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५० , वीरस्तुतिः । .. ध्वज प्रभुनी आगल चाले । (११) अशोकवृक्ष थई आवे, त्यां जवाथी वीजा
ओना गोकर्नु निवारण थाय । (१२) जरा पाछलना भागमा मस्तक प्रदेशे तेजोमंडल थई आवे, ते दशे दिशाओना अंधकारने दूर करे । (१३) पृथ्वी बहु सपाट अने रमणीय वनी जाय । (१४) कांटा ऊंधा थई जाय, तेनी माफक बहु हठवादी विनीत थई जाय, (१५) विपरीत ऋतु सुखस्पी थई जाय, समय अनुकूल तथा धर्म माटे योग्य थई जाय । (१६ ) शीतल-सुखकरसुगन्धयुक्तवायु एक योजन क्षेत्रमा वहे । अने सर्व प्रकारनी अशुचि दूर करे। (१७) सुगन्धि वृष्टि थाय तेथी आकाशनी रज अने भूमि ऊपरनी रेणु टंकाई जाय, ज्ञानधारा वरसवाथी' कर्म रज दूर थई जाय । (१८) रमणीय पंचवर्ण फूल प्रगटे । (१९) अमनोज्ञ (अशुभ) शब्द-स्पर्श-रस-रूप-गन्ध उपशमें अर्थात् नाश पामे। (२०) मनोज्ञ शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गंध उत्पन्न थाय । (२१) चारे बाजुए वेठेली परिषद भगवान्नो योजनातिक्रमी स्वर वरावर ध्रवण करी शके अने ते शब्दो श्रोताओने प्रिय लागे । (२२) प्रभु अर्धमागधी भाषामां धर्मदेशना आपे । (२३) आर्य अनार्य देशना मनुष्यो-पशुओ-पक्षीओ विगरेने आ भाषा पोतानी भापामा परिणमें, ते हितकर-सुखकर-आनन्दकर अने मोक्षदायी लागे। (२४) जन्मवेर, जातिवेर, शान्त थाय. । (२५) भगवान्ने देखता अन्य दर्शन-मताभिमानी हठ छोडी नम्र बने छ। (२६) प्रतिवादी निरुत्तर धने। (२७) प्रभु विचरे छे त्यांथी २५ योजन चारे दिशामां दुष्कालउदर-तीड विगेरेनो उपद्रव रहे नहि । (२८) महामारी मरकी प्लेग न होय । (२९) स्वचक्रनो भय नहीं थाय । (३०) पर लश्करनो भय न होय । (३१) अति वृष्टि न थाय । (३२) अनावृष्टि न थाय । (३३) दुकाल न पड़े। (३४) उत्पातो अने व्याधिओ तुरत शमी जाय । सत्यवाणीना ३५ गुण
(१) भगवान्नी वाणी संस्कार-लक्षण युक्त होय । (२) बुलंद आवाज वाली वाणी । (३) सादी । (४) गंभीर । (५) पडछंदा युक्त । (६) सरल । (७) उपनीत रागत्व-श्रोतामो धारे के भगवान् मने उद्देशीनेज उपदेश आपे छ । (८.) महार्थ---सूत्र थोडो अर्थ घणो। (९) पूर्वापर वाक्यनी अविरोधी । (१०) शिष्ट । (११) असंदिग्ध, (१२) वाणीमा-अर्थमा दूषण रहित । (१३) हृदयग्राही, (१४) देश कालने अनुकूल । (१५) तत्वनी