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संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ५१ यथार्थ स्वरूप दर्शक । (१६) जे सम्बन्ध चालतो होय तेनी सिद्धि पुरतुंज कहेवु ते। (१७) पद वाक्यर्नु परस्पर सापेक्ष पणुं । (१८) इष्ट रीतिए तत्वनु कहेवू । (१९) अत्यन्त मधुर-सुखकर । (२०) परना रहस्य विरोरेने प्रकट नहि करनारी । (२१) वस्तुना अर्थ तथा धर्म सहित। (२२) अर्थनो झलकाट उठे एवा पदो सहित । (२३) पर निन्दा अने आत्मप्रशंसा रहित । (२४) कहेला गुणोना योगथी प्रशंसा करवा लायक । (२५) व्याकरणना दोष रहित । (२६) श्रोताओने पोताना विषयनो जवाब मळवाथी आश्चर्य अने वैराग्य उत्पन्न करनारी । (२७) अद्भुत । (२८) अत्यन्त विलम्ब रहित । (२९) मननी भ्रान्ति तथा वाक्य बोलवानी अशक्ति विगेरे दोष रहित । (३०) सर्व सुर-असुर-नर-अने तिर्यंच पोतानी भाषामां समजे तेवी । (३१) वीजा पुरुषोनी अपेक्षाए शिष्योने विषे विशेष बुद्धिने पेदा करनारी । (३२) पदो, वाक्यो स्पष्ट रीते समजाय तेवी चोक्खी। (३३) पराक्रमवाळी अनायासे वाणी प्रकाशे जाय । (३५) कहेवा धारेला अर्थोनी सारी रीते सिद्धि थाय त्यां सुधी अविच्छिन्न वाग्धाराए बोल्या जवाय तेवी । खेदज्ञ
संसारना प्राणिओए संचय करेला मार्मिक कर्मना दु खविपाकने तेओ जाणे छ । कर्मना परिणामे उत्पन शारीरिक तथा मानसिक क्लेशोने प्रभु दयाई वनीने जाणे छे तेमज देखे छे। तेमना दु खोनुं ज्ञान कराववाने तथा प्राण-भूत-जीवसत्वनी अशान्ति दूर करवाने तेओ अहिंसा-सत्य-निस्तृष्ण विगेरेनो उपदेशकरीचे संसारमा शान्तिनी स्थापना करे छे । तेथी भगवान् खेदज्ञ छ । क्षेत्रज्ञ
आकाशना अनन्त प्रदेशोमां धर्म-अधर्म-जीव-काल अने पुद्गलना अनन्त समूहने तेओ जाणे छ । तेथी क्षेत्रज्ञ पण छ । अथवा लोक अलोकना गुप्त अने प्रगट सर्व भाव अने विषयना ज्ञाता छ । यथातथ्य स्वस्वरूप तथा परखरूपना ज्ञाता होवाधी आत्मज्ञ छ । आ नश्वर शरीर क्षेत्रमा तेमना आत्माना अथवा धर्मरूप सारना जाणकार होवाथी, तेमज स्त्रीना विषय दोष अने तेमा रमण करवायी जे दोषो उत्पन्न थाय छे, तेना पण जाणकार होवाथी तेओ क्षेत्रज्ञ छ । कुशल
सत्-असत्ने भिन्न भिन्न करीने वतावे छ । आठ प्रकारना कर्मरूपी तीक्ष्ण