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वीरस्तुतिः।
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भवप्रतिवन्धकत्वाद्रजांसि, पुनर्मोहोऽपि रजः । भस्सरजसाऽऽपूरिताननानामिव भूयो मोहावरुद्धात्मनां जह्यभावोपलंभत्वात् । .
(धवलसिद्धान्त) अथवा 'रहस्य' अन्तराय कर्मका नाम भी है, जिसके क्षय करनेसे भी 'अरिहंत' कहे जाते हैं, अन्तराय कर्मका नाश तीन घातिया कोंके नाशके साथही नियमसे होता है । अत अविनाभावी सम्वन्धसे यह अर्थ निकलता है कि जिसने चारों घातिया कर्माका नाश करके अघातिया कमाको भी निशक वनादिया हो वे 'अरिहंत' कहलाते है,। यथा__ "रहस्यमन्तरायस्तस्य शेषघातित्रितयविनाशाविनाभाविनो हि प्रणष्ट-वीजवन्निःशक्तीकृताघातिकर्मणो-हननादरिहन्तः ।"
(धवलसिद्धान्त) (५) एक पाठ 'अरुहंत' भी बनता है, क्योकि 'रुह' धातुका अर्थ 'अकुर उगना' है, अर्थात् जिसका भवरूप अंकुर नष्ट होगया है वे 'अरुहंत' कहलाते हैं, यानी कर्मरूपी वीजके जल जाने पर पुनः समाररूप अकुरकी. उत्पत्ति नहीं होती। क्योंकि__ "न रोहति भूयः ससारे न समुत्पद्यत इत्यरुहः, ससारकारणानां कर्मणां निर्मूलकत्वात् ।"
भगवती-प्रवचनसारोद्धारतथा च प्रज्ञापनासूत्रस्य कारिकायामप्येवं, पुनः "दग्धे वीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्करः । कर्मवीजे तथा दग्धे, न रोहति भवांकुरः ॥” इति भापाटीका समाप्ता ॥
गुजराती अनुवाद-सुधर्माचार्यजी श्रीतीर्थकर प्रभुना गुणोना वर्णन करता पोताना जम्बूनामा (समीपमा रहेनार) शिष्यने कही रया छे के जे भव्य प्राणी आत्माने दुर्गतिमा पडता बचाववावाला ज्ञान अने चरित्ररुप धर्मर्नु, 'अईन्' भगवान् पासेथी भावपूर्ण तेमज परिणाम युक्त अभिप्राय श्रद्धा अने