________________
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २३३ "मोह रज और अन्तराय कर्मका हनन करनेसे 'अरिहंत' नाम सार्थक है।" राग दोस कसाये य, इंदियाणि य पंच य । । परिसहे उवसग्गे, णासयंतो णमोरिहा ॥
(मूलाचार) . भावार्थ-राग-द्वेष और चारों कषाय तथा पाच इन्द्रियोंके २३ विषयोंका और २२ परिषह एवं उपसर्गके विनाश करनेसे भी 'अरिहंत' कहे जाते हैं।
राग दोस कसाए य, इंदियाणि य पंच वि परिसहे । उवसग्गे नासयंता, नमोरिहा तेण वुच्चति ॥ ९९८ ॥
(विशेषावश्यक भाष्य) इंदिय-विसय-कसाए-परिसहे वेयणा-उवसग्गे । ए ए अरिणो हंता, अरिहंता तेण वुचंति ॥ ९९९ ॥ अट्ठविहंपि य कम्मं, अरिभूयं होइ सव्व जीवाणं । तं कम्ममरिं हंता, अरिहंता तेण वुच्चति ॥ ९२० ॥
(आवश्यकभाष्य) "रज या आवरणका नाश करनेसे भी 'रिहंत' कहलाते हैं। क्योंकि ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्म रजके समान वाह्य और अन्तरग त्रिकालके समस्त विषयभूत अनन्त अर्थ-पर्याय और व्यंजन-पर्याययुक्त वस्तुओंको विषय-करनेवाले ज्ञान और दर्शनका आवृत्त करनेसे 'रज' कहते है, इसी प्रकार मोह भी रज है, क्योंकि जैसे धूलसे भरे हुए मुखवाले लोगोंमें कार्यकी मन्दता देखी जाती है, उसी प्रकार मोहसे जिनका आमा व्याप्त है, उनमें भी आत्मोपयोगकी मंदता या कुटिलता पाई जाती है। इस लिए रजरूप ज्ञानावरणादि कर्मके अभावसे 'भरिहंत' कहलाते हैं । यथा
“रजो हननाद्वा अरिहन्तः, ज्ञानदृगावरणानि रजांसीव- बहिरंगान्तरगावशेषत्रिकालगोचरान्तरार्थव्यंजनपरिणामात्मकवस्तुविषयवोधानु