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संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
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छे, तेम आत्मा पण ख-खरूपना अजाणपणाथी पर जे पुद्गलादिक तेना भोगनी वाञ्छा करे छे। -
पण ज्यारे आत्मामां शूरापणुं अथवा वीरपणुं प्रगट याय छे, त्यारे कोनो क्षय थतां ते पोतानु खरूप जाणे छे, तेथी पर वस्तुपरथी तेने अभाव थाय छे, आत्मा पोतामा रमण करे छे, मन वचन अने कायना योगने स्थिर करी नवां कों बांधतो नथी, अने छेवटे अयोगी पण थाय छे । तेथी वीर्यपणुं प्राप्त थतां आत्मानुं कार्य थवानुं जाणी प्रभु पासे वीरपणुं माग्यु छे । ॥५॥
भगवान् पासे वीरपणु मागवानुं विचार करता भगवाने करेला उपदेशनुं स्मरण थयु । तेथी पोतेज खुशीथईने कहे छे के हे प्रभो ! मारी जे भूल छे, ते मने जणाई,अत्यारी सुधी में आपने विनंति करी के मने वीरपणुं आपो, पण मारी मागणी पहला आपे कहेलुं छे के तमाम आत्मा मारा जेवा छे, एटले जे वीरपणुं हुं आपनी पासे मागु छु, ते वीरपणु मारामाज छे, पण ते वातनी मने खवर न होती, परन्तु आपनी वाणी थी एटले आपना उपदेशथी मारी खात्री थइ छ के ते वीरपणुं मारामां छे।
त्यारे प्रश्न थाय छे के ज्यारे वीरपणुं तमारामा छे तो तमे केम न होता जाणता ? अने भगवाने कयुं छे के ते शिवाय वीरपणुं पोतानां आत्मामा छ । ते जाणवाने बीजं साधन छे के केम ? तेनो उत्तर कहे छे के ध्यान करवाथी वीरपणुं पोतामा उद्भव थाय छे, अने तेनो प्रत्यक्ष अनुभव थई शके छे तेमज गुरुपरम्पराथी विशेष ज्ञान प्राप्त थयुं होय तो तेथी पण अनुभव थई शके छे, ज्ञान अने ध्याननी जेम विशेषता थाय छे तेम आत्म अनुभवनी पण विशेषता जाणवी, मुमुक्षुओए ज्ञान अने ध्यानने गुरुगमथी जाणी आत्मअनुभव करवामां प्रवृत्ति करवी ए आ स्तवननु रहस्य छे एम हुँ धाएं छु।।
आत्मा पुद्गळना आधारथी पोतानुं कार्य करवानुं त्यागे, अने पुद्गलनुं आलम्वन जो छोसी दे तो अखड शुद्ध चैतन्यपणुं सम्यग्ज्ञान-दर्शन अने चरित्रवडे प्राप्त करे, अने अनादिकाळथी आत्मा जे पुद्गलना संगमां ऊंघलेतो पडेलो छे, ते जागीने पोतानुं खरूप प्राप्त करे छे, अथवा आनन्दघन कवि कहे छे के आत्मा पर-वस्तुनो संग छोडे, पोतार्नु अवलम्बन राखे, अने परानु. यायी पणुं तजे, तो रत्नत्रयीना आराधनथी मोक्ष पामे । -
___ . . . [आनन्दघन ] . वीर. १७