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वीरस्तुतिः । . हो खूरेइल्म वढ़े नूरेसदाकत । काबू हो हवासोंपे हो दिल महवेरियाज़त, गुप्ति सुमति शील हो सन्तोष हो आदत । यह वाइसे सरगश्तगी फिर आप ही टल । जाएँ, ज़र्राते अमल रूहके नुक्तोंसे निकलजाएँ ॥ २६ ॥ आमद भी रुके वंदे अमल छूटने लग जाए, फंदेसे खुलें दाम कुहन टूटने लगजाए। ये मोह की मदिराका घड़ा फूटने लगजाए, खुद आत्मा अपने ही मज़े लूटने लगजाए । फिर अपना तमाशा हो और अपनी ही नज़र हो, अगियारसे अगियारकी सोह वतसे हज़र हो ॥ २७ ॥ आलिमे असवाव [संसार] यह जहा फानी जिसे सब कहते हैं संसार, छद्रव्य इकट्ठे हैं 'यह इक जावसद इसरार । फाइल कोई इनका न कोई मालिको सर्दार, पैदा कमी होते हैं न मिटते हैं ये ज़िनहार । छ से कमी कम और सिवा हो नहीं सकते, बनते हैं विगडते हैं फना हो नहीं सकते ॥ २८॥ पांच इनमें हैं बेहोश तो इक साहिवे अदराक, पाच इनमें । मकी एक मकां खाली वकावाक । चार इनमें जुदा रहते हैं बेलौस सदा पाक, . दो मिलते हैं आपसमें तो हो जाते हैं नापाक । इक मादह इक रूह जव हो जाते हैं मखलूत, खोली न खुले ऐसी गिरह लगती है मज़बूत ॥ २९ ॥ पाच ऐसे के जिनकी कोई रंगत है न सूरत, एक ऐसा के हर हिसको है वह वाइसे लज्जत । कहते हैं उसे मादह सब अहले वसीरत, जव रूहसे मिलता है तो यह होती है हालत । जां रूह तो वह जिस्म है. और वंद अमल है, जो ताइरे जा के लिए सय्याद अजल है ॥३०॥ वह आख गुलाबीसी वह अवरू जो तनी है, वह शोख नज़र जो सरे नाविक फ़िगनी है। मंजूर गरज़ सवको जो नाजुकबदनी है, हर सूरतेदिलकश इन्हीं दोनोंसे बनी है। महजूव है इल्मो नज़रे रुह अज़लसे, वहकी हुई फिरती है गरीव अपने अमलसे ॥३१॥ इन्सान भी हैवान भी और हूरो परीभी, : यह नज्म यह अफ्लाक यह खुश्की भी तरी भी। गुलशाख पे और कोहमें हर कान जरी भी, जो शक्लके है सामने खोटी भी खरी ' भी, वेजान भी जीरूह भी अच्छे के बुरे हैं, जल्वे इन्हीं दो के हैं के आंखोंमें खुवे हैं ॥ ३२ ॥ यह असल है दुनिया की यह आलमकी हकीक़त, कावाकमें है ठोस जवाहरकी सकूनत, हां तूल वहुत इसका बहुत इसकी है वुसअत, रूहोंके लिए है यही मैदान अजीयत। बे इल्मे सही आत्मा काजिव नजरी से, आवारह व सरगश्ता है खुद वेखवरी से ॥ ३३ ॥ हुसूले इल्म सही की दुश्वारी [ वोधि दुर्लभ ] आखोंसे कमी जीव दिखाया नहीं जाता, क्या आंख किसी हिससे वताया नहीं जाता।