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संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २५३ (और) शूर पणे शौर्य गुणके वलसे, आतम उपयोगी अपने भावमें उपयोगवान् रहकर, थाय तेह अयोगीरे-वह आत्मा उसी समय अयोगी गुणस्थान पर आरूढ होता है।
भावार्थ-स्त्रीसंगकी इच्छा होने पर वीर्य अर्थात् धातुके उल्लाससे जिस प्रकार जीव भोगकर्ता सिद्ध होता है, इसीप्रकार आत्मा अपने वीर्य उल्लाससे अपने गुणोंका भोगी वनता है, और शौर्यगुणके वलसे निजभावमें उपयोगवान् रहकर वह आत्मा तुरत भयोगी-गुणस्थानारूढ होता है।
परमार्थ-जिसप्रकार कामी पुरुषमें वीर्यकी अधिकता होनेके कारण उसे प्रवल कामेच्छा होती है, इसीकारण पुरुष स्त्री की, और स्त्री पुरुष की इच्छा करती है, अथवा काम अर्थात् इच्छा, वह द्रव्यादिककी इच्छावाला जिस प्रकार द्रव्यकी इच्छा करता है, और पर-भावकी वाञ्छा करता है, इसी तरह आत्मा भी ख-खरूपको न जाननेके कारण पर-पौद्गलादिक भोगोंकी वाञ्छा करता है।
। परन्तु जव आत्मामें शूरवीरताका संचार होनेपर वीरभाव प्रगट होता है, तव कर्मोका क्षय होने पर अपने स्वरूपको जानता है । इससे उसे पर वस्तुओंपर अभाव-(अप्रीति) होता है, आत्मा निजगुणमें रमण करता है, मन-वचन और कायके योगको स्थिर करता हुआ नवीन कर्माको नहीं वाघता । और अन्तमें अयोगी हो जाता है । इस लिए वीरत्व प्राप्त होने पर आत्माका कार्य सिद्ध होने वाला समझ कर भगवान्के पास वीरता ही मागी है ॥ ५॥
वीरपणुं ते आतम ठाणे, जाण्यु तुमची वाणे रे, ध्यान विनाणे शक्ति प्रमाणे, निज ध्रुव पद पहिचाणे रे, वी० ॥६॥
शब्दार्थ-वीरपणु-शूरवीरता, ( उसे, ) ते आतम ठाणे-वह आत्मगुणस्थानपर चढता हुआ, [परिपूर्ण होना चाहिए इस प्रकार ] जाण्युमें जान सकाहूं, [ किसके द्वारा जान सकाहूं ? तुमची आपकी, वाणे रे-वाणी द्वारा-आपके प्रतिपादन किए हुए आगम द्वारा, (तथा) ध्यान विनाणे-शक्ति