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वीरस्तुतिः।' ' ';
भावार्थ-"आठ प्रकारके कर्मरूपईन्धनको शुक्लध्यानकी आगसे जिसने जला दिया हो वह सिद्ध होता है, अथवा गत्यर्थक 'षिधु' धातुसे सिद्ध अर्थात् अपुनरावृत्ति की अपेक्षा जो निर्वृत्तिपुरीमें पहुंच गए हैं वह सिद्ध हैं; अथवा निप्पत्यर्थक 'षिधु' धातु द्वारा 'सिद्ध' यानी जिसने अपने अर्थको निष्पन्न किया है, और जो कृतकृत्य होगया हो, वह सिद्ध है, अथवा शास्त्रार्थक और मागल्यार्थक 'बिधूम्' धातुसे 'सिद्ध' यानी जो शासनकर्ता हो, अथवा जो मंगलवके स्वरूपका अनुभव कर्ता हो, या जो स्वयं मंगलरूप हो वह 'सिद्ध' है; अथवा नित्य कारण जिनकी स्थिति अविनाशी है, अथवा भव्य जीवोंको जिनके गुणसमूह उपलब्ध होने से प्रसिद्धि प्राप्त हैं, या जिन्होंने बांधा हुआ पुराना कर्म जला दिया है, जो निर्वृत्तिरूप महलके शिखरके ऊपर जा पहुंचा है, जो प्रसिद्ध है, अनुशासन करनेवाला है, कृतार्थ है, वह सिद्ध प्रभु हमारे लिए कृत मंगल है नमस्कार करने योग्य है, इसीलिए कि-वे अविनाशी-ज्ञान, दर्शन, सुख, शक्ति, आदिकसे युक्त हैं और खविषय आनन्दोत्कर्ष के उत्पादक होनेसे भव्य जीवोंके ऊपर अप्रतिम उपकार करने से वे नमन करने योग्य हैं।" यद्यपि जीव व्यवहार नयके कारण अपनी आत्माकी प्राप्ति रूप उपरोक्त सिद्धत्व युक्त है, और उसके प्रतिपक्षी कर्मोंके उदयसे असिद्ध है, तथापि निश्चय नयसे अनन्तज्ञान और अनन्तगुण खभावका धारक होनेसे सिद्ध है; । ऊगामी
इन कहे हुए गुणोंका धारक जीव खभावसे ऊर्ध्वगमनकरनेवाला है, यानी व्यवहारसे चार गतियोंको पैदा करनेवाले कर्मोके उदयसे ऊंचा, नीचा, तथा तिळ गमन करनेवाला है, तथापि निश्चयनयसे केवलनान, आदि अनन्तगुणोंकी प्राप्ति स्वरूप मोक्षमें चला जानेके कारण खभावसे ऊर्ध्वगमन करने वाला है, इस प्रकार जीवका खरूप शुद्ध और अशुद्ध नयकी दृष्टिसे समझाया गयाहै। और अनादि कालसे कम्यॊद्वारा आत्मा स्वयं वंधकर ससारमें रुल रहा है इत्यादि आगमका अर्थ तो प्रसिद्ध ही है । और शुद्ध नय के आश्रित जीवका स्वरूप उपादेय यानी ग्रहण करने योग्य है और वाकी सब हेय है तथा उनके त्रस और स्थावर ये दो भेद हैं। त्रस
त्रस प्राणी वे हैं जो किसी के द्वारा भय, त्रास, और उद्वेग पाकर, यो