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संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
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वह मर भी जाता है, इनमें व्याप्त होकर यह जीव यथार्थ तत्व अर्थात् वस्तु खरूप को नहीं देखता । जव लोकव्यवहार ही का ज्ञान विदा हो जाता है तव परमार्थका ज्ञान क्यों कर हो सकता है। क्योंकि सव वातोंमें वह बिल्लकुल अस्थिर बन जाता है।
__ "जिसको कामरूपी कांटा चुभता है वह प्राणी बैठने, सोने, चलने, फिरने, भोजन करनेमें तथा खजन पुरुषोंमें क्षण भर भी स्थिरताको प्राप्त नहीं होता। अर्थात् सव अवस्थाओंमें डिगमिगाया रहता है।" "कामसे ठगा जाकर मनुष्य चतुर होकर भी मूर्ख बन जाता है, क्षमाशील-क्रोधी हो जाता है, शूर वीर कायर वन जाता है, बडप्पनसे गिर कर छोटा रह जाता है, उद्यमी पुरुष आलसी बन जाता है। और जितेन्द्रिय भ्रष्ट हो जाता है ।" अतः मूर्खता न करके मनुष्यको मनुष्य जन्म सार्थक बनानेके लिए ब्रह्मचर्य्य पालन करना चाहिए। क्योंकि तोंमें उत्तम ब्रह्मचर्य ही तप है।" ।
कदाचारका परिणाम-बैलके नपुंसक बनानेकी क्रिया देखकर, लंपटका राजा द्वारा इन्द्रिय छेदन देख कर, सुधीको कुशील त्याग कर खदार सन्तोष व्रत लेकर परदारका त्याग कर देना योग्य है।" "मैथुनका सेवन किंपाकफलकी तरह आरभमे अच्छा लगता है परन्तु' परिणाममें दारुण कष्ट होता है।" "शरीरमें कम्प, पसीना, थकान या शिथिलता, चकर आना, घृणा होना, पौरुषेयका क्षय, तपेदिक क्षय-आदि रोग मैथुन सेवनसे होजाते हैं।" "योनि-यन्त्रमें असख्य जीवराशीकी उत्पत्ति हो जाती है, और मैथुन करते समय वे जीवित नहीं रह सकते।"
वात्स्यायनका मत है कि-"रकमें कीडे हो जाते हैं, वे जीव सूक्ष्म होते हैं, और सम्पर्कके समय मर जाते हैं।"
मैथुन सेवनसे काम ज्वर घट नहीं सकता-"अनिमे घी डालकर अग्निको वुझानेकी घृथाकी चेष्टाकी तरह स्त्रीसयोगसे काम ज्वर कमी शान्त नहीं हो सकता। अत. स्त्रिऍ भी पर पुरुषको सर्पके समान समझकर उन्हें त्याग दें।" क्योंकि- "ऐश्वर्यमें चाहे इन्द्रके समान हो और सुन्दरतामें कामदेवका अवतार हो तब भी सनारियोंकी दृष्टि में सीताने रावण का जिस प्रकार त्यागकिया इसी प्रकार पर पुरुष त्याज्य हैं।"