं, योग स्थिर हो जानेके कारण। . भावार्थ-जव आत्मामें सबसे अधिक वीर्य प्रगट होता है तव मन-वचन और कायका कर्म बंधनरूप कार्य प्रवेश ही नहीं करता, कारण यह है-कि-उस समय आत्मवल है, उस योगके अचलत्वको लवलेश मान भी डिगा नहीं सकता, ॥५॥
परमार्थ-उपरोक्त कथनानुसार आत्मा योगकी शक्तिके अनुसार कर्म पुद्गलको ग्रहण करता है, परन्तु यदि आत्मामें उत्कृष्ट वीर्य प्रगट होगया हो तो फिर मन-वचन-कायके योग लगभग बंद हो जाते हैं, और कर्मवन्धनरूप क्रियासे फिर आत्मामें कर्म-बंध नहीं होता।
योगकी ध्रुवताका लेश सव आत्माओमें होता है, और उस लेशमात्रसे भी आत्माके आठ रुचक प्रदेश कर्मवन्धसे विरक्त ( अलग) रहते हैं । यह दृष्टान्त है । अत एव ज्यों ज्यों आत्मामें उत्कृष्ट वीर्य प्रगट होता रहता है, यो त्यों कर्मवन्ध भी कम हो जाते हैं, और अन्तमें सम्पूर्ण वीर्यत्व प्रगट होने पर वीरभगवान्की तरह समस्त कर्मवंधका नाश हो जाता है और शुद्ध चैतन्यत्व प्राप्त होता है, अतः हे भगवान् ! मुझे वीरता अर्पण करो ! ॥ ४ ॥ काम वीर्य वशे जेम भोगी, तेम आत्मा थयो भोगीरे, . सूरपणे आतम उपयोगी, थाय तेह अयोगी रे ॥५॥
शब्दार्थ-कामवीर्य वशे स्त्री संगकी इच्छा होने पर, वीर्य वलसे, जेम-जिस प्रकार भोगी=भोग कर्ता होता है, तेम इसी तरह, आतम ययो भोगीरे-आत्मा, (अपने वीर्योल्लास द्वारा अपने गुणोंका ) भोगी वनता है,
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २५३ (और) शूर पणे शौर्य गुणके वलसे, आतम उपयोगी अपने भावमें उपयोगवान् रहकर, थाय तेह अयोगीरे-वह आत्मा उसी समय अयोगी गुणस्थान पर आरूढ होता है।
भावार्थ-स्त्रीसंगकी इच्छा होने पर वीर्य अर्थात् धातुके उल्लाससे जिस प्रकार जीव भोगकर्ता सिद्ध होता है, इसीप्रकार आत्मा अपने वीर्य उल्लाससे अपने गुणोंका भोगी वनता है, और शौर्यगुणके वलसे निजभावमें उपयोगवान् रहकर वह आत्मा तुरत भयोगी-गुणस्थानारूढ होता है।
परमार्थ-जिसप्रकार कामी पुरुषमें वीर्यकी अधिकता होनेके कारण उसे प्रवल कामेच्छा होती है, इसीकारण पुरुष स्त्री की, और स्त्री पुरुष की इच्छा करती है, अथवा काम अर्थात् इच्छा, वह द्रव्यादिककी इच्छावाला जिस प्रकार द्रव्यकी इच्छा करता है, और पर-भावकी वाञ्छा करता है, इसी तरह आत्मा भी ख-खरूपको न जाननेके कारण पर-पौद्गलादिक भोगोंकी वाञ्छा करता है।
। परन्तु जव आत्मामें शूरवीरताका संचार होनेपर वीरभाव प्रगट होता है, तव कर्मोका क्षय होने पर अपने स्वरूपको जानता है । इससे उसे पर वस्तुओंपर अभाव-(अप्रीति) होता है, आत्मा निजगुणमें रमण करता है, मन-वचन और कायके योगको स्थिर करता हुआ नवीन कर्माको नहीं वाघता । और अन्तमें अयोगी हो जाता है । इस लिए वीरत्व प्राप्त होने पर आत्माका कार्य सिद्ध होने वाला समझ कर भगवान्के पास वीरता ही मागी है ॥ ५॥
वीरपणुं ते आतम ठाणे, जाण्यु तुमची वाणे रे, ध्यान विनाणे शक्ति प्रमाणे, निज ध्रुव पद पहिचाणे रे, वी० ॥६॥
शब्दार्थ-वीरपणु-शूरवीरता, ( उसे, ) ते आतम ठाणे-वह आत्मगुणस्थानपर चढता हुआ, [परिपूर्ण होना चाहिए इस प्रकार ] जाण्युमें जान सकाहूं, [ किसके द्वारा जान सकाहूं ? तुमची आपकी, वाणे रे-वाणी द्वारा-आपके प्रतिपादन किए हुए आगम द्वारा, (तथा) ध्यान विनाणे-शक्ति
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५४ - वीरस्तुतिः । . प्रमाणे अपनी शक्तिके प्रमाणसे ध्यान और विज्ञानसे, निज अपना, ध्रुवपद (परिणामकी स्थिरताको पाकर) शांतिरूप अचल पद, पहिचाणे-पह चानने से।
भावार्थ-आत्मगुणस्थानपर चढतेसमय परिपूर्ण शूरवीरता होनी चाहिए जिसे में अव जान सका हूं, किसलिए? आपकी वाणी द्वारा, अर्थात् आपके उपदेशसे, पुन. मेरी निजी शक्ति के अनुसार ध्यान और विज्ञानके साहाय्यसे भी कुछ जाना है, यानी ध्यान और विज्ञानका जितना वल होता है, उतना ही, अथवा उसी प्रमाणमें अपनी वीरताका स्थिरपद जीव इन निमित्तोंसे पहचान लेता है।
परमार्थ-भगवान्के पाससे वीरताकी यांचा का विचार करते समय भगवान्के प्रतिपादन किए हुए उपदेशका स्मरण हुआ, इससे स्वयं ही प्रसन्न होकर कहता है कि प्रभो ! मेरी जो जो भूल हुई हैं उनका मुझे भान हुआ, अव तक मे आपसे यही विनति करता रहा था कि-मुझे वीरता अर्पण करें, परन्तु मांगसे पहिले आपने फर्माया है कि समस्तआत्माएँ मेरे समान हैं। अत. जो वीरतामें पहले आपसे माग रहा था, वही वीरता मुझमें भी है। परन्तु खेद है कि इस बातकी मुझे जरासी भी खबर न थी, परन्तु आपकी वाणीसे-आपके तत्वपूर्ण उपदेशसे मुझे विश्वास हुआ है कि वह वीरता मुझमें भी पर्याप्त और अखंड है।
तव यह प्रश्न होता है कि जब आपके समान वीरता अपने में भी है तव तुम उसे क्यों नहीं जानते थे? और भगवान्ने कहा है कि इसके अतिरिक्त वीरता अपने मात्मामे है, इसका प्रत्यक्ष अनुभव हो सकता है, इसी प्रकार गुरु परम्परासे यदि विशेष ज्ञान प्राप्त हुआ हो तो उससे भी अनुभव हो सकता है, जिस प्रकार ध्यान और ज्ञानकी विशेषता है, इसी प्रकार आत्मानुभवकी भी विशेषता जाननी चाहिए। मुमुक्षुओंको ज्ञान और ध्यान को गुरुगमतासे जान कर आत्मानुभव करने में प्रवृत्ति करनी चाहिए, क्योंकि इस स्तवनका आशय यही है, और हमारी धारणा भी यही है ॥ ६ ॥
आलम्बन साधन जे त्यागे, पर परिणतिने भागे रे, - अक्षय दर्शन ज्ञान वैरागे, 'आनन्दघन' प्रभु जागे रे, ॥ ७॥
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २५५ शब्दार्थ- पूर्ण वीर्योल्लाससे शूरवीर बन कर ] आलंबन असमर्थ दशामें लियाहुमा आश्रय, (तथा) साधन-समस्त साधन-उपकारण, (उनको) जो-जो महात्मा, त्यागे छोड देते हैं, पर परिणति-आत्मासे अन्य-पुद्गलादिका खभाव ( उससे ), भागेरे दूर होजाता है, (वह) अक्षय=जिसका क्षय न हो, ऐसे शाश्वत, दर्शनज्ञान वैरागे-ज्ञान-दर्शन और चरित्रके द्वारा, आनन्दघन आनन्दसे भरपूर, प्रभु परम समर्थ-परमात्मा-ईश्वर, (होकर ) जागेरे (सदैव ) ज्ञानसे जागृत रहता है।
भावार्थ-सम्पूर्ण वीर्योल्लाससे शुर वीर होकर जो पुरुष असमर्थ दशामें पहले लिए हुए आलंवनों को और समस्त (अत्यावश्यक) उपकरणोंको भी छोड देताहै, उस आत्मासे पर जो पुद्गलादिका विभाव है वह दूर होजाता है, पुनः वह महात्मा पुरुष जिसका कमी क्षय न होने पावे, ऐसे शाश्वत ज्ञान-दर्शन और चरित्रसे, आनन्दपदसे भरपूर परमात्मारूप होकर सदैव ज्ञानपूर्वक जागता रहता है, अथवा 'आनन्दघन' कवि कहते हैं, कि-प्रभुआत्मा जाग जाता है, यानी अनादिकी ऊघौसे आत्मा जागृत हो जाता है अर्थात् विभावदशाको त्याग कर खयं परमानन्दरूपमें मम हो जाता है।
परमार्थ-आत्मा अनादिकालके पुद्गल सम्बन्धी आधारसे अपना कार्यकरना त्यागदेता है, तव आत्माका अखंड-शुद्ध-चैतन्यत्व सम्यगू ज्ञानदर्शन और चरित्रद्वारा प्राप्त करता है। और अनादि-कालसे आत्मा जिस पुद्गलके संगमें पडा ऊंघ रहा है, उसीसमय जग कर खयं अपने खरूपको प्राप्त करता है अथवा 'मानन्दघन' कवि कहते हैं कि यह आत्मा पर वस्तुका सग छोडदे और अपना निनी अवलम्ब रक्खे, तथा परानुयायीपन छोडदे तो उस रत्नत्रय के आराधनसे यह आत्मा तुरन्त मोक्षको प्राप्त होता है, ॥ ७ ॥
गुजराती भावार्थ-चोवीसमां जिनेश्वर श्री महावीर खामीना चरणोमा हुं वन्दन करु छ अने कर्मरूपी शत्रुमोने हणवामा जे योद्धापणु, अथवा जेवू श्रीवीर भगवान्नु वीरपणुं छे, तेवू वीरपणुं हुँ मागु छु, वळी जे प्रभुनो मोहनीय कर्मरूपी अन्धकार-भय नष्ट थयो छे, अने कर्मरूप शत्रुओनो पराजय करवाथी जेमनो जयपटह वाग्यो छे, एवा श्रीवीरभगवान्ने पगे लागीने हुँ वीरपणुं मागुं छु, ॥१॥
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः ।
आ गाथानो भावार्थ मने बराबर समजायो नथी, माटे गुरुगमधी धारवो, तो पण यथामति लख्यो छे, छद्मस्थावस्थामां आत्मानुं क्षायोपशमिक वीर्य होय छे, अने तेनी साथे तेवीज लेश्या मळे छे, एटले जोडायेलां वीर्ये कर्म - ग्रहण करे छे, आ कर्म ग्रहण करवानी दशाने अभिसंधिज कहे छे, अने मति उपर्युक्त वीर्यने ग्रहण करे छे ।
२५६
देहकम्पनरूप सूक्ष्म क्रिया भने शरीर संकोचवा रूप तेमज तेनो प्रसार करवारूप प्रसारणनी क्रियाने स्थूल क्रिया कहे छे, एटले ते मन-वचन अने कायना योगने पामे छे । ॥ २ ॥
जेनी सख्या न आवे ते असख्य कहेवाय. आत्माना अथवा बीजा द्रव्योना सूक्ष्ममा सूक्ष्म आकाशना विभागमां रहेलो जे भाग ते प्रदेश कहेवाय छे। आत्माना आवा असंख्य प्रदेशो छे, अने ते एके एक प्रदेशमां असख्य वीर्य छे, तेथीज आत्मा मन-वचन-अने कायना असख्य योगनी काक्षा–अभिलाषा थाय छे, अर्थात् ते योगो साध्य - प्रगट करवाने समर्थ छे, अने ते हेतुथी पुद्गलनी जुदी जुदी वर्गणाओने विविध प्रकारनी लेश्याओथी शक्तिमुजब वुद्धिलेखी रहे छे, अर्थात् एक पछी एक ग्रहण करीने मापती रहे छे ॥ ३ ॥
आत्मा योगनी शक्तिने अनुसारे कर्मपुद्गल ग्रहण करे छे । पण जो आत्मामां उत्कृष्ट वीर्य प्रगट थयुं होय तो पछी मन-वचन-कायना योग लग भग बंध थाय छे, अने कर्मवांधवा रूप क्रिया थी आत्मामा कर्मबंध तो नथी ।
योगनी ध्रुवतानो लेश बधा आत्मामा होय छे, अने ते लेशमात्रथी पण आत्माना आठ रुचक प्रदेश कर्म वंधथी विरक्त रहे छे, ए दृष्टान्त छे माटे जेम जेम आत्मामा उत्कृष्ट वीर्य प्रगट याय, तेम तेम कर्मबंध कमती थाय, अने छेवटे सम्पूर्ण वीर्यपणुं प्रगट थता वीर भगवान्नी पेठे समस्त कर्मबन्धनो नाश थाय, अने शुद्ध चैतन्यपणुं प्रगट थाय तेवुं छे । माटे हे भगवान् ! मने वीरपं आपो ! ॥ ४ ॥ '
जेम कामी पुरुषमां वीर्यनो वधारो थता तेने प्रबल कामेच्छा थाय छे, तेथी पुरुष स्त्रीनी अने स्त्री पुरुषनी इच्छा करे छे । अथवा काम एटले इच्छा, ते द्रव्यादिकनी इच्छावालो जेम द्रव्यनी इच्छा करे छे, अने परभावने वाछे
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
२५७
छे, तेम आत्मा पण ख-खरूपना अजाणपणाथी पर जे पुद्गलादिक तेना भोगनी वाञ्छा करे छे। -
पण ज्यारे आत्मामां शूरापणुं अथवा वीरपणुं प्रगट याय छे, त्यारे कोनो क्षय थतां ते पोतानु खरूप जाणे छे, तेथी पर वस्तुपरथी तेने अभाव थाय छे, आत्मा पोतामा रमण करे छे, मन वचन अने कायना योगने स्थिर करी नवां कों बांधतो नथी, अने छेवटे अयोगी पण थाय छे । तेथी वीर्यपणुं प्राप्त थतां आत्मानुं कार्य थवानुं जाणी प्रभु पासे वीरपणुं माग्यु छे । ॥५॥
भगवान् पासे वीरपणु मागवानुं विचार करता भगवाने करेला उपदेशनुं स्मरण थयु । तेथी पोतेज खुशीथईने कहे छे के हे प्रभो ! मारी जे भूल छे, ते मने जणाई,अत्यारी सुधी में आपने विनंति करी के मने वीरपणुं आपो, पण मारी मागणी पहला आपे कहेलुं छे के तमाम आत्मा मारा जेवा छे, एटले जे वीरपणुं हुं आपनी पासे मागु छु, ते वीरपणु मारामाज छे, पण ते वातनी मने खवर न होती, परन्तु आपनी वाणी थी एटले आपना उपदेशथी मारी खात्री थइ छ के ते वीरपणुं मारामां छे।
त्यारे प्रश्न थाय छे के ज्यारे वीरपणुं तमारामा छे तो तमे केम न होता जाणता ? अने भगवाने कयुं छे के ते शिवाय वीरपणुं पोतानां आत्मामा छ । ते जाणवाने बीजं साधन छे के केम ? तेनो उत्तर कहे छे के ध्यान करवाथी वीरपणुं पोतामा उद्भव थाय छे, अने तेनो प्रत्यक्ष अनुभव थई शके छे तेमज गुरुपरम्पराथी विशेष ज्ञान प्राप्त थयुं होय तो तेथी पण अनुभव थई शके छे, ज्ञान अने ध्याननी जेम विशेषता थाय छे तेम आत्म अनुभवनी पण विशेषता जाणवी, मुमुक्षुओए ज्ञान अने ध्यानने गुरुगमथी जाणी आत्मअनुभव करवामां प्रवृत्ति करवी ए आ स्तवननु रहस्य छे एम हुँ धाएं छु।।
आत्मा पुद्गळना आधारथी पोतानुं कार्य करवानुं त्यागे, अने पुद्गलनुं आलम्वन जो छोसी दे तो अखड शुद्ध चैतन्यपणुं सम्यग्ज्ञान-दर्शन अने चरित्रवडे प्राप्त करे, अने अनादिकाळथी आत्मा जे पुद्गलना संगमां ऊंघलेतो पडेलो छे, ते जागीने पोतानुं खरूप प्राप्त करे छे, अथवा आनन्दघन कवि कहे छे के आत्मा पर-वस्तुनो संग छोडे, पोतार्नु अवलम्बन राखे, अने परानु. यायी पणुं तजे, तो रत्नत्रयीना आराधनथी मोक्ष पामे । -
___ . . . [आनन्दघन ] . वीर. १७
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५८
वीरस्तुतिः ।“ . वीरस्तुतिधन धन जनक 'सिद्धारथ' राजा, धन त्रिशला देवी मीत रे प्राणी । ज्यां सुत जायो गोद खिलायो, वर्धमान विख्यात रे प्राणी, - श्रीमहावीर नमो 'वर णाणी,' शासन जेहनो जाण रे प्राणी, प्रवचन सार विचार हिए में, कीजे अर्थ प्रमाण रे प्राणी, २' सूत्र-विनय-आचार-तपस्या-चार प्रकार समाधि रे प्राणी, "" ते करिये भवसागर तरिये, आतम भाव आराधि रे प्राणी,-३ ज्यों कंचन तिहुं काल कहीजे, भूषण नाम अनेक रे प्राणी, '. त्यों जगजीव चराचर योनि, है चेतन गुण एक रे प्राणी, ४ अपणो आप विषे थिर आतम, सोऽहं हंस कहाय रे प्राणी, '' केवल ब्रह्म पदारथ परिचय, पुद्गल भरम मिटाय रे प्राणी, ५ शब्द-रूप-रस गंध-न जामे, नहीं स्पर्श-तप-छांह रे प्राणी, तिमिर-उद्योत-प्रभा-कछु नाही, आतम अनुभव मांहि रे प्राणी, ६ सुख-दुःख जीवन मरण अवस्था, ए दशप्राण संगात रे प्राणी, ' इणथी भिन्न विनयचंद रहिये, ज्यों जलमें जलजात रे प्राणी, ७
भावार्थ-सिद्धार्थ' राजा और 'त्रिशला' देवी राणीको धन्यवाद है, जहा 'वर्धमान जैसे पुत्र उत्पन्न हुए, उन्होंने अपने अकमें उसको खिला रमा कर अपनी होस पूरी की, और वर्धमान नामसे तो तीनों लोकमें विख्यात हुए, अपर नाम महावीर भगवन् ! जो श्रेष्ठ और निर्मल केवलज्ञान युक्त हैं, जिनका इस समय शासन काल प्रचलित हो रहा है, और भावी कालमें भी १८५०० वर्ष तक चलेगा, उन्हें मेरा योग और करणकी शुद्धिसे नमस्कार है, जिनके प्रवचनका सार आत्मभान और परमात्म विचार है । यदि उसका मनन और निदिध्यासन किया जाय तो यह आत्मा मोक्षकी पूर्ति शीघ्र ही कर सकता है।
ज्ञात-नन्दन महावीरप्रभुने 'सूत्र' 'विनय', 'आचार' और 'तपस्या' ये चार प्रकारकी समाधि भव्य प्राणिओंके कल्याणके अर्थ प्रतिपादन की हैं,
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
२५९
जो जितेन्द्रिय संयमी सदैव अपने आत्माका विनयसमाधि-श्रुतसमाधि-तपः समाधि और आचारसमाधिमें रमण करते हैं वास्तवमें वे सच्चे पण्डित होते हैं. - विनय समाधिके चार प्रकार-विनय समाधिके चार मेद इस प्रकार हैं जिस गुरुके पाससे शिक्षण प्राप्त किया है, उस गुरुको महा उपकारी समझकर उसकी सेवा करे, उसके समीपमें रहकर विनयका समाचरण करे। गुरुके वचनका यथार्थ रूपमें पालन करे। और विनयी होनेपर अहंकारी न वने । मोक्षार्थी साधक सदा हितशिक्षाकी इच्छा रखता है, उपकारी गुरुकी सेवा करताहै, गुरुके समीपमें रह कर उनके वचनका पालन करता है, और अभिमानमें मदसे गर्विष्ठ नहीं बनता। वही विनय समाधिका आराधक समझा जाता है।
श्रुत समाधिके चार प्रकार-"अभ्यास करनेसे मुझे सूत्र सिद्धा. न्तका परिपक्क ज्ञान होगा" यह समझ कर अभ्यास करता है, "अभ्यास फरनेसे मेरे मनकी एकाग्रता होगी" यह जानकर श्रुतका अभ्यास करता है। "अपने आत्माको उत्तम और सद्धर्ममें परिपूर्णतया स्थिर करूंगा" यह मान कर अभ्यास करता है, यदि में समता पूर्वक धर्ममें स्थिर रहूंगा तो औरोंको भी धर्ममें स्थापन करसकूँगा। श्रुतसमाधिमें अनुरक्त रहनेवाला साधु सूनोंको पढकर ज्ञानकी, एकाग्र चित्तकी, धर्मस्थिरताकी तथा औरोंको धर्ममें स्थिर करनेकी शक्तिका सम्पादन करता है, अत साधकको श्रुतसमाधिमें तल्लीन रहना चाहिए।
तपः समाधिके चार प्रकार-सच्चा साधक इस लोकके स्वार्थसुखके लिए तप नहीं करता, परलोक वर्ग सुखके लिए तप नहीं करता; कीर्ति, वर्णन (श्लाघा) के लिए भी तप नहीं करता, और पाप कर्मको बखेरनेवाली निर्जराके अतिरिक्त किसी भी अन्यकारणसे तप नहीं करता, वही तपसमाधिके योग्य होता है । तपसमाधिमें सदैव लगारहनेवाला साधक भिन्नभिन्न प्रकारके सद्गुणोंके भण्डाररूप तपमें सदैव तन्मय होता है। किसी भी प्रकारकी आशा रक्खे विना कर्मक्षीण करानेवाली निर्जरा भावनाके लिए प्रयत्न करे तो तपकेद्वारा वह पुराने पापकर्मीको दूर कर सकता है।
आचार समाधिके चार प्रकार-कोई भी साधक इस लोकके खार्थकी पूर्तिके अर्थ श्रमणके सदाचारोंका सेवन नहीं करता, पारलौकिक
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६६,
वीरस्तुतिः। ... ' खार्थके लिए भी सदाचारों का सेवन नहीं करता। कीर्ति-वर्ण-शब्दके लिए भी साधुके आचारोंका पालन नहीं करता। (अर्थात् ) अर्हन्देवके फर्मानके मुजर्व निर्जराके हेतुको छोड कर किसी भी सार्थके लिए - आचारका पालन न करके मात्र निर्जरार्थ ही आचार पालन करता है। जो साधक दमितेन्द्रिय है, सचरित्रसे आत्मसमाधिका अनुभव करता है, महावीरके वचनोंमें अपनेको अर्पण, कर चुका है, वाद-विवादसे विरत और सम्पूर्ण क्षायिकभावको पाकर जिमका आत्मा मुक्तिके निकट हो जाता है। वह साधक इन चार समाधिओंसे आत्माका आराधक होकर-सुविशुद्ध होकर चित्तकी सुसमाधिकी साधमे लगकर परमहितकारी और अपना एकान्त सुखकारक कल्याणस्थान- खुद ही प्राप्त, करता है। समाधिसे जन्म और मरणके चक्रसे मुक्त होकर शाश्वत सिद्ध होता है । यदि थोडे बहुत कर्म वाकी रहगए हों तो महान् ऋद्धियुक्त उच्च और सर्वोत्तम् कोटिका 'देव' होता है ॥ ३ ॥
आत्मा सुवर्णकी तरह है, आभूषणोंकी तरह वह पर्यायी है, चराचर जगत् और चौरासीलाख जीवयोनि चारगति इसके पर्याय हैं । परन्तु चेतना गुण सवका एक है, समान है, किसीका किसीप्रकारसे अन्तर नहीं है।"
'अपने आत्माको निजखभावमे स्थापन कर, तव सोहं का भास होगा, इस अनुभवके पश्चात् (हंस )परमात्मरूप (खच्छ ) हो जायगा, परभावको छुडाने वाला केवळ-ब्रह्मपदार्थका परिचय पुद्गलपरिणतिका भरम मिटा देगा । इसीका अभ्यास चरित्र-आत्म रमणता है, जो कर्मरजको छानकर आत्मद्रव्यकों पृथक् प्रगट करदेता है।" ____ "इस आत्मामें शब्द-रूप-रस-गंध-स्पर्श-आतप-छाया-अन्धकार-उद्योतप्रभा-आदि कुछ भी नहीं है, और आत्म-अनुभव होनेपर वाह्य पदार्थोंका मोह और ये दश जड वस्तुएँ आत्माके पास कभी फटक ही नहीं सकतीं।" , :
"तथा सुख-दुःख जीवन-मरण-सम्बन्धी अवस्थाएँ इन , १० वाह्य प्राणों के साथ हैं, इनका पवित्र और स्थायी-प्राणोंके साथ कोई सवन्ध नहीं, विनयधर्मकी साधनामें चन्द्रमाके समान उच्च और पवित्र महावीर प्रभु उनसे इस प्रकार भिन्न हैं जिस प्रकार प्रखर कीचड और गंभीर जलसे उत्पन्न होकर कमलदल पानी और कीचडसे अलग रहता है । ७ .
" विनयचंद (कुंभट),
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
-
-
---
-
- 1ि
md
1
*..
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २६१ . महावीर थुई नो गुजराती काव्यानुवाद आज सुधर्मा कहेता प्यारा 'जंबुने, वीरप्रभुना पंचम गणधर धीरजो, संयमसागर शिष्य बडा ते जंबुनी, पूछे गुरुने भ्रम मांगो गंभीर जो। कहो गुरु आ भवसिंधु उतारवा, कोणे आप्यो उत्तम अमने धर्म जो, साधु संघने अन्य पंथना सज्जनो, पूछे आवी धर्म तणो सौ मर्म जो । अनन्य मंगल धर्म दीधो जे व्यक्तिए, ते समजावो टळवा सौ अनर्थ जो, गुरु ज्ञानी छो आप महा आ विश्वमां, तेथी पूर्छ प्रश्न तणोडं अर्थ जो १ कहो खामी ते ज्ञान धरे कइ जातना, कई पंक्तिना तेना दर्शन शील जो, श्रवण कयु के जोयु जे आये प्रभु, बोलो! खोली दिलना द्वार अखिल जो'२ मधुर वाणी आ सुणी सुधर्मा बोलीया, जाणे चाली सुधा शब्दनी धारजो, 'विश्वसकळनो दुःख जाणतो नाथ जे, वीरप्रमु ते आव्या आ संसार जो। कर्मरिपु संहार करी ते पामीआ, अनन्त दर्शन-ज्ञान तणो भंडार जो, सूक्ष्म विषये दृष्टि तेनी स्थिर छे, कुशल प्रभु ते दीप्या जग मोझार जो ३ सर्व दिशामां वसता जे त्रस स्थावरो, मान्या तेने 'नित्य' अने 'अनित्य' जो दुव्य थकी तो मानी तेनी नित्यता, पर्याये तो मान्या छे अनित्य जो। घोर तिमिर जे विश्व महीं व्यापी र, अनन्य दीपक तेहना छे भगवान् जो सर्व जीवोपर राखीने समभावने, अर्पण कर्ता धर्म तणुं तो पान जो ४ सर्वदर्शी सर्व विषयने जाणता, जीत्या चारे मति-श्रुत आदि ज्ञान जो, केवळज्ञानी निज आत्मामां स्थिरते,शुद्धचरितनां गातां जन गुणगान जो सर्वपुरुषमा पुरुषोत्तम ते ज्ञानी छे, परिग्रह केरो सग नहीं तलभार जो, लोक तणा तो भय तेने नहि पामता, जन्ममर्णनो स्पर्श नहीं लगार जो ५ प्रज्ञा तो वहु तीन हती भगवान्नी, बन्धन विण ते करता सदा विहार जो, मवसिन्धुनी पार गया छे खामी,ते, पाम्या,ते श्री अनन्त ज्ञान मंडार जो।
-
AT
A
A
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६२
वीरस्तुतिः।'
'
महातपस्वी तपस्या करता घोरने, सूर्य समुं दीपे छे तेनुं ज्ञान जो, वैरोचनने सूर्यसमा ते चाळता, जगत् महिं जे व्याप्या सहु अज्ञान जो ६ वर्ग महीतो सहस्र देवो शोभता, रूपगुणमां सौथी शोमे इन्द्र जो, सर्वलोकनी शोभा महीं ते शोभता, अतिप्रभावी ज्ञातपुत्र मुनीन्द्र जो। ऋषभ आदि चौवीस तीर्थकर थया, जेथी प्रसर्यो सर्व श्रेष्ठ जैन धर्मजो, जैनधर्मनो नेता ते महावीर छे, काश्यप कुळमांथइने भांग्यो भर्म जो ७ महेरामणनो पार कदी नहीं आवतो, तेम प्रभुनी बुद्धिनो नही पार जो, द्रव्यक्षेत्रने काल-भावना मापथी, अक्षयसागर वीर ज्ञान अपार जो । निर्मल जळ तो महेरामण- दीपतुं, तेम प्रभुनी ज्ञानज्योत झळकाय जो, कषायकापी कर्ममुक्त पाम्या थकी, देवाधिप ते इन्द्र समा लेखाय जो।८ वीर्यवानमा अनन्त वीर्ये शोभता, जे वीर्यनी जगमा छे नहि जोड जो, गिरि वृन्दमां गिरि नहीं मेरु समो, मेरु सम जे शोमे जगमा श्रेष्ठ जो । देव सकळतो मोज माणता मेरु थी, तेम प्रभुथी पामे सौ आनन्द जो, रंग चंदने गुणो रम्य छे मेरुना, गुणो प्रभुना आपे परमानन्द जो ९ गिरिराज ते ऊंचो योजन लाख छे, पृथ्वी परथी सहस्र नवाणुं थाय जो, पृथ्वी तलमां सहस्र योजन एक छे, अति मनोहर कंडक जेने होय जो। ऊपर कंडके पंडकवन विराजतुं, ते तो जाणे ध्वजा गिरिनी थाय जो, गिरिराज एव्यापक छे मध्यलोकमां, ज्ञान प्रभुना एवा व्यापक होयजो१० गिरिराज ते गगन टोचने पहोंचतो, नीचे तो ते करे भूमिमां वास जो, ऊर्ध्व अधोने तिर्यक् लोके व्याप्त छे, विमान ज्योतिप्क फरतुं तेनी पासजो गिरिराजनी ख्याति छे त्रिलोकमां, नन्दनवन तो आव्यां तेमां चार जो अनेक वनना क्रीडास्थल त्यांशोभतां,इन्द्रदेवनी क्रीडानो नहिं पारजो११ देव रमे त्यां सुखविलसे विधविधना,सुंदरध्वनिओ आनंदनी संभळायजो,
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
२६३
प्रतिध्वनि तो 'तेज' थकी पण तीव्र छे, कंचनवर्णी पृथ्वीसम सोहायजो गिरिराजमां प्रतिध्वनि जे थाय छे, एवी प्रभुनी ध्वनि दिव्य संभळाय जो, गिरिराज तो दुर्घट छे सौ प्राणीथी, कंचन रंगी दुर्घट वीर गणाय जो १२ पृथ्वी मध्ये गिरिराज उभो रह्यो, सूर्यकांति सम सोहे पृथ्वी मांय जो, विघ विघ रत्ने रंग चित्र विचित्र छे, सूर्यसमां ते शोभे दशदिश मांय जो । गिरिराज सम ऋषिवर्गमां महावीर, उज्वल मेरुसम शोमे ते अंग जो, मेरु सम ते अष्टलक्ष्मी उपेत छे, स्वयं प्रकाशी बीजो सूर्य निशंक जो १३ . उपमा प्रभुनी मेरु विण ना थइ शके, तेथी गायां मेरुनां गुणगानजो, ए उपमाए वीरप्रभुना गुण तु, समजी लेजे दर्शन शीलने ज्ञान जो, जेवी छे आ जाति-कीर्त्ति मेरुनी, तेवी जाति - कीर्ति प्रभुनी मान जो, गिरिराज तो व्यापक छे मध्यलोकमां, लोकालोके प्रभुनां दर्शन ज्ञानजो, गिरिवृन्दमां निषधसम लांबो नहि, गोळाकारे 'रुचक' विण नव होय जो, नौतम तेवी प्रज्ञा प्रभुनी धारवी, मुनिवर्गमां श्रेष्ठ वीर गणाय जो १५ विश्वधर्ममां जैनधर्म प्रधान छे, दीधुं रुडुं धर्म तणुं ए दान जो; सर्वध्यानमां शुक्लध्यान अति श्रेष्ठ छे, धरता एवु उत्तम शुक्ल ध्यान जो, शुक्लध्यान वळी फीणसमुं छे श्वेत ते, जेवो धोळो शंख बहु सोहाय जो, चद्रसमुं ते उज्वळ निर्मळ मानवु, श्वेत रंगथी वीर शुभ्र गणाय जो १६ वीर महर्षि मुक्तिदशाने पामिआ, परम स्थान ए लोक महिं लेखाय जो, भस्म कर्या छे कर्मरिपुना शेषने, कर्मयोगमां कर्मवीर मनाय जो; क्षायिक दर्शनने क्षायिक चारित्रथी, क्षायिक ज्ञाने सिद्धि पाम्या नाथजो ए सिद्धि तो आदि - अनन्ती जाणवी, विजय कर्यो छे राग-द्वेपनो साथजो; विजय,कर्याथी मोक्ष आदिने पामीआ, वाल्या जेणे सघळां पाप स्थानजो, पापस्थानो फरी सजीवन थाय नहिं, तेथी सिद्धि जम्बू अनन्ती मानजो १७
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६४
वीरस्तुतिः ।
4
वृक्ष महिं तो शाल्मलीने जाणवु, काननमां नहिं नन्दनवननी जोडजो शाल्मलीने नन्दनवनना आशरे, सुपर्ण सरखा देव करे प्रमोद जो शाल्मलीने नन्दनवन तो क्यां मळे, अद्वितीय स्थानो लोक महिं पंकायजो, शाल्मलीने नंदनजेवा जंबूजी, वीर बुद्धिने ज्ञान चरित अंकाय जो १८ शब्दमही तो मेघशब्द क्यांथी मळे ? मेघतणुं तो गंभीरंगर्जन होय जो, ग्रहोमहीं तो चंद्र सम छे ग्रह नहि, मनहर जेनी शीतळता प्रसराय जो; सुगन्धिओमां मळयजसम छे वासक्यां? लोकमहीं ए चंदन श्रेष्ठ गणायजो, मेघ चंद्रने मलयज जेवा जाणवा, मुनिवर्गमां वीरना विरक्त भाव जो १९ सिंधु महीं तो स्वयंभू रमण जाणवो, क्रीडा करता देवी ज्यां सहर्ष जो, भवनवासीमां भव्य नागकुमार छे, भव्यरूपथी मनपामे उत्कर्ष जो; सर्व रसोमां ईक्षुरसने जाणवो, मधुरताथी मनडुं शीतल थाय जो, ईक्षु स्वयंभू देवनाग सम वीरला, वीरप्रभुना प्रधान तप जप होय जो २० हस्ती महिं ऐरावत सम छे हस्ती नहिं, पशु महीं तो सिंहकेसरी एक जो, निर्मळ जळमां गंगाजळने जाणवुं, विहंगोमां गरुड एक निशंक जो; ऐरावत मनगमतीलक्ष्मी लावतो, लाव्या लक्ष्मी त्रिशला घर वीर जोध जो, गरुड - गंगा - ऐरावतने हस्ती सम, मोक्षवादीमां वीरना मुक्ति बोध जो २१ योद्धाओमां वासुदेव मशहुर छे, प्रिय पुष्पमां पंकज सम नव, कोय जो, क्षत्रीओमां चक्रवर्ती प्रधान छे, विरल गुणना विरलां स्थानो होय जो; वासु तणुं वळ अष्टापद वीशलाखनुं, पंकजने छे नवली मीठी वास जो वासु-कमळने चक्रवर्ती सम जाणवा, ऋषिवर्गमां वीर महर्षिखास जो २२ दान महीं तो अभयदानने जाणवुं, सत्य महीं तो 'निर्वद्य' निश्चित जो, सर्व तपो मां ब्रह्मचर्य विशिष्ट छे, आत्मवळनी जागे तेथी ज्योत जो, अभयदानथी दूर जती हिंसा सहु, निरवद्यथी परपीडा नवी थाय जो,
1
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
२६५
ब्रह्मचर्यथी उत्तमबळ तो आवतुं, लोक महीं एम उत्तम वीर मनाय जो २३ सुरपदोमां सर्वार्थसिद्धि श्रेष्ठ छे, सुधर्म केरी सभा अनुपम थाय जो, सर्वधर्म तो श्रेष्ठ मुक्तिने मानता, जीव मात्रनो परम हेतु ते होय जो; सर्वार्थसिद्धिना सुखनी तो वातशी, सौधर्म केरी समा अनेरी होय जो, रतिमुक्तिनी वाणी तो नहिं कहीशके,प्रभुसमा उत्तमज्ञानी नवकोयजो२४ परिषहो तो धरे पृथ्वी सम नाथ ते, पृथ्वीवत् ते सौनो छे आधार जो, अष्ट कर्मने नष्ट कर्या ते खामी ए, कर्यो गृद्धीने अभिलाष संहार जो, पाम्या छे ते ज्ञान महा उपयोगर्नु, प्रयास विण ते जाणे वस्तु रूप जो, अनन्तभवने तरी गयाछे वीर ते, अनन्तचक्षु नित्य अभयस्वरूप जो २५ महारिपुजे आत्मदोष संसारना, क्रोध मानने मोह लोभ पर्याय जो, दूर करीने अर्हत् पदने पामीआ, करे करावे पाप नहीं ऋषिराय जो २६ विध विध पंथो लोक महीं चाली रह्या, क्रियावादीके अक्रियवादी कोय जो रमे कोई अज्ञानवाद के विनय मां सर्व पंथना ज्ञान वीरने होय जो; क्रियावादीनी मुक्ति क्रिया मां रही, अक्रियवादी समजे मुक्ति ज्ञान जो विनयवादितो विनय एज मुक्ति गणे, अज्ञानी तो मुक्ति गणे अज्ञान जो, सर्व पंथने समजीने आ खामीए, विकसाव्यो छे लोक महीं जैन धर्म जो, ज्ञानक्रियामा मोक्ष मानता वीर ते, लीघोसंयम समजाववा सहुमर्म जो २७ मोक्ष तणो मार्ग कह्यो आरीति थी, करी बताव्यो जगने देवा बोध जो, सकल पापने भस्म करीने खामीए, रोक्यो वहेतो कर्मरिपुनो धोध जो; मनुष्य केरा के नरकादिक लोकनां, वीरप्रभुए जाण्या पूर्ण स्वरूप जो, खरूपजाणी लोक अने परलोकनां सर्वलोकने छोट्या छे तद्रुप जो २८ धर्म परूप्यो अर्हते आ प्रेमथी, अर्थ पदोमां केवळ जे निर्दोष जो, सुणीतत्व आ श्रद्धाथी जन पामता,इन्द्र सुखके मोक्ष लक्ष्मी संतोष जो२९
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
-
____ २६६ . वीरस्तुतिः।
परिशिष्ट नं० २-प्राकृतस्तोत्रविभागे .
__ (षड्भापामयं वीरस्तोत्रम् ) विद्यानां जन्मकन्दस्त्रिभुवनभवनालोकनप्रत्यलोऽपि, प्राप्तो दाक्षिण्यसिन्धुः पितृवचनवशात्सोत्सवं लेखशालाम्। ' जैनेन्द्रीं शब्दविद्यां पुरत उपदिशन् स्वामिनो देवतानां, शब्दब्रह्मण्यमोघं स दिशतु भगवान् कौशलं त्रैशलेयः ॥१॥ (संस्कृतम्) : जो जोईसरपुंगवेहि हियए निच्चपि ज्झाइज्जए, .
जो सवेसु पुराणवेयपमिइग्गंथेसु गीइजए । जो हत्थठियआमलं व सयलं लोकत्तयं जाणए, तं वंदे तिजयग्गुरुं जिणवरं सिद्धत्थरायंगयं ॥ २ ॥ (प्राकृतम् ) देविंदाणवि वंदणिज्जचलणा सबेवि सबन्नुणो, संजादा किर गोतमा अवि तया जस्सप्पसादा दुते । सो सिद्धत्थभिहाणमूवदिसदो जोगिंदचूडामणी, भवाणं भवदुक्खलक्वदलणो दिज्जा सुहं सासदं ॥३॥ (शौरसेनी) दुस्टे संगमके शुले भयकले घोलोवसग्गावलिं, कुवंतेवि न लोशपोशकलुशं येणं कदं माणसं; इंदे भत्तिपले ण णेह बहुलं योगीगलग्गामणी, शे वीले पलमेशले दिशतु मे नेडन्तपुन्नत्तण ॥ ४ ॥ ( मागधी) कंपंतक्खितिमंडलं खडहडप्फुटुंतवंभंडयं, उच्छल्लंतमहन्नवं कडयडतुस॒तसेलगयं । पातग्गेन सुमेरुकंपनकरं चालत्तलीलाबलं, वीरस्स पहुणो जिनान जयतु क्खोनीतले पायडं ॥५॥ (पैशाची)
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २६७ इहो वेदणरेसि जासु महया हल्लोहलेणागओ, जज्झाई मुणिहंसओ हियडए अक्खे निरुभविणु, साहु नोप्पिणु जासु कोइ महिमा नो तीरए माणवो, . पाए वीरजिणेसरस्सु नमहं सीसल्लडे अम्हहे ॥ ६॥ ( अपभ्रंशः)
1-7
आसाढे धवलाइ छठ्ठि चवणं चित्तस्स तेरस्सिए, सुद्धाए जणणं सुकिण्हदशमी दिक्खायमगरस्सिरे । जस्सासी वइसाहसुद्धदसमी नाणं जणाणंदणं, मुक्खो कत्ति अमावसाइ तमहं वंदामि वीरं जिणं ।।
कणयसमसरीरं मोहमल्लेगवीरं, दुरियरयसमीरं पावदावग्गिनीरं; सुगहियभवतीरं लोअलंकारहीरं, पणमह सिरिवीरं, मेरुसेलेसघीरं ।।
जय जय जय जणवच्छल ! नवजलहरपवणवणयसमणयण नयणमणपमयवद्धण ! धणकणयलक्खणयसमण ! ॥ १॥ समणमणभसलजलसय ! सयत्थसत्थत्थपयडणसमत्थ ! मत्थयनमंतनर वर ! वरवरयवरंग गयसग! ॥ २ ॥ संगरगररससयगय! गयमच्छर ! रयणमयणदढजलण जलणजलसप्पभयहर! हरहसधवलयरजसपसर ! ॥३॥ सरणपवण्णसरन्नय नयसयगमरम्मसम्ममयसमय ! मयमयगलनहपहरण ! रणरणयभयन्भमसवत्त ! ॥ ४ ॥ वत्तसयवत्तगहवर ! वरकलसलसतसंखचक्कक! कंकफलसरलनयण ! नयपमय असत्तअपमत्त ! ॥ ५॥ मत्तगयगमण! गयमण मणगयसंसयसहस्सतमतवण तवणयप्पहपहयर ! हयतमपरमपयनयरस्स ॥६॥ इय पढमसरनिबद्धं घणक्खरं गहिय मुक्यपयहूं भत्तीए सथवणं रइयं मुणिचंदमुणिणा ॥७॥
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६८ . वीरस्तुतिः। - ...
(वीरस्य चतुस्त्रिंशदतिशयस्तवनम् ) : थोस्सामि जिणवरिंदे, अब्भुअभूएहिं अइसयगुणेहि, ते तिविहा साहाविय, कम्मक्खइआ सुरकया य ॥१॥ देहे विमलसुगंधं, आमयपासेहिं वज्जिअं अरअं, रुहिरं गोक्खीरामं, निविस्सं पंडुरं मंसं 1 ॥२॥ आहारा नीहारा, अदिस्सा मंसचक्खुणो, सययं नीसासो अ सुगंधो, जम्मप्पमिई गुणा एए ॥ ३ ॥ खित्ते जोयणमित्ते, जं जिय- , कोडीसहस्साओ माणं, सबसमासाणुगयं, वयणं धम्मावबोहकरं ॥४॥ पुत्रुप्पन्ना रोगा, पसमंती ईयवयरमारीओ, अइवुट्ठी-अणावुट्ठी, न होइ दुभिक्खडमरं वा ॥ ५ ॥ देहाणुमग्गलग्गं दीसइ, भामंडलं दिणयरामं, एए कम्मक्खइया, सुरमत्तिकया इमे अन्ने ॥ ६॥ चकं छत्वं रयणज्झओ अ, सेयवरचामरा पडमा, चउमुहपायारतियं सीहासण दुंदुही असोगो॥७॥ कंटय हिट्ठा हुत्ता, ठायति अवट्ठियं च नहरोम, पंचेव इदियत्था, मणोरमा हुति छप्पिरिऊ ॥ ८ ॥ गंधोदगं च वासं, वासं कुसुमाण पंचवण्णाणं, सउणा पयाहिणगई, पवणणुकूलो नमंति दुमा ॥ ९॥ भवणवइ-वाणमंतर-जोइसवासी-विमाणवासी-अ, चिट्ठति । समोसरणे, जहण्णयं कोडिमित्तं तु ॥ १० ॥ इंतेहिं जंतेहिं, वोहिनिमित्तं ससयत्थीहिं, अविरहियं देवेहिं जिणपयमूलं सयाकाल ॥ ११ ॥ चव्हा जम्मप्पभिइ, इक्कारस कम्मसंखए जाए, नव दस य देव जणिए । चउतिसं अइएस वंदे ॥ १२ ॥ चउतीसजिणाइसया एए मे वण्णिा समासेणं, दितु मम जिणवसमा सुअनाणं वोहिलामं च ॥ १३ ॥
(पञ्चविंशजिनवाणीगुणस्तवनम् ) जोअणगमद्धमागह सबभासाणुवाइणिं वाणिं, पणतीसपवरगुणकिचणेण थुणिमो जिणंदाणं ॥१॥ मेहमणोहरसुगुहिरनिग्घोसं १ वंस
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
२६९
धंससोहिल्लं, २ मुहुमुहुरमालओसियपमुहरायरायं भवविरायं ३ ॥२॥ सक्कयपमुहसलक्खण, सकारजुअप्पुडक्खरपयाई, गामाण......चउवचारपरं ४ उदात्तसरं ५॥३॥ पडिरवपूरिअगयणंइ ६ सरलणुकूलत्तओ सुदक्खिवणं ७ इअ सत्त सद्दअइसय........सामि जिणवयणं ॥४॥ तह अत्थासय अडवीसअइसयं अप्पगंथसुमहत्थं १ अवाहयाभिधेयं पुवावरचक्क अविरोहा ॥ ५॥ सिद्धत्थसूइसिडें सिहं व............उत्तमाविक्खं ३ परदूसणाविसयओ अवहरिनुत्तराइसया ४ ॥ ६॥ संसय असंभवेणा सदिद्धं ५ सोअजणमणाइहरं ६ देसद्धाइ पत्थावुचिरं ७ उदिअत्यतत्तपरं ८॥ ७ ॥ अविकिण्णपसरित अमसदिद्ध धिकारातिवित्थरविओगा वरसंबंधपसरणा ९ मिहपइवक्काइ, सकंखं १०॥ ८॥ अइमिद्धमहुरिमगुणं सुहियं सबेसिं घयगुडाइव ११ नियविसए कयसोआरलोअवित्थिण्णअच्छरिअं ॥९॥ जमगाइगुणविसेसो अतुच्छ अभिधेअओ वुदारत्थं अप्पयपरभूमि अणुसारि देसणाइहिं अमिजायं ॥ १०॥ तिहुअणपरसंसणिजं परममावेहयं च अविलंब, १७ सथुइपरनिंदरहिअ १८ धम्मत्थव्भासपडिबद्धं ॥११॥ लिंगवयणकालतिए परुक्खपञ्चक्खवकारगाज्झत्थो, उवणयवयणचउक्के अविपरीअत्थं अतुरिअ च ॥१२॥ पत्थिअवस्थिसरूवा चण्णणाणेगजाइ सुविचितं २२ चत्तपयवण्णवकं २३ वयणंतरओ विसेसजुअं ॥१३॥ अभिधेएमणमंती अविन्भमोणादरो अविक्खेवो, किलिकिचिय मिच्छाभय रोसायसुजुगवमसइकरणं च ॥ १४ ॥ इअ विभामाइमणदोसविरहिअं सत्तसाहसोवेअं आ अत्थसिद्धिमच्छिन्नहेउमायासरहिअं २६ च ॥ १५ ॥ इअ सबवयणपणतीसइसयसाहिअवओ जिणो थुणिओ, सद्धम्मकित्तिविजाणंदयरं............हेउगिरं ॥ १६ ।।
-
-
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७०
वीरस्तुतिः। ..
} . 'जियमोहमहावीरो चरमो 'तित्थंकरो' 'महावीरो' । असमसमो असमसमो निरंतरं कुणउ कल्लाणं ॥ १ ॥
श्रीवीरसप्तविंशतिभवस्तोत्रम् तिसलासिद्धत्थसुअंसीहकं सत्तहत्थ कणयनिहं, भवसत्तावीसकहणेणं, बद्धमाणं थुणामि जिणं । नयसारो सुग्गामे पढमे १ वीए भवे पहु ! सुहम्मे २ । तइए मरिइ तिदंडी ३, विणिआइ चउत्थए बमे । ४ ॥ कुल्लागि कोसिअदिओ, पंचमि ५ संसारचउरछठ्ठभवे ६।। थूणाइ पूसमित्तो सत्तमि ७ सोहम्मि अठ्ठमए ८॥ नवमे अग्गिज्जोओ, चेइअगामम्मि ९ दसमि ईसाणे १० । इगदसमि अग्गिमूइ, मंदिरि ११ बारसमि सणकुमारो १२ ॥ तेरसमे १३ सेअबिआ, भारदाओ महिंद चउदसमे १४ ॥ रायगिहि थावरदिओ, पनरसमे १५, सोलसे बंमे । १६॥रायगिहि विस्सभूई, सत्तरसि १७ अट्टारसे महासुक्को १८ गुणचीसे पोअणपुरि, तिविट्ठ १९ वीसे तमतमाए २० ॥ पहु ! इगवीसे सीहो, २१ पंकाइ दुवीसमम्मि २२ तेवीसे । मूआपुरि पिअमित्तो चक्की २३, सोहम्मि चउवीसे २४॥ पणवीसे छत्तग्गाइ, नंदणो २५ पाणयम्मि छब्बीसे २६ । खत्तियकुंडग्गामे, सत्तावीसे महावीरो २७ ॥ मगसिरवददसमि वयं कत्तिअमावसि सिवं सिआसाढे, छट्टि चुई। विसाहदसमी नाणु भवो चिततेरसिए । इअसिरिवीरजिणंदो थुणिओ भत्तिन्भरनमिरदेविंदो, वरधम्मकितिविद्धिं विजाणं देउ मह सिद्धिं ॥
श्रीमहावीरस्तोत्रम् • जइज्जा समणो भयवं, महावीरे जिणुत्तमे । लोगनाथे सयंबुद्धे, लोगतिअविवोहिए ॥ १॥ वच्छरं दिण्णदाणोहे संपूरियजिणासए । नाणत्यसमाउत्ते, पुत्ते सिद्धत्थराइणो ॥२॥ चिच्चा रज्जं च रहेंच,
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २७१ पुरं अंतेउरं तहा । निक्खमित्ता अगाराओ, पवइए अणगारियं ॥३॥ परीसहाण नो भीए, भैरवाण खमाखमे । पंचहा समिए गुत्ते, बंभयारी अकिंचणे ॥ ४॥ निम्ममे निरहंकारे, अकोहे माणवज्जिए । अमाए लोभनिम्मुक्को, पसते छिन्नबंधणे ॥ ५॥ पुक्खरं व अलेवे अ, संखो इव निरंजणे । जीवे वा अप्पडिग्याए, गयणं व निरासए ॥ ६ ॥ वाएवा अपडिबद्धे, कुम्मो वा गुत्तइंदिए । विप्पमुक्को विहंगुब, खग्गिसिंगवएगगे ॥७॥ भारंडे वाऽपमत्ते य, वसहेवा जायथामए । कुंजरो इव सोंडीरे, सिंहो वा दुद्धरिस्सए ॥ ८॥ सागरो इव गंमीरे, चंदो वा सोमलेसए । सूरो वा दित्ततेउल्ले, हेमं वा जायसवए ॥ ९॥ सव्वंसहे धरित्ति ब, सायरिंदुब सच्छहे । सुदु हुअहुआसब, जलमाणे य तेयसा ॥ १० ॥ वासी चंदणकप्पे य, समाणे लेट्टकंचणे । समे पूयावमाणेसु, समे मुक्खे भवे तहा ॥ ११ ॥ नाणेणं दंसणेणं च, चरित्तेणयणुत्तरे। आलएणं विहारेणं, मद्दवेणज्जवेण य ॥ १२ ॥ लाघवेणं च खंतीए, गुत्तीमुत्ती अणुत्तरे । संजमेण तवेणं च, सवरेण मणुत्तरे ॥ १३ ॥ अणेगगुणमयाइण्णे, धम्मसुक्काण झायए । घाइक्खएण संजाए, अणंतवरकेवली ॥ १४ ॥ वीयराएय निग्गंथे, सबन्न सबदसणे । देविंददाणविंदेहि, निवत्तियमहामहे ॥ १५ ॥ सबभासाणुगाए य, भासाए सबससए।जुगव सबजीवाण, छिदिउ भित्तगोयरे ॥१६॥ हिए सुहे अ निस्सेसकारए पाबपाणिणं । महबयाणि पंचेव, पण्णवित्ता सभावणे ॥ १७ ॥ ससारसायरे बुड्डजंतुसताणतारए । जाणव देसियं तित्थं, संपत्ते पंचमि गई ॥ १८ ॥ सेसिवे आलये निचे, अरुये अयरामरे । कम्मप्पवंचनिम्मुक्के, जए वीरे जए जिणे ॥ १९ ॥ से जिणे वद्धमाणे य, महावीरे महायसे । असंखदुक्खा
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७२ ... वीरस्तुतिः। .. ... खिण्णाणं, अम्हाणं देउ निव्वुइं ॥ २० ॥ इअ ,परमपमोआ संथुओ वीरनाहो, परमपसमदाणा देउ तुल्लत्तणं मे,। असमसुहदुहेलं. सग्गसिद्धिमवेसुं, कणयकयवरेसुं सत्तुमित्तेसु, वा वि ॥ २१ ॥", , . __, पयडीव सइ पहाणं, सीसेहिं जिणेसराण सुगुरूणं । । iy वीरजिणथुयं एवं, पढउ कयं अभयसूरीहि ॥ २२ ॥
: परिशिष्ट नं० ३-वीरस्तुतिः-संस्कृतस्तोत्रविभागे ।
नमदमरशिरोरुहस्रस्तसामोदनिर्निद्रमन्दारमालारजोरञ्जिताहे धरित्रीकृतावन वरतम संगमो दारतारोदितानगनार्यावलीलापदेहेक्षितामोहिताक्षो भवान् । मम वितरतु वीर निर्वाणशर्माणि जातावतारो धराधीशसिद्धार्थधाम्नि क्षमालंकृता,-वनवरतमसङ्गमोदारतारोदितानङ्गना
व्व लीलापदे हे क्षितामो हिताक्षो भवान् ॥१॥ समवसरणमत्र यस्याः स्फुरत्केतुचक्रानकानेकपनेन्दुरुक्चामरोत्सर्पिसालत्रयी, सदवनमदगोकपृथ्वीक्षणप्रायशोभातपत्रप्रभागुर्वराराट् परेताहितारोचितम् । प्रवितरतुं समीहितं सार्हतां संहतिर्भक्तिभाजां भवाम्मोधिसम्भ्रान्तभव्यावली सेविता-सदवनमदशोकपृथ्वीक्षणप्रा यशोभातपत्रप्रभागुबराराट्परेताहितारोचितम् ॥२॥ परमततिमिरोग्रभानुप्रभा मूरिमंगेर्गमीरा भृशं विश्ववर्थे । निकाय्ये वितीर्यात्तरा, महति मतिमते हि ते शस्यमानस्य वासं सदा । तन्वतीतापदानन्दधानस्य सामानिनः । जननमृतितरङ्गनिष्पारसंसारनी राकरान्तर्निमज्जजनोत्तारनौर्भारतीतीर्थकृत्, महति मतिमतेहितेशस्य मानस्य वा संसदातन्वती तापदानं, दधानस्य सा मानि. नः ॥ ३ ॥ सरमेसनतनाकिनारीजनोरोजपीठीलठत्तारहारस्फुरद्रश्मिसारक्रमाम्मोत्रहे, परमवसुतरङ्गजा रावसन्नाशिताराति भाराजिते भासिनी हारतारा .
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभोषान्तरसहिता २७३ बलक्षेमदा। क्षणरुचिरुचिरोरुचञ्चत्सटासंकटोत्कृष्टकण्ठोद्भटे संस्थिते भव्यलोकं त्वमम्बाम्बिके, परमव सुतरां गजारावसन्ना शितारातिमा राजिते भासिनीहारताराबलक्षेऽमदा ॥ ४ ॥
वीरस्तवः त्रिजगदीक्षण ! केसरिलक्षण! क्षणमपि प्रभुवीर ! मनोगिरौ । गुणगणान्मम माम विरज्यतामुदयिता दयितादयि तावकात् ॥१॥ भृशमदभ्रमदभ्रमदम्रमप्रथमनः सुमनः सुमनः स्तुतः, असुमतः सुमतः सुमतोऽवदातपरमः परमश्चरमो जिनः ॥ १॥ चलनकोटिविघट्टनचञ्चलीकृतसुराचल ! वीर ! जगद्गुरो! त्रिभुवनाशिवनाशविधौ जिनप्रभवते भवते भगवन् ! नमः ॥१॥ जयति यः सुरसङ्गममानहत् , जगति वीरजिनो जगतीसुहृत् । भवतु भीतिहरो मम सर्वदा, स शरणं शरणं गुणसम्पदाम् ॥१॥
.
.
महानन्दशुद्धाश्रितं देवदेवं, महीनाथसिद्धार्थपुत्रं पवित्रम् । यथाकामितं दत्तवार्षिक्यदान, त्रिकालं स्तुवे श्रीजिनं वर्धमानम् ।। चतुष्षष्ठीदेवेन्द्रयोगीन्द्रवन्ध, सुधाशालिसंशुद्धवाक्यं वरेण्यम् । दयासागरं शुद्धसन्मार्गयानं, त्रिकालं स्तुवे श्रीजिनं वर्धमानम् ॥ अनन्तोत्तरज्ञानचारित्रलीनं, जरारोगसम्मोहसन्तापहीनम् । क्षणोद्भूतनिर्मूलमायावितानं, त्रिकालं स्तुवे श्रीजिनं वर्धमानम् ।। शमखादपाथोधिसंसर्गसक्तं, सदा कर्ममर्मप्रपञ्चप्रमुक्तम् । प्रचण्डप्रतापेन भाखत्समानं, त्रिकालं स्तुवे श्रीजिनं वर्धमानम् ।। मनोहारिकल्याणवर्ण विशालं, विदीर्णान्तरारिप्रणालिं कृपालम् । गभीरं विशालैर्गुणैर्वर्धमातं, त्रिकालं स्तुवे श्रीजिनं वर्धमानम् ।।
वीर. १८
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७४ः . . . वीरस्तुतिः ।.. .
जगज्जीवंसन्दोहजीवादिभूतं, भवम्रान्तिरिक्त नमुन्नाकिभूतम् । 5. लसत्स्वर्गिनिर्वाणलक्ष्मीनिदानं, त्रिकालं स्तुवे श्रीजिनं. वर्धमानम् ॥
इत्थं भक्तिवशेन मुग्धमतिना,श्रीवर्धमानः स्तुतः, प्रोद्यदेहपवि-, त्रकान्तिकलितः श्रीज्ञातपुत्रो जिनः । याचे नैव कलत्रपुत्रविभवं नो काममोगश्रियं; किन्त्वेकं परमोत्तमं शिवपदं श्रीबालचन्द्रार्चितम् ॥ 5. , . , . (वीरजिनस्तवनम् ).. :::
विश्वश्रीद्ध! रजश्छिदे गरिमदुत्यादर्पताशे क्षम,..., . , . "सद्धाचं स्तुवयाश्रवं परिहरन् मासूर्य! दुःखक्षमम् । : .... निस्तन्द्रतिपनवर्स दुरितंसूदारिक्थ ! वीर ! स्थिरं, ...: रम्यश्रीविरसोऽसकामनिकृति मद्रालयं शङ्करम् ॥ १ ॥ ....
., [चतुर्गुनमाडलं चक्रम् ] तनुते यनुर्ति जम्भजिद्रानी मुदिता. द्रुतम् ।.. , तं स्तुवे वीततन्द्राजिभयं भावेन भाखता ॥ २॥ [मुशलम् ] ततयास्तनृणां मुक्त्यै, या नीरक्तनवे नता। .. ताराभार तापास स पाताक्षर रक्ष ताः, ॥३. | , , [शूलम् ] तितकष्टविलीलावलीलाढ्य श्रीवरा रताः ।.... ॥ ताररावश्रुतौ वीर रवीद्धाभ सुरास्तत्रं ॥ ४ ॥ शङ्खः]
तज्ज्ञासदमलेक्ष्वाकुविंशजेयुः शमिंस्तव। ... Di । {१ वरेण्यानन विश्वेश, शरणं शुशुखेच्छवः ॥ ५ ॥ श्रीकरी]
तशमीश..विशस्त्वालमवदन्त घनारवः।".........::. । वघवल्लयां वन्हिवद्यो, वरिवति वशीवरः।। ६...[चामरम् ] । तरणे चिररूढामतमस्मुचिरणादरः ।
रसिकस्तव मयासं, सेवनेऽनंल्पमतिसः॥ ॥ हलम् ]
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २७५ तत्यजेऽत्र तकाश्चण्डपार्श्वमिन्द्रस्तुताहस ।।.- . सर्वदोषैस्तक्षयाशां, शान्ताघ ददतो विशाम्॥ ८॥ [.भल्लम् ] तरीवाचरसि ज्ञानोदारनिःशेषमूस्पृशाम् । .. ... शान्तितुष्टिकरापारभवाब्धौ विश्ववन्दित ॥ ९॥ धनुः । तम्यतिक्रम्यतेऽत्यन्तमोहदुःखमयीशितः । तवेन सेवयाऽवश्यं, भवैः स्थिरशिवस्थितः॥१०॥ [शम्यां खगः] तमहं विनमामीततन्द्र वीर सतां मत । तपो यस्त्वं व्यधा विश्ववित्तं वीतरिपोऽतमः ॥ ११ ॥ [शक्तिः ] तपः शमरमारामतर शं गुणसत्तम । .. . मम गुप्तश्रिताधीश! मरणक्लेशहृदिश ॥ १२ ॥ [छत्रम् ] तविषे लसत्यमोहाशय चारुरुचायशः। शक्राली त्वन्नतेर्ज्ञानभासुराऽपपरा सुमीः ॥ १३ ॥ [रथपदम् ] तवीत्यवीतसाराज्ञा प्राणिनां प्रास्तमीः शुभा । भाराशेऽशेषभावारीन् शिवदा तव रंहसा ॥ १४ ॥ [ पूर्णकलशा ] तत्वसार तरसा ना त्वयि राज्य दधीरसा। .. साराद्भुतेऽमोहंधीरा राज्यते वीर मोदतः ॥ १५॥ [ अर्धनमः ]
तरसाऽस्तमोहत्वेत तत्वेह- प्रशमान्वित.। 2. : तन्विमान्यवनीतात ततानीष्टान्यसारत ॥ १६॥ [कमलम् ] __ तवांही वन्दते साऽनुकम्प यः साऽय भावतः । . . 11; तस्य नानागुणस्याऽन्यो, नभ्यो नोदितैनसः ॥ १७॥ . . [ शरः]
तत्परः सततं शिश्रीवामि त्वां.दारिताहसम् .. . सम्पदादाऽपसंसार, रसाऽसन्तमसामत ॥ १८ ॥.: [त्रिशूलम् ]
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
२.७६ : - - - -, ,वीरस्तुतिः।... , . ,
नमाऽनाश्रितशर्मासु, नेहमन्ददयान्वित । .. । तथा त्वत्तः सुरेश त्वं, केतुबोधिधियं हितः ॥ १९ ॥ [वज्रम्]
यस्तेऽष्टादशचित्रचक्रविमलं वीर.! स्तवं संश्रियं, । भक्त्यैवं कुलमण्डनोऽतत महाज्ञानातनुश्रीशुभ ! ..
