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संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३०१ किरतधनी बननो न हाँ, दइ गारि इण मोहि, अस आतम शीतल करौं, मम उधार तब होहि ॥ ७३ ॥ दत्ता मम गालिरेतेन, कृतघ्नो भवितास्मि नो । एवं कुर्या यदा शीतं खं तदोद्धारमाप्नुयाम् ॥ ७३ ॥ गाली एक ही होत है, वोलत होत अनेक । रेजिय! तू बोले नहीं, तो वही एक की एक ।। ७४ ।। गालिरेका प्रतीवादेऽनैका सैव विजायते । विचार्येवं तु मा ब्रूहि, सा स्यादेकैव चित्त! ह ॥ ७४ ॥ अनन्तकाल पहले प्रभु, देख रखे यह भाव । परिहै कटु वच श्रवणमें, ते किम टाल्यो जाव ।। ७५ ॥ प्रागेवानन्तकालाद्वै, जिनो भावं निरक्षत । कटूकिपतनं श्रोत्रे, शक्यं वारयितुं कथम् ॥ ७५ ।
इति द्वेषनिवारणाम्
अथ धैर्यधारणाम् अय दिल चाहे परमपद, उर धीरज गुण धार । निन्दा स्तुति रिपु प्रिय, एक हि दृष्टि निहार ॥ ७६ ॥ निर्बाणेच्छामनस्ते चेत्तदा धैर्घ्यं गुणं धर। निन्दास्तुति रिपुप्रीती, समदृष्ट्या विलोकय ॥ ७६ ॥ धीरज धर भ्रमको तजो, एह पुद्गलको ख्याल । पर परछांही पर रही, तू तो चेतन लाल ॥ ७७ ॥ धेयं धृत्वा त्यज भ्रान्तिमेतत्पुद्गलनाट्यकम् । चेतनोऽसि प्रिय ! त्वं तु, त्वयि विम्वं परं गतम् ॥ ७७ ॥ चञ्चलताको छोडिदे, धीरजकी कर हाट । कर विहार गुण माल को, ज्यू होवे बहु ठाट ॥ ७८॥ त्यक्त्वा स्थैर्य विधेहि त्वं, धैर्यहह सखे ! मम । आद्रियख गुणग्राम, येन सर्व सुख भवेत् ॥ ७८॥
* आत्मानम्।