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संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २३५ भक्तिपूर्वक चरित्रवान् थईने श्रवण करे छे, अने त्यार पछी तेनुं मनन करी निदिध्यासन करे छे, ते आयुष्यादि सर्व कर्म बंधनोथी मुक्त थई अपुनरावृत्ति याने निर्वाण पद प्राप्त करे छे, अथवा दीर्घायुष्य वाळा स्थानमा अनुकूल सुख भोगवनार 'अहमिन्द्र' वने छ, अथवा देव दानवोना अधिपति एवा. इन्द्रपदने पामे छे, आ में 'अर्हन्' भगवान् ज्ञातपुत्र-महावीर प्रभु पासेथी जेवी रीते साभळ्यु छे तेज प्रमाणे तने कही सभळावू छु ।
_ * “अरहत' आ प्राकृत भाषानुं शब्द छे, जेनी सस्कृतच्छाया 'अर्हन्' थाय छे, कोई कोई एना अरहोन्तर-अरथान्त-अरुहन्त-वाचक शब्दो थाय छे, एम तेओनुं मन्तव्य छे, अहीं आ चारे अर्थ ऊपर आ प्रमाणे विचार करी शकाय ।
(१) 'अर्ह' घातुनो अर्थ भाव पूजा एवो थाय छे, ते अर्थ अनुसार अतिशय वन्दनीय, सेवनीय होवाथी 'भईन्' (अरहंत) कहेवाय छे, केमके तेमना पाचे कल्याणकोमा देवो तेमज चौसठ इन्द्रो द्वारा अनेक जातनी सेवा सम्बन्धी केटलीए विलक्षण घटनाओ बनी छे, तेमज तेमनो आत्मा मनुष्योनी अपेक्षाथी पर छे, जेथी तेमनामा विशेषपणुं होवाथी 'अरहंत' नाम यथार्थ छे, धवल' ग्रंथमा पण कडुं छे के___"जे वदन तेमज नमस्कारने योग्य छे, सेवा अने सत्कारने योग्य छ, सिद्धि गमनने माटे उपयुक्त छे, माटे 'अरहत' कहेवाय छे ।"
(२) "रहस्नो अर्थ एकान्त थाय छे, एटले जे समस्त पदार्थोनो निकटना चाहे दूरना, स्थूल चाहे सूक्ष्म पदार्थोना समूहने हथेली पर राखेल आमळानी माफक देखी रया छे, जेमने माटे गुप्त के एकान्त एवी कोई वस्तु या स्थान नथी।"
(३) "अरथान्त-" ए सस्कृतच्छाया-अनुसार एवो अर्थ नीकळे छे के रथ अर्थात् वहिर तेमज अन्तर दृष्टिए समस्त परिग्रहनो जेनी पासे अभाव छे एवा वीतराग सर्वज्ञ देवने 'अरथान्त' कहे छे।" "अथवा जेनो आत्मा रूपी रथ अप्रतिहत शकिवालो होवाथी क्यांय पण रोकाई शकतो नथी, अर्थात् त्रणे लोक तेमज अलोक सुधी पण पहोंची वळे छे, याने जाणी शके छे, जेथी 'भरथान्त' आ नाम पण सार्थक मानेलं छे।"