________________
२६४
वीरस्तुतिः ।
4
वृक्ष महिं तो शाल्मलीने जाणवु, काननमां नहिं नन्दनवननी जोडजो शाल्मलीने नन्दनवनना आशरे, सुपर्ण सरखा देव करे प्रमोद जो शाल्मलीने नन्दनवन तो क्यां मळे, अद्वितीय स्थानो लोक महिं पंकायजो, शाल्मलीने नंदनजेवा जंबूजी, वीर बुद्धिने ज्ञान चरित अंकाय जो १८ शब्दमही तो मेघशब्द क्यांथी मळे ? मेघतणुं तो गंभीरंगर्जन होय जो, ग्रहोमहीं तो चंद्र सम छे ग्रह नहि, मनहर जेनी शीतळता प्रसराय जो; सुगन्धिओमां मळयजसम छे वासक्यां? लोकमहीं ए चंदन श्रेष्ठ गणायजो, मेघ चंद्रने मलयज जेवा जाणवा, मुनिवर्गमां वीरना विरक्त भाव जो १९ सिंधु महीं तो स्वयंभू रमण जाणवो, क्रीडा करता देवी ज्यां सहर्ष जो, भवनवासीमां भव्य नागकुमार छे, भव्यरूपथी मनपामे उत्कर्ष जो; सर्व रसोमां ईक्षुरसने जाणवो, मधुरताथी मनडुं शीतल थाय जो, ईक्षु स्वयंभू देवनाग सम वीरला, वीरप्रभुना प्रधान तप जप होय जो २० हस्ती महिं ऐरावत सम छे हस्ती नहिं, पशु महीं तो सिंहकेसरी एक जो, निर्मळ जळमां गंगाजळने जाणवुं, विहंगोमां गरुड एक निशंक जो; ऐरावत मनगमतीलक्ष्मी लावतो, लाव्या लक्ष्मी त्रिशला घर वीर जोध जो, गरुड - गंगा - ऐरावतने हस्ती सम, मोक्षवादीमां वीरना मुक्ति बोध जो २१ योद्धाओमां वासुदेव मशहुर छे, प्रिय पुष्पमां पंकज सम नव, कोय जो, क्षत्रीओमां चक्रवर्ती प्रधान छे, विरल गुणना विरलां स्थानो होय जो; वासु तणुं वळ अष्टापद वीशलाखनुं, पंकजने छे नवली मीठी वास जो वासु-कमळने चक्रवर्ती सम जाणवा, ऋषिवर्गमां वीर महर्षिखास जो २२ दान महीं तो अभयदानने जाणवुं, सत्य महीं तो 'निर्वद्य' निश्चित जो, सर्व तपो मां ब्रह्मचर्य विशिष्ट छे, आत्मवळनी जागे तेथी ज्योत जो, अभयदानथी दूर जती हिंसा सहु, निरवद्यथी परपीडा नवी थाय जो,
1