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२८४ : वीरस्तुतिः ।' - ॥१॥ संयम-लेकर समता कीधी, कर्मकिया छकछारा ! केवलज्ञान प्रकाश भयो जव, लोकालोक निहारा, . ॥ २॥ सुरनर आवें दर्शनपावे, वाणी अमृतधारा । श्रद्धा प्रतीति, प्रकर्ष सुमेधा, नाशे भ्रमंजगसारा ॥ ३ ॥ समवसरणमें साहिव वैठे, और है परिषद वारा । जिन वाणी शुभ अमृत सरंखी, पीवत पीवन हारा ॥ ४ ॥ साधुसम्पदा सुरनर मोहे, क्षमावान् अणगारा । जिनकी करणी अधिक दीपंती, जानत जानन हाराः ॥ ५॥ कर्मउदयघी यहां प्रभु उपन्यो, पाम्यो कलियुगआरा । ज्ञान सुभट भेजो मुझ तारो, तू है तारणहारा ॥ ६ ॥ कर्म जंजीर पडी पग वेडी, चारों चौकीदारा । मोहमतवाल विषयविषफासी, जन्ममरणदुःखमारा ॥७॥ पर उपकारी विरुद तुम्हारा, आप तियां बहु तास्या । केई अपराधी कर्म दूर कर, पहुंचे मुक्ति मंझारा ॥ ८॥ चंडकोशियो नाग उवाखो, और नन्दन मनहारा । नन्दीषण । प्रभो! आप अवधारे, और सिंहा अणगारा ॥ ९॥ अयवंतो जल रमतो तात्यो, तायो मेंघकुमारा । गोशालो ने जयमाली तारे, तारे तीर्थ चारा - ॥ १० ॥ चर्मइन्द्र पर शकइन्द्र कोप्यो, शरणा लिया तुम्हारा । इत्यादिक प्रभु बहुत उभारे, में भी सेवक थारा' ॥११॥ हूं सेवक शरणागत यारे, थे छो साहिव म्हारा । ऋषिलालचन्द कर जोडी वंदे, आवागमन , निवारा ॥ १२ ॥
(महावीर प्रभुकी तपश्चर्या का जोड) गोतमखामी वुद्धि दें निर्मल, आपहि करो सहाय, श्री महावीरजी जेजे तप कियो, तेहनो करूं जी विचार । वली वली वंदु श्रीवीर सुहामणा ॥१॥ श्रीजिनशासन राय, भव दुख भंजन सुख करे सदा, सेव्यां सद्गति थाय, नाम लियां थी पावे सम्पदा, दुर्गति दूर पलाय । वली वली. ॥ २॥ वारा चरसे वीरजीने तप कियो, अने वली तेरे पाख । वे कर जोडी सेवक बीनवे, आगमदे साख ॥ ३ ॥ नव चौमासी वीरजीरा जाणिए, एक कियो छ मास । पाचे उणां वली छमास जाणिए, वारे एक-एक मास ॥ ३ ॥ वहत्तर मास क्षमण जग दीपता,' छ दोय मासी जाण । तीन अढाईमास दोय २ किया, दोय दोढ मासी वखाण ॥ ४ ॥ भद्र-महाभद्र-शिवभद्र जाणिए, दोय-चठ-दस दिन होय । तिणमें पारणो वीरजीने कियो, इम सोले दिन जोय ॥ ५॥ तीन उपवासी प्रतिज्ञा वारमी, वुहा वारे जी वार, दोयसे वेला पीरजीरा गहगह्या,