________________
-
-
-
-
-
-
---
-
- 1ि
md
1
*..
संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २६१ . महावीर थुई नो गुजराती काव्यानुवाद आज सुधर्मा कहेता प्यारा 'जंबुने, वीरप्रभुना पंचम गणधर धीरजो, संयमसागर शिष्य बडा ते जंबुनी, पूछे गुरुने भ्रम मांगो गंभीर जो। कहो गुरु आ भवसिंधु उतारवा, कोणे आप्यो उत्तम अमने धर्म जो, साधु संघने अन्य पंथना सज्जनो, पूछे आवी धर्म तणो सौ मर्म जो । अनन्य मंगल धर्म दीधो जे व्यक्तिए, ते समजावो टळवा सौ अनर्थ जो, गुरु ज्ञानी छो आप महा आ विश्वमां, तेथी पूर्छ प्रश्न तणोडं अर्थ जो १ कहो खामी ते ज्ञान धरे कइ जातना, कई पंक्तिना तेना दर्शन शील जो, श्रवण कयु के जोयु जे आये प्रभु, बोलो! खोली दिलना द्वार अखिल जो'२ मधुर वाणी आ सुणी सुधर्मा बोलीया, जाणे चाली सुधा शब्दनी धारजो, 'विश्वसकळनो दुःख जाणतो नाथ जे, वीरप्रमु ते आव्या आ संसार जो। कर्मरिपु संहार करी ते पामीआ, अनन्त दर्शन-ज्ञान तणो भंडार जो, सूक्ष्म विषये दृष्टि तेनी स्थिर छे, कुशल प्रभु ते दीप्या जग मोझार जो ३ सर्व दिशामां वसता जे त्रस स्थावरो, मान्या तेने 'नित्य' अने 'अनित्य' जो दुव्य थकी तो मानी तेनी नित्यता, पर्याये तो मान्या छे अनित्य जो। घोर तिमिर जे विश्व महीं व्यापी र, अनन्य दीपक तेहना छे भगवान् जो सर्व जीवोपर राखीने समभावने, अर्पण कर्ता धर्म तणुं तो पान जो ४ सर्वदर्शी सर्व विषयने जाणता, जीत्या चारे मति-श्रुत आदि ज्ञान जो, केवळज्ञानी निज आत्मामां स्थिरते,शुद्धचरितनां गातां जन गुणगान जो सर्वपुरुषमा पुरुषोत्तम ते ज्ञानी छे, परिग्रह केरो सग नहीं तलभार जो, लोक तणा तो भय तेने नहि पामता, जन्ममर्णनो स्पर्श नहीं लगार जो ५ प्रज्ञा तो वहु तीन हती भगवान्नी, बन्धन विण ते करता सदा विहार जो, मवसिन्धुनी पार गया छे खामी,ते, पाम्या,ते श्री अनन्त ज्ञान मंडार जो।
-
AT
A
A