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________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २४३ गवॉरू भाषामें न हो तथा ग्राम्य नाम इन्द्रियोंका भी होता है यानी इन्द्रियोंके विकारोंको पुष्टंकर वचन न हो, गौरवका वढोंनेवाला हो, जिसमें किसीका हलकापन न बताया गया हो, वही वचन शास्त्रमें प्रशंसनीय है।" । - - निरन्तर-मौन करना भी पुरुषों के कल्याण के लिए हैं"यदि वोलनेका काम पडे तो सर्ल्स और प्रिय तथा सब जीवोंके कल्याणके लिए बोलना चाहिए।" "मगर दुष्ट चरित्रीके मुखकी वावीमें वही भारी असत्यवाणीकी सापनी रहती है, जो जगत् भरको 'दुखी कर देती है?". "जिस वातके सत्य होनेमें सन्देह है, पर पाप रूप भी 'अवश्य है, और दोषोंसे युक्त है, 'एवं ईर्ष्याको बढानेवाली है, वह अन्यके पूछने पर भी न कहे ।" "किसीका मर्म दुःखानेवाला, मनमें घाव करनेवाला, स्थिरताका नाश करनेवाला, विरोध खडा करनेवाला, तथा दया रहित वचन कण्ठम प्राण आनेपर भी न कहे।" "जंहा धर्मका नाश होता. हो, चरित्रको धका पहुँचता हो, देशकी खतघ्रता नष्ट होती हो, समीचीन सिद्धान्तकी लोप होता हो, उस जगह देश, धर्म और जातिके उत्थानके लिए विना पूछे भी विद्वानोंको अवश्य बोलना चाहिए। उस समय चुप चाप खडे २ तमाशा देखना. सत्पुरुषोंकी कार्य नहीं है।" "जो वाणी लोकोंके कानोंमें पुन: पुन पड कर जहर उगलती है, जीवोंको मोहरूप कर डालती है। सन्मार्गको भुला देती है, वह वाणी'न होकर एक सापनी जैसी है, जिसके सुनते ही प्राणी उत्तम मार्गको छोडकर कुमार्गमें पड़ जाते हैं।" "कानोंको जितना सुख मनोहर वाणी देती है, उतना सुख चन्दन, चन्द्रमा, चन्द्रमणि, मोती, मालती, आदि शीतल पदार्थ नहीं दे सकते।" । "अमिसे जला हुआ वन तो किसी समय हरा भरा हो जाता है, परन्तु जिव्हारूपी आगसे पीडित होकर लोक कभी नहीं पनपता।" "जो सच बोलते हैं, तत्वके असली स्वरूपको समझ सके हैं, जिनको सत्य और शीलका ही अवलम्बन है, उनके पैरों से पृथ्वी पवित्र हो जाती है और वही लोक उत्तम हैं। जो असत्य बोलते है वे ही नीच होते हैं।" "जो नीच पुरुष मनुष्यजन्म प्राकर..भी सत्यकी प्रतिज्ञासे रहित है, वह संसार रूपी कीचडसे और क्या करनेसे पार हो सकेगा?" "जिनके हाथ नाक कान कटे हों, रूप रग नामको
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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