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वीरस्तुतिः । . • उत्कृष्टे वीरजने वेसे, योग क्रिया नवी पेसे रे, ।। '' योग तणी ध्रुवताने लेसे, आतमशक्ति न खेसे रे ॥ ४ ॥ .
शब्दार्थ-(लेकिन) उत्कृष्टे वीरजने वेसे उत्कृष्ट कार्यके आवेशमेंजव कि सबसे अधिक वीर्य-उल्लास होता है तव, योगक्रिया-मन-वचनकायरूपी योगका व्यापार, नवी पेसेरे प्रवेश ही नहीं करता, होता ही नहीं, (क्योंकि उस समय) योगतणी-योगकी, ध्रुवताको-अचलताको, लेशे लवलेशमात्र भी, आत्मशक्ति आत्मवल, न खेसेरे-डिगाता नहीं, योग स्थिर हो जानेके कारण। . भावार्थ-जव आत्मामें सबसे अधिक वीर्य प्रगट होता है तव मन-वचन और कायका कर्म बंधनरूप कार्य प्रवेश ही नहीं करता, कारण यह है-कि-उस समय आत्मवल है, उस योगके अचलत्वको लवलेश मान भी डिगा नहीं सकता, ॥५॥
परमार्थ-उपरोक्त कथनानुसार आत्मा योगकी शक्तिके अनुसार कर्म पुद्गलको ग्रहण करता है, परन्तु यदि आत्मामें उत्कृष्ट वीर्य प्रगट होगया हो तो फिर मन-वचन-कायके योग लगभग बंद हो जाते हैं, और कर्मवन्धनरूप क्रियासे फिर आत्मामें कर्म-बंध नहीं होता।
योगकी ध्रुवताका लेश सव आत्माओमें होता है, और उस लेशमात्रसे भी आत्माके आठ रुचक प्रदेश कर्मवन्धसे विरक्त ( अलग) रहते हैं । यह दृष्टान्त है । अत एव ज्यों ज्यों आत्मामें उत्कृष्ट वीर्य प्रगट होता रहता है, यो त्यों कर्मवन्ध भी कम हो जाते हैं, और अन्तमें सम्पूर्ण वीर्यत्व प्रगट होने पर वीरभगवान्की तरह समस्त कर्मवंधका नाश हो जाता है और शुद्ध चैतन्यत्व प्राप्त होता है, अतः हे भगवान् ! मुझे वीरता अर्पण करो ! ॥ ४ ॥ काम वीर्य वशे जेम भोगी, तेम आत्मा थयो भोगीरे, . सूरपणे आतम उपयोगी, थाय तेह अयोगी रे ॥५॥
शब्दार्थ-कामवीर्य वशे स्त्री संगकी इच्छा होने पर, वीर्य वलसे, जेम-जिस प्रकार भोगी=भोग कर्ता होता है, तेम इसी तरह, आतम ययो भोगीरे-आत्मा, (अपने वीर्योल्लास द्वारा अपने गुणोंका ) भोगी वनता है,