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३०० ___ वीरस्तुतिः ।।
दुर्जन चुप हो है नहीं, तू तो छिन चुप साध । तृण विन परिहे अगनि कहुं, आपहि होय समाध ॥६६॥ न तूष्णीं दुर्जनः स्थाता, त्वं तु तूष्णीं भव क्षणम् । निस्तृणे पतितो वन्हिः खयमेवोपशाम्यति ॥६६॥ तू तृण सम कटु वचन सुन, क्रोध अगन मत दाझ । उपल नीर सम करहु मन, तव मिलिहै शिवराज ॥६७॥ श्रुत्वा तृणनिभा कूक्तिं, क्रुदग्निं मा प्रदीपय । कुरु नीरसमं खान्तं, मुक्तिराज्यं तदैष्यसि ॥ ६७ ॥ आई गई कर गालिकों, क्रोध चंडाल समान । न तर पिछानि चंडालिनी, पल्लो पकरे आन ॥ ६८॥ उपेक्षख सखे ! गालिं, त्यज कोपं श्वपाकवत् । श्वपाक्यनुगता नोचेद्गृहीता वस्त्रसन्दशाः ॥ ६८ ॥ प्रभु सहाय नहीं होयँगे, रे जिय सांची जान । क्रोध करी ज्युं होगयो, साधु रजक समान ॥ ६९ ॥ ईशोऽपि नो सहाय स्यात्सत्यं मन्यख चित्त! ह । पश्य कोपं विधायैवं, साधू रजकतां गतः ॥ ६९ ॥ , आत्म वस्त्र मेला लखी, इणने दीना धोय। कटुक वचन साबुन करी, निवल जानिके मोय ॥ ७० ॥ निर्वलं वीक्ष्य मामेष, आत्मवस्त्रं सलीमसम् । ककिसाधनेनाऽऽशु, तदधावद्दयाद्रकः ॥ ७० ॥ 'जौहरी व्हैके मति करे, कुंजडी के संग रार। . रतन विखरसी ताहरा, भाजी सटे गवाँर ।। ७१॥ विवादं शाकविकेन्या, रानिकस्त्वं हिमा चर। भविता रत्नविक्षेपो, शाकार्थ मूढ ! सत्वरम् ॥ ७१॥ सालाकी गाली दई, यह विचार चित ठार । भगिनी सम इनकी त्रिया, मोय समझ्यो व्रतधार ॥७२॥ श्रुत्वा शाल्यकगालिं तु, चित्ते चिन्तय तत्क्षणम् । भााखस्वदस्येति, सम्यग्वुद्धं व्रतं मम ॥ ७२ ॥