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संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता १६७ कोईए कहुं छे के जेने मूढताने कारणे धर्म एवं नाम आपवामां आव्यु छे, वळी जेने म्लेच्छो पण निन्द्य समजे छे, ते असत्यनो मन-वचन-कायथी त्याग करवो एज योग्य छे, जो हितनी वाञ्छा होय तो असत्य न बोलता मौननो खीकार करवो जोइए । कारण के नीचेनी बावतोमा सौ मौन राखे छे; जेवा के
प्रतिक्रमण करती वखते, मलमूत्र त्यागती वखते, पाप कार्य छोडती वखते निरन्तर मौन सेववु, कारण के मौनना सेवनथी वाणीना दोषो लागता नथी।
मौनथी कलेशनो नाश थाय छे, सन्तोष भाव आवे छे, वैराग्य आवे छे, ने सत्य अने सयमनी पुष्टि थाय छे, जीभनो खाद त्यजवाथी तपनी वृद्धि थाय छ, अमिमानथी बची जवाय छे, ने सत्य-समता आवे छ । वाणी मनोरमा बनी जाय छे, वचनो प्रशसा पात्र थई जाय छ, मौन सेवनार पूज्य बने छे, परन्तु देश कालनो विचार करीने मौन- सेवन करवु जोइए। जो क्याय बोलवाथी संसारने सद्वोध तेमज चरित्रनो लाभ थतो होय तो त्या मौन न रहेQ जोइए, वाणी हमेशा सत्य होवी जोइए ।
गृहस्थने माटे त्याज्य असत्य-गृहस्थे कन्या-पशु-भूमि सम्बन्धी जुळुन बोलवु जोइए, खोटी साक्षी पण न देवी जोइए, तेमज कोईनी थापण ओळववी न जोइए, आ पाच वातोने ध्यानमा राखनार सत्याणुव्रती छ, जो सत्य बोलवाथी पोतापर अथवा बीजा पर आपत्ति आवी पडे तेम होय तो त्या मौन राखवु योग्य छ ।
अने साधु ज्यारे राग-द्वेष अगर मोहथी असत्य बोलवाना परिणामने छोडे छे, त्यारे वीजें सत्य व्रत कहेवाय छे। कारणके असत्य वोलवानो भाव सत्य भावथी विपरीत होय छे । अने आ असत्य भाव, राग-द्वेष के मोह भावथी जीवमा उत्पन्न याय छ । यानी मनुष्य इष्ट पदार्थ अथवा विषयोनी प्राप्ति अथवा रक्षानी खातर राग द्वारा असत्य बोले छे, अनिष्ट पदार्थ अथवा विषयोने दूर करवाने माटे अथवा तेनो संयोग न थाय ते माटे द्वेषयुक्त असत्य बोले छे । अथवा मिथ्या बुद्धिथी ससारमा मोहने लीधे ते मिथ्यामावनी रक्षाने माटे असत्य बोले छे, जे कोई निकट भवी जीव आ प्रकारना असत्य बोलवाना परिणामने त्यागी दे छे, तेनामा सत्य व्रतनी योग्यता आवे छे । जे सत्य भावना रगथी रगाइने प्रगट रीते सत्य व्यवहार करे छे, ते सजनोनो पण पूज्य बने छे, तेथी आ वात तद्दन साची छे के सत्य थी वधारे महान् वीजु कोई व्रत नथी।