मुक्तश्रीयुतचन्द्रशेखरगुरुपाज्यप्रसादादमुं, तं तातात वरः स शान्ततम शं भासा ततः सन्ततम् ॥ २० ॥
[परिधिकाव्यम् ] चक्राऽयोमुखशूलशंखसहिते सुश्रीकरीचामरे,. . सीरं भल्लशरासने असिलता शक्त्यातपत्रे रथः। - कुम्भार्धभ्रमपङ्कजानि च शरस्तस्मात् त्रिशूलाशनी, - '' चित्रैरेभिरभिष्टुतः शुभधियां वीर! त्वमेधि श्रिये ॥ २१ ॥
इति वीरस्तवः
।
. (अथ वीरस्तवनम - - चित्रैः स्तोष्ये जिनं वीरं, चित्रकृत् चरितं मुदा।'
प्रतिलोमानुलोमाद्यैः, खाद्यैश्वातिचारुमिः ॥ १ ॥ .. वन्देऽमन्ददमं देवं, यः शमाय यमाशयः । .. नायेनघ घना येनापाकृता ममताकृपा ॥२॥ . . . . .
[प्रतिलोमानुलोमपादः] दासतां तव भागारा, न चेयायमतामस । . . समतामययाचेन रागाभावततां सदा ॥३॥ [अनुलोमप्रतिलोमः] वरदानवरादिन्व न्वदिरावनदारव। ... , याज्यदेव भयान्यास सन्याया भवदेज्यया ॥[अर्धप्रतिलोमानुलोमः]
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
रिसा।
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २७७ श्रीद वीर विरेभ त्वं दमिताक्ष गताऽशुभ । - - - वीमाक्षमारम्भितारे रक्षं मां सदरं गवि ॥ ५॥ [अर्धभ्रमः ] गीरता जनता रन्हे ! धीरतास्थिरतारसा । सारतारश्रुताऽवन्ध्या, सुरताजनतावकी ॥ ६ ॥ [मुरजबन्धः ] ये पश्यन्ति तवेहास्यारविन्दं भक्तिवन्धुराः। न पतंति भवे शस्यास्ते विदो भगवन्नराः ॥ ७ ॥ [गोमूत्रिका ] नमासाररसामान मारिताक्षक्षतारिमा ।
.. सातामयायामतासारक्षया म महाक्षरः ॥ ८॥ . [ सर्वतोभद्रः] तिर्यगूनरसुराकीर्णा मासतेननते समा । त्वन्माहात्म्यात्कृताश्चर्य या श्रिता ततता श्रिया ।। ९॥ [पदम् ] रेगौरागोरुगीर्गङ्गगौरीगुरुररोगरुक् । गोरंगागाररागारिरैरीरोरै गुरुं गिरिम् ॥ १०॥ [व्यक्षरः ] लाललालोललीलालं ततता ततिता तते । ममाममामममुमाऽननानेनोननानन ॥ ११॥ [एकाक्षरपादः] कककिकाककंकौकः केकाकोकककेकिकम् । कककाकुककोकैकककुः कौकककांककाम् ॥ १२ ॥ [ एकाक्षरः] मरुभूमौ तप ऋताविव चारुसरोवरम् । । कुतः सुकृतहीनानांसुलभं तव शासनम् ॥१३॥ युग्मं असंयोगाक्षरः] सारणिः पुण्यवन्न्याया ज्यायमौक्तिकमुक्तिक (1) कामधेनुनयविदां, बोषोल्लासनसालसा ॥ १४ ॥ . सारं स्याद्वादमुद्रायात्रिपदी भवतोऽजसा । सा मे सुहृदि कान्तैकाखिलेन रहितैनसा ॥ १५॥द्वाभ्यां खगः]
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७८
वीरस्तुतिः ।":..:: श्रीसिद्धार्थकुलव्योमदिवाकर ! निरञ्जन ! ;- - : : न के क्षतैकान्तवादिमतं तीर्थ तव श्रिताः ॥ १६ ॥- [मुशलम् ]
का या त्वयि भव्याली धन्या धत्तेस्म चेतसा । - .. - मता तामरसाकाममकासा गङ्गसागरम् ॥ १७-॥- [त्रिशूलम् ] त्रिशलाकुक्षिपाथोजराजहंस ! जगद्विमो ! -- -- - - - मोगास्तृणमिव त्यक्तास्त्वया मोक्षदिदृक्षया ॥ १८॥ [हलम् ] सुरासुरनरास्तुभ्यं, नमस्यन्ति जिनोत्तम !... मनःप्रसादसन्दर्भ (१) दलिताऽशुभवासनाः ॥ १९ ॥ (धनुः ) कथं कर्तुं जनो मोहव्यपोहमहह क्षमः । . . . . . मनसा सादरं यस्त्वां, न स्तौति तिमिरापहम् ॥ २० ॥ (शरः) बाल्ये मेरुशिरः कम्पसम्पत्प्रथितविक्रमः। .. मनोजाइनोकहळ्याल,! मम खामी भवाऽऽभवम् ॥२१॥ (शक्ति) मानितायक्रमामार रमामाकन्दमाधव! . . . वघमार्गे ममाकास सकामा धीः प्रतानिमा ॥२२॥ [अष्टदलकमलम् ] वन्ययान ! घनखान ! ध्यानमौनकनद्धन! - ज्ञानस्थान ! जिन ! श्रीन! घनमेनः खनख'नः ॥ २३ ॥
... - [पोडशदलकमलम् ] जय हेमवपुः श्रीक ! जगन्मोहापहारक ! ' जराहिवीनसिंहाङ्क ! जन्मनीरधिनाविक ॥ २४ ॥ . . '.),
स्तुत्यनामगर्भ वीजपूरम् ] तुभ्यं नमोऽतुलनयस्थितिकाय भीतिवन्यासुः पावक-! सुरस्तुत ! वीर! नेतः । विद्यालताविपुलमण्डप ! हेमरूप!-- कल्याणधीकरणदक्ष नतेदमीन..॥२५॥", , . , , , , ... [हारवन्धः]
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २७९ : भग्नाकृत्यपथो जिनेश्वरवरो भव्याजमित्रः क्रियादिष्टं तत्वविगानदोषरहितैः सूक्तैः श्रवस्तर्पणः । जन्माचिन्त्यसुखप्रदः सुरचितारिष्टक्षयो वः सदा, . दाता शोभनवादिधीः कजदलायामेक्षणः संविदा ॥ २६॥
[कविनामगुप्तः] श्रीमद्धामसमग्रविग्रह, मया चित्रस्तवेनाऽमुना, . . - नूतस्त्वं पुरुहूतपूजित ! विमो ! सद्य प्रसधैधि माम् । ख्यातज्ञातकुलावतंस ! सकलत्रैलोक्यकप्तान्तरस्फारक्रूरतरज्वरस्मरतरत्संरब्धरक्षारतः ॥ २७॥
वीरस्तवः मुक्तोमन्दोदयो: शमद कलकलाऽऽसातमोहारिदोऽश्री- - -
मुक्तोमन्दोदयो/श मदकलकलासाऽतमो हारिदोश्रीः। . . नीरागो वर्धमानाऽयमहजयभयासामहीनः सुधीरा-. ।
नीरागो वर्धमानाऽयमहजयभया साम हीनः सुधीरा ॥ प्रवरकुण्डनराधिपनन्दनं, वरमहाव्रतपञ्चविकाशकम् । .... कृतसुराधिपमोक्षमहोत्सवं, चरमतीर्थपति सुतरां स्तुवे ॥ १॥
.
.
कणयसमसरीरं मोहमल्लेगवीरं, दुरियरयसमीरं पावदावग्गिनीरम् । सुगहियभवतीरं लोअलंकारहीरं, पणमह सिरिवीरं मेरुसेलेसंघीरम् ।।
त्रिदशविहतमानं सप्तहस्तांगमानं, दलितमदनमानं सद्गुणैर्वर्धमानम् । 'अनवरतममानं क्रोधमत्यस्यमानं, जिनवरमसमानं संस्तुवे वर्धमानम् ।।
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८० - वीरस्तुतिः। - - .:
भक्तितो मतिजुषो भजन्ति थे, वर्धमानमहमानमामि तम् ।
जन्तुजाततमसो निशातनं, वर्धमानमहमानमामितम् ॥ श्रीवर्धमान नतमानमशोध यन्ति, खैरं यशांसि- भुवनं तव शोधयन्ति । बुद्ध्या चकोरनिकरा शतशो धयन्ति, चन्द्र द्युतामपरदेवयशोधयन्ति ।।
मोहादतीतस्य तवेश ! वीर! सुधीर,! सौभाग्यमुदग्रमायात् । मुक्त्यंगनालोभन ! यः स्तुते स्स, सुधीरसौ भाग्यमुदग्रमायात् ॥१॥
(वीरस्य सप्तविंशतिभवोत्कीर्तनस्तवनम् ) पूर्व त्वं नयसारभूपति १ रभू: सौधर्मवृन्दारक २ श्युत्वा नाम मरीचि ३ रत्र सुमनाः खेपञ्चमे ४ कौशिकः। ५ देवः प्राग्दिवि ६ पुष्पमित्र ७ इति यः सौधर्मकल्पे सुरो ८ ऽमिद्योत ९ स्त्रिदशो द्वितीयतविषे १० विप्रोऽग्निभूत्याव्हयेः॥११ गीर्वाणस्तु सनत्कुमारतविषे १२ विप्राग्रणी मतो, भारद्वाजगृही १३ चतुर्थतविषे लेखो १४ द्विजःस्थावरः। १५ नाकी पंचमके सुरालयवरे १६ श्रीविश्वभूतिर्नुपः, १७ शुक्रे निर्जरकुंजरो १८ त्र भरते विष्णुस्त्रिपृष्ठोऽभवः १९॥ सप्तम्यां मुवि नारको २० मृगपति २१ स्तुर्यावनौ नारकी, २२ चक्री च प्रियमित्रकः २३ सुरवरः शुक्रे २४ नृपो नन्दनः २५। श्रीपुष्पोत्तरके विमानकवरे श्रीप्राणतखर्गगेनाकी २६ कीर्तितसप्तविंशतिभवो भूयाः स वीरः! श्रिये ॥ . (त्रिभिर्विशेषकम् )
. (शासनाधीशवर्द्धमानजिनस्तवनम् ) , . 'श्रीत्रैशलय ! श्रितशुद्धजापकलो भवन्तं जिन ! यो जजाप । महामतिरोपितसर्वपापलतो न वंकोऽपि नरः शशाप ॥ १॥ विलासकृद्यस्य
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
२८१
मनस्यपापजनिर्मवान् स्वीयवचांस्युवाप । यतिप्रियः क्षितविश्वतापशिलं वचः शीततम ललाप ॥ २॥ शुभा भवदृष्टिरितानुतापहेला जनं यं भगवन्नवाप । मत्ताशयः कोऽपि न हि प्रलापविपत्तिपत्तिस्तमरिस्तताप ॥३॥ जज्ञे भवान् वीर ! लसत्कलाप! यस्याशये प्रीणितसत्कलाप । कृत्येष्वनैषद्भिवदीयलापतिग्मद्युतिस्तं प्रणताचलाप! ॥४॥ इति मुदितमनस्को मूर्धगाचार्यनामाऽक्षरकमलनिबन्धैर्वन्धुरैः संस्तुतो यः । कमलविजयसङ्ख्यावद्विनेयाणुरेणी, स भवतु मयि “देवो दत्तदृष्टिः सतुष्टिः ॥ ५॥ इति षोडशदलकमलबन्धबन्धुरं श्रीशासनाधीशवर्धमानजिनस्तवनम् ॥
' अनवरतममरनरवरशतनतपदकमलयमल! मलदलन! अतपशदचरणचयमय ! ततरभरधरणधवल ! जय ॥ १॥ जयसरसवचनवशजन ! समधन ! सदवयवसरलकरचरण ! जलजदलनयन ! गतमल! शशधरवरवदन! गजगमन ॥२॥ जय सदय ! सनय ! भवदवकवलन [शमन ] नवजलदसमयसम ! अचलबल ! सकलभयहर! शमदमलयभवन ! जगदवन ! ॥ ३॥ अदमतमकरणगजगणखरतरखरनखरनखरभवधरण! अवतमसमसममघमयमपहर मम समयतपनपद ! ॥४॥ हतसततभवजगमचर मत कर लसदभय दहन कमनग! अपनय मम भवरसमरमशरणजनशरण ! गतमरण! ॥ ५॥ असदयवशभवदवकरगतरसदलपटलहरणखरपवन ! मम वचनमनसमहमहरवतर कनकनगवदतरल ॥ ६॥ जनमथनमदनधनमदफणधरगरलदरदमनपतगवर ! हतशकलमव मम जननजलगतलवणकण्वदमलय ॥७॥ नमदमलनयनकजवनदशशतकरवहलगहनभवदहन ! अकरणगम
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८२ . . - वीरस्तुतिः । ...... परबलरणजयभट! जय परमपदसदन ! इति भक्तिरचित-विमलाक्षरमालया महावीर ! शुभभावदेवसूरिस्तुत ! केवलमक्षरं.देहि ॥९॥ ; त्वया जितान्यदेवर्द्धिर्वर्धमानप्रभावतः । त्वयि देवाधिदेवत्वं वर्द्धमान ! प्रभावतः ॥ १॥ जातलक्ष्मी तमो हाँ, वर्द्धमान ! प्रभो!! दयाम् । देहिमद्य' विधेहि , त्वं वर्द्धमानप्रभोदयाम् ॥ २॥ वीरो , जिनपतिः पातु, तन्वानः काञ्चनश्रियम् । विभ्रन्ननेषु निस्सीर्मा तन्वा नः काञ्चन श्रियम् ॥ ३॥ वरिवस्यति. यः श्रीमन्महावीरं महोदयम् ।। सोऽभुते जितसम्मोहमहावीरं महोदयम् ॥ ४॥ ..
श्रीवीरजिनस्तवनम् जय श्रीसर्वसिद्धार्थ ! श्रीवीर ज्ञातनन्दन ! सुमेरुधीर ! गम्भीर! महावीर ! जिनेश्वरः । ॥ १ ॥ योऽप्रमेयप्रमाणोऽपि, सप्तहस्तप्रमोपित, पूर्णेन्दुवर्ण्यवर्णोऽपि वर्णपर्णसवर्णकः। ॥ २ ॥ सदृशं कौशिके 'शके सर्प च क्रमसंस्पृशिः। पीयूषवृष्टिसृष्ट्या यं, दृष्ट्या - दिष्ट्या. विदुर्बुधाः ॥ ३ ॥ विष्टंपत्रितयोत्संगरंगदुत्तुगकीर्तिना, सनाथं येन नाथेन, विश्व विश्वम्भरातलम् ॥ ४ ॥ यस्मै चक्रे नमः सेवाहेवाकोत्सुकमानसैः । वीराया गतवैराय, मामासुरेश्वरैः ॥ ५ ॥ यस्माहेषादयो दोषाः, क्षिप्रं क्षीणाः क्षमाखनेः । दोषा पूषमयूखेभ्य, इव हर्यक्षलक्षणात् ॥६॥-यदेहातिसन्दोहसन्देहितवपुर्दधौ, रविः खद्योतपोतद्युत्याडम्बर विडम्बनाम् ॥ ७॥ भविनां यत्र चित्तस्थे, स्यु(वृद्धिसिद्धयः। तं वर्धमानमानौमि, वर्धमानसुभावनः ॥ ८॥ इति यस्ते वास्तवं पठति वीर! जिनचन्द्र ! जातरोमाञ्चः । यात्यपवर्ग स द्रुतमखर्वगळरिवर्गजयी ॥९॥
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
-सकलकमलदलंकरपदनयन ! प्रहतमदनमदः! भवभयहरण ! सततमर्मरनरनतपदकमल ! जय' जय गतमद ! मदकलगमन ! ॥ १ ॥ अमलकनकनगवर ! गतरमण ! संतजननमरण ! शमरससदन! श्रमणकमलवनतपन ! गतभव ! भवभयमपहर मम जनमहन ! ॥२॥ अभयद ! भवदरजलधरपवन ! सबलमदनवनदहनजलधर ! व्यपगतमद-! गशधरवर वदन ! जगदघहर ! जय ततनयसमय! ॥३॥ तरलकरणहयवरदमनकर ! कनककजनवकगमन ! वरवचः ! प्रथमपरमपदमपदर - धवलध्वज! धनघनवररव! जनशरण! ॥४॥ परमपद:. रमण! कमनकजरद ! शशधरकरहरनगधवलयशः परमतकजगज ! सकलजनमन. फलकरलसदमरनग! रचय शम् ॥ ५॥
सिरिवद्धमाण सिरिवद्धमाण सिरिवद्धमाण जिणचंद। परमाणव परमाणव परमाणवणंसि वेदिजा ॥१॥ सुहसायर सुहसायर सुहसायर भवसमूहनिम्महण! जयणायग जयणायग जयनायगई निवारिजा ॥२॥ रयणायर रयणायर रयणायर नाणदसणसिरीण, सुरमोहण सुरमोहण सुरमोहणय पयं कुजा, ॥ ३ ॥ सरणागय सरणागय सराणागय वज्जपंजरपइठ्ठ, कमलासण कमलासण. कमलासण सरिसमहहुजा ॥ ४ ॥ सबविजय सबविजय सबविजय थुणियगरिठ्ठपहो, महसययं महसययं महसययं सिवपयं नयसु ॥ ५॥ .
परिशिष्ट नं० ४-हिन्दी कविता विभाग
(महावीर प्रभाती.) .. .. .. . श्रीमहावीरजी कृपा करो अव, मे आधीन तुम्हारा ॥टेका सिद्धार्थराजा के नन्दन, त्रिशला अगज प्यारा! कंचनवरणी काया सोहे, रहे जगत् से न्यारा
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८४ : वीरस्तुतिः ।' - ॥१॥ संयम-लेकर समता कीधी, कर्मकिया छकछारा ! केवलज्ञान प्रकाश भयो जव, लोकालोक निहारा, . ॥ २॥ सुरनर आवें दर्शनपावे, वाणी अमृतधारा । श्रद्धा प्रतीति, प्रकर्ष सुमेधा, नाशे भ्रमंजगसारा ॥ ३ ॥ समवसरणमें साहिव वैठे, और है परिषद वारा । जिन वाणी शुभ अमृत सरंखी, पीवत पीवन हारा ॥ ४ ॥ साधुसम्पदा सुरनर मोहे, क्षमावान् अणगारा । जिनकी करणी अधिक दीपंती, जानत जानन हाराः ॥ ५॥ कर्मउदयघी यहां प्रभु उपन्यो, पाम्यो कलियुगआरा । ज्ञान सुभट भेजो मुझ तारो, तू है तारणहारा ॥ ६ ॥ कर्म जंजीर पडी पग वेडी, चारों चौकीदारा । मोहमतवाल विषयविषफासी, जन्ममरणदुःखमारा ॥७॥ पर उपकारी विरुद तुम्हारा, आप तियां बहु तास्या । केई अपराधी कर्म दूर कर, पहुंचे मुक्ति मंझारा ॥ ८॥ चंडकोशियो नाग उवाखो, और नन्दन मनहारा । नन्दीषण । प्रभो! आप अवधारे, और सिंहा अणगारा ॥ ९॥ अयवंतो जल रमतो तात्यो, तायो मेंघकुमारा । गोशालो ने जयमाली तारे, तारे तीर्थ चारा - ॥ १० ॥ चर्मइन्द्र पर शकइन्द्र कोप्यो, शरणा लिया तुम्हारा । इत्यादिक प्रभु बहुत उभारे, में भी सेवक थारा' ॥११॥ हूं सेवक शरणागत यारे, थे छो साहिव म्हारा । ऋषिलालचन्द कर जोडी वंदे, आवागमन , निवारा ॥ १२ ॥
(महावीर प्रभुकी तपश्चर्या का जोड) गोतमखामी वुद्धि दें निर्मल, आपहि करो सहाय, श्री महावीरजी जेजे तप कियो, तेहनो करूं जी विचार । वली वली वंदु श्रीवीर सुहामणा ॥१॥ श्रीजिनशासन राय, भव दुख भंजन सुख करे सदा, सेव्यां सद्गति थाय, नाम लियां थी पावे सम्पदा, दुर्गति दूर पलाय । वली वली. ॥ २॥ वारा चरसे वीरजीने तप कियो, अने वली तेरे पाख । वे कर जोडी सेवक बीनवे, आगमदे साख ॥ ३ ॥ नव चौमासी वीरजीरा जाणिए, एक कियो छ मास । पाचे उणां वली छमास जाणिए, वारे एक-एक मास ॥ ३ ॥ वहत्तर मास क्षमण जग दीपता,' छ दोय मासी जाण । तीन अढाईमास दोय २ किया, दोय दोढ मासी वखाण ॥ ४ ॥ भद्र-महाभद्र-शिवभद्र जाणिए, दोय-चठ-दस दिन होय । तिणमें पारणो वीरजीने कियो, इम सोले दिन जोय ॥ ५॥ तीन उपवासी प्रतिज्ञा वारमी, वुहा वारे जी वार, दोयसे वेला पीरजीरा गहगह्या,
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
२८५६
आयंबिल उनत्तीस उदार ॥ ६ ॥ नित भोजन वीरजीएं नहीं कयो, न लियो चौथो आहार। थोडो तप बेलो कियो, सगलो तप चौविहार ॥ ७॥ मनुष्य पशु देवे जे दिया, सह्या परिषह ते आप, दोय घडी उपरांत नींद नवी लही, षट् दोय तेरे पाख ॥ ८॥ वीरजी कीधा तीनसे पारणा, अने वली उनपंचास, इण बले खामी केवल पामियो, विचस्या देश मंझार ॥९॥ वारा परिषद नर नारी सामले, वीर तणो समास, शूरवीरोए तप, कियो, षद् ऋतु मन हुलास ॥१०॥ गणधर ग्यारा जाणिए, चवदा सहस अणगार, सहस्र छतीस वीरजी रे साध्वियां, ते प्रण सुखकार ॥ ११॥ लाख श्रावक पडिमाघरें, ऊपर उनसठ हजार, तीन लाख तेहनी श्राविका, अरुपुनी सहस अठार ॥ १२ ॥ धन्य त्रिशलादेवी मातने, धन्य सिद्धार्थ राय, ज्ञातनन्दन धन्य जन्मियां, नाम लिया जाय पाप ॥ १३ ॥ गौतम आदिक सातसो केवली, अजियां चउदासौ सार, निजकर दीक्षित एटला पहुचा मुक्ति मंझार ॥ १४ ॥ (कलश) इम वीर जिनवर सकल सुखकर, एवा दुकर तपकरी । संयम पाली कर्म गाली खामी शिवरमणी वरी । सेवक यूं जंपे वीर जिनवर ! चरण सेऊ तुम तणां । संसार सागर पडत राखो, टालो खामिन् ! दुखमनां ॥ १५ ॥
(दीवाली) पूर्व दिशामें हुई. पावापुरी, धन्य धान्य ऋद्धि समृद्धिसुं भरी, हस्तीपाल बसे तिहा भूपाली, वीर मुक्ति विराजे दिन दिवाली ॥ गौतमने सेवाकी मनमानी, एक रातमें हुए केवल ज्ञानी, चौदाराजु रह्या भाली ॥ वीर० ॥१॥ अठारह राय हुआ भक्ता, दोय दोय पोसा कीना लगता। वीर सन्मुख रह्या निहाली ॥ वीर०.॥२॥ दिन दोयरो संथारो सीझो, सोला पहर लगे उपदेश दीघो। प्रभु मुक्ति गया कर्मने वाली ॥ वीर० ॥३॥ सातसे चेला ने चवदासो चेली, जाने मुक्ति महलमें दिया मेली, ज्यांरा कारा वीज दिया वाली, वीर० ॥ ४॥ प्रभु तीसवर्षवये सयम लीधो, निज आत्म कार्यने सिद्धकीयो, वर्ष वयालिस दीक्षा पाली, वीर० ॥५॥ एक राणी वरी हुई एक बेटी, जिके मुक्तिगया दुख दिया मेटी, जामाता हुओ ज्यारो जमाली, वीर० ॥६॥ प्रभुने एक बहन भने एक भाई, जिके खर्गे गया समकित पाई। श्रावकना
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८६
, वीरस्तुतिः । । । -
व्रत शुद्ध पाली, वीर० ॥ ७ ॥ ऋषभदत्तने देवानन्दा माता, नयणां निरखी पावें साता, दोऊ मुक्तिगए दु.ख दिया टाली,' वीर० ॥ ८॥ सिद्धार्थराज त्रिशला.राणी, साथे संथारोकियो समता आणी, १२ वें देवलोके उपज्या चाली,, वीर० ॥९॥ जिण रातमें वीरे मुक्ति पामी, केवलज्ञान लियो गोतमखामी, 'ज्यारों जापजपो नवकरवाली, वीर० ॥ १० ॥ सुधर्मा खामी हुआ पाट धणी, जारी यशकीर्तिने महिमा घणी, जिनमार्ग दियो उजवाली, वीर० ॥ ११॥ ज्यारे पाटे जंवू वैरागी, आठराणी परणीने,प्रभाते त्यागी । . सोला वर्षांमें काटी कर्म जाली, वीरः ॥ १२॥ आठों भामिनी वैरागे भीनी, प्रातः पियासाथे। दीक्षालीनी,' माता पिताने संयम पण लियो झाली, वीर०
॥१३॥ प्रभव पण राजाजो बेटो, जिणरो जंबू कवर से हुओ मेटो, । । पांचसे सुं वैराग्य पाया तत्काली, वीर० ॥ १४ ॥ वीश जिन सम्मेदशिखर सीझा, मष्टापद गिरनार। दोय सीझा, वासुपूज्य सीझा चम्पा चाली, वीर० ॥ १५ ॥ महावीर गए मुक्ति पावापुरी, कार्तिक वदी अमावस्याने मुक्तिवरी सुनता मणता मंगल माली, वीर० ॥ १६ ॥ दिन दिवालीरोपायो. टाणो; रात्रि भोजन पण नहीं खाणो, ज्यारो जापजपो शीलवतपाली, वीर० ॥१७॥ गुरुचेलारी जोडी सूर्यशशी, ऋषि रायचंद्र कहैं मारे मनमेवसी, युक्तिसे जोड ' जोडी टंकसाली, वीर० ॥ १८ ॥
(दिवालीका दिन बडा). . :- · । दोहा-भजन करो भगवान् का, गणधर गोतम स्वामी; जग प्रगटे तारन तरन, नित उठ! करो।प्रणामि ॥१॥दीवाली। दिन आवियो, राखो-धर्ममें सीर, गोतमा केवल' पामियो, "मुक्ति गये महावीर२ ॥ दीवाली का दिन बडा, मत कर मोटे.पॉफं, निन्दा विक्रया परहरो, करोजिनजीरो' जाप ॥ ३॥ सीवाली दिन आवियो। ॥टेकमा सामायिक पोषध करो, पडिकमणो दोकाल, इमं आतैम उजवालजो झूमत कसे ख्याल.॥ ४ ॥ नव मल्लीने नवलच्छी, देशाअठरानाारस्य, वीर समीपे आविने, दीघा पौषध ठायः ॥१५ कार्तिक
तंदी 'अमावस्या, टाल्या आतम दोष भव जीवांने त्यारने, वीर पहुंता मोक्ष 11॥६॥देवदेवी घणा आविया लागी जगमग ज्योति । अचरज एक.थयो तिहां, ५ - रत्ना तणो उग्रोत ॥॥ मोह क्रमने टालने, ध्यायो शुक्लजः ध्याना अनिल
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
२८७
पणो भायो इस्यो, पाम्यो केवल ज्ञान ॥ ८॥ मोक्ष नगर का दायका, भगवान् श्रीमहावीर, तेहना मुख आगल हुआ, गौतम स्वामी वजीर ॥ ९ ॥ मोटा जिन -शासन धनी, पहोंचा शिवपुर अम । गौतम लब्धि तणा धणी, जगमें राख्यो नाम ॥ १० ॥ तिन कारण मंगलीक दिन, नाम जपो. मनवीर । आरंभ समारम छोडिने, निर्मल पालो शील ॥ ११॥ वार २ मानुष देही, पामसी नहीं रे गवाँर, डोरा डांडा राखडी, मंत्र यंत्र निवार ॥ १२॥ झाडा झपटा मत करो, मत करो'षट् काय घात, चार जाप जपो भला, मोटी दिवाली की रात ॥१३॥ काया रूपी देहरो, ज्ञान, रूप जिन देव, तस सज्झाय शंखझल्लरी, कर सेवा नितमेव ॥ १४ ॥ दया रूपी दिवलो करो, सवर रूपी वात, सिमकित ज्योति उजाली,ने, ज्यों मिथ्या तम नश जात ॥ १५ ॥ संवर रूप करो ढाकणो, ज्ञान रूपी करो तेल, माठ कर्म प्रज्वलित करो, घोर अंधेरो ठेल ॥१६॥ काया हाट तेल जालणो, ज्ञान वस्तु महिं सार, स्मरण करो जिनराजनो वाणिज्य परउपकार ॥ १७ ॥ धीरज मन धर धूपणो, तप कर अगरज खेय, सरघाधूप ज्ञान जल थकी, इम सेवा निजदेव ॥ १८॥ सीमंधर भादि देइने, जघन्य जिनेश्वर वीश, अढाई द्वीपमें परगट्या, उत्कृष्ट एकसो सितेर ॥ १९ ॥ मजन करो भगवान् को, ज्यूं थारो सुधरे काज, काल अनन्त गयो वृथा, अवसर लाघ्यो हाथ ॥ २० ॥ हिंसा से देव राजी हुए, भोला! यह मत भूल, साचोमन नवकारनो, एम चढावो फूल ॥ २१ ॥ दुख. कोईने देणो नहीं, प्रवचन सामो निहार, जिनवरना गुण ग्रूथिने, ऐसी चढाओ माल ॥ २२ ॥ द्वानशील-तप भावना, मनवच काय सुध्याय, ज्ञान दर्शन-चरित्रना, यह तू भक्षत चढाय ॥ २३ ॥ करण करावण अनुमोदना, हणवो जीवन कोय, नव तत्व धारो निर्मला, एहवो नैवेद्य होय ॥२४॥ अवली गतासंसारनी, घन लक्ष्मी को काज। टिचकारा करता थकां, धीठाकूटे छाज ॥ २५ ॥ टिचकारी फरता थकां, दाव पाछा -धीरे जाय, लक्ष्मी इम करता थकां, किम पैसे घर साय॥ २६ ॥ लीपणो ढोलणो मांडणो, करो जीवारो जतन, भव भव माहि. द्रोहिलो,मानवासव रतन - २७: वाणी श्री जिनादेवकी, मुख नेमाडे सत गाय यमाकरजोजुगतास्यु, ज्यों शिवामंगलाथामा२४॥ माख्यो दिवाली दिन मोटको, । वाधे पापना पूर । इमाकरता रे प्राणिया, शिवपुर करे दूर ॥ २९ ॥ ज्ञान रूपी दिवलो.करो, तपस्या कर उज्वोल, नियम ब्रत कर
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८८ : वीरस्तुतिः।' -.. मंडणा, विनय विवेक घी घाल ॥ ३० ॥ क्षमारूपी खाजला करो, वैराग्य घृत । भरपूर, उपशम भौण घालने, शुद्धमन मोतीचूर '॥ ३१ ॥ भाव दिवाली इम करो, उतरो भवजल पार, जप तप सेवा भावसुं, लाहो ल्यो तुमलारः ॥ ३२ ॥ दीवाली दिन जाणिने, धन्य निजघर माहीं, धर्मध्यान मनआदरो, अजर अमर पद पाही ॥ ३३ ॥ पूजे दिवाली ने दिने, वही लेखनी मसीपात, एम ज्ञानने पिण पूजजो, वाधे पुण्यना ठाठ ॥ ३४ ॥ पर्व दिवाली जाणिने, उजलावे घर हाट, इम तुम व्रत उज्वालजो, दीपे अधिकी बात ॥ ३५ ॥ घर कुटुंब धन बालका, जिम वाल्हा लागे तोय, तैसो नेह करो धर्मसुं, ज्यों मुक्ति सुख होय ॥ ३६ ॥ जाग्या थकां खुटका करे, तो वोलो मतिरात, जो असंयति जागसी, करसी छ कायानीघात ॥ ३७॥ ध्यान खाध्याय भली करो, गुणो वोल ने चाल, आजनो दिनछे मोटको, दीवालो मत घाल ॥ ३८॥ पर्व दिवाली जाणने, सार पाशा मत कूट, धर्मध्यान ध्याओ सदा, नफो धर्म नो लूट ॥३९॥ चैत्र सुदी तेरस दिने, जनम्या श्री वर्धमान, कार्तिक वदी अमावस्यां, पाम्या मोक्ष निदान ॥ ४० ॥ मनुष्य जन्म छे दोहिलो, पाम्यो आरज खेत जोग मिल्यो साघा तणो, चेत सके तो चेत ॥४१॥ सेवाकरो सुगुरु तणी, गाओ ज्ञान घन घेर, दोय घडी शुद्ध भावमुं, "नवकरवाली फेर ॥ ४२ ॥ अंग, उपांगने छेदमें, जीव दया व्रत पाल । तातें ऋषि जयमल कहे, इसी दिवालीने मान ॥ ४३ ॥
(महावीर स्तवन) .: वीर जिनेन्द्र शासन धणी, जिन त्रिभुवनखामी । ज्यारे चरण कमल चित नित धरूं, प्रण सिरनामी। सुर स्थिति नगरी पिता मात चिन्ह अवगाहना, वर्ण आयु पुनी कुमरा,पद तपका परमाना । चरित्र वल प्रभु गुण धणा है छठमत्य, केवल 'ज्ञान, तीर्थ गणधर केवली जिन शासन परमाण ॥१॥ देवलोक दशवें वीस सागर पूर्णस्थिति पाए, कुन्डनपुर नगरी में चवी श्री जिनवर आए। पिता सिद्धार्थ पुत्र, मात त्रिशलादेवी नन्दा, जननी कुक्षिमें अवतरे श्रीवीर जिनन्दा । ज्यारे चरण लक्षण सिंहनोए अवगाहना कर सात; तन कंचन करी शोभता, ते प्रणम,जगनाथ, ॥२॥ बहुतेर वर्षनो आऊषो । पायों सुखकारी,, तीसवर्षकेवलंपदे रह्या. अभिप्रह धारी । उपसर्ग परिषहँ सहन करत पुनी शमरस भीनो, अनन्तवली भगवन्त जान वीर नाम जु दीनो,
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
२८९
ज्यारा मातपिता खर्गति लह्याए, पुनी लियो संयम भार। तपसा कीधी आकरी, साढा बारह वर्ष मझार, ॥ ३ ॥ नव चौमासी तप कियो, इक कियो ज्मासी । पांच दिन ऊणा अभिग्रह । षट मास विमासी । एक एक मासी तप कियो, प्रभु द्वादश विरिया। वहत्तर पक्ष दोय २ मास छविरिया करियां। दोय अढाई दिन दोय ए वली डोढमासी दोय । भद्र-महाभद्र शिवभद्र तप करी, इम सोलह दिन होय, ॥ ४ ॥ मिक्खुनी पडिमा अष्ट भकिनी द्वादश कीनी । दोयसे ने गुणतीस छठम तप गिनती लीनी । ग्यारह वर्ष छमास पचिस दिन तपसा केरा । ग्यारह मास उगणीस दिवस पारणा भलेरा । इन विधि खामी तप कियोए पछी उपज्यो केवलज्ञान । तीस वर्ष ऊणां विचरिया, ते प्रणतूं वर्धमान, ॥ ५॥ प्रथम 'अस्थि' बीजो 'चम्पा' दो कहिए, 'वैशाला' ने 'वाणिज' दो मिल। द्वादश लहिए । चतुर्दश 'नालंदे' पाडे 'मिथिला' छभणिया, 'भद्दलपुरमें दोय, सबे मिल अडतिस गिणिया । एक 'मालंभिका' एक 'सावत्थी', एक अनार्य में जाण, चरमचौमासो ‘पावापुरी' जहा पहुंचे निर्वाण ॥ ६ ॥ मुनिवर चवदे सहस, सहस्र छत्तीस आर्यिका, इकलख गुणसठ सहस्रश्रावक, तीनलाखश्राविका, अधिक अठारह सहस ग्यारह गणघर की माला, गोतमखामी शिष्य वडा, सती चन्दनवाला । ज्यारे केवलज्ञानी सातसौ, प्रभु पहोंचे निर्वाण । शासन वर्ते खामीनो, अब्द इकिस सहस्र प्रमाण ॥७॥ पूर्वी तीनसो धार, तेरासौ अवधि ज्ञानी, मन पर्यय पाचसे जान, सातसौ केवलज्ञानी ॥ विक्रिया लब्धिरा जान, सातसो मुनिवर कहिए । वादी चारसौ बडे, भिन्न भिन चरचा लहिए ॥ एकाकी चारित्र लियो, एकाकी निर्वाण । चौसठ वर्ष तक चालियो, दर्शन-केवल ज्ञान ॥ ५ ॥ वारह नरवल वृषभ, वृषभ दश ज्यों ए हय वर, बारह हय एक महिष, महिष पांचसौ सु गयवर। पांचसे गज हरि एक, सहस हरि इक अष्टापद, दश लख अष्टापद एक राम, दोय राम एक वासुदेव । दोय वासुदेव एकचक्री, क्रोड चक्री इक सुर लियो, कोडी सुरां इक इंद अनन्तासुं नहीं नमे, चिट्टी अगुली अग्र जिनेंद्र ॥5॥ आप तणा प्रमु गुण अनन्त, कोई पार न पावे, लब्धि प्रभावे कोडि, काय कोडी सीस बनावे। सिर २ कोडा कोडी वदन, कोड कोड जिभ्यानी, जिभ्या २ सुं कोड २ गुण करे सुज्ञानी । कोडा कोडी सागर लगेए, करे ज्ञान गुण सार । आपतणां प्रभु गुण अनन्त, कोई कहत न आवे जी पार ॥ १० ॥
वीर. १९
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९० . . . बीरस्तुतिः। । ... चवदे राजु लोक भरे वालदा कनियां, सर्व जीवनी रोमराय नहीं जावे गिणिया । एक वाल तप करे, गुण गण करे अत्यन्त, पूज्य प्रसाद ऋषि लालचंद कहे नहीं आवे अन्त । संवत् १८६२ ए-मास जु मृगसिर चंद । स्यामपुरे गुणगाविया, धन २ वीर जिणंद ॥ ११॥ ,
वीरस्तुति-परिशिष्ट नं०५
शान्तरसपूर्ण शान्तिप्रकाशः प्रार्थनाङ्गम्प्रेमसहित वन्दो प्रथम, जिनपद कमल अनूप । ताके सुमरत अधमनर, होवत शांत खरूप ॥१॥ पूर्व नमामि सस्नेहं, जिनातिकमलं शुभम् । यस्य स्मृत्या नरा नीचा, जायन्ते शान्तिरूपकाः ॥ १॥ तुम शरणे आयो प्रभु, राख लेऊ निज टेक। निर्विकल्प मम सिद्धजी, देवो विमल विवेक ॥२॥ शरण ते प्रभो ! प्राप्त., संरक्ष्यो निजभावुक । कल्पनातीतसिद्धेश ! वोध वितर निर्मलम् ॥ २ ॥ करूं वंदना भावयुत, विविध योग थिर धार । रतन! रतन सम देय मुझ, ज्ञान जवाहर सार ॥३॥ । वृत्वा स्थैर्य त्रियोगेण, सभाव प्रणमाम्यहम् । देहि मे रत्न ! विज्ञानं, रमतुल्यं शुभं परम् ॥ ३ ॥ उपाध्याय अध्ययन श्रुति, निशिदिन करत अभ्यास । दीनवन्धु मुझ दीजिए, शम दम ज्ञानविलास ॥४॥ श्रुताध्ययनसनिष्ठा, नित्यमभ्यस्तिसरताः । उपाध्यायाः प्रदत्ताशु, ज्ञानं शान्ति दमं वरम् ॥ ४ ॥ सो साधु वाधा हरो, कर्मशत्रु रणजीत । निपुण जौहरी ज्यो लख्यो, आतम रतन पुनीत ॥ ५॥ कर्मशत्रु रणे जित्वा, दत्तरानिकवन्ननु । आत्मरत्नं शुभं यैस्तु, वीक्षित ज्ञानचक्षुपा ॥ साधवः कृपया ह्याशु, मम वाधा हरन्तु ते ॥ ५॥
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २९१ अधिक प्रिय नव रसनमें, है रस शान्ति विशेष । स्थायी भाव निर्वेदसे, मेटो सकल कलेश ॥ ६ ॥ नवखपि रसेष्वत्र, प्रेष्ठः शान्तो विशेषत । निर्वेदात्स्थैर्यमायातः, कृत्स्नं क्लेशं हरत्वयम् ॥ ६॥ विकलमति अभिलाष अति, कपटक्रिया गुणचोर । । में चाहत कछु शान्त रस, तुमसे करी निहोर ॥ ७ ॥ महेच्छुर्विमति. खामिन् ! निर्गुणो दम्भसंयुत । । त्वां प्रणिपत्य याचेऽहं, किञ्चिच्छान्तं रस प्रियम् ॥ ७ ॥ कापे जाचुं जायकर, तुम सम नहीं दातार । करुणानिधि करुणा करी, दीजे शान्त विचार ॥ ८॥ गत्वाऽहमत्र कं याचे, त्वत्समो नहि दायक. । दयानिधे! दयां कृत्वा, शान्ति मे यच्छ सस्थिराम् ॥ ८॥ में गुलाम हौं रावरो, मेरो विगरत काज । ताहि सुधारे बनि रहे, मेरी तेरी लाज ॥९॥ दासोऽस्मि ते प्रभोऽहं थे, कृत्यं नश्यति मेऽधुना । साफल्ये तस्य मे ते वै, लज्जा स्थास्यत्यसंशयम् ॥ ९ ॥ शान्ति छवि निरखत रहूं, जाचूं नहीं कछु और । अरजी हुकम चढाय द्यो, पस्यो रहूं तुम पौर ॥ १० ॥ नान्यत्किमप्यहं याचे, याचेऽह केवल विभो ! लोकेऽस्मिन्वीक्षण धुत्या, शान्तेरस्तु सदा मम ॥ आवेदने मयाऽऽदेशस्त्वया देय. प्रमो! स्वयम् । भूत्वा चैव कृतार्थोऽहं, द्वारे तिष्ठामि ते सदा ॥ १० ॥ जिहिं गुणतें खुश होहु तुम, सो गुण नहिं लवलेश । तुम चर्णन आश्रित रहूं, सो वुध देहु जिनेश ॥ ११ ॥
प्रसादस्ते गुणेन स्यायेन खल्पोऽपि मे स न ।। ५, मतिर्जिनेश! सा देया, यया स्यां चरणाश्रितः ॥ ११ ॥
तडफत दुःखिया में अति, पलक परत नहिं चैन । । अव सुदृष्टि करि निरखिए, ढीले. रहे बने न ॥ १२॥
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९२
वीरस्तुतिः।
विकलोऽतीव दुःखेन, सुखं प्राप्नोमि न क्षणम् । अधुनेक्ष्य सुदृष्ट्याऽहं, सिद्धिर्नोऽपि क्षणे कृते. ॥ १२ ॥ यह सम्बन्ध भलो बन्यो, हम तुमसौं सर्वश! त्यागे ताहि न संग रखे, पिता पुत्र लखि अश ॥ १३॥ मया त्वया च सर्वज्ञ ! जातः सङ्गः सुशोभनः । नो त्याज्यश्च सदा रक्ष्यः, पित्रेवाऽज्ञोऽपि पुत्रकः ॥ १३ ॥ मेटहु कठिन कलेश तुम, परमातम परमेश । दीन जानिकर बकसिये, दिन दिन ज्ञान विशेष ॥ १४ ॥ परमात्मन् ! परेश! त्वं, क्लिष्टं क्लेशं विनाशय । दीनं ज्ञात्वा च देहि त्वं, नित्यं ज्ञानं शुभं मम ॥ १४॥ कृपा करो निर्बुद्धि पै, लखु जु अनुभव रीति । अशुभ और शुभ देखके, करूं न कवहुं प्रीति ॥१५॥ कुरु कृपां च निवृद्धी, येनेक्षेऽनुभवक्रमम् । वीक्ष्याऽशुभं शुभं चैव, कुऱ्यां नो तत्र सरतिम् ॥ १५ ॥ सव प्रकार धनवन्त हो, सुनहु गरीव निवाज । आरत-रुद्र कुध्यानते, वकसि बकसि महाराज ॥ १६ ॥ शृणु त्वं दीनवन्धोऽसि, सर्वथैश्वर्यसयुतः। आर्ताद्रौद्रात्कुघ्यानाच्च, सद्यो वारय मां प्रभो! ॥ १६ ॥ धर्म शुक्ल ध्यावत रहूं, दोय ध्यान सुखकार।। या जग ममता उदधि ते, दीजे पार उतार ॥ १७ ॥ ध्यायामि सुखदं ध्यान, धर्म शुलं च नित्यगः । निस्तारय विभो ! मां तु, लोकसम्मोहसागरात् ॥ १७ ॥ करुणा करिके मेटिये, विषय वासना रोग । में कुपथी वेदन प्रवल, लखि मत जोग अजोग ॥१८॥ दया विधाय देव ! त्वं, विषयेच्छाभयं हर। ममोन्मार्गस्य सम्वाधो, योग्याऽयोग्यं न पश्य भो ॥ १८ ॥ में गरजी अरजी करूं, सुनिहो जग प्रतिपाल । 'चाह सतावे दास कों, यह दुःख दीजे टाल,॥१९॥
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २९३ निवेदयाम्यहं 'ह्यर्थी, शृणु ? त्वं लोकपालक ! । तर्षस्तु वाधते दासं, दुःखमेतद्विनाशय ॥ १९ ॥ प्रभु तव सन्मुख हो रहूं, जगवू देऊ पूठ । कृपादृष्टि अस करहु तुम, ज्युं भव जावे छूट ॥२०॥ लोक तु पृष्ठतः कृत्वा, त्वत्समक्ष. प्रभो ह्यहम् । स्यामेवं तु कृपादृष्टि , कर्तव्या भवमोचनात् ॥ २०॥ मैंने जे कुकरम किये, दीखत हैं सव तोय । महर करो ज्यूं दीन पे, फेर न दुःख दें मोय ॥२१॥ मया कृतानि पापानि, सर्वाणि देव ! पश्यसि । तथा दीने कृपा कार्या, वाघन्तां नो यथा पुनः ॥२१॥ विपति रही मो घेरके, सुनी न अजहु पुकार ।' मेरी विरियां नाथ तुम, कहां लगाई वार ॥ २२॥ नाधुनाप्यशृणोपिं, विपन्मा परितः स्थिता । मम वारे त्वया नाथ ! विलम्वं क्रियते कथम् ॥ २२ ॥ ऐसी विरियां में किधों, टरि गये दीनदयाल । विना कह्यां कैसे रहूं, अब तो करि प्रतिपाल ॥ २३ ॥ ईदृश्या किल वेलायां, दीनवन्धो ! कुतस्त्वगाः। उक्त्या विना कथं स्थयामधुना रक्ष मा विभो ॥ २३ ॥ जो कहलाऊं और पे, न मिटे मम उर झार। मेरी तेरे सामने, मिटसी मनकी रार ॥२४॥ अन्येनोको न शान्त. स्याञ्चित्तोद्धेग. कथंचन । समक्ष एव चातस्ते, मनोवादो* विनङ्खयति ॥ २४ ॥ दुष्ट अनेक उधार के, थकि रहे किधी दयाल । धीरे धीरे तारिये, मेरो भी लखि हाल ॥२५॥ गतिं ममाऽपि संवीक्ष्य, शनैः सन्तारय प्रभो! उद्धार्याऽनेकदुष्टान्वा, जातः श्रान्तो दयानिधे! ॥ २५ ॥
॥इति प्रार्धनागम् ॥
-
मनका झगडा।
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९४
...
वीरस्तुतिः।
॥ अथ रागनिवारणाङ्गम् ॥ - - अरे जीव भव वन विषे, तेरा कवण सहाय । जाके कारण पचि रह्यो, ते सब तेरे नाय ॥ २६ ॥ भवारण्येऽत्र रे जिव ! सहायः कोऽस्ति ते वद । यदर्थ खिद्यसे नित्यं, तव ते सन्ति नो भुवि ॥ २६ ॥ संसारी को देखले, सुखी न एक लिंगार । अव तो पीछा छोडदे, मत धर सिर पर भार ॥ २७ ॥ पश्य संसारिणं जीवं, न कोऽपि सुखभाग्भुवि । अनुसूतिं त्यजेदानीं, शीर्षे मा धर भारकम् ॥ २७ ॥ . झूठे जगके कारणे, तू मत कर्म बंधाय। ' तू तो रीता ही रहे, धन पेला ही खाय ॥२८॥ मिथ्यासंसारमुद्दिश्य, कर्मवन्धं तु मा कुरु। । रित्तो यास्यसि जीव ! त्वं, भोक्ष्यन्ते हीतरे धनम् ॥ २८ ॥ तन धन संपत् पायके, मगन न हो मन मांय । कैसे सुखिया होयगा, सोवत *लाय लगाय ॥ २९ ॥ तनुं वित्त विभूति च, लब्ध्वा हृष्टस्तु मा भव । वन्हि प्रज्वाल्य शेषे किं, स्थास्यसि त्वं कथं सुखी ॥ २९ ॥ ठाठ देख भूले मति, यह पुद्गल पर्याय। देखत देखत ताहरे, जासी थिर न रहाय ॥ ३० ॥ भूतिं दृष्ट्वा प्रमाद्य त्वं, मेयं जाता तु पुद्गलै । नक्ष्यति पश्यतस्ते वा, न स्थिरेयं कदापि च ॥ ३० ॥ । लूटेंगे ज्ञानादि धन, ठगसम यह संसार । मीठे वचन उचारिके, मिोह फांसी गल डार ॥ ३१॥ प्रियं प्रोच्य गले मोहपाशं क्षिप्त्वा लिमे जना । । ज्ञानादिधनहार ते, करिष्यन्ति प्रवञ्चकाः ॥ ३१॥ . किधों भूत तोको लग्यो, करे न तनक विचार । ना माने तो परखले, मतलवको संसार ॥ ३२ ॥
* पृष्टतो गमनम् । आग।
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
विटोति यहा सारस्वार्थसप्रीत ।
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २९५ भूताऽऽविष्टोसि यद्वा हि, विवेक न करोषि वै। " नो प्रत्येति परीक्षख, संसार. खार्थसङ्गतः ॥ ३२ ॥ काया ऊपर'ताहरे, सवसु अधिकी प्रीत । यातो पहले संवनमें, देगी दगो नचीत ॥ ३३॥ यस्मिन् काये तव प्रीतिरभ्यधिका विशेषत.।। सर्वेभ्यः प्राक् स एव त्वां, प्रवञ्चयिष्यते ध्रुवम् ॥ ३३ ॥ विषय दुःखनको सुखगिने, कहूं कहां लग भूल ।
आंख छतां अन्धा हुआ, जाणपणामें धूल ॥ ३४ ॥ विषयोत्पनदुःखानि, सुखरूपेण मन्यसे । कथं ब्रूयास्तव भ्रान्ति, प्रमादं वा शृणुष्व मो! ॥ नेने सत्यपि चान्धत्वं, घिग्ज्ञानं मम निष्फलम् ॥ ३४ ॥ नितप्रति दीखतही रहे, उद्य अस्त गति भान । अजहुं न भयो शान कछु, तू तो बडो अयान ॥ ३५ ॥ उदयास्तं गति नोर्नित्यशो दृश्यते ध्रुवम् । नो जातं ज्ञानमद्यापि, मूढोऽतीव प्रदृश्यसे ॥ ३५ ॥ किसके कहे नचीत तू, सिर पै फिरे जु काल । वांधे है तो वांधले, पानी पहली पाल ॥ ३६ ॥ निश्चिन्त कस्य चोक्तस्त्वं, काल. शीर्षे तु तिष्ठति । वधान चेदभिप्सा ते, जलात्पूर्व वृति *खल ॥ ३६॥. आया सो सव ही गया, अवतारादि विशेष । तू भी यों ही जायगा, यांमें मीन न मेष ॥ ३७॥ आयातो यो गत. सोऽपि, यवतारादिकोऽपि च । एव त्वमपि याताति, नास्त्यत्र कोऽपि सशयः ॥ ३७ ॥ यह अवसर फिर ना मिले, अपना कारज सार । चुकते नाम चुकायदे, अव मत राख उधार ॥ ३८ ॥ न लब्धावसरो ह्येष, खकार्य सार्धयाऽधुना'। कुरु कृत्यानि सर्वाणि, नावशिष्टं तु रक्ष वै ॥ ३८॥
परितः पालिम् ।।
.
..
',
।
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९६
वीरस्तुतिः। - कैसे गाफिल हो रहा, नेडा आत करार । निपजी खेती देय क्यों, चाटी सटे गवाँर ॥ ३९ ॥ प्रमत्तोऽसि कथं भ्रातरायात्याश्रुतमन्तिकम् । प्रतियच्छसि रोंट्यर्थ *कथं सजातशस्यकम् ॥ ३९ ॥ धर्मविहार कियो नहीं, कीन्हो विषय विहार । गांठ खाय रीते चले, आके जग हटवार ॥ ४० ॥ धर्माचारः कृतो नाऽत्र, विहारो विषये कृतः। लोकापणे समागत्य, मूलाशी रिक्तको गतः ॥ ४० ॥ काज करत पर घरनके, अपनो काज विगार। सीत निवारे जगत्का, अपनी झोपरी वार-॥४१॥ विनाश्य त्वं वकं काय, कुरुषे परकृत्यकम् । कुटी निजा तु सजवाल्य, लोकसीतं व्यपोहसि ॥ ४१ ॥ नहिं विचार तैने किया, करना था क्या काज । उदय होयगा कर्मफल, तव उपजेगी लाज ॥४२॥ आसीत्किं तव कर्त्तव्यं, कृता नाऽस्य विचारणा । कर्मविपाककाळे च, ब्रीडा यास्यसि वै सखे ! ॥ ४२ ॥ झूठी संसारीनकी, छूटेगी जव लाज । तव सुखिया तू होयगा, इनते अलगा भाज ॥४३॥ असत्संसारिभोगाना, यदा नंक्ष्यत्ति वै रुचिः। एतेभ्यस्तु पृथग्भूत्वा, तदा सौख्यमवाप्स्यसि ॥ ४३ ॥ अपनी पूंजी सौ करो, निश्चल कार विहार । वांध्या सोही भोगले, मत कर और उधार ॥४४॥ आत्मीयेनैव वित्तेन, कार्यमाचर निश्चलम् । बद्धमेव हि भुंक्षख, ऋणमन्यत्तु मा कुरु ॥ ४४ ॥ नया कर्म ऋण काढके, करसी कार विहार । देणा पडसी पारंका, किम होसी छुटकार ॥ ४५ ॥ कर्मण नूतनं कृत्वा, यदि कार्य विधास्यसि । ।
उद्धारस्तु कथं भावी, दातव्यं स्यात्परस्य यत् ॥ ४५ ॥ * करपट्टिकार्थमिति भाव.! | मूलद्रव्यं भुक्त्वा ।। , .
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृवटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २९७ विषय भोग किम्पाक सम, लखि दुःख फल परिणाम । जब विरक्त तू होयगा, तव सुधरेगा काम ॥ ४६॥ भोगः किम्पाकतुल्योऽस्ति, तदन्ते वीक्ष्य सङ्कटम् । . विरक्तस्तु यदा भावी, तदा कायं तु सेत्स्यति ॥ ४६॥ एरे! मन मेरे पथिक, तू न जाव वहँ ठोर । वटमारा पांचों जहां, कर साहको चोर ॥४७॥ मम पाथ मनस्त्वं रे! गच्छ मा तत्र कर्हिचित् । दस्यवो यन पञ्चापि, साधु चौरं प्रकुर्वते ॥ ४७ ॥ आरम्भ विषय कषायकों, कीनी बहुतिक वार । कारज कछु सरिया नहीं, उलटा हूवा रबार ॥४८॥ मोगारम्भकषायास्तु, बहुशो विहितास्त्वया । कार्यसिद्धिस्तु नो जाता, जातः प्रत्युत लज्जितः ॥ ४८ ॥ चारों संज्ञामें सदा, सुते निपुण चित्त लाग । गुरु समझावें कठिनसों, उपजे तउ न विराग ॥४९॥ प्रबोधयति सज्ञाभिर्गुरुश्चतसृभिर्बुवम् । शानाय चित्तवैराग्यं, जायते ते तथापि नो ॥ ४९ ॥ खैर हुआ जो कुछ हुआ, अब करनो नहिं जोग । विना विचारे तें किया, ताका ही फल भोग ॥५०॥ अस्तु जातं तु यजातं, प्रमादं नाधुना कुरु । असमीक्ष्य कृतं यत्तु, मुंश्व तस्य फल ध्रुवम् ॥ ५० ॥
इति रागनिवारणाझम्
अथ द्वेषनिवारणाझं कथ्यते बुरो कहे कोऊ तो भनी, तो तू भला जु मान । बूरा मीठा होतहै, सव वनिह पकवान ॥ ५१॥ अप्रिय *वक्ति यस्तुभ्यं, त्व तु जानीहि तत्प्रियम् ।
वूिरा मिष्ठं भवत्यत्र, पक्कानं तेन जायते ॥५१॥ * 'बुरा' इति भाषायाम् । । 'भला इति भाषायाम् । 'बुरा'। इति अन्दस्य दीर्घाकारत्वेन प्रयोगस्तदा भाषाया शर्करापर्याय.।'
।
-
-
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९८ . - वीरस्तुतिः। . .
कटु तीक्षण अति विषभरी, गाली शस्त्र समान । अशुभकर्म गुम्मड भिद्यो, यों जिय सुलटी जान ॥५२॥ कटुस्तीक्ष्णा विषोपेता, शस्त्रतुल्या हि गालिका । श्रुत्वेति तां विजानीहि, स्फोटो भिन्न. कुकर्मजः ॥ ५२ ॥ कटुक वचन कोऊ कह दिया, लगे जु दिलमें तीर । समदृष्टि यों समझले, मोय जान्यो अतिवीर ॥ ५३॥ कटूक्ति परसम्प्रोक्का, वाणवद्भिनत्ति सा। , समदृष्टिर्विजानीयाज्ज्ञातोऽहं वीरमुख्यकः ॥ ५३ ॥ वैरी होता तो कवहु, नहीं कहता कटु वात । सजन दीसत माहरो, रुज लखि कटुक खवात ॥ ५४॥ अभविष्यदयं शत्रु वदिष्यत्तदा कटुः । सज्जनो दृश्यते मेऽयं, कटाशयति रोगहक् ॥ ५४ ॥ अवगुण सुनिके आपणां, रे मन ! सुलटी धार । मो गरीवकों जानिक, लीना वोझ उतार ॥ ५५ ॥ आत्मनो दोषमाकर्ण्य, सत्यं धारय हे मनः । ज्ञात्वाऽनेन तु मां दीनं, शीर्षाद्धारोऽवतारितः ॥ ५५ ॥ में भूल्यो शुभ राहों, इन दई वताय । दुर्जन जानि पेरे नहीं, सजन सो दर्शाय ॥ ५६ ॥ सुमार्गो विस्मृतो नूनं, मया चायं व्यवोधयत् । ज्ञायते दुर्जनो नाय, सज्जनस्तु विलक्ष्यते ।। ५६ ॥ ज्ञान अस्त सूरज हुआ, में भूल्यो निजलाह । निन्दा रूप मसालले, इने दिखाइ राह ॥ ५७॥ अस्तं गते हि वोधार्के, जातोऽहं विस्मृताध्वकः ।। निन्दाप्रदीपमादाय, जातोऽयं मार्गदर्शक ।। ५७ ॥ सुनि निन्दकके वचनकों, चित मति करे उचाट ।
यह दुर्गन्धित पवन अति, वहती कू मति डाट ॥ ५८॥ ; निन्दकोकिं समाकर्ण्य, ग्लानि मा कुरु मानसे। . .
रुन्धि मा, त्वं सखे पूतिगन्धं वातं,समीरणम् ॥ ५८ ॥
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २९९ कुवचन शर क्या कर सके, तू होजा पाषाण । तेरा कुछ विगरे नहीं, वाका ही अपमान ॥ ५९॥ सखे ! पाषाणवद्भूयाः कूक्तिषु. किं करिष्यति । न स्यात्ते कापि वा हानिापमानस्तु तस्य च ॥ ५९॥ कुवचन गोलीके लगे, जो ले मनको मार । - आपही ठंढी होयगी, होजा शीतल गार ॥ ६०॥ कूक्तिगोलीसमाघाते, मन शान्तं करोति यः। भविता सा खयं शीता, शान्तस्त्वं भव हे सखे! ॥६०॥ तैंने ऊपरसों कही, मैंने समझी ठेठ । खटका सबही सिटगया, एक रह गयो पेट ॥६१ ॥ उपरिष्टात्त्वया प्रोकं, तत्त्वं बुद्धं मया किल । चिन्ता कृत्स्ना विनष्टा मेऽवशिष्टा समता खल्ल ॥ ६१ ॥ रे चेतन सुलटी समझ, तेरा सुधरा काज । कुवचन घर वर ताहरी, इणने सौंपी आज ॥ ६२॥ सम्यक् चेतन ! बुध्यख, सिद्ध कार्य तवाद्य वै। तावकः कूक्तिनिक्षेपोऽनेनेदानीं समर्पितः ॥ ६२॥ होगी सोई नीसरे, वस्तु भरी जिहि माहि। . याका गाहक मत बने, तेरे लायक नाहि ॥ ६३ ॥ यस्मिन् वस्तु यदेवास्ति, निस्सरिष्यति तत्किल । नोचितं ते समस्त्येवाहकस्त्वस्य मा भव ॥ ६३ ॥ अपणा अवगुण सुणकरी, मत माने जिय रीस। मनमें तू यों समझले, मुझको देत असीस ॥ ६४ ॥ आत्मदोष समाकर्ण्य, चित्ते खेद तु मा कृथा.। आशिष मे ददात्येष, कार्या चैषा विचारणा ॥ ६४ ॥ , क्रोध अगन दिल मत लगा, सुनि अयथारथ बोल । क्षमारूप जल छिडकिए, नेक न लागे मोल ॥६५॥ असदुक्तं वच. श्रुत्वा, क्रोधामा क्षिप मा मनः। ' सिन्न वारि क्षमारूपं, भवेत्तापो न कवन ॥६५॥ .
