________________
२९६
वीरस्तुतिः। - कैसे गाफिल हो रहा, नेडा आत करार । निपजी खेती देय क्यों, चाटी सटे गवाँर ॥ ३९ ॥ प्रमत्तोऽसि कथं भ्रातरायात्याश्रुतमन्तिकम् । प्रतियच्छसि रोंट्यर्थ *कथं सजातशस्यकम् ॥ ३९ ॥ धर्मविहार कियो नहीं, कीन्हो विषय विहार । गांठ खाय रीते चले, आके जग हटवार ॥ ४० ॥ धर्माचारः कृतो नाऽत्र, विहारो विषये कृतः। लोकापणे समागत्य, मूलाशी रिक्तको गतः ॥ ४० ॥ काज करत पर घरनके, अपनो काज विगार। सीत निवारे जगत्का, अपनी झोपरी वार-॥४१॥ विनाश्य त्वं वकं काय, कुरुषे परकृत्यकम् । कुटी निजा तु सजवाल्य, लोकसीतं व्यपोहसि ॥ ४१ ॥ नहिं विचार तैने किया, करना था क्या काज । उदय होयगा कर्मफल, तव उपजेगी लाज ॥४२॥ आसीत्किं तव कर्त्तव्यं, कृता नाऽस्य विचारणा । कर्मविपाककाळे च, ब्रीडा यास्यसि वै सखे ! ॥ ४२ ॥ झूठी संसारीनकी, छूटेगी जव लाज । तव सुखिया तू होयगा, इनते अलगा भाज ॥४३॥ असत्संसारिभोगाना, यदा नंक्ष्यत्ति वै रुचिः। एतेभ्यस्तु पृथग्भूत्वा, तदा सौख्यमवाप्स्यसि ॥ ४३ ॥ अपनी पूंजी सौ करो, निश्चल कार विहार । वांध्या सोही भोगले, मत कर और उधार ॥४४॥ आत्मीयेनैव वित्तेन, कार्यमाचर निश्चलम् । बद्धमेव हि भुंक्षख, ऋणमन्यत्तु मा कुरु ॥ ४४ ॥ नया कर्म ऋण काढके, करसी कार विहार । देणा पडसी पारंका, किम होसी छुटकार ॥ ४५ ॥ कर्मण नूतनं कृत्वा, यदि कार्य विधास्यसि । ।
उद्धारस्तु कथं भावी, दातव्यं स्यात्परस्य यत् ॥ ४५ ॥ * करपट्टिकार्थमिति भाव.! | मूलद्रव्यं भुक्त्वा ।। , .