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वीरस्तुतिः।
॥ अथ रागनिवारणाङ्गम् ॥ - - अरे जीव भव वन विषे, तेरा कवण सहाय । जाके कारण पचि रह्यो, ते सब तेरे नाय ॥ २६ ॥ भवारण्येऽत्र रे जिव ! सहायः कोऽस्ति ते वद । यदर्थ खिद्यसे नित्यं, तव ते सन्ति नो भुवि ॥ २६ ॥ संसारी को देखले, सुखी न एक लिंगार । अव तो पीछा छोडदे, मत धर सिर पर भार ॥ २७ ॥ पश्य संसारिणं जीवं, न कोऽपि सुखभाग्भुवि । अनुसूतिं त्यजेदानीं, शीर्षे मा धर भारकम् ॥ २७ ॥ . झूठे जगके कारणे, तू मत कर्म बंधाय। ' तू तो रीता ही रहे, धन पेला ही खाय ॥२८॥ मिथ्यासंसारमुद्दिश्य, कर्मवन्धं तु मा कुरु। । रित्तो यास्यसि जीव ! त्वं, भोक्ष्यन्ते हीतरे धनम् ॥ २८ ॥ तन धन संपत् पायके, मगन न हो मन मांय । कैसे सुखिया होयगा, सोवत *लाय लगाय ॥ २९ ॥ तनुं वित्त विभूति च, लब्ध्वा हृष्टस्तु मा भव । वन्हि प्रज्वाल्य शेषे किं, स्थास्यसि त्वं कथं सुखी ॥ २९ ॥ ठाठ देख भूले मति, यह पुद्गल पर्याय। देखत देखत ताहरे, जासी थिर न रहाय ॥ ३० ॥ भूतिं दृष्ट्वा प्रमाद्य त्वं, मेयं जाता तु पुद्गलै । नक्ष्यति पश्यतस्ते वा, न स्थिरेयं कदापि च ॥ ३० ॥ । लूटेंगे ज्ञानादि धन, ठगसम यह संसार । मीठे वचन उचारिके, मिोह फांसी गल डार ॥ ३१॥ प्रियं प्रोच्य गले मोहपाशं क्षिप्त्वा लिमे जना । । ज्ञानादिधनहार ते, करिष्यन्ति प्रवञ्चकाः ॥ ३१॥ . किधों भूत तोको लग्यो, करे न तनक विचार । ना माने तो परखले, मतलवको संसार ॥ ३२ ॥
* पृष्टतो गमनम् । आग।