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संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
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भावार्थ-छमस्थ अवस्थाकी क्षायोपशमिक वीर्यवाली आत्मपरिणविके योगसे, और योगको ग्रहण करनेकी अपनी निजी इच्छासे उत्पन्न होनेवाली बुद्धिसे, आत्मिक और व्यावहारिक क्रिया करनेके उत्साह द्वारा श्रीवीर भगवान् वही भारी उमंगके साथ योगी हुए हैं।
परमार्थ-इस गाथाका भावार्थ भलि प्रकार समझमे नहीं आता, अतः गुरुगम्यतासे' इसका अर्थ समझना चाहिए । तथापि यथा मति लिखा गया है, छद्मस्थ अवस्थामै आत्माको क्षायोपशमिक वीर्यका उद्गम जव प्राप्त होता है और उस समय उसके साथ वैसी ही शुभ लेश्या मिलजाती है, अतः फिर अन्वयरