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, वीरस्तुतिः। ...
भी न हो, दरिद्री और रोगी हो, कुलं, जाति, वर्णसे हीन हो, तब क्या हुआ उनका भूषण सत्य है, सत्यसे पवित्र और सुखी हैं। उनकी शोभा सत्यसे है।" "जो पुरुष असत्यसे मलिन हैं, उनके साथ पाप रूपी कालिमाके भयसे कोई भी धर्मज्ञ पुरुष सपनेमें भी उसका साक्षात्कार नहीं करता।" "झूठेकी संगतिसे सच्चको भी कलंक लेना पडता है।" "पुत्र, खजन, श्री, धन और मित्रोंके जाने या विमुख होने पर अथवा प्राण जाने पर भी झूठ नहीं बोलना चाहिए।"
इत्यादि वचनामृतोंको पीकर जो पाप रहित और श्रेष्ठ सत्य बोलता है, वही जगत्में प्रधान पुरुष है।
सत्यकी तरह सब प्रकारके तोंमें अर्थात् जिन तपोंमें इच्छाओंका रोकना अनिवार्य है वे तप १२ प्रकारके कहलाते हैं, उनमें उत्तम और नव विध ब्रह्म गुप्तिसे गुप्त किया गया ब्रह्मचर्य नामक तप उत्तम है।
सुन्दर स्त्रियोंके मनोहर अंगोंको देख कर उनसे क्रीडा करनेकी जिसके चित्तमें इच्छा खडी होती है उसको त्याग देनेसे अथवा वेद नामक नोकषायके तीव्र उदयसे मैथुन सेवनकी इच्छाका त्यागना ब्रह्मचर्यव्रत है, उसे स्पष्ट करनेके लिए सत्पुरुष कहते हैं कि हे कामी पुरुष, ! अनुपम सहज, परम तत्वरूप, निजखरूपको छोड कर अति सुन्दर स्त्रियोंकी शरीर आदि विभूतिको मनमें क्यों याद करता है, और उनके मोहमें किस लिए फँसा पडता है।
अब्रह्मचर्य के दोष-स्त्री सम्भोगसें सन्ताप पैदा होता है, पित्तको बढाता है, काम ज्वर फैल जाता है, हिताहितको नशाकर मोहको बढाता है। शरीर नि.सत्व होता है। तृष्णामें जकडा जाता है, अतः कामेच्छामें और ज्वरमें कुछ भी अन्तर नहीं रह जाता। और इन दोषोंको जान कर भी यदि कोई सर्वथा शीलका पालन न कर सके तो गृहस्थका कर्तव्य है कि विवाहित पत्निमें अवश्य सन्तोष पैदा करे। क्योंकि इस प्रतिज्ञामे भी अनेक तरह की इच्छा, ओंका मर्दन कर देता है।
कहा भी है कि-अपनी स्त्री मात्रमें सन्तोष करनेके अनन्तर जो अन्य स्त्री मात्रकी कमी इच्छा तक भी नहीं करता है, उसमें भी सुदर्शन शेठ की तरह अद्भुत प्रभाव पैदा हो जाता है, तब ब्रह्मचारीके प्रभावकी प्रशंसा क्यों कर की जासकती है, क्योंकि वह तो अवार्य है। . . . . . .'