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संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभापान्तरसहिता ५९ सताया जाकर अपने वचनेके लिए जो इधर उधर भाग फिर सकते हैं, जिनके दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, पाच इन्द्रिय, ये चार प्रकार हैं। स्थावर
पृथिवी, पानी, आग, हवा, वनस्पतिके मेदसे पाच स्थावर हैं। ये अपने ऊपर आए हुए सकट से वचनेके लिए उद्यम करनेमें सर्वथा अशक्त हैं, बहुत थोडी समझ है, और जन्म मरण भी अधिक करते रहते हैं, पृथ्वी, पानी, अमि, वायु के जीव ४८ मिनिट मे १२८२४ वार मर कर जन्म लेते हैं, वनस्पतिमें निगोदजीवकी अपेक्षा ६५५३६ वार जन्मते मरते हैं। हमारा एक श्वास सुखसे आता है और वे १७ वार जन्म कर मरते हैं। अत ये सव स्थावर कहलाते हैं। इन्हीं मे भूत सत्व भी हैं यथा
२-३-४ इन्द्रियवालोंको प्राणी सज्ञक जानना चाहिए । वनस्पतिकी भूत सज्ञा है। पाच इन्द्रिय वालोको जीव सज्ञक माना है। पृथ्वी, पानी, आग, हवाको सत्व सज्ञासे पहचानते हैं। इन सव जीवोंमें १० द्रव्य प्राण होते हैं। जिनकी गणना इस भाति है।
१० द्रव्य प्राण-श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, प्राणेन्द्रिय, रसेंद्रिय, स्पर्शेन्द्रिय, मन, वचन, काय, आयुके प्रमाणु, श्वास उच्छ्रासका लेना छोडना, इत्यादि १० प्राण हैं। यह प्राण धन सब जीवोंको अत्यन्त प्रिय है। जब इन पर मुसीवतका कुल्हाडा वजता है तब उस धनसे मोह एक दम हेटा देता है। स्थावरोंमें जीव सिद्धि होनेसे चार्वाकादि का खण्डन हो जाता है। भगवान्ने इन सब जीवोंको द्रव्यकी दृष्टिसे नित्य और पर्याय की दृष्टिसे अनित्य फर्माया है। इसे द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयके आश्रयसे मी समझाया है। प्रभु स्वयं टापू की तरह डूबते हुए ससारी जीवोंको सहायक भूत हैं, और उनका ज्ञान तत्व-पदार्थ का पृथक् ज्ञान करानेके कारण दीपकके समान हैं। दीपककी तरह स्व-पर रूपका ज्ञान प्रकट हो जाता है। यही भगवान्का धर्म है, जिसे उन्होंने और तीर्थंकरोंकी भाति समता अर्थात् तुलनात्मक दृष्टिसे कहा है। इनका धर्मोपदेश करनेका आशय लोकोंको समभाव-उपशमभाव-अहिंसाभाव तथा सत्यका खरुप समझाकर ससारमें परोपकारिता फैलाना था कुछ अपना उत्कर्ष प्रकट करनेका उद्देश नहीं ॥ ४ ॥
गुजराती अनुवाद-सुधर्माचार्य वीरप्रभुना गुणोनुं वर्णन करे छ ।