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वीरस्तुतिः ।
सर्वज्ञ प्रभु श्रीवीर भगवाने ऊर्ध्वलोक अधोलोक अने त्रिछालोकना समस्त जीवोनुं स्वरुप आ रीते वर्णवेलं छे ।
जीव
जो के जीव समूह शुद्ध निश्चय नयथी आदि-मध्य अने अन्त रहित, ख तथा पर गुण प्रकाशक, उपाधि रहित, अने शुद्ध चैतन्य (ज्ञान) रूप निश्चय प्राणथी जीवित छे । तो पण अशुद्ध निश्चय नये अनादि कर्म बंधना कारणे ने अशुद्ध द्रव्य प्राण अने भाव प्राण छे तेनाथी जीवित रहेवाने कारणे जीव छे ।
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उपयोगमय
जो के शुद्ध द्रव्यार्थिक नये जीव परिपूर्ण तथा निर्मल ज्ञान दर्शन मय छे, तो पण अशुद्ध नये क्षायोपशमिक ज्ञान दर्शन युक्त छे, तेथी जीव ज्ञानदर्शनोपयोगमयी छे ।
अमूर्त
व्यवहारनयथी आ जीव मूर्त कर्मोने वश होवा श्री स्पर्श-रस-गंध-वर्ण वाळी मूर्तिथी रचित होवाना कारणे मूर्त छे । पण निश्चय नये अमूर्त, इन्द्रियोथी अगोचर शुद्धरूप स्वभावनो धारक होवाथी अमूर्त छे ।
कर्ता
जीव निश्चयनये क्रिया रहित, उपाधिरहित, जाणवानो खभावनो धारक है; पण व्यवहार नये मन-वचन-कायना व्यापारने उत्पन्न करवावाळा कर्मोथी सहित starना कारणे शुभाशुभ कर्मनो कर्ता छ ।
सदेह परिमाण जीव निश्चय पूर्वक स्वभावथी उत्पन्न शुद्ध लोकाकाश समान छे, तेमज असंख्य प्रदेशोनो धारक छे, पण शरीर नामकर्मना उदये घडा विगेरे पात्रमा रहेला दीवानी माफक सकोच विकोचमय होवाना कारणे देह प्रमाण रहे छे ।
भोक्ता -- शुद्ध द्रव्यार्थिक नये जीव रागादि विकत्परूप उपाधिथी रहित छे, तेमज निजात्मधी उत्पन्न अमृतनो भोक्ता छे, पण अशुद्धनये ते सुखरूप अमृत पदार्थोना अभावे शुभकर्मथी उत्पन्न सुख अने अशुभ कर्मथी उत्पन्न दुखनो भोका छे ।