________________
१८६ , वीरस्तुतिः।' . ..., दिया है । और अब केवल ज्ञानरूप अनन्तचक्षुयुक्त हैं। और वह चक्षु सादि अनन्तरूप है। प्रभुकी अनन्त ज्ञानरूपा लक्ष्मी इसीसे अपार है ॥ २५॥
गुजराती अनुवाद-ते भगवान् महावीर प्रभु पृथ्वीनी पेठे सर्वप्राणि, ओने आधारभूत छे, अने पोताना पवित्र उपदेशधी सर्वनो भय दूर करनार छ, अथवा पृथ्वीनी जेम सर्व प्रकारना प्रखर परिषह तेमज उपसर्ग सिंहसमान वृत्तिथी सहन करनार छे, आठ कर्मरूपी रज मेलनो नाश करीने निलेप थया छे। वळी - वाह्य तेमज आन्तरिक सर्व तृष्णा अने आशानो तेमणे नाश कर्यो छे, तेथी कोई पण पदार्थमा तेमने आसक्ति रही नथी, हवे तेओ द्रव्यथी संसारोपयोगी वस्तुओ अने भावथी इन्द्रिय विषयो तेमज कषायनो संग्रह करणे नहिं, तेओए इन्द्रिय विकारोनो सर्वथा नाश कर्यो छे, तेओ सर्वज्ञ होवाथी छद्मस्थनी पेठे विचार करीने बोलवानी तेमने आवश्यकता नथी, कारणके तेमने हस्तामलकवत् त्रिलोकनु अनन्तनान प्राप्त थयु छे, तेमज वळी संसारसमुद्रनो पार पामी सुन्दर निर्वाण प्राप्त कर्यु छे, के ज्याथी पुनरावृत्ति करवी नहि पडे । वीरता पूर्वक अष्टकर्मरूपी अनन्त कार्मणवर्गणाओनो अत्यन्त अभाव कर्यो छे, केवलज्ञानयुक्त छे, ते सादि । अनन्तरूप छ । प्रभुनी अनन्तज्ञानरूपी लक्ष्मी अपार छे ॥ २५ ॥
कोहं च माणं च तहेव मायं, लोभं चउत्थं अज्झत्थदोसा। एआणि वंता अरहा महेसी, ण कुवइ पाव ण कारवेइ ॥ २६ ॥
(संस्कृतच्छाया) क्रोधं च मानं च तथैव मायां, लोभं चतुर्थमध्यात्मदोपान् । एतान् वान्त्वाऽर्हन्महर्षिन करोति पापं न कारयति ॥ २६ ॥
सं० टीका-क्रोधं कषायरूपमात्मेतरगुणं द्वेषोपयोगं "दोसो कोधे गुणोतरे इत्यभिधानप्पदीपिका" । "दोसो च पटिघं च वा; कोघाऽघाता कोप रोसा इत्यभिधा०"। मानमहंकारं च, "मानो विधा