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संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३७५ बेशक्लको अशकालमें लाया नहीं जाता, जुज़ कइफ़ज़मीरी उसे पाया नहीं जाता। इन्कार मगर रूहकी हस्तीसे खता है, हर शैको फ़क़त इल्मने मालूम किया है ॥ ३४ ॥ होशो खिरदो इल्म फकृत रूह की है जात, जुज रूह किसी और को हासिल नहीं ये बात । लिपटी है अज़लसे जो उसे बंदकी आफात, इनके ही सबब बहकी हुई फिरती है दिन रात । फिर भी सिफ्ते जात कमी जा नहीं सकती, बे होशको होश और खिरद आ नहीं असकती ॥ ३५ ॥ सब जड़ हैं मगर आत्मा है ज्ञानका भंडार, जो ज्ञान है और इल्म है चेतनका चमत्कार । खुद इल्म भीमालूम का वाहोशो खवरदार, उस ज़ातमें मुमकिन ही नहीं शरकते अगियार । पुद्गलने मगर ज्ञानको आवरण किया है, खुद भूलसे अपनी ये गिरफ्तारे बला है ॥ ३६ ॥ इक बार अगर भूल कोई इसकी मिटादे, शल्ल आइनेमें इसकी कोई उसको दिखादे । खुद जातका इसकी इसे दीदार करादे, यह वंद अमल काटसे फिर दममें उढादे। ज़ायिदनो मुरदनकी वला इक आनमें टलजाए, आज़ाद हो जू इल्मकी वंदिशसे निकल जाए ॥ ३७॥ दुनिया है अजव चश्म फरेव आइना खाना, सौ बार यहा मिलके छुटा ऐशो खजाना। यार ऐसे वफादार के बेमिस्लो यगाना, वह हुनके जिस हुनका मुश्ताक ज़माना। मिल जायें यह आसान है दुश्वार नहीं है, मुश्कल तो फकत जातका अपनी ही यकीं है ॥ ३८ ॥ रूहानियत या सिफ्ते जाति [धर्म ] कहते हैं जिसे धर्म वह कुछ और नहीं है, बस जातका अपनी ही कफ़त इल्मोयकीं है। लारेव है इसमें न चुना और चुनी है, सच ऐसा के रोशन सिफ्ते मेहरेमवीं है। भटकी है जो आपेसे वही रूह है नाशाद, और सुहवते यकजाईसे है गैरकी वरवाद ॥ ३९ ॥ परिणाम यह राज़की सूरत थी जो पावन्द' हया थी, अव उठ गया पर्दा तो वही जल्वहनुमा थी। गो इल्म सरीहीकी अमी जू न ज़िया थी, लेकिन वरके दहरकी तफ सीर तो वा थी। देखा तो इन ओराक पै यह साफ़ लिखा है, भूला है जो आपेको वह कर्मोंसे बंधा है ॥ ४० ॥ भगवान् विचार-भगवान् महावीर थे दर असल महावीर, मति-श्रुति-अवधिज्ञानकी थी' रूहमें तनवीर । पढ़ते ही यह समझे वरके दहरकी तहरीर, है भूल खुद अपनी सवव जिल्लतो तहकीर। सोचा के अब इस मोहको निर्मूल करूंगा, फिर जन्म न हो जिससे वह चारित्र धरूगा.॥ ४१॥ हू ज्ञान फ़क़त ज्ञानकी जू वनके रहूंगा, ,में होश हू बेहोश का पावंद न हूंगा। आज़ाद है फ़ितरत मेरी आज़ाद वनूंगा,