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०० ___ वीरस्तुतिः ।।
दुर्जन चुप हो है नहीं, तू तो छिन चुप साध । तृण विन परिहे अगनि कहुं, आपहि होय समाध ॥६६॥ न तूष्णीं दुर्जनः स्थाता, त्वं तु तूष्णीं भव क्षणम् । निस्तृणे पतितो वन्हिः खयमेवोपशाम्यति ॥६६॥ तू तृण सम कटु वचन सुन, क्रोध अगन मत दाझ । उपल नीर सम करहु मन, तव मिलिहै शिवराज ॥६७॥ श्रुत्वा तृणनिभा कूक्तिं, क्रुदग्निं मा प्रदीपय । कुरु नीरसमं खान्तं, मुक्तिराज्यं तदैष्यसि ॥ ६७ ॥ आई गई कर गालिकों, क्रोध चंडाल समान । न तर पिछानि चंडालिनी, पल्लो पकरे आन ॥ ६८॥ उपेक्षख सखे ! गालिं, त्यज कोपं श्वपाकवत् । श्वपाक्यनुगता नोचेद्गृहीता वस्त्रसन्दशाः ॥ ६८ ॥ प्रभु सहाय नहीं होयँगे, रे जिय सांची जान । क्रोध करी ज्युं होगयो, साधु रजक समान ॥ ६९ ॥ ईशोऽपि नो सहाय स्यात्सत्यं मन्यख चित्त! ह । पश्य कोपं विधायैवं, साधू रजकतां गतः ॥ ६९ ॥ , आत्म वस्त्र मेला लखी, इणने दीना धोय। कटुक वचन साबुन करी, निवल जानिके मोय ॥ ७० ॥ निर्वलं वीक्ष्य मामेष, आत्मवस्त्रं सलीमसम् । ककिसाधनेनाऽऽशु, तदधावद्दयाद्रकः ॥ ७० ॥ 'जौहरी व्हैके मति करे, कुंजडी के संग रार। . रतन विखरसी ताहरा, भाजी सटे गवाँर ।। ७१॥ विवादं शाकविकेन्या, रानिकस्त्वं हिमा चर। भविता रत्नविक्षेपो, शाकार्थ मूढ ! सत्वरम् ॥ ७१॥ सालाकी गाली दई, यह विचार चित ठार । भगिनी सम इनकी त्रिया, मोय समझ्यो व्रतधार ॥७२॥ श्रुत्वा शाल्यकगालिं तु, चित्ते चिन्तय तत्क्षणम् । भााखस्वदस्येति, सम्यग्वुद्धं व्रतं मम ॥ ७२ ॥
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३०१ किरतधनी बननो न हाँ, दइ गारि इण मोहि, अस आतम शीतल करौं, मम उधार तब होहि ॥ ७३ ॥ दत्ता मम गालिरेतेन, कृतघ्नो भवितास्मि नो । एवं कुर्या यदा शीतं खं तदोद्धारमाप्नुयाम् ॥ ७३ ॥ गाली एक ही होत है, वोलत होत अनेक । रेजिय! तू बोले नहीं, तो वही एक की एक ।। ७४ ।। गालिरेका प्रतीवादेऽनैका सैव विजायते । विचार्येवं तु मा ब्रूहि, सा स्यादेकैव चित्त! ह ॥ ७४ ॥ अनन्तकाल पहले प्रभु, देख रखे यह भाव । परिहै कटु वच श्रवणमें, ते किम टाल्यो जाव ।। ७५ ॥ प्रागेवानन्तकालाद्वै, जिनो भावं निरक्षत । कटूकिपतनं श्रोत्रे, शक्यं वारयितुं कथम् ॥ ७५ ।
इति द्वेषनिवारणाम्
अथ धैर्यधारणाम् अय दिल चाहे परमपद, उर धीरज गुण धार । निन्दा स्तुति रिपु प्रिय, एक हि दृष्टि निहार ॥ ७६ ॥ निर्बाणेच्छामनस्ते चेत्तदा धैर्घ्यं गुणं धर। निन्दास्तुति रिपुप्रीती, समदृष्ट्या विलोकय ॥ ७६ ॥ धीरज धर भ्रमको तजो, एह पुद्गलको ख्याल । पर परछांही पर रही, तू तो चेतन लाल ॥ ७७ ॥ धेयं धृत्वा त्यज भ्रान्तिमेतत्पुद्गलनाट्यकम् । चेतनोऽसि प्रिय ! त्वं तु, त्वयि विम्वं परं गतम् ॥ ७७ ॥ चञ्चलताको छोडिदे, धीरजकी कर हाट । कर विहार गुण माल को, ज्यू होवे बहु ठाट ॥ ७८॥ त्यक्त्वा स्थैर्य विधेहि त्वं, धैर्यहह सखे ! मम । आद्रियख गुणग्राम, येन सर्व सुख भवेत् ॥ ७८॥
* आत्मानम्।
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०२
वीरस्तुतिः। निजगुणमें जिय ठहर तू, परगुण पद मति धार। पर रमणीसे राचि करि, मत कहलावे जार ॥ ७९ ॥ तिष्ठात्मनो गुणे जीव! 'मा धत्स्वान्यगुणे पदम्। परस्यामनुरतः सन्, भव मा जारशब्दभाक् ॥ ७९ ॥ । तम रजनी नांशे नहीं, दीपककी कही वात । पूरण शान उद्योत विन, हृदय भरम नहीं जात ॥ ८०॥ प्रोक्ता वार्ता प्रदीपस्य, नश्यति किं निशातमः ।। पूर्णज्ञानविभासेन, विना नो याति सम्भ्रमः ॥ ८ ॥ यथालाभ सन्तोष कर, चहे न कछु दिल वीच । या विधि सुख अति अनुभवे,ज्यों न फंसे दुःख कीच ८१ यो यथालाभ सन्तुष्टो, वाञ्छा चित्ते न यस्य वै, . दुःखपङ्के न मानो यः, सोऽतिसौख्यं लमेद्भुवम् ॥ ८१ ॥ मोह जनित दुःख विकल पन, अथवा सुखको रूप । गिने दुहुँ सम धीर धर, तौ न परे भवकूप ॥ ८२ ॥ मोहजदुःखवैकल्यं, यद्वा तन्नसुखं यपि । मन्यते य. समं धीरो, भवकूपे न मजति ॥ ८२ ॥ अपने अपने गुणनमें, थिर हैं सव ही वस्तु । तू पुनि थिर कर अपनकों, तो सुख लहे समस्त ॥ ८३ ॥ सळण्येव हि वस्तूनि, स्थिराण्यात्मगुणेषु च । स्थिरं कुर्यास्त्वमात्मानं, लभेया सर्वसौख्यकम् ॥ ८३ ॥ सुखदुःख दोनों फिरत हैं, धूप छांह ज्यों मीत । हर्प शोक क्यों करहिं मन! धीरज धार नचीत ॥ ८४॥ छायाऽऽतपनिमे मित्र! भ्राम्यते सुखदुःखके । दृष्ट्वा ते कुरुषे कि त्वं, हर्षशोको धृतिं धर! ॥ ८४ ॥ अनहोनी होवे नहीं, होनी नाहिं टलात । दीखी परसी आगले, ज्यों होनी जा साथ ॥ ८५ ॥ अभाव्य नो भवेदत्र, भाव्यनाशो न कहिंचित् । यस्मिन्क्षणे तु यद्भाव्यं, द्रक्ष्यते वा तदाग्रतः ॥ ८५॥
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
३०३
-
-
-
-
HTML
चाह किए कछु ना मिले, करिके जहँ तह देख । चाह छांडि धीरज घरहु, पद पद मिलत विशेष ॥ ८६॥ इच्छयाऽऽमोति नो किश्चित्पश्य कृत्वा तु मानव ! विहायेच्छा कृते धैर्ये, विशेषाप्तिः पदे पदे ॥ ८६ ॥ सुनि उझले मति रे जिया! कर विचार चुप साध । यही अमोलिक औषधि, मेटे भव दुःख व्याध ॥ ८७ ॥ श्रुत्वोत्पत मनो मा त्वं, मौनं धृत्वा विचारय । अमूल्यमौषधं तद्भवतापाऽऽमयाऽपहम् ॥ ८७॥ । रे चेतन! संसार लखि, दृढ कर नेक विचार । जैसी दे तैसी मिले, कूएकी गुंजार ॥ ८८ ॥ चेतन ! वीक्ष्य संसार, कुरु धृत्या विचारणाम् । लभ्यतेऽत्र यथादत्तं, कूपप्रतिध्वनियंदा ॥ ८८ ॥ चञ्चलताको छांडीकै, काट मोह गल फांश । सम दम यम दृढता किये, निज गुण होय प्रकाश ॥८९॥ त्यक्त्वा चापल्यमाच्छिन्धि, गलपाशं च मोहजम् । शमे दमे यमे दाढ्य, कृते स्वगुणभासनम् ॥ ८९ ॥ अभिलाषाको त्यागिके, मनकों रख मजबूत । तव कुछ सूझे अगमकी, यह सांची करतूत ॥ ९०॥ अभिलाष परित्यज्य, मानसं कुरु निश्चलम् । तदायत्यासुकर्तव्यं, द्रक्ष्यते च यथार्थत ॥ ९० ॥ वो तो ह्यां ही वस्तु है, जाकी तेरे चाय । क्षण इक धीरज धारले, सहजे ही मिलजाय ।। ९१ ॥ अभिलाषोऽस्ति ते यस्य, तद्वस्त्वत्रेव विद्यते । क्षणं धैयं कुरु खान्ते, विनाऽऽयासेन लप्स्यते ॥ ९१ ॥ मतकर परगुणमें रमण, ज्यो न लगे गल तोप। निश्चल रह निज गुणनमें, आपही होगी मोक्ष ॥ ९२॥ रमखाऽन्यगुणे मा त्व, येन दोपो भवेनहि । निश्चलः स्वगुणे भूया , खतो निर्वाणमेष्यति ॥ ९२॥ .
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः।
निश्चलतासु होयगा, रे जिय ! ब्रह्म समान । तृण का ही घृत होत है, गाय चरे पय पान ॥ ९३॥ स्थैर्येण भविता जीव! ब्रह्मतुल्यो ह्यसंशयम् । सर्पिस्तेन तृणं स्याद्यद्गौश्वरति जलेन च ॥ ९३ ॥ जो तू चाहे अमर पद, करि दृढता अखत्यार । बाल न वांका होयगा, जीवत ही मनमार ॥ ९४ ॥ यद्यमरपदेच्छा ते, धैर्य्यमङ्गीकुरुष्व वै । जहि मनस्तु जीवद्वा, नैवं केशस्य वक्रता ॥ ९४ ॥ धीरज गुण धारण किये, सव ही दुःख कट जाय । जैसे ठंडे लोहसे, तत्ता लोह कटाय ॥ ९५ ॥ धृतधैर्य्यगुणे सर्व, दुःखं नश्यति सत्वरम् । यथा शीतेन लोहेन, तप्ताऽऽयश्छिद्यते ध्रुवम् ॥ ९५ ॥ जल जिम निर्मल मधुर मृदु, करत तप्तको अन्त । इम धीरज गुण चार लखि, करो ग्रहण बुधवन्त ॥१६॥ निर्मलं मधुरं वारि, मृदुस्तापविनाशनम् । एवं चतुर्गुणं वैये, वीक्ष्य गृहीत वै बुधाः ॥ ९६ ॥ कला घटत अरु वढत है, नहीं शशिमण्डल जान । जन्म मरण गति देहकी, यो लखि धीरज ठान ॥ ९७ ॥ हानिवृद्धी कलायाश्च, नहीन्दुमण्डलस्य वा । देहस्यैवं गतिं जन्म, मृत्युं वीक्ष्य धृतिं धर ॥ ९७ ॥ सुखदुःख दोनों एकसे, है समझणको फेर । एक शब्द दो अर्थ ज्यों, लाख टकेकी सेर ॥ ९८ ॥ सुखदुःखे समे वै तु, वोधभेदस्तु लक्ष्यते । लोके *लाख टकाकी सेरेदं द्वयर्थकवाक्यकम् ॥ ९८ ॥
* “लाख टका की सेर" इदं वाक्यं लोके द्वयर्थकमस्ति, तद्यथा-पणद्वययेन लाक्षा प्रस्थमिता मिलतीति प्रथमोऽर्थः । लक्षसंख्याकपणयुग्मः किधिज्ज्ञानवस्तुप्रस्थपरिमितं मिलति, इति च द्वितीयोऽर्थः।
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
३०५
सुखदुःख दो वेदे मति, वेदे तो सम भाव । जैसे मकरी जालकों, पूरै अरु खा जाय ॥ ९९ ॥ सुखदुःखानुभूति मा, कुरु नो चेत्समानत । लूताजालं यथा पूर्ण, कुरुतेऽश्नासि तच वा ॥ ९९ ॥ समताको धारण किये, क्यों न डटे मन लहर। भरणी सुण २ कर मिटे, स्यांपा हंदा जहर ॥ १००॥ समताधारणे कि वा, मानसोमिने शाम्यति । पश्य सर्पविषं श्रुत्वा, गारुडी नश्यति ध्रुवम् ॥ १०० ॥
इति धैर्याङ्गम्
अथानुभवविचारज्ञानागम् कूकस विषय विकार सम, मति भखि मूढ गवाँर । अनुभवरस तू चाखिले, गुरु मुख करि निर्धार ॥ १०१॥ मूढ ! ग्रामीण ! मा भुत, भोगान्कूर्चकसन्निभान् । गुरोर्मुखात्तु सम्प्राप्य, यनुभूतिरसं पिव ॥ १०१ ॥ किये पाठ अनुभव विना, न मिटे भीतर पाप । वाहर शीशी धोयके, करी चहै तू साफ ॥ १०२॥ अनुभूत्या विना पाठात्पापं नश्यति नान्तरम् । काचकूपी बहिर्धावानिर्मला कर्तुमिच्छसि ॥ १०२ ॥ अल्पभार पाषाणको, जिमलागत जल माहि । तिमि अनुभव विच कर्मको, वहुवन्धन द्वै नाहि ॥१०॥ अल्प एवाश्मनो भारो, यथा तोये प्रतीयते । अनुभूत्या तथा कर्मवन्धो भूरिन जायते ॥ १०३ ॥ मन वच-तन थिरतै भयो, जो सुख अनुभवमाहि । इन्द नरिन्द फनीन्दके, ता समान सुख नाहिं ।। १०४॥ स्थैर्य देहमनोवाचामनुभवे तु यत्सुखम् । तादृक् सुखं न शक्रस्य, मानवेन्द्रफणीन्द्रयो. ॥ १०४॥ अनुभवसौं प्रभु मिलतहै, अनुभव सुखको मूल। अनुभव चिन्तामणि तजि, मति भटके कई भूल १०५ वीर. २०
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः। ..
अनुभूत्याः प्रभोः प्राप्तिः, सैव मूलं सुखस्य चे। त्यक्त्वा चिन्तामणिं मूढाऽनुभूतिं क्वापि मा भ्रम ॥ १०५ ॥ अति अगाध संसार नद, विषय नीर गम्भीर। अनुभव विन पार न लहत, कोटि करहु तदबीर ॥१०॥ भवो नदोऽस्त्यगाधोऽत्र, विषया वहु वारिवत् । कोट्युपायेऽपि पारं नो, यात्यनुभूतिमन्तरा ॥ १०६ ॥ जिहिं विचारतें पाय है, मनकों थिर सुखठौर । ताको अनुभव जानिये, अनुभव नहिं कुछ और ॥१०७॥ मन स्थैर्ये सुखस्थानं, येनाऽऽप्नोति विचारतः। वुध्यखानुभवं तं च, परन्त्वनुभवो न हि ॥ १०७ ॥ विना विचारे ज्ञानके, तू जङ्गलको रोझ । मिथ्या यों ही पचत है, क्यों न करे अव खोज ॥१०८ ॥ . विना ज्ञानविचारेण, आरण्यगवयो ननु । . व्यर्थ खेदमवाप्नोषि, कुरुषे किं न विचारणाम् ॥ १०८ ॥ मन मतङ्ग वश करनकों, शानाङ्कश चित धार । क्षमार्थभसे वांधकर, लजा शृंखल डार ॥ १०९ ।। मनो गजं वशं कर्तुं, चित्ते ज्ञानशृणिं धर। क्षमा स्तम्मेन वध्वा च, क्षिप लजां सुशृङ्खलाम् ॥ १०९ ॥ भ्रमतो मन रवि डाटिले, ज्ञान मुकुरके म्यान । विंदु सुभ उपयोगसे, कर्म तूलकी हान ॥ ११० ॥ भ्रमन्मनो रविं रुन्धि, ज्ञानदर्पणके सखे ! विन्दुना सूपयोगेन, कर्मतूलविनाशनम् ॥ ११०॥ . , सीसा सम संसार है, गुरु कृपा आदित्य । . . ज्ञान नेत्र विन किम लखे, आपनपो सुपवित्र ॥ १११॥
संसारो दर्पणामस्तु, भास्करोऽस्ति गुरोः कृपा। विशुद्धात्मत्ववोधस्तु, ज्ञाननेत्रं विना न हि ॥ १११ ॥ विपय-वासना करत जो, आवे ज्ञान जगीश । , शठका उन समयमें, छिनमें होय छत्तीस ॥ ११२ ॥
।
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
३०७
मोगाना वासनाया चेज्ज्ञानमुद्दयोतते सखे ! ।।... सद्यस्त्रिषष्टिसङ्ख्याया., षट्त्रिंश जायते ध्रुवम् ॥ ११२ ॥ जो तू चाहे ज्ञान सुख, तो विषियन मनफेर । और ठौर भटके मती, अपने ही में हेर ॥ ११३ ॥ व्यावर्तय मनो भोगाद्वोधसौख्यं यदीच्छसि। रे रे ! त्वं भ्राम्य माऽन्यत्र, तदाऽऽत्मनि च मार्गय ॥ ११३ ॥ ज्ञानरूप दीपक कने, न वचे फर्म पतङ्ग। जो रहे तो दोनोनमें, झूठो एक प्रसङ्ग ॥११४ ॥ अन्तिके ज्ञानदीपस्य, नो कर्मशलभ स्थिर.।। तिष्ठतो यदि तौ द्वौ वा, मृर्षकस्तु प्रसङ्गक ॥ ११४ ॥ शान सञ्चरे जिहि समै, न रहे कर्म समाज । और न पंछी डट सकै, जहां वसेरा वाज ॥ ११५ ॥ यदा सञ्चरति ज्ञानं, कर्मजालं तु नो तदा। श्येनवासो मवेद्यत्र, तत्र तिष्ठन्ति नो खगाः ॥ ११५ ॥ घर नहिं छूट्यो एकसौं, छूट्यो कर्म कुढंग । ज्ञान तणे सत्सङ्गथी, देखो ठाणायंग ॥ ११६ ॥ गृहं त्यकं न चैकेन, त्यक्त कर्म तु कुत्सितम्। ' सत्सङ्गोत्पन्नवोधेन, पश्य स्थानानसूत्रकम् ॥ ११६ ॥ क्षण इक ज्ञान विचारले, विषय दृष्टि का फेर। मेरी मेरी त्यागदे, यों होवे सुरझेर ॥ ११७ ॥ भोगादृष्टिं परावृत्य, क्षणं चिन्तय वोधकम् । त्यज सद्यो ममत्वं च, सर्व सम्यग्भविष्यति ॥ ११७ ॥ आठ पहर ढिंग राखले, शान सरूपी ढाल । मोह अरीके विषय शर, लगे न ताकी भाल ॥ ११८ ॥ संरक्षाष्टासु यामेषु, ज्ञानरूप तु चर्मकम् । विषयेषुन-मोहारेमस्तके न लगिष्यति ॥ ११८ ॥ माया मोह निवारके, विषयनसौं मनखींच - जो सुख चाहे आपणा, तो रहो ज्ञानके वीच ॥ ११९ ॥
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०८
वीरस्तुतिः ।
मायामोहं निवाय्य विषयेभ्यो मनो हर। वान्छस्यात्मसुखं चेद्धि, ज्ञाने विहर मे सखे ! ॥ ११९ ॥ मेद लहे विन शानके, मत भूसे जिम खान । लोग गडरिया चाल तज, आपनपो पहिचान ॥ १२० ॥ मा कुरु भषणं श्वेव, ज्ञानमेदाप्तिमन्तरा। लोकमेषीगतिं त्यक्त्वा, खात्मानं परिवोधय ॥ १२० ॥ कामधेनु अरु कल्पतरु, इण भव सुख दातार । इणभव परभव दुहुनमें, ज्ञान करत निस्तार ॥ १२१ ॥ कल्पद्रुः कामधेनुश्च, लोकेऽत्रैव सुखप्रदौ। निस्तारयति वोधस्तु, जगत्यत्र परत्र च ॥ १२१ ।। जगत् मोह फांसी प्रवल, कटन और उपाय । सत्सङ्गति कर ज्ञानकी, सहज मुक्ति हो जाय ॥ १२२ ॥ मोहपाशो दृढो लोके, च्छिद्यते नान्ययत्नतः। कुरु बोधस्य सत्सङ्गं, मुक्ति. स्यात्स्वयमेव हि ॥ १२२ ॥ विच पारस अरु शानके, अन्तर जान महन्त । यह लोहा कञ्चन करत, वह गुण देय अनन्त ॥ १२३ ॥ पारसाश्मनि वोधे च, जानीहि महदन्तरम् । लोहं स्वर्ण करोत्येव, स त्वनन्तगुणप्रदः ॥ १२३ ॥ प्रथम ज्ञान पीछे दया, यह जिनमतको सार । शान सहित किरिया करूं, तव उतरूं भव पार ॥ १२४ । जैनसिद्धान्तसारोऽयं, पूर्व ज्ञानं ततो दया । सज्ञाना चेत्किया कुर्या, तदा स्या भवपारगः ॥ १२४ ॥
अथोपसंहारः अति आलस परमादियो, भन्जुलाल मुझ नाम । शानोद्यम कछु ना वने, किम सुधरे मुझ काम ॥ १२५ ॥
अहं च भजुलालाख्य , प्रमत्तश्च सुसायकः। . . ज्ञानोद्यमो न मे कश्चित्कथं कार्य तु सेत्स्यति ॥ १२५ ।।
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
दर्शन पुनि निश्चल नहीं, नहिं निश्चल चरित्र । मन भ्रमतो निशिदिन रहे, नहिं ठहरे एकत्र ॥ १२६ ॥ सम्यक्त्वं निश्चलं मे नो, चारित्रमपि नैव च । नित्यं भ्राम्यति चित्त तु, तदेकत्र न तिष्ठति ॥ १२६ ॥ ऐसी करी विचारणा, रे जिय ! अवतो चेत । चार वरण गुरु 'रतनजी', ऐसो करि सङ्केत ॥ १२७ ॥ एवं जाते विचारे तु, चेत जीव ! किलाधुना। चतुर्वर्णगुरु 'रतनजी', सङ्केत कृतवानिमम् ॥ १२७॥ चार वर्ण गुरु 'रतनजी', तास मेद चौवीस । तामें भेद जु तेरवें, करी ज्ञान वकसीस ॥ १२८ ॥ चातुर्वर्ण्यगुरू 'रतनजी', तद्भदा युगविंशतिः । त्रयोदशे तु मेदे च, ज्ञानदानं व्यधादसौ ॥ १२८ ॥ ज्ञान पाय हुलसी मती, शुक्ला छठ मधुमास । संवत् रस अग्नि के भू, रच्यो शान्ति परकाश ॥ १२९ ।। ज्ञानं प्राप्य मतिर्दृष्टा, रसाऽग्नयकेन्दुरब्दके। सिते षष्ठ्या मधी “शान्तिप्रकाशो" रचितो मया ॥ १२१ । '
आशिर्वचनम् अरिहंत-सिद्ध-गण-ईशजी, उपाध्याय सव साध। पंच परमगुरु दीजिये, निर्मल शान समाध ॥ १३० ॥' अर्हन्सिद्धोऽथवाऽऽचार्य, उपाध्यायो मुनिस्तथा ।
पञ्चैते गुरवो दद्यु., शुद्धबोधसमाधिको ॥ १३० ॥ इति श्रीमजैनाचार्यभजुलालकृतशान्तिप्रकाशः समाप्तः॥ .. ( "सुसंस्कृतानुवादस्तु, कृतः पुष्पेन्दुभिक्षुणा - शान्ते वीररसं प्राप्य, मोक्षः सञ्जायते ध्रुवम्"
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनेशं नितिक परम् । समावर्धमानं जिनम् Mव्यानां हितहे
३१०
वीरस्तुतिः। - वीरस्तुति-परिशिष्ट नं०६
वीरस्तु भगवान्वयम् जैनेशं निखिलाऽमराऽऽनुतपदं सर्वान्तरायापहं, हार्दध्वान्तरविं च योगसदनं श्राद्धैकगम्यं परम् । ससारार्णवपोतमत्र निखिलाऽऽनन्दालयं तापहं, ध्यायेऽहं मनसा धिया च सततं श्रीवर्धमानं जिनम् ॥ १॥ महावीरंनमस्कृत्य, स्याद्वादगी.पतिं जिनम् । निगदे तज्जन्मवृत्त, भव्यानां हितहेतवे ॥१॥ भवार्णवोद्धारकरः, श्रीवीरभगवान् प्रभुः । पवित्रं शासन यस्य, तदुत्याने मनोsपय ॥२॥ अतश्च शासनोत्थाने, भवन्त. पक्षपातिनः । सम्बन्धादिति विज्ञेयाश्चोत्थानस्तवके मुदा ॥ ३ ॥ सज्जितं भाविखोत्यानकुसुमं खवशं नय । सम्भवेऽस्ति त्रिरत्नादिजलसेचनकैरपि ॥ ४ ॥ खल्पत्वादुपचारस्य, चास्मिनुत्थानरूपके । सौरभाभावहेतोश्व, मनो मधुकरो न हि! ॥५॥ भवल्लोभगतं चेदं, निशामय ततः परम् । स्तवकस्य प्रभावेण, हठात्ववशमानयेत् ॥६॥ कृपाकटाक्षं जानीत, भगवत्तत्त्वचिन्तका । अस्त्वेतावन्न चैतस्य, खल्पत्वं किञ्चिदस्ति हि ॥ ७ ॥ अस्य विश्वासमात्रेण, प्रयत्ने करणे पुनः । साहसत्वं न सबातमस्मिन्नवसरेऽपि न ॥८॥ शासनोत्थानपुष्पान्तर्गतो निरतिशायकः। मकरन्दः कियानस्ति, प्रोत्थानरूपपुष्पके ॥९॥ 'वीरस्तु' भगवान् खय'मिति खादे रसस्य हि । अभिलाषो यदोत्पन्नस्तदा पाठकसङ्घका ॥ १० ॥ किश्चिद्धारय धैर्य्य तु, मत्तः सर्व प्रयासतः। निवन्धस्यास्य सम्बन्धे, कथनीयं कियन्मया ॥ ११॥ प्रथमं प्रतिपाद्यस्य, विषयस्येदमस्ति हि । सिद्धि प्रमाणतो ज्ञेया, सिद्धान्तस्येति सम्मतम् ॥ १२ ॥ सौत्र-सिद्धान्त-शास्त्रस्य प्राचीनेयं सुपद्धतिः । जनशास्त्रेषु सूत्रेपु, मुख्यत्वेन सुवर्णितम् ॥ १३ ॥ 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं' च, प्रत्यक्षतरमेदतः । द्विविधं शास्त्रतो ज्ञेय, श्रुतिज्ञानादि भावय ! ॥ १४ ॥ अवधिमन पर्यायावेकदेशप्रत्यक्षको । केवलं सर्वप्रत्यक्ष, परोक्षे मतिश्रुतेऽपिच ॥ १५ ॥ इति नीत्या सुविज्ञेयं, प्रमाणद्वयसम्मतम् । प्रत्यक्षं च परोक्षं वा, नान्यदस्ति पृथक् पुनः ॥ १६ ॥ एतद्वयप्रमाणे वै, अन्तर्मावोऽन्यकस्य हि । अतर्वतद्धयस्यैव, निवन्धेऽस्मिन्नियोजनम् ॥ १७ ॥ हि केषांचिन्मते न स्यादेतयोरन्तरं पुनः । मान्यतयाऽनयाभावे, वार्ता किं वहुलेखतः ॥ १८॥ सुसकेतोपलब्धिभ्या, शंका विषयजा पुनः । निवा
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३११ रणीया यत्नेन, नात्र कार्या विचारणा ॥ १९॥ वार्ताऽन्याप्यस्ति चात्रैव, लेखवृद्धिः प्रजायते । वास्तवज्ञानशून्यं स्यात्काठिन्यं विदुषा भवेत् ॥ २० ॥ इति शंका भिया नैव, प्रत्येकविषयस्य हि । प्रमाण स्पष्टरूपेण, न निर्दिष्टमिह स्फुटम् ॥२१॥ जिज्ञासूनां विजिज्ञासा, दृढाय ह्यनुरूपतः। तदा तेषां विनिर्देशोऽवश्यं स्यात्प्रकटं पुनः ॥ २२ ॥ हेतुस्तृतीयो ज्ञातव्यो, विवेचनमवाप्स्यति । प्रस्तुतविषयस्यापि, *सम्प्रदायानुसारतः ॥ २३ ॥ लक्ष्ये विशेष संस्थाप्य, सूक्ष्ममात्रकदृष्टित. । प्रत्येकस्यात्र लेखस्याऽनुभवाच्छास्त्रतस्तथा ॥ २४ ॥ सर्वसिद्धान्ततः सार्वभौमस्य व्याप्तिरूपतः। अस्ति सम्भावना चास्य, ज्ञानं सम्यक्त्वपूर्वकम् ॥ २५ ॥ कस्यचिद्धतुतश्चित्ते, शङ्कोत्पत्तिर्भवेन हि। विचारानन्तरं तेषा, शङ्का स्यानिलिका ॥ २६ ॥ सर्वत्र मेऽस्ति विश्वासो, नैवं शंका कदापि हि । चतुर्थी च सुवार्तेयं, कस्याऽपि विषयस्य च ॥ २७ ॥ प्रतिपादयितुं शश्वत्कयापि भाषया भवेत् । चतुर्विधत्वं सामय्या, अपेक्षा जायते ध्रुवम् ॥ २८ ॥ विज्ञेया सा च सामग्री, निम्नलेखक्रमेण च । निर्णयस्तत्वसंघाना, प्रथमानुयोगरूपतः ॥ २९ ॥ विचारार्थं च वस्तूनां, साक्षाद्विषयवर्णनम् । कथनोपकथनाचेति, नान्यो हेतुर्मनागपि ॥ ३० ॥ शास्त्रे पूर्वानुयोग च, धर्मकथानुयोगकम् । कथ्यतेऽत्र विचारेण, तत्वज्ञानार्थिभिर्मुदा ॥ ३१॥ "धर्मार्थकाममोक्षाणामुपदेशसमन्वितम् । पूर्ववृत्तकथोपेतमितिहास प्रचक्षते" ॥ ३२ ॥ दृष्ट्यैतयेतिहासोऽपि, चेतसा कथ्यतेऽधुना । स्थानाझेऽपि कथा सेयं, चतुर्धाऽभिनिगद्यते ॥ ३३ ॥ मुख्य फलं कथायाश्च, तत्वनिर्णयमेव हि । य शब्दो यत्परश्चास्ते, तदर्थोऽपि स एव हि ॥ ३४ ॥ लक्ष्ये धृत्वा पदार्थ यं, शब्दस्य कस्य चैव हि । प्रयोगं यदि कुर्वीत, स शब्दश्वार्थवान् भवेत् ॥ ३५॥ सर्वेषा सम्मतं चेदं, सिद्धान्तं सस्फुट सदा । तदा सम्पद्यते भाव , सर्वत्रैवं विचारय ॥ ३६॥ वका बोधयितुं यं हि, वाञ्छयोचार्य्यवेडसकृत् । श्रोत्राऽपि शब्दः स एव, ज्ञायतेऽर्थसमन्वित. ॥ ३७ ॥ ततोऽन्यार्थप्रतीतेश्च, श्रोतुर्भवति विभ्रम. । भोजनावसरे यद्वत्सैन्धवेति पदात्ततः ॥ ३८॥ जन्यते लवणाऽऽबोधो न चान्योऽर्थोऽप्रतीयते । प्रस्थाने हयबोधश्च, तद्वलक्ष्ममधारय ॥ ३९ ॥ श्रोत्रैवं सुविचाऱ्यार्थो, नान्योऽर्थ. प्रतिपद्यते । अवोधार्थज्ञापकत्वे, सति शास्त्रप्रमाणकम् ॥ ४० ॥ प्रमाणं तु तदैतत्स्यात्प्रमाण
* गुरुप्रदत्तज्ञानानुभवानुसारत इत्याशयः ॥
-
-
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१२ । वीरस्तुतिः। विषयस्य च । वास्तविक च *सत्यं च, येन ज्ञानं प्रजायते । आत्मानन्दे परं योऽर रमतेऽहर्निशं पुमान् । तत्पदाम्भोजयुग्मेऽस्तु त्रिकालं मम वन्दना ॥ ४१ ॥ अस्यालौकिकविश्वस्य, दृष्टंसदृश्यमुत्तमम् । स्फुटं विज्ञायते विश्वं, विश्वमानन्दपूरितम् ॥ ४२ ॥ आनन्दापेक्षया विश्वे, विश्वस्मिन्नकताऽस्ति च । जगतो हि जगद्धर्मो भिन्नभावं गतोऽस्ति न ॥ ४३ ॥ एकैकप्राणी विश्वस्याऽस्त्यानन्दमय एव हि । अस्त्यानन्द प्रियस्तेषामतस्तत्तृषितस्तथा ॥४४॥ अधिगन्तुं तमानन्दं विश्वधर्मा हि साधनम् । तान् धर्मान् प्राणिनो नैजान- , न्दायैवोदपीपदन् ॥ ४५ ॥ आनन्दापेक्षया सन्ति, प्राणिनः सदृशाः समे। व्यक्तित्वापेक्षया किन्तु, नरा उत्कृष्टप्राणिन ॥ ४६ ॥ आनन्दस्याभिवृष्यर्थ, मानवा सुमनोहरान् । आकर्षकानुपायाश्चाऽनेकान् विरचयन्ति ते ॥ ४५ ॥ आत्मानन्दद्धर्युपायेघु, मनुष्यरचितेषु च । सर्वोत्कृष्ट उपायस्तु, धर्म एवास्ति केवलम् ॥ ४८ ॥ आनन्दस्य स्वरूपं हि, तुल्यं प्रत्येकप्राणिनाम् । सामर्थ्य : मात्मनस्तुल्यमस्ति प्रत्येकदेहिनाम् ॥ ४९ ॥ तुल्यं वास्तविक रूपमस्ति प्रत्येकदे- । हिनाम् । भवेत्साधनधर्मस्य, सत्येवं तुल्यतोचिता । समानमेव सम्पूर्णमस्त्येतदनुसारतः ॥ ५० ॥ मनुष्यस्तादृश प्राणी, प्रवीणकरणोऽस्ति यत् । आत्मानन्दाभिवृद्धिं स, कर्तुं शक्नोति निश्चितम् ॥ ५१ ॥ एतावदेव न परमन्य. च्छृणुत सजना.। अनन्तानुभवं प्राप्ता, आत्मानन्दस्य ये नरा. । ते खप' , श्वाद्भविष्यन्त्या, नरजाते कृते खल्छ । प्राप्तात्मसाधनाधर्म, स्मृत्य त्यक्त्वा दिवं गता ॥ ५२ ॥ तेन धर्मखरूपेण, साधनेनेतरा नरा । आत्मनो लौकिकानन्दमवाप्तुं शक्नुवन्ति च ॥ ५३ ॥ लोकेऽन्यप्राणिनश्चास्य, प्रत्यक्षजगतः खलु । अलौकिकप्रभापुंजैर्भवत्यानन्दतुन्दिला. ॥ ५४ ॥ परन्त्विह मनुष्याख्यदेहिनस्तु खयं किल । निजानन्दमया भूत्वा, तन्नजानन्दसम्पदा ॥ समस्तविश्वाप्रतिमाssनन्दवृन्दाभिवर्धनम् । उपादेयं सुरम्यं च, विधानं पारयन्ति च ॥ ५५ ॥ यो धर्मोऽस्ति नृणा सैवालोकिकानन्दसम्पदा । अभिवृद्धरिहादर्शरूपोऽस्तीति विभाव्यताम् ॥ ५६ ॥ इयं सृष्टिरनाद्यनन्तकालात्तदनुवन्धिनी । अनन्ततत्वरूपेषु, यथावत्संप्रवर्तते ॥ ५७ ॥ आत्मीयानन्ततत्त्वेषु, सा सृष्टिधुंवरूपतः । अलौकिकस्वरूपे चानन्ततत्त्वखरूपतः । अनन्तकालपर्यन्तं सत्यशावतरूपतः ।
* अथ सत्यस्य हार्दम्-.
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३१३ अलौकिकानन्दरूपे, नित्याऽवस्थाऽस्य ते स्थिरा ॥ ५८॥ विचित्ररूपेयं सृष्टिरस्त्यलौकिकवस्तु च । स्थिरा नित्या च साऽस्तीति, सृष्टिमीमासका जगुः ॥ ५८ ॥ अस्त्यालौकिकसामर्थ्यमृतालंकरणेषु च । सर्गस्य धर्म एवैकं, सर्वोस्कृष्टं विभूषणम् ॥ ६० ॥ धर्ममीमासका लोकेऽनेके समभवनिह । ते लौकिकपरिष्काररूपेण हितकाक्षिण ॥ नैजधर्मविचारात्मकप्रसादेन मञ्जुना । एतन्महीतलं चाल, चक्रिरेऽलं कृपालवः ॥ ६१ ॥ इदानीं समये चैषामलौकिकप्रसादिनाम् । निम्ननिर्दिष्टनामानो, भवन्तीक्षणगोचरा ॥६२॥ वेदान्त. सांख्ययोगी च मीमासा द्वितयी पुनः । न्यायो वैशेषिको शैवो, वैष्णवस्तानिकास्तथा ॥ स्वामीनारायणो जैनो, बौद्धो मोहम्मद. पुन । ईशायी पारसीयश्च, यहूदीयादय परे ॥ ६३ ॥ एपा तदितरेषाञ्च, भिन्नभिन्नमताश्रिताम् । धर्मालङ्कारभूतानामुद्देश्यं त्वस्ति केवलम् । आत्मानन्दाधिगमनमित्थं तत्वविदो विदु ॥ ६४ ॥ उद्देश्ये सर्वधर्माणामेकीभावमुपागते । तत्साधनानि सर्वाणि, भजन्तीहैकरूपताम् ॥ ६५ ॥ पृथक् पृथक् देशकालावाधारीकृत्य ते ननु । अन्योऽन्यभिन्नरूपैश्च, सम्प्रवृत्ता भवन्ति च ॥ ६६ ॥ तत्राईताना तूद्देश्य, ज्ञानं केवलमात्मन. । किं च तस्य हि कैवल्यप्रापण के वलोदयात् ॥ ६७ ॥ एतदेवाभिमन्यन्ते, योग-वेदान्ति-वैष्णवा । खामिनारायणश्चापि, जैनेनेत्यमिहोच्यते ॥ ६८ ॥ "जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ” एकं जानाति यो नाम, सर्वान् जानाति स ध्रुवम् ॥ ६९ ॥ वेदान्तीया भगवती, श्रुतिरप्याह तद्यथा। "आत्मनि विज्ञ ते सर्वमिदं विज्ञातं भवति" ज्ञाते सत्यात्मनं ज्ञातं, भवतीदमशेषत. ॥ ७० ॥ "अप्पा सो परमप्पे"ति, जेना अभिदधत्यथ । वेदान्तकान्तसिद्धान्तभारतीत्यमुदीर्य्यते ॥ "अहं ब्रह्मास्मि" "तत्वमसि" "प्रज्ञानं ब्रह्म' "अयमात्मा ब्रह्म" ॥ ७१ ॥ अहं ब्रह्माऽस्म्यसि त्वं तत् , प्रज्ञान ब्रह्म कीर्त्यते । अयमात्माऽपि तद्ब्रह्म, सच्चिदानन्दरूपि यत् ॥ ७२ ॥ सन्ति वेदस्य चत्वारो, भागास्तेषु चतुर्षु च । अस्त्येकैकं महावाक्यं, दर्यते तद्यथाक्रमम् ॥ ७३ ॥ “अहं ब्रह्मास्मि" 'यजुष' साम्नस्तत्वमसीति च । “प्रज्ञानं ब्रह्म", ऋग्वेद' "स्यायमात्मेत्यथर्णव." ॥ ७४ ॥ चतुर्वेतेषु वाक्येषु, वाक्यं तत्वमसीति ह । उपयोगितरं शश्वन्मननीय च विद्यते ॥ ७५ ॥ जैनानेकान्तसिद्धान्तनियमश्वायमस्ति च । “नाणे पुण नियमा आया" ज्ञानेतु नियमेनात्मा, वर्वतीति विदेदिमम् ॥ "प्रज्ञानं ब्रह्म' इत्येतद्वेदान्तेनाभिधीयते
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१४
।
वीरस्तुतिः।
.
॥ ७६ ॥ आर्हतैरुच्यते जन्ममृत्युरूपा तु संस्मृतिः । कर्मद्वारा प्रचलति, तत्र ., कर्म जडं स्मृतम् ॥ ७७ ॥ कर्मणोऽस्य नियन्तात्माऽस्तीत्येवं सर्वसम्मतम् । । अधिष्ठानं कर्मजन्यं, सृष्टेरात्माऽयमस्ति च ॥ ७८ ॥ वेदान्तेनोच्यते मायाः द्वारं जन्मादिसम्मतम् । आत्मरूपेश्वरश्चास्यानियामकमुदीर्य्यते ॥ ७९ ॥ स्याद्वादिनो वदन्त्येवं, कर्मोपाधौ लयं गते। आत्माऽयं.जन्ममरणवन्धनान्मुच्यते- . तराम् ॥८० ॥ वेदान्तकान्तसिद्धान्तवागत्रेत्थं प्रवर्तते । मायोपाधी लयं । प्राप्ते, भवादात्मा विमुच्यते॥ ८१॥ जैनेनाऽ'पुणरावित्ती'त्युक्तेत्थमभिधीयते। भवत्यपुनरावृत्तिर्भवे मुक्तस्य चात्मनः ॥ वेदान्तोऽभिदधात्यात्मा, पुनरावर्तते न ; हि । गीतायां कृष्णचन्द्रेण, प्रोक्तमित्यं महात्मना ॥ "यद्गत्वा न निवर्तन्ते, . तद्धाम परमं मम" ॥ ८२ ॥ “एगे आये" ति वाक्येन, जैनस्त्वित्यं प्रभाषते। 'एकोऽस्त्यात्मा'-गुण-द्रव्य-पर्यायापेक्षया खलु ॥ "एकोऽहमिति” वेदान्तोऽ प्यत्रार्थे कृतसम्मति. ॥ ८३ ॥ जैनाना च मते *तर्को, नात्मान वेत्ति तत्त्वतः । तथा धीश्चात्मरूपं हि, नाप्तुं शक्नोति वास्तवम् ॥ ८४ ॥ यतो निवतते वाणी, सहैव मनसा मुहु । जैना वदन्ति चाखण्डं, परिपूर्णतमं परम् । ॥ ८५ ॥ जानयन्ति ये च तद्वत्कैवल्यं प्राप्नुवन्ति ते । वेदान्तिनोऽखिले चास्मिन्भवे ब्रह्म सनातनम् ॥ ८६ ॥ व्यापकं सच्चिदानन्दखरूपं वर्णयन्ति । च । शास्त्रेऽच्छेद्यममेद्य च, तथाऽदास्यमशोष्यकम् ॥ ८७ ॥ अवध्यमस्मिजगति, नात्मा नैव प्रदृश्यते। कदाचिच्चर्मचक्षुभ्यां, मृत्युजन्म विवर्जित ॥ ८८ ॥ सच्चिदानन्दरूपश्च, जीवात्मा हि खभावतः । क्षित्याद्याकाशभूतेषु, नक्षत्रेध्वपि सर्वत. ॥ ८९ ॥ परिपूर्णतमस्तद्वच्चैतन्यगुणसयुतः। जीवात्मा चैतनारूपसच्चिदानन्दविग्रहः ॥ ९० ॥ न तद्रितं किञ्चिदपि, स्थानं चास्ति भवे क्वचित् । चैतन्याश्रयजीवस्य, दृष्टया सर्व चिदात्मकम् ॥ ९१ ॥ खयमात्मा च सर्वज्ञ, इति वेदान्तिनोऽब्रुवन् । तथा जैना वदन्तीत्थमात्माऽनन्तश्च ज्ञानयुक् ॥ ९२ ॥ सनातनं व्यापकं च, ब्रह्मवेदान्तिनो विदुः । खयं शुद्धो विशुद्धश्च, निजात्मानन्दरूपभाक् ॥ ९३ ॥ सर्वज्ञ. सर्वदर्शीति, जैनाचैवं वदन्त्यद । वल्लभा
*."तका जत्थ ण विज्जइ, मह तत्व ण गाहिता।" + “यतो वाचो निव तन्ते, अप्राप्य मनसा सह"। "कैवल्यपदमस्तु ते"। 'निर्दोषपूर्णगुणविग्रह आत्मतत्रो, निश्चेतनात्मकशरीरगुणैश्च हीन । आनन्दमात्रकरपादमुखोदरादि, सर्वत्र च त्रिविधभेदविवर्जितात्मा ॥ १॥
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३१५. चार्यसिद्धान्ते, स्थितिरेषा सनातनी ॥ ९४ ॥ निर्दोषः पूर्णगुणवानात्मानन्दगुणाश्रित.। खतन्त्रः सर्ववित्साक्षी, शरीरगुणवर्जित. ॥ ९५ ॥ तथात्मा करपादादिमुखादीन्द्रियवर्जितः । स चावयवादिभेदेन, कल्पनाकरणेऽपि च ॥ ९६ ॥ सदानन्दमयो नित्यो, वासनारहितो विभुः । ग्लोकोक्तात्मतत्वस्य, कल्पनावयवस्य च ॥ ९७ ॥ केवलानन्दरूपश्च, नास्त्यत्र च विकल्पनम् । जन्ममृत्युजरादिभ्यो, व्यतिरिक्तश्च सर्वदा ॥ ९८ ॥ जन्मोत्पत्तिप्रभङ्गादिमेदशन्योऽ खि निर्मल. । जन्मादित्रिविधो मेदस्तद्भिन्नं चात्मरूपकम् ॥ ९९ ॥ वल्लमाचार्यस्य मते, हेयं तत्तत्वदर्शिभि । सज्जैनमतसिद्धान्ते, नात्मा कर्तेति निश्चयः (निश्वयनयेनेत्याशय ) ॥ १०० ॥ साङ्ख्यशास्त्रविदश्वाह, *कर्ताऽहकार एव च ।। न कर्तृत्वं चात्मनश्च, निर्लेपत्वादविक्रियात् ॥ १०१॥ किन्तु पुरुषोऽकर्तेव, प्रवदन्ति मनीषिणः। ईश्वर सर्वविन्नित्यो, रागद्वेषादिवर्जित. ॥ १०२ ॥ ज्ञानविज्ञानसम्पन्न, इत्येवं वर्णयन्ति च । जैनाश्चत्यं योगशास्त्रं, क्लेिशकर्मविपाकत• ॥ १०३ ॥ माशयेनापरामृष्टश्चेश्वरः पुरुषोत्तम । रागद्वेषादयो भावा, न स्पृशन्ति सदीश्वरम् ॥ १०४॥ सर्वज्ञत्वमीश्वरे चास्ति, आत्मा चैतन्यरूपवान् । एवं निगद्यते शास्त्रे, चानन्तो निष्कलोऽव्यय. ॥ १०५॥, निर्विवाद: सदात्मास्ति, चैतन्यगुण• संयुत. । निष्क्रियो निष्कलस्तद्वद्ध्यापको गुणत• पृथक् ॥ १०६ ॥ तन्माया जगता की, चिच्छकिर्गुणविग्रहा । सत्यज्ञानमनन्तश्च, ब्रह्मेति श्रुतिसम्मतम् ॥ १०७ ॥ ब्रह्मखरूपे पापपुण्ये, न स्तो दुखसुखे तथा । नास्ति किञ्चिजगत्यस्मिन्व्यापकत्वं विना स्थितम् ॥ १०८॥ सच्चिदानन्दरूपेण, शिवोऽहं नेतरः कचित् । केवलज्ञानसम्पन्नोऽत्रैव मोक्षानुभावक ॥ १०९ ॥ इति जैनमतं शश्वजागर्ति प्रभुरीश्वरः । इदमेव मतं ज्ञेय, सहजानन्दस्वामिनः ॥ ११० ॥ अक्षरस्थानमात्मैव, खयं चाक्षयरूपवान् । आत्मानं च विजानीयादक्षरं परम परम् ॥ १११ ॥ तज्ज्ञानं सत्यमित्युक्तं, तदन्यत्सकलं मुधा ।
* "अहवार. कर्ता न पुरुष इति साख्यः"। "फ्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वर ।" "तत्र सर्वज्ञवीजम् ।" ६ सत्यं ज्ञानमनन्त्र वह्य । न पापं न पुण्यं न दुःखं सुखं न, चिदानन्दरूपं शिवोऽई शिवोऽहम् ॥
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः ।
आकाशादिस्थले यच्च, ज्ञानं मिथ्यामयं च तत् ॥ ११२ ॥ प्रणामिमार्गधयिणो, देवचन्द्रादयो मुहु । खसम्प्रदायके नित्यं, निजानन्दमतं जगुः ॥ ११३ ॥ दृष्ट्याऽनया दर्शनेन, भारतेऽत्र सुधर्मिणाम् । जनानामात्मतत्वस्य, सिद्धान्तप्राप्तये मुदा ॥ ११४ ॥ माहम्मदोऽपि वदति, भवेऽस्मिन्यत्प्रतीयते ।
चैतन्यमेव तत्सर्व, नान्यत्किचिद्विभाव्यते ॥ ११५ ॥ खुदा निरजन. साक्षी, निराकारोऽतिशक्तिमान् । तेजोमयो ह्यनन्तश्च, सर्वज्ञ इति निश्चयः ॥ ११६ ॥ मोमिनाख्यश्च सततं, कृपालु खसमीपगम् । पश्यत्येव खुदाऽहं च, खुदाहार्थो निजात्मनः ॥ ११७ ॥ जिसिसक्राइष्टमतं, तद्वचतुर्थाकाशकापरि । विभुर्विराजते स हि, भक्तात्मा परिकीर्तित. ॥ ११८ ॥ भक्ताश्च तं प्रपश्यन्ति, तथा भूमण्डलेऽखिले । विख्यातकीर्तिव॑द्धोऽपि, स्पष्ट समुक्तवानिति ॥ ११९ ॥ "प्रेमैवात्मा" जगत्यस्मिन्, प्रत्येक प्राणिनो मुदे । स्थापनीय च प्रेमैवामेदभावसमाश्रयैः ॥ १२०॥ तत्वज्ञानस्य दृष्ट्या तु, दर्शनेन प्रतीयते । जैनो वेदान्तयोगौ च, साख्यवौद्धौ तथा पुन. ॥ १२१ ॥ अनुभवं चैकतायाः, कुर्वन्तीति विभावय । नेतुं वै चैकतायास्तु, तथानन्दविवृद्धये ॥ १२२ ॥ भिन्नं च माधनं कतुं, मिन्नधर्मस्तथा पुनः । भिन्नो देशस्तथा कालो, विभिन्ना पद्धति पुन ॥ १२३ ॥ मीमासकैर्विनिर्दिष्टा, विभिन्नं सर्वसाधनम् । अत एव वहिदृष्ट्या, ज्ञायते मतकर्मणाम् ॥ १२४ ॥ मेदामेदक्रिया सर्वा, तथापि तक्रियान्वयम् । कुर्यात्त्वमेदभावं च, भजते प्रेमभावतः ॥ १२५ ॥ जैनाश्चाहुमहाव्रतं, वौद्धास्तत्पञ्चशीलकम् । *योगे पञ्चात्मक प्राह, यमं शमदमादिकम् ॥ १२६ ॥ वेदान्ते प्रवर्तनीयो, नियमोऽपि महात्मभिः । प्रत्येकं धर्मनीतिहि, दयापरोपकारिता ॥ १२७ ॥ प्रेमादिसामान्यमिति, सर्वसामान्य निर्णये । नियमोऽपि गृहस्थानां, तथा धर्मे समानता ॥ १२८॥ उपयोगितोपभोगश्च, कुर्वन्तीति निसाम्यताम् । वैराग्यलक्षणं तद्वत्समत्वं तुल्यमेव च ॥ १२९ ॥ सर्वत्र प्राप्य चैकमेव मिति सन्धार्यता मुहु । ज्ञानिना वर्तने दृध्या, जैनानां वर्तनं तथा ॥ १३० ॥ सर्वप्राणिभिरित्येवं, ममं भावसमानता । स्थापनीया न न्यूनाधिभवितव्या नियमस्तथा ॥ १३१ ॥ ब्रिवीति
* "शमदमोपरतितितिक्षाश्रद्धादयः समाधानाः" "मित्तिमे सव्व. भूएसु" "आत्मवत्सर्वभूतेपु" मित्रस्याहं चक्षुपा सर्वाणि भूतानि समीक्षे ।। यजुर्वेद १८-३ ॥
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
३१७
नियमं चैव, ज्ञायतामित्यत पुनः । सर्व मित्रवदापश्येदात्मवत्सर्वप्राणिषु ।। १३२ ॥ ज्ञानी जनो निजात्मान, जीवात्मान तथैव च । एकीन भावेन सम्पश्येदिति प्राह श्रुतिर्मुहुः ॥ १३३ ॥ देहमीमांसकानां च, अनेकान्तिकदृष्टित.। औदारिकं तेजस च, कार्मणं यच कथ्यते ॥ १३४ ॥ शरीर चैव वेदान्तमतालम्बनतत्परा । स्थूलं सूक्ष्मं कारण च, त्रिविधं वर्णयन्ति च ॥ १३५ ॥ ज्ञानविज्ञानयोर्यच, कारणं प्रोच्यते बुध. । जैना यज्जाग्रतं खप्नं, तुरीय प्रवदन्ति च ॥ १३६ ॥ वेदान्तेऽपि तथैवास्ति, त्रिधाऽवस्था खरूपतः । तथा संसृतिमीमांसाज्ञानज्ञाः प्रवदन्ति च ॥ १३७ ॥ मनस परिणामेन, वन्धो मोक्षो हि जायते। सृष्टिः सङ्कल्पतो शेया, वेदान्तमतशालिन ॥ १३८ ॥ मानसिकं तु जैनानां, *परिणाममथाऽपि वा । अध्यवसाय च वेदान्ते, सकल्पं चैकमेव हि ॥ १३९ ॥ प्रत्यक्षं दृश्यते चैक, साधनाभेदभावत । साध्यश्चात्मा हि प्रत्यक्षं, ज्ञायतेऽमेद एव हि ॥ १४० ॥ अनुभवेऽप्येवमेवं, प्रत्येकं च मुमुक्षुभिः । जीवात्मनि प्रेमभावः, स्थापनीयं सदैव हि ॥ १४१ ॥ सर्वावस्थासु सर्वत्र, ममैवास्ति स्वरूपकम् । पठित्वेदममेदेन, प्रेमैव स्थाप्यतां सदा ॥ १४२ ॥ एतत्प्रमाणतश्चात्मानन्दाप्तेः साधनानि च । कुर्वन्समन्वयं सोमेदभावेन सर्वदा ॥ १४३ ॥ चलँस्तिष्ठन्नुपविशन्पिवन्खादन्खसन्खपन् । सर्वक्रियासु सर्वत्र, शुद्धश्चैतन्यरूपवान् ॥ १४४ ॥ अहमात्मा चेदृशी वै, भावना स्थाप्यता मुहु । न चैतावद्धि विज्ञान, भूतमात्रं मदीयकम् ॥ १४५ ॥ खरूप प्रत्युतैव च, ज्ञातव्य च विशेषतः। ज्ञातव्यं प्रतितान्भक्त्या, प्रेमभावप्रवर्षणम् ॥ १४६ ॥ कर्तव्यमित्यं ये चैव, पुरुषा जगतीतले । स्थापयन्त्यमेदभाव, वीतरागास्त एव हि ॥ १४७ ॥ पूर्णाध कृतकृत्याश्च, ते सन्ति भुवि चोत्तमा । वीतरागो देवदेवो, महावीर प्रतापवान् ॥ १४८ ॥ धन्योऽस्ति योहि निष्पक्षपातेन सुन्दरो मुहु । मार्गोऽमेदात्मको भावो, दर्शितो जनतामुढे ॥ १४९ ॥ विनि स्वार्थतया यो हि, प्रकटं कृतवान्मुहु । सत्यखरूप एवास्ति, स एव परतः परः। खतन्त्रत्वस्य यश्वास्ति, द्वारमेतत्प्रधार्य्यताम् ॥ १५०॥ भावार्थ:-जो पुरुष केवल आत्मानन्दमे ही अहर्निश रमण करते हैं, उनको त्रिकाल वन्दना है। इस
"परिणामे वधो, परिणामे मोक्खो।
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१८
। वीरस्तुतिः।
.
.
अलौकिक विश्वके सुरम्य और सौन्दर्यपूर्ण दृश्यकी ओर दृष्टि फैलानेपर स्पष्टतया नजर आता है कि अखिल विश्व आनन्दसे परिपूर्ण है। अर्थात् अखिल विश्वमे आनन्दकी अपेक्षासे एकता है । जगत्से उसके धर्म भिन्न नहीं हैं, विश्वके प्रत्येक प्राणी आनन्दमय हैं, उन्हें आनन्द ही प्रिय है अतः उसीकी इच्छामें तन्मय हैं। उस आनन्दको प्राप्त करनेके लिये साधन रूप ही विश्वके धर्म हैं, और उन धर्मोंको प्राणियोंने अपने 'आनन्द' के लिये ही उत्पन्न किये हैं, और आनन्दकी अपेक्षा जगत्के सव प्राणी समान हैं। तथापि व्यक्तिकी अपेक्षासे यदि देखा जाय तो मनुष्य एक उत्कृष्ट प्राणी है, और वह आनन्दकी अभिवृद्धिके लिये अनेक आकर्षण एवं सुरम्य उपायोंकी रचना करता रहता है। मनुष्यके रचे हुए आत्मानन्दकी अभिवृद्धिके उपायोंमें धर्म ही एक सर्वोत्कृष्ट उपाय है। प्रत्येक प्राणीके अन्तर्गत आनन्दका खरूप समान है। प्रत्येक प्राणीके आत्माका सामर्थ्य समान है। प्रत्येक प्राणीका वास्तविक स्वरूप भी समान है । तव तो इस अपेक्षासे साधन रूप धर्मीका होना भी समान ही ठीक है, और उसके अनुसार सम्पूर्ण समान ही हैं। मनुष्य कुछ ऐसा प्राणी है कि वह आत्मानन्दकी अभिवृद्धि बहुत जल्दी कर सकता है। इतना ही नहीं बल्कि जो जो मनुष्य आत्मानन्दका अनन्त अनुभव प्राप्त कर चुके हैं वे वे मनुष्य अपने पीछेकी अर्थात् भविष्यकी मनुष्य जातिके लिये पाया हुआ आत्माका साधन रूप धर्म भूतलवासी मनुष्य जातिके लिये स्मारक रूपसे छोड गये हैं। उस धर्म रूपी उपकरण या साधन द्वारा इतर मनुष्य आत्मानन्दके अलौकिक आनन्दत्वको प्राप्त कर सकते हैं। जगत्के अन्य प्राणी इस प्रत्यक्ष विश्वकी अलौकिक प्रभासे आनन्दित होते हैं । परन्तु मनुष्य सज्ञाका प्राणी तो खय निजानन्दमय वन कर उस अपने आनन्द द्वारा अखिल विश्वके अप्रतिम आनन्दमें सुरम्य तथा उपादेयकी अभिवृद्धि कर सकता है । मनुघ्योंका जो धर्म है वही अलौकिक आनन्दकी अभिवृद्धि वानगी रूप है। यह सृष्टि अनन्त कालसे अनन्ततत्त्वके रूपमें ज्योंकी त्यों चली आ रही है, और ध्रुव रूपसे अनन्त तत्त्वमे अनन्त तत्त्व रूपसे अलौकिक खरूपमे अनन्त काल तक शाश्वत खरूपमें ही-सत्य स्वरूपमे ही अलौकिक आनन्द रूपसे स्थिर और नित्य रहेगी। सृष्टि मीमासक शास्त्री भी यही कथन करते
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
३१९
हैं कि यह सृष्टि अलौकिक वस्तु है, और यह नित्य तथा शाश्वत है। इस सृष्टिके अलौकिक सामोसे भरपूर अलंकारोंमें धर्म ही एक सर्वोत्कृष्ट अलंकार है। जगत्में अनेक धर्ममीमासक हो गये हैं, और वे अलौकिक अलंकार रूपसे अपने धर्मविचाररूप प्रसादीसे इस भूतलको अलकृत कर गये हैं। इन अलौकिक प्रसादियोंमें इस समय वेदान्त, जैन, बौद्ध, साख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा, शैव, वैष्णव, खामी. नारायण, मुस्लिम, इसाई, यहूदी, पारसी आदि मुख्यतासे दृष्टिगोचर होते हैं। इनका तथा इनके अतिरिक्त और और अनेक धर्मालंकारोंका हेतु केवल आत्मानन्दको ही प्राप्त करनेका है। सर्व धर्मका हेतु एक होकर उनके साधन भी एक ही हो जाते हैं, और वे अलग अलग देश कालपर आधार रखकर अलग अलग रूपोंमें प्रवृत्त हो रहे हैं । जैनका हेतु केवल आत्माका पहचानना और उसे मोक्ष तक ले जाना ही है। वेदान्तिक, वैष्णव, स्वामीनारायण, तथा योगीजन भी यही कहते हैं । जिनमें जैन कहते हैं कि -"एगं जाणइ से सव्वं जाणइ' जो एकको जानता है वह सवको जानता है । वेदान्तकी भगवती श्रुति भी कहती है-'आत्मनि विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति ।' एक आत्माके जाननेसे यह सब कुछ जाना जा सकता है। जैन कहते हैं कि-"अप्पा सो परमप्पा" आत्मा ही परमात्मा है। तव वेदान्त कहता है कि-'अहं ब्रह्मास्मि, तत्वमसि, प्रज्ञानं ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म ।" 'मैं ब्रह्म अर्थात् परमात्मा हूं' 'तू भी वही है' प्रकर्ष तया सम्यग्ज्ञान ही ब्रह्म है' 'यह आत्मा ब्रह्म है'। वेदके चार खंड हैं, इन चारों खडोंमें एक एक महावाक्य है। 'प्रज्ञानं ब्रह्म' यह ऋग्वेदका, 'अहं ब्रह्मास्मि' यह यजुर्वेदका, 'अयमात्मा ब्रह्म' यह अथर्ववेदका
और 'तत्त्वमसि' यह सामवेदके छादग्योपनिषद्का महावाक्य है। जैन सिद्धान्तका नियम है कि-"नाणे पुण नियमा आया।" 'ज्ञानमें नियमसे आत्मा है' वेदान्त मी यही कहता है कि-"प्रज्ञानं ब्रह्म' 'प्रज्ञान ही आत्मा है' जैन कहते हैं कि जन्ममृत्यु रूपक समृति कर्मके द्वारा चलती है, और वे कर्म जड हैं। इन कर्मोका नियामक आत्मा है। यानी आत्मा कर्मजन्य सृष्टिका अधिष्ठान है । वेदान्त कहता है कि-मायाके द्वारा ये जन्मादि हैं और इसका नियामक आत्मारूप ईश्वर है। जैन कहते हैं कि-कर्मो
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः। -
पाधिका प्रलय होनेपर आत्माका मोक्ष होता है। वेदान्त कहता है कि मायोपाधिका प्रलय होनेपर आत्माका मोक्ष है। जैन कहते हैं कि-आत्माका मोक्ष होनेपर 'अपुणरावित्ति' संसारमें पुनरागमन नहीं होता अर्थात् . आत्माको फिरसे जन्म मरणके चक्रमें नहीं आना पडता। वेदांत कहता है , कि-"न पुनरावर्तते" आत्माकी पुनरावृत्ति नहीं होती। गीताजीमें भी कृष्णचन्द्रजीने कहा है कि-"यद्गत्वा न निवर्तन्ते, तद्धाम परमं मम" 'जहां गये वाद फिर आना नहीं पडता' वही मेरा परमधाम है । अर्थात् परमात्माके धामको परमधाम कहते हैं या मोक्ष कहते हैं । वहा जानेपर फिर वापस नहीं आना होता । जैन कहते हैं कि-'एगे आया' आत्मा द्रव्य गुण पर्यायकी दृष्टिसे एक है। वेदान्त कहता है कि "एकोऽहम्" मै एक हू। जैन कहते हैं कि- "तक्का जत्थ ण विजह, मइ तत्थ ण गाहिता' तर्क आत्माके स्वरूप तक नहीं पहुंच सकता, और मति उस आत्माके खरूपको ग्रहण नहीं कर सकती । वेदान्त कहता है कि-"यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह" जहासे वाणी वापस फिर जाती है वह
आत्म स्वरूप मन द्वारा अप्राप्य है। भावार्थ यह है कि-मन और वाणी उस आत्मा का वर्णन नहीं कर सकते। जैन कहते हैं कि-आत्माको सम्पूर्ण या अखंड रूपमें जानने वाले मनुष्य कैवल्य ज्ञानको पाते हैं। वेदान्त कहता । है कि-"कैवल्यपदमस्तुते" आत्मा कैवल्य पदका अनुभव करता है। वेदान्त कहता है कि-अखिल विश्वमें सच्चिदानन्द परब्रह्म सर्वव्यापक है। जैन कहते हैं कि-अखिल विश्वमें मारनेसे मरता नहीं, जलानेसे जलता नहीं, काटनेसे कटता नहीं, मेदन करनेसे मेदित नहीं होता, और चर्मचक्षु द्वारा दीख नहीं सकता, ऐसा सम्चिदानन्द खरूप जीव स्वाभाविकतासे सधन, रूपमें भरे पडे हैं। आकाश, पर्वत, पृथ्वी, नक्षत्र आदि कोई भी स्थान जीवसे खाली नहीं है। अर्थात् चैतन्यलक्षणयुक्त जीवकी दृष्टिसे देखनेपर चैतन्यदेव समस्त लोकमें भरपूर है । वेदान्त कहता है कि आत्मा खयं सर्वज्ञ है, जैन भी यही कहते हैं कि आत्मा अनन्त ज्ञानमय है। वेदान्त कहता है कि ब्रह्म सनातन है । जैन कहते है कि आत्मा खयं शुद्ध-बुद्ध आनन्द खरूप है और सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी है। वेदान्त और सांख्यादि भी यही कहते हैं । वल्लभाचार्य मतप्रवर्तक कहते हैं कि-निर्दोष.
