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________________ ४८ वीरस्तुतिः। खेदज्ञ संसारके प्राणियों द्वारा अर्जन किए हुए मार्मिक दुःखविपाकको जानते हैं। कर्म विपाकसे उत्पन्न शारीरिक मानसिक क्लेशोंको प्रभु सदय होकर जानते तथा देखते हैं। उनको दु खोका ज्ञान करानेके अनन्तर प्राण, भूत, जीव और सत्वकी अशान्ति दूर करनेके लिए अहिंसा, सत्य, निस्तृष्ण आदिका उपदेश करके संसारमें शान्तिकी स्थिति स्थापना करते हैं । अत खेदन हैं। क्षेत्रज्ञ___ आकाशके अनन्त प्रदेशोंमें धर्म, अधर्म, जीव, काल और पुद्गलके अनन्त समूहको जाननेके कारण प्रभु क्षेत्रन भी है। क्योंकि लोक और अलोकके गुप्त और प्रगट सब भावों और विषयोंके ज्ञाता है। यथातथ्य स्व-स्वरूप और परखरूप जाननेसे आत्मज्ञ हैं। तथा इस नखर शरीर क्षेत्र में आत्मा या धर्म रूप सार जाननेसे, तथा स्त्रीके विषय दोप और उसके रमण और अनुरक रहने में जो दोष हैं उसे जाननेके कारण क्षेत्रज्ञ हैं। कुशल सत् और असत्को अलग करके बता देते हैं, आठ प्रकारके कर्मरूपी तीक्ष्ण कुशको काटनेमें कुशल हैं। निर्जराका पथ बताने में समर्थ हैं, धर्मोपदेश देनेमें मंगलप्रद हैं अत. कुशल भी है। आशुप्रश___ आपका उपयोग अनन्त होनेसे आशुप्रज्ञ हैं, परन्तु वह उपयोग छनस्थोंकासा नहीं है। [वहतो कुछ देर सोच विचार करनेके पश्चात् जानता है, कार्माण वर्गणाओंद्वारा आत्म-खरूप पर पर्दा पड जाने के कारण उस कर्म सहित संसारी आत्मा की छद्मस्थ सज्ञा है। परन्तु भगवान् तो 'वियह छउमाणं' इस दोपसे निवृत्त हैं] महर्षिः___अत्यन्त उग्र तपरूपी अनुष्ठान करनेसे, अनुकूल प्रतिकूल परिषह और उपसर्ग सहन करनेसे, नाना तितिक्षाओं को सहनेसे, तत्व वस्तुका वास्तविक रूपमे प्रकाश करनेसे, सत्य वाणीका उच्चारण करनेसे महर्षि थे। __ अतीत, अनागत, वर्तमानका अनन्त स्वरूप जाननेकी दृष्टिसे अनन्तज्ञानी, तथा सामान्य अर्थका भिन्न करण करनेसे अनन्तदर्शी थे। '
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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