________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २९९ कुवचन शर क्या कर सके, तू होजा पाषाण । तेरा कुछ विगरे नहीं, वाका ही अपमान ॥ ५९॥ सखे ! पाषाणवद्भूयाः कूक्तिषु. किं करिष्यति । न स्यात्ते कापि वा हानिापमानस्तु तस्य च ॥ ५९॥ कुवचन गोलीके लगे, जो ले मनको मार । - आपही ठंढी होयगी, होजा शीतल गार ॥ ६०॥ कूक्तिगोलीसमाघाते, मन शान्तं करोति यः। भविता सा खयं शीता, शान्तस्त्वं भव हे सखे! ॥६०॥ तैंने ऊपरसों कही, मैंने समझी ठेठ । खटका सबही सिटगया, एक रह गयो पेट ॥६१ ॥ उपरिष्टात्त्वया प्रोकं, तत्त्वं बुद्धं मया किल । चिन्ता कृत्स्ना विनष्टा मेऽवशिष्टा समता खल्ल ॥ ६१ ॥ रे चेतन सुलटी समझ, तेरा सुधरा काज । कुवचन घर वर ताहरी, इणने सौंपी आज ॥ ६२॥ सम्यक् चेतन ! बुध्यख, सिद्ध कार्य तवाद्य वै। तावकः कूक्तिनिक्षेपोऽनेनेदानीं समर्पितः ॥ ६२॥ होगी सोई नीसरे, वस्तु भरी जिहि माहि। . याका गाहक मत बने, तेरे लायक नाहि ॥ ६३ ॥ यस्मिन् वस्तु यदेवास्ति, निस्सरिष्यति तत्किल । नोचितं ते समस्त्येवाहकस्त्वस्य मा भव ॥ ६३ ॥ अपणा अवगुण सुणकरी, मत माने जिय रीस। मनमें तू यों समझले, मुझको देत असीस ॥ ६४ ॥ आत्मदोष समाकर्ण्य, चित्ते खेद तु मा कृथा.। आशिष मे ददात्येष, कार्या चैषा विचारणा ॥ ६४ ॥ , क्रोध अगन दिल मत लगा, सुनि अयथारथ बोल । क्षमारूप जल छिडकिए, नेक न लागे मोल ॥६५॥ असदुक्तं वच. श्रुत्वा, क्रोधामा क्षिप मा मनः। ' सिन्न वारि क्षमारूपं, भवेत्तापो न कवन ॥६५॥ .