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
३२१
पूर्णगुणविग्रह आत्मतन्त्रो, निश्चेतनात्मकशरीरगुणैश्च हीनः। आनन्मात्रकरपादमुखोदरादिः सर्वत्र च त्रिविधमेदविवर्जितात्मा ।। आत्मतन्त्र अर्थात् मात्र आत्म-खरूप निर्दोष है। पूर्णगुण विग्रह है । पुनः जडात्मक शरीर और गुणसे मिन्न है। इस आत्म खरूपके हाथ, पैर, मुख, उदर इत्यादि अवयवोंकी कल्पना करने पर मात्र आनन्द ही है अर्थात् सम्पूर्ण आनन्दमय भेद भाव रहित है। आत्म-तत्वके अवयवोंसे श्लोकमें की गई कल्पनामें केवल आनन्द ही इसके अवयव हैं। यह स्पष्टतासे समझमें आ जाता है। इस आत्म-खरूपमें जन्म, जरा और मृत्यु रूपी मेद नहीं है। उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय रूप निविध मेदसे यह आत्म-स्वरूप भिन्न है। जैन कहता है कि-निश्चय नयसे तो आत्मा अकर्ता ही है । सांख्य शास्त्र कहता है कि"अहंकारः कर्ता न पुरुष ।" कर्ता, धर्ता अहंकार है पुरुष नहीं, अर्थात् आत्मा कुछ नहीं कर्ता, प्रत्युत अकर्ता है । जैन कहता है कि-"ईश्वर सर्वज्ञ होता है, तथा उसमें राग द्वेष आदि कुछ भी नहीं हैं। योग शास्त्र कहता है कि-"क्लेशकर्मविपाकाशयरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः।" क्लेश, कर्म, विपाकके आशयोंके साथ असस्पृष्ट-अलिप्त है, वही पुरुष विशेष पुरुषोत्तम और ईश्वर है यानी ईश्वरको राग द्वेष क्लेश कर्मविपाक नहीं छू सकते। “तत्र सर्वज्ञवीज" उस ईश्वरमें सर्वज्ञत्व होता है। आत्मा अनन्त तत्व रूप है। वेदान्त कहता है कि-"सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म।" ब्रह्म खरूपमें पाप, पुण्य, सुख या दुख नहीं है । पुनः वेदान्त कहता है कि-"न पापं न पुण्यं न दुःखं सुखं न ।, चिदानन्दरूपं शिवोऽहं शिवोऽहं ॥ “मेरा आत्म-खरूप शिव है, और उस शिवखरूप आत्मामें पाप, पुण्य, सुख दुख नहीं है, क्योंकि वह सच्चिदानन्द रूप है। जैन कहते हैं कि केवलज्ञानी यहां ही मोक्षका अनुभव करते हैं । इसीसे मिलता जुलता स्वामीनारायण मत प्रवर्तक श्री सहजानन्द खामीका भी यही मत है कि-'अक्षर धाम यहीं है, आत्मा स्वयं अक्षर खरूप है । जो आत्माको यहाके लिये भी अक्षरधाम समझता है उसीकी समझ सच्ची है, और जो अक्षरधामको किसी अन्य स्थल आकाशादिमे समझते हैं उनकी समझ मिथ्या है। प्रणामीपंथ अर्थात् खीजडापंथ प्रवर्तक महेरात ठाकुर तथा श्री देवचन्द्रजी
वीर. २१
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२२
वीरस्तुतिः। , अपनी सम्प्रदायको निजानन्द सम्प्रदाय कहते हैं । इस दृष्टिसे देखनेपर पता चलता है कि भारतके धर्मात्मा पुरुषोंका सिद्धान्त 'आत्मानन्दके । पानेका ही है । मुहम्मद साहव भी यही कहते हैं कि जगत्में जो भी कुछ चैतन्य प्रतीत होता है वह खुदाकी रवानी है, खुदा निरंजन, निराकार, तेजोमय और सर्वशक्तिमान् तथा सर्वज्ञ है। मोमिन तो कृपालु खुदाको अपने पास ही देखते हैं। खुदाका अर्थ भी खुद ही होता है। जिसिसक्राइस्टका भी यही उपदेश है कि चौथे आसमानपर प्रभु विराजमान हैं। वह प्रभु भक्तोंका आत्मा है, और, परम , भक्त उस प्रभुको प्राप्त करते हैं। अखिल भूमण्डलमें सर्वोत्कृष्ट कीर्तिको पानेवाले वुद्धदेव भी स्पष्ट कह गये हैं कि प्रेम ही आत्मा है। अत: जगत्के प्रत्येक प्राणीमें अमेद प्रेम रक्खो। तत्त्वज्ञानकी दृष्टिसे देखा जाय तो जैन, वेदान्त योग, सांख्य, वौद्ध आदि सव एकताका ही अनुभव करते हैं। एकता पानेके लिये अर्थात् आत्मानन्दमै अभिवृद्धि करनेके लिये साधनोंको भिन्न मिन धर्म मीमांसकोंने भिन्न-भिन्न देश कालमें भिन्न-भिन्न पद्धतिसे समझाया है । अतएव वहिदृष्टिसे देखा जानेपर उन मतोंकी क्रियाओंमें , मेद जान पडता है । तथापि उन क्रियाओंका समन्वय किया जाय तो वे मेद भी अमेद भाव भजने लगते हैं। जैन जिसे पॉच महाव्रत कहते हैं, वौद्ध उन्हें पाच शील कहते हैं, और योगी उन्हें पाच यम कहते हैं। वेदान्तके शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा और समान भी ऐसे ही हैं। परमहंसोंके वर्तन करने योग्य नियम भी अन्तमें एक ही हैं। प्रत्येक धर्मके नीति, दया, परोपकार, प्रेम आदिके सामान्य और सर्वमान्य नियम भी गृहस्थ धर्ममें समानता तथा उपयोगिताका उपभोग करते हैं। समतादि वैराग्यके लक्षण भी सवमे समान रूपसे ही पाये जाते हैं । ज्ञानी पुरुषोंके वर्तावकी ओर दृष्टि डालते हुए जैनोंका वर्ताव "मित्ति मे सव्व भूयेसु" सव प्राणिओंके साथ मित्रता अर्थात् समान भाव रखना चाहिये न्यूनाधिक न होना चाहिये । वेद भी कहता है कि"मित्रस्य चक्षुपा सर्वाणि भूतानि समीक्षे।" 'सवको मित्रकी दृष्टिसे देखना चाहिये।' 'आत्मवत्सर्वभूतेपु' ज्ञानी पुरुप अपनी आत्माके समान सब जीवोंको देखते हैं। देह मीमांसकोंकी तरफ दृष्टि डालनेपर जैन मुख्य
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
३२३
तासे, औदारिक, तैजस, कार्मण शरीर कहते हैं। इसी प्रकार वेदान्ती भी उन ही शरीरोंको स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर कहते हैं । जैन जिसे जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और उजागर या तूर्यावस्था मानते हैं, उन अवस्थाओंका वर्णन वेदान्ती भी उसी प्रकार करते हुए सन्तोष प्रगट करते हैं। संसृति मीमासकोंके कथनको देखते हुए जैन यह कहते हैं कि-"परिणामो बन्धो परिणामे मोक्खो ।” “मनके परिणामसे ही वन्ध और मोक्ष है।" वेदान्ती सकल्पसे सृष्टि मानते हैं। जैनोंका मानसिक अध्यवसाय और परिणाम तथा वेदान्तका संकल्प एक ही वात है। इन प्रमाणोंसे आत्मानन्दकी अभिवृद्धिके साधनोंका यानी धर्मोका समन्वय करते हुए वे सव अमेद भावमें प्रत्यक्ष समाये हुये दीखते हैं। साधन अमेद होनेसे साध्य आत्मा भी प्रत्यक्षमें भमेद ही समझा जाता है, और अनुभवमें भी यही आता है। अत. प्रत्येक मुमुक्षु जीवको प्रत्येक जीवमें प्रेम भाव रखना चाहिये, और सब जगहोंमें ही सर्वत्र मेरा ही स्वरूप है, यही पाठ पढकर अमेद प्रेम रखना चाहिये । हलते, चलते, उठते, बैठते, खाते, पीते इत्यादि संव क्रियाओंमे शुद्ध चैतन्य आत्म-स्वरूप हूं यही भावना रखनी चाहिये । इतना ही नहीं, बल्कि-जगत्के सव भूत भी मेरे ही स्वरूप हैं। यह जानकर उनके प्रति अमेद प्रेमकी वर्षा करनी चाहिये । इस प्रकार जो पुरुष सब जगत्पर अभेद भाव रखते हैं, वे ही वीतराग हैं, पूर्ण हैं, और कृतकृत्य हैं। धन्य उस वीतराग देवको है कि जिसने निष्पक्षपातसे ऐसा सुन्दर अभेद मार्ग जगत्के कल्याणके लिये निखार्थभावसे प्रगट किया है। ज्ञातार्थस्य पदार्थस्य, ज्ञानं प्रवोधनाद्भवेत् ॥ १५१ ॥ तदनुवादरूपं हि, विज्ञेयं न प्रमाणता । प्रवन्धस्याथ शास्त्रस्य, निर्णेतुं यस्य कस्यचित् ॥ १५२ ॥ विचारोऽत्र प्रकर्तव्यो, नान्यथा सिद्धिरुह्यते । यथोपक्रमप्रारम्भावुपसहारसमाप्तिको ॥ १५३ ॥ अभ्यास स हि विज्ञेयो, यद्विचारं समभ्यसेत् । अपूर्व नूतनं किञ्चिद्यद्वन्यो विनिरूपितम् ॥ १५४ ॥ फलं सुपरिणामं चाप्यर्थवादस्तथैव च । प्रशसात्मकवाक्यं च, सोपपत्त्युपपादनम् ॥ १५५ ॥ सम्प्रधाोकवाक्यं च, प्रकृतमकरन्दकम् । तद्रसाखादनं सम्यक, कर्तव्यं रसतत्त्ववत् ॥ १५६ ॥ कुतस्समस्तजीवास्तु, भव्यमुख्यरसस्य हि। आखादनार्थमेवात्र, प्रवृत्ताश्च तृषार्दिताः ॥ १५७ ॥ सुवार्तेयं द्वितीयाऽस्ति, तच्चेष्टा करणेऽपि च ।
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२४
, वीरस्तुतिः।
प्राप्यते नाऽपि गौणेन, लभ्यते खादनं ततः ॥ १५८ ॥ तदेदमपि ज्ञातव्यं, गौणतोपाधिकारणम् । पुद्गलस्यैव सम्बन्धाज्जायते न च वस्तुतः ॥ १५९ ॥ सच्चित्सुखे तु गौणत्वमेतदर्थमवेक्ष्यते । यदानादिस्वभावेन, वहिरकत्वमेव हि अन्तरगत्वदृष्ट्या तु, केवलानन्दरूपकः ॥ १६० ॥ आत्मानन्तकार्मणवर्गणा सन्धितो भवेत् । 'गुणविकाराः पर्याया.' पर्यायेण समन्वितः ॥ १६१॥ कार्मणवस्तु सर्वत्र, सर्वदा परिवर्तते । परिवर्तनं पर साक्षानानुकूलमिदं भवेत् ॥१६२ ॥ तत्रेष्टाऽनिष्टयोर्योगश्चान्योऽन्यं मिश्रितः स्थितः । प्रवृत्तरात्मन्यतः संविभावादेव दुखकः ॥ १६३ ॥ सम्वन्धवञ्चकाभावानिवृत्तिः खस्य भावना। कार्य करोति सर्वत्र, ज्ञेयं सर्व विचारतः ॥ १६४ ॥ सच्चिदानन्दकन्दस्य, सत्तायाश्चेति वोधनम् । सुगमत्वेन. ससिद्धेद्विषयेऽखिलभ्रान्तिता ॥ १६५ ॥ अनुमानापमानस्य, करणं जायते ततः। परिणामस्य यस्यास्ति, निग्रहत्वं ततः स्फुटम् ॥ १६६ ॥ अतो यस्मिँश्च कार्मणवर्गणानामवाधतः । अत्यन्ताभाव एव स्थाद्विशुद्धं भगवत्पदम् ।। १६७ ॥ लभ्यते तद्धि परमं, नान्यथा कोटियनत.। परं यत्र नृदेहेन, सहितो भगवत्यपि ॥ १६८ ॥ चतुष्टयमनन्तं च, भाति तद्भगवत्पदम् । अर्थान्सर्वानतीतादीन्, ज्ञातव्योऽवश्यमेव च ॥ १६९ ॥ यस्मिन्नैश्वर्यवीर्ये च, यशो धर्मश्च ज्ञानकम् । श्रीर्वैराग्य तथा मोक्ष, इमे षट्संख्यका गुणाः ॥ १७० ॥ समुदायस्य शास्त्रेपु, 'भगसंज्ञा' प्रकीर्तिता। भगवच्छन्दकस्याऽस्य, लक्षणं समुदाहृतम् ॥ १७१ ॥ कुण्डिनेशनरेशस्य, सिद्धार्थनन्दनेन च । त्रिशलाइजवीरेण, त्रिजगहुरुणा मुहुः॥१७२ ॥ सम्पूर्णरीत्या विज्ञातस्तेन तत्रास्ति लक्षणम् । इति विवेचनेनैव "वीरस्तु भगवान् खयम्" ॥ १७३ ॥ इत्यस्याक्षरशश्वार्थो, भविष्यति समर्थनम् । निरूपणं तथा तस्य, समेष्यति विचारतः ॥१७४॥ "ऐश्वर्यस्य समग्रस्य" इत्यस्यार्योऽनुकूलतः। भगवद्वीरदेवस्य, जन्मकालात्ततो मुहु ॥ १७५॥ निर्वाणपदप्राप्यन्तं, जन्मकालादनुक्रमात् । निखिलस्येतिहासस्य, प्रत्येकं लघुभावतः ॥ १७६ ।। सिद्धोऽस्तीति महावीरो, भगवानादिपूरुषः। सम्प्राप्य पूर्णरूपेण, चतुष्टयमनन्तकम् ॥ १७७॥ अनन्तशक्तियोगेन, सर्वेश्वयं तथाप्तवान् । अनन्ततेजस्तद्वन्ध, प्रथमयाऽवस्थया मुदा ॥ १७८ ॥ सकलैश्वर्य्यखत्वेन, युक्तश्चासीनिशामय । स्वर्गजातकपर्यायपूर्ति कृत्वाऽथ नाकत. ॥१७९ ॥ स्वर्गात्पूर्णश्च देवायु.,. शरीरं वैक्रिये तथा । एवमाहारसम्पूर्ण, कृत्वा राज्या, सुकुक्षितः
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३२५ ॥ १८० ॥ त्रिशलाया. समुद्भूय, चतुर्दशविधं पुनः । महाखप्नं प्रदृष्टं च, स्वर्णवृष्टिरसंख्यका ॥ १८१॥ जन्मोत्सवं सुराणा वै, शक्रस्यागमनं तथा । विधातुमुत्सवं सर्वे, सुरेन्द्रसेवनं पुन ॥ १८२ ॥ प्रतिक्षणसपर्यायाः, सामन्या च मुहुर्मुहुः । नेयमल्पस्य वीर्यस्य, वार्तास्ति सुप्रवुध्यताम् ॥१८३ ।। खसयमस्य वेलाया, तेनानन्तस्ववीर्यत । ऐश्वर्यस्यानुकूलत्वप्रतिकूलत्वयातना ॥ १८४ ॥ इति परिपहं जित्वा, सम्प्राप्य विजयं तथा। जिनत्वं तेन संलब्धं; तदाऽसख्यसुरासुरैः ॥ १८५ ॥ नरैर्नरेन्द्रर्देवेन्द्रैः, समुत्कृष्टक्षयोपशमात् । एतद्वारैव सझावाऽनुभवश्च कृतो महान् ॥ १८६ ॥ "खयन्तु भगवान् वीर" इति निश्चित्य मानसे । रागाद्यान्तरिकाशत्रून् , विनिर्जित्य विभुर्जिन ॥१८७ ॥ अतश्चानन्तरूपेण, प्राप्त्यनन्तरमेव हि। भगवद्वीरदेवस्य, समग्रेश्वर्यरूपकम् ॥ १८८ ॥ सुस्पस्टं लक्षणं चास्ति, विवरणत्वं तदाधिकम् । निरूपणत्वमेवं च, नावश्यं तस्य वर्णनम् ॥ १८९ ॥ "समग्रस्य च धर्मस्य", लक्षणं सनिरूप्यते । तया साधनसामग्या, धर्मो नाम्नोच्यते बुद्धः ॥ १९० ॥ दुर्गती पतमान यो, जीवं धारयते मुहु । स एव धर्मो विज्ञेयो, यतोऽनन्तसुखोद्भवः ॥ १९१॥ दुर्गतो पतितं तद्वदुदन्तं जीवमित्यपि। सरक्षत्युनतिपथि, तिरो भावं करोति न ॥ १९२ ॥ “स चात्मपुरुषार्थस्य, धर्म इत्युच्यते बुधै." तदाऽऽत्मपुरुषार्थस्य, धर्मसज्ञा ब्रुवन्ति च । एतदृष्ट्या तु भगवान्, सदा वीरो हितावहः ॥ १९३ ॥ धर्ममूर्तिस्तथा साक्षादभूदिति निशामय । “परमेष्ठी 'परज्योतिर्विरागो विमल• कृती । सर्वज्ञोऽनादिमध्यान्तः सार्व. शास्तोपलाल्यते ॥" इत्युक्त्यनुरोधेन, भूत्वा सर्बोपदेशक. ॥ १९४ ॥ सच्छास्त्रद्वादशाशस्य, गिरा प्रख्यानकं पुनः। विधाय शास्त्ररूपे च, कृतवान् परिणतं मुदा ॥ १९५ ॥ "आप्तोपज्ञमनुल्लद्धयमदृष्टेष्टविरोधकम् । तत्वोपदेशकृत्सावं, शास्त्रं कापथघटनम् ॥" शास्त्रमित्थं च निरवयं, प्रदाय भगवान् जिनः। खीयामृतमयं रूपं, तथेष्टं सकलं पुनः ॥ १९६ ॥ अनेकान्तं समाश्रित्य, श्रेष्ठोपदेशकैरपि । तथाऽऽदर्शमयाऽनन्तं, चरित्रं न. प्रदर्य च ॥ १९७ ॥ एवं चानुपमं दिव्य, श्रावकश्रवणार्हकम् । गृहिधर्ममनागारं, साधुधर्मरहस्यकम्, ॥ १९८ ॥ कृतकृत्वं भव्यसृष्टेः, कृतवान् य समासतः। विनिव्वोणपथादर्शो, भूत्वा भव्यात्मना मुहुः ॥ १९९ ॥ कार्मणवर्गणानां च, भारमुत्तार्य यत्नतः । लघूस्वान् कृतवान् सर्वान, वर्धमानो नयान्वितः ॥ २०० ॥ त्रयात्मकं यथो
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२६
-
वीरस्तुतिः।' ',
.
द्दिष्टं, रस्नं नयप्रमाणकम् । तत्वनिक्षेफ्संज्ञं वै, गभीरत्त्वं महत्वकम् ।। २०१॥ परिपूर्ण तदाऽप्यासीद्यल्लघुत्वमहत्वयोः । चतुरस्रेण वै तद्वद्व्याख्याने लेखने तथा ॥ २०२ ॥ वर्णनं क्वचिदस्तीह, ज्ञेयमन्यद्विचारणात् । स्थालीपुलाकन्या. येन, प्रत्येकं लघुभावतः ॥ २०३ ॥ किञ्चिन्मुख्यत्वभावेन, दिग्दर्शनमतोऽकरोत् । निगद्यते पुनः स्पष्टं, भगवद्वीरखामिनः ॥ २०४ ॥ निर्वाणं परमार्थेन, सह व्यवहारिकी दशा । कियदुनतिरूपेण, तथा पुष्कलभावत. ॥ २०५ ।। आसीद्यतः सहस्रेषु, जगत्सम्बन्धमानतः। गार्हस्थ्यजीवनं तेषां, समुज्वल तयाऽस्ति चेत् ॥ २०६ ॥ तत्प्रमाणाङ्गभूतं हि, उपासकदशाङ्गके । सूत्रेऽपि विद्यते तावद्धीमता तत्र दृश्यताम् ॥ २०७ ॥ गृहाश्रमे वहुविधे, कार्यादर्शक रूपिणि । कुर्वन् परिणतं त्वासीत्खयं तच्च निशामय ॥ २०८ ॥ (१) 'वीरस्तु भगवान् प्रभु', पितरावभितः प्रति । पूर्व गर्भाशये मातुर्जनकस्य च सेवनम् ॥ कृत्वाऽथ दर्शनायैवं, ज्ञानानुभवतस्तथा ॥ २०९ ॥ स्वयं प्रतिज्ञा कृतवान् । यावन्मे जननी पिता। जीवतस्तावदत्यन्तमहद्दीक्षा सुसंयमम् । योगाभ्यास न चाहं वै, स्वीकरोमि कदापि हि ॥ २१० ॥ यतो मे जनको माता, मोहदृष्ट्याऽ. नुरागवान् । न तु समतया दृष्ट्या, इति चिन्तापरोऽभवत् ॥ यतोऽहमनयोस्सत्वे, संन्यासं संयम व्रतम् ॥ २११ ॥ चरिष्यामि प्रसगेऽपि, न हेयोऽप्यनयोर्नयः। हृदये पुनराघातः, स्यान्महानिति मे मति ॥ २१२ ॥ दु साध्यं च भवेत्तस्मात्सहनं चेतसा कुतः । जीवनस्याऽनया रीत्या,, ससारसार्वदेशिकी ॥ २१३ ॥ घटनयाऽनया शिक्षा लभ्यते नो निशामय । पित्रोराज्ञा विना तद्वदौदासीन्यं न कर्हिचित् ॥ २१४ ॥ कोऽपि त्यक्त्वा गृहारम्भ, मुनिचर्या न धारयेत् । घटनयाऽनया तेषा, यदाज्ञापालनं तयो ॥ २१५॥ विज्ञायावश्यकत्वेन, सेवायाश्च कियत्फलम् । संसाध्य दर्शनं तस्य, मौलिकं च विभावयेत् ॥ २१६ ॥ तीर्थकरोऽपि भगवान् , प्रथमे जीवनेऽपि यत् । सेवाधर्मस्थापन वे, कुरुते विश्वभावनः ॥ २१७ ॥ कथ्यतां कि च वीरस्य, स्वामिनश्चेदमद्भुतम् । आदर्शरूपं सेवायाः, पितृणा किमनल्पकम् ॥ २१८॥ महत्वं विषयश्चास्ति, सूक्ष्मदृष्ट्याऽवलोक्यताम् । प्रतिज्येष्ठं भ्रातर च, अत्युग्रोदारशीलता ॥ २१९ ॥ नन्दीवर्धननामानं, भ्रातरं भगवान् रहः। एकस्मिन् दिवसेऽवोचन् , मदीयोsमिग्रहोऽधुना । समाप्तोऽभूयतवाद्य, भवदाज्ञा प्रगृह्य च ॥ २२० ॥ दीक्षितेक्षा करोम्यद्य, तदा ज्येष्ठोऽब्रवीद्वचः । निर्मोहं च प्रभुं ज्ञात्वा, खयं तु मोहूपीडित.
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
३२७
॥ २२१॥ भवन्तं ज्ञायते शुद्धं, स्वर्गारोहणयोगत । पितुर्मातुः स्फोटकोचे, लवणक्षेपणै. सम ॥ २२२ ॥ भविष्यति न सन्देह, इति कृत्वा दया भवान् । मदीयकयनेनैव, समुषित्वा गृहे पुनः ॥ २२३ ॥ अब्दद्वयसुपर्यन्त, दर्शनार्थमुदारताम् । दर्शयेचेन्महान् देवानुग्रहः स्यान्मयि प्रभो! ॥ २२४ ॥ तथैव भगवान् वीर , कृतवान्नान्यथा क्वचित् । भ्रातु पूज्यतमस्यापि, चेच्छया वापि सम्मत ॥ २२५॥ त्यागोऽनुकूलगमनं, नोचितोऽथ निवृत्तित । तथापि भगवान् वीर , स्वयं च जगदीश्वर ॥ २२६ ॥ ज्येष्ठो भ्राता दर्शनेन, विनयेन च तोषित । तद्वच्च सुखिनः कृत्वा, ज्येष्ठभ्रातु. सुसेवनै ॥ २२७ ॥ पाठोऽपि पाठितस्तेन, वर्षद्वयमभूगृही । भ्रातुराज्ञानुरोधेन, दीक्षाऽपि नैव धारिता ॥ २२८ ॥ एवं सयमसकल्प, हित्वा निर्वाणदं ध्रुवम् । प्राशुकभोजी भूत्वा च, गृहमेवाश्रयत्पुन ॥ २२९ ॥ धन्योऽसि ! भगव॑स्त्वं हि, नाऽप्रसन्न. कृतोऽ. नुज । अत. पाठमिमं लोक , स्वयमाप विना श्रमम् ॥ २३०॥ भगवद्वीरवत्खस्य, भ्राता पितृसम स्मृत । इति ज्ञात्वा सेवया च, सुखिनं तं विधाय च ॥ २३१ ॥ सन्तुष्टत्वेन सस्थाप्यस्तथा मान्योऽनुजो मुहु । तेऽपि रक्ष्या. प्रयत्नेन, धर्मोऽयं व्यावहारिक ॥ २३२ ॥ तद्गार्हस्थ्ये च वैराग्यमष्टाविंशतिसख्यके । वयस्येव सुसम्पन्ने, पित्रो स्वर्गतयोस्तदा ॥ २३३ ॥ तदा वर्षद्वयं स्थित्वा, गृहेऽध्यात्मस्वरूपके। चिन्तनं योगिचर्याया , समारम्भोऽप्यकारि च ॥ २३४ ॥ तेनास्माद्योगतः सम्यग्वोधिता दीक्षणेप्सवः। दीक्षाधारणत. पूर्व, गृहिधर्म समभ्यसेत् ॥ २३५॥ विशेषतो योगचर्या, यया विशदया सदा । चर्यया च सुभाविन्या, स्यानिवृत्तिर्यथाक्रमम् ॥ २३६ ॥ इत्यं तस्या. स्वयं ज्ञानं, जायेत तदनन्तरम् । सहिष्णुतायास्त्यागस्य, भवेज्ज्ञानं तथा पुनः ॥ २३७ ॥ अद्यावधिकियज्जातमुदारोत्तीर्णता यदि । अभिप्रायोऽस्ति मे चाद्य, सच्चर्याया विपाकतः ॥ २३८ ॥ भूत्वा दृढतत पादौ, धर्तव्यस्साधुसाधने । न तु पूर्व ततश्चैवं, विज्ञानां गतिरीदृशी ॥ २३९ ॥ (३) राजनैतिक, शिक्षायाः, शिक्षको यत्र कालके । अमात्यनृपतीनां च, पुत्राणां भूभुजां पुन. ॥ २४०॥ यदाऽभूज्ज्ञानमेत्तद्धि, नरराजसिद्धार्थकात् । महिण्या त्रिश; लयाऽदार्श, स्वप्नश्चतुर्दशविधः ॥ २४१ ॥ यौवने सार्वभौमश्च, चक्रवर्ती भविष्यति । एतदृत्तान्तश्रवणाच्छ्रेणिकेन्दुप्रद्योतनौ ॥ २४२ ॥ दधिवाहनप्रभृतिराजपुत्रा समागता.। भगवद्वीरसेवायां, संलग्नाश्च मुहुर्मुहुः ॥ २४३ ॥, क्षत्रिया
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२४
...
वीरस्तुतिः।
- -
होचिता' सेवा, ततोऽतिरिक्त शिक्षणे । प्रवृत्ता भावुकत्वात्ते, सुभ्राद्धोचितकर्मणि ॥ २४४ ॥ तेभ्योपि भगवान् वीरो, गृहस्थक्षात्रयोरपि । वोधयित्वा च सद्धर्म, सदैतान् सम्प्रयुज्य च ॥ २४५ ॥ व्यवहारेऽथ न्याये च, निपुणत्वं खधर्मणि । नियुक्ता राजपुत्रास्ते, चान्तरजस्वभावतः ॥ २४६ ॥ जाताववोधस्नायं, धर्मधीश्चतुरन्तक । चक्रवती तथाऽय हि, भविष्यति न संशयः ॥ २४७.॥ तन्निरीहविचारोग्रात्तान्प्रतिवर्णवद्गत. । प्रभावस्तेन ते सर्वे, खराज्ये सुकलत्रकम् । परिग्रहे च सन्तोपं, प्राप्याऽऽगता यथागृहम् ॥ २४८ ॥ राज्यशासनकर्मादी, दक्षं प्रशासको ह्यभूत् । प्रजारक्षणनिष्ठावान्, भूत्वा तदवनं कृतम् ॥ २४९ ॥ "दमनं तु शठाना चावनमशठाना तथा । समाश्रिताना भरणं, राज्यचिह्नमिति स्मृतम् ॥ २५० ॥ चरितार्थमेतदुक्ते , करणे 'जातं निरन्तरम् । अथातः सम्प्रवक्ष्यामि, वार्षिकदानमुत्तमम् ॥ २५१ ॥ . अथ सांवत्सरिकदानम्-दीक्षाधारणतः पूर्वमेकवर्षप्रमाणत. । त्रिंशद्वर्षसमारम्मे, जिताचारसुभावत ॥ २५२ ॥ निरीहत्वेन यद्दानं, दीयतेऽनुपकारिणे । इत्यादिदानधर्मस्य, प्रारम्भं कृतवान् मुदा ॥ २५३ ॥ वर्षावधिं सुभव्येभ्यो, 'मानवेभ्यः प्रदत्तवान् । पुष्कलत्वेन दानं यत्सर्वे तेनाऽनृणा कृता ॥ २५४ ॥ केऽपि कस्यापि न जाता, ऋणिन इति सुप्रथा। तथा पुद्गलवर्गे च, ममत्वं तु ह्यपाकृतम् ॥ २५५ ॥रीत्याऽनया पुनस्तेषां, न मोहस्मृति विभ्रम । न जातं । च ततश्चेयं, शिक्षा नः स्थापिता पुरा ॥ २५६ ॥ नीत्वा सन्यासमैश्वयं, भौतिकाच तथेयती । समुत्तीर्य पदार्थात्तु, यतो भाविनिकमणि ॥ २५७ ॥ नात्मांवरोधो जायेत, तथारम्भपरिग्रहात् । निवृत्तोऽप्रतिवद्धश्च, भूत्वाऽध्यात्मन्यमायया। ततो विलीनो भावाच्च, भवेदत्र न संशयः ॥ २५८ ॥ अथ शैशवे निर्भयक्रीडनम् । वस्तुतोऽन्तकपर्य्यन्तं, निर्भयत्वेन सस्थित. । परं भयं न वाल्येऽपि, कृतवान् स कदापि हि ॥ २५९ ॥ विषान्वितोरगं रजुमिवोत्याप्य प्रक्षिप्यते। श्वापदाजीवसघाँश्च, सदासकान्वतेजसा ॥ २६० ॥ करोति स्म भवन्तं च, दृष्ट्वैव दूरमाव्रजन् । महतो भयकरान्देवानसुरान् राक्षसांस्त्रया ॥ २६१ ॥ बलिनो विद्विषस्तद्वदनायासेन लीलया । विजिल जयमाप्नोति, संशयं नात्र कर्हिचित् ॥ २६२॥ अथावोधाभीरकप्रकरणम्-अवोधाssभीरवन्यानां, नोमहिष्यादिचारिणाम् । कस्मिन्देशे च तेपा वे, सज्ञा ‘पाली' ति कथ्यते ॥ २६३ ॥. चलद्भिर्मनुज. साक्रं, मुधैव बहुधर्पणम् । अज्ञान
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३२९ क्रोधकरणं, क्षेत्रविध्वंसनं तथा ॥ २६४ ॥ प्रतिद्वन्द्विनामिदं कर्म, तेषा सुगममस्ति हि । ध्यानमग्नो वने संस्थ , कायोत्सर्गे व्यवस्थित ॥ २६५ ॥ तत्क्षणेऽज्ञानावस्थाश्च, रज्जुभिताडयन्ति च । निर्माय तस्य पाश्र्वे तु, चुल्हिका पायस यदा ॥ २६६ ॥ पाचयन्ति क्षणे तस्मिन् , तापयन्त्यमितस्तथा । स च वीरतया सर्व, सोढवान्न च दुखभाग ॥ २६७ ॥ एकमेव कोप्यवोधो, विनोटेन गलाकया। वंशस्य तीक्ष्णया कर्णे, मेदितो रक्तधारया; आप्ठतश्च तत• काये, दुर्वलत्वमजायत । तथाऽप्यनुग्रहस्तस्मै, कृतस्तेन महात्मना ॥२६८ ॥ नानिष्टं प्रोकवास्तस्म, किश्चिदपि च दुःखत । दृष्ट्या समानया तद्वत्समभावनया तथा ॥ २६९ ॥ यातना सहनशीलोऽप्यभूदादित एव सः । ध्यानावस्था दृढा जाता, मानसीवृत्तिरीदृशी ॥२७० ॥ मेरुवत्तस्य सजाता, ध्यानवृत्ति सुनिश्चला। सागरवच गम्भीरा, सूर्यवत्सा प्रकाशिका ॥ २७१ ॥ सहिष्णुता समुत्पन्ना स्वर्गेऽपि तत्प्रशंसनम् । सभायां शक इन्द्रोऽपि, प्रशंसा कृतवान्मुहु ॥ २७२ ॥ दुर्विदग्धा समाया ये, ज्ञानशून्या सुरास्तथा । विश्वास नैव कुर्वन्ति, दर्शनाशेन वर्जिता ॥ २७३ ॥ देवाशनासहस्राणि, गृहीत्वैक समाययौ । परीक्षार्थ भगवत , संगमश्चाब्रवीत्सुर ॥२७४ ॥ “ध्यानव्याजेत्यादि" चेति, वाक्यं तद्विवुधाधमै । ध्यानं तु केवलं देव! व्याजमानं प्रदर्श्यते ॥ २७५ ॥ नेत्रे सम्मील्य भगवन् । प्रियां कामपि ध्यायसे । देव ! त्वदने कामोऽपि, हावभावसुविभ्रमै ॥ स्त्रिय. कटाक्षपात हि, कुर्वन्ति स्म मनोहरम् ॥ २७६ ॥ किश्चिदुन्मील्य नेने च, दृश्यता नो जगत्प्रभो ! कामवाणार्दितास्तास्तु, सम्पीड्य हृदयं मुहु । स्थिता क्षिप्रं गृहीत्वैव, वाहुं स्ववशमानय ॥ २७७ ॥ भवान् दयालः पद्रकायरक्षणे सम्प्रवर्तते । परं नो मन्मयो देव ! सन्तापं कुरुते रह ॥ तत्प्रतीकारहेतुश्च, भवानेव हि दृश्यते । अतो वयं भगवत , शरणं च समागता. ॥ २७८ ॥ वचनार्थमत. स्वामिन् ! तवाङ्के पतिता वयम् । देहि नो स्थानं भगवन् ! ज्ञात्वा त्वा हि कृपानिधिम् ॥ २७९ ॥ शरणागता इति ज्ञात्वा, दीनाना नाहि मारतः । महान् खेदस्य विषयो, यम्न वा रक्षतीश्वर ! ॥ २८० ॥ न किञ्चिच्छ्यतेऽस्माकं, न चोत्साहं प्रदीयते । त्राता भूत्वा न कुरुते, रक्षामपि यापर• ॥ २८१॥ सुस्पष्टं ज्ञायतेऽनेन, मिथ्याकारुणिको भवान् । वर्षतस्ते वयं कुर्म., सेवा न त्वं प्रसीदसि ॥ २८२ ॥ कर्णान्ते ते न यूकाऽपि, चलते किमतः परम् ।वयं पराजयं मत्वा, ज्ञातवन्तस्ततोऽधिकम् ॥ २८३ ॥ नान्योऽ
मास्याधी । ध्यान नवोत्तुर ॥ २७वाणि, यहीत्वकाल नैव अम्बन्ति २४२ ॥
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३० ' , वीरस्तुतिः। , . विनिर्पणतरों, कठोरहृदयोऽपि च । त्वत्समो नास्ति संसारे, परिपक्वो दयानिधे! ॥ २८४ ॥ एवमुक्त्वा चालयन्तो, ध्यानादुद्विग्नमानसा. । समाश्रित्य खमार्ग ता, गता खसदनं प्रति ॥ २८५ ॥ अतोऽस्माकमियं शिक्षा, सामायिके च संवरे । प्रौषधे प्रतिक्रमणे, समाराधनके क्षणे ॥ २८६ ॥ रचनीये दृशी चर्या, यतः स्यादचलाऽनघा । भूत्वा विषयतस्तद्वद्विजयःस्यादनुक्रमात् ॥ २८७ ॥ इत्युपदेष्टा सज्जातो, ज्ञायतां मनसा हृदा । अथ शरणागतान् रक्षणम्-अथार्ताल्छरणापन्नान्प्रति वीरस्य सद्गुरोः। छमावस्था त्यागपर, निष्कामजीवनं तत. ॥ निर्वाह्यति ससारे, तपश्चर्याव्रतेन च ॥ २८८ ॥ आर्ता. सन्तापिताश्चान्यैर्यदा तच्छरणागताः । तेषामाव्हानमादौ हि, शृणोति च यथा र्थत ॥ २८९ ॥ तत्का ध्यानं तपश्चर्या, तेषां रक्षा कृताऽनिशम् । महतोऽसाध्यकष्टाच्च, सुरक्षयति तान् श्रमात् ॥ २९० ॥ स चर्मेन्द्रो हि शक्रस्य, ह्यपमानं विधाय वै । पलायतोऽशनिपाताद्वञ्चनाथं च तस्य हि ॥ २९१ ॥ . शरणं पादपद्मस्य, समागत्य खजीवनम् । शक्नोम्यहं न जेतुं तं, तेनेत्युक्तं यदा । प्रभु. । ततो रक्षितवॉस्तं च, वीरः सदयवान् जिनः ॥ २९२ ॥ एकदा ' मगधे देशे, मस्करीस गोशालकः । यदा तत्पृष्टगो जातो, वीक्ष्यमेकं तपखिनम् ॥२९३ ॥ परस्तु वृक्षशाखाग्रे, लम्वमानमध शिरः । कृत्वोर्ध्वपादं यश्चोग्रं, तपखपति नित्यश. ॥ २९४ ॥ तजटाजूटतो यूका, निस्सृत्य पतिता भुवि । तदा ता दयया युक्त , पुनः खकचमण्डले । स्थापयति च तं दृष्ट्वा, गोशालश्च प्रहस्य वै ॥ २९५ ॥ उवाच नेदृशो दृष्टो, यूकाशय्यातरस्तथा । इति दुष्टखभावेन, ह्यवज्ञा कृतवान्पुन. ॥ २९६ ॥ गळं प्रति च शाठ्यं वै, कुर्यादिति विचार्य च । कोपावेगसमाविष्टस्तपस्वी खतपोवलात् ॥ २९७ ॥ नेत्रद्वारेव प्रति त, तेजोंऽशतीक्ष्णरश्मयः। पातिता येन तडितो, यातनेवातिदु सहम् ॥ २९८ ॥ प्राप्य दु.ख ददाहायो, खरमन्देन प्राह च । शरणागतं च मा त्राहीत्येवं वाचं जगाद सः ॥ २९९ ॥ तदा पितामहश्वैवं, दयां कृत्वा खनेत्रतः । हिमवच्छीतला लेश्या, तस्योपरिप्रक्षिप्तवान् ॥३०० ॥ तमनाथ मृत्युपाशान्मुक्तवान् कृपया मुहुः । विभो! त्वं हि धन्यतरस्त्वदीयेयं कृपा मयि ॥३०१॥ न कृत्रिमा वास्तविकी, स्फुटं मे सुप्रतीयते । श्रीमद्भगवतश्चेदं, चरित्रं शिक्षणप्रदम् ॥ ३०२ ॥ प्रविष्टमिति तचित्ते, पटुकायप्रतिपालकम् । शंकटान्मोचनीयं च, प्रथम. चोपदेशनम् ॥३०३ ॥ कृतवाश्च स्वयं साक्षा•
मृत्युपाशानन कृत्रिमा १०२ ॥ प्रविम ॥ ३०३
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभापान्तरसहिता
३३१
हृदये चावघार्य्यताम् । अपुनरावृत्य भावस्य, पन्था तेनैव दर्शितः ॥ ३०४ ॥ अथ मनुष्यवन्मूकपशुरक्षणम्-मनुष्यवन्मूकपशूनरक्षयत्वयं जिनः । यदा हि वाममार्गाणा, प्रसारमधिकं ह्यभूत् ।, तदा ते दयया हीना, व्याजाद्यज्ञाच्च कोटिशः । पशवो वहवस्तैश्च, हता मूका निरागसाः ॥ ३०५ ॥ तस्मिन्काले व शमिना, घातकास्ते तपोवलात् । अवरुद्धाश्च वीर्येणानन्तशक्त्या तथा पुनः ॥ ३०६ ॥ न हन्तव्या न हन्तव्या, घोषणेयं मुहु कृता। अवरुध्य भीषणं काण्डं, ससारस्थितप्राणिनाम् ॥ ३०७ ॥ रक्षिताश्चानन्तजीवास्तथाऽसिघातनादपि । तस्यायमुपकारस्तु, धर्मोऽयं च पुरातन. ॥ ३०८ ॥ मुद्राहिता. कृतास्तेन, तत्स्मृतिर्वर्ततेऽधुना । महोदयो वालगङ्गाधरतिलकसंशकः ॥३०९॥ नेता श्रीभारतस्यासीद्धन्यवादं प्रदत्तवान् । जैनसमाजवृन्देभ्यो, नैतच्चाल्पमहत्वकम् ॥ ३१० ॥ अपकर्तृपशूद्धारो, मनुष्य इव सत्कृत.। हिंसकादेरपकर्तुः, पशोरप्यपकारणम् ॥ ३११॥ सदोपेक्षैव सद्भावा, कृता तेविति संस्फुटम् । हिंसावृत्तिरताना तु, पशूनां वृत्तिपाशवीम् ॥ मोचयित्वा समाधेश्च, दत्वा बोधमनामयम् ॥ ३१२ ॥ सदाचाराधिकार च, ददाति स न संशयः। यथा चण्डकौशिकेन, विषाकान्तमहोरगे ॥ ३१३ ॥ वेदना दंशजा शश्वच्छान्त्या सर्वं विशोडवान् । कृपया तं च सन्मार्ग, सदाचारे तथा पुन. ॥ ३१४ ॥ स्थापयित्वा प्रबोधेन, श्रीमुखेन च भाषितम् । चण्डकौशिक ! बुध्यस्व शान्तियुक्तो निशामय ॥ ३१५ ॥ शब्दा एवं प्रकथिता, नरकायेन रक्षितः । पतनतोऽवनं जातो, जगद्गुरुप्रसादतः ॥ ३१६ ॥ शान्त्यैवं सुवोधितोऽपि, सुप्तावस्था गतोऽप्यसौ । क्षिप्त जागरितो बुद्धो, विवेकसमशक्तितः ॥ ३१७॥ साधयति स्म कार्य च, किं मया श्रूयतेऽधुना ॥ एवं विचारितस्तेन, कि शब्दोऽयं कृपामय. ॥ ३१८ ॥ पूर्णा दया च तस्याऽस्ति, न वा चेति विचार्य्यते । एतद्वाक्यकदम्बाना, न जाने खाशयं पृथक् । एतद्वधिरपानेन, सितां च शर्करामपि ।, तिरस्करोति स्वादेन, नो लब्धा चेदृशी मया ॥, ज्ञाते मयाद्य संचारः, शान्तेरस्य च नाडियु ॥ ३१९ ॥ आशा नामापि नास्त्यत्र, मृत्युभयस्य का कथा । परमस्ति क्षमायास्तु, पराकाष्ठेति धारय ॥ ३२० ॥ अपकारकारिण्यपि, क्षमा स्वाभाविक्री कृता.। आवश्यकाधिकानन्ता, शान्त्याख्यकवचोपरि ॥ ३२१॥ सन्मार्गे मां च ह्यानेतुं, कियच्छाघ्यो महानपि । समालोचनपूर्व हि, तस्मै खदर्शनं बभौ ॥ ३२२ ॥ जातिस्मृतिकं सआतं, ज्ञानं गतजन्मस्मार
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३२
वीरस्तुतिः।
-
- .
कम् । क्रोधोऽयं चातिपापात्मा, सञ्चरित्राच्च मां पुनः ॥ ३२३ ॥ पातितवानन . योनौ, निकृष्टायामिति स्थितिः । जन्मत्रयेणान बद्धो, विभो! वन्दिगृहाच्च माम् ॥ ३२४ ॥ भीषणायंत्रणाच्छीघ्रं, मोचय मामिति प्रार्थना । प्राप्य -चैवं विसवादं, विवेकपद्धति गतः ॥ ३२५ ॥ सम-संवेद-निर्वेद, वलादध्यात्मकं रसम् । पिवन्नास्ते सुखेनैव, आयुरन्तिमकान्तकम् ॥ ३२६ ॥ श्वासोच्छा. सकपर्यन्त, परमुत्कृष्टसमाधिना । सल्लेखनायाः प्रारम्भ, कृतवान् शान्तितत्परः ॥ ३२७ ॥ अभ्यस्तपारीणमहानागः पञ्चमके दिने । मृत्वाऽष्टमसहस्रारवर्गातिथिरजायत ॥ ३२८ ॥ धन्योऽस्ति भगवस्त्वं हि, पशूनपि मनुष्यवत् । श्राद्धधर्माधिकारं च, दत्वा तेभ्योऽपि तान्पुन. ॥ ३२९ ॥ भव्यात्मकॉस्तथा चके, भावुकानथ भावत । घटनयाऽनया स्पष्टं, सिद्धं जातं पुरातनम् ॥ ३३० ॥ यथा मम प्रिया. प्राणास्तथाऽन्येषा हि देहिनाम् । इत्युक्तेन प्रका. ' रेणाऽहिंसाणुव्रतधारणे ॥३३१ ॥ "क्रोधाद्वन्धच्छविच्छेदोऽधिकभाराधिरोपणम् । प्रहारान्नादिरोधश्चा, हिंसाया. परिकीर्तिता" । जीवान्स्थापितवाल्लोके, तेभ्यश्चात्मतपोवलात् । शिक्षामप्यात्मयोगस्य, दत्तवान्याययोगतः ॥ ३३२ ॥ यतस्ते भवतो मुक्ता, पशूनामिति ज्ञायताम् ॥ अथास्पृश्यानामुद्धारम्पतितोऽस्पृश्यकोद्धार, इति सिद्धान्तभावनाम् । संस्थाप्य सर्वजातीना, मनुप्येषु वयं प्रभु ॥ ३३३ ॥ तुल्य वर्माधिकारश्च, सुप्रदत्तो विधानत । “शूद्रो भवति धर्मात्मा, शश्वच्छान्ति नियच्छति" इति कृत्वाऽनुवादं च, उच्चावचविभागशः ॥ ३३४ ॥ स्पृश्याऽस्पृश्यविचारस्य, ससारात्स्थानमुद्गतम् । स च निर्मलसद्धे खे, 'हरिकेशवलो' यथा ॥३३५ ॥ जात्या चाण्डालयोनिस्थो, मुनिसद्धे स्थानमाप्तवान् । ऐतिहासिकदृष्ट्या तु, शासनेऽद्यापि तस्य हि ॥ ३३६ ॥ उत्तराध्ययनसूत्रेपु, सुवाक्यगौरवेण च । दृश्यते श्रूयते चापि, तत्र हेतुरयं चुनः ॥ ३३७ ॥ यथा 'तेन्दुक' देवोऽपि, तदपारां भकिमकृत । तस्येदमेव मन्तव्य, गुणस्थानप्रतिक्षणम् ॥ ३३८ ॥ यश्च कश्च समारूढो, न शेपं तस्य पातकम् । यद्गुणस्थानसद्धिरुत्तरोत्तरभावतः ॥ ३३९ ॥ स हि तावच निर्बाणापुनरावृत्तिसनिधिम् । गतोऽतो धार्मिके तद्वद्वयावहारिकगे पुनः ।। ३४० ॥ नो विचारोऽस्ति जात्यादेः, कर्हिचित्सन्धिनाऽनया । शासनस्य ध्वजावद्यः, सौकरः पशुघातकः ॥ ३४१ ॥ जातीयस्याप्यभेदेन, विधामो मिलितस्ततः । भावोऽयं तस्य विज्ञेय., स्पृश्यास्पृश्यस्य बन्धनम् ॥ ३४२ ॥ शिथिलत्वं प्रदायैव,
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३३३ ससूलं तद्विनाशितम् । प्राचीनव्यवहारस्य, सन्मतेन स्थिरं पुरा ॥ ३४३ ॥ विश्वाखिलावतारैस्तैरेवं निर्वहणं कृतम् । यथा शासनपतेर्वीरभगवतः शासनादनु ॥ ३४४ ॥ अयं सारतरश्वत्थं, विचारस्य हृदा पुनः । अथ शत्रूणामुप स्वपि-परोपकारिता-शत्रु प्रत्युपकारस्य, करणे रकान्स्वयं प्रभु । सङ्गमः शूलपाणिश्च, व्यन्तरीकटपूतना । दानवै पशुभिश्चैवोपसर्ग च महत्कृतम् ॥ ३४५ ॥ इति शत्रुगणैर्दत्तां, यन्त्रणा दारुणा तथा। सहित्वा साम्यभावेन, कृतं परिषहे जयम् ॥ ३४६ ॥ षण्मासान्तं च सततं, ददन्कष्टं महाऽसुर. । तदाऽवस्थगितो भूत्वा, हारितः स गतस्तथा ॥ ३४७ ॥ तदा तन्नयनाम्भोजादश्रुविन्दुद्वयं त्रिकम् । पतितं च यथा न्याये, इत्यवेहि च मानसे ॥ ३४८ ॥ "कृतापराधेपि जने" इत्याद्युक्तं पुरैव च । अभिप्रायोस्ति तस्यायमपराधगुरुस्तथा ॥ ३४९ ॥ पानोऽयं सञ्चितस्यास्य, कुत्सितस्य च कर्मणः । मावि तत्परिणाम हि, कथं सक्ष्यति कुत्र वा ॥ ३५० ॥ दुस्सहं यद्भवेचैतदेतदर्थ निशामय । अहो विज्ञायते चाद्य, शत्रूपरिशिवस्पृहाम् ॥ ३५१ ॥ कृतमाध्यस्थभावेनौदार्यगाम्भीर्यशौर्य्यकम् । इति गुणसमूहाना, वैलक्षण्यं क्षमा वरा ॥ ३५२ ॥ महिमा चेति नान्यस्मिन्वीराद्भिन्ने प्रदृश्यते। अनार्यदेशेऽपि तथा, विहारो भ्रमणं तथा ॥ ३५३ ॥ निरन्तरं नावरुद्ध, धर्मात्मसदृशं मुहु. । दर्शनमनायंसपेभ्यो, धर्मकोटिनयाय च ॥ ३५४ ॥ म्लेच्छदेशेऽपि तस्यासीदनिवार्य्यभ्रमण मुहुः । तत्राऽपि च भवन्तं हि, कश्चिन्जानाति दूरग. ॥ ३५५ ॥ देशान्तरस्थ कश्चिम्च, मेदक तस्करं तथा । ज्ञात्वा नन्ति च वघ्नन्ति, कूपाधो लम्वयन्ति च ॥ ३५६ ॥ ते केचित्तच्छरीरे च, मृगयारसिका मुहुः । सारमेयानवोधाश्च, लगयन्ति च ते पुनः ॥ ३५७ ॥ खतीक्ष्णनखाघातैर्दन्तैश्च तच्छरीरके । क्षतं कुश्च जातास्ते, सशक्षा स्थगिता रह. ॥ ३५८ ॥ परं स्वयं स गिरिवदचलोऽभूदवनीतले । तथाऽधमा नराश्चदं, दृष्ट्वा धैर्य्य सहिष्णुताम् ॥ ३५९ ॥ प्रभावाद्भाविता भूत्वाऽऽश्वर्ययुक्ताश्च तेऽभवन् । ततः पराजिता जाता , पतितास्तत्पदाम्बुजे ॥ ३६० ॥ ततश्च श्रद्धया जैने, भूत्वा श्रद्धालवो मते। महाव्रताऽणुव्रतयोलीना• ससाधने मुदा ॥ ३६१॥ अनन्ता यातनां भुक्त्वा, मिथ्यावादिष्वनायकेष्वनिवार्यजनेष्वत्र, जैनधर्मस्य चोत्तमा ॥ संस्कारः स्थापितस्तेन, सत्यं सत्याग्रहात्मनाम् । कठोरहृदयानां च, लब्धवान् विजयं तथा ॥ ३६२ ॥ चर्य्ययाऽनया नश्च, शिक्षा सजायते परा। भगवतो वीर
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः।
देवस्य, सुपुत्रो निर्भयो भवेत् ॥ ३६३ ॥ अनार्य्यमतिना गश्वलोकानां वीर- . स्वामिनः। धर्मेऽग्यनादिसङ्ग्रेऽपि, गत्वा च प्रसरेदिति ॥ ३६४ ॥ तत्रावोध- - नरास्तद्वद्धर्मसत्कर्मवञ्चिता। प्राणिनो ये च तत्रापि, धर्मोऽनैकान्तिकस्य हि ॥ ३६५ ॥ संस्थापितो मूलतरस्ताँश्च श्रीवीरस्वामिनः । सुधर्मस्याप्यनुगामिनः; - कृतवान्स दयापर. ॥ ३६६ ॥ हठादिदमहं वक्ष्ये, मदीया मुनिभातर.! न दत्तं ध्यानमत्रापि, कदापि न हि सम्मतम् ॥ ३६७ ॥ भूत्वा प्रत्युतदेशस्य । ग्रामस्य नगरस्य च । पिण्डोलको मोहवशे, ममताया प्रमादके ॥ ३६८॥ । कृत्वा कलङ्कितं खं च, नोचितं म्लानता गतम् । तत्रैतत्कारणं ज्ञेयं, प्रार्थनाथ मुनेरिदम् ॥ ३६९ ॥ वाराणसीति पावस्य, क्षेत्रं भगवत. परम् । वीरस्य कुण्डिनपुरी विख्यातं मगधे पुनः ॥ ३७० ॥ विहारशरीफ़नाम्नश्च, मण्डले , वर्तते च या। पुष्कळत्वेन नायातं, मुनिभ्रमणमित्यपि ॥ ३७१ ॥ धर्मप्रचारः . श्रवणे, नायातश्च यदानये । भगवतो वीरदेवस्य, चैकविंशसहस्रकम् ॥३७२॥ शासनस्य प्रचार• स्यात्तदा किं कारणं वद । तच्छासनसमृद्ध्यर्थ, नानि तस्य च पूज्यवान् । प्रसक्ता ये जनाश्चासँस्तजन्मभुवि मानवा. ॥ ३७३ ॥ तेपु धर्मप्रचारोऽपि, न भवेदिति चिन्तने। शोचनीया सुवार्तेयं, सद्धाग्रगण्यभ्रातर.। एतदुन्नतिकालेऽपि, भवन्तश्चन्मतं परम् । जैनं तस्य नोदनाथ, ' यद्यस्ति परिचयो महान् ॥३७४ ॥ ज्ञातव्यं भवतां नाम, सनश्यति गजेन्द्रवत् । अतो हि विदुषां तद्वत्क्रियाऽऽपन्नमुनीनपि ॥ ३७५ ॥ बुधरत्नप्रसिद्धानां, वक्तृणां सर्वसम्मते। व्याख्यानवाचस्पतीना', सन्यासधारिणा तथा ॥ ३७६ ॥ चिन्तयामि सदा सम्यक्खप्रचारस्य क्षेत्रकम् । भगवता वीरदेवेन, समं कुरु विशालकम् ॥ ३७७ ॥ जैनधर्म तथा शवद्विश्वव्याप्यं तथा कुरु । भवन्तो वेऽपि चास्यैव, रोगस्य परिमार्जका. ॥ ३७८ ॥ सन्त्योपधिकराश्चात्र, न वा चेति विचार्य्यताम् । अथ भक्तःगृहस्थान्प्रति-वभक्तान्यहस्थान्प्रति जीर्णक-सौकरिकादिकम् ॥ ३७९ ॥ पूर्णीयेति खधर्मे च, दृढवेति वितृष्णकः । सरलैव तथा चासीत्तत्प्रशंसा च वर्णिता ॥ ३८० ॥जीर्णस्य भक्तिभावना, पूर्णीयस्य सामायिकम् । मुविक्रेतुः पूनिकेति, सदास्ति जीविका पुनः ॥ ३८१॥ सामायिक पवित्रं च, सौरिकस्याऽप्यणुव्रतम् । जनं ससारकल्पान्तं, न हि तद्विस्मरिष्यति ॥३८२ ॥ इतोऽतिरिके तस्यास्ति, शुभागमनसूचना ।
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
३३५
यदा भव्यानुभावेभ्यो, भक्तेभ्यश्चापि जायते ॥ ३८३ ॥ नगराच बहिर्देवो, निर्जने कानने खयम् । वीरश्च भगवान्खामी, समायातोऽतिपुण्यत ॥ ३८४ ॥ शक्रादिदेवै सर्वेश्च, समवसरणनिर्मितम् । महान् कलरवो जातो, नगरेऽपरिमिता जना. ॥ ३८५ ॥ धर्मानुरकाः श्रोतारो, जिज्ञासव इतीतरे । तेभ्योऽतिरिक्तपश्वादिश्वापदा. पक्षिणस्तथा ॥ ३८६ ॥ आयान्ति समिती ते तु, रचिते समवसरणके। महत्सम्मेलनं जातं, तदा ते जातिभावनाम् । स्वाभाविकं पाशविकं, त्यक्ता हि वैरभावनाम् । शान्तिच्छटा नीतवन्तो, जाताते वर्मतत्पराः ॥ ३८७ ॥ उपदेशानन्तरं भूपा , सार्वभौमास्तथाऽपरे । राज्यसत्ता परित्यज्य, गृहीतमुनिसुव्रता. ॥ ३८८ ॥ गृहिणोऽपि गृहे स्थित्वा, पञ्चाणुव्रततत्पराः । तृष्णाभार समुत्तार्य, सम्यक्त्वभावमागताः । जीवनं सफलं जाता, कुर्वन्तस्ते पदं परम् । औदासिन्य रूक्षभावं, भोग्यं कर्मोपभुज्य च ॥ ३८९ ॥ अन्ते निवृत्तिमार्ग च, लब्ध्वाऽक्षयसुखं पुनः । अनेकानि प्रमाणानि, लभ्यतेऽनेकशस्तथा ॥ ३९० ॥ अथ शास्त्रार्थप्रकरणम्-अथ शास्त्रार्थवृत्तीना, वादिना प्रतिवादिनाम् । ऋजुवालकानद्याश्च, तटे श्यामाकक्षेत्रगे ॥ चतुष्टयानन्तमापन्ना, सद्धर्मप्रतिपत्तये ॥ ३९१ ॥ गोरखमण्डले ग्रामे, 'पडरोणेति' विश्रुते। पावापुर्या चोपवने, भाजते स्म जगत्प्रभु ॥ स्याद्वादमहावाचा, महानादेन शब्दिता ॥३९२॥ दिशा. कुर्वस्वदा काले, कस्यचिद्राह्मणस्य हि । महाघ्वरोत्सवो जातस्तत्रैकादश पण्डिता ॥ ३९३ ॥ आहूतास्तेनेन्द्रभूतिर्महामान्यश्च वेदगः । आसीत्तस्याभवइछात्राश्चत्वारिंशच्छतसहस्रगाः ॥ ३९४ ॥ वेदाध्ययनसम्पन्ना, विद्यार्थिन इति स्फुटा । अगणितानां च देवानामायव्ययाद्धि गौत्तम ॥ ३९५ ॥ ज्ञानं जातं तथैवात्राऽनेकान्तवादवित्तथा । समायातो जिनेन्द्रश्च, सर्वज्ञो विश्वरक्षकः ॥ ३९६ ॥ शास्त्रार्थ तेन साकं वे, शर्मा समवसरणकम् । गच्छति स्म तदाऽऽयान्तं, दृष्ट्वा तं जगत प्रभु. ॥ ३९७ ॥ आगन्तुकस्य सशिष्टाचार शिक्षणाय च । स्वभाविगणधरस्य, स्वागतं चेन्द्रभूतये ॥ ३९८ ॥ तत्कमानसिकं भावं, तस्य संशयशंसिनम् । तन्निवृत्ति कृता तेन, तथा संवेदिनी मुहु ॥ ३९९ ॥ शिक्षा दत्ता प्रभावोत्या, चाहती चोपकारिणी। तदिन्द्रभूतये तद्वद्वेदवेदमिताय च ॥ ४०० ॥ महानुभावश्रेष्ठेभ्य सुप्रदत्ता गरीयसी । हेयं ज्ञेयमुपादेयमिति च त्रिपदी मता ॥ ४०१ ॥ ज्ञानोत्पादयित्री सा, सोत्पादव्ययनौव्यकम् । पद्रव्यात्मकं चैव, द्वादशागिगिरा सह ॥ ४०२॥ चतुर्दशात्मकं पूर्व, यदुक्तं
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३६ . . . वीरस्तुतिः। : तद्विशालके । ज्ञाने परिणतं कृत्वा, स्थविरान् रुद्रसंख्यकान् ॥ ४०३ ॥ गणधरपदे सम्यक्स्थापिता सर्वसंयते । प्रथमं चेत्यमनिशं, खकीयानन्तज्ञानके ॥ ४०४ ॥ लाभमुत्पाद्य तेभ्यश्च, खखदिद्गिर ४४०० द्विजातये। दत्वा निर्वाणमार्ग च, तत्पथि पथिका कृता ॥ ४०५॥ अथानाथवालिकोद्धरणम्-अथानाथवालिकाया, उद्धरणं कृतं खयम् । सार्धद्वादशवर्षाणा, तथा पञ्चदशे दिने । ॥४०६॥ [छद्मावधौ दुष्करं च, तप कुर्चेश्च विश्वदृक् ] तदैकस्मिस्तु कालेऽथ, , त्रयोदशविधात्मक । कृतो मीष्माभिग्रहश्च, कृतवान् पणधारणम् ॥ पण्मासान्तं : न यत्पूर्ण, न शक्यं भवितुं पुन. ॥ ४०७ ॥ परन्त्रयं त्वचलितस्तस्मात्पणमया. प्रभु. । प्रयागमण्डलतद्वत्कौशाम्बी नगरी ततः । भ्रमन्त्रैश्चन्दनाख्याया, वालाया कर्तुमुत्सुक । सूद्धारं धनवाहस्य, श्रेष्ठिनश्च गृहाङ्गणे ॥ ४०८ ॥ समा- . गत्य स्थिरश्चाभूद्गृहस्यास्य सुकोष्ठके। द्वाराग्रे च सती वाला, चन्दनाऽतीवभक्ति ॥ ४०९ शृङ्खलानिगडैद्धा, तिष्ठतीति विलोक्य च । अन्वेषते तथा । मार्ग, भगवतो वर्मतत्परा ॥ ४१० ॥ अनाथा बन्दिनी वीरं, भगवन्त निरीक्ष्य : च । सुहप प्रकटं कृत्वा, कुर्वती भाववन्दनाम् ॥ ४११॥ प्राह जगद्गुरो ! देव ! सूर्णे लोहमये पुन. । माषान्नवाकुली चास्ति, तद्गृहीत्वा च मां पुन. ॥ ४१२ ॥ कृतकृत्या द्रुतं कुर्ग, इति मे प्रार्थना शृणु। समयेऽत्यत्र तस्याश्च, प्रफुल्लितमुखाम्युजम् ॥ ४१३ ॥ पर भगवतश्चास्यां, स्वल्पमस्मिन्नभिग्रहे । तथाऽप्यश्रुप्रवाहस्य, न्यूनत्वं चात्यवर्तत ॥ ४१४ ॥ स्वयं स च परावृत्य, चलवानीषद्गतिस्ततः । चन्द्रनाऽपि तदाऽपश्यद्भाग्यहीना गृहं मयि ॥ ४१५॥ स्वयं देववरो भानुः, समागत्यालयं मम । खप्रकाशं समाहृत्य, पश्यन्त्या मे गतोऽस्तकम् ॥ ४१६ ॥ अस्यां दशायां दीनायाश्चावलायाः प्ररोदनम् । विनाऽन्यद्दर्शनं तस्यै, नास्ति कस्य प्रयोजनम् ॥ ४१७ ॥ चक्षुर्त्यां यमुनागङ्गाप्रवाहो वहति द्विधा । महादयालवीरस्याभिग्रहं . पूर्णता गतम् । खाभिग्रहस्य दृष्ट्वा तु, खादूप्या भक्तितत्परा । सदा सकानुरक्तायाः [करात्] माषधान्यस्य वाकलाम् । गृहीत्वा दानातिशयाद्देवैर्मुकाथ वन्धनात् । केवलज्ञानभवनात्पश्चादार्यात्वमाप्स्यति ॥ ४१८ ॥ दत्वा स्वतन्त्रता तस्यै, जीवन्मुक्तत्वयोगतः । कथितश्चातियत्नेन, वक्ता तत्कायमुत्तमम् ॥ ४२० ॥ शेपमायुं प्रभुक्त्वा च, निर्वाणपदमागतम् । वीरस्येति प्रभावाद्या, कल्याणमात्मकं
