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. वीरस्तुतिः।
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(४) "अरहंत" शब्दनो अर्थ एवो अर्थ पण नीकले छे के "राग-द्वेपना कारणभूत त्रिलोकना अनन्त पदार्थोने जाणवा देखवा छतां कोई पदार्थमा आसक्ति नथी, एटले के वीतरागखभाव शीलज छे, एटला माटे 'अरहंत' कहेवाय छे।"
___ "भा उपरान्त "अरिहंत" ए पाठ पण प्रचलित छ, जेना प्रमाणे आ अर्थ थाय छे, के–अरि-कर्मरूपी शत्रुनो नाग करवाथी 'अरिहंत' कहेवाय छे।" जेमके
"राग-द्वेष-कषाय-पाचे इन्द्रियोना २३ विषय, २२.परिपह, तेमज अनुकूल प्रतिकूल उपसर्गना विनाशथी पण 'अरिहंत' कहेवाय छ।" ।
“रज अर्थात् आवरणोनो नाग करवायी पण 'अरिहंत' कहेवाय छे, केमके-ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीयकर्म रजनी माफक छे, वाध्य तेमज अन्तरंग त्रिकाळना समस्त विषय भूत अनन्त अर्थ पर्याय तेमज व्यजन पर्याययुक्त वस्तुओना विपयमा लीन छे, ज्ञान तेमज दर्शनना ढाकणरूप बने छे, एटले रजनी माफक आत्मा ऊपर मेलना थर चडवाथी ज्ञान अने दर्शननो प्रकाश वहार नीकळवा देतो नथी, जेमके रजथी छ्यायेला मोढावाळा लोकोमा मदता जणाई आवे छे, एवीज रीते मोहथी जेनो आत्मा घेराएलो छे, तेमनामा आत्मोपयोगनी मन्दता याने कुटिलता नजरे पडे छे, आ कारणथी रजरूप जानावरणादि कर्मना अभावथीज 'अरिहंत' कहेवाय छे।"
__“अथवा रहस्य-अन्तराय कर्मनु नाम छे, तेनो क्षय करवाथी पण 'अरिहत' कहेवाय छे, अन्तराय कर्मनो नाश त्रण घाति कौना नाशनी साये साथेज नियम प्रमाणे थाय छे, आकारणथी अविनाभावी सवधी आवो अर्थ नीकले छे के जेणे चार धाति कर्मोने पण शक्तिहीन वनावी दीधा ते 'अरिहत' कहेवाय छे।"
"अथवा 'अरुहंत' पाठ पण वनी शके है, 'रुह' धातुनो अर्थ 'अंकुरनुं उगवू' एवो थाय छे, एटले जेना भवरूप अकुर नष्ट बह गया छे, ते 'अरहंत' कहेवाय हे, कारण के कर्मरूप वीज वली जवाथी फरीथी ससार रूप 'अंकुर' पेदा नज थाय" । इति गुर्जरानुवादः ।