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________________ २९० . . . बीरस्तुतिः। । ... चवदे राजु लोक भरे वालदा कनियां, सर्व जीवनी रोमराय नहीं जावे गिणिया । एक वाल तप करे, गुण गण करे अत्यन्त, पूज्य प्रसाद ऋषि लालचंद कहे नहीं आवे अन्त । संवत् १८६२ ए-मास जु मृगसिर चंद । स्यामपुरे गुणगाविया, धन २ वीर जिणंद ॥ ११॥ , वीरस्तुति-परिशिष्ट नं०५ शान्तरसपूर्ण शान्तिप्रकाशः प्रार्थनाङ्गम्प्रेमसहित वन्दो प्रथम, जिनपद कमल अनूप । ताके सुमरत अधमनर, होवत शांत खरूप ॥१॥ पूर्व नमामि सस्नेहं, जिनातिकमलं शुभम् । यस्य स्मृत्या नरा नीचा, जायन्ते शान्तिरूपकाः ॥ १॥ तुम शरणे आयो प्रभु, राख लेऊ निज टेक। निर्विकल्प मम सिद्धजी, देवो विमल विवेक ॥२॥ शरण ते प्रभो ! प्राप्त., संरक्ष्यो निजभावुक । कल्पनातीतसिद्धेश ! वोध वितर निर्मलम् ॥ २ ॥ करूं वंदना भावयुत, विविध योग थिर धार । रतन! रतन सम देय मुझ, ज्ञान जवाहर सार ॥३॥ । वृत्वा स्थैर्य त्रियोगेण, सभाव प्रणमाम्यहम् । देहि मे रत्न ! विज्ञानं, रमतुल्यं शुभं परम् ॥ ३ ॥ उपाध्याय अध्ययन श्रुति, निशिदिन करत अभ्यास । दीनवन्धु मुझ दीजिए, शम दम ज्ञानविलास ॥४॥ श्रुताध्ययनसनिष्ठा, नित्यमभ्यस्तिसरताः । उपाध्यायाः प्रदत्ताशु, ज्ञानं शान्ति दमं वरम् ॥ ४ ॥ सो साधु वाधा हरो, कर्मशत्रु रणजीत । निपुण जौहरी ज्यो लख्यो, आतम रतन पुनीत ॥ ५॥ कर्मशत्रु रणे जित्वा, दत्तरानिकवन्ननु । आत्मरत्नं शुभं यैस्तु, वीक्षित ज्ञानचक्षुपा ॥ साधवः कृपया ह्याशु, मम वाधा हरन्तु ते ॥ ५॥
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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