-----
. * अग्निपक्काक्षतधान्यस्य बाकलासंज्ञेति भाषायाम् । ।
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३३७ कृतम् ॥ ४२१॥ निजाधीनो जनो यश्च, न कुर्यात्वसमं नरम् । स धनी निन्दितो ज्ञेय, इति जानीहि संस्फुटम् ॥ ४२२ ॥ अथ सदाचारिशिष्यान्सदाचारवत. शिष्यान्, प्रति जागद्यते पुनः । यस्तस्य चरणाम्भोजसमीपं सुसमाहितः ॥ समागत्य च दीक्षाया भागवत्याः प्रसादकम् ॥ ४२३ ॥ भगवतः प्राप्तवान्शश्वत्तमेवामेदभावत । कुर्यात्तमुन्नतं चैव, भाविनं सोऽपि वस्य च ।। ४२४ ॥ अध्यात्ममार्ग सम्माष्टुं, योग्यत्वमुपलब्धवान् । तथाऽभयकुमारस्य, धन्यस्य च महामतेः ॥ ४२५ ॥ शालिभदातिमुक्तस्याद्योरुदाहरणानि च । श्रेणिकेन नृपेणैव, मगधेशेन चैकदा ॥ ४२६ ॥ उत्कृष्टक्रियायाश्च, साधना धन्यस्वामिन. । दृष्ट्वा च भगवान् पृष्टो, धन्यनाम्नो मुनेरथो ॥ ४२७ ॥ सुक्रियोत्कृष्टपात्रस्तु, मुनीश. सम्प्रतीयते । परं भगवता चेदं, गदितं तन्निशामय ॥ ४२८ ॥ श्रुतचारित्रपारीणचतुर्दशसहस्रकम् । मुनीना सपरिवाराणा, मुक्तमालामणेनिभम् ॥ ४२९ ॥ यथोचितमिदं श्रुत्वा, चोत्तरः श्रेणिकस्य हि। समस्तमुनिसङ्घ च, जाता श्रद्धा समा धिया ॥ ४३० ॥ अथ पितुर्मित्रं प्रति-मित्रं प्रति पितुश्चैकवारं छद्मदशास्वपि । भूमण्डले भ्रमनस्मिनेकसन्यासिनो मठे ॥ ४३१ ॥ निवसितुं निशामात्रमिच्छया समुपागतः । मठाधीशो मित्रपुत्रं, ज्ञात्वा तत्प्रेमरश्मिना ॥ ४३२ ॥ बद्धो भूत्वा वाहुपाशे, गृहीत्वा तं च सङ्गतः। तथेयं च कृता तेन, प्रार्थना भगवन् ! पुनः ॥ ४३३ ॥ भवान्मिनं च सिद्धार्थराजस्य तनयोऽस्ति च । अतो मनस्तनुश्चेयं, स्थानं चेद तवैव हि ॥ ४३४ ॥ अतश्चागामिनि वर्षे, चातुर्मास्यव्रतं महत् । अत्रैव कृत्वा पूतं हि, कुरु स्थानं मदीयकम् ॥ ४३५ ॥ मौनावस्थाखपि भगवान् , ददौ वै खीकृतिं पुनः। शेषकालं यापयित्वा, तन्मठस्य च सन्निधौ ॥ ४३६ ॥ तृणमयी कुटी स्थित्वा, कृत्वा ध्यानं स्थिर पुनः । कायोत्सर्गे लयो जातश्चातुर्मास्येषदेव हि ॥ ४३७ ॥ व्यतीते दिवसे जातो, दुर्भिक्षस्तु महॉस्ततः । तृणाभावाच्च पशव , क्षुधार्ता वेदनोदये ॥ ४३८ ॥ तदा तत्पर्णशालायास्तृणपुझं मुहुर्मुहु । निष्कास्य भक्षयामासुस्ते तदा कालयोगतः ॥ ४३९ ॥ नावरुद्धा मठाधीशो, दृष्ट्वेद वृत्तमद्भुतम् । आश्चर्ययुक्तोऽभूत्तस्मिनैतादृशं कदापि हि ॥ ४४०॥ निस्पृहत्वं मया दृष्टं, न कृतं गृहरक्षणम् । पर तस्य मनोभावं, ज्ञातवान् क्रमश प्रभु.॥ ४४१ ॥ ज्ञात्वाऽप्रियकर स्थानं, विहारं झगिति कृतम् । शान्तिर्भमा न मे भूयादिति तेन विचारितम् ॥ ४४२ ॥ "संकडे सकडं ठाणं", दूरतः परिवर्जयेत् । सिद्धान्तस्यति सारे वा, स्थापनं कृतवान्मुहु. ॥ ४४३ ॥ अथ धाद्विचलितान् प्रति
वीर. २२
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३८ . .: वीरस्तुतिः ।... यातनातो · वर्मकाण्डाच्चलितान्किञ्चिनिगद्यते। कस्मिंश्चित्समये राजगृहाधीश. सुश्रेणिकः ॥ ४४४ ॥ तनयस्तस्य चैकोऽस्ति, मेघकुमारनामक.। श्रुत्वोपदेश वीरस्य, सवेगात्प्रतिजगृहे ॥ ४४५ ॥ दीक्षोत्तमा तदा तस्य, दीक्षितस्य नवस्य च । सर्वमुनीना पश्चात्तु, तदाऽऽसनमवेशयत् ॥ ४४६ ॥ परन्त्वावश्यक कार्य, कर्तुमायान्ति यान्ति च । मुनयोऽनुपयोगत्वान्निशाया. समयस्तथा ॥ ४४७ ॥ तेपामीर्याभङ्गवशात्पादस्पर्शी मुहुर्मुहुः । जातस्तत पराभूय, व्याकुलोऽभून्महामना ॥ ४४८ ॥ निद्राऽभावसमापन्नो, विचारे तत्परोऽभवत् । कि मेघायुर्मदीयं च, पादप्रहरणाद्गतम् ॥ ४४९ ॥ प्रसदैवं व्यतीतं स्यान्नह्येतस्मै मुनित्रतः । प्रातरेव हि दत्वेदं, धर्मोपकरणं मुदा । गत्वा च जननी खा च, मिलिष्यामि सुप्रेमतः ॥ ४५० ॥ साधुरवि सम्भूय, रुलित पादलग्नत । नेत्थं विनिर्वहेच्चाय, प्रदृष्टुं पूर्वमेव तत् ॥ ४५१ ॥ सदा चायाति भक्त्यैव, तदाऽप्यादरतोऽवदत् । अद्य भूत्वा सुसयमवान्न जानन्ति कथंचन ॥ ४५२ [न जानन्ति कथं चाद्य, किमाश्चर्यमतः परम् ] निदानन्त्वत्र प्रातर्हि, मुनिर्मघकुमारकः। वीरस्य चरणाम्भोजवन्दनार्थ समागतः ॥ ४५३ ॥ गुरोः प्रष्टुं समुत्पन्ना, लन्ना तस्य मुनेरदः । . नतं शिरश्चकाराशु, कुमार. क्षत्रियस्य च ॥ ४५४ ॥ स त्वन्तेवासी भूत्वा च, तस्य च सद्धलाश्रय । ससारतारको वीरो, निशावृत्तं च ज्ञातवान् ॥ ४५५ ॥ सर्ववृतं निशाजन्यं, निगद्य पुनरुतवान् । रात्रौ वत्स ! मुनीना च, पादप्रहारतस्त्वया ॥ ४५६ ॥ लब्धा निद्रा न वान्तर्वे, नार्तध्यानमागतम् । अतो निद्रा सुविच्छिन्ना, निशाऽतीताऽतिकष्टदा ॥ ४५७ ॥ परं विवेकपन्थानं, मार्गयस्त्र समागत । तदा स्यात्पूर्वकं ज्ञानं, जन्म पाशविकं तव ।। ४५८ ॥ तत्र कटं महत्किं वा, निशापादप्रहारकम् । एतावन्तं प्रतिश्रुत्य, मेघनानो मुने तम् ४५९ जातित्सरोऽभवत्पूर्वजन्मद्वयगतस्य च । तिर्यग्भावगता वार्ता, समारूढा स्मृतेः पथम् ॥ ४६० ॥ पूर्वसवेदिनी तद्वद्दशा जावेत्थमगुता । तदा योगी पुनर्जातो, दीक्षादानविधानतः ॥ ४६१ ॥ तथैकमासपर्यन्तं, वृत्वा सल्लेखना गुरो. । अन्ते द्वाविंशतिवर्गस्याहमिन्द्रोऽभवत्तत• ॥ ४६२ ॥ कम्पमाननगं चेमं, सुस्थिरं कृतवान्पुन । भगवान्वीरदेवश्च, ज्ञातव्यमुत्तमं तप. ॥ ४६३ ॥ प्राणभृतामसख्यानामित्थं भ्रमरजालके। मना नौरुद्धृता वीरदेवेन भवचक्रतः ॥ ४६४ ॥ भवा. म्भोधेस्तारकत्वात्तारकः परिगीयते। निपुणः शक्तिमत्त्वाच्च, कर्तेत्यपि च कथ्यते ॥ ४६५ ॥ अथ खद्दरं प्रति-यदानन्दकामदेवादिकानां गृहमेधिनाम् । गृहिणः
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
३३९
श्रावका ये च, जैनधर्मानुगास्तदा ॥ ४६६ ॥ *वस्त्रात्मकविधौ स्थूलसूत्रंज वसनं मुदा । तत्तत्त्सामयिका लोका, धारयन्ति स्म तन्मुहु ॥४६७॥ तत्क्षौमयुगलं प्राहुस्तत्कालीना नरा भुवि । निर्माय वसनागारं, स्थूलसूत्रस्य तै पुनः ॥४६८॥ ततोऽन्यद्वर्जयित्वा च, धार्यतेस्म तदेव हि । प्रति ससारिण सर्वानरान्खस्य स्वकीयकम्, ॥ ४६९ ॥ द्विसप्ततिमिताब्दान्त, चायुरुकं समासतः। सज्ञानानन्ततेजोभिश्चतुर्थसमयस्य हि ॥ ४७० ॥ सृष्टिमुद्भासयामास, भन्याना कोटिशो विभुः। शंकाऽऽकाला विरहिता, विचिकित्सा विवर्जिता ॥ ४७१ ॥ अमूढदृष्ट्युपगृहश्च, स्थितिभावस्थेतर । खवात्सल्यमहिम्नैतान् , कृतवान्स प्रभावितान् ॥ ४७२ ॥ स्त्रियः शुद्रास्तथा नीचास्तथोच्चाश्चेत्यमेदताम् । धर्मसाधन समानाधिकारत्वं स्थिरीकृतम् ॥४७३॥ तन्महत्वं कियच्चेति, विचारय मुहुर्धिया। भगवन्महावीरेण, यत्किंचिद्दर्शितं. खलु ॥ ४७४ ॥ आदर्शरूपं तस्याद्यतुलना कर्तुमक्षम । इतिहासपुराणादिजाते भुवि गवेषणे ॥ ४७५ ॥ नान्यत्र कुत्रचिल्लाभो, दृश्यते तस्य नैव हि । प्रत्येकस्य समुल्लेखो, लक्षश कोटिशस्तथा ॥ ४७६ ॥ व्याख्यानस्य निबन्धस्य, जायते रचना वहु । कोऽनन्तसुगुणान्वक्तुं, प्रभो शको भवेन्नर ॥ ४७७ ॥ अतोऽस्य लेखने शश्वद्विषयो न प्रपूर्यते । एतदर्थं केवलं च, समुल्लेखनक कृतम् ॥ ४७८॥ कृत्वा चाशामहं कुर्बे, दृष्टान्तैरेभिरन्वहम् । पाठका स्फुटरूपेण, ज्ञायेरन्सर्वथा यथा ॥ ४७९ ॥ भगवॉश्च महावीरो, वर्धमानस्तथापर । शासनाधिपतिस्तद्वद्धर्म मूर्तिर्जिनेश्वर ॥ ४८० ॥ तीर्थकरो वीतराग , साक्षाद्धर्मप्रवर्तक । जगदुद्धारकश्वासीत्सन्मतिश्च स एव हि ॥ ४८१ ॥ सन्ति संसारगा. सर्वे, समवसरणे स्थिता । यदा मुन्योईयोस्तेजोलेश्यया च विहिंसनम् ॥ ४८२ ॥ हातुं तेजस्तदेवाशु, भगवन्तमुपरि तदा । न क्षमो निघृणश्चास्य, गोशालस्य विशेषत ४८३ शत्रुभावं गतस्यापि, क्षमादृष्टि. खभावत । कृता यैरादर्शरूपो, देवाधीशोऽप्यसख्यया ॥ ४८४ ॥ दयादेव्या स्मारकोऽयं, सन्देहो नात्र कस्यचित् । 'धर्मस्य च समनस्य', लक्षणं तत्र वर्तते ॥४८५॥ न वा पूर्णतया चेदं, विचारेण विभाव्यताम् । समग्रस्य च धर्मस्य, लक्षणं प्रतिपादितम् ॥४८६॥ अथ यशसश्च समग्रस्य-भगवन्महावीरस्य, दिगन्तव्यापिनी शिवा। कीर्तिर्या वितता लोके, तद्विषये निगद्यते ॥४८७॥ पारमार्थिकदृशा वक्तुं, शक्यते चेदृशं पुन. । न केऽपि सन्ति ससारे, प्राणिना भगवद्गणैः ॥ ४८८ ॥ मुग्धभावं न जायन्ते, न • * यदाधुनिकभाषाया 'खद्दर श्वेति गीयते।
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः। ,
गायन्ति ? च तद्गुणान् । बुद्धकल्पाजनाश्चापि, वहवः खमुखेन वै ॥ ४८९ ॥ ज्ञातपुत्रमहावीरस्तदनन्तचरित्रकम् । मुक्तकण्ठेन, तस्यापि, सर्वज्ञत्वं प्रशंसिरे ॥ ४९० ।। आध्यात्मिकस्य तत्त्वस्य, पदार्थे तत्त्वचिन्तका.। ये ये प्रसिद्धा लोकेऽस्मिन्महानुभावभाविताः ॥ ४९१ ॥ यान् ' यान्साहित्यविषये, ग्रन्थान्प्रति सुधीमतः । भगवन्महावीरस्यादर्शजीवनरूपकम् ॥ ४९२ ॥ चरितोपदेशकाना यः, प्रभावः पतितो भुवि। सूचीपत्रविनिर्मातुं, सर्वथा तदसम्भवः ॥ ४९३ ॥ एतावढेव सकपात्कथितं च महोदयैः । एतादृशो जनः श्रेष्ठस्तथा साहित्यतत्वविद् ॥४९४॥ संसारे विरलश्चास्ति, ज्ञात्वाऽज्ञात्वा विशेषतः। भगवन्महावीरस्य, जिनस्य प्रतिवासरम् ॥ ४९५ ॥ अनेकान्तवादतत्त्वस्य, सेतिहासोपदेशकैः । लाभो नोत्या. पितो, लोकैयितां परमार्थतः ॥ ४९६ ॥ यत्र श्रीवर्धमानस्य, जिनस्य न हि दृश्यते । चिन्हें किञ्चिन्मत्वल्पं, सर्वत्रैवं विचारय ॥ ४९७ ॥ साधारणात्मव्यक्तीनां, महत्व न वचस्खपि । परं भारतवर्षस्य, यावन्तश्चेतिहासके ॥ ४९८ ॥ महान्तो मनुजा जातास्तेऽवश्यं वीरवामिनम् । येन केन प्रकारेण, स्मृतवन्तो मुहुर्मुहुः ॥ ४९९ ॥ इति वार्तातिरिक्तं च, सिद्धं जातमिति स्फुटम् । विद्वांसः पूर्वकालीना, वर्धमानजिनस्य च ॥५००॥ चरिते स्याद्वादकस्य, सिद्धान्तस्य प्रकाशनम् । पतितं परमाधिक्यं, नानाख्यानान्वितं पुन. ॥ ५०१ ॥ पठनाद्यस्य ज्ञातारो, ज्ञास्यन्तीति विशेषत । पाश्चात्यैर्निखिलेलेकर्नामेशुस्नस्तस्य गृह्यते ॥ ५०२ ॥ तचापि महावीरस्य, चरित्रे जीवनस्य हि । तथा सदुपदेशस्य, शिशुरेको लघुध्रुवम् ॥ ५०३ ॥ तदा किमियमाशा वै, न कर्तुं शक्यते मया। पाश्चात्यभाविनि भवे, वीरस्य विश्वव्यापिन ॥ ५०४ ॥ प्रभावोऽद्यतनात्तुल्या, ज्ञानरूपाश्च या मुदा। प्रत्युतानन्तप्रख्यातप्रकारत्वेन सस्फुटम् ॥ ५०५ ॥ सुपाश्चात्यैर्जनैर्विश्वे, वर्णितं मुक्तकण्ठत । भगवन्तं खेप्टतमं, मन्यन्ते स्मानुभावत. ॥५०६॥ सुतात्पर्य्यमिदं तस्य, समग्रयशसः परम् । लक्षणं च महावीरे,' परिपूर्णसमन्वयः ॥ ५०७ ॥ श्रियः समग्रायाः-श्रीमॉश्च भगवान्वीरो, जन्मजन्मान्तरा; नुग.। खीयः गणघरश्चन्द्रभूतिस्तस्मै द्विजाय च ॥ ५०८॥ त्रिपद्यात्मकविज्ञानं, दत्वेत्थं द्वादशाङ्गकम् । चतुर्दशपूर्वज्ञानं, तस्मै श्रीगौत्तमाय च ॥५०९।। पूर्वधरश्रुतेऽपारपारीणं सुविधाय तम् । गणधरं मुनिपुङ्गवं, कृतवान्सदयालयः ॥ ५१० ॥ यस्यानन्तज्ञानलक्ष्म्या, नेतुं लामं च रोहकः । गाङ्गेयादिस्तदाख्यानं, भगवत्यां पञ्चमागके ॥ ५११ ॥ कृतवाँस्वद्विशेपेण, ज्ञातव्यं सूत्रपाठक । किं
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
३४१
तन्मुक्तावसङ्ख्यानां, प्राणिनां प्रेषके पतौ ॥ ५१२ ॥ मुक्ती श्रियः समग्राया, लक्षगेति समन्वये । निरूपणे तथाऽवश्यं, यनः कार्यो विशेषतः ॥ ५१३ ॥ यश्च 'सद्धपतेश्चापि, वसुसम्पत्तितो *रहः । सम्पत्तिमन्तं कृतवानिति जानीत ज्ञानतः ॥ ५१४ ॥ वैराग्यस्य समग्रस्य-चतुष्टयाऽनन्तसम्पत्प्रातिहााद्यनेकधा। धर्मसम्पत्सईसम्पत्कीर्तिसम्पत्तथाऽपरा ॥ ५१५ ॥ अष्टैव प्रातिहार्याख्यासुरवैभवसम्पदः । एतावत्यो यत्र सन्ति, भगवत्यखिलेश्वरे ॥ ५१६ ॥ तद्गार्हस्थ्योऽपि वैराग्यसम्पत्तिरुपहिता । तथाऽनासंक्तिसम्पत्तिर्वरीवर्ति स्म तत्र चै ॥ ५१७ ॥ [तदद्भुतं चमत्कारं, को वा वर्णयितुं क्षम.॥] पुष्कळं भोगमासाद्य, तनोत्पय स्वयं प्रभु । पङ्कजं पङ्कजमिव, पृथगेव विभाव्यते ॥५१८॥ सेयं तत्त्यागवैराग्यसम्पत्ति, सिद्धिदायिनी । विद्योतते भगवति, वैराग्यस्येति लक्षणम् ॥ ५१९ ॥ मोक्षस्याथ समग्रस्यापुनरावृत्तिरूपकः । समन्वयो यथार्ह वे, जायते तनिशम्यताम् ॥५२०॥ आचाराझं तथा व्याख्यासुप्रज्ञयादिरूपका । आधारभूतेतिहासाच, सिद्धं तनिर्विवादतः ॥५२१॥ महावीरभगवान् दीक्षादशातः पूर्वतोऽपि वा । पुद्गलस्यप्रवन्धेषु, पदार्थे वन्धने पुन ॥५२२॥ भावसयतयुक्तोऽभून्नापेक्षा विद्यते विभोः। सर्वथा ते च मुक्त्यर्थ, सचेष्टा सन्ति भावत ॥ ५२३ ॥ सम्बन्धे चात्र चैतावत्कथनं जातमलं तथा । अनन्तचतुष्टयमाप्य, जातः सिद्ध सकायिकः ॥ ५२४ ॥ जीवन्मुक्तोऽभवत्तत्र, विज्ञेयं तच्चरित्रकम् । प्राणिनस्तस्य शरणं, समायाताश्च येडपनिशम् ॥ ५२५ ॥ स्वयं तेभ्यः सुमोक्षस्य, सम्प्रदायरहस्यकम् । खसमास्ते कृतास्तेन, तत्सहाशु निसेवनम् ॥ ५२६ ॥ मुक्तिमूलं परं स्थानं, तदस्तीति विभावय । तन्त्र मोक्षसमग्रस्य, समन्वयप्रसक्तितः ॥ कथं प्रश्नावकाशः स्यादित्यं च बुध्यतां धिया ॥ ५२७ ॥ अतो भगवते मोक्षसमग्रस्य समन्वय । षष्टमलक्षणस्याऽयं, समन्वय इति स्फुटम् ॥ ५२८ ॥ अथोपसंहारः-एवमुक्तषडाख्यानाऽऽलक्षणाना समन्वयात् । सिद्धो जातस्तु जगति, "वीरस्तु भगवान् खयम्" ॥५२९॥ अस्ति सर्वज्ञ इत्थं य., समदर्शी च वीर्यवान् । हितैषी सर्वजीवाना, तथाप्तोऽनन्तशक्तिमान् ॥ ५३० ॥ शास्ता सार्च स एव स्याजगद्गुरुरिहार्तिह. । अतस्तलक्षणं प्रोकं, निम्नगं तमिवोधतः ॥ ५३१॥ "गुकारस्त्वन्धकारस्तु, रुकारस्तनिरोधकः । अन्धकारविनाशेन, गुरुरित्यभिधीयते" ॥ अज्ञानं च गुशब्दस्य,
-
* भाचार्याणामष्ट सम्पदिति भावः॥
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४२ , वीरस्तुतिः। - रुशब्दस्तनिवर्तकः । मिलित्वां च द्वयोरों, गुरुरित्युच्यते बुधैः ॥ ५३२ ॥ अज्ञाननाशनाजातो, जगद्गुरुरथोच्यते। सर्वज्ञश्चापि सोऽत्रैव, “वीरस्तु भग वान्वयम्" ॥ ५३३ ॥ यतोऽन्यदज्ञाननाश, कृत्वा च स स्वयं प्रभु । “जिन्नाण" मित्याद्यखिलो, न्यायस्तत्र सुघठ्यते ।। ५३४ ॥ रत्नत्रयस्वरूपस्य, “वीरस्तु' भगवान्स्वयम् ॥" कारयित्वा ज्ञानमदो, देवगुर्वो रहस्यकम् ॥ ४३५ ॥ तथा धर्मरहस्यं च, सम्प्रकाश्य खयं प्रभु.। सससारमुक्तेश्व, मार्ग सवरनिर्जरे ५३६ ज्ञापितोऽप्यस्ति यस्येल्यं, करणादनुभवस्य हि । मननध्यानमोक्षस्य, साधनाऽऽ. सक्तचेतस ॥ ५३७ ॥ जना हि निखिलाः सन्तः, शीघ्रं प्रापुर्महात्मनः। अतो हि भगवान्वीरो, भवस्यास्याखिलस्य च ॥ ५३८ ॥ कालेऽवसीर्पिणीसंज्ञे, चतुर्विंशतिसङ्ख्यकः । तीर्थङ्करोऽन्तिमोऽप्यस्ति, गुरुर्वन्योऽखिलैनरैः ॥ ५३९ ॥ तद्दर्शितोऽस्ति दशधा, व्याप्तो धर्मो दिगन्तरे। जैनधर्मः स एवात्र, सर्वदा नाऽपरः क्वचित् ॥ ५४० ॥ इत्यं भगवतो महावीरदेवोपदेशत । शुद्धभावेन परमस्तत्वनिक्षेपहेतुकः ॥ ५४१ ॥ पदार्थ खात्मनीत्येव, कृत्वा सन्धानमेव च । तदागमस्य सिद्धान्तमार्गस्य मननं तथा ॥ ५४२ ॥ कुर्वननुभवं तद्वच्छुक्लभावाधिक वेशनम् । गद्गदान्वितकण्ठेन, गाउँस्तद्गुणविग्रहम् ॥ ५४३ ॥ समयं मा प्रमादी- । श्वेति चर्यासमाहित. । अमूल्यसमयं खस्य, यापयन्तु सुध्यानतः ॥ ५४४ ॥ धन्यः स एव लोकेऽस्मिन्कीर्तिमांश्च सुधीर्गुणी । कुत. स एष संसारे, स्याद्वादा.. लङ्कतो नरः ॥ ५४५ ॥ तद्धस्तगतं सर्वमैहिक शान्तिमत्पुनः। जीवनोत्थं मोक्षरूपमपुनरावृत्तिसंज्ञकम् ॥ ५४६ ॥ समुत्थानमयं लोके, चाक्षयं बन्धवर्जितम् । ' कुञ्चिका सैव विज्ञेया, अव्यावाधस्य धामनि ॥ ५४७ ॥ पञ्चाङ्कनभूवर्षे, विक्रमाकस्य संवति । मधुमासेऽथ धवले, पक्षे दशमीसत्तियौ ॥ ५४८ ॥ निवन्धोऽयं समाप्तश्च, श्रीपुष्प-भिक्षुणा कृतः । श्रीमत्फकीरचन्द्रस्य, मुनेः शिष्येण धीमता ॥ शातपुत्रमहावीरजैनसद्धानुयायिना ॥ ५४९ ॥
, मङ्गलं भगवान्वीरो, मङ्गलं गौत्तमः प्रभुः । • 3. मङ्गलं स्थूलभद्राधा, जैनधर्मस्तु मङ्गलम् ॥
शिवमस्तु सर्वजगता, परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः । दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखिनो भवन्तु लोकाः ॥ १॥.
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
३४३
वीरस्तुति-परिशिष्ट नं० ७ ॥ अथ वीरयोगतरडाः॥
मङ्गलाचरणम् ॥ . योगाजानाति स्वात्मानं, योगः शान्ति प्रयच्छति । योगान्मो क्षोऽमिसंयाति, योगाद्देशसमुन्नतिः ॥ योगानिर्वैरतामेति, समाधिरचला भवेत् । योगेन समताऽऽयाति, तस्माद्योगात्मने नमः ॥ १॥ योगिनां सर्वतो मैत्री, योगी सम्मुदितां गतः। करु. णान्वितो भवेद्योगी, योगे माध्यास्थ्यभावना ॥२॥ योगशास्त्रे तथाऽन्यत्र, योगस्य प्रतिग्राहिता । तेन योगतरङ्गस्य व्याख्या पद्येन गीयते ॥ ३ ॥ योगेन भित्वा षट् चक्र, वायु सस्थाप्य मूर्द्धनि । ब्रह्मरध्रस्थकमले, सहस्रदलसंवृते ॥ ४ ॥ खान्तमाकृष्य विषयाजलबुद्बुदसनिभात् । सस्थाप्य ज्ञानतो वध्वा, ध्रुवं ब्रह्मणि निष्कले ॥ ५॥ द्विविधं कर्म संन्यस्य, योगी यात्यपुनर्भवम् । तस्माच्च योगमाहात्म्यं, वर्तते सर्वतोऽधिकम् ॥ ६॥ अतश्च योगशास्त्रस्य, महत्वं वर्णितं बुधै । तद्व्याख्यानं मयेदानी, गीयतेऽभीष्टसिद्धये ॥ ७ ॥ योगो निर्मलचेतसा वितनुतेऽप्यष्टामसिद्धिं पुनर्योगाझेन मनो नियम्य यतयो याताः पदं निर्भयम् । योगोऽज्ञानमयान्धकारतरणिर्योगान्न चान्योऽपरस्तस्माद्योगमुपाश्रयन्त्वनुदिनं यो योगिनामिष्टद ॥ ८॥ संसारेऽत्र सुखं ग्राह्य, हेयं दु खमिति स्थितिः । इत्यनुसृत्य वाञ्छन्ति, सुखं प्रत्येकप्राणिन. ॥९॥ दु खं तत्कारणं वेति, ते नेच्छन्ति कदाचन । तस्मात्सुखाप्तये योग , सेवनीय. सुखार्थिमि ॥ १० ॥ न येतावद्धि मात्रेण, प्रत्युतैवं सुखर्द्धये। नित्यं कुर्वन्त्युपायं ते, शतशो यत्नतो मुदा ॥ ११ ॥ तैरुपायैर्यदात्यन्तं, जायते सफला क्रिया । तदानन्तसुखावाप्ति, लब्ध्वा यान्ति कृतार्थताम् ॥ १२ ॥ इत्थं मत्वा सुखाप्त्यर्थ, सर्वसाधकसाधने । मुख्यो धर्मो न चान्योस्ति, तस्माद्धर्ममुपाश्रयेत् ॥ १३ ॥ स च योगात्परो नान्यो, ज्ञातव्यो योगसाधकै । एवं धर्मो धारणीयः, सत्सुखाप्तिकरो यत ॥ १४ ॥ योगतो लभ्यते स्वर्गोऽपवर्गश्च महात्मभिः । कायस्य वैधते कान्तिरुज्वलात्मसुखोदया ॥ १५॥ वर्तमाने युगे चास्मिन्ननेकमतवम॑नि । पार्टिवाजी सम्प्रदायसोडागच्छटोलकाः ॥ १६ ॥ वर्तन्ते ये च धर्मस्य, नामोपरिचलन्ति ते । तेऽमरशहीदका भृत्वा विहरन्ति यथेच्छया ॥ १७ ॥ योगसाधनतस्ते च, विमुखा निजशिष्यके । सुखसाधनदानार्थमसमर्थी भवन्ति ते ॥ १८॥ खसम्प्रदायसघस्या
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४४
,
वीरस्तुतिः। , " :
निर्वाहार्थ बहुक्रिया । परम्परया विज्ञानं, वोधयन्ति सदार्थिनः ॥ १९ ॥ तथा परम्पराचक्रानुसारेणेव शिष्यका । कुर्वन्ति ता. क्रियाः शश्वन्नर्तनैर्ननिर्मुदा ॥२०॥ : अस्या दशायां केचित्तु, कदाचित्सुखवाञ्छया । प्राणिनश्चेदृशा सन्ति, येषां चित्तं न सुस्थिरम् ॥२१ ॥ सन्तोष सुखसिद्ध्यर्थमसन्तोषाद्दशेदृशी। भद्रप रिणामवन्तो, जीवा सुखविवृद्धये ॥ २२ ॥ रक्तं खेदं च कुर्वन्ति, सदैकीमावमास्थिता । रज प्रक्षेपणेऽप्येवं, न पृथग्भावमश्नुते ॥ २३ ॥ सुखं तत्साधनं तद्वत्समं ये चामुवन्ति ते । नान्यथाऽभ्यन्तरोपार्यदृश्यतामिह चार्थिमि ॥ २४ ॥ एवं प्रवर्तितं चक्रं, तदने सफलीभवेत् । सत्यात्मकस्य सर्वस्य, सुखस्य साधनं । वहु ॥ २५ ॥ समये प्राप्नुवन्त्येवं, न वाचेति सनातनम् । इत्थं दयामयीं तेषां, स्थितिं प्रतिमुशक्यते ॥ २६ ॥ स्पष्टं ज्ञातुं स्थायिनं च, सुखं वास्तविकं पुनः । सत्यसाधनसञ्चार, कर्तुमत्रात्यवश्यकम् ॥ २७ ॥ सत्यसाधनयोगो हि, सर्वोपरि विराजते । तथाऽद्वितीयं संमान्यं, चमत्कारकरं पुन. ॥ २८ ॥ अस्ति साधनकं । पुण्यं, प्राप्यते तद्गुरोर्मुखात् । उपयोगे प्रकुर्वन्तः, खल्पकालेन तत्सुखम् ॥ २९ ॥ अवश्यमेव लब्धव्यमखण्डमव्यय ध्रुवम् । योगश्चैतादृशं वस्तु, न स्वयं ज्ञायते क्वचित् ॥ ३० ॥ योगयुक्तादात्मविदः, कस्मादपि महात्मनः । ज्ञातव्यो विषया- । सक्तानाप्यते स हि योगिन. ॥ ३१ ॥ यथोदरभरो योगी, संसारासतचेतनः । वाह्यत साधुवद्वृत्तिस्तस्मै योगोऽस्ति दुर्लभ ॥ ३२ ॥ एवं भूताद्योगिनश्च, नाप्यते योगसाधनम् । तस्माच्छास्त्रपरोद्योगः, शिक्षणीयो महात्मन ॥ ३३ ॥ योगिनोऽद्य न लभ्यन्ते, भारते योगधारका. । परं प्रयासकरणाच्छोधव्या योगिनोऽधुना ॥ ३४ ॥ मुयोगाभ्यासतो नित्यं, समाधानेन चेतसा । अथवा दूरत स्थेयं, कंचिद्योगविदं जनम् ॥ ३५॥ समाश्रयन्तु येन स्यात्साध्यसाधनमुत्तमम् । परन्त्वियं कर्तव्यं, स्मरणं साधनं विना ॥ ३६॥ नाप्यते सत्सुख कैश्चिदिति.. जानन्तु साधका । परन्तु स्वसमीपेऽस्ति, तत्सुखं खात्मनि स्थितम् ॥ ३७ ॥ अन्तर्दृष्टितोऽभ्यासाज्ज्ञापयन्ति सुखं परम् । येषां सनातनस्यैवं, सुखामीप्टोपलव्धये ॥ ३८ ॥ योगसाधनवान्छा चेद्योजनीयं मनो मुहुः। योगस्य योगिनां चात्र, महत्वं परमोच्चकैः ॥ ३९ ॥ गीताया तच कृष्णेन, सर्वमुक्तं महात्मना । तपखिभ्योऽधिको योगी, इति इलोकेन वर्णितम् ॥ ४० ॥ अनेकघोपवासादितपो दीर्घातिदीर्घकम् । कृत्वाऽपि च न लभ्येत, योगी कश्चिन्महोदयः ॥४१॥ अतो योगी महानस्ति, सर्वतो भारवें कलौ । नयनिक्षेपदेवादेरायुष्यभनक तथा ॥४२॥
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
३४५
.
जीवादिसंख्यां संख्यातुमुत्सुका ज्ञानिना वराः । तेभ्योऽप्यस्ति महान् योगी, तथा कर्मकरादपि ॥४३॥ अतोऽर्जुन ! भव त्वं हि, योगी योगात्परो न हि । योगयुक्तो विशुद्धात्मेत्यादिश्लोकेन वर्णितम् ॥ ४४ ॥ श्रीमत्कृष्णेन महता, चार्जुनाय विदे मुहुः । तदाशयश्चेत्थमस्ति, ज्ञातव्यो योगवित्तमै ॥ ४५ ॥ आत्मजे वेन्द्रियाहर्ता, तथा भूतेषु भावना । स्थापनीया समा शश्वदिति शास्त्रमतं सदा ॥ ४६ ॥ योगी जनः कर्म कुर्वन्निष्कर्मैव स जायते । अर्थात् कर्मलेपनाच, न कदापि स लिप्यते ॥४७॥ यथाऽम्भसि गतं पद्मं, न स्पृशेत्तजलं क्वचित् । तथैव योगसम्पन्ना, न लिम्पन्ति 'च कर्मभिः ॥ ४८॥ एवमेव च सम्प्रोकं, जैनशास्त्रेऽपि न्यायतः । [ अग्गं च मूलं ] चे त्यादिज्ञेयं स्याद्वदकं पुनः ॥ ४९ ॥ मूलकर्म्माऽग्रकर्म्मणो, मेदं ज्ञात्वा विवेकृत । एवं ज्ञात्वा सुकर्माsपि, निष्कर्मा साधको भवेत् ॥ ५० ॥ निष्कर्मकारिणा चेत्थ, न भवेच्च कदाचन । उपाध्युत्पातक चेति, लौकिकं सर्वकर्म च ॥ ५१ ॥ केवलं दर्शनार्थाय दृश्यते चेदृशं क्वचित् । योगयुक्तात्मन कार्य, योगक्षेत्रस्य वाहम् ॥ ५२ ॥ भवेदयं च योगो हि, चिरकालात्समागत: । प्रवर्तकश्चास्य योगस्यानादे ऋषभो जिन ॥ ५३ ॥ तीर्थकृतामादिभूत, श्रीमानृषभदेवकः । जिनराजोऽभवद्योगी योगिना प्रवरो मुनिः ॥ ५४ ॥ मनोनिग्रहणाऽऽदेशो, निर्दिष्टः पूर्वमेव च । तेनाज्ञा च प्रदत्ताऽत्र, सर्वाधिक्येन ज्ञानतः ॥ ५५ ॥ 'बहुजीवनिकायाना, सन्मुख जगतः परम् । दृष्टिमात्रेण यत्क्षोभं, मन प्राप्तं च यन्मुहु ॥ ५६ ॥ भूत्वाऽक्षुब्ध पुनश्चात्मसंमुखं यत्प्रवर्तितम् । पुनस्तदेवानन्तं च, लब्ध्वा प्रत्यक्षमेव वा ॥ ५७ ॥ करोत्यनुभवं तस्य, मनसोऽतो निरोधनम् । कर्तव्य हि तदेवास्ति, योगो योगविदा मते ॥ ५८ ॥ इदमेव हि योगस्य, लक्षणं प्रोक्तवानिति । पतंजलिमुनिथापि, योगसूत्रेण जायताम् ॥ ५९ ॥ चित्तवृत्तिनिरोधाख्यो, योगश्चोत. पुरातन । भत्युत्तमस्य योगस्य, पात्रं हि स्त्रीनरादयः ॥ ६० ॥ चतुर्वर्णाश्रमाणां च लोकानामत्र चास्ति वै । अधिकारश्च योगस्य, साधनेनास्ति निर्णय ॥ ६१ ॥ योगेनैव यशस्तेजो, वर्धते योगिना मुहुः | योगतचक्रषङ्कं च, मित्वोद्धुं याति साधक ॥ ६२ ॥ निर्वाणपदमागत्य, जरामरणवजिंत. । अतोऽत्र निर्णयो नास्ति, योगे जातिमिदो मुधा ॥६३॥ जातिभेदात्मको मेदो, नावश्या प्रविचारणा । चाण्डालजातिसम्पन्नो, जनोऽपि योगवित्तमः ॥ ६४॥ भवितुं शक्यते योगी, महात्माऽपि स्वतन्त्रतः । पचविंशतिशतात्पूर्व, हरिकेशी मुनीश्वरः ॥ ६५ ॥ स च चाण्डालजातीयो, जातचेति तथाऽपि च । योगतो
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४६ ... वीरस्तुतिः। । लब्धवानूनं, पदं महात्मनां ध्रुवम् ॥ ६६ ॥ "सोवागकुल" संभूतश्चेत्युक्तं मुनिपुङ्गवैः । तदाशयोऽय विज्ञेयश्चाण्डालकुलसंभवः ॥ ६७ ॥ हरिकेशी मुनिर्जात; सर्वोच्चै पदवीं गतः । उत्तराध्ययने प्रोक्त, “सक्खं खु [चेति] दिस्सई" ॥६॥ तदर्थोऽयं च विज्ञेयो, योगमाहात्म्यमुत्तमम् । प्रत्यक्षं दृश्यते यत्र, नास्ति जातिविचारणा ॥ ६९ ॥ हरिकेशी योगी चाण्डालो, जात्या चासीद्विशेषतः। परन्तद्योगवृद्ध्यझे, सर्वनेत्रं पिनष्टि च ॥ ७० ॥ तामसीवृत्तियुक्ताना, योगसिद्धिः कदा . चन । भवितुं शक्यते तस्माद्योगो योगविजानताम् ॥ ७१ ॥ घृतक्षीरादिकं नित्यं, । भोजनं सात्विकं वरम् । भगवता कृष्णचन्द्रेण, गीतायामुक्तमीदृशम् ॥ ७२ ॥ . सात्विकाना जनाना तु, रसयुक्तं मृदु स्थिरम् । हृद्यं भोजनमाख्यातं, सात्विक प्रियमात्मन ॥ ७३ ॥ आयुष्यबलबुद्धीना, वर्द्धनं जायते यत । परन्त्वधिकतिकाना तैलादीना न कारयेत् ॥ ७४ ॥ तामसानां पदार्थानामुपयोगं कदापि न । नात्यन्तं च कटुं तीक्ष्णं, न चाम्लं तिकभोजनम् ॥ ७५ ॥ परिहरेहरतो योगी । नाम सयोगसाधने ॥ ७६ ॥ रतश्चावश्यकत्वे हि, नाधिकं वचनं वदेत् । प्रयोजनं विना योगी, मौनमेव समाश्रयेत् ॥ ७७ ॥ अन्यथा वाग्व्यये जाते, विकारत्वं । प्रपद्यते । योगे विचारतो नूयादिति योगविदो विदुः ॥ ७८ ॥ योगसाधननिष्ठाना, पुरुषाणां महात्मनाम् । सकाशात्सर्वक्रिया ज्ञात्वा, तथा तत्तालिका यति. ॥ ७९ ॥ योगसिध्यै पवित्रे च, तथैकान्ते विनिर्जने । देशे योगक्रिया शिक्षेदथवा गिरिगव्हरे ॥ ८० ॥ एकान्तातिरिक्त च, स्थाने नैव प्रसिध्यति । अत: प्राचीन कालीना., पुरुषा वहवो मुहु ॥ ८१ ॥ यत्रासन्सालिका वृक्षा, लतागुल्मादिसंवृता.। पर्वतास्तद्गुहाश्चापि, तथा सुखकरा. पुनः ॥ ८२ ॥ तत्राभ्यस्तवन्तस्ते, योगसाधनिकाक्रियाम् । यत्रातिसात्विकाः शश्वद्वनस्पत्यादयस्तथा ॥ ८३ ॥ महात्मना शुद्धरज कणिका पतिता भुवि । वातावरणकं चैव, तत्र स्थानं प्रकल्पयेत् ॥ ८४ ॥ तत्र स्थले निवसता, चञ्चलत्वं विहाय च। मन शान्तं भवेन्नित्यं, तत्रैव वसतां नृणाम् ॥ ४५ ॥ अतस्तत्स्थानक तेषामनुकूलं सदा प्रियम् । यत्सुखं राजभवने, धर्मयुक्त तथा पुनः ॥८६॥ स्वप्नेऽपि नाप्यते तच्च, सुखं नान्यत्र कहिचित् । आनन्दानुभवं कुल्लुशिमलादिप्रदेशके ॥४७॥ हंसतीर्थे हिमागारे, गमने यच्च लभ्यते। नान्यत्स्थले कदापि स्यादानन्दानुभवस्तथा ॥ ८८ ॥ योगिनामिति तेष्वेव, स्थानेषु वसनं वरम् ।' कारणेन कदाचिच्चत्तत्स्थाने नोपलभ्यते ॥८९॥ तदा 'खनगरस्यैव, प्रान्तगे रमणीयके । वनस्पतिसमायुक्त, वस्तव्यं च शुचिस्थलें ॥९॥
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३४७ योगाभ्याससंसिद्धिस्तत्रैव खलु जायते। यत्सुखं वीतरागस्य, मुनेरेकान्तवासिनः । तत्सुखं देवराजस्य, चक्रिणो न कदाचन ॥ ९१॥ नासनेन विना सिद्धिर्जायते न रजोवृते । रह स्थाने चेदासनस्य, ज्ञेयमावश्यकं मुहु ॥ ९२ ॥ दर्भासनं प्रशस्तं स्याद्योगिना च मुदे पुन । कम्बलेन तदाच्छाद्य, सर्वथा योगधारकै । एतादृशे साधकानामासने शकिरुज्वला । जायते ननु कायस्य, विद्युत्कोटिसमप्रभा ॥ ९३ ॥ बुद्धिरत्युत्तमा वेति, नो विशेत्सूत्रकासने । तत्रासने साधनत्वे, योगो निष्फलतां व्रजेत् ॥ ९४ ॥ भगवत्यादिसूत्रेषु, प्रोक्त दर्भासनं शुभम् । 'दम संथारगं' चेति, सूत्रार्थेनोपवर्णितम् ॥ ९५ ॥ गणधरस्य मुनेश्च, गौतमस्य तथा पुन । केशिखामीत्यादिना च, खागतार्थं समाहितम् ॥ ९६ ॥ आगन्तुकेभ्यो नितरां, सुदर्भासनमेव हि। प्रदत्तं चोपवेशार्थमित्येव च तदासनम् ॥ ९७ ॥ प्रशस्त सर्वासनेभ्यो, सुदर्भासनमुच्चकै. । जैनाना च तथा रीतिरेषा दर्भासनार्पणे ॥ ९८ ॥ तदभावे प्रशस्तं स्यात्कम्वलासनमेव च । दर्भासनोपरिष्ठात्तु, कम्बलासनमिष्यते ॥ ९९ ॥ तत. पद्मासनं वद्धा, मनसोऽप्यनुकूलत । पुनरासनेदृशे च, साधनं समुपविश्य च ॥ १०० ॥ साधयेच्छुद्धमनसा, योगं योगस्य सिद्धये । दिशि पूर्वे चोत्तरे च, मुखं कृत्वा समभ्यसेत् ॥ १०१ ॥ तदेवोक्तं 'पुरत्थाभिमुहे' 'सपलियंकनिसण्णया' इत्येव कथितं सर्वमासन क्रमतो जिनैः ॥ १०२॥ कमलाख्ये वा पर्यके, स्थित्वा चाप्युत्तमासने । मुखं पूर्वदिशि कृत्वा, वामहस्ते च दक्षिणम् ॥१०३॥ करं घृत्वा कटिं तद्वत्कण्ठे चैवं च मस्तकम् । सदैकपंक्तौ सस्थाप्य, साधयेदप्रमादत ॥ १०४ ॥ स्थाप्यं श्मश्रुविभागेऽधो, हनौ स्वन्तर्गते पुनः । ईदृगासनमारूढो, योगी याति परं शमम् ॥ १०५ ॥ प्रातर्दिनान्ते च पुनर्निशाया, पूर्वे परे याममये च काले । मध्याहवेलासुसमाहित सन् , योगी सदाऽनेन सदास. नेन ॥ १०६ ॥ करोतु योगस्य सुसोधनं वै, यद्येकयामान्तसुखेन योगी। भूत्वा स्थिरो जातु सदा सुशक्यस्तदा च ज्ञेया विजयोपलब्धिः ॥ १०७ ॥ जातासने चासनसिद्धिरुग्रा, विनासनाद्धि विजयो न योग । सिद्धयेत्पथो प्राणशरीरवृत्तौ, तदा सुदृष्टौ विजयोऽपि लभ्य. ॥ १०८ ॥ प्राणेन्द्रिये वापि तनी सुदृष्टी, प्राप्नोति योगी विजयं समन्तात् । सदेत्यमेवं च विना न योगमात्मोपलब्धिर्भवतीति ज्ञेयम् ॥ १०९ ॥ अतो नितान्तं श्रमतो गुरोश्च, युक्तर्विशेषेण च प्रापणीयः । जयोऽप्यजस्र खल वासनस्य, जानन्तु सर्वे मुनयो नितान्तम् ॥ ११० ॥ जितासनानन्तरमेव शश्वद्यमादिनियमादिजयोऽपि लभ्य । जितासनानन्तरसाधकेन, सला
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरस्तुतिः ।
भ्यतेऽनेकक्रियाविशेषा ॥ १११ ॥ जित्वासनं दृष्टिजितार्थमेवमत्यन्तमावश्यकपूर्णभावात् । दृष्टेर्जयस्येदमवेहि लक्षणं, नेत्रापिधानं न भवेद्धि पूर्वम् ॥ ११२ ॥ 'निमेषमेषैर्भवतीह दृष्टिस्तेनैव योगस्य फलं प्रदिष्टम् | योगेऽस्ति यत्राटकसंज्ञकं च, सूत्रेष्वपि प्रोक्तमथेतरत्र ॥ ११३ ॥ उन्मेषमेपाद्यतिरिक्तभावे, प्रमाणमासलभते मुहुश्च । संसिद्धये त्राटकमुद्रयार्थ, जितार्थमीदृक् खलु दृष्टिपुष्टे ॥ ११४ ॥ प्रात दिनान्ते च सुसिद्धसाधकः, स्थित्वाssसने प्रोतयथेष्टसाधनम् । स्वतः सपादात्क रतस्तथान्तरे, निर्माय तूला मृदुलं सगोलम् । संस्थापनीयं परितो यथेष्टम् ॥११५॥ विनासनेनेति च योगसिद्धि, योग विना नाऽऽसनसिद्धिमेति । द्वयोः श्रमादृष्टिनिरोधनं स्याद्दृष्टेर्निरोधात्तु समाधिसिद्धिः ॥ ११६ ॥ समाधित आत्मसुखोपलब्धिस्ततो मुमुक्षु. समुपैति मुक्तिम् । मुक्तौ सदा ब्रह्मणि लीनभावे, जगद्विलीने च विभाति योगी ॥ ११७ ॥ तद्गोलके दृष्टिरुपासनीया, किचिच्च काले हि यदाश्रुपातः । नेत्राद्विनिर्गच्छति चेत्तदाश्रुपातो यदाऽऽरम्भविकल्पकाले ॥ ११८ ॥ तदा त्राटकं मोचयेत्सर्वकाले, यदा स स्थिरत्वं मवेत्कायमध्ये । सदैवं मनः शान्तभाव प्रयाति, मुनेर्योगतो वाऽचला बुद्धिरेका ॥ ११९ ॥ चतुर्दिनान्तेऽष्टदिनान्तराले, सम्प्रोक्षयेदथुकलानिपातम् । न लोपनीयं किल नाटकं च श्रमो विधेयच सदे - शोऽपि ॥ १२० ॥ न स्यात्कदाचिन्नयने पिधाने, कृते प्रयासे यथा शान्तिरुप्रा । समृद्धिर्भवेदनुदिनं चेत्सदा स्थापनीयं, प्रवृत्तिर्यथा स्यात्सुयोगे मुनीनाम् ॥ २२१ ॥ यदैका घटीतोऽधिका पक्ष्म पतिर्निरुद्धा भवेच्चेत्तदा नूतनानाम् । महाश्वर्यरूप सुवार्तान्विताना, दरीदृश्यते योगिवय्यैर्मुनीन्द्रैः ॥ १२२ ॥ यदा यदैवं च प्रयाति वृद्धिस्तदा तदा तस्य च साधकस्य । सदानन्दप्राप्तिर्भवेदंशकेऽपि विचार्य महद्भिः सदैवं विरागैः ॥ १२३ ॥ यदा यदा जेष्यति दृष्टिपातं, ततस्वतस्तन्मनसोऽपि शान्तिः । सजायते दृष्टिजये मनोपि, शान्तं जयचापि भवेद्धि तस्य ॥ १२४ ॥ नेत्रान्तरे पक्ष्मपङ्को नितान्तं, सुसंस्थापयेदृष्टिरेवं विचारात् । अतः सर्वसूत्रे प्रयुक्तं च तद्वन्मुहु. पुद्गले दृष्टिपातो विधेय. ॥ १२५ ॥ शुभं त्राटकं यस्य जातं स योगी, सुसम्यक्त्वतत्वे विलीनो विभाति । निरस्याखिला भावना पोहलीयां, सदा प्राणिनां प्राणरक्षां विधत्ते ॥ १२६ ॥ मुदेत्थं क्रिया ध्यानयोगस्य नित्यं, महापुरुषतः शिक्षणीया प्रयत्नात् । सुदृष्टेर्जयाभ्यासमेत्यैकघंटापर्यन्तमन्यत्र ससाधकानाम् ॥ १२७ ॥ दिनस्यादिभागे गिरेः कस्यचिद्वा, जनोऽप्यूर्द्धभागेऽथवा स्थापनीया । सुदृष्टिर्निशायां शशाङ्के सितस्य, कुनस्याच तारासु संस्थापनीया
३४८
>
M
•
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३४९ ॥ १२८ ॥ अयश्च प्रयासो यदा वृद्धिमेति, प्रकृतिप्रत्येकं पदार्थान्तरेऽपि, । तदा प्रेमवृद्धिः प्रयात्येव नूनं, तथा सृष्टिप्रत्येकमशेऽपि लेया ॥ १२९ ॥ मुदा वीतरागत्वमुत्कृष्टतायाः, प्रभावस्य स्याद्वर्तनं योगसिद्धौ। प्रयत्नोऽपि स्यादुत्कटत्वेन शश्वत्तदानीं मुहूर्तान्तमुत्थापनीय ॥ १३० ॥ ततः सृष्टिभागेऽपि स्याचेत्सुदृष्टि.सुख खापयित्वा च तत्रैव सृष्टि । स्थिरीभावमागत्य कायस्य खस्य, स्वपिण्डाद्विनिः, मुत्य दुःख पुनश्च ॥ १३१ ॥ मुहु. प्लायते तादृशावस्थया, सुखं साधके नाप्यते शीघ्रत । प्रभुनानो मुहुर्भावनानामक, जपं प्रेमतो योगजन्यं पुन ॥ १३२॥ तदा प्रारमेवेच्छया शब्दकोच्चारणं ॐ नमो जापमेवं जपेत् । अनेनार्हदेवं भजेप्रेमत , सर्वकाले तदा ॐ पदं लुप्यते, पुन. शश्वदेव स्वयं नामत ॥ १३३ ॥ ततश्चात्मनि प्रेमतश्चाईति, प्रभावकाकारासुवृत्तिस्ततः । वय सक्षणं जायते प्रेमतो, यथा चावकाशं पर तत्वत ॥ १३४ ॥ चलंश्योपशान्त्या भ्रमन्वा विशन्सदोत्तिष्ठमान' शयानोऽपि च । तथा जाग्रतो भुञ्जमानश्च तन्न ध्यानं कदाचित्सरेत्कायतः ॥ १३५॥ निशान्ते दिनान्ते च मध्यान्हके, निशायां सुयोग क्रियामारमेत ॥ सदाऽजापजापं जपेत्सस्मरन्नेकतो योगद्वारैव सद्भावना, दृढत्वं भवेद्योगतो नान्यतः ॥ १३६ ॥ जापमेवं जपेत्प्रेमभावेन च, तथा हि द्वयं साधनं सर्वतो। मिलित्वा मन शान्तभावं व्रजेन्मनोऽश्वो भयंकारको दुखद ॥ १३७॥ तथा साहसाधाररूपं भवेन्मनो रूपकाश्वस्तथा चेन्द्रियं, घोटकोऽस्ति बलिष्ठ इति ज्ञायता, पर चेदृशेन प्रयासेन च ॥ १३८ ॥ ततो मत्तता याति तेषा वहि । ततस्ते भवेयु प्रशान्ताः पुन. ॥ ततश्चेदृशेन प्रकारेण च, भवेत्साधकाना विवेकान्विता ॥ १३९ ॥ तथैवं च दृष्टिश्च सूक्ष्मा मुहु , सहैवानयेदात्मिकानन्दकम् । इदं साधनं स्याच सन्तोषकहेतुस्तदा साधका खस्य च, प्रवृत्तिं निवृत्तिं च सपश्यत ॥ १४० ॥ आत्मानं सारथिं विद्धि, शरीर रथमेव तु । इन्द्रियाणि हयानाहुर्मनः प्रग्रहमेव च ॥ १४१ ॥ परावृत्य यत्राटकं वाद्यवृत्या, कृतं तच्च कुर्वन्तु वाऽभ्यन्तरीया । शुभं नाटकं दृष्टितो योगसिद्ध्यै, भवेद्योगिना साधने सम्प्रवृत्तिः ॥ १४२ ॥ श्वासोच्छासकयोदृष्टि., पूर्व स्थाप्या प्रयत्नत । बहिर्याति यदा श्वासस्तदा 'सो' शब्द इर्यते ॥ १४३॥ जाते चाभ्यन्तरे शश्वदहं शब्द. स्वभावत । जायते च द्वयोयोगे, 'सोह' मित्युपयुज्यते ॥ १४४ ॥ जापं विनैव ससिद्धयेदजपाजापमुत्तमम् । तेनैवाथापवर्गस्य, प्राप्तिर्भवति योगिनाम् ॥ १४५ ॥ ध्यानेन तत्र सम्पश्येद्यदा श्वासोऽभिजन्यते । यन लीनो भवेच्छासस्वत्र वृत्तिप्रयासत. ॥ १४६ ॥ स्थापये
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
. वीरस्तुतिः। -- - दाभ्यन्तरीयामेवं पूर्व समाश्रयेत् । प्रयासे चैकदैवान, शान्तिः सन्दृश्यते रहः । ॥ १४७ ॥ आभ्यन्तरीयाऽऽनन्दस्य, स्यादृद्धिश्चोत्तरोत्तरा। मिलित्वाऽहर्निशं चैकविंशत्याख्यसहस्रकम् ॥ १४८ ॥ षट् शतं च तथा शश्वच्छासोवासश्च जायते । तेषूपयोगमन्तरा, श्वासो नैकोऽपि हापयेत् ॥ १४९ ॥ 'सोह' जापजपे जाते, वृत्ति सस्थीयते खयम् । तत्र श्वासे विनाऽऽयासं, सहसैवं विनिश्चया ॥ १५० ॥ श्वासकस्यात्मनोत्थ च, ध्याने सिद्धे सुसाधकः । हृदयस्थे मध्यगता, वृत्तिं संस्थापयेन्मुहुः ॥ १५१ ॥ प्रयासोऽपि प्रकर्तव्य, इति योगविदां क्रिया। ज्ञातव्या । योगिवृन्दैश्च, यत. स्यादचला क्रिया ॥ १५२ ॥ स्थिरैवं स्याद्यदा वृत्तिहृदयस्थाऽप्यलौकिकम् । शान्तस्रोतः प्रवहति, हृदब्जेभ्य समन्ततः ॥ १५३ ॥ यस्य । शान्तिमयस्याशु, साधकस्यावसानतः । इतोपि पूर्व कस्यापि, सन्निधावनुभवस्तथा। न जातश्च तथा ध्यानं, सिद्धं वा हृद्गतं पुनः ॥ १५४ ॥ नाभ्येकदेशेऽपि विधारणीया, वृत्तिश्च तत्रत्यसुसिद्धिभावे । जातः पुनस्तदृदये च नीत्वा, कण्ठस्थमध्येऽपि तथा समाप्य, सस्थापयेनैव विचारणात्र ॥ १५५ ॥ नाभ्या हृदिस्थे च सुकण्ठगे वा, ततस्त्रिकुट्या परिधारणीया। वृत्तिश्च सर्वत्र सुसाधकेन ( सस्थापनीया ), ततश्च शान्तिर्मनसत्रिलोक्याम् ॥ १५६ ॥ ध्याने च सिद्धे स्थिरवृत्तिरेवं, जाता तदा तत्र मसूरसूपवत् । स्याद्विन्दुसाक्षात्करणं ततश्च, तद्विन्दुतेजोऽद्य प्रकाशते च ॥ १५७ ॥ तद्दर्शने साधकयोगवेत्तुरपारमानन्दसुखं प्रयाति । ततश्च तद्विन्दु. प्रदर्शनेन, योगेन योगामृतसेवकानाम् ॥ १५८ ॥ तदा कपालेऽखिलविश्वदर्शनं, सञ्जायते कारणमस्ति तत्र । यत्र स्थिते वर्तुलविन्दुदर्शनं, योगी जन. पश्यति सर्वदेत्थम् ॥ १५९ ॥ तदा त्रिकुट्या शशिलाञ्छनेन, द्वारैव विन्दोरवलोकनं स्यात् । तद्दर्शनानन्तरसाधकाना, भवल्यपूर्वा किल बोधिलब्धिः ॥ १६० ॥ जनेर्जरामृत्यु विनाशनस्य, भवेत्सुकल्पास्थितिरत्रवोध्या। विन्दोश्च सन्दर्शनमेव यत्र, श्रीशङ्करानन्दतृतीयनेत्रम् ॥१६१ ॥ आत्माऽखिल. शंकर एव नान्यस्तत्सदृशं नेत्रद्वयं यतोऽस्ति । विदोश्च सन्दर्शनरूपमुग्रं, ज्ञानात्मक चक्षुरियं तृतीयम् ॥ १६२ ॥ जाते सुविन्दोरवलोकने च, मृत्योर्भयं नास्ति सुसाधकानाम् । तथैव ससशयशल्यनाशो, भवेच्च योगामृतसेवकानाम् ॥ १६३ ॥ एतस्य बोधार्थमिदं वदन्ति, ह्युद्धाटनं शम्भुतृतीयनेत्रम् । तदा जगत्सगयशल्यरूपं, लयं व्रजेत्सर्वमिदं प्रधाय॑म् ।। १६४ ॥ विन्दोस्त्रिकुट्यामवलोकनान्तर, यथा यथा साधकसज्जनानाम् ॥ स्यान्चेत्प्रकाशो हि विशेषतो मुदा, तथा तथा विन्दुविशेषता च, विकाशते सर्वमयी विदां
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
३५१
-
---
-
-
मुदे ॥ १६५ ॥ अन्ते च विन्दावतिलीनभावं, ब्रजेच्च सिद्धं प्रतिभाति योगी। शान्तौ च नादानुभवं च याति, विन्दोरपेक्षा तु विशेषनादे ॥ १६६ ॥ श्रीविन्दोरवलोकनेऽनुदिवस जाते ततश्चैधते, शक्तिोगधिया ततश्च श्रवणं नादस्य जजत्यदे। पश्चादात्मसुखं खयं विलसति श्रीसाधकाना ततो, वैवं शून्यगुहा निवद्धमनसां मुक्तिः कराब्जे स्थिता ॥ १६७ ॥ नादोऽनेकविधोऽस्ति शास्त्रविहित. संश्रूयते योगिभिर्घष्टानादसमस्तथाखि निनद शहस्य वीणारवः । वेणूत्तालरवश्च चक्रसदृशं शाादि शब्दस्तथा, एवं विन्द्ववलोकनादनुमुहुर्नाद समुत्पद्यते ॥१६॥ योगामृतस्य पानेन, नादस्य श्रवणात्पुन । विन्दुदर्शनतो योगी, जरामरणवर्जित. ॥ १६९ ॥ नादानन्दे समुत्पन्ने, विन्दुर्गाणतमो भवेत् । नादस्य चाविशेषेण, जायते श्रवणं मुहुः ॥ १७० ॥ घनगर्जनतोऽन्यूनं, श्रूयते गर्जनं बहु । दिव्यनादप्रभावे णाऽप्यन्ते योगी प्रलीयते ॥ १७१॥ नादे ध्वन्यनुभवस्य, सर्वाधिक्येन वर्धनम् । तदा स्यात्साधकजनो, भ्रमणे चलने तथा ॥ १७२ ॥ उपविश्यासने चैवं, स्थित सर्वक्रियासु च । नादानुभवमेवास्ति, नान्यो भाति विशेषतः ॥ १७३ ॥ नादानुभवतो लोके, समीतस्य प्रचारक । योगिभिश्च कृतोऽजन, यथा नाद. प्रियंकर ॥ १७४ ॥ मुञ्चन्ति रोदनं वाला., क्रोध मुम्बन्ति पन्नगा । मृगा प्राणान् विमुश्यन्ति, नास्ति नादसमो रसः ॥ १७५ ॥ साधकाना तथा लोके, सङ्गीतोऽतिप्रियकर. । अत सङ्गीतगानेन, मनोधृत्वा सदैकताम् । साधक प्रव्रजेच्चाने, शनैनूनं प्रयासत ॥ १७६ ॥ वस्तुतो नादो वाह्योऽभूत्सङ्गीतस्य प्रसाधने । वाह्यनादस्य द्वारेणाऽभ्यन्तरो नादमेलनात् ॥ प्राप्तुं च शक्यते योगी, नात्र कार्य विचारणम् । यदा साधकजनो नादैर्वृद्धिमेति तथाग्रत ॥ १७८ ॥ तदा तस्य च यत्राऽभूनादोऽनुभवमेव हि । तदा भ्रमरगुहाया तु, शङ्खाकार प्रतीयते ॥१७९॥ तदूर्व प्रेमभावेन, चैक शुद्ध प्रदृश्यते । तस्य शिखरमध्ये तु, महानेको विराजते ॥ १८० ॥ ततश्थोई पश्येद्रमरसुगुहा यन रवित , शशाङ्कादग्नेोऽत्यधिक बहुतेजोऽस्ति विततम् । तदा विन्दो दश्रवणविलय यात्यनुदिनं, सदा योगी लीनो भवति नितरा यत्र सुखत ॥ १८१॥ तस्य चानुभवं नित्यं, कुर्याद्योगी विशेषत । प्रकाशकपदार्थोऽय, वर्तुलाकार इष्यते ॥ १८२ ॥ अघो मुखातपत्रेण, समं सम्भ्राजते यत । छत्राकारमिदं तद्वत्सहस्रदलसवृतम् ॥ १८३ ॥ सिद्धिशिलारूपकेऽनाऽजरामरणचक्रके । शिरोऽप्रभागलोकस्य, चाग्रभागोपरिस्थितम् ॥ १८४॥ अजरामरचक्रेऽत्र, वृत्तिलीनादनन्तरम् । साधकानामखण्ड चाऽ.
