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वीरस्तुतिः। . . '
: छठा व्रत मुनिओंका रात्रि भोजन त्याग है-मुनिवर्ग तो महाव्रतोंको लेकर रात्रिभोजनसे सर्वथा विरक्त हो जाता है। दशवैकालिकम , उसका छठवां व्रत इस प्रकार किया गया है। और वह गुरुके सन्मुख यों प्रतिज्ञा लेता है कि
__ भगवन् ! में रात्रिभोजन करनेका त्याग करता हूं। और अन्न, पानी, खाद्य खाद्यादि पदार्थोंका रात्रि के समय न भोजन करूंगा, न कराऊंगा, न करने वालेकी अनुमोदना भी करूंगा। सारी उमरभरकेलिए तीनकरण और तीन योगोंसे अर्थात् मन-वचन-कायासे रातमें, आहार न करूंगा न कराऊंगा, तथा अनुमोदन भी न करूंगा । हे भगवन् ! उस रात्रिभोजनके पापरूप दंडसे में पीछे हटता हूं, उसका प्रतिक्रमण करता हूं, अपने आत्माकी साक्षीसे उसे निय समझता हूं, गुरुकी साखसे उसको घृणित समझता हूं, और आत्मासे उस पाप का त्याग करता हूं।
अहिंसा महाव्रतकी रक्षाकेलिए रात्रिभोजनका त्याग किया गया हैऔर वह भी इस जन्मके अन्तिम श्वास तक छोडा गया है।
उसे महाव्रत न कह कर व्रत इसलिए कहा है कि महाव्रतोंकी तरह इसका पालन करना अधिक कठिन नहीं है। इसीकारणसे इसे मूलगुणमें न रख कर उत्तरगुणमें रखलिया है।
और इसे महाव्रतोंके पीछे इस लिए पढा है कि प्रथम और अन्तिम तीर्थकरके समय मनुष्य समुदायका खभाव ऋजुजड और वक्रजड होता है।
और मध्यके तीर्थंकरोंके समयके मनुष्योंकी बुद्धि ऋजुप्रज होनेसे इसका पाठ सुगमतया समझनेके लिए महाव्रतके पीछे जोड दिया है। इससे यह भी सिद्ध है कि महाव्रतोंकी भाति ही इस व्रतका पालन भी किया जाया करे । द्रव्य-क्षेत्रकाल-भावकी तथा मिश्रणामिश्रणकी दृष्टिसे इसके अनेक प्रकार हैं जैसे-द्रव्यसे अशनादि, क्षेत्रसे अढाई द्वीपमे, कालसे रातके समय और भावसे द्वेपरहित होकर इसका पालन करना आवश्यक है। . इसके अतिरिक्त और प्रकार भी पाए जाते हैं। जैसे कि-आहारादि रातमें ग्रहण करना और रातमें खाना, रातमें ग्रहण करना और दिनमै साना, दिनमे ग्रहण करना और रातमें खाना, दिनमें ग्रहण करना और दिनमें खाना।