________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
२६५
ब्रह्मचर्यथी उत्तमबळ तो आवतुं, लोक महीं एम उत्तम वीर मनाय जो २३ सुरपदोमां सर्वार्थसिद्धि श्रेष्ठ छे, सुधर्म केरी सभा अनुपम थाय जो, सर्वधर्म तो श्रेष्ठ मुक्तिने मानता, जीव मात्रनो परम हेतु ते होय जो; सर्वार्थसिद्धिना सुखनी तो वातशी, सौधर्म केरी समा अनेरी होय जो, रतिमुक्तिनी वाणी तो नहिं कहीशके,प्रभुसमा उत्तमज्ञानी नवकोयजो२४ परिषहो तो धरे पृथ्वी सम नाथ ते, पृथ्वीवत् ते सौनो छे आधार जो, अष्ट कर्मने नष्ट कर्या ते खामी ए, कर्यो गृद्धीने अभिलाष संहार जो, पाम्या छे ते ज्ञान महा उपयोगर्नु, प्रयास विण ते जाणे वस्तु रूप जो, अनन्तभवने तरी गयाछे वीर ते, अनन्तचक्षु नित्य अभयस्वरूप जो २५ महारिपुजे आत्मदोष संसारना, क्रोध मानने मोह लोभ पर्याय जो, दूर करीने अर्हत् पदने पामीआ, करे करावे पाप नहीं ऋषिराय जो २६ विध विध पंथो लोक महीं चाली रह्या, क्रियावादीके अक्रियवादी कोय जो रमे कोई अज्ञानवाद के विनय मां सर्व पंथना ज्ञान वीरने होय जो; क्रियावादीनी मुक्ति क्रिया मां रही, अक्रियवादी समजे मुक्ति ज्ञान जो विनयवादितो विनय एज मुक्ति गणे, अज्ञानी तो मुक्ति गणे अज्ञान जो, सर्व पंथने समजीने आ खामीए, विकसाव्यो छे लोक महीं जैन धर्म जो, ज्ञानक्रियामा मोक्ष मानता वीर ते, लीघोसंयम समजाववा सहुमर्म जो २७ मोक्ष तणो मार्ग कह्यो आरीति थी, करी बताव्यो जगने देवा बोध जो, सकल पापने भस्म करीने खामीए, रोक्यो वहेतो कर्मरिपुनो धोध जो; मनुष्य केरा के नरकादिक लोकनां, वीरप्रभुए जाण्या पूर्ण स्वरूप जो, खरूपजाणी लोक अने परलोकनां सर्वलोकने छोट्या छे तद्रुप जो २८ धर्म परूप्यो अर्हते आ प्रेमथी, अर्थ पदोमां केवळ जे निर्दोष जो, सुणीतत्व आ श्रद्धाथी जन पामता,इन्द्र सुखके मोक्ष लक्ष्मी संतोष जो२९