-
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५२
- - - वीरस्तुतिः।'
लौकिकानन्दमेव च ॥ १८५ ॥ योगिनोऽनुभवन्तीत्थं, वर्द्धते तदहर्निशम् । यत्र ' योगात्मनो लीना, भवन्त्यधिकतो मुहुः ॥ १८६ ॥ अपूर्वाऽऽनन्दसन्दोहाऽनुभवो वर्द्धते स्वयम् । आशरीरे (अखिले) स्वयं तस्य, प्रसारो जायतेऽसकृत ॥ १८७ ॥ अर्थादानन्दसन्दोहः, स्वयं सर्वाङ्गकेऽसकृत् । अलौकिकाऽऽनन्दरूपं,
खयं स्फूर्त्या विभाव्यते ॥ १८८ ॥ अवस्थयाऽनया यो हि, रूपं साधकसंज्ञकम् । । विहाय योगी सिद्धश्च, विदेहोऽपि तथा पुन ॥ १८९ ॥ महात्मा जीवनमुक्तः, । कथ्यते योगवित्तमैः । महात्मनश्चेदृशस्य, देहादृष्टिर्यदा स्थले ॥ १९० ॥ यत्र । यत्र प्रसरति, तत्र तत्राऽप्यलौकिकम् । दिव्यानन्दानुभवनं, करोति साधकोत्तमः । ॥ १९१ ॥ जनपदे जले स्थले, तथा वसुमता स्थले । राजस्थले पशुमये, गग- नादिसुखस्थले ॥. १९२ ॥ एतत्स्थानेषु साधूनां, दृष्टिाति महात्मनाम् । तत्र तत्र स्थले नित्यमानन्दानुभवात्मकम् ॥ १९३ ॥ सर्वत्राऽमेददृष्ट्या च, तथाऽ. नुभवतः सदा । द्वैतभावस्य भ्रान्तेश्च, जातेऽभावे स कथ्यते ॥ १९४ ॥ तादृशो । वीतरागश्च, योगी भवति निश्चलः । कृतकृत्योऽपि सिद्धश्च, जायत आत्मवत्सलः ॥ १९५॥ योगिनामीदृशाना च, दर्शनं लोकपावनम् । कुरुते सततं योगादगे; चैव निशम्यताम् ॥ १९६ ॥ यथाऽभ्यन्तरवृत्तीना, द्वारेणापि प्रयोगके । सम्बन्धे ज्ञायते तद्वदृष्ट्या स वाह्यभागत ॥ १९७ ॥ नामेरुपरिभागे च, स्थापनीयो विशेषत. । यदा तत्र प्रयासे तु, चक्षुषो नाभिमध्यगे ॥ १९८ ॥ अत्युज्वलतमं तेजो, दृश्यते चानुरूपत । तदा नाभिगता दृष्टिं, विहाय वक्षसोर्मुहुः । स्थापनीया प्रयत्नेन, मध्यभागे सुभावत. ॥ १९९ ॥ तत्तेजो नासिकारन्धे, स्थापनीयं च ध्यानतः । नासिकारात्रिकुट्यां तु, ततो भ्रमरगहरे ॥ २०० ॥ अजरामरचक्रस्य, सिद्धा. सिद्धशिलासु च । ततोऽप्यनुभवे गच्छेत्तन्मार्गे च प्रवर्तते ॥२०१॥ भक्केरेवं महत्वं च, साधनं जन्यते परम् । भक्त्या चोत्पद्यते प्रेम, तेनैवात्मा प्रदृश्यते ॥ २०२ ॥ कस्यचिच्छास्त्रतत्वस्थ लोकोपरि विचारणम् । कुर्वन्कुर्वश्च गम्भीराशयं . चोत्तीर्यते पुन ॥२०२ ॥ तद्वाराग्रतश्चापीह वर्धते तन्निशामय । एकास्ति रीतिरीदृशी, यन पद्मासने स्थित. ॥ २०३ ॥ विचारयति यत्किञ्चित्तटे स्थित्वा प्रपा श्यतु । परन्तु नावरोधव्यो, विचारो योगसाधने ॥ २०४ ॥ अभ्यासवलमासाद्य, खयं शान्तिर्भवेत्पुन. 1. विचारधारा चात्यन्तमेकदैव प्रशाम्यति ॥ २०५॥ विचारशान्तितः पश्चात्साधकानामलौकिकम् । आनन्दानुभवो याति, ततोऽखिल भवोपरि ॥ २०६ ॥ प्रेमदृष्टिविशाला स्याद्भावं सर्वत्र सदृशम् । स्थापयत्येवं योगात्मा,
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३५३ स्वयं स्वस्मिन्प्रजायते ॥ २०७॥ भावनोदयते शश्वसिद्धेषु प्रेमवर्धिनी । यदा यदा प्रयासश्च, वर्धते च तदा तदा। आभ्यन्तरे विशेषेणानन्दस्य जागृतिर्भवेत् ॥ २०८ ॥ मूलाधार समुद्घाट्य,, चक्रं चक्रान्तरं नयेत् । नाभ्या वक्षःस्थले कण्ठे, त्रिकुट्यामलिगहरे-॥ २०९॥ शिखरस्थगुहान्ते च, ब्रह्मरन्ध्रे मेलयेत् । भित्वैवं ब्रह्मरन्धं च, योगी निर्वाणता व्रजेत् ॥ २१० ॥ न येतावन्मानं, हि, प्रत्युत वाह्यतोपि वा । आनन्दस्यैवानुभवो, जायते नु क्षणं पुन. ॥ २११ ॥ पूर्णानन्दमयश्चान्ते, भूत्वा सर्वत्र भावना । ईश्वरे स्थापयेन्नित्यं, भूत्वा प्रेमप्रयोगत ॥२१२॥ पश्येदहार्नश नित्यं, महानन्दो विकासने । वीतरागसतो याति, विज्ञेयं योगवित्तमै ॥ २१३ ॥ पूर्वोकप्रकारेण, प्रमाणमनुसारतः । साधकार्थ खल्पमयी, प्रक्रिया कथितार्थिभिः ॥ २१४ ॥ एव विचारकरणातथोक्तस्य प्रकारत । भवेदलभ्यलाभश्च, मननात्स्मरणादपि ॥ २१५॥ तथाऽपरिमितं चेत्यं, सामर्थ्य लभते मुहुः । अत्यन्तो योगविषयो, विशालो गहनस्तथा ॥ २१६ ॥ विना गुरुपदध्यानान्न कश्चिद्योगसाधक । योगं शिक्षयितुं योगी, न भवद्योगवित्तमम् ॥ २१७ ॥ योगश्चतुर्विध. प्रोतो, मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभि.। हठयोगो मन्त्रयोगो, लययोगस्तथैव च ॥ राजयोग इति ख्यातश्चतुर्धा योगसाधने ॥ २१८ ॥ यमो नियमश्वासनं, प्राणायामस्तथा पुन. । प्रत्याहारो धारणा च, ध्यानं चैव समाधिकः ॥ २१९ ॥ स चेत्यष्टाङ्गयोगोऽस्ति, विज्ञेयो मुनिभिर्मुदा। तत्रास्त्यपेक्षा चैकस्य, उत्तरोत्तरतः पृथक् ॥ २२० ॥ प्राणायामो बहुविधो, दृश्यते योगशास्त्रके । तदवान्तरमेदश्व, कथ्यते शास्त्रसम्मतः ॥ २२१ ॥ परन्तु तत्र मुख्योऽस्ति, पूरक. कुम्भकस्तथा। रेचको भस्त्रिकाद्यस्ति, प्राणायामोपयोगकम् ॥ २२२ ॥ प्राणायामसहायार्थ, नेतिधौतिश्च नौलिका । वस्ति कपालभातिश्च, गजकर्णीत्यादिरस्ति च ॥ २२३ ॥ प्रक्रिया हठयोगस्य, वन्य सन्ति पृथक् पृथक् । नासिकारन्ध्रतः सूत्रं, प्रवेशान्तर्वहि पुन ॥२२४॥ मुखानि सारयेद्वायं, नेति.. सा कीर्यते वुधै । वस्त्रमुत्तार्य जठरे, मलं निस्सार• येद्वहि ॥ २२५ ॥ धौति क्रिया च कथिता, योगे साहाय्यकारिणी। भ्रामगित्वा नलं योगी, नित्यंप्रति मुहुर्मुहु.॥ नोलिक्रियेयं सम्प्रोका, योगाभ्यासविशारदैः ॥ २२६ ॥ गुदास्थानगतं तद्वन्मलं सम्मायेद्वहिः । वस्तीक्रियेति विज्ञेया, योगसिद्धिकरी मता ॥ २२७ ॥ कपालभातिर्विज्ञेया, गजकर्णी तथैव च । हठयोगे क्रियाश्चैता, योगविद्भिर्निदर्शिता ॥ २२८ ॥ खेचर्येका महामुद्रा, सर्वमुदोत्तमा
वीर. २३
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५४
.
वीरस्तुतिः ।
मता। तथा वन्धत्रयं प्रोक्तं, योगसाधनकर्मणि ॥ २२९ ॥ खेचरीति महामुद्रा महावन्धकरी तथा। वज्रमुद्रेति विनश्च, मुद्रीः प्रोक्ताः संसाधकैः ॥ २३० । ताश्च मुद्रा महायोगी, गुरुदेवप्रसादत. । ज्ञातुं शक्नोति योगात्तो, नान्यथा सिध्यति स्फुटम् ॥ २३१ ॥ प्राणायामविचारोऽपि, वर्ण्यतेऽनुभवान्मुदा । वस्तूनीमानि योगेऽस्मिन् , ज्ञातव्यानि विशेषतः ॥ २३२ ॥ अतो महात्मनामन्ते, स्थित्वं शिक्षादिका. क्रियाः। ससारे योगतो नान्य , पंथा मोक्षाय विद्यते ॥ २३३ । यो योगं कुरुते नित्यं, स याति परमास्पदम् । निर्भयं कर्मबन्धा मुच्यते नात्र संशयः ॥ २३४ । इत्युपदेशानुसारेण, ज्ञातव्यं मोक्षकाक्षिभिः ' अत्रानेके जनाः काले, वहूपायकरा भवे ॥ ३३५ ॥, दृश्यन्ते च. तथाऽन्तेऽपि कथं तेषां सुखोदय । सुपुण्यरूपं तैरुतं, बीजं पूर्व, ततश्च ह ॥ २३६ ॥ सुखा. त्मकं फलं शश्व_जन्ते तेन ज्ञायताम् । परन्त्वद्य च जीवेभ्यो, दत्वा दुःखं निर न्तरम् ॥ २३७ ॥ वपन्ति दुखवीजं ते, भविष्यन्ति सुखेतरा । फलं दुःख. मयं तेषामन्ते स्यान्नात्र संशयः ॥ २३८ ॥ इत्थं यश्च सुखी भूत्वा, पापिष्ठोऽपि भवे भवात् । पापानुवन्धिपुण्यात्मा, ज्ञायतां जगतीतले ॥ २३९ ॥ तदत्र वर्तते हेतुः, पूर्वपुण्यप्रसङ्गतः । जायन्ते सुखिनः पश्चाद्दुःखिनोऽपि भवन्त्यदः ॥ २४० ॥ वर्तमाने पापयोगात्पापिनोऽपि ततः परम् । दृश्यन्ते सुखिनोऽप्येवं, ज्ञातव्यं तत्व. निश्चयैः ।। २४१ ॥ धर्मात्मानो जना. केचित्सन्ति लोके सुखार्थिन.। कियन्तो दुखभोकारः, पापपुञ्जप्रभावतः ॥ २४२ ॥ कियन्तश्च सुखाकाराः, पुण्योदयप्रभावतः। एवं दुःखसमाप्तौ च, सुखोदकः प्रजायते ॥ सुखभोगसमाप्तौ तु, दु:खोदर्क प्रपद्यते ॥ २४३ ॥ अतस्ते सुखिनश्चाने, भविष्यन्ति नरास्ततः । ईदृशान्मनुजान शास्त्रे, पुण्यानुवन्धिपापिनः ॥ २४४ ॥ कथयन्ति जगत्यस्मिन्पूर्वपापप्रभावत । मुंजन्ति तेऽद्य पापौघं, वर्तमाने तथा पुन. ।। २४५ ॥ पुण्योदयवशात्त च, भविष्ये सुखभोगिनः । ज्ञातव्यं दु.खभोक्तृणां, तथा सुखभुजां भुवि ॥२४६॥ ततः किं कथयन्त्वद्य, वर्तमाने च पापिनः । भविष्येऽपि तथा सन्ति, नियमोऽप्यस्ति किमीश. ॥ नियमोऽप्येतादृशश्वापि, जनाश्च बहवो भुवि । पूर्वपापवलादन, दु.खिता जीवदु खदाः ॥ २४७ ॥ तेऽप्यग्रजन्मन्यन्ते च, दुखिनो मनुजाः पुनः । तथेशजनानान्तु, का सज्ञेति वदन्तु नः ॥ २४८ ॥ पापांनुर्वन्धिपापिनो, ज्ञातव्यं शास्त्रमानतः । पूर्वजन्मार्जितानां च, दुःखानां भोगिनोई.' धुना ॥ २४९ ॥ इदानीं कुरुते पापं, तद्भोकाऽग्रे 'भविष्यति । किंवैतादृशो नियमः, शास्त्रेऽप्यस्ति प्रमाणतः ॥ वर्तमाने सुखं भुंफे, भविष्येऽपि पुनः सुखम्
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३५५ ॥ २५० ॥ योगोऽनघो महत्तत्वप्रापकोऽस्त्यमरनुमः ।। तस्य सेवनमात्रेण, याति योगी परम्पदम् ॥ २५१ ॥ भवितुं शक्यते चेत्यं, भूतकाले च ये नराः। प्राणिना सुखदातारो, बन्धयित्वाऽतिपुण्यकम् ॥२५२ ॥ तेनात्र सुखसम्पन्नाः, पुण्यमेवाश्रयन्ति ते । भविष्येऽपि पुनस्तद्वत्पुण्यस्यैवानुवन्धनम् ॥ २५३ ॥ एता. दृशजनस्यात्र, शास्ने पुण्यानुबन्धकृत् । पुण्यवान्कथ्यते लोके, पूर्वपुण्यप्रभावत: ॥ २५४ ॥ सुखी भूत्वा स चेदानीं, वर्तमाने करोति चेत् । पुण्यं भविष्यकालेऽपि, पश्चादपि सुखी भवेत् ॥ २५५ ॥ कर्मणा चतुष्टयं चेत्थमनुवन्धं भवत्यदः । विहेंयश्चानुवन्धार्थो, वन्धनं शास्त्रसम्मतम् ॥ २५६ ॥ भुंके च तत्फलमये, शुभाशुभानुवन्धनैः। अस्त्येवं च सुखीदानीमशुभेन च दुःखभाक् ॥ २५७ ॥ पापानुवन्धिपापश्च, पापानुवन्धिपुण्यकृत् । पुण्यानुबन्धिपापश्च, पुण्यानु. बन्धिपुण्यवान् ॥ २५८ ॥ चतुर्विषं सुविज्ञेयमनुवन्धस्य साधकैः । समयेऽत्र सुखं पश्चादप्रेऽपि सुखप्रापणम् ॥ २५९ ॥ इत्यं कर्मफलं दु खमथवा सुखसं. भव. । परन्त्वव्याधिमोक्षस्य, सुखस्यापि कदाचन ॥ २६० ॥ समाप्तिनं भवेश्चैवमध्यात्मिकसुखाप्तये । कायिके सुखभोगश्च, हेयं सर्वत्र सर्वदा ॥ २६१ ॥ अर्थाच्चपुण्यपापानां, क्षयं नीत्वाऽऽत्मरूपके । स्थातव्यो मनसाऽप्रे च, कीदृशोऽप्यनुवन्धनम् [न वन्धनीयो हेयश्च, नयविद्भिरिहोच्यते ] ॥ २६२॥ यत्तालुमूलात्नवतेऽमृतं हि, योगी जनस्तत्पिवति प्रध्यानात् । तेनैव तृप्तिश्च तथा विमुक्तिः, सञ्जायते योगिजनस्य नित्यम् ॥ २६३ ॥ बन्धव्योऽस्त्यनुबन्धश्चेत्पुण्यस्यैवानुवन्धनम् । पापानुवन्धं नो कुर्याद्धय एवास्ति सर्वदा ॥ २६४ ॥ कुत. पुण्यानुबन्धस्य, बलादेवं फलं भवेत् । यत. स्यात्कर्मनिर्जरा, न पुनः कर्मसम्भवः ॥ २६५ ॥ स्वतत्रतायाश्चैतद्धि, द्वितीयं द्वारमिष्यते । ज्ञात्वैवं च विवेकेन, साघ्यो योगश्च साधकैः ॥ २६६ ॥ योगान्नास्त्यपर: कश्चिन्मुक्तिसिद्धिकरोऽधुना । तस्माद्योगमुपाश्रित्य, याति योगी परम्पदम् ॥ २६७ ॥ योग. कल्पतरुर्विपत्तितरणिरज्ञाननाशोद्यतो, येन स्याच जराऽपमृत्युहरणं योगार्थिनां दुःखहा। वृत्तिः स्यादचलाऽऽत्मनि प्रवितते यस्मात्परा निर्मला, योगे निर्मलचेतसां हृदि मुहुर्मुनिश्च वा भ्राजते ॥ २६८ ॥ योगो हि निर्मलादर्शो, यत्रात्मा च प्रदृश्यते। लोकखान्तर्गत वस्तु, निशामय गुरोर्मुखात् ॥ ॥ २६९ ॥
इति वीरयोगतरङ्गः समाप्तः ॥
-
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५६ : - वीरस्तुतिः। . . * • भावार्थ:: प्रत्येक प्राणी सुखकी इच्छा प्रकट करता हैं, इतना ही . नहीं बल्कि सुखकी प्राप्तिके लिये अनेक उपाय करता हैं। उन उपायोंसे जव वह सफलीभूत होता है और अनन्त सुखको पाता है तव वह सर्वथा कृतकृत्य हुआ समझा जाता है । सुखको पानेके लिये अनेक साधनोंमें धर्म सर्वतो मुख्य साधन है। वर्तमान समयमें अनेक मत, पंथ, वाडावंदी- सम्प्रदाय, संघाड़ा, गच्छ, टोला, पार्टीवाजी आदि जो धर्मके नामपर चलकर अमर शहीद बनने जा रही हैं, वे सब सुखके साधनसे विमुख वनकर अपने शिष्योंको सुखका साधन प्राप्त कराने में असमर्थसे ही हैं। मात्र अपनी सम्प्रदाय :
और टोलेको निभाने के लिये अमुक अमुक क्रियाएँ रच डाली हैं। उन्हींको परम्पराके अनुसार अपने शिष्योंको भी बताते रहते हैं, और वे शिष्य भी उस परम्पराके अरघट्ट चक्रके अनुसार उन क्रियाओंको उनके इशारेपर नाच. नाचकर करते रहते हैं। ऐसी स्थितिमें जो क्वचित् क्वचित् सुखकी इच्छावाले प्राणी हैं उनको सन्तोष नहीं होता। सन्तोष न होनेसे ऐसे भद्रपरिणामवाले जीवोंको सुखके साधनके लिये खून पसीना एक करना पड़ता है। बहुत कुछ धूल खाक उड़ानेपर भी सुखके सच्चे साधन समयपर मिलते हैं और नहीं भी मिलते। इस प्रकार उनकी दयनीय स्थितिपर स्पष्ट समझा जा सकता है कि स्थायी सुखके वास्तविक और सच्चे साधनोंके प्रचार करनेकी जगत्के लिये पूरी आवश्यकता है।
सुखके साधनोंमें योग सवसे भारी और अद्वितीय चमत्कारिक तथा सर्वमान्य साधन है। यदि इन साधनोंका गुरुगम द्वारा उपयोग किया जाय तो अवश्यमेव अल्प समयमें सनातन अखंड सुखंकी प्राप्ति हो सकती है। योग एक ऐसी वस्तु है कि वह अपने आप नहीं सीखा जा सकता, अतः किसी महात्मा, योगनिष्ठ, आत्मवित् पुरुषके द्वारा उसे सीखना चाहिये । आजकल योगी पुरुष इस भारतमें सब जगह नहीं मिलते अतः सतत प्रयास द्वारा योगियोंकी शोध करनी पडेगी, परन्तु नकली योगिओंसे तो सावधान ही नहीं बल्कि दूर रहना चाहिये और किसी सच्चे योगीको खोजकर साध्यकी साधना करनी चाहिये । एवं इतना स्मरण रहे कि योगकी साधनाके विना सत्य सुखको कोई भी नहीं प्राप्त कर सकता, परन्तु वह सत्य सुख , अपने पास और अपनी आत्मामें ही है, और योग - अन्तर्दृष्टिके अभ्यास द्वारा उसे वता
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
३५७
सकता है। जिस मनुष्यको सनातन सुख अभीष्ट हो उसे योगकी साधनामें लगना चाहिये। योग और योगीकी महत्ता वही ही ऊंची है। श्री गीता भगवतीमें श्रीकृष्णचन्द्रने कहा है कि
तपखिभ्योऽधिको योगी, शानिभ्योऽपि मतोऽधिकः। ..' कर्मिभ्यश्चाधिको योगी, तस्माद्योगी भवार्जुन ॥ -
(अध्याय ६, श्लोक ४७)' भावार्थ-उपवासादिक अनेक प्रकारके लम्बे-लम्बे तप करनेवालोंसे योगी वढा है। नय, निक्षेप, देवादिकी आयुष्यके भंग (मांगे) तथा जीवादिकी सख्याकी गणना करनेवाले वाचाल ज्ञानियोंसे भी योगी वडा है, आवश्यकादि कार्य करनेवालेसे भी योगी बहुत बडा है। अत. हे अर्जुन ! तू योगी वन।
योगयुक्तो विशुद्धात्मा, विजितात्मा जितेन्द्रियः। सर्वभूतात्मभूतात्मा, कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥ . .
(गीता अध्याय ७, श्लोक ५), भावार्थ-आत्म-विजेता, इन्द्रियजित् और सब भूतोंपर समभाव रखनेवाला योगी पुरुष कर्म करनेपर भी निष्कर्म समझा जाता है। अर्थात् कर्म लेपसे लिप्त नहीं होता। . इसी प्रकार जैन-दर्शनमें भी कहा है कि
"अग्गं च मूलं विलं च विर्गि च धीरेपलिच्छिन्दियाणं णिकम्मदंसी ॥"
(आचारांग) अग्रकर्म और मूलकर्मके भेदको समझ कर विवेक द्वारा कर्म करो इस प्रकार कर्म करनेपर वह साधक निष्कर्मा कहलाता है। . . , अकम्मस्स ववहारोण विजइ । कम्मुणा उवाहि जायइ ।।
(आचारांग ३-१-३) भावार्थ-निष्कर्मके जीवनमें उपाधि या उत्पात नहीं होता । इसी प्रकार लौकिक टीपटाप और दिखाव वनाव भी नहीं होता। इसका शरीर मान योग क्षेत्रका वाहन होता है, इत्यादि। . .
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५८ .:, वीरस्तुतिः। -
यह योग अनादि , कालसे चला आ रहा है, और इसके आदि प्रवर्तक आदिनाथ अर्थात् आदि तीर्थंकर श्रीऋषभदेवजी जिनराज हो गये हैं। उन्होंने मनो निग्रहका आदेश सर्व प्रथम देकर यह फर्माया है कि अधिकतर बहुतसे जीवोंका जगत्के सन्मुख दृष्टि द्वारा क्षोम प्राप्त मन अक्षुब्ध होकर आत्माके सम्मुख प्रवर्तित होता है, और वह फ़िर अनन्त सुखका साक्षात्कार पाकर उसका अनुभव करता है अतः मेनका निरोध करना ही योग है। भगवान् पतंजलिने भी योगका यही लक्षण बताया है।
"योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।" 'चित्तवृत्तिका निरोध करना योग है।''
इस अत्युत्तम योगके पात्र स्त्री पुरुष या चारों वर्णके लोक हैं। योग साधनामें जाति मेदकी कोई आवश्यकता नहीं है। चाण्डाल जाति भी योगी महात्मा हो सकता है। २५०० वर्ष पूर्व हरिकेशी मुनि जातिके चाण्डाल थे तथापि योगके द्वारा महात्मा पदको पा गये। यथा
सोवागकुलसंभूओ, गुणुत्तरधरो मुणि। (उत्तराध्ययन)
भावार्थ-चाण्डाल कुलमें जन्म लेनेपर भी हरिकेशी मुनि उच्च गुणके धारणकरनेवाले मुनि थे, पुनश्च । ' • सक्खं खुदीसइ तवोविसेसो, न दीसई जाई विसेसु कोई । सोवागपुत्र हरिएससाहूं, जस्सेरिसा इड्डि महाणुभागा॥ .
(३७, उत्तराध्ययन १२ “योगका महात्म्य आखों आगे प्रत्यक्षमें दीख पड रहा है जिसमें जातिकी कोई आवश्यकता विशेष नहीं है। हरिकेशयोगी चाण्डाल जाति है। परन्तु इसके योग ऋद्धिके सामने सवकी आंखें चौंधिया गई हैं।" ।
__ परन्तु तामस वृत्तिवालोंसे योग साधना नहीं हो सकती। अत. योग विद्याके जिज्ञासुओंको घी, दूध, तेल, प्राशुक भोजन आदि सात्विक आहारका उपयोग करना चाहिये। यथा
आयुःसत्ववलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः, रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्विक प्रियाः।
(गीता श्लोक १७, अध्याय ८) रसयुक्त, चिकना, स्थिर, हृद्य आहार सात्विक जनोंको प्रिय है, क्योंकि इनसे आयुष्य, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीतिकी वृद्धि होती है।"
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३५९ । परन्तु अधिक मिरचें, अति तेल, अति खटाई आदि तामसी पदार्थोका उपयोग कभी भी न करना चाहिये । इसके उपरान्त आवश्यकतासे अधिक न बोलकर अधिकांश मौन रहना चाहिये। निकम्मा वाग्व्यय करनेसे योग, वेकार आ जाता है। योग साधना करनेवाले महात्मा पुरुषके पाससे योगकी तालिका सीखकर उसकी साधना करनेके लिये एकान्त तथा पवित्र विजन प्रदेशमें जाना चाहिये । पहाड, पर्वत आदि एकान्तप्रदेशके अतिरिक्त अन्य किसी स्थानमें जैसी चाहिये वैसी अच्छो रीतिसे योगकी साधना नहीं कर सकता। इसीलिये प्राचीन कालके पुरुष अनेक पहाडोंमें जहा नाना सात्विक वनस्पति होनेसे तथा वहा अनेक महात्माभोंके शुद्ध रज कण होनेकी स्मृति रहनेसे, वातावरण मी एकान्त और पवित्र रहनेसे उस स्थलपर एकदम शान्त और अचपल मन हो जाता है। अतः वह स्थान उनका मनपसद है। वडे राजमहल या धर्म स्थानमें जिस आनन्दका खप्नमें भी अनुभव न हुआ हो उस आनन्दका अनुभव कुल्लु और शिमले तथा हंस तीर्थ के वर्फानी पहाडोंमें जानेसे होता है। अतः योगीको किसी ऐसे ही प्रकारका स्थान पसन्द करना चाहिये। यदि कारणवश इन स्थानोंपर न जा सके तो जहा तक अपनी ही वस्तीमें रहता हो उसके आसपास किसी रमणीक वनस्पतिवाले उपवनको चुनना चाहिये, और वहीं योगाभ्यास करना चाहिये। धूलपर वैठकर योगकी साधना नहीं की जा सकती वल्कि बैठनेके लिये आसनकी भी आवश्यकता है।
योगिओंके लिये दर्भासन अत्युत्तम है, और दर्भासनपर कम्बलासन विछाना चाहिये। दर्भासन तथा कम्बलासनमें साधकके शरीरकी विद्युत्शक्तिको टिकाये रखनेकी शक्ति बडी ही उत्तम है। इसीलिये सूतके कपडेपर योगी अपने योगाभ्यासकी साधना न करे।।
__ भगवती आदि सूत्रोंमें भी कई स्थानोपर दर्भासनका पाठ ही दिया गया है। यथा
"भसंथारगं संथरइत्ता।" इसीकी पुष्टिके लिये उत्तराध्ययनमे केशी मुनि और गौतम गणधर जहां मिलते हैं वहा वे भागन्तुक मुनिका खागत “कुश तणाणिय" द के आसनसे करते हैं। इससे स्पष्ट सिद्ध है कि-जैन जातिमें भी आदानप्रदानके प्रसङ्गमें पहले सर्वत्र दर्भासनका ही रिवाज था।
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६०
...
वीरस्तुतिः।
..
दर्भासनके अभावमें कंवलासन विछाना चाहिये । दर्भासनके ऊपर कवलासन विछाकर उसपर पद्मासनसे मन पसद आसन लगा कर तथा स्थिर होकर पूर्व या उत्तरमें मुख करके बैठना चाहिये। सूत्रोंमें पद्मासन लगाकर पूर्वमे मुख करना बताया है।
"पुरत्थाभिमुहे सपलियंकनिसण्णे" पर्थ्यकामन या पद्मासनसे वैठकर पूर्वमें मुख रक्खे । पद्मासन लगाकर वायें हाथकी हथेलीपर दाहिना हाथ सीधा रखकर, कमर, गर्दन, मस्तकको एक पंक्तिमें रखकर बैठना चाहिये, और दाढ़ीको हंसलीसे चार तसुके अन्तरपर रहने दे । इस आसनसे सवेरे, सांझ या मध्याह्नमें तथा रात्रिके पहले और पिछले पहरमें सतत अभ्यास करना चाहिये । एक पहर यदि भारामसे स्थिर होकर बैठ सके तव समझो कि आसनपर विजय प्राप्तकर ली गई है। आमनपर विजय पानेके वाद प्राण और शरीर तथा दृष्टिपर विजय पाना चाहिये । परन्तु आसनपर विजय पाये विना योग सिद्ध नहीं हो सकता। इसके विना आत्म साक्षात्कार अर्थात् सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं हो सकती। अत-सतत प्रयास द्वारा गुरुगमसे पाई हुई युक्तिके अनुसार आसनपर जय पा लेना चाहिये । आसनके जयमें यम और नियमपर जीत प्राप्त करनी चाहिये।
'आसनको जीतनेके पश्चात् साधकजन अनेक प्रकारकी क्रियाएँ सीख सकता है । परन्तु आसनको जीतकर दृष्टिको जीतनेकी पूर्ण आवश्यकता है। दृष्टि जयका पहला लक्षण आखका न मींचना है। उससे मेषोन्मेष दृष्टि हो जाती है। योग परिभाषामें इसे त्राटक कहा जाता है। सूत्रोंमें भी मेषो. न्मेष रहित होनेके कई जगह प्रमाण मिलते हैं।
दृष्टिको जीतनेकेलिये या नाटकमुद्राको सिद्धकरनेकेलिये सवेरे और सांझमें साधकको यथेष्ट आसनपर बैठकर अपनेसे सवा हायके अन्तर पर किसी रूईकी गोलीको वनाकर रख देना चाहिये और उस चने जितनी गोलीपर दृष्टि जमाये रहो। अमुक समयके अनन्तर आखमें पानी आयगा। आरंममें
आसू आनेपर त्राटक रोक देना चाहिये। चार या आठ दिन तक आसुओंको 'पोंछते रहना चाहिये, और त्राटक आरभ रखना चाहिये । प्रयास ऐसा करना
चाहिये जिससे पलक वन्द न हो सके, और इस प्रयासमै शान्तिपूर्वक प्रति दिन वृद्धि रखना चाहिये। जब एक घडीसे अधिक पलकको जीत लोगे तब
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३६१ कई नवीन वातोंके अचरज साधकपुरुष वयं देखने लगेगा, और 'ज्यों ज्यों इससे भी अगाडी वढ़ेगा त्यों त्यों उस साधकको अलौकिक आनन्दकी अंश अशमें प्राप्ति होगी। ज्यों ज्यों दृष्टिको जीतता जायगा त्यों त्यों उसका मन शांत होता जायगा और दृष्टिके जयमें मनका भी जय होता है। अधिकतर आखकी भवोंपर दृष्टि रखना इसीलिये सूत्रोंमें भी बताया है। ।
"एग पोगलनिविदिठि।" 'एक पुद्गलपर दृष्टिकी स्थापना करे।" ___ इस प्रकार ध्यानकी प्रक्रियाएँ महात्मा पुरुषोंके पास सीखनी चाहिये । जब एक घंटा तक दृष्टिविजयका अभ्यास हो जाय तदनन्तर साधकको चाहिये कि दिनके पहले भागमें किसी सुन्दर पहाडके शिखरपर या वृक्षकी चोटीपर दृष्टि जमाना चाहिये । रात्रिमें चान्द या शुक्र तथा मंगल तारेपर नजरको जमाना चाहिये। यह प्रयास ज्यों ज्यों वढेगा त्यों त्यों प्रकृतिके प्रत्येक पदार्थकी ओर पवित्र प्रेम उत्पन्न होगा, और सृष्टिके प्रत्येक अंशमें वीतरागताका प्रकटीकरण होगा। परन्तु यह प्रयास भी एक घंटा तक रखना चाहिये इसके अनन्तर सृष्टिके चाहे जिस भागपर दृष्टि डालोगे तब एकदम वह वहीं स्थिर हो जायगी, और शरीरके कोथलेमेंसे दु ख निकल कर भागेगा, इस कक्षापर पहुंचनेपर साधकको तुरन्त प्रभु नामका भावना नामक जाप परम प्रेम पूर्वक शुरू कर देना चाहिये। जापमें इच्छानुमार शब्दोच्चार या 'नमो अरिहंताणं' 'जपना चाहिये । परन्तु कुछ समयके पश्चात् नमो पद आपसे आप उह जायगा,
और आत्मा अर्हन् प्रभुमें एकाकार हो जायगा। प्रति समय यथावसर पाकर हिलते, चलते, उठते, वैठते, सोते, जागते वह ध्यान दिमागसे न निकल सकेगा। साझ, सवेरे, मध्यान्ह और रात्रिमे योगकी क्रियाका आरम्भ रखकर जाप जपते रहना आवश्यक है। एक ओरसे योग क्रिया द्वारा सद्भावनाकी दृढता और दूसरी ओरसे जाप, इन दो साधनोंके मिलनेसे मन एकदम शान्त हो जायगा। क्योंकि-"मणो साहसिओ भीमो, दुठस्सो।" मनरूपी घोडा साहसिक और भयंकर दुष्ट है। "इन्दिय चवल तुरंगो" इन्द्रियोंके घोडे अधिक बलवान् होते हैं, परन्तु इस-प्रयाससे उनकी मस्ती निकल जाती है, और वे शान्तिमय हो जाते हैं। इस प्रकारके सयोगोंमें साधककी विवेक दृष्टिमें अत्यन्त सूक्ष्मदृष्टि हो जायगी तथा साथ-साथ आनन्दकी वृद्धि भी। यह साधना सन्तोष जनक होनेपर साधकको अपने योगकी
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६२ वीरस्तुतिः। दिशा बदल देनी चाहिये । अर्थात्, जो त्राटक वहिदृष्टिका किया जाता था उसके, स्थानपर अन्तर्दृष्टिका त्राटक करना चाहिये। प्रथम श्वासोच्छ्वासमें दृष्टि रखनी चाहिये। और जो, श्वास वाहर आता है , तव 'सो' और अन्दर जाते समय 'हं' का कुदरती ही उच्चार होता है। तव दोनों मिलकर "सोऽहं" अजपाजाप विना ही जसे होता रहता है उसपर ध्यान देना चाहिये। अर्थात् श्वास जहासे उठता है और जहां जाकर समा जाता है वहा तक उसके अन्दर वृत्ति रखनी चाहिये। इस प्रयाससे एकदम शान्ति होने लगेगी,
और अन्तरके आनन्दमें उत्तरोत्तर वृद्धि होगी। दिनरातमें सामान्य रीतिसे २१६०० श्वासोच्छ्वास चलते हैं। उनमेंसे उपयोंग विनाका एक श्वास भी न जाने देना चाहिये । “सोऽहं" के जापका सतत प्रयास होनेके पश्चात् सहजवृत्ति श्वासमें रहने लगती है । आत्मामे इस प्रकार श्वासका ध्यान सिद्ध होनेपर साधकको हृदयके मध्य भागकी वृत्ति स्थिर करनेका प्रयास करना चाहिये। । जव हृदयकी वृत्ति स्थिर होगी तव हृदयमेंसे अलौकिकशान्तिका स्रोत प्रकट हो जायगा । जिस शान्तिका साधकको अव तक इससे पहले किसी के पास अनुभव नहीं हुआ था। जव हृदयका ध्यान सिद्ध होता है तव नामीके एक देशमें वृत्तिको स्थापन करे । वहांकी सिद्धि होनेपर उसे पुनः हृदयमें ले आना चाहिये, और वहासे कंठके मध्यमें ला छोडे । नाभि, हृदय और कंठमें शान्तिका अनुभव होनेपर मनोवृत्तिको त्रिकुटी भवनमें स्थापन करे । त्रिकुटी ध्यानका प्रयास होनेपर और वहाकी स्थिरवृत्ति होनेपर मसूरकी दाल जितने एक विन्दुका साक्षात्कार होता है, और वह बिन्दु अतिशय चमकदार होता है। विन्दुके दर्शन होनेपर साधकको अपार आनन्द मिलता है । उस नादबिन्दुके दर्शन होनेपर सिद्धियां भी साधककी सेवामें उपस्थित हो जाती हैं। कपालमें
अखिल विश्वकी झांकी हो जाती है। इसका कारण यह है कि उस स्थलपर त्रिकुटीमें गोल विन्दुके दर्शन ही हैं, और वह चांदकी निशानी द्वारा विन्दु दर्शनके रूपमें समझाया गया है। विन्दु दर्शन होनेपर साधकको अलौकिक ज्ञानकी प्राप्ति होती है, और जन्म जरा मृत्युके विनाशकी तैयारी हो जाती है। विन्दु दर्शन ही शंकरका (आत्मानंदका) तीसरा नेत्र है । प्रत्येक आत्मा शंकर ही है, और उसके समानतया दो नेत्र तो हैं ही, और तीसरा विन्दु दर्शन रूप ज्ञानलोचन प्रयास द्वारा उघडता है, बिन्दु दर्शनके पश्चात् योगीको
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
।
मृत्युका भय नहीं हो सकता, और साधकके संशय शल्योंका नाश हो जाता है। इसीको समझनेके लिये कहा जाता है कि शंकरका तीसरा नेत्र उघड आता है । तब संशय शल्यरूप विश्वका प्रलय हो जाता है।
त्रिकुटीमें बिन्दु दर्शन होनेपर साधक ज्यों-ज्यों विशेष प्रयास करता है त्यों-त्यों वह बिन्दु विशेष प्रकाशित होने लगता है, और अन्तमें साधक उस विन्दुर्मे इतना विलीन हो जाता है कि उस शान्तिमें उसे नादका अनुभव होने लगता है। तव विन्दुकी अपेक्षा नादमें विशेष आनन्द आनेसे बिन्दु गौण होने लगजाता है, और नाद' विशेषातिविशेष श्रवणगोचर होता है। नाद भी अनेक तरहका सुनाई पडने लगता है, और वह चक्की, सितार, सरंगी और नौबतखानेसे भी अधिक और उत्कृष्ट होता है। मेघकी गर्जनासे भी अधिक गर्जना सुनाई देने लगती है। अन्तमें दिव्य नादका अनुभव होनेपर साधक उस नादमें अत्यधिक लीन हो जाता है । इस ध्वनिका अनुभव इतना अधिक बढ जाता है कि साधककी हिलने, चलने, उठने, बैठने आदिकी क्रियाओंमें भी नादका अनुसन्धान रहा करता है। नादके अनुभवसे ही जगमें संगीतका प्रचार योगी लोकोंने किया है। जिस प्रकार नाद साधकको प्रिय है उसी भाति जगत्कोभी सगीत प्रिय है। अतः सगीत (गुणगान) द्वारा मनको एकाग्र बनाकर साधकजन आगे बढ सकते हैं। वास्तवमें संगीत वाह्य नाद हो गया है, और इस वाह्य नाद द्वारा अभ्यन्तर नादको मिलाकर पाया जा सकता है। साधक जव नादमें और भी आगे वडता है, तब उसको नादका अनुभव जहा होता है वह भ्रमर गुफाके ऊपर शंकुके आकारकी एक पोली प्रतीत होगी, और उस पोलके शिखरपर एक महान् प्रकाशवाले पदार्थका अनुभव होगा। यह प्रकाशमान पदार्थ गोलाकार
और उलटे छत्रके आकारकी तरहका जान पडेगा। यह छत्राकार सहस्र दल कमल सिद्धशिला रूप अजरामर चक्र शिरके अग्रभागमें—लोकके अग्रभागपर है। इस अजरामर चक्रमें वृत्तिके विलीन होनेपर साधकको अखण्ड अलौकिकमय आनन्दका अनुभव वर्धमान रूप होता है। वह आनन्द वढता भी इतना अधिक है कि साधक योगी उसमें एकदम लीन हो जाता है, और अलौकिक आनन्दका अनुभव अपने उस समस्त शरीरमें प्राप्त करता है अर्थात् खयं जो आनन्दरूप है उस अलौकिक आनन्द स्वरूपको स्वयं सर्वाङ्ग अनुभव करने
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६४
वीरस्तुतिः । . " . ...
अनुभव करता है।
राजस्थान, धनिकस्थान,
जिन जिन स्थान
लगता है । इस अवस्थामें वह साधक रूपसे मिटकर सिद्ध, योगी, विदेही; महात्मा जीवन्मुक्त कहलाता है । उस योगीकी दृष्टि देहसे अन्य स्थलपर जहा जहां जाती है वहां वहा वह अलौकिक दिव्य आनन्दका अनुभव करता है । जलस्थान, स्थलस्थान, राजस्थान, धनिकस्थान, पशुस्थान, आकाश स्थान आदि जिन जिन स्थानोंपर उस महात्माकी दृष्टि होती है वहा वहा यह आनन्दका ही अनुभव करता है। सब जगह अमेद रूपसे अलौकिक अनुभव करनेसे द्वैत भावकी भ्राति न रहनेसे वह वीतराग कहलाता है। ऐसा योगी पुरुष ही कृतकृत्य और सिद्ध है। ऐसे योगीके दर्शन भी जगत्को पावन करते हैं।
जिस प्रकार अभ्यन्तरवृत्ति द्वारा हम योगके सम्बन्धमें समझ सके हैं। उसी दृष्टि से वाहरके भागमें नाभिके ऊपर स्थापन करनेमें आता है, और जव उस प्रयासमें नामि और चक्षुके बीचमें एक चमकनेवाली तेजखी लकीर अखंडरूपसे दीखने लगे तव नाभिसे दृष्टि हटाकर छातीके मध्य भागमें स्थापन करनी चाहिये, और वहां भी जव इसी भाति तेजखी लकीर भासने लगे तव नासिकाके अग्रमें स्थापन करे। नासाग्रसे त्रिकुटीमें, वहासे भ्रमर गुफामें होते हुए अजरामर चक्ररूप सिद्धशिलामें और वहासे खात्म-अनुभवमें पहुँचा जाता है।' ' इस अनुभव मार्गमें भक्ति है, वह एक महान् साधन है, भक्तिसे प्रेम प्रकट होता है, और प्रेमके द्वारा भी आत्माका साक्षात्कार हो सकता है। किसी शास्त्रके श्लोकपर विचार करते-करते गंभीर तहमें उतर जाता है, और उसके द्वारा भी आगे बढ़ सकता है।
एक ऐसी भी रीति है कि जिसमें पद्मासनसे वैठकर जो विचार आ उनको तटस्थ वैठकर देखा करे, परन्तु विचारोंको अटकने न दे । अभ्यासके प्रवल प्रयत्नसे विचारधारा स्वयं ठंढी पडने लग जाती हैं, और अन्तमें एकदम शान्त हो जाती है। विचारोंके शान्त होनेपर साधकको अलौकिक आनन्द होने लगता है । तव अखिल विश्वपर विशाल और उत्कृष्ट प्रेमकी दृष्टि हो जाती है। समान भाव तो सवमें रखने लगता है। अपने आपमें ईश्वर भावका उदय होने लगता है। ज्यों-ज्यों यह प्रयास बढ़ता है, त्यों-त्यों अन्तरमें आनन्दकी विशेष जागृति हो जायगी । इतना ही नहीं, बल्कि बाहर मी सव जगह आनन्दका ही अनुभव होने लगेगा । और अन्तमें वह पूर्ण आनन्दमय
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
३६५
बन जायगा। सब जगह ईश्वरभावको स्थापन करता हुआ अति प्रेममय बनकर, प्रेमकी दृष्टिसे विश्वका दिन रात अवलोकन करनेसे सहजानन्द प्रगट होता है, और वह वीतराग हो जाता है। - पहले कहे गये प्रमाणानुसार साधकोंके लिये थोडी सी प्रक्रियाएँ संक्षेपमें वताई गई हैं। इन्हें विचारकर तथा उसी प्रकार मनन करनेसे अवश्य अलभ्य लाभ होगा। तथा अपरिमित सामर्थ्य पा सकेगा। योगका विषय अत्यन्त विशाल और गहन है, और इसे गुरुगमकी साक्षी विना सीख भी नहीं सकता। हठयोग, मंत्रयोग, लययोग और राजयोग इस भाति योग चार प्रकारों में विभक्त है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये योगके आठ अग है, और इनमें प्रत्येकको उत्तरोत्तर एकको एककी अपेक्षा है। प्राणायाम कई प्रकारोंसे हो सकता है, परन्तु उनमें पूरक, कुंभक और रेचक मुख्य हैं, भस्रिका आदि प्राणायाम भी उपयोगी हैं। प्राणायामको सहायता देनेके लिये नेति अर्थात् नाकमेंसे डोरा पिरोकर मुखद्वारसे निकालना; तथा धोती अर्थात् कपडेको पेटमें उतारकर मलका निकालनाः नौली अर्थात् नलोंको घुमाकर फिराना, वस्ति यानी गुदासे मल साफ करना, तथा कपालभाति गजकरणी आदि हठयोगकी अनेक क्रियाएँ होती हैं। इसी प्रकार खेचरीमुद्रा, महावन्धमुद्रा, वज्रमुद्रा इत्यादि मुद्राएँ गुरुगमके विना न कर सकनेके कारण प्राणायाम आदि की वातें फिर बताई जायँगी, क्योंकि वे वस्तुएँ भी विशेष ज्ञेयरूप हैं । अत. उनको महात्मा पुरुषोंकी संगतिमें रहकर सीखना चाहिये । योगसे बढकर संसारमें कोई अन्य विद्या उत्तम नहीं है । जो पुरुष योगकी साधना करेंगे अन्तमें वे परमपदको पायेंगे, और कर्मोंसे मुक्त होंगे। अतः उनको कर्मबंधके चार प्रकार समझना चाहिये जिनके ये प्रमेद हैं।
कर्मवन्धके ४ प्रकार और दुःख सुख इस समय भनेक मनुष्य नाना पाप करते देखे जाते हैं तथापि वे सुखी क्यों हैं ?
उन्होंने पुण्यरूपी वीज बोये थे, इसीलिये आज वे उनके सुखरूप फलोंको खा रहे हैं, परन्तु इस समय अन्य जीवोंको दुख देकर पापके वीज चोते हैं, इससे भविष्यमें इसके अनन्तर उनके फल उन्हें दुखरूप होंगे। इस प्रकार जो मनुष्य सुखी होकर भी पापिष्ठ होता है वह मनुष्य
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६६ . .. वीरस्तुतिः। ' . . "पापानुवंधी पुण्यवान्" समझा जाता है। इसीलिये कि इस समय पूर्वपुण्यके कारण सुखी है और वर्तमान् पापके कारण भविष्यमें दु:खी होगा।
कितनेक मनुष्य धर्मी होते हैं, अच्छे कार्य करते हैं, पुण्य भी करते हैं, तथापि दु.खित क्यों है ? ___ इसका कारण यह है कि पहले उन जीवोंने पाप किये थे, अतः वर्वमानमें दुःख भोगते हैं, इतनेपर भी शुभ कार्य करते हुए इस समय पुण्य बांध रहे हैं । अतः वे आगे सुखी होंगे। ऐसे मनुष्योंको शास्त्र में 'पुण्यानु. बंधी पापी' कहा है। इसीलिये कि भूतकालके पापके कारण दुःख भोगे रहे हैं, परन्तु वे वर्तमानके पुण्य कार्यके द्वारा भविष्यमै सुख भोगेंगे। . '
तव क्या वर्तमान कालमें कोई मनुष्य दुःखको भोगता हो और उसे भविष्यमें भी दुःख भोगना पडे क्या ऐसा भी कोई नियम है ?
हां हां क्यों नही, बहुतसे मनुष्य पूर्वके पापके कारण इस समय दुःखोंको भोगते हैं इतनेपर भी इस समय अन्य जीवोंको दुःख देते हैं तो वे अगले जन्मोंमें भी दुखी ही होंगे।
ऐसे मनुष्योंकी शास्त्रमें क्या संज्ञा बताई है ?
वे 'पापानुवंधी पापी' अर्थात् पूर्वजन्ममें पाप किया था उसका फल तो भोग रहे हैं, और इस समय पाप करते हैं अगाडी उसका दु.खरूप 'फल भी भोगेंगे।
तव क्या यह भी हो सकता है कि इस समय सुखी हो और आगे भी सुखी ही रहे?
हां यह भी हो सकता है, भूतकालमें जीवने अन्य प्राणियोंको सुख देकर पुण्य वाधा है, वे अव सुखी हैं, और अव पुण्य बांधकर भविष्यमें भी सुखोंका ही उपभोग करेंगे।
ऐसे पुरुषको शास्त्रमें क्या कहा है ?
इसे 'पुण्यानुवंधी पुण्यवान्' कहा है, क्योंकि पहले पुण्य करनेसे अव सुखी है, और वर्तमानमें पुण्य करता है जिससे आगे भी मुख ही पायगा।
सार-यों कमाके चार प्रकारके अनुबंध होते हैं, 'अनुबंध का अर्थ वहे बंध है जिसका फल आगे भोगा जाता है। अच्छा अनुबंध होनेपर
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
गाडी सुखोंका उपभोग करेगा। अशुभ अनुवंध हो तो अगाडी दुःख गना पडेगा।
(१.) 'पापानुबंधी पाप' इस समय दु.ख और पीछे भी दु.ख । (२) 'पापानुबंधी पुण्य' इस समय सुख और पीछे दुख । (३) पुण्यानुबंधी पाप' इस समय दु.खं और फिर सुख । (४) 'पुण्यानुबंधी पुण्य' इस समय सुख और फिर भी सुख ।
इस प्रकारके कर्मोंसे या तो दु ख मिलता है या सुख मिलता है, रन्तु मोक्षके अव्यावाध सुख जो कि कभी समाप्त नहीं होते, ऐसा आत्मिक न्स पानेके अर्थ शारीरिक सुखोंका भोग छोडना चाहिये । अर्थात् पाप पुण्यका य करके आत्मखरूपमें रहना सीखिये, और किसी भी प्रकारका अनुबंध बाधना चाहिये। यदि अनुबंध डालना हो तो पुण्यका ही वाघना चाहिये। आपका अनुबंध तो बिल्कुल ही न डालना चाहिये क्योंकि पुण्यके अनुवंधसे छ ऐसा बल प्राप्त करता है कि जिससे कर्मोंका क्षय भी कर सकता है।
॥अथाऽऽलोचनापुष्पाञ्जली योगस्य पुष्टये ॥ वीतरागोऽसि विज्ञानमयो गुरुवरोऽसि त्वम् । गुणागारोऽसि देवेश ! दा भव्यावने रत ॥१॥ इत्यं ते स्मरणानित्यं, नरा यान्ति भवाम्बुधेः। रं सुखेन श्रीवीर ! नान्योपायोऽस्ति भूतले ॥ २ ॥ शुभाऽऽनन्दस्य केलिस्त्वं, णोत्तमंगृहं जिन! सुरासुरनरैस्त्वं हि, सेव्योऽस्यवनिमण्डले ॥ ३ ॥ त्वदीये रणाम्भोजे, मतिम स्यादकामतः । सर्वोच्चकोऽसि सर्वज्ञो, रक्ष संसार
र्पत ॥ ४ ॥ महोदधि कलावुद्धरादर्शस्त्वं शुभस्य च । आचारस्याऽनवस्थि, सस्ते? खभखकः ॥ ५ ॥ वैद्यो लोकत्रयस्यैव, रत्नाकर ! जयोऽस्तु ते। पीशो जिनवरोऽसि त्वं, कृपाकर ! दयानिधे । ॥ ६ ॥ कर्मन्नो जातसर्वज्ञ ! वेज्ञप्तिम त्वयि प्रभो! वीतरागमयोऽसि त्वं, दुर्बुद्धेर्मे निशामयं ! ॥ ७ ॥ वेज्ञोऽति हे प्रभो ! देहि, वर चामयदं शुभम् । पित्रोरग्रे शिशु स्पष्टं, नोच्चायति किं ? पुनः ॥ ८॥ मोदाय तस्य किं लीला, न भवेत्त्वं विचारय। हे न.! खसुवृत्तं च, रीतिं चैव स्वकीयकीम् ॥ ९॥ नम्रो भूत्वा वयं प्रीति, वेभो कुरु मुदाऽनिशम् । भवेऽस्मिन्नहं शुद्धन, मनसा दत्तवान्नु किम् ॥ १० ॥ दानं किञ्चित्सदाचारो, ज्ञानं नैव तपश्च मे। पवित्रं नो मनो मेऽलं, कथमाराचये विभुम् ॥ ११॥ अद्यापि वासनाहानिर्न जाता पुद्गलेषु च । भ्रमान्मे
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६८
चीरस्तुतिः।” ? ; ; भ्रमणं मिथ्या, संसाराब्धौ दयानिधे ! -॥ १२ ॥ क्रोधाग्निना-प्रदग्धोऽहं, दिवा, रात्रि शुभाशुमे । लोभोरगेन सन्दष्टो, देहि मे ज्ञानमेषजम् ॥ १३ ॥ अमिन मानग्रहग्रस्तश्चाज्ञानवर्शतो यहम् । जायते न गुरो ! ज्ञानं, कपटावृत्तचेतसः ॥ १४ ॥ जगत्यत्र मया-किञ्चिन्न कृतं-परहितं विभो.! शोकसागरमग्नस्य, सुखं मे स्यात्कथं किल ॥ १५ ॥ मादृशस्य नरस्यात्र, जातं जन्म मुधैव च । मन्यता पूर्तये शश्वजिनदेव ! भवस्य च ॥ १६ ॥ दर्शनं च त्वया दत्तं, खमुखस्यैव निर्मलम् । सुस्थिरो भवताचित्ते, मदीये जायते फलम् ॥ १७ ॥ आनन्दरससंमने,, न भवेत्सत्यवर्तनम् । ममास्ति- हृदयं वज्रसमं जानीहि सत्प्रिय ! ॥ १८॥ दुर्लभं च मया प्राप्त, ज्ञानरत्नं दयाकर ! भ्रमणे वहुदिना- । म जाते, न निवृत्तो भवो,मम ॥ १९॥ नष्टं मे-ज्ञानरनं च, सदाऽऽलस्यप्रभावतः। कस्यान्तिकमुपागम्य, रारटीमि मुहुर्मुहुः -॥ २० ॥ जगतो वञ्चनायैव, वैराग्यं विधृतं मया। हास्यमर्थे भवे जात, धर्मलेशं न लब्धवान् ॥ २१॥ मदीये रसनाग्रे,च, -विद्या वसति निर्मला । तथापि कलहो नित्यं, ज्ञानादिगुणनाशकः ॥ २२ ॥ तथापि निगृहीतश्च, जातोऽहं तेन मे रतिः। हास्ये प्रजल्पिते चैव, जायते च महान्प्रभो! ॥२३॥ भ्रमणोड्डीयतेऽप्यस्मिन् , खगवजीवो हि नित्यशः। अतोऽहं चाधमो लोके, सुखं त्यक्तं विचारय ॥ २४ ॥ सदाऽन्यान्दूषयित्वाऽहं, मन्ये खमुखनिर्मलम् । परदारान्विलोक्यैवं, जाते नेने च वैकले ॥ २५ ॥ परनिन्दारतत्वेन, चित्तं मे मलिनं गुरो! कस्माद्धितं भवेन्मेऽद्य, न जातं विमलं मन ॥ २६ ॥ गुप्ता वै डाकिनी चैका, तथैको रतिपोऽर्दकः । मत्प्रतिज्ञा तदायत्ता, . कदापि न च तिष्ठति ॥ २७ ॥ करोमि प्रकटं तुभ्यं, लजां खीया गुरोऽधुना। त्वया तु ज्ञायता सर्व, जगत्कर्म दयानिधे ! -॥२८॥ गुरोर्वचनमत्यन्तं, मया त्यक्तं च हे प्रभो! तथा सच्छास्त्रवचनं, मिथ्या बुद्ध्या हितं परम् ॥ २९ ॥ दुष्कर्मनिरतो नित्यं, दुस्समी च तथैव हि । मिथ्यात्वपङ्कसंलिप्तमधमं विद्धि मां गुरो! ॥ ३० ॥ मते श्रमो न मे नष्ट इति वेद धिया गुरो! त्यकं लब्ध्वा च त्वा देव ! निखिलं मवकष्टकम् ॥३१॥ अज्ञानजं च मे पापं, दृष्ट्वाऽज्ञानवशादहो! हाहाकारस्तदा जातोऽनेनेति मयि नो सुखम् ॥३२॥ मृगानीकुचद्वन्द्वे मे, लग्नं चक्षुरहर्निशम् । यथा ध्यातं तथा लब्धं, न ध्यातः श्रीजिनेश्वरः ॥ ३३ ॥ कान्ताननं मनोहारि, दृष्ट्वाऽक्षिसुखमेधते। इति त्वयि परे लग्नं, मनो जातं क्वचिन मे ॥ ३४ ॥ सच्छास्त्रस्य च सिद्धान्तविधि
“沉照明田町四 丽动印孤Bm可印
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
३६९
श्रुत्वापि नो भयम् । संसारतारकं श्रुत्वा, ज्ञातं नो कारणं मया ॥ ३५ ॥ खानस्य मयि नो भासो, जातेश्च सुमनोरमः । गुणौघश्च मयि स्वामिन् ! विमला नो रतेः कला ॥ ३६ ॥ प्रभुत्वं न च मे जातं, खप्नेऽपि दृश्यतां प्रभो ! तथापि गर्वसंवेशात्करिष्येऽहं कथं हितम् ॥ ३७॥ प्रतिक्षणमायुहसते, मनस्तापो न यात्यसौ। दुःखदा च जराऽवस्था, सम्पना विषयादरात् ॥ ३८ ॥ निवर्तते न चाद्यापि, तस्मात्त्वच्छेरणागत । मेषजेच्छा मदीयाऽस्ति, धर्मवृत्तौ न मे मतिः ॥ ३९ ॥ मोहरूपग्रहाविष्टो, न शिष्ट. कोऽपि चाधुना । चैतन्येन समाविष्टो, लभते पद. मव्ययम् ॥ ४० ॥ इत्याद्यमन्यमानोऽहं, गुरो। रक्षां मयि कुरु । सन्मुखे त्वं मदीये हि, स्थितो दैन्यविमोचकः ॥ ४१ ॥ तथापि दीनवाक्यानि, शृणोमि तव सन्निधौ । धिक्कारं मे दयागार ! मुधा मे जननं भवे ॥ ४२ ॥ जिनसेवा कृता नैव, सविधिगृहसेवनम् । तथा कर्म कृतं धर्मपालनं न कचित्कृतम् ॥ ४३ ॥ दत्तं नो दानमत्युग्रं, न चित्ते स्मरणं तव । केवलं त्वयि सलमो, यथायोग्य निशामय ॥ ४४ ॥ नृदेहं दुर्लभं प्राप्य, तन्नाशश्च मया कृतः। यथैकाकी नरोऽरण्ये, रोरवीति मुधा तथा ॥ ४५ ॥ प्रत्यक्षफलदातृत्वाद्धम्म जैनं शुभं मतम् । तत्र जाता च नो प्रीतिर्मदीया दुःखनाशिनी ॥ ४६ ॥ महामौख्यं च मे पश्य, यतो जातं भयं मुहुः । कल्पवृक्षं तथा कामदुधा प्राप्य द्वयं मया ॥४७॥ सहसा दुःखसमूहं च, सहमानेन नाशितम् । दुर्लभं जन्म प्राप्याशु, न मया साधितं तपः ॥ ४८ ॥ रोगदुःखे निरुद्ध नो, दृष्टौ च सुखभोगको । इति मे पपराध च, क्षमख कृपया गुरो! ॥ ४९ ॥ अपमृत्युभयापत्तिनाशार्थं न कृतं क्वचित् । कान्ताजनसमासतो, धनादे. सङ्ग्रह. कृत. ॥ ५० ॥ कारागृहसमा नारी, नरकागारखलग्रहा । तत्रासक्तमनाश्चाहं, न जिनं ध्यातवान् पुनः ॥५१॥ नो साधितं च साधुत्वं, सद्वृत्तिों धृता मया। अतुला नार्जिता कीर्तिर्न परेषु दया कृता ॥ ५२ ॥ परदु ख प्रहाणेच्छा, तथा दीनजने दया। खप्नेऽपि नोपकारश्व, कृतं न गुरुसेवनम् ॥ ५३ ॥ रत्नकल्पं नृजन्मादिग्रामीणजनसेवया । मष्टं जातं मुघा विद्वन् ! तद्रक्षखाधुना गुरो! ॥ ५४ ॥ वैराग्ये च समायाते, शास्त्रज्ञानं न जायते । कोपाविष्टं दुर्जनस्य, वाक्यं मा सोढुमर्हसि ॥ ५५ ॥ आध्यात्मिकी च विद्या नो, नास्त्युत्तमकलाऽपि च । कथं भवाब्धे. पारं च, गमिष्यामि सुबोधय ॥५६॥ भवान्तरे चोत्तमं कर्म, न कृतं किञ्चिदुत्तमम् । जन्मान्तरे करिष्यामि, नास्त्याशा मे गुरो। किल ॥ ५५॥ जिनदेवेशं चाह,
वीर.२४
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७० . वीरस्तुतिः।" : कष्टं न स्यात्कथं 'न हि। चोत्तमो यो भवारण्ये, नष्टः सोऽपि प्रजायते ॥५॥ चरित्रं चानेकविधं, कथं ज्ञेयं मयाऽनघ । मदीयमघमयं वृत्तं, न, गुप्तं ते महा. प्रभो! ॥ ५९ ॥ जगत्रयस्वरूपस्त्वं, - प्रजानासि प्रमो! ध्रुवम् । मार्गदर्शयिता त्वं हि, मनोऽभिप्रायवित्तथा ॥ ६० ॥ त्वत्समो नास्ति हे नाथ! परो दुःखप्रणाशकः । दुरावस्थामहं प्राप्य, नो याचेऽन्यद्भमादपि ॥ ६१ ॥ अर्हन्बोधात्मकं ज्ञानं, याचे त्वत्तो भवापहम् । शिवदो जगतामीश! प्रार्थनैका प्रसाधय ॥ ६२ ॥ सर्वदुःखान्तरायं च, हर! ज्ञानं प्रदीयताम् । कस्मिंश्चिदिवसे चित्ते, समुत्पन्नं युपगुरौ ॥ ६३ ॥ कलकत्ताऽभिधे रम्ये, मतिर्मे सुलभा भवेत् । यतो जगज्जलाम्भोधे, पारं यास्यामि यत्नतः ॥ ६४ ॥ समिती सज्जनानां च, चित्तवृत्तं प्रमोदतः। प्रकटं करोमि सर्वज्ञ ! येनाप्यालोचना भवेत् ॥६५॥ .. यथा चित्तप्रसादः स्यात्तथा कुरु महामते ! शब्दज्ञानं न मे चास्ति, तथा पिङ्गलछन्दसाम् ॥ ६६ ॥ हंसकल्पो नरो यश्च, स. पठेद्धितकाम्यया। वेदावामृगाकाख्ये, वत्सरे निर्मिता त्वियम् ॥ ६७ ॥ वीरस्तुतेरघ्यायस्य, टीका च पुष्पभिक्षुणा । रचिता चेत्थममला, वीरसङ्घस्य तुष्टये ॥ ६८॥ गुरुर्मदीयोऽस्ति फकीरचन्द्रो, ज्ञानं मया लब्धमिदं यतश्च । वोघं च लब्ध्वा सुक्रियां करोमि, ततोऽ*मरत्वं च भवेत्स्फुटं मे ॥ ६९॥ - - -
इति श्रीमशातपुत्रमहावीरजैनसङ्घीयमुनिश्रीफकीर- .. 'चन्द्रजिच्छिष्यपुष्पभिक्षुविरचिताऽपूर्वशान्तिदा- .
