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संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभापान्तरसहिता
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मैत्रीभाव पैदा करवानो स्वभाव थई जाय छे । मोह अविवेक अने चित्त विकारनो पडदो तूटी जाय छ। मोनो सर्वथा नाश थई जवाथी चित्त निर्मल अने पवित्र वनीने स्थिरता प्राप्त करे छ । पवित्र चित्तवाळो कामदेवनो नाग करे छ । जेनामा ज्ञानात्मानो उदय थएलो छे, तेनामा आटली क्रियाओनो उदय थई जाय छे, तेनाथी अटल सुखना पदने प्राप्त कराववातुं ते साधन बनी जाय छ ।
जे आत्माने राग-द्वैप अने मोहमाथी वहार काढवामां निश्चय हेतुरूप छे तेने पण बुद्धिमानोए ज्ञान कहेलं छे।
ज्ञान विशेष वस्तुनुं वोधक छे, लोकालोकनुं प्रगट खरूप समजाय छे हस्तामलकवत् समारना सर्व खरूपर्नु तथा घटनात्मक भावनु जाणपणुं याय छ । ते सम्पूर्ण ज्ञान केवलज्ञान अथवा ब्रह्मनान छ । तेनाधी अधिक ज्ञाननी वीजी कोई भूमिका नथी । केवल एटले पूर्णता, ते ज्ञान अमाधारण, निरपेक्ष अने परम शुद्ध छे, सर्व पर्याय तेमज भावोनुं नायक छ । तेनाथी लोकालोकनुं ज्ञान थाय छ । तेनाथी सहज तेमज उत्कृष्ट अनन्त आनन्द मळे छ । ते ज्ञान प्राणिओना कर्मवन्धनो समय तथा तेना शुभाशुभ परिणामोनो बोध करावे छ । सूक्ष्म-यादरचराचरनु पूर्णज्ञान सर्वज्ञने होय छ । दर्शन
जेमा कोई प्रकारनो व्यभिचार नथी होतो; संशय, विपर्यय, मिथ्यात्व अथवा अनध्यवसाय आदि दोषोथी जे रहित छे, इन्द्रिय अने मनना विषयभूत सर्व पदार्थोनी दृष्टि-श्रद्धारुप प्राप्तिने सम्यग्दर्शन कहे छे, जीवादि नवतत्वना भावोपर श्रद्धानपूर्वक तेनुं यथानुरूप धारण करवं, जेनाथी समता भाव अस्थिर वस्तुओनी विरक्ति रूप वैराग्य, कर्म बंधथी मुक्त होवानी निरन्तर अभिलाषा, शत्रु मित्र पर अमेदरूपे अनुकम्पा, आत्मीय कर्मोनो उदय थवाथीज सुख दुख थाय छे, ते जातना आस्तिक्यादि लक्षणोनो उदय थाय छे, त्याग-वैराग्य तथा विवेक शुद्ध थवाथी जे मुफिनु अग छे, ससारना क्लेश रूपी रोगोना समूहने मटाडवामा जे औषधरूप छे, ते सम्यग्दर्शन छे, ज्ञान अने चारेनना बीजरूप छे, वेनाथी महाव्रतोतुं पालन करता करता स्थिरतानी भावना जागृत थाय छे, ज्ञानीओर्नु विश्वमा ते सर्वोपरि भूपण छे, ते श्रेष्ठ सम्यग्दर्शनथी नि शंसय मोक्षनी प्राप्ति थाय छे, तेना निश्शंकथी माडीने प्रभावना सुधीना आठ अग छ ।