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संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २०९ [सराइभत्तं ] रात्रि भोजन सहित [ इत्थी ] स्त्री-सभोगादि पापोंको [वारिया] छोडकर [ सव्वं] तथा समस्त [आरं] इस [लोग] लोकको (च) और [परं] परलोकको [विदित्ता] जानकर [सव्ववारं] अधिकाधिक प्रमाणमें समस्त परभावका [वारिया निवारण किया ॥ २८ ॥ • भावार्थ-जो वक्ता जिस प्रवृत्तिका उपदेश करता है वह वैसा ही वर्तन भी करता है, तव ही उसके उपदेशका प्रभाव पड़ता है। महावीरप्रभुने मोक्षपानेका जो उपदेश किया उसमें वे स्वयं भी सलम रहे हैं। इसीसे कहा गया है कि भगवान्ने आठ कर्मरूपी दुखोंका नाश करनेके लिए स्त्री-संसर्ग तथा रात्रिभोजन और १८ पापोंका वय त्याग किया था। इसके अतिरिक्त घोर तप करते हुए इसलोक-परलोक अथवा मनुष्यलोक नरकलोकादिका रहस्य जानकर उन सवका त्याग किया ॥ २८॥ .
भाषा-टीका-भगवान् स्त्रीससर्ग और स्त्रीके पडोसमें रहने तकके कहर त्यागी थे। उन्होंने ब्रह्मचर्य्य पालन करनेके लिए नव वाड विशुद्ध शील पालन करना बताया है। यहां तक तो कहा है कि जिस स्थान पर स्त्री वैठकर गई है, ब्रह्मचारी उस स्थान पर एक घटा तक विल्कुल न बैठे । क्योंकि उसके अशुद्ध और गर्म परमाणुओंका प्रभाव सुशीलके लिए हानिकर है। यही ब्रह्मचारिणीके लिए भी समझना चाहिए। इसके अतिरिक्त आप रात्रिभोजनके भी प्रत्यक्ष विरोधमें थे, क्योंकि रात्रिमें भोजन करनेसे त्रस जीवोंकी हिंसाका होना अनिवार्य सयोग है । इसी कारणसे रात्रिभोजन करना मना किया है।
रात्रिभोजन इस लिए वर्जित है कि रात्रिमें भोजन करनेवालोंके लिए हिंसाका निवारण करना अशक्य है। अत. हिंसाका त्यागी रातमें भोजन न करे । मगर जो जीव तीव्र राग भाव रखते हैं उनसे इसका त्याग नहीं हो सकता। क्योंकि जिसे भोजनसे अत्यधिक अनुराग होगा वह ही प्राणी रात दिन खाता पीता रहेगा। और जहा राग वन्धन होता है वहा प्रमत्तयोग व्यापार अवश्य रहता है । और प्रमत्त प्राणी हिंसा अवश्य करेगा।
घहुतसे यह भी कहते हैं कि यदि सदाकाल भोजन करनेमें हिंसा होती है तो दिनमें भोजन न करके रातको ही खाना चाहिए? क्योंकि इस प्रकार करनेसे सदैव तो हिंसा न होगी । मगर यह बात नहीं है, यद्यपि उदरके
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