ऽऽलोचना पुष्पाजली समाप्ता। । । ।
भगवान् महावीरकी वैराग्य भावना.... " हो विर्देज़वां आज महावीर महावीर, हरदम हो लबों पर दमेतकरीर महावीर । आलमकी जिया रूहकी तनवीर महावीर, अदराककी जू इल्मकी तसवीर महावीर । आलमके लिए मशरिके खुरशीदेसदाकृत, दुनियाकेलिए मतलए इसरारे हक़ीक़त ॥ १ ॥ इक वार महावीर जवां पर अगर आया, उस हस्तिए यकताका पड़ा कल्वपै साया। हर ज़ोफेअकीदत का हुआ जड़से सफाया, जंगे अमली रूहकी हस्ती से छुडाया। क्या नामथा जिस नाममें • * मोक्षमित्यशयः।
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
३७१
कुदरतकी झलक थी, क्या ज़ात थी जिस जातमें फ़ितरतकी चमक थी ॥२॥ महसूस हुआ जब इसे दरपेश सफर है, मंज़िल है कड़ी राहमें गुमराही का का डर है। दुनिया जिसे कहते हैं वह इक खानए शर है, माराम कहां दर्दोमुसीवतका यह घर है। सोचा के यह क्या है के हूं खुद में भी इसी में, नाफहमी से माखूज़ हूं राहते तल्बी में ॥ ३ ॥ जव गौर किया हस्तीए अशिया नज़र आई, दर असल अजब सैर सरापा नज़र आई। बच्चोंका घरोंदा सा यह दुनिया नज़र आई, मिट मिटके भी होती हुई पैदा नज़र आई। जौहरके अरज़का नहीं कुछ ठीक ठिकाना, गिरगटकी तरह रंग बदलता है जमाना ॥ ४ ॥बेसबाती (अनित्यता) हर रंगेजहां अस्लमें बिजलीकी चमक है, जो शक्ल हवेदा है वह शोलेकी लपक है। गुंचोंकी चटक है न वहे फूलोंकी महक है, इक हस्तीएमोहूमकी यों ही सी झलक है। पल भरमें न वह शक्ल न वह शान न सूरत, था वहमे नज़र आखने देखी थी जो सूरत ॥५॥ हर चीज़ के जिस चीज़प होनेका गुमा हो, बेहरकतो बेजान हो या साहिवेजा हो । इक शक्ल हो तखीर हो हस्तीका निशा हो, कमजोर हो शहज़ोर हो वातावोतवां हो । वक आए तो फिर ज़ोर किसीका नहीं चलता, वह हुक्मेकज़ा है के जो टाले नहीं टलता ॥ ६ ॥ कहते हैं जवानी जिसे वचपनकी फ़ना है, पीरी जिसे कहते हैं जवानीकी क़ज़ा है। हर अहदमें इक लुत्फ है हर लुत्फ़ जुदा है, इक लुत्फ़में सौ दर्द हैं हरदर्द सिवा हैं। फिर दर्द के राहत कोई कायम भी कहीं है, क्या है जिसे "है" कहिए के है भी तो नहीं है ॥ ७ ॥ बेपनाही (अशरणता) मादर पिदर व दुरुतरो फर्ज़िन्दो विरदार, याराने वफ़ादार रफ़ीकान दिलावर ।
ओरग कुलाहे मही सदकाने जवाहर, इन्सानोंकी फौजें हों के देवोंका हो लश्कर । होनी कमी टलती नहीं आपहुंचे जव इंज़ाम, हर सुबहके दामनसे है वावस्ता यहा शाम ॥ ८॥ कमज़ोर हो मज़बूत हो वाशानो असर हों, मुफलिस हो गदा हो कोई या साहिबेज़र हो । जंगी हो फिरगी हो कोई रश्के कमर हो, हो खारेनज़र सवका के मुंजूर नज़र हो । वक्त आया तो फिर नोए दिगर हो नहीं सकता, यमराजके पंजेसे मफ़र हो नहीं सकता ॥ ९ ॥ मरता है पिसर वापसे रोका नहीं जाता, मा रोती है दम बेटेका थामा नहीं जाता। मुंह तकते हैं सब याससे वोला नहीं जाता, भाईसे भी भाईको बचाया नहीं
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
पढता हवा हो, मला जो होना है रहगा, जो जिमहगा, जिस माह, सम
३७२
वीरस्तुतिः। " जाता । तदबीर किसी तरह किसीकी 'नहीं चलती, मौत ऐसी वला है के जो टीले नहीं, टलती ॥ १० ॥ सदक़ा कोई देता है के कुछ रद्देवला हो, पढ़ता है अमल कोई के तासीर दुआ हो। कहता है तबीवोसे के कुछ ऐसी देवा हो, झूठा किसी सूरतसे कहीं हुक्मकजा हो । होनी की मगर कोई दुआ है न दवा है, जो होना है आख़िरको वही होके रही है ॥ ११ ॥ फितरतका तकाज़ा है के होकर ही रहेगा, जो जिसने किया है उसे भोगेगा सहेगा । कुछ डर नहीं काफिर जो मुझे कोई कहेगा, जिस रुखपे वहाँ जाता है दरिया वह वहेगा। हामी कोई वंदा है किसीका न खुदा है, समरह है उसी फेलका जो जिसने किया है ॥ १२ ॥ अज़तराबे दुनिया (संसारता) इस पर भी तो दिल वक्फे तमन्ना व तलव है, राहत जिसे कहते हैं मयस्सर ही वह कब है। इक आरजू सौ रंजो मुसीवतका सवव है,
और हसरतें लाखों हैं फिर एक एक गज़व है। वह कौन है ? जो शौक का शेदा नहीं होता, किस दिलमें यहा खूनेतमन्नी नहीं होता ॥ १३ ॥ मुफ्लिसको अगर गम है के रोटी नहीं घरमें, ज़रदार है मुजतर हविसे दौलतो जरमें। इक दर्दकी तखीर है इक जौके दिगरमें, राहत न इसे है न उसे आठ पहरमें । इक आख तो फर्ज़न्दके अरमानमें नम है, औलादकी कसरतसे कहीं नाकमें दम है ॥ १४ ॥ आराम समझता है कोई मालकों जरको, कन्धे लिए फिरता है कोई दुख्तोपिसर को। रोता है कोई फुरकृते मंजूरनज़रको, तामीर कराता है कोई गुम्बदोदरको। यह मेरा है में इसका हूं यह मान रहा है, दुख दर्दके सामानको सुख जान रहा है ।। १५ ।। दिल शौकसे रंजूर है और शौक फ़िजूं है, आखोंमें जो नम है किसी अरमानका खू है। राहत जिसे कहते हैं वह इक सबोसकू है, हाल आपना मंगर फरतेतमन्नी से जवू है। इक आरजू पूरी हुई सौ करगई पैदा, आराम किसी शक्लसे मिलने नहीं पाता ॥ १६ ॥ दुनिया और वहम हमदर्दी (अन्यत्वता) हर आत्मा दुनिया अकेली है अजलसे, । पावंद तनासुख है मगर. वंद अमलेंसे । मर मरके कहीं-छुटती है यह कैद हमलसे, इक कुश्तीसी लडती हुई आती है अजलसे । बीमारीमें आजिज़ रही दरमा तलवीसे, जव मरती है तो पाती है दुखजां वलबीसे ॥ १७ ॥ सब झूटे ताल्लुक हैं गलत दावए उल्फत, कहनेकी मुहब्बत है दिखावेकी रिफाकृत। बीमारी हो या
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
याकाशलाजत मंजर न
लाजत
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३७३ मौत हो या दौरे मुसीबत, मुमकिन ही नहीं उसमें किसी गैर की शरकत । मुंह तकते हैं हैरतसे मदद कर नहीं सकते, मा बाप भी बेटेके लिए मर नहीं सकते ॥१८॥ अलेहदगी बेइलायकी और तनहाई (एकत्वता) ये महलोमकां हमने जो तामीर किए हैं, यह ऐशका सामान के दम जिसपे दिए हैं । यह लालो गुहर औरोंसे जो छीन लिए हैं, औलाद के जिसके लिए मर-भरके जिए हैं। हम जायेंगे ये साथ न जायेंगे हमारे, ये हमसे जुदा हैं यहीं रह जायँगे सारे ॥१९॥ यह रूप यह रंग और यह नकशा ये खत व खाल, है नूरके साचे में ढला आइने तमसाल । गो रूहसे मखलूत नज़र आता है फ़िलहाल, लेकिन है जुदा जानसे यह जानका जंजाल । यो आत्मा इस पैकरेखाकी में वसा है, है आइनेमें अक्स मगर उससे जुदा है ॥२०॥झापाकी और गिलाज़त [अशुचिता] यह पैकरेखाकी के हर इक जिसपे फिदा है, हर शख्सको मंजूर नज़र जां से सिवा है। कुछ गोश्त है कुछ खून है वलगमसे भरा है, इक ज़रफे गिलाज़त है जो झिल्लीसे ढका है । बोल और निजासतके सिवा ख़ाक नहीं है, नापाक है इतना के कमी पाक नहीं है ॥२१॥ मशहूरे ज़माना हो जो हुने नमी से, दिल छीन लिया करता है जो शक्लेहसीं से। उसके हो कोई ज़ख्म कटे जिस्म कहीं से, फव्वारह छुटे पीपका और खूका वहीं से। देखे न नज़र चाहनेवालोंकी पलटके, मक्खीके सिवा गैर कोई पास न फटके ॥ २२ ॥ आमद-ज़र्राते अमल [आस्रवता] कर देते हैं ज़र्राते अमल कहको नाचार, फल देके ही टलते हैं ये भगयार सितमगार । गो कर्म हैं दो किस्मके बदकारो निकोकार, होना ही मगर इनका है सद वाइसे आज़ार । इक इक नुकए रूहपे बैठे हैं हज़ारों, उठता है अगर एक तो आजाते हैं लाखों ॥ २३ ॥ जो टलता है वह खूब झलक अपनी दिखाके, गेज़ो गज़लो किबसे दीवाना बनाके । जज़बो कशिशे जंगे अमला हदसे वढाके, खुद छोडता है लाखके फंदोंमें फंसाके । वंधती है घोही रूह इस आमदसे अमलकी, गर्दिश नहीं मिटती के यह है रोज़ अज़लकी ॥ २४ ॥ सदवाव [संवरता] अव जव कमी इस मोहका कुछ ज़ोर घटा हो, खुश तालईसे दुश्मनेजां जर हुआ हो। उस वक्त कोई रहवरे हुक राहनुमा हो, तव रूहका कुछ होश ठिकाने हो वजा हो जाते ही न दे ध्यानको गैरोंकी फिज़ामें, रोके रविशेइल्मको खुद उसकी ज़ियामें ॥ २५ ॥ ज़र्राते अमलका इख़राज[निर्जरा काफूर शवे कुल झे मिटजाए जहालत, तावां
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७४
वीरस्तुतिः । . हो खूरेइल्म वढ़े नूरेसदाकत । काबू हो हवासोंपे हो दिल महवेरियाज़त, गुप्ति सुमति शील हो सन्तोष हो आदत । यह वाइसे सरगश्तगी फिर आप ही टल । जाएँ, ज़र्राते अमल रूहके नुक्तोंसे निकलजाएँ ॥ २६ ॥ आमद भी रुके वंदे अमल छूटने लग जाए, फंदेसे खुलें दाम कुहन टूटने लगजाए। ये मोह की मदिराका घड़ा फूटने लगजाए, खुद आत्मा अपने ही मज़े लूटने लगजाए । फिर अपना तमाशा हो और अपनी ही नज़र हो, अगियारसे अगियारकी सोह वतसे हज़र हो ॥ २७ ॥ आलिमे असवाव [संसार] यह जहा फानी जिसे सब कहते हैं संसार, छद्रव्य इकट्ठे हैं 'यह इक जावसद इसरार । फाइल कोई इनका न कोई मालिको सर्दार, पैदा कमी होते हैं न मिटते हैं ये ज़िनहार । छ से कमी कम और सिवा हो नहीं सकते, बनते हैं विगडते हैं फना हो नहीं सकते ॥ २८॥ पांच इनमें हैं बेहोश तो इक साहिवे अदराक, पाच इनमें । मकी एक मकां खाली वकावाक । चार इनमें जुदा रहते हैं बेलौस सदा पाक, . दो मिलते हैं आपसमें तो हो जाते हैं नापाक । इक मादह इक रूह जव हो जाते हैं मखलूत, खोली न खुले ऐसी गिरह लगती है मज़बूत ॥ २९ ॥ पाच ऐसे के जिनकी कोई रंगत है न सूरत, एक ऐसा के हर हिसको है वह वाइसे लज्जत । कहते हैं उसे मादह सब अहले वसीरत, जव रूहसे मिलता है तो यह होती है हालत । जां रूह तो वह जिस्म है. और वंद अमल है, जो ताइरे जा के लिए सय्याद अजल है ॥३०॥ वह आख गुलाबीसी वह अवरू जो तनी है, वह शोख नज़र जो सरे नाविक फ़िगनी है। मंजूर गरज़ सवको जो नाजुकबदनी है, हर सूरतेदिलकश इन्हीं दोनोंसे बनी है। महजूव है इल्मो नज़रे रुह अज़लसे, वहकी हुई फिरती है गरीव अपने अमलसे ॥३१॥ इन्सान भी हैवान भी और हूरो परीभी, : यह नज्म यह अफ्लाक यह खुश्की भी तरी भी। गुलशाख पे और कोहमें हर कान जरी भी, जो शक्लके है सामने खोटी भी खरी ' भी, वेजान भी जीरूह भी अच्छे के बुरे हैं, जल्वे इन्हीं दो के हैं के आंखोंमें खुवे हैं ॥ ३२ ॥ यह असल है दुनिया की यह आलमकी हकीक़त, कावाकमें है ठोस जवाहरकी सकूनत, हां तूल वहुत इसका बहुत इसकी है वुसअत, रूहोंके लिए है यही मैदान अजीयत। बे इल्मे सही आत्मा काजिव नजरी से, आवारह व सरगश्ता है खुद वेखवरी से ॥ ३३ ॥ हुसूले इल्म सही की दुश्वारी [ वोधि दुर्लभ ] आखोंसे कमी जीव दिखाया नहीं जाता, क्या आंख किसी हिससे वताया नहीं जाता।
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३७५ बेशक्लको अशकालमें लाया नहीं जाता, जुज़ कइफ़ज़मीरी उसे पाया नहीं जाता। इन्कार मगर रूहकी हस्तीसे खता है, हर शैको फ़क़त इल्मने मालूम किया है ॥ ३४ ॥ होशो खिरदो इल्म फकृत रूह की है जात, जुज रूह किसी और को हासिल नहीं ये बात । लिपटी है अज़लसे जो उसे बंदकी आफात, इनके ही सबब बहकी हुई फिरती है दिन रात । फिर भी सिफ्ते जात कमी जा नहीं सकती, बे होशको होश और खिरद आ नहीं असकती ॥ ३५ ॥ सब जड़ हैं मगर आत्मा है ज्ञानका भंडार, जो ज्ञान है और इल्म है चेतनका चमत्कार । खुद इल्म भीमालूम का वाहोशो खवरदार, उस ज़ातमें मुमकिन ही नहीं शरकते अगियार । पुद्गलने मगर ज्ञानको आवरण किया है, खुद भूलसे अपनी ये गिरफ्तारे बला है ॥ ३६ ॥ इक बार अगर भूल कोई इसकी मिटादे, शल्ल आइनेमें इसकी कोई उसको दिखादे । खुद जातका इसकी इसे दीदार करादे, यह वंद अमल काटसे फिर दममें उढादे। ज़ायिदनो मुरदनकी वला इक आनमें टलजाए, आज़ाद हो जू इल्मकी वंदिशसे निकल जाए ॥ ३७॥ दुनिया है अजव चश्म फरेव आइना खाना, सौ बार यहा मिलके छुटा ऐशो खजाना। यार ऐसे वफादार के बेमिस्लो यगाना, वह हुनके जिस हुनका मुश्ताक ज़माना। मिल जायें यह आसान है दुश्वार नहीं है, मुश्कल तो फकत जातका अपनी ही यकीं है ॥ ३८ ॥ रूहानियत या सिफ्ते जाति [धर्म ] कहते हैं जिसे धर्म वह कुछ और नहीं है, बस जातका अपनी ही कफ़त इल्मोयकीं है। लारेव है इसमें न चुना और चुनी है, सच ऐसा के रोशन सिफ्ते मेहरेमवीं है। भटकी है जो आपेसे वही रूह है नाशाद, और सुहवते यकजाईसे है गैरकी वरवाद ॥ ३९ ॥ परिणाम यह राज़की सूरत थी जो पावन्द' हया थी, अव उठ गया पर्दा तो वही जल्वहनुमा थी। गो इल्म सरीहीकी अमी जू न ज़िया थी, लेकिन वरके दहरकी तफ सीर तो वा थी। देखा तो इन ओराक पै यह साफ़ लिखा है, भूला है जो आपेको वह कर्मोंसे बंधा है ॥ ४० ॥ भगवान् विचार-भगवान् महावीर थे दर असल महावीर, मति-श्रुति-अवधिज्ञानकी थी' रूहमें तनवीर । पढ़ते ही यह समझे वरके दहरकी तहरीर, है भूल खुद अपनी सवव जिल्लतो तहकीर। सोचा के अब इस मोहको निर्मूल करूंगा, फिर जन्म न हो जिससे वह चारित्र धरूगा.॥ ४१॥ हू ज्ञान फ़क़त ज्ञानकी जू वनके रहूंगा, ,में होश हू बेहोश का पावंद न हूंगा। आज़ाद है फ़ितरत मेरी आज़ाद वनूंगा,
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७६
. .
., वीरस्तुतिः ।..
हूं पाक तो अंव गैरकी शरकतसे वचूंगा। वह जात हूं रहता हूं में जो अपनी सफा में, है अक्सफ़िगन चीज़ हर इक मेरी ज़िया में ॥ ४२ ॥ यह है सिफ्ते ज़ात मिटाई नहीं जाती, पुद्गलसे किसी तरह दवाई नहीं जाती। सौ जंग लगें फिर भी सफ़ाई नहीं जाती, यह शान यह एजाजनुमाई नहीं जाती। इस पर मिरी हस्तीमें है इक लुत्फ़ इक आनन्द, और ऐसा के जिसका कोई हमसर है न मानन्द ॥ ४३ ॥ थी भूल के था महवे तमाशाए जहा में, फिरता था तलाशो हविस कामो ज़वां में । नादान था जो कैद था इस वंदेगिरा में, गफलत थी ममय्यज़ ही न था सूदो . ज़ियामें। आया है जो अब होश तो वेहोश न हूंगा, चिद्रूप हूं चिद्रूप ही में मगन रहूंगा ॥ ४४ ॥ असवावो तआल्लुक जो वज़ाहिर थे किए दूर । दिल शर्मसे मजबूर न जज़वातसे मामूर। था जामए उरियां ही लिवासे तने पुरनूर, जो रूप यथाजात था बस था वही मंजूर । कहने को तसव्वुर था अहिंसा थी दया थी, फ़िलअस्ल वह इक रूह थी और उसमें सिफ़ा थी । ॥ ४५ ॥ वह जोर जो था वादे मुखालिफका रुका था, तूफान जो उठा था अज़ल से वो थमा था। लहरोंमे जो था शोर वह खामोश हुआ था, उस ज्ञानके सागरमें करार आया हुआ था। साकिन जो हुआ आव तो आव आगई ऐसी, साफ़ उसमें 'झलकने लगी जो चीज़ थी जैसी ॥ ४६॥ यह इल्म सरीही था वस इक ज्ञान था केवल, सूरजसा निकल आया छुटा कर्मका वादल। हर सूक्ष्म-स्थूल हर इक आला व अस्फ़ल, शै उसमें अयां थीन था पर्दा कोई हायल । सर्वज्ञ हमादा हुए क्या उनसे छुपा था, जो आलिमे अस्वाव में था जान लिया था ॥ ४७ ॥ खुश लहजा सदा एक तने पाकसे निकली, थी रूहकी आवाज़ मगर ख़ाकसे निकली । वह ख़ाक भी बेहतर कहीं अफ़लाकसे निकली, मसजूद जौहर साहिवे अदराकसे निकली । सिजदह उसे इन्सान भी करते थे मुल्क मी, 'फितरतकी ज़िया थी वह हकीक़तकी झलक थी ॥४८॥ रूहोंका इधर पुण्य वचनका था उघर जोश, खिरनेलगी जव वर्गना सुननेलगे सब घोश । हर राज अयां होगया आने लगा सन्तोष, सिजदेमें झुके जिन्नो वशर दोश सरे दोश । हा मेरें महावीर इस आवाज़के सदके, इस शक्लका मायल हूं इस अंदाज़के सदके ॥ ४९ ॥
, (फकीर मायल)
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
-
मङ्गलाचरणम् ।
सर्व एव हि जैनानां, प्रमाणं लौकिको विधिः। यत्र सम्यक्त्वहानिर्न, यत्र न व्रतदूषणम् ॥ १॥ रत्नत्रयपुरस्काराः, पश्चापि परमेष्ठिनः।
भव्यरत्नाकरानन्दं, कुर्वन्तु भुवनेन्दवः॥२॥ [अर्हन् परमेष्ठी] ॐ निखिलमुवनपतिविहितनिरतिशयसपOपरम्परस्य, परानपेक्ष्यापर्य्यायप्रवृत्तसमस्तार्थावलोकलोचनकेवलज्ञानसाम्राज्यलाञ्छनपञ्चमहाकल्याणाष्टकमहाप्रातिहार्यचतुस्त्रिंशदतिशयविराजितस्य, पोडशार्धलक्षणसहस्रांकितदिव्यदेहमाहात्म्यस्य, द्वादशगुणप्रमुखमहामुनिमनःप्रणिधानसंनिधीयमानपरमेश्वरपरमसर्वज्ञादिनामसहस्रस्य, विरहितारिरजोरहःकुहकमावस्य, समवसरणसरोऽवतीर्णजगजयपुण्डरीकखण्डमार्तण्डमण्डलस्य, दुष्पाराजवंजवीभावजलनिमज्जजन्तुजातहस्तावलम्बपरमागमस्य, भक्तिभरविनतविष्टपत्रयीपालमौलिमणिप्रमामोगनभोविजृम्भमाणचरणनक्षत्रनिकुरुम्बस्य, सरखतीवरप्रसादचिन्तामणेर्लक्ष्मीलतानिकेतकल्पानोकहस्य, कीर्तिपोतिकाप्रवर्धनिकामध्ये नीरवीचिपरिचयखलीकारकारणामिधानपानमन्त्रप्रभावस्य, सौभाग्यसौरभसंपादनपारिजातप्रसवस्तबकस्य, सौरूप्योत्पत्तिमणिकरिकाघटनविकटाकारस्य, रलत्रयपुरःसरस्य, भगवतोऽहत्परमेष्ठिनो भूयो भूयः स्मृतिं करोमीति स्वाहा । अपि च
नरोरगसुराम्भोजविरोचनरुचिश्रियम् । आरोग्याय जिनाधीशं, करोम्यर्चनगोचरम् ॥१॥
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
' ३७८ ' वीरस्तुतिः। '
[सिद्धपरमेष्ठी] ॐ सहचरसमीचीनचात्रियविचारगोचरोचितहिताहितप्रविभागस्य, अत एव परनिरपेक्षतया खयंभुवः सलिलान्मुताफलमिव उपलादिव च कीचनमदेवात्मनः कारणविशेषोपसर्पणवशादाविर्भूतमखिलबलविलयलब्धात्मखभावमसमसहायक्रममवधीरितान्यसंनिधिव्यवधानमनवधिमयनसाध्यमवसितातिशयसीमानमात्मस्वरूपैकनिबन्धनमन्तःप्रकाशमध्यासितवन्तमनन्तदर्शनवैशद्यविशेषसाक्षात्कृतसकलवस्तुसर्वखमनवसानसुखस्रोतसमर्पयन्तवीर्यमचाक्षुषसूक्ष्मावभासमसदृशाभिनिवेशावगाहमलघुव्यपदेशमपगतबाधापराकारसंक्रममतिविशुद्धखभावतया, निवृत्ताशेषशारीरद्वारतया च, मनाङ्मुक्तपूर्वावस्थान्तरमरूपरसगन्धशब्दस्पर्शमशेषमुवमाशिरःशेखरायमाणपदविश्वंभरमुप-7 शान्तसकलसंसारदोषप्रसरं, परमात्मानमुपेयुषो गुरुणापि प्रतिपन्नगुरुभावस्य रत्नत्रयपुरःसरस्य भगवतः सिद्धपरमेष्ठिनो भूयो भूयः स्मृति करोमीति खाहा, अपि च. . . प्रत्नकर्मविनिर्मुक्तानूनकर्मविवर्जितान् । . ' ___यत्नतः संस्तुवे सिद्धान् , रत्नत्रयमहीयसः ॥ २ ॥
[आचार्यपरमेष्ठी] ॐ पूज्यतमस्य उदिगेतोतदिकुलशीलगुरुपरम्परोपातसमस्तैतिहरहस्यसारस्य, अध्ययनाध्यायविनियोगविनयनियमोपनयनादिक्रियाकाण्डनिष्णातचित्तस्य चातुर्वर्ण्यसंघप्रवर्धनाधुरंधरस्य, द्विविधात्मधर्मावबोधनविधूतैहिकव्यपेक्षासम्बन्धस्य, सकलवर्णाश्रमसमयसमाचारविचारोचितवचनप्रपञ्चमरीचिविदलितनिखिलजनतारविन्दनीमिथ्यात्वमोहान्धकारपटलस्य ज्ञानतपःप्रभावप्रकाशितजिनशासनस्य शिष्यसम्पदाशेषमिव भुवनमुद्धर्तुमुद्यतस्य भगवंतो। रलत्रयस्य पुरःसरस्थाचार्यपरमेष्ठिनो भूयो भूयः स्मृतिं करोमीति स्वाहा । अपि च
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३७९ विचार्य सर्वमैतिह्यमाचार्यकमुपेयुषः।। ।' आचार्यवान मि, सञ्चार्य हृदयाम्बुजे ॥१॥
[उपाध्यायपरमेष्ठी] ॐ श्रीमद्भगवदर्हद्वदनारविन्दविनिर्गतद्वादशांगचतुर्दशपूर्वप्रकीर्णविस्तीर्णश्रुतपारावारपारङ्गमस्य, अपारसम्परायारण्यविनिर्गमानुपसर्गमार्गणनिरतविनेयजनशरण्यस्य दुरन्तैकान्तवादमदमषीमलिनपरवादिकरिकण्ठीरवोत्कण्ठकण्ठारवायमाणप्रमाणनयनिक्षेपानुयोगवाग्व्यतिकरस्य, श्रवणग्रहणावगाहनावधारणप्रयोगवाग्मित्वकवित्वगमिकशक्तिविस्मापितत्रिततनरनिलिम्पाम्बरचरचक्रवर्तिसीम-: न्तप्रीतपर्य्यस्तोत्सस्रक्सौरभाधिवासितपादपीठोपकण्ठस्य व्रतविधानवयहृदयस्य भगवतो रत्नत्रयपुरःसरस्य उपाध्यायपरमेष्ठिनो भूयो भूयः स्मृति करोमीति खाहा । अपि च
अपास्तैकान्तवादीन्द्रानपरागमपारगान् । : उपाध्यायानुपासेहमुपायाय श्रुताप्तये ॥१॥ . [सर्वसाधुपरमेष्ठी] ॐ विदितवेदितव्यस्य बाह्याभ्यन्तराचरणकरणत्रयविशुद्धित्रिपथगापगाप्रवाहनिर्मूलितमनोजकुजकुटुम्बाडम्बरस्य अमराम्बरचरनितम्बिनीकदम्बनदप्रादुर्भूतमदनमदमकरन्ददुर्दिनविनो-, दारविन्दचन्द्रायमाणोदितोदितव्रतवातापहसितार्वाचीयकामनचरित्रच्युतविरञ्चिविरोचनादिवैखानसरसस्य, अनेकशस्त्रिभुवनक्षोभविधायिमिर्म
नोगोचरातिचरैराश्चर्य्यप्रभावभूमिभिरनवधारितविधानस्तैस्तैर्मूलोत्तरगुण___ आमणीमिस्तपःप्रारम्भैः सकलैहिके सुखसाम्राज्यवरप्रदानावहितायाताव
वीरितविसितोपनतवनदेवतालकालिकुलविलुप्यमानचरणसरसिरुहपरागस्य निर्वाणपथनिष्ठितात्मनो रत्नत्रयस्य पुरःसरस्य भगवतो लोके सर्वसाधुपरमेष्ठिनो भूयो भूयः स्मृति करोमीति खाहा । भपि च--
पा
-
-
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८० वीरस्तुतिः। . .
बोधापगाप्रवाहेण, विध्यातानगवह्नयः।
विध्याराध्याघ्रयः सन्तु, साध्यबोधाय साधवः ॥१॥ ., [सम्यग्दर्शनम् ] ॐ जिनजिनागमजिनधर्मजिनोक्तजीवादितत्वावधारणद्वयविजृम्मितनिरतिशयाभिनिवेशाधिष्ठानासु, प्रकाशितशं- . काप्राकाम्यावहादनकुमतार्तिशल्योद्धारासु, प्रशमसंवेगानुकम्पाऽऽस्तिक्यस्तंभसंभृतासु, स्थितिकरणोपगृहनवात्सल्यप्रभावनोपचरितोत्सवसमर्यासु, अनेकत्रिदशविशेषनिर्मापितभूमिकासु, सुकृतचेतःप्रासादपरम्परासु कृतक्रीडाविहारमपि च, यन्निसर्गान्महामुनिमनःपयोधिपरिनितमशेषभरतैरावतविदेहवर्षधरचक्रवर्तिचूडामणिकुलदैवतं, अमरेश्वरमतिदेवतावतंसकल्पवल्लीपल्लवं, अम्बरचरलोकहृदयैकमण्डनं, अपवर्ग पुरप्रवेशागण्यपण्यात्मसात्करणसत्यंकारं, अनुल्लङ्घयदुर्घनघटादुर्दिनेप्वपि जन्तुषु, ज्योतिर्लोकादिगतिगर्तपातनमकाण्डमेदनमामनन्ति मनीषिणस्तस्य संसारपादपोच्छेदप्रथमकारणस्य सकलमंगलविधायिनः पञ्चपरमेष्ठिपुरःसरस्य भगवतः सम्यग्दर्शनरत्नस्य पुनः पुनः शुद्धि करोमीति खाहा। अपि च
मुक्तिलक्ष्मीलतामूलं, युक्तिश्रीवल्लरीवनम् ।
भक्तितोऽहामि सम्यक्त्वं, भुक्तिचिन्तामणिप्रदम् ॥१॥ [सम्यग्ज्ञानरत्नम् ] ॐ यन्निखिलमुवनतार्तीयलोचनं, आत्महिताहितविवेकयाथास्याववोधसमासादितसमीचीनभावं, अधिगमसम्यक्त्वरत्नोत्पत्तिस्थानं, अखिलाखपि दशासु क्षेत्रज्ञखभावसाम्राज्यपरमलाञ्छनं, अपि च यस्मिन्निदानीमपि नदीस्नातचेतोमिः सम्यगुपाहितोपयोगसमार्जने घुमणिमणिदर्पण इव साक्षाद्भवन्ति ते ते भावकसम्प्रत्ययाः खभावक्षेत्रसम्रयविप्रकर्षिणोऽपि भावास्तस्यात्मलामनिवन्धभ्रय
Page #407
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
३८१
हेतुविहितविचित्रपरिणतिभिः, मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलैः पञ्चतयीमवस्थामवगाहमानस्य सकलमङ्गलविधायिनः पञ्चपरमेष्ठिपुरसरस्य भगवतः सम्यग्ज्ञानरत्नस्य पौनःपुन्येनादरणं करोमीति स्वाहा। अपि च
नेत्रं हिताहितालोके, सूत्रं धीसौधसाधने ।
पात्रं पूजाविधेः कुर्वे, क्षेत्रं लक्ष्म्याः समागमे ॥ १॥ ' [सम्यक्चरित्रम् ] ॐ यत्सकललोकालोकावलोकनप्रतिबन्ध कान्धकारविध्वंसनं, अनवद्यविद्यामन्दाकिनीधरं, अशेषसत्वोत्सवानन्दचन्द्रोदयं, अखिलबतगुप्तिसमितिलतारामपुष्पाकरसमयं, अनल्पफलप्रदायितरुःकल्पद्रुमप्रसवभूमिमस्मयोपशमसौमनस्यवृत्तिधैर्यप्रधानैरनु-- ष्ठीयमानमुशन्ति सद्धीमनाः परमपदप्राप्तेः प्रथममिव सोपानं, तस्य पञ्चतयात्मनः सर्वक्रियोपशमानिशपावनस्य, सकलमङ्गलविधायिनः पञ्चपरमेष्ठिपुरःसरस्य भगवतः सम्यक्चरित्ररतस्य सम्यगवधारणं करोमीति वाहा । अपि च
धर्मयोगिनरेन्द्रस्य, कर्मवैरिजयार्जने । शर्मकृत्सर्वतत्वानां, धर्मधीवृत्तमाश्रये ॥१॥ जिनसिद्धसरिदेशकसाधुश्रद्धानवोधरनानाम् ।' कृत्वाष्टतयीं स्मृति विदधामि ततः स्तवं युक्त्या ॥२॥
अथ ममाक्रन्दनकाव्यम् ।
-
- श्रीमद्वन्द्यपदारविन्दयुगलो ध्यानैकवेद्योऽस्ति यो, 'व्याप्तं येन चराचरात्मकमिदं क्षीरं यथा'सर्पिषा । यद्भासा तरणिर्विभाति दहनश्चेन्दुर्निशान्धापहस्तं वन्दे मनसा गिरा च शिरसा जैनेड्यमीशं जिनम्
Page #408
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८२
वीरस्तुतिः।
॥ १ ॥ संसारोरंगवैनतेयसदृशो विज्ञानकोशालयः, कल्पद्रुजिनाटवेश्च हुतभुग ज्वालाजटालावृतः । वीजं धर्मतरोश्च विश्वजलधौ पोतो. ऽस्ति यस्सेविनां, ध्येयस्तं मुनयो भजन्तु नितरामानन्दकन्दालयम् ॥ २ ॥ पञ्चक्लेशनिरासवासरमणिविज्ञानवाराम्बुधिर्भव्याभीष्टशतप्रपूरणविधौ चैतन्यचिन्तामणिः । सज्जैनेप्सितसाधुभक्तिनलिनीव्याक्लेशहेतूदयः, सोऽस्माकं कुरुतात्कषायशमनं श्रीमाजिनेन्द्रः प्रभुः ॥ ३ ॥ जैना भिक्षुवराः ! पिताऽस्ति परमोऽस्साकं हि वीरो जिनो, यो दीपोत्सवसंज्ञके शुभदिने निर्वाणतामाप्तवान् । योऽन्ते नो निगमागमादिजनितज्ञानात्मके चक्षुषी, प्रादात्संयमिनो विधाय सुखदं ध्यायन्त्वतस्तं विभुम् ॥ ४ ॥ धर्मज्ञानचरित्रसंयमतपोयोगाङ्गभावानदात्, यो नो जैनमतावरोधनकरप्रध्वंसनार्थ विभुः । हित्वा तॉश्च वयं भवाब्धिपतिताः किञ्चिन्न कर्तुं क्षमास्तस्मादुक्तविधौ समाहितधियो यत्नं च कुर्मो मुहुः ॥ ५ ॥ मायाजालमपास्य चात्मनि मनस्संघीयते योगिभिर्योगाभ्यासतपोऽपरिग्रहवलात्सत्सङ्गतेः संवरात् । ते विघ्ना जिनपादपद्मरजसः सेवानुरक्तस्य च, तस्मात्तान् परिहत्य चैक्यकरणे चेतस्समाधीयताम् ॥ ६ ॥ चक्रे द्वादशधा तपोवलमदो दत्वा तपस्यान्वितान् , द्वारा गुप्तधिया विवेकपटवो जाता विरक्ता यतः । शीलादेनिलयाश्च चेतनगुणैरात्मीयभावाश्रयास्तस्मादात्मविचारणं मुनिवरा ह्यष्टाङ्गसिद्धिप्रदम् ।। ७ ।। स्याद्वादो विदुषां हिताय गदितोऽनेकान्तवादस्तथा, सिद्धान्तप्रतिपादनं मतभिदां येनाक्षयं जायते । सर्व तच्च विहाय मोहजलधौ मना वयं दुस्तरे, रागद्वेषझषाकुले च मुनयो भव्यं कुतो नो भवेत् ॥ ८ ॥ मायानिर्मितशोकसारविषये वैराग्यमेवाभयं, : १ मिथ्याऽव्रतकषायप्रमत्ताशुभयोगासवादयः ।
Page #409
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३८३ दत्वा नश्च महाव्रतादिनियमानष्टप्रवाक्याँस्तथा । संसारे, जिनदेवधर्मतरणिं प्रादादथो संयमान् , तं साधु सुखसागरं प्रतिपदं ध्यायन्त्वतिप्रेमतः ॥ ९॥ अहिंसा तथा सत्यमस्तेयमाहुर्महद्ब्रह्मचर्य सुनिर्वाणहेतुम् । यतस्तत्वबोधस्समुत्पद्यते च, ह्यतो रक्षणीयाश्च ते मिक्षुवर्यैः ॥ १०॥ यस्यामोधात्मशक्तिं प्रबलगुणगणै! प्रवक्तुं समर्था, नास्माक साधुबोधस्तद्नु च कथने तत्स्वरूपस्य तत्वम् । तस्य ज्योतिःप्रवाहं प्रबलगुणकरं वक्तुमीशाः कथंचिन्नो वा घाताख्यशक्तौ मतिरपि सुतरां नेहशी तादृशी च ॥११॥ श्रामज्यप्रतिपालनाय सुधिया जातावतारा वयं, कामक्रोधविमोहलोभममतामानावरोधाशयाः । चेतः संघपदारविन्दयुगले जित्वेन्द्रियग्रामकं, संसारानृतभोगरोगशमने विद्यामये धार्य्यताम् ॥ १२ ॥ कामक्रोधविमर्दनेन च पुनर्लोभः समुत्पद्यते, तस्मान्मोहसमुद्भवः स्मृतिहरो विज्ञाननाशस्ततः । पश्चाद्धर्मविपर्ययोऽनृतमयी भोगैषणा नायत, इत्थं दुःखमये विचित्रविषये जीवोऽनिशं बध्यते ॥ १३ ॥ आदाविन्द्रियनिग्रहे च विषया नश्यन्त्यनायासतः, काये चारुपरिग्रहादिशमने ज्ञानोदयो भासते । पश्चात्कर्मसमुच्चयप्रणशन धर्मे प्रवृत्तिः स्थिरा, तस्मादिन्द्रियसंयमे हि मुनिभिश्चेतः प्रदेयं सदा ॥ १४ ॥ तच्छक्तेरात्मयोगात्सकलगुणमयः स्यात्प्रतापोदयश्च, तस्याग्रे चोत्थितायाः प्रचलति नितरां वर्द्धमानाः समस्ताः । जाते शीले महत्वे सकलगुणविधेः सुप्रवाहं नियुज्य, वीर्य चान्तेऽवरोधं कृतमतिविमलं नो मनः शान्तिमत्वम् ॥ १५ ॥ चित्तं मे विमलायतं जिनवरे लग गुरोर्भावनात् , सेवाभावबलं च संयमवल प्रोत्कृष्टमग्रेऽकरोत् । रक्ष्य
१ समितिगुप्तिरूपान् । २ साधुसाध्वीश्रावकश्राविकामय सघः। ३ श्रुतमये।
Page #410
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८४ . , , वीरस्तुतिः। । संघवलं प्रतापसहितं कार्य सुवाक्यार्चनमीर्षाशून्यवलं विघातकवलं तत्वात्मकं धार्यताम् ॥ १६ ॥ धैर्येण क्षमया विभान्ति मुनयः कब्जैयथाम्ब्वाशयाः, सत्यासत्यविमर्शनेन विषयासक्तं मनः शाम्यति। तच्छान्तेः सकलेन्द्रियाणि विषमाच्छाम्यन्त्यसद्भावनात् , साक्षात्कारतरं भवेद्धदि पुना रूपं परस्यात्मनः ॥ १७ ॥ दृश्यादृश्यभिदापवारणकरे लोलायुषश्चेतसा, सौत्राः सच्चरितामृतादिविलसच्छास्त्राश्रये स्थीयताम् । चार्वाचारविचारसारपटवो येनाखिलाऽमीष्टदा, तस्मिन् ज्ञानमये जगत्यनुदिनं सत्संयमैरन्विताः ॥ १८ ॥ रुद्धं सर्वमनर्थकं, भगवता हिंसावलं नर्कदं, साधूनां प्रबलारिनाशनकरं साध्वीगणानां तथा । तीव्र भावकपायकादिशमनं तत्वानुरूपं महत्तीर्थ स्थापितवान् खनामविजितं सार्थक्यमेवं कृतम् ॥ १९ ॥. तत्कालीनगुणानुरूपमभिधां वोधात्मिकी नूतनां, संघे संस्थितिमेकतां सुमधुरां कृत्वा स्वधार्थिने । योग्यत्वं समये विधाय हृदये जाता यतो योगिनः, सूत्रोक्ते वचने कुरुध्वमनिशं विश्वासमेवं मुहुः ॥ २०॥ येनोद्धातवलं च हिंसकवलं पूर्णात्मना सम्मुखो, मूत्वा नष्टतरं कृतं :सुमनसा रुद्धं च मिथ्याबलम् । शुद्धश्रावकश्राविकागणमयं संस्थाप्य तीर्थ शुमं, श्रीतीर्थङ्करनाम खं सुललितं , सार्थक्यमेवाकरोत् ॥ २१ ॥ तत्काले जनता खधर्मनिरता सद्धे सदा सम्मता, भावैक्यस्य रसस्य पानमसकृद्यत्पायितं प्रेमतः । आज्ञा विश्वहिता सुबोधजननी संस्थापिताऽमानदा, धैर्य्य शौर्य्यमथावलम्ब्य सुखदं प्रद्योतितं नो मुदे ॥ २२ ॥ धैर्य्यादेबलधारणं च विषयासक्तेन्द्रियाणां गणं, रुवा योगतपोऽसिना च जगतो जन्यं महानर्थदम् । दुःखापायकरे तम्रोऽपहरणे ज्ञाने मनो दीयतां, स्याचित्र . १ विगतं घातं यस्मात् । २ सूत्रस्य भावाः सौत्रा.।
Page #411
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३८५ सकलेन्द्रियैः सह ततः शान्तं प्रयास विना ॥ २३ ॥ पश्चाच्छान्तिगतं मनो न विषये लनं कदाचिद्भवेत्पूर्वाचार्य्यवरैः सुसंयमरतैरित्येवमुक्तं पुरा । साधूनां जगदन्तरायशमने मोक्षाप्तये साधनं, हित्वाऽशान्तिकरान् समस्तविषयांश्चेतो गिरौ स्थाप्यताम् ॥ २४ ॥ कामिन्याः कनकात्कषायविषयाचे साधवो विभ्यति, जीवात्राणकरादसत्यवचनादेज्ञानकृष्णोरगात् । खाद्वन्नाशनतः परिग्रहरताचे भव्यभावाशया, लोके भव्यजनानवन्ति सततं सद्बोधतत्वामृतैः ॥ २५ ॥ तेजस्तस्य प्रकाशतां गतमदो भव्याशयानां हृदि, काण्ड भीषणवत्त्वमत्र गहन सस्थापित संयमे । जैनाचार्य्यवरैः परस्परमथो संस्थाप्य चैक्य बल, संयुक्ताखिलशत्यमोघसहिता संघादिविद्युत्पमा ॥२६॥ विद्युच्छक्तिरिखारविन्दहृदये प्रोद्भासिता येन नः, सचे शक्तिमदोच्चयोऽतिकृपया जाता यतश्कता । तां विस्मृत्य च मोहमानममताक्रान्ता वय दुःखिनस्तामुद्भावयितुं मुहुर्यतिवरा यले मनो धीयताम् ॥ २७ ॥ पूर्वाचार्यगणैः परस्परमदश्चैक्यं सुसंस्थापित, शच्यानन्तप्रवाहसङ्घतडितः शक्तिः समुत्पादिता। वीरं शासनमेव निम्नपतित येनोद्धृतं शान्तित, एतावन्नहि किन्तु शासनवरं संवर्द्धितं न्यायतः ॥ २८ ॥ योगासक्तषियो जिने न्द्रमृदुलाम्भोजांघ्रिसेवारता, मिथ्यात्वादिनिरस्तसर्व विषयाः कारुण्यवन्तो दयाम् । धृत्वा चेतसि वो निघाय च गुरोनिद्वपादाम्बुजं, व्याख्यानाय निबन्धरूपममलं ह्याक्रन्दनाख्यं ब्रुवे ॥ २९॥ ॥ इति प्रस्तावना ॥ अद्याऽनद्यमयेक्षते च महती हानिः समाजस्य च, भाग्यात्मन्दमयादुतावरयुगाद्यच्छासनाख्यं बलम् । क्षीणत्वं प्रतिपद्यतेऽनुदिवसं न ज्ञायते कारणं, द्वन्द्वारम्भविधौ च कष्टमधिकं संवर्धते हानिकृत् ॥ ३०॥ ईर्षाकारणतो न कोऽपि कमपि ब्रूते न सम्मन्यते, दृष्ट्वं
वीर. २५
Page #412
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८६
वीरस्तुतिः। " मतभेदकारकमिदं चेतस्ततो धावति । विद्याऽपि हसते तथाप्यनयतो धर्मो विल्लुप्तो भवेन्न्यायान्यायविचारदुर्बलतरो जातोऽधुना, वुध्यताम् ॥ ३१ ॥ जातोऽयं मतभेदमेदकवशादाचारमेदोऽपि'च. संख्या त्रिंशतितोऽपि जातमधिकं किं वर्णयामो वयम् । साम्प्रादायिकमेदवेशकरणादाचारभेदोऽपि च, : ज्ञात्वैवं शमसाधनेऽनुदिवसं धर्मे प्रवृत्तिर्दमे ॥ ३२ ॥ दृष्ट्वमं विषयं च कस्य न मनस्तोदं हितेच्छावतां प्रामोत्यन्तमनन्तशासनवतां केषां मनस्स्तोकताम् । यात्याधीरतया च हेति सुमहच्छब्दः समुत्पद्यते, जाते सत्यपि साधुचेतसि पुनर्नोत्पद्यते भावना ॥ ३३ ॥ तद्दौर्बल्यमहत्तरं न कुरुते प्रत्येकमत्रान्तरे, सर्वेषां मनसा विचारकरणे नो भेदभावोऽधुना । वासं नो कुरुते परस्परमहो सम्मेलनं नैकतां, नान्येषां हितमीहते शुभधिया कश्चिन्नरः प्रेमतः, दृष्ट्वा चोन्नतकं पदं परजनस्यार्ता भवेयुर्जनाः ॥ ३४ ॥ केषां ज्ञानोपलब्धिर्न भवति सुतरां नास्ति शिक्षोपलब्धिस्त्यक्ता सेवापि नित्या निजमुनिचरणाम्भोजयोः साधुवर्यैः । सेवाधर्मापलापोऽजनि जनहृदयात्स्वमतुल्यो नराणां, क्रोधाविष्टैश्च छिन्नं प्रतिदिनमखिलं सभ्यमूलं विहिौः ॥ ३५ ॥ योऽन्येषां धर्मलोपे प्रबलबलमथो धारयित्वा प्रवृत्तः, प्राप्तुं, शिक्षाविभागे प्रचुरसमवलं संबिभर्तुं समर्थः । सोऽनर्थ स्फोटयित्वा रिपुदलगहनं दग्धुमनिखरूपः, कार्य तस्यापि नित्यं वितरति समये नामिमानप्रयोगः ॥ ३६॥ सम्मेले विलयं गते च कियती सम्भावना दुर्दशा, जातोऽहं पतितो भवे च कियती चाघातसंवेदना । यक्ष्मा मे महती तृतीयजवनी क्रान्तातिदुःखादरा, हा किश्चिन्नहि मेस्ति तद्विगणना कार्ये प्रसिद्ध सति ॥.३७ ॥ मानक्रोधपरिग्रहोदयवशाद्धर्मक्षयो जायते, तत्क्षीणे जिनदेवशासनबले हास:
Page #413
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
३८७
समुत्पद्यते । तद्धासे च कलङ्कितं जिनमतं निष्ठा ततो,भावना, तस्माद्दोषसमुच्चयापनयने चित्तं समाधीयताम् ॥ ३८॥ अस्माकं यदि बोधमस्त्यवनतेर्मानापमानस्य च, पातस्यैव च वाऽवहेलनजनेर्जाता पराकाष्ठता । लव्धज्ञानवलेऽपि कुम्भश्रवसो निद्रालयाः शेरते, विद्युत्तेजसममिजं किमु पुनर्भानूदये तिष्ठति ॥ ३९ ॥ अत्याचारसमुद्भवे च निखिलं नष्टं च भव्यात्मनां, सर्वापारमयी क्रियापि विपुला नष्टा तथा भावना । शास्त्राणां पठनं प्रणष्टमधिकं जैनावतारे मुनौ, किं कर्तव्यसतः परं मुनिवराः सञ्चिन्तयध्वं हृदा ॥४०॥ शिक्षार्थ बहुशो जनैर्विरचिताः पाठालयाः कालया, नो वा साधुगणैश्च विश्वविदितं सस्थापितं वा क्वचित् । विद्यापीठमनल्पकं यतिवरांश्छात्राः पठेयुर्मुदा, ज्ञानाभ्यासकरा नयन्ति सकलं धर्मादिकं श्रेयसे ।। ४१ ॥ धर्म नामिरुचिर्गुरौ न नियतिर्विद्याश्रमे नो मतिः, तत्सूत्रे पठनादरो न हि रतिः सद्दे मुनीनां तथा । न्यायान्यायविचारणे न च गतिर्योगाश्रमे नादरः, श्रेयो नश्च कथं भवे. दनुदिनं चेतः परं क्षुभ्यति ॥ ४२ ॥ मोहेनाधिकतृष्णया च. महति सञ्जायते नः क्षतिः, वर्द्धन्ते ममतादयोऽहितकरा ज्ञानं ततः क्षीयते । तत्क्षीणे जिनधर्मशर्मा विलयं यास्यत्यथो. भावना, निष्ठा सूत्रसमुद्भवा सुरगुरौ लोके कथं स्यास्थितिः ॥ ४३ ॥ रागद्वेषविवर्धनेन च मनो न स्यात् स्थिरं चञ्चलं, तद्रोधानयनं विना न विषयाः शाम्यन्ति योगाश्रयाः । यावत्कर्मनिरोधनं न हि भवेत्तावत्कथं भावुकं, ज्ञात्वैवं परिहृत्य रागविषयं सांघ वलं सेव्यताम् ॥ ४४ ॥ गर्तेऽशान्तिमये वयं निपतिताः कश्चिवत्प्रबन्धो न हि, सर्वाधारजिनेश्वरोपकरणे नो विस्मृतियोग्यता । दत्तं तेन ततोऽखिलं च विषयं संलब्धवन्तो मुदा, तत्सर्व कथमन्यथापहरणं कुर्वन्ति चान्ये नराः ॥ ४५ ॥ सामाजस्य सुरक्षणं
Page #414
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८८ . , वीरस्तुतिः। च भवतामाधीनतामागमदेव चाभ्युदयोऽपि मिक्षुकवरा ज्ञात्वा द्वयो रक्षणम् । संयुक्तेष्टवलं विना न हि भवेत् तद्रक्षणं नालसाता, संयुक्ताभ्युदयप्रतापजनना चैक्यादिकं प्राप्नुयात् ।। ४६॥ पूर्व देशमवेक्ष्यतां हि कियतीमत्युन्नतिं प्राप्तवान् , तद्देशेऽप्यधिवासिनो हि नितरां खार्थान भिमाने रताः । तत्रैक्येन बलेन सज्जनजनाः कुर्वन्ति निष्कण्टकं, राज्यं छत्रधराश्च' भोगनिरताश्चैकाधिपत्ये , स्थिताः ॥ ४७॥ देशेऽस्मिन् दुरवस्थता प्रतिदिनं वृद्धिंगता पश्यत, अत्रत्या- विषयोपमोगनिरता जाताः पराधीनताम् । ऐक्याभावपरा न संयमकरा नो, दूरदर्शप्सवो, , रागेणूंशयसंयुताश्च सुतरां विज्ञानशून्याशयाः ॥४८॥. दारिद्रेण . सुखेतरा जनपदा साहाय्याप्यान्यतः, दत्तं चान्यजनेन वस्त्रमनिशं सन्धार्यते दुःखतः । पश्यामोऽधमदुर्दशां च महती मुंज्मः पराधीनतां, बद्धाः शृंखलया वयं परवशाः खातत्र्यहीनास्तथा ॥ ४९॥ पूर्वस्था मनुजाः खतन्त्रनिरता. राज्यं , वहन्त्याहिताः, प्रत्यक्षात्मकमुख्यकेन नियताः सत्यप्रमाणेन च । ऐक्यं चाधिगताः खधर्मविलया विख्यातसेवाः पराः, ज्ञात्वैवं समयादिकं न हि भवेत्त्याज्यं कदाचिन्नहि ॥५०॥ जाते वस्तुनि रोदनादिकरणं, मिथ्यैव होच्चारणं, पश्चात्तापनिवेशने न हि पुनर्नेत्राश्रुपातं शुभम् । खुद्दारादिविकत्थनं किल मुधा सर्व व्यलीकं त्यजेच्छ्रीमद्वीरजिनानुशासनवरं चोत्थाप्यतां श्रीध्वजः ॥ ५१ ॥ वीरखाम्यनुशासनानुसरणं संधैक्यता सेवनं, सूत्रागाधमहोदघेश्च तरणं ज्ञानक्रियाराधनम् । काषायाद्यपवारणं जिनमुनौ सेवार्पणं प्रेमतः, सन्त्येतानि शुभार्थिनामनुदिनं श्रेयःकराण्यग्रतः ।। ५२ ॥ मृत्युप्रायगतस्य चैक्यसुवलस्योत्थापन कार्यतां, यद्येकेन समाजकेन समये सामर्थ्यभाजा न हि ।' धीरत्वेन च यत्नरत्नकरणे चेतः समाधीयतां दाढ्य
Page #415
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
३८९
निश्चयमाविधाय मनसः शुद्धिर्विधेया पुनः ।। ५३ ॥ रागैश्चापि परिग्रहैरनुदिन मुक्त्वा मवृन्त्वादरात्, सर्वानिष्टकरैर्ममत्वबलिमिः सङ्गः परित्यज्यताम् । खश्लाघाकरणे ममत्वकरणे दोषो महाञ्जायते, सर्वः साद्विषयान्मनोपहरणं श्रेयस्कर स्याचतः ॥ ५४॥ शास्त्रे वस्त्रे शिप्यवर्गे शरीरे, ग्रामे देशे श्रावके चान्यकार्ये । शोकं मोहं सम्परित्यज्य नैज, वायत्तायां नैव ग्राह्यं कदाचित् ॥ ५५ ॥ बोधार्थ जनताहिताय सकलो ग्रन्थो मुदा हर्म्यतां, न स्थाप्यो निकटे कदापि मनसो भारादयं नित्यशः । त्यज्यन्तां प्रियवस्तुनोऽपि नितरां नो कार्यतां सञ्चयो, नित्यैकं वसनं निधाय सुखदं खे जीवने रक्षणम् ॥ ५६ ॥ ग्राह्य मृण्मयमेव भाजनमथो नोऽनल्पमूल्यात्मकं, चैकं चाम्बरमेव धारणवरं नान्यन्महर्घ क्वचित् । धार्यो नान्यपरिग्रहश्च शयनं भूमिस्थले शोभनं, नो वाच्यं परुषाक्षरं कचिदथो जातापमानैरपि ॥ ५७ ॥ नो भोक्तव्यमनुत्तमं रसरसैर्युक्तं सदन्नं कचित् , गार्हस्थ्यैर्मनुजैन सङ्गतिरदः कार्या शुभाकातिभिः । स्थातव्यं शुभशासनैः शमदमक्षान्त्यादिभिः संयुतैरेवं जैनमुनि समुन्नतपदारूढं भवेन्नान्यथा ॥ ५८ ॥ स्वातत्र्यं समवाप्य चात्सनिहिता शक्तिः समाश्रीयतां, चारित्रं च निरीहता सरलता सत्य निवासं वने । एवं संयमता क्षमत्वमनिशं सत्याग्रहत्वं तथा, इत्यादेवलमुद्विभाव्य सकलं खातव्यसश्चिन्तनम् ॥ ५९ ॥ यत्रानन्तसुख सवल्यनुदितं तां पद्धतिं गच्छत, · श्राद्धानां भवनं त्यजन्तु मुनयोऽरण्यं गुहां चेच्छत । स्थित्वा तत्र सुसंयमं प्रकुरुत. नान्योऽस्ति पन्थाऽपरः, सर्वसिन् विषये भवन्तु निपुणाः पारंगताः स्युः पुनः ॥६०॥ भगवद्वीरजिनस्य जन्मभवनं नित्यं अमन्त्वाहिताः, शीताद्यन्वितदेशमार्गपथिको भूत्वा महावेदना । सोदव्या च 'महोष्णदेशज
Page #416
--------------------------------------------------------------------------
________________
३९० . , वीरस्तुतिः। नितं चोष्णादिकंवा तथा, सेव्यं साधुजनस्य सङ्गमखिलं हेयं गृहिस्त्रीजने ॥ ६१॥ साध्वीस्त्रीगणसंगते न च पुनर्नो दर्शयेच्चाननं, संघस्योन्नतिके मनो मुहुरथो सन्दीयतां प्रेमतः। तच्चाप्युन्नतशेखरे स्थिरयितुं यत्नेन संस्थीयतां, सन्तो भिक्षुवराः समाजविषये. सद्गौरवं धार्य्यताम् ।। ६२ ॥ खच्छं जैनमतं तदुक्तविधिना स्याद्वादचित्तार्पणं, तत्सूत्रोक्तविमर्शतत्वमननं शश्वद्धिताऽऽधायकम् । कर्तव्य प्रतिवासरं सुमुनयो हित्वा कषायादिकं, शास्त्रेऽन्यत्रमते.(परसमये ) सुबोधकरणे कल्पन्तु सद्बुद्धिभिः ॥ ६३ ॥ शास्त्रोद्धारकृतेऽनुरक्तमनसः प्रत्यन्तदेशंप्रति, मा गन्तव्यमसत्करॉश्च विषयान्नो चिन्तयध्वं हृदि । सच्चित्रविलसदगृहं तु धनिनां हेयं सदा दूरतो, दध्याज्येन, समन्वितं च पयसा त्याज्यं सदन्नाशनम् ।। ६४ ॥ शीतोष्णादिकजन्यतापसहनं मौनं मिताभाषणं, येन स्याज्जनतोपकारसुखदं वाक्यं च धार्य हृदि । गन्तव्यं गहनं गिरौ,न पिहितं,सत्कन्दरामन्दिरं, भोक्तव्यं विरसादिकं च ह्यशनं धृत्वा प्रशान्ति मुदा ॥ ६५ ॥ योगाभ्यासपरायणो गुरुपदाम्भोजार्चनासक्तघीः, सूत्राभ्यासरतो 'दमादिसहितः सद्भावनासंयुतः,। ध्वस्ताशेषकषायको जितंमहापड़र्गशत्रुर्गुरुः, सद्भक्त्या परिपूर्णशान्तहृदयो योगाश्रमे दत्तधी: ॥६६ नो वै वेषविधानमात्रकरणाच्छिप्यो भवेत्कर्हिचिच्छान्तं धर्मरतं गुणान्वितजनं संशिक्षयेद्दीक्षया । नानाशास्त्रविचारणोत्सुकमनास्त्यक्तैषणो दुःखहृत, एतादृग्गुणवत्तरो ह्यतिप्रियः शिष्योवधेयो मुहुः ॥ ६७ ॥ हे मिथुप्रवरा मयाऽद्य समये सन्दृश्यते संस्थितिः, ये केचिद् गृहिणो गृहादिरहिताश्चायान्ति :नष्टे धेने । दुःखार्ताश्च बुमुक्षवो हि.भवतान मारात् पिपासाकुंला, नो कृत्वा च परीक्षणं पुनरथो 'दीक्षां ददत्यादः । रात् ॥ ६८ः। तेभ्योऽयोग्यतरेस्य दीक्षणमहो ,सन्दीयते वा. हठा:
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
३९१
दीक्षामात्रविधानकेन नियता मन्त्र प्रदत्वा मुदा । किञ्चिद्भाषणयुक्तिशक्तिसहिता भाषात्मिका दीयते, दशवकालिकनन्दिसूत्रविपय उत्तीर्णता चेद्भवेत् ॥ ६९॥ नो वैराग्यरतो विचारकरणेऽदक्षो न, विद्यान्वितः, क्षिप्रं श्राद्धजनाय मोहकरणेऽविद्यावशः सत्कथाम् । नो वा जैनमतानुसारचलनो भक्त्या विरक्त्या युतः, (नैवं शिष्यगणोऽतिदीक्षणपरो नो भावशुद्धौ रतिः) अन्येभ्यो हठवञ्चनाय नितरां शिष्योऽप्यनिष्टः स्मृतः ।। ७० ॥ न्यायप्राकृतजन्यकाव्यविषयं सच्छाब्दिकं वा पुनर्दद्याज्ज्ञानमनन्तरं सुमुनये शिष्याय दीक्षामपि । येन स्यात्समितौ सुयोग्यगणना लब्धप्रतिष्ठो भवेन्नो चेत्कर्मविगर्हितं च भवतां निन्दालयो जायते ॥ ७१ ॥ दृष्ट्वेमां घटनां बुधो हृदि महत्कष्टं मनस्तोददं, हास्यं वा विदधाति रोदनमथो वाह्यार्थमेषो जनः । हीनं योग्यतया जनो न मनुते सत्कारमातन्यते, जन्मान्धस्य दिवाकरः प्रकथनं नामात्यनर्थप्रदम् ॥ ७२ ॥ ज्ञानं नैव विभाति यस्य हृदयेऽज्ञानान्धकारापहं, नो शिक्षा विशदा सतां न मुखरो भूत्वाऽन्यथा वञ्चनम् । लोकान् वञ्चयितुं करोति विविधां धृत्वा मुखे वस्त्रिका, जैनानां मतदूषणं प्रकुरुते न स्थापनीयो जनः ॥ ७३ ॥ साङ्गोपाङ्गतया च सूत्रविषये स्याद्वादज्ञाने तथा, छन्दःशास्त्रसमन्वितेऽन्यविषये ज्ञानं प्रदायाथवा । साधुभ्यश्च परीक्षणं सुनियतं सस्कारयित्वा पुनः, पश्चाद्वीरपदानुसारवशतो दीक्षा प्रदेयाऽन्यथा ॥ ७४ ॥ व्याख्यानप्रतिभाप्रवन्धरचना ..शिक्षाप्रणाली ततो, धर्माख्यानपरं च भाषणमयी सद्भावना जायते । ज्ञानं न्यायकरं समस्तजनताकल्याणकृद्भाव्यत, एवं रीतिमुपाश्रयेद्यदि मुनिधर्मप्रवाहोदयः ॥ ७५, अहं. द्वीरनिमित्तधर्मसरणीमाश्रित्य, देशान्तरं, प्रान्त्वा विश्वहिताय.धर्मत:
Page #418
--------------------------------------------------------------------------
________________
३९२ - वीरस्तुतिः । रणी हिंसीद्यमावात्मिकाम् । दत्वाऽनेकविवादवादेनपरं निषूय बोधाश्रये, तिष्ठेताखिलक्लेशनाशनपरा ज्ञाने परे निष्ठया ॥ ७६ ॥ देशैकं च वयं सुसंयमरताः संसेवयामो मुदा, ताम्राचूडमयाण्डवत्प्रतिदिनं संसारखाद्वन्नकम् । भूत्वा च भ्रमणं तु निष्फलमहो कुम्नॊ विरामः सदा, तेषां चर्णपरा मतानुकरणे जाताः प्रवृत्ता रहः ॥ ७७ ॥ चित्तं दे - वलोक्यतां च गृहिणो विश्वासमासाद्य च, युष्माकं मनसा धिया च सुतरां तिष्ठन्ति सेवाश्रये । ध्यात्वैवं च तथाविधाँञ्जनपदॉश्चोत्थापयध्वं ध्रुवं, नोचेन्निम्नतलं पतन्ति बहुधा कृच्छ्रात्पदादुन्नतेः ॥ ७८ ॥ भारत्या भवने च पुस्तकचयं संस्थाप्य साधूत्तमास्तद्रक्षाकरणे प्रयत्न शतकं शश्वद्विधेयं तथा । वस्त्राभूषणयोर्यथेतरजनाः कुर्वन्ति सद्रक्षणं, सूत्राणां चयनं सदा च मुनिभिः कर्तव्यमत्रालये ॥ ७९ ॥ अर्हद्वीरसुधर्मरोधकरणं यत्पुस्तकं वर्तते, नो तबाह्यमसत्करं च मुनिना स्वश्रेयसे सर्वदा । यत्र स्त्रीरतिवर्णनादिविषयं तद्रतस्त्यज्यतां, स्याद्वादादिकशास्त्रमेव हितकृत् ग्राह्यं शुमाकाटिभिः ॥ ८० ॥ येन ज्ञानविवर्धनं च भवतां सञ्जायते मोदतस्तद्योग्यं च हिताय वोऽनुदिवसें ग्राह्यं बुधैः सत्यतः । द्यूतादेरनुवर्णनं च कथनं भावोऽस्ति यत्रापि वा, हिंसामावपरिग्रहप्रकथन हेय सदा साधुभिः ॥ ८१ ॥ तच्चानथेकरं सुसंयमहरं शान्त्यादिविक्षेपदं, न ग्राह्यं मनसेशं च यतिभिर्योगे च विघ्नप्रदम् । येनाध्यापनधर्मशमविलसत्सद्बोधसूर्योदयस्तद् प्रायं च बलादपि प्रयततां योगार्थिनां श्रेयसे ॥ ८२ ॥ युष्माकं परिपाटिकेयमवरा यच्छास्त्रसूत्रादिके, मोहादिप्रबलायतेऽधिकतरं दृष्ट्या जनैर्हस्यते । नेत्रादश्रुनिपातनं च नितरां कुर्वन्ति हे मिक्षवः ? पाने वाऽप्यथवाम्बरे च ममता सन्दृश्यतेऽन्यैर्जनस्तस्मादप्यधिकं पटा
Page #419
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३९३ दिविषये मोहं समुज्जम्भते ॥ ८३ ॥ तत्कि हीन हि, जायते भगवतां दीक्षार्थिनां लोकतो, लोकानां च धनार्जनं परजनश्रेयस्करं ज्ञायताम् । युष्माकं परिरक्षितं गतपटं न श्रेयसे पुस्तकं, ज्ञात्वैवं ममतां जहत्वनुदिनं भव्यं भवेद्येन च ॥ ८४ ॥ विद्याऽध्यापनकार्यलुप्तमधिकं तत्रापि पाठ्यक्रमो, हा वो हानिकरी विभाति कियती सख्या विरामस्य च । नोऽवस्था सुव्रतग्रहस्य नियता नो वा व्रतादेस्तथा, न खस्यापि गुरोविचारमननं कुर्वन्ति काऽन्यत्कथा ॥ ८५ ॥ यच्छास्त्राणि च पुस्तकानि पठने चोपक्रमात्पाठने, तानीर्षाममतावशाग्रहिगृहे ग्रंथि विधायाग्रतः । नष्टप्रायगतानि विश्वजलधौ नोद्धाटयन्त्यालसात् , शिष्येण प्रतिवासरं च गुरवोऽन्योन्यं प्रयुध्यन्त्यतः ॥ ८६ ॥ वैरं भावगताः परस्परमहो प्रेमोच्चकाधःपतन् , लोकान्तानि निजानि संकलुषयन् यान्त्या विनायासतः । ज्ञात्वेमां च दशां मदीयमनसि स्याहुःखसङ्गं पुनर्जनाचारसुशास्त्रतत्वमननात्वाध्यायवृद्धिर्भवेत् ॥ ८७ ॥ नीतिन्यायप्रमाणतत्वनिखिलात् सर्व विरुद्धं मतं, कोऽपि प्रीतिपुरःसरं न कुरुते कर्माखिलं सज्जनः । तेनाधःपतनं मतादिविहितं धर्माच यायान्मुहुतेनाऽहं च करोमि चिन्तनमहो धर्मस्य वृद्धिः कथम् ॥ ८८॥ शवालयगतौ यद्वत्सारमेयौ परस्परम् । युध्यन्तः साधवस्तद्वत् , युध्यन्ति प्रीतिमन्तरा ॥ ८९॥ अतोऽस्माकं च साधुत्वं, गत नास्त्यत्र भावना । दुर्दशा कीदृशी जाता, स्वधर्मो निधन गतः ॥ ८९ ॥ येनास्माकं वर्धते ज्ञानशक्तिर्यस्याधारान्नीतितत्वावबोधः । खाध्यायस्यामूल्यरतं वदन्ति, शान्तिर्दान्तिर्ज्ञानरूपे परेशे ॥ ९० ॥ तच्चेदानीं नाशभावं प्रयाति, नो वा शुद्धिः संयमादेश्व प्राप्तिः । तद्द्वारा वा नैव बोधो न मावस्तस्माच्छास्त्रं साधवोऽप्यात्मपाः ॥ ९१ ॥ तद्वद्वन्याल्लो.
