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संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
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जैन रामायणमें कहा है कि रामजी लक्ष्मण और सीताके साथ दक्षिणापथमें घूमते २ कूर्चनगरमें आ निकले। वहां महीधरराजाने अपनी वनमाला नामक पुत्रीका विवाह लक्ष्मणसे करदिया । कुछदिन रहकर वहाँसे जव तीनों विदा होनेलगे तब वनमाला भी लक्ष्मणके साथ चलनेलगी। परन्तु लक्ष्मणने उसे साथमें न चलनेकी सम्मति दी। यह सुन खामीके विरहमें कातरभाव होकर वोली कि नाथ ! आप मुझे वापस कवतक आकर ले जाओगे? यह विश्वास न होनेसे साथ ही रहूंगी । लक्ष्मणने उसे विश्वास दिलानेके लिए प्राणातिपात जैसे अनेक पापकी कडी शपथ ली । तब उसने उन शपथोंपर असन्तोष प्रकट किया और रात्रिभोजनके पापकी शपथ दिलाई । लक्ष्मण वह शपथ लेकर रामके साथमें जामिला। उस समय रात्रि भोजनका पाप चार प्रकारकी हत्याओंसें भी अधिक समझा जाता था।
किसीने कहा है कि सुपात्र-पुरुष दिनमें आते हैं वे रातको नहीं आ पाते, अतः दिन अस्त होनेपर उनको आहार देनेसे वंचित रह जाता है। अत दानी और कल्याणकी कामना रखनेवालापुरुष रातमें भोजन करना त्याग देता है।
पुरुषोंके तीन प्रकार-उत्तम पुरुष मध्यान्ह समय भोजन करते हैं, मध्यम पुरुष दोवार खाते हैं, परन्तु जो सर्वज्ञके कहे हुए धर्मसे अनभिज्ञ हैं, वे पशुकी तरह दिनरात चरते रहते हैं ।
दो घही दिन चढनेतक रात्रि निकट रहती है, दो घडी दिन वाकी रहने पर रात्रि समीप में आ जाती है, अत. सवेरे का दुघडिया धर्माराधन
और स्वाध्यायके लिए है । तथा साझके दुघडियेमें प्रतिक्रमणका आरंभ होजाता है। अतः उन दो दो घड़ियोंको छोड कर जो आहार करते हैं वे प्रशंसनीय पुरुष हैं। क्योंकि उनका आधा जन्म-समय तो उपवास करने में ही व्यतीत हो गया है।
श्रावककी ११ प्रतिज्ञा (प्रतिमा) ओंमें छठवी प्रतिज्ञा रात्रिभोजनके छोडने की होती है, जिसमें अन्न, पानी, खानेकी वस्तु मिमई आदि, और पान सुपारी आदि खादकी वस्तुएँ तथा चाटनेकी वस्तुएँ आदि जो रातमें नहीं भोगता वह सब उसप्राणी जीवोंकी अनुकम्पा करनेवाला सचा गृहस्थ है।