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________________ संस्कृवटीका-हिन्दी-गुर्जरभापान्तरसहिता १९ तर युक्त अयुतानपवित्र करना, आमदोपका इन्द्रिय दमन उनले अनय और अनुल यश का गायन मनुष्य-असुर और देव सत्र निल कर करते थे। ससारको दो आंखों द्वारा प्रत्लनतया सूक्ष्म और वादर पहा. याच मान भालमांति करा देने उनके प्रतिपादित वनको तथा उनकी धीरता देख ! धर्म संसारके प्रानिओंना दुखोंसे उद्धार करना उसच्चा खभाव है अतः वह धर्म है तथा ज्ञान और क्रियाके मेदसे धर्म दो तरहका है। "समता, तप, सन्तोष, सरलता, उत्तम क्षमा, आदिक विहित पुरुषार्थको भी बने कहा है।" “मनुने धैर्य रखना, शान्ति करना, अकिंचनवृत्ति रखना, इन्द्रिय दनन करना, आत्माको बुरे विचारोंसे हटा कर पवित्र करना, आन्नदोपका निग्रह करना, बुद्धि द्वारा नन्, असत् युज्ञ अयुक्तका निर्णय करना, निष्पाप तथा निस्पृह मल वोल्ना, आए हुए कोषको निष्फल करना, यह १० प्रकारका बर्म बताया है।" वर्मके पारको पानेवाले पुल्योंने देश काल, अवस्था, बुद्धि, शक्ति, आदि के अनुरूप वर्नोपदेशको ही औषध रूप कहा है। - इसके अतिरिक्त उनकी चरित्र निश्चलता धीरता देख ! क्योंकि वे ‘अपनी प्रतिनामें सर्दव दृढ रहते थे। संयम के अतिरिक्त वे कितीमें अनुरक्त नये ॥2॥ गुजराती यनुवाद-ज्ञातनन्दन शासनपति महावीर प्रभु ३४ अतिशय तथा ३५ प्रकारना वाणी गुणे करी अलंकृत हता। ३४ अतिशय-(१) मायाना केश-दाढीमूछ तथा शरीरना वाळ अने नख मर्यादित होय । (२) नीरोगी अने मेल, रज आदिथी निर्लेप शरीर होय । (३) मास अने लेही गायना दूव नेवा उज्वल अने नीठां होय । (४) श्वानोइवास कनल जेवा मुगन्धित होय । (५) प्रमुना आहार अने निहार चर्मत्र ओधी अदृश्य होय, कारणके ते क्रियाओ गुप्त करवामां आवे छे । (६) आरा'शमां धर्म चक्र चाले। (७) आकागमा छत्र- रहे। (८) आकाशमां श्वेतवर चामरो विझायः । (९) आकाशमा अत्यन्त स्वच्छ स्फटिक सिंहासन पादपीठ सहित थई आवे। (१०) आकाशमा लवुपताकाओधी परिमंडित रमणीय इन्द्र वीर.४
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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