-
Page #420
--------------------------------------------------------------------------
________________
३९४ . वीरस्तुतिः। . .. . ककल्याणहेतोर्लोके धर्मप्राप्तये वै वहन्तु । येन स्यान्नो रक्षणं संयमादेन स्याद्धानिः कार्यसिद्धौ मुनीशाः ॥ ९२ ॥ तस्मात्सर्वान् भारती गेहमध्ये, सन्तो ग्रन्थान् स्थापयन्तु प्रयत्नात् । येन स्यादै सर्वलोकोपकारो, ज्ञात्वैवं वै नो विलम्ब हि कार्यम् ॥ ९३ ॥ शुद्धस्फाटिकवत्सरोजहृदयो विद्याकलावारिधिर्भाव्यस्तापत्रयापहो गुणनिधिः शिष्येष्टकामप्रदः । यद्येतादृशमावधारणकरः स्याच्चेद्गुरुः क्षिप्रतः, शिष्यारिष्टनिनाशनं च भवतान्नास्त्यत्र सन्देहकः ॥ ९४ ॥ एवं भिक्षुवराश्च शिष्यरचने क्लेशप्रदा वः प्रथा, यः कश्चिद्भवति प्रदीक्षणपरः स्यात्तस्य दीक्षेच्छया । कायात्पारदवद्वहि प्रसरते वार्ता स्फुटान्नित्यशः, श्रुत्वाऽनेकवरिष्ठसाधुचतुराः खास्यात्क्षरन्त्यम्बु च ॥ ९५ ॥ यलेनायमतद्विदो यदि भवेन्मे स्याद्वरः शिष्यकस्तस्यापि प्रभवेत्सुजीवनवरं लोके च धन्यो जनः । अन्ते सिद्धिकृतेऽन्तरस्थघटको दुर्वासनां वर्द्धयेत् , नाशार्थ समये सुसंयमयमान्नित्यं यतन्ते मुहुः ॥ ९६ ॥ संग्रहः पुस्तकानां यो, दोषो वर्वति तद्विदाम् । शिष्याणां करणे तद्वन्महान् दोषो हि जायते ॥ ९७ ॥ मातापित्रोविनाज्ञां च, व्ययं दीक्षोत्सवे वहु । अपव्ययमपि कर्तु, प्रेरयन्ति मुहुर्मुहुः ॥ ९८ ॥ भिक्षवः शिष्यतृष्णातो, नश्यन्ति धर्मकर्मतः। खगौरवं व्रतं चापि, नाशयन्ति मुधा खतः ॥ ९९ ॥ रोगस्यास्येयमस्तीह, शान्तिः श्रीखामिनो वरा । महावीरस्य संघस्य, सेवा सर्वार्थसाधिनी ॥ १०० ॥ सम्प्रदायानुरोधेन, संयमादेश्च सेवनम् । गच्छवादं गुरोर्वाद, शिष्यवादं विवर्जयेत् ॥ १०१॥ भारतस्याखिलस्यैकमुख्याचार्यो भवेद्भुवम् । भूत्वा, तस्यैव शिष्यास्तु, तदाज्ञां पालयन्तु च ॥ १०२ ॥ यः कश्चिद्दीक्षण, । १ सार्वजनिकपुस्तकालये ।। . . . . . ......... .।
Page #421
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
३९५
प्राप्त, समीहेत मुदान्वितः । स्वदेशे संयम दीक्षां, निर्वेदेन च धारयेत् ॥ १०३ ॥ तदा व्यवस्था सन्मार्ग, गत्वोन्नतपदं ततः। गच्छेच्च शिवसम्प्राप्तिः, सर्वेषां नो भविष्यति ॥ १०४ ॥ सङ्घ चैकः स्थापनीयो गणेशः, सर्वानर्थान् वेदितुं यः समर्थः। येन स्यान्नः सम्प्रदायानुरोधाद्धर्मे वृद्धिश्चिन्त्यतां मिक्षुवयः ॥ १०५॥ कश्चित्समाजस्य महत्यदास्पदं, बिभर्तुमिच्छेत् किल तस्य वागुराम् । कर्तुं करे खस्य सदेषणास्ति वा, प्रगृह्यतां चेद्वरिवर्ति शक्तिः ॥ १०६ ॥ कश्चित्वयं सर्वसमाजकार्यकर्ता तथा धारयिता बुमूषुः । तथा व्यवस्थापि समाजशक्ती, स्वशक्तिमास्थापयितुं प्रवृत्तः ॥ १०७ ॥ कस्यापि चेच्छास्ति समाजनेता, सदा भवेयं च सुशासकोऽपि । एतद्धितेच्छा च प्रवर्धतेऽनिशं, सर्वखमेवास्तु मयि प्रपन्ने, ॥ १०८ ॥ यदीदृशीच्छा परिवर्तते तदा, समाजलोपोऽपि भवेद्धि शीघ्रम् । इत्थं समाजस्य च दुर्दशा भवेद्विचिन्त्यतां जैनमुनिप्रवीणैः ॥ १०९॥ कृच्छ्रादाप्तपदोन्नताद्धि पतनं निम्नं समाजस्य च, एवं गौरवनाशतां परिव्रजेत् सर्वे भवेयुस्त्वरम् । दुःखार्ता जिनदेवभक्तिनिरता धर्मोऽपि नाशं ब्रजेत्, ज्ञात्वैवं जिनशासनोऽनुदिवसं तद्रक्षणे स्थीयताम् ॥ ११० ॥ रोगोऽनेन समाजभोगविषये वृद्धिंगतो नित्यशः, साधूनामहमात्मिकाविकृ. तितो नष्टाऽधुना सभ्यता । सर्वेषां हि महत्वतत्वविषये जातैषणा सर्वतो, मानं चातपधावने निपतितं मिथ्यापलापो मिथः ॥ १११ ॥ भिक्षूणामभिमानभावमधिकं काषायसंसेविनामेतस्यापणमार्गभागविषये जातं महर्घ ध्रुवम् । योग्यायोग्यविचारणापि विलयं याता समाजस्य किं, तेनैवास्ति समाजकोऽपि नितरां पिष्टस्ततो घुण्णवत् ॥ ११२ ॥ .१ सघस्य प्रधानाचार्य : . . . . . . . .
Page #422
--------------------------------------------------------------------------
________________
३९६ . . . . वीरस्तुतिः ।, दुःखावोगमयाद्भवन्तु मुनेयश्चैतन्यभावाः पुरः, सर्वेऽन्योन्यगताश्च स्त्रीय सुकृतावेक गुरुं कुर्वताम् । स्वादर्श सकलागमैश्च हितकृत् सम्मान्यता प्रेमतो, निश्चिन्तां मनसा सुजैनमुनयो हीमा व्यवस्थां गताः ॥१.१३।। यो दीक्षास्थविरोऽथवा 'श्रुतवरो यः सच्चरित्रे रतो, यो वा योगकरो समाधिनिरतस्तं सेवयन्त्वादरात् । भक्ति तत्र वहन्तु जैनमुनयः प्रेम्णा तथाऽन्यैर्जनैः, प्रेमोत्पन्नमयैः सुधारसमथो कुर्वन्तु सद्भावनाम् ॥११४॥
॥ इति ममाक्रन्दनकाव्यस्य पूर्वार्द्ध समाप्तम् ॥ . '' ममाक्रन्दनकाव्यस्योत्तरार्द्धम् । '
' नत्वा *जिनेन्द्रमवलम्व्य च तत्पदालं, संसारशापत्रयतापहरं वरे. ण्यम् । श्राद्धोदयाय मुनिधर्मविवर्द्धनाय, भक्त्या करोमि सरलं च निवन्धमेनम् ॥ १॥ अये ! साधो! दैवाद्धतनरशरीरश्च सुभगं, महावीर सेव्याम्बुजचरणमाधिप्रशमनम् । भवाम्भोधौ पोतं विषयमृगतृष्णापहरणं, भजन्ते नो कस्मादरिदलसुकक्षानलसमम् ॥ २ ॥ भिक्षार्थिनो मुनिवराः समयेऽद्य शश्वद्धर्मोपदेशकरणे न च वृत्तपत्रैः । तन्वन्ति लेखकरणाजिनपुस्तकानां, श्रीवर्धमानकरुणाकरशुभ्रकीर्तिम् ॥ ३ ॥ समाजसंघ परिपक्कतां दशां, नयन्ति तेषामुपकारवृत्तयः । सुमाननीयाः शुभकृत्यशक्तयस्तथैव चानुकृतिरद्य कार्या ॥ ४ ॥ तत्संघसम्मेलनसुप्रचारे, सहायता चापि मुदैव देया। तत्सम्प्रचारे निरतैस्तपखिमियोऽभिमानादिपरिग्रहश्च ॥ ५ ॥ तत्संघसेवामनिशं विदध्युर्दासत्वमादाय वदेयुरेवम् । मानापमाने न च तापहों, कुर्वन्तु जैनाश्रमवासिनश्च ॥६॥ नेच्छेयुरन्यत्र पदं प्रगल्भं, नो मानपत्रेड* रागाधरीन् यो जयति स जिन 'इपिल्जिदीकुष्यविभ्यो नई' इत्युणादेः ।
Page #423
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३९७ भिरुचिं विदध्युः । लोकान्तरप्राप्तिनिमित्तभूतसज्ज्ञानकर्मादिकरा भवन्तु ॥ ७॥ अत्रान्तरे मानबलं त्यजेयुः, सत्साधुसेवा नितरां विशेषा । सत्वात्मिकां वृत्तिमनूपसृत्य, मनश्च खाध्यायबले नियुज्य ॥८॥ खजीवनेनाद्यसमाजसेवा, रश्मि गृहित्वा परिरक्षणीया । निश्चित्य चित्तेन समाजवृन्दे, साहाय्यदानं करणीयमाशु ॥ ९॥ अथाभ्याख्यानप्रहरणम्॥ सन्दृश्यते भिक्षुवरा ? मयाद्य, किश्चिद्विकारान्वितसाधुभावाः । तेषां च जाते परिवर्तनादिकं, कुत्सान्वितं तेन विचारणीयम् ॥१०॥ दुष्टखभावान् कथयन्ति चान्यान् , कुर्वन्ति खस्यैव प्रशसनं च । विद्वत्सु दोष परिभावयन्ति, गुणं पिधायाथ गुणं खकीयम् ॥११॥ प्रकाशयन्ते च स्वकीयदोष, पिधाय ते संयमिनः वरिष्ठाः। निन्दन्ति ते दुष्कृतिनोऽभिमानात्समाजभाजः प्रवदन्त्यसिद्धान् ॥ १२ ॥ यदापहर्तु वरिवर्ति शक्तिस्तदेतरस्थान् गुणदिव्यसंघान् । आच्छिद्य सिद्धप्रवरा मवेम, इति प्रजल्पन्ति विचारशून्याः ॥ १३ ॥ मदीयेऽत्र काये यदि शक्तिरुया, जगन्मात्रजातान् गुणानाविच्छिद्य । खकीये तनौ स्थापयित्वा वरिष्ठो, भवेयं तदा सर्वतो माननीयः ।। १४ । परन्त्वस्ति भव्यं न चेदृग् वलं वा, न विज्ञानशक्तिर्विधातुं कुतः स्यात् । परेषां च निन्दाभिधानं मुखेन, परं मन्यते शाकपत्रादिकल्पम् ॥ १५॥ अयेऽन्यत्र निन्दे ! न लब्ध पद ते; विहाय स्थलं साधुसंधे प्रवेशः। कृतस्ते न जाने सदा दूरतस्त्वां; त्यजेयुर्जना मानवन्तो मनस्तः ॥ १६॥ अये पापिनि त्वत्कृते धर्मनाशे, भवेन्निम्नपातश्च नो धारयत्वम् । अतस्तैर्मुखं नीलवर्ण च नाशः, समाजाबहिस्त्वं गता चेद्वरेण्यम् ॥ १७ ॥ अयेऽनिष्टभावे ! पिशाचखभावे! मुनीनां समाजात्त्वमन्यत्र गच्छ । न भव्यं भवेत्तत्र संमे
Page #424
--------------------------------------------------------------------------
________________
३९८
वीरस्तुतिः।
* . .';
लने च, सुजाते सुरम्ये कुतस्तऽत्र वासः ॥ १८ ॥ सदा मर्यतामद्य ते न प्रवेशो, वय वञ्चिता ज्ञानिनोऽजातसंगाः । मुखं पश्यतेऽग्रे च संमेलनं नो, भविष्यत्यनायासतश्चाजमेरे ॥ १९॥ न याचेऽतिरिक्त समाजान्मुनीनां, मनो मे प्रसक्तं समाजप्रसङ्के । अतो धारणीयं 'मन स्तस्य सिद्धौ, यतो नो भवेद्धर्मलामो मुनीशाः ॥ २०॥ वयं चाद्य (स) भोगान्मुदोद्घाटयिष्यामहे द्वादशाल्यान् सदा प्रेमभावात् । अरण्ये निवासाय यलं विधाय, तनावेकवस्त्रं मुहुर्धारणीयम् ॥ २१ ॥ मृदा . निर्मितं पात्रमेकं सदैव, ध्रुवं धारणीयं गृहस्थैः समं नो । कदाचिद्विघेयाऽशुभा सङ्गतिश्च, दलं प्रेषणं वर्जनीयं तथैव ॥ २२ ॥ सुखावातिहेतोश्च कर्तव्यमेवं, मिताहारमेकत्र काले वरीयः । मिलित्वा च सांवत्सरं पर्वचैकं, वयं चाखिलाः साधवो यत्नतश्च ।। २३ ॥ सदाऽऽचार्यवर्योऽखिलानां मुनीनां, वुधैको मवेच्छिष्यशिक्षाप्रदायी। त्यजे. युर्विचारे च यं भेदवादं, करिष्यामहे ज्ञानविज्ञानवादम् ॥ २४ ॥ अहो ज्ञानरूपेऽथ गङ्गाप्रवाहे, सदुत्साहशक्तिं च कुर्मोऽतिहर्षात् । समाजेऽत्रं सर्वे मिलित्वा त्वदीयं, बहिष्कारमेवं करिष्यामहे च ॥२५॥ यदा ते भवेन्मूलभग्नोऽद्य निन्दे ! कथं त्वं समाजे च तिष्ठेर्वदेनः । यदा ते च्युतिस्खाधिकाराद्भवेच्चेत् , तदा ते क्व यानं मवेहि क्षिप्रम् ॥ २६ ॥ सुसम्मेलनस्य प्रसगे वलेन, बहिष्कारभावो न जातः कदाचित् । सर ! त्वं मुखं नावलोके त्वदीयं, खकीयं तथा नैव सन्दर्शयामि ॥ २७ ॥ तथा नैव केनापि साकं वदामि, तदा मौनमाधाय तिष्ठामि शश्वद् । गतं वैमनस्यं शरीराच्च मेऽद्य, त्वयि निन्दनीये गते जैनसंघात् ॥ २८ ॥ यदा द्रोहबुद्धिस्तदा ते निवासोऽन्यथा त्वं प्रया हीति संघान्मुनीनाम् । जगद्वंचितुं नो वितिष्ठख निन्दे । निव
Page #425
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३९९' तख तूर्ण वने पर्वते वाः ॥ २९॥ इतः पेषणं ते करिष्यन्ति लोका, अतोऽन्यत्र गन्तव्यमेवं विचार्य । न वा मद्रमत्राधिवासे बलिष्ठे, जगचे करिष्यत्यहोऽनादरं, हि ॥ ३० ॥" भवद्भि: मुंखात्वाच्च त्याज्या. वरिष्ठैस्तपस्याबलं संयमादेर्बलं च । तथा संघसेवा "बलं चात्मनोऽपि, भवेन्नष्टमेवं हि सर्वखनाशः ।। ३१ ।। मया निश्चयं दीयतेऽद्य भवद्भिः, परित्यज्य निन्दा सकर्तव्यतां हि । तथेभियं क्रोधमात्सर्यमेवं, समाहृत्य धर्म चरेयुर्विरक्तिम् ॥३२॥ [अथाऽपलापविपये] यदा कश्चिदायाति पार्चे स्वकीये, तमुत्थाप्य हस्तेन चोर्ट्स (हर्म्य) नयन्ति । तथैकान्तगेहे च तेनैव वार्ताऽपलापं प्रकुर्वन्ति मोदैः प्रमोदैः ॥ ३३ ॥ विनाज्ञानसम्पन्नमेकं स्खशिष्य, विधायाथवा द्वारपालं खकीयम् । विनोदेन कुर्वन्ति कार्य विगर्हमहो वर्तते कीशी साधुवृत्तिः ॥३४॥ मुखे चानने चक्षुषा चक्षुरेवं, तथा कर्णके कर्णवृत्तिं निधाय । करोत्याहितः किञ्चिदात्मानुकूलामनिष्टप्रदां सर्वनाशाय वार्ताम् ॥ ३५॥ निन्दा यस्य मुखेऽस्ति तापसजनाः सत्कर्मतो धर्मतो, अश्यत्यत्र च तस्य नश्यति तपो ज्ञानं पुनः संयमः । तस्मातां परिहृत्य सयमपरैश्चित्तं समाजे मुहुः । संस्थाप्योत्तमकर्मसेवनपरैजैने मते दीयताम् ॥ ३६॥ यदैकस्मिन् स्थाने निवसति मुनिस्तत्र न परान् । समाजस्थान् साधून् न हि हितकरानाहितधियः ॥ निवासार्हान् रागान्निजनिकटतो दूरयति च । तथा वार्तालापं तैः सह हृदा नैव कुरुते ॥ ३७॥ समानीतं तैश्च मधुरजलमन्नं न मनुते । न वाऽऽतिथ्यं तेषां न च किमपि सत्कारकरणम् ॥ परं चैवं ज्ञात्वा परमतरताञ्छून्यहृदयः। अहं वै पश्यामि नतमपि च तेषां मतिहरन् ॥ ३८॥ यथा श्वाऽन्यवानं परमनिजकोपेन निकटं ।
Page #426
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०० .. वीरस्तुतिः। - - - ममायं भक्ष्यांशं किमपि न हि चातुं प्रभवतु ॥ विचार्येत्थं शब्दैविक कलमनसा दूरयति च । मुनीनां संघेऽयं मवति कलहो द्वेषमनसा ॥ ३९ ॥ प्रसन्नोऽयं दृष्ट्वा नहि. भवति कश्चिन्मुनिवरस्तथाऽन्योन्यं द्वेष विषममतिनोत्पाद्य कुरुते ॥ पशव्येयं नीतिन हि न हि न जाने कथमगात् ।। इतः श्रेष्ठश्छागः कपिरपि कपोताश्च सुधियः ॥ ४० ॥ मिलित्वेमेऽन्योन्यं समयमनसा रक्षणमहो। सदा कुर्वन्त्यन्ये विषयसुखमोगेऽपि नितराम् ॥ सहाया जायन्ते इति मनसि निश्चित्य भवतो, (परं द्वेषा युक्ताः सुखदगुणवन्तो मुनिजनाः), विलुम्पन्त्या शक्त्या विषयगुणमोगैकनिपुणाः ॥४१॥ [अथ शान्तिकराष्टकम्] न वा साधुवृत्तिन वा कोपशान्तिन वा संयमादौ प्रवृत्तिर्मुनीनाम् । न हि ज्ञानसिद्धिर्न विज्ञानवृद्धिः, कथं जैनसंघे निवृत्तिर्जनानाम् ॥४२॥ गता संघभक्तिर्गतश्चित्तरोधो, गतं चात्मतत्वं गतं शुक्लध्यानम् । इदानींतनानां मुनीनां प्रवृत्तिः, सुखे शायके चाशने शिष्यवर्गे ॥४३॥ गताऽऽध्यात्मविद्या गताऽऽनन्दवृत्तिर्गता भावभक्तिर्गता संघचिंता । गता भिक्षुसेवा गता धर्मवृद्धिर्गता शान्तचा निवृत्तिः शुभा न॥४४॥ गतं ज्ञानगम्यं परं धैर्य्यरूपं, यतो नस्ततोऽतो भवेद्धमहानिः । कथं स्याद्भवाम्भोधिपारं मुनीशा, विना सक्रियां चिन्तयध्वं मनस्तः ॥४५॥ सदा शिष्यलोभाश्रये नः प्रवृत्तिर्न वा चिन्तनं कोविदानां च सङ्गे । अनेकान्तसिद्धान्तखाध्यायहीना, मनोरोधने नो गतिर्वा कथं स्यात् ॥४६॥ गता जैनसंघाया साधुभावाद्गतो न्यायसिद्धान्तजन्यो विचारः। सुसम्यक्त्वमानन्दकन्दालयं नो, घृतं नैव चित्ते कदाचिन्मुनीन्द्रैः ॥ ४७ ॥ अखाध्यायतोऽज्ञानवृद्धिप्रसङ्गाद्त , ध्येयरूपं सुसम्यक्त्वतत्वम् । सदा चिन्त्यते केन भव्यं भवेर्नस्तथा सेवनीयं सदा संघ
Page #427
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ४०१ साम्यम् ॥ ४८॥ न वापरण्यवासो न वा त्यागशक्तिर्न वा चावनं धर्मतत्वस्य शश्वत् ।' वेरीवर्ति चिन्तोदरार्थ सदैव, अतोऽहं तपाम्यात्तभावं यतीशाः ॥४९॥ भजन्त्वाहिता देवदेवं जिनेशं, यतो जायते दुःखमूलस्य मंगः । तथा संवृतौ प्रेमभावो निवृत्तिर्भवांभोधितो ज्ञायतां साधुवृन्दैः ॥ ५० ॥ गता मोक्षप्राप्तिर्गता लब्धिशक्तिर्गता रे गता रे जिनेशस्य भक्तिः । मुनीनामिदानींतनानां प्रवृत्तिः, सुखे शायके चाशने शिष्यलोमे ॥ ५१ ॥ गतं वस्तपो योगर्यापि नास्ति, गतो ध्यानखाध्याययोगोऽपि दूरम् । गतः सूत्रपाठो गतं न्यायसूत्रं, न स्याद्वादवादे रुचिर्वा कदाचित् ॥ ५२ ॥ गतोऽध्यात्मवादोऽल्पितो जैनसंघो, गतं रे! गत रे ! गतं प्राकृतत्वम् । इदानींतनानां मुनीनां प्रवृत्तिः, सुखे शायके चाशने शिष्यलोमे ॥ ५३ ॥ [अथापायनिवृत्तेरुपाय:] रे चित्त! चिन्तय जिनाम्बुजपादरेणुं, पारं गमिष्यसि सुखेन यतो भवाब्धेः । शिष्यादयोऽन्यजनता न हि ते संहायाः, सर्व विलोकय मुने? मृगतृष्णिकामम् ॥ ५४॥ संसारसागरमगाधमगम्यपारं, श्रीमजिनेन्द्रचरणाम्बुजश्रद्धया वा। उल्लद्धयिष्यति सुखेन च ते प्रयासस्तस्मात्कुरुष्व मुनिभक्तिमघौघहीम् ॥ ५५ ॥ सुखे दुःखे किञ्चिन्न भवति समाजान्तरमुनेः, सहायो रागान्धो निजहठधरो द्वेषनिरतः । तथा विद्याभ्यासं प्रतिपदवमन् द्वेषमनिशं, घृणां तल्लोके निजमतिविरोधेनः तनुते ।। ५६ ॥ जना उच्चैहासं विदधति घृणापात्रमिति वो, न वा संघप्रीतिर्न च सहनिवासं प्रंकुरुते । अतो मोहस्पर्द्धनिखिलमतके नैव भवतां, सुजातं बन्धत्वं दृढतरसुरज्या मुनिवराः ॥ ५७ ॥ यदा वृद्धिर्मोहावृतिरपि कथं शान्तिरधुना, न वा जातोशा नः पुनरपि सहावासकरणे ) निवृत्ते
वीर. २६
Page #428
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०१ - - - - वीरस्तुतिः। मोहस्य कथमखिललोकानुसरणे, विचार्यैवं सन्तः कुरुत मुनयो मोहशमनम् ॥ ५८ ॥ कुरीतीनां नाशो भवति हि च रूढेरपि तथा, सहावासः पश्चादनुभवजविज्ञानममवेत् । तदा प्रेम्णाऽऽमोदैः सह दमशमादेः सुकरणं, जनाधारे जैने निवसति सदा चित्तमचलम् ॥५९|| स साम्योत्कर्षे वा भवतिः सहवासस्य जनक, परं च ज्ञानस्योत्कटकमपि तस्यास्ति फलदम् । यदाऽभ्यासासक्तं , मुनिमपि वदन्त्याहितजनाः, समं केन स्पर्धा निगमसकलाऽध्यात्मविदुषा ॥ ६० ॥ सुविद्यावृध्यर्थ यदि मनसि चिन्ताऽप्युदयते । तदा स्पर्द्धावृद्धिनिखिलमुनिसधे विलसति । तदा विद्यालामो भवति मुनिवृन्दैरधिगता । भवे विख्यातिः स्यान्निजनिजमताचारवशतः ॥ ६१ ॥. विना ' स्पर्द्धा नापि प्रसरति समुत्साहविषयः । सहावासे चैवं न लगति मनश्चंचलतया । विनान्तः खाध्याये न वसति घियो वृत्तिरचला । ततो विद्यालाभो भवति विदुषांमोदसहितः ।। ६२ ॥ सहाध्यायिनं वा सहावासिनं वा, विनाधीतविद्याविनोदप्रचारः। सहाचारिणं चान्तरा नो विचारी, ततो नो भवेच्छास्त्रतत्वावबोधः ॥ ६३ ॥ तथा नावलोको भवेच्छास्त्रचर्या, विना तत्कृते नैव पुष्टिं प्रयाति । न काठिन्यकंस्थायिभावं तथैव, चिरं चित्तमित्तौ मुहुश्चिन्तयध्वम् ॥ ६४ ॥ तथाऽध्ययनतोऽध्यापनाद्वा विचारात्समुत्पद्यतेऽपूर्वशक्तिप्रवाहः । यदैकत्रवासो मिलित्वाऽखिलानां, तदा यंत्र येषां प्रवेशोऽधिकोऽस्ति ॥ ६५ ॥ प्रवीणोऽथवा वै विशेषाधिकारी, सहाचारिणे वा सहाध्यायिने च । सहावासिने वा प्रवीणं करोति, भवेत्तस्य सौख्यं नितान्तं मुनीनाम् ॥ ६६ ॥ स्वकीयेन तुल्यं च योग्यं विधाय, समाजे समुत्तेजनां वै करोति । अतो भेदभावं . परित्यज्य शक्ति, खकीयां तथा . योग्यतां सन्तनोतु ॥ ६७ ॥
Page #429
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
१०३
चरित्रं सुविद्यां परस्मै ददातु, सुवक्तृत्वबोधोऽस्ति केषां विशेषः। तदा तत्कला चापि देया परस्माययं नो विचारो हृदा धारणीयः॥६॥ खविद्या मया दीयते चेत्परस्मै, तदा तस्य लोके प्रतिष्ठाऽधिका स्यात् । तथा योग्यता वृद्धिरेवं प्रयाति, विचारं च नैवं कदाचित्करोतु ।। (पठित्वा च विद्या प्रदानेऽधिका स्यात् ) ॥ ६९॥ तदा ज्ञानवृद्धिश्चरित्रप्रवृत्तिर्गरिष्ठो जनेऽथो भवेस्त्वं विचार्य । परस्मै कुरुष्वार्पणं खं गुणानां, समाजे प्रवृत्तिर्विधेया सुखेन ॥ . (तथाऽनन्यभावेन प्रीति विधाय) ॥ ७० ॥ यथा यश्च यस्मै विधत्ते च भावं, तथैवेतरोऽपि करोत्यात्मभावम् । धिया प्रेमभावो विचाव कार्यो, यतोऽन्योन्यसंमेलन स्यात्सुसौम्यम् ।। ७१ ॥ न याचे गुरोः पादसेवातिरिक्तं, विरक्ति तु वाऽऽध्यात्मविद्याप्रशक्तिम् । परं प्रेमतः साधुभावं प्रयाचे, समाजोन्नतिर्येन मे तद्विधेहि ।। ७२ ॥ त्रिधा तापतप्तोऽहमस्मिन् भवाब्धी, कथं मे निवृत्तिर्भवेद्दुःखराशेः । अतो मेऽमिलाषामिमां पूरयख, गुरो ? खां दयां मे विधायाथ भावात् ॥ ७३ ॥ जीवत्राणकरी निधाय विशदामास्येऽनिशं पट्टिकां, काये चोल्लपटं विलंचितशिखः कक्षे सितां मार्जनीम् । विद्याशून्यमुखारविन्दहृदयः श्राद्धादिकैर्गीयते, लोकान् शिक्षयितुं सुवेशरचना यस्यास्ति तस्मै नमः ॥ ७४ ॥ उपर्युक्तमर्थ हृदा धारयित्वा, सुविद्याविनोदे मनो धारणीयम् । न हास्यं भवेत्ते सभायां मुनीश! ह्यतो विद्यया सर्वमान्यो भवेस्त्वम् ।। ७५ ॥ परं भावुकत्वं च सद्धत्तिरेवं, सदाचारता चोच्चता भावनायाः । तथैवोन्नतत्वं चरित्रस्य मावि, जनाः प्रेमदृष्ट्या प्रतिष्ठां प्रकुर्युः ॥ ७६ ॥ प्रतिष्ठाऽपि संसारमध्येऽधिका स्यात्समाजेऽपि विद्वान् भवेच्चोपदेष्टा । तथा वक्तृतादायको ग्रन्थकारः, सुजाते महावीरदेवस्य शिक्षाविभागेऽधिका चोन्नतेर्वर्घिका
Pramo
Page #430
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०४ - वीरस्तुतिः। .. स्यात् ।। ७७ ॥ भवेत्काचिदित्थं जने योग्यता च, तथा शक्तिंभावोऽस्ति यसिन् विशेषः । प्रदेयस्तदान्ये नरे भक्तितश्च, सुविज्ञानवृद्धिस्तथा शक्तिवृद्धिः ॥ ७८॥ खशक्तेस्तथा योग्यतायां च विद्योपयोगस्य वृद्धौ च संयुक्तवीर्ये । ध्रुवं योजनीयं ध्रुवं योजनीयं, स्वचित्तस्य शंकां निरादृत्य लोके ॥ ७९ ॥अथ परोपकृतिः] शिक्षाः प्रेमधराः पवित्रहृदया भिक्षार्थिनो ध्यानतो, ज्ञायन्तां प्रतिजीवकार्यसमये लक्ष्यात्मविन्दुं मुहुः । मत्वानन्तपरोपकारकरणे शूरा भवन्त्वा: हिता, लक्ष्यं नैव कदापि विस्मृतिपथं कर्तव्यमेवं विदुः ॥ ८० ॥ धर्मे नोन्नतिकार्यगौरववशान्नान्यत्ररोधे करः, येन स्यादुपकारकेऽनुदिवसं लोकोपकारी भवेत् । न स्थानं च क्वचित्प्रदेयमधुना भेदस्य भावस्य च, सामाजे वितरन्तु कार्यपरंतां ध्यात्वा हृदा भिक्षुकाः ॥८१ साहाय्यं च भवेजनान्तरमुदेऽन्योन्यं विचारेण च, शक्तौ स्यादृढताबलं विवरणादेकं विचारस्य वा। तन्माहात्म्यवलं भविष्यति पुनः स्यादुन्नतत्वेन हि, संयुक्तस्य बलस्य वर्द्धनमथो स्यान्नोऽप्यनायासतः ॥ ८२,॥ एकस्यान्यसहायकोऽनुदिवसं भूत्वा सहायं कुरु, खान्ते वासकराय , देंयमखिलं नो वा विचारो मुने! विद्यैवं च समाजके प्रसरति लोकोपकारस्ततो, ज्ञात्वा सर्वमिदं विचारनिरताः श्रेयस्करा बुध्यताम् ॥ ८३ ॥ अथाऽऽधुनिका सम्यक्त्वादानरूढिः] अद्यानद्यभवे च भिक्षुकवरेष्वाधीनजैनेषु च, सम्यक्त्वं प्रविधाय योगमिषतः शिष्यं खकीयं तथा । भक्तं पक्षधरं विनेतुमसतां रूढिविचित्रा मता। मीत्या सार्द्धमियं प्रवृद्धिरतुला वात्या स्वरूपेण च ॥ ८४ ॥ सूकम्पोऽयमितीव शेषविषयाज्ञयो मुनीन्द्ररतो । वृक्षाणामिव सहतेश्च' नितरों ,स्यायेन, नांशो मुहुः ।। , सम्यक्त्वस्य तथान्धसंघविलसच्छू
Page #431
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिवा ४०५ द्धाऽपि नोत्पद्यते । अन्यत्रापि न भक्तिभावसंहितप्रेमोपकारादिकम् ॥ ८५॥ गुप्तिभावसहानुभूतिरपि च जंजन्यते नो मुनौ, तस्यैव ग्रहणे सदा हि निरतो भक्तोऽपि दासोऽपि च । सम्यक्त्वस्य विता. ननोत्तरमदः सञ्जायते. वा, ततः, सम्यक्त्वाच्च तथास्तिकत्वमपिच माध्यस्थ्यकत्वं पुनः ॥ ८६॥ वैषम्यं च भवेद्यतोनुदिवसं, दूरं तथा निष्ठता, सत्वस्याऽप्यनुवर्तनं सरलता चायाति सौजन्यता । आत्मीयत्वमथो गुणग्रहणता सत्यं सुसेवा परा। (ज्ञातव्यं सफलं मदीयसुमते! सम्यक्त्वकस्याधुना,) दृश्यन्ते प्रतिकूलता गुणगणा ज्ञातव्यमेवं बुधैः ॥ ८७ ॥ आत्मज्ञानेपरायणाः सुजनतासक्ता जिनोपासकाः, कामक्रोधविवर्जिताश्च शमतो रागादिशून्याशयाः । सज्ज्ञानाभिनिविष्टधर्मरसिकाः , सद्दानशीलानुगास्त्यांश्च परोपकारनिरता जैना भवन्त्वीदृशाः ॥ १८॥ कालेऽस्मिन्नहि दर्शनस्य विषयः कण्ठी यथा स्याद्वरोरातको विषमत्वकस्य सुतरामाच्छादयत्याशु नः । भूकम्पोऽपि च 'पक्षपातविषये चायात्यनायासतो, रागद्वेषसमाजवृद्धिरंतुली निन्दा तथान्यस्य च ॥ ८९ ॥ वीजारोपणकारकस्खमनसा सद्दर्शने वागुरुमेक्त वस्य च सेवकं पुनरहो कृत्वा वदत्यादरात् ॥ पश्येतो वचनें मदीयरचने ध्यानं कुरुष्वाहितः, शिष्यस्त्वं मम साधकोऽसि चा गुरुरयावधि ज्ञायताम् ॥ ९० . मत्तोऽन्य न . हि मन्यतां गुरुवरं साधुर्वरो ज्ञायती, सन्त्यन्ये यतिपार्श्वगाश्च भवता संन्हश्यतां ध्यानतः । नान्यस्मिन्नमने शिरस्तव मया त्यक्तं सदीयानुगे, मत्पादाम्बुजवन्दनं प्रतिदिन, भक्त्यां कुरु प्रेमतः ॥ ९१ व्याख्या निहिीं चेतरस्स मुखतः सश्रूयतां वा कचित्वक्षेत्रे नाच दीयतानिवसेनं तेभ्यश्च नो स्थायिताम्। चातुर्मास्यव्रतं न तैरपि सह कर्तव्यमेवं धिया । पानीयं न च भोजन
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०६ " वीरस्तुतिः। ' : पुनरथो तेभ्यश्च देयं क्वचित् ॥ ९२ ॥ नेदं सर्वमपस्मृतिं कुरु न चेत्स्वर्गेऽपि न स्याद्गतिर्धम मोक्षपथं च नाकमथवा' खस्यैव पाणौ स्थितम्। जानन्त्येवमहं शुभोऽस्मि निखिलादन्येऽवराः सन्ति च, श्रद्धेयं परिज्ञायतामविरतं स्यादन्धकारावृताः ॥ ९३ ॥ अस्त्यन्योऽपि महानु- . भावविषयः सन्धार्य्यतां चित्ततः, सम्यग्दृष्टप्रदत्तमन्यमुनिभिस्त्यक्त्वा च तत्वं पुनः । सम्यक्त्वं च प्रदाय नैव कुरुते सर्वोत्पथं मानतः, केचि
खस्य समीपके च रहसि संलेखयित्वा मुदा ।। ९४ ॥ संस्थाप्योत्तमग्राहकेण सदृशो नामाङ्कितं पुस्तकं । तीर्थस्थाश्च स्वकीयपत्र निचये संलिख्यते नाम च ॥ यात्रार्थ च जनाः प्रयान्ति नितरां तेषां यथा यत्ततस्तद्वज्जैनमतावलम्बनपराः कुर्वन्ति कुत्सान्विताः ॥९५॥ कठोरात्मिकायाश्च निन्दास्पदायाः, प्रवृत्तेश्च सञ्जायते कुग्रहत्त्वम् । ममत्वान्धकारेण संछादन स्यात्तथा रागद्वेषादिकस्थानमेतत् ॥ ९६ ॥ सम्यक्त्वसंयुक्तबले च सम्यड् मन्दत्वमायातमितो विचिन्त्यम् । मदीयसम्यक्त्वबलस्य मूलं, संछिद्यते कुत्सितया च रीत्या ॥ ९७ ॥ अतोऽस्य रोगस्य चिकित्सकत्वं, कर्तव्यमेवं कुप्रथाप्रणाशः। तदैकदेशस्य मलं विधाय, धर्म भयङ्कारि च राजयक्ष्मा ॥ ९८ ॥ रोगो यथोत्पन्नतया करोति, विकारतामात्मतृतीयकेऽन्तः । महाननर्थो भवतीति ज्ञेयं, गृहस्थरागात्मकदृष्टिभावः ॥ ९९ ॥ विधाय दोष परितः करोति, तथाऽनिशं पुत्तलिकेव, दृष्ट्या । सन्नर्तयन्त्यत्र 'विवर्द्धन च, वैषम्यभावस्य निशम्य योगिनूं ! ॥ १०० ॥ खकीय॒जालस्य महाधिकारं, सन्त्रोटयच्चैव स्वयं च सम्यक् । त्वदीयजालेन विशन्ति लोकाः, कुतश्च लोके प्रविवेकबुद्ध्या ॥ १०१. ॥ जानन्ति सर्वे 'च, वरावर, वा, विचारसारस्य करोति-भावम् । धावन्ति ते चान्धपरम्परातो, दूरं, पर क्रोशमितं
Page #433
--------------------------------------------------------------------------
________________
गज
-
chir
-
-
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ४०५ वरिष्ठाः ॥ १०२ ॥ कृते चाभिमाने तपस्याविनाशः, समाजोन्नती जायते विघ्नसंघः । अतश्चाभिमानं न वै धारणीयं, न वै धारणीयं न वै धारणीयम् ॥ १०३ ॥ महापक्षपाताभिमानामिभूताश्चरन्त्यात्मनः कुप्रथां लोकगीम् । समुत्पद्यते योगिनी मोहमाया, ततो बध्यते तत्कृते भोगजाले ॥ १०४ ॥ मुनिजनहृदि भानुर्ज्ञानरूपी यदैति । सकलदुरितनाशो जायते चाप्रयासात् ॥ विकसति यदि पमं ज्ञान चारित्ररूपं । भवंति मनसि शान्तिोगसिद्धिस्ततः स्यात् ॥ १०५॥ गृहस्था न चास्मिन्महामोहजाले, निबद्धं त्वदीये समर्था भवन्ति । महावीरसंघे मिलित्वा च सर्वे, भवेयुश्च श्रद्धालवो जैनश्राद्धाः॥१०६॥ सदा संघसम्बन्धमात्रेण सर्व, खकीयं विदित्वा कुरुष्वात्मरूपम् । [अथ शरीरसाहाय्यदानम् ] यदा रोगयुक्तो भवेत्कोऽपि साधुः, कचित्कश्चिदेवं च देशान्तरस्थः ॥ १०७॥ न चेच्चानुकूल्यं जलं वायुरेवं, न तेषां सुखाधायको देश एव । चिकित्सालयं नास्ति तद्देशमध्ये, न वा साधनं किश्चिदन्यं विदित्वा । तदा' तत्र देशे विहारे प्रवृत्तैर्मुदो साधुवय॑श्च ही दोलिकायाम् ॥ १०८ ॥ समारोप्य वा स्कन्धमारोपयित्वा, समानीयतामन्यदेशेऽनुकूले । यदा सम्प्रदायस्य भेदो हि छिन्नस्तदैवं भवेन्नान्यथा वै शुभ स्यात् ॥ १०९॥ केचित्वार्थपरायणाश्च मुनयः केचित्खकुक्षिभराः, सन्त्यन्ये श्रुतसञ्चयेऽपि निरताः केचित्वधर्मच्युताः ॥ विद्यारलसुवश्चिताल्पमतयो मूढाश्च केचिद्धवं, केचित्साधनसारशून्यहृदयास्ते वै कथं पारगाः ॥,११०॥ मुनिः सेवनाख्ये निमें धर्मवृद्धेर्मुहुश्वान्तरात्मातिपूतो विभाव्यः । सुशय्यंभवैः सूरिभिर्वर्णितं च, महत्वं भवे भव्यभावेन सिद्धः ॥ १११ ॥ ततस्तस्य सम्बन्धमावो महान् हि; यतस्तेन सेवाख्यधर्मप्रचारः। मनाङ् नाम
T
-
-
-
।
Page #434
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०८ ... वीरस्तुतिः। ..... : पुत्रो ह्यनेनैव शुद्धो, मुदा कारितः साधुसेवाप्रचारः ॥ ११२ः॥ इदं नावरुद्धं भवत्तो विचार्यो, यदा तस्य सत्यस्य नाम्नो मुनीशाः । गृहीतार एवं कदा ग्राहकत्वानिवृत्ता भवेयुश्च पंकेन तुल्यात् ॥ ११३ ॥ पुनः साधुसेवा सुकायेन कार्या, श्रुतेनाथ चित्तेन वाचा विमृश्य.! खकीयं परं चेति मेदं विहाय, ह्ययं रागद्वेषान्विते मेंदवादः ॥ (न वाऽ न्यत्र मेदोऽयमेवं विभाव्य, करोत्वञ्जसा साधुसेवा मतस्थः) ॥११॥ वसुधैव कुटुम्बकमित्युक्तिश्चरितार्थता । कर्तव्याखिलभावेन, भवद्भिर्धर्मसिन्धुभिः ॥ ११५ ॥ यद्रम्यं श्रवसो मिताक्षरयुतं पीयूषकल्पं वचः, श्रोतृणां हृदयान्धकारहरणं व्याख्यानमेतज्जगुः । व्याख्याता उभयागमादिजनितज्ञानेन्दुना भूषितो, ये शृण्वन्त्युपदेशमेकमनसा, श्रोतृन् विदुस्तान् नरान् ॥ ११६ ॥ व्याख्यानस्य सुगन्धमस्ति शिरसि मद्धिक्षुकाणां मुहुर्यावद्भुद्धिबलोदयं मुनिगणास्तावच्च व्याख्यानकम् । श्राद्धेभ्यश्च सुश्रावयन्ति मनसा महता प्रयत्नेन च । श्रोतारंपरिकथ्यतेऽनुदिवसं मेऽद्योपदेशं शृणु !: ।। ११७॥ . यः कश्चित्परदेशगोऽस्त्रि चतुरो विद्वान् समायां महान्, व्याख्यानं च कथा तदीयमुखता श्रीव्या कदाचिन्न हि.। श्रोतव्या व सदैव मेऽत्र मुखतः सन्धार्यतां प्रेमत, एवं ते कथयन्ति साधुनिपुणा ये दास्यभावं गताः ॥११८ ॥ देशान्तरागतः साधुः, सम्प्रदायेतरः पुनः । समाचारी प्रभिन्ना वा, मद्देशे च, समागतः ॥ ११९ ॥ मदने नो कथा। ऋतु, समर्थो न च भूयवाम् विना मदाज्ञया किंचिन्नोश्रावयितुमीश्वरः ।। १२० ॥ लघुत्वस्य विचारोऽयं, प्रदेशान्तरगो भवेत् । तदर्थं न हि स्यादेवं, प्रतिष्ठा नैव चाश्रयः ।। १२१ ॥ श्रावकाणां च सौभाग्य, यद्यागन्तुकसाधवः । प्रवासिनः समायांन्ति, तेषां व्याख्यानमुत्तमम् ॥१२२ ।। श्रोतव्यमध
Page #435
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ४०९ कर्तव्यमिति निश्चीयते यदा। साम्प्रदायिकधर्मस्य, मोक्षस्य शुल्कदायकाः ॥ १२३ ॥ कलहं कुर्वतेऽन्योन्यं, मक्षेत्रे स्थानके, तथा।। मदाम्नाये तथा लोके, देशान्तरागतो मुनिः ॥ १.२४ ॥ व्याख्यानं न हि कर्तु, च, समर्थो जायते कचित् । ममापमानं भवति, प्रतिष्ठाहानिरेव च ॥ १२५ ॥ यो वीतरागोऽस्ति मुनिर्विवेकी, खसाधनासक्तधियोऽपि रागात् । सोऽप्यन्यव्याख्यानवरातिदुःखं, प्रामोति तापं च महद्धि कष्टम् ॥ १२६ ॥ तथोदरं ताडयतीति दुःखाद्धा! शब्दमत्रापि करोति नूनम् । न वा तपखी न च संयमी बै, न वास्ति जैनाश्रितधर्मरूढः ॥ १२७ ॥ धिगस्तु नः कुत्र गतः स कालः, श्रीगौ; तमः केशिमुनिश्च यत्र । परस्परं प्रेमसरित्प्रवाहो, वाह्यो महाधर्मरतकतश्च ॥ १२८॥ क,चाद्यकालीनगतः स साधुर्यश्वोपदेशे हि. करोति । तापम् । श्रुत्वाऽन्यसाधोश्च न भाति चित्ते, श्रोताद्य कुर्य्याच महत्वपापे ॥ १२९ ।। श्रुतं त्वया चाय मतान्तरस्थसाधोमुखाद्धर्मविरुद्धचाक्यम् । व्याख्यानरूपं. च करोति शान्ति, नि ते भवेच्छेय इति अधार्य ॥ १३० ॥ श्रद्धानकं नष्टमिति प्रधाऱ्या, तथास्तिकत्वं च गतं भवेत्ते । अतो न साध्वन्तरतों सुधीश ? न श्राव्यमेवं च वदन्तिा सन्तः ॥ १३१ ॥ हे भिक्षुकाश्चेदृशरोगयोगान्नष्टा भवन्तश्च मृतः समाजः। तद्वेषरागाच. महत्त्वहानिमुत्थापयन्तीति विचारणीयम् ॥ १३२ .॥ एवं ने कर्तव्यमथो दयां च, समाजेसंघे कुरुत प्रयत्नात् । प्रेमामिलापेऽभिरतश्च लोको, भवेच्च प्रेम्णा समतोपनद्धः ॥ १३३ ॥ सदैक्यभावे न बुंभूषुरेवं, यनं स्थितास्तत्र विदेशगानाम् । आगन्तुकाता जे मुनीश्वराणां, देयं भवद्भिश्च निवासयोग्यम् ॥ १३४ ॥ सुस्थानक खीयसहाधिवासी, स्यायेन भावेन कुरुध्वमेवम् । एकासने चाप्युपविश्य
Page #436
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१० .. .:. , वीरस्तुतिः।। ' .', मुज्ञाः, शृपवन्तु व्याख्यानमनन्यभावात् ॥ १.३५ ॥ पश्चाद्भवन्तोऽपि सुशासनं वरं, तन्वन्तु यत्नाच तथोपदेशम् । कुर्वन्तु वृद्धिं च प्रशासनस्य, सुस्वागतं चापि तथैव सुज्ञाः ॥ १३६ ॥ साध्यं यत्तममेकमेव मुनयः सर्वे मिलित्वा हृदा। खाचार्य परिकल्पयन्तु सुधियं विद्याच. रित्रात्मकम् ॥ येन स्याच्च, समाजकोन्नतिदशा शिक्षाविभागस्य च । । नो चेद्धर्मविपर्ययस्य समयो जातोऽवधार्य बुधैः ॥ १३६ ॥ संस्थाप्या किल भारतस्य जनता पोते च संघात्मके । सिद्धाख्यं नगरं ख़ुदारचरिता संस्थापयन्त्वाहिताः ॥ एतावत्करणेन याति भवतां पार'त्रिकं चैहिकं । सर्व कार्यमदभ्रमेव विषयासक्तं मनोहीयताम् ॥१३७॥
खादर्श च जगद्भवन्तमधुना जानातु चात्मा पुनर्लोके नाम भवेद्यतोऽ• नुविततं ह्यात्मानुसन्धानतः ॥ एवं धर्मपरायणो यदि भवेस्ते स्याच
कीर्तिः परा । तस्मात्संघविवर्धनाय भवतां स्याच्चेत्प्रवृत्तिश्शुभा ॥१३८॥ [अथ क्षमाऽभ्यर्थना] भवान् वीरपुत्रोऽस्ति · शान्तात्ममूर्तिरहिंसा तपस्यान्वितः सत्यग्राही । तथा चात्मनोऽत्यन्तसूद्धारकोऽस्ति, पुनर्वीतरागानुकारं करोति ॥ १३९॥ नयनेन्दुसंख्योत्तरके शतस्य, दिनाघधित्वं कुरुते तपस्याम् । अतस्तपत्रिप्रवरोऽस्ति लोके, चोपाधिधार्यस्ति विचारणीयम् ॥ १४० ॥ त्वत्पृष्ठतो विश्वमिदं च लग्नमहं च खल्पज्ञमतिर्न मेऽस्ति । खात्मानुभावोऽपि न साक्षरोहं, व्याख्यानदानेऽपि न मेऽस्ति शक्तिः ॥ १४१ ॥ प्रसिद्धवक्तापि न चास्मि विद्वान्, किन्त्वल्पबुद्धिस्तव , बालकोऽहम् । सद्भावतस्ते ; विदधामि सेवां, तथाऽस्मि संयुक्तबलाभिलाषी ॥ १४२ ॥ रागादिकं वै चिकीर्षामि मन्दं, मत्तो यदि च्छद्मतयाऽपमानम् । जातं तंदा, विस्मृतिरापराधस्तथा हि शुद्धान्तरभावनातः ॥ १४३॥ क्षम्रा विधेयातिकृपा.
Page #437
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ४११ नुरागात् , समाप्तिमेतस्य हि संकरोमि । परन्तु प्रष्टुं यतते मदीया, बुद्धिः प्रसन्नोऽसि च पृच्छयते मया ॥ १४४ ॥ मदीयवार्ता कटुकास्ति किन्तु, लग्ना भवेन्नात्र विचारणीयम् । यदा मदीया कटुकाऽस्ति
वाणी, ज्ञातव्यमेवं च मदीयरोगाः ॥ १४५ ॥ शाम्यन्ति कटौषधि। सेवनेन, शीघ्रं भवेद्रोगनिवृत्तिरेवम् । मुक्त्वा च कटौषधमुग्रतेजो,
रोगी ध्रुवं पावयतेऽतिशीघ्रम् ॥१४६॥ तद्रोगशान्तिर्भवतीति ज्ञात्वा, मदीयवार्तामपि संसहख । खकीयभावान्न हि रोद्धमस्ति, शक्तिर्मदीयेति विमावनीयम् ॥ १४७॥ महानुभावोऽस्ति च दुर्वलोऽस्मि, तथाऽसमर्थोऽहमिति प्रधार्य । क्षमा विधेया च महात्मनस्तु, भवन्ति क्षान्तेश्च सुभाजनानि ॥ १४८ ॥ गुरुर्मदीयोऽस्ति फकीरचन्द्रो, ज्ञानं मया लब्धामिदं यतश्च । बोधं च लब्ध्वा सुक्रियां करोमि, ततोऽमरत्वं च भवेत्स्फुटं मे ॥ १४९॥
इति ममाक्रन्दनकाव्यम् ।।
ज्ञातृपुत्र-महावीरका सिद्धान्त (१) जगत्में दो द्रव्य मुख्य [ substances ] हैं, एक जीव [soul ] दूसरा मजीव [non soul] | अजीवके पुद्गल [matter] धर्म [ medium of motion to soul and matter] जीव और पुद्गलके चलनेमें सहकारी। अधर्म medium of rest to soul and matter जीव और पुद्गलके ठहरनेमें सहकारी । काल Time वर्तना लक्षण, वान् और आकाश Space स्थान देनेवाला । इस प्रकार पांच भेद हैं।" .. (२) खभावकी अपेक्षा सवीव समान और शुद्ध हैं, परन्तु अनादिकालसे कर्मरूप पुद्गलोंके सम्वन्धसे वे अशुद्ध है, जिस प्रकार सोना खानसे मिट्टीमें मिला हुआ अशुद्ध निकलता है। ..
Page #438
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१० . . , वीरस्तुतिः। -- , सुज्ञाः, शृण्वन्तु, व्याख्यानमनन्यभावात् ॥ १३५॥ पश्चाद्भवन्तोऽपि सुशासनं वरं, तन्वन्तु यलाच तथोपदेशम् । कुर्वन्तु वृद्धिं च प्रशासनस्य, सुखागतं चापि तथैव सुज्ञाः ॥ १३६ ॥. साध्यं घुत्तममेकमेव मुनयः सर्वे मिलित्वा हृदा । खाचार्य परिकल्पयन्तुं सुधियं विद्याचरित्रात्मकम् ॥ येन स्याच समाजकोन्नतिदशा शिक्षाविभागस्य च। नो चेद्धर्मविपर्यायस्य समयो जातोऽवधायं बुधैः ॥ १३६ ॥ संस्थाप्या किल भारतस्य जनता पोते च संघात्मके । सिद्धाख्यं नगरं खुदारचरिता संस्थापयन्त्वाहिताः ॥ एतावत्करणेन याति भवतां पार'त्रिकं चैहिकं । सर्व कार्यमदभ्रमेव विषयासक्त मनोहीयताम् ॥१३७॥ खादर्श च जगद्भवन्तमधुना जानातु चात्मा पुनर्लोके नाम भवेद्यतोऽनुविततं ह्यात्मानुसन्धानतः ॥ एवं धर्मपरायणो यदि भवेस्ते स्याच कीर्तिः परा । तस्मात्संघविवर्धनाय भवतां स्याञ्चेत्प्रवृत्तिश्शुभा ॥१३८॥ [अथ क्षमाऽभ्यर्थना] भवान् वीरपुत्रोऽस्ति शान्तात्ममूर्तिरहिंसा तपस्यान्वितः सत्यग्राही । तथा चात्मनोऽत्यन्तसूद्धारकोऽस्ति, पुनर्वी. तरागानुकारं करोति ॥ १३९॥ नयनेन्दुसंख्योत्तरके शतस्य, दिनावधित्वं कुरुते तपस्याम् । अतस्तपत्रिप्रवरोऽस्ति लोके, चोपाधिधार्यस्ति विचारणीयम् ॥ १४० ॥ त्वत्पृष्ठतो, विश्वमिदं च लग्नमहं च खल्पज्ञमतिर्न मेऽस्ति । स्वात्मानुभावोऽपि न साक्षरोह, व्याख्यान-दानेऽपि न मेऽस्ति, शक्तिः ॥ १४१ ॥ प्रसिद्धवक्तापि न चास्मि विद्वान्, किन्त्वल्पबुद्धिस्तव बालकोऽहम् । सद्भावतस्ते विदधामि सेवां, तथाऽस्मि संयुक्तवलाभिलाषी ॥ १४२ ॥ रागादिकं वै;चिकीघोमि मन्दं, मत्तो यदि च्छातयाऽपमानम् । जातं तदा विस्मृतिरा: पराधस्तथा हि शुद्धान्तरभावनातः-॥१४३॥ क्षमा विधेयातिकृपा
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ४११ नुरागात् , समाप्तिमेतस्य हि संकरोमि । परन्तु प्रष्टुं यतते मदीया, बुद्धिः प्रसन्नोऽसि च पृच्छयते मया ॥ १४४ ॥ मदीयवार्ता कटुकास्ति किन्तु, लग्ना भवेन्नात्र विचारणीयम् । यदा मदीया कटुकाऽस्ति
वाणी, ज्ञातव्यमेवं च मदीयरोगाः ॥ १४५ ॥ शाम्यन्ति कटौषधि। सेवनेन, शीघ्रं भवेद्रोगनिवृत्तिरेवम् । भुक्त्वा च कटौषधमुग्रतेजो,
रोगी भुवं पावयतेऽतिशीघ्रम् ॥१४६॥ तद्रोगशान्तिर्भवतीति ज्ञात्वा, मदीयवार्तामपि संसहख । खकीयभावान्न हि रो मस्ति, शक्तिर्मदीयेति विभावनीयम् ॥ १४७ ॥ महानुभावोऽस्ति च दुर्बलोऽस्मि, तथाऽसमर्थोऽहमिति प्रधार्य । क्षमा विधेया च महात्मनस्तु, भवन्ति क्षान्तेश्च सुभाजनानि ॥ १४८ ॥ गुरुमंदीयोऽस्ति फकीरचन्द्रो, ज्ञान मया लव्धमिदं यतश्च । बोधं च लब्ध्वा सुक्रियां करोमि, ततोऽमरत्वं च भवेत्स्फुटं मे ॥ १४९॥
इति ममाक्रन्दनकाव्यम् ॥
ज्ञातृपुत्र-महावीरका सिद्धान्त (६) जगत्में दो द्रव्य मुख्य [ substances ] हैं, एक जीव Isoul ] दूसरा अजीव [ non soul] | अजीवके पुद्गल [ matter] धर्म [ medium of motion to soul and matter ] जीव और
पुद्गलके चलनेमें सहकारी । अधर्म medium of rest to soul and. Ematter जीव और पुद्गलके ठहरनेमें सहकारी। काल Time वर्तना लक्षण, वान और आकाश Space स्थान देनेवाला। इस प्रकार पांच भेद हैं। ; ". (२)सभावकी अपेक्षा सब जीव समान और शुद्ध है, परन्तु अनादिकाळसे कर्मरूप पुदलोंके सम्वन्धसे वे अशुद्ध हैं, जिस प्रकार सोना खानसे मिट्टीमें मिला हुआ अशुद्ध निकलता है। ----
Page #440
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१२ , वीरस्तुतिः .....,
" (३) उक्त फर्ममलके कारण इस जीवको नाना योनिओंमें अनेक सङ्कट भोगने पड़ते हैं और उसीके नष्ट हो जानेपर यह जीव अनन्तज्ञान-अनन्तदर्शन-अनन्तसुख और अनन्तशक्ति आदिको जो कि इसकी निजी सम्पत्ति है
और जिसे मुक्ति कहते हैं वह प्राप्त करता है। . . . . . ' . (४) निराकुलता. लक्षणयुक्त मोक्ष सुखकी प्राप्ति इस जीवके अपने निजी पुरुषार्थके अधिकार में है किसीके पास मांगनेसे नहीं मिलता। । (५) पदार्थोके खरूपका यह सत्य श्रद्धान [ Right belief ] सत्य, ज्ञान [ Right knowledge ] और सत्य , आचरण [ Right conduct] ही यथार्थमें मोक्षका साधन है।' ' । (६) वस्तुयें'- अनन्त धर्मात्मकहैं, 'स्याद्वाद ही उनके प्रत्येक धर्मका सत्यतासे प्रतिपादन करता है। , , . (७) सत्य आचरणमें निम्नलिखित बातें गर्भित हैं, यथा
[क] जीव-मात्र पर दया करना; - कभी किसीको शरीरसे कष्ट न देना, वचनसे बुरा ने कहना, और मेनसे बुरा न विचारता ।। . . . . ...
[ख] क्रोध-मान-माया-लोभ और मत्संरआदि कषायमावसे आत्माको मलिन न होने देना, उसे इनके प्रतिपक्षी गुणोंसे सदा पवित्र रखना ।
[ग] इन्द्रियों और मनको वश करना एवं वाह्य संसारमें लिप्त न होना।
[घ] उत्तम क्षमा-निर्लोभ-सरलता-मृदुलता-लाघव-शौच-संयम-तप-त्यागज्ञान ब्रह्मचर्यादि लक्षणात्मक धर्मको धारण करना ..' .' - च] झूठ-चोरी-कुशील आदि निन्द्य कार्योसे, ग्लानि करना ।।
। (८) यह संसार खयं सिद्ध अर्थात् अनादि अनन्त है, इसका कर्ता हर्ता कोई नहीं है। . . . . . . . . . . .. (९.) आत्मा [soulऔर परमात्मा [G6d] में केवल विमाव और खभावका विशेष है। जो 'आत्मा रागद्वेषरूप. विमाव को छोडकर निज खमावरूप हो जाता है उसे ही परमात्मा कहते हैं। ।.. ., . (१०) ऊंच-नीच-छूत अछूतका -विकार मनुष्यका निजका किया हुआ विकार है वैसे मनुष्यमात्रमें प्राकृतिक भेद कुछ भी नहीं है।
asia
it
Page #441
--------------------------------------------------------------------------
________________
'
शुद्धिपत्रम्
-
कृतेऽपि भूयसि सशोधनप्रयासे काश्चिदशुद्धयोऽवशिष्टा एवेति ताः कृपया अधोनिर्दिष्टसकतानुसार संशोध्यैव पठन्तु पाठयन्तु भन्यजनाः श्रावका मुनयश्चेति सविनयमभ्यर्थयतेऽयं लघुतम. पुष्पभिक्षुः ॥ पृष्ठाकार : पतयः अशुद्धम् ११ जैनतरमतावलम्बी जैनेतरमतावलम्बी
अनन्तशक्ति । २१ - १५ सम्यग्दर्शनका सम्यग्दर्शनकी मेल
मेल २३ भावन
भावना ५ निशंकसे
नि शंकसे नखर । नश्वर कार्माण
कार्मण वुद्धिष्शक्किने
बुद्धिशकिने १६ ) __ ११ कल्माषास्रवकारणम् कल्मषाखवकारणम् । • २२ । पुरुषेष्वयि -
पुरुषेष्वपि - ११ वहभी
वह भी ___२२ इनकि
इनकी १०१
कि १०३
इत्यभिधानप्यदीपिका इत्यभिधानप्पदीपिका
सवशदोंम" - सब शब्दोंमें ... २५, सेठे ५० तेन
तेने १०९ - १० । धुनीका मताः । धुनिकाः
तेओ
१०४
३
सवशदाम
सेठं
१०६
Page #442
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१४
वीरस्तुतिः। " पृष्ठाङ्काः पतयः
अशुद्धम् ,
शुद्धम् योद्धेषु - योद्धषु - महावीरखाभी महावीरखामी
नामभिद्रोहः . नामनभिद्रोहः ११८ २१ ऽमानितः ऽतिमानितः २३
दानस्यपधानत्वात् दानस्य प्रधानत्वात् - १९ नापराभूमलं नापराद्धमलं १२७ १७ एतेवगैः एतैवर्गः १३०
श्रीज्ञातनन्दम् श्रीज्ञातनन्दनम् रक्षाकी
रक्षा की
ه ه ه ه م و م و د و م ة
- १५
की
१४२
१४४
१२
१४५ १४६ १५६ १८७ १९३
प्रतिकार
प्रतीकार पनिमें
पन्नीमें भमि
भगिनी क्योंकी
क्योंकि इसपर कषाया
काषाया पूज्यनीय ! पूजनीय ! मार्दवताका मार्दवका वधादिकृदधैतदिति वधादिकृदधस्तदिति इवागंजा
गजा इव भावनी
भाव थी
-
२०० २०७ २२१ २२९
و م و م م م ه ه هدم قدم
- ।
-
बुवोध.
वोध
हीतो
हतो अर्थ तथाऽन्यं च .
२४०
तथाऽन्यस्य
Page #443
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
४१५
शुद्धम्
।
पृष्ठाकाः पतयः २४० २९२
२९४ २९६
अशुद्धम् हि ... धम्भ जिव! निजा नंक्ष्यत्ति समस्त्येन्द्रा अनाति
धर्म जीव ! निजां 'नक्ष्यति समस्त्येतद्वा ।
१९
२९९
२०
m
अनाति
००
दश्यते
दर्यते
-
२०
m m m mp2 .. ..
m .
चेतना , खसन् मस्तुते
चेतना श्वसन्
१८
मश्नुते
ऐसे
ऐसा . दीनाना
३२९
२५
श्चदं
20...
३३१ ३३६ ३४१
१९ २९ २८
दीनॉश्च चलते
चलति
व्वेदं शंकटान्
सकटान् तेतिति
तेनेति प्रयागमण्डल प्रयागमण्डले । निसेवनम्
निवेशनम् मादिनियमादि यमादिकाना वि. जनोप्यू
जनैरू न भवद्योगवित्तमम् न भवेद्योगवित्तमः तद्रक्षखाधुना गुरो! रक्षमामधुना गुरो! जगन्जलाम्भोधे जगज्जलाम्भोधेः पुष्पाजली पुष्पाञ्जलिः निरदार
बिरादर
३४८ ३५३
१४
२५
३७०
१९ । २१ ...
Page #444
--------------------------------------------------------------------------
________________
" , "वीरस्तुतिः ।
. . .'
2
पृष्ठाङ्काः पतयः अशुद्धम् । शुद्धम् : ३७२
आपना
अपना " २५
अन्यत्वता. अन्यत्व ३७३
एकत्वता, ,
एकत्व ३८१
तरुः ।, तरु., ३८४ ११ वोधात्मिकी वोधात्मिकां
कश्चित्प्रवन्धो कश्चित्प्रवन्धो ३९९
दीयतेऽद्य . दीयते यद् गच्छतः स्खलनं कापि, भवत्येव प्रमादतः। हसन्ति दुर्जनास्तत्र, समादधति सजनाः ॥
विवृतिकारः
'दानी पुरुषोंकी- नामावली १००) शे० जगजीवन महता, मु० झरिया, १०० शेठ मानकचन्द महावीरप्रसाद, सुपुत्र शेठ ज्वालाप्रसादजी राजा वहादुर कलकत्ता, १००) शे० शिवलाल पोपट संघवी, झरिया, २००) शे० मनोहरलाल जैन, कानपुर, २०) शे०-अमरचंद नाहर, कलकत्ता, २०) शे० सुजानमल पन्नालाल कलकत्ता, २०) शे० गोपीचंद हीरावत कलकत्ता, ११॥ शे० चादमल मूसल कलकत्ता, १३) शे० सुंदरलाल खारड कलकत्ता १४) शे० रतनलालजी वदलिया कलकत्ता, ७) शे० मागीलाल वोरडिया सरवाड.
' पुस्तके मिलनेका पता... मन्त्री ज्ञातपुत्र महावीर जैनसंघ, .
. मु०, पो०, पाटोदी, [स्टेट]
, जि० गुडगाँव (पंजाव) ।
Page #445
--------------------------------------------------------------------------
_