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वीरस्तुतिः।'
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महातपस्वी तपस्या करता घोरने, सूर्य समुं दीपे छे तेनुं ज्ञान जो, वैरोचनने सूर्यसमा ते चाळता, जगत् महिं जे व्याप्या सहु अज्ञान जो ६ वर्ग महीतो सहस्र देवो शोभता, रूपगुणमां सौथी शोमे इन्द्र जो, सर्वलोकनी शोभा महीं ते शोभता, अतिप्रभावी ज्ञातपुत्र मुनीन्द्र जो। ऋषभ आदि चौवीस तीर्थकर थया, जेथी प्रसर्यो सर्व श्रेष्ठ जैन धर्मजो, जैनधर्मनो नेता ते महावीर छे, काश्यप कुळमांथइने भांग्यो भर्म जो ७ महेरामणनो पार कदी नहीं आवतो, तेम प्रभुनी बुद्धिनो नही पार जो, द्रव्यक्षेत्रने काल-भावना मापथी, अक्षयसागर वीर ज्ञान अपार जो । निर्मल जळ तो महेरामण- दीपतुं, तेम प्रभुनी ज्ञानज्योत झळकाय जो, कषायकापी कर्ममुक्त पाम्या थकी, देवाधिप ते इन्द्र समा लेखाय जो।८ वीर्यवानमा अनन्त वीर्ये शोभता, जे वीर्यनी जगमा छे नहि जोड जो, गिरि वृन्दमां गिरि नहीं मेरु समो, मेरु सम जे शोमे जगमा श्रेष्ठ जो । देव सकळतो मोज माणता मेरु थी, तेम प्रभुथी पामे सौ आनन्द जो, रंग चंदने गुणो रम्य छे मेरुना, गुणो प्रभुना आपे परमानन्द जो ९ गिरिराज ते ऊंचो योजन लाख छे, पृथ्वी परथी सहस्र नवाणुं थाय जो, पृथ्वी तलमां सहस्र योजन एक छे, अति मनोहर कंडक जेने होय जो। ऊपर कंडके पंडकवन विराजतुं, ते तो जाणे ध्वजा गिरिनी थाय जो, गिरिराज एव्यापक छे मध्यलोकमां, ज्ञान प्रभुना एवा व्यापक होयजो१० गिरिराज ते गगन टोचने पहोंचतो, नीचे तो ते करे भूमिमां वास जो, ऊर्ध्व अधोने तिर्यक् लोके व्याप्त छे, विमान ज्योतिप्क फरतुं तेनी पासजो गिरिराजनी ख्याति छे त्रिलोकमां, नन्दनवन तो आव्यां तेमां चार जो अनेक वनना क्रीडास्थल त्यांशोभतां,इन्द्रदेवनी क्रीडानो नहिं पारजो११ देव रमे त्यां सुखविलसे विधविधना,सुंदरध्वनिओ आनंदनी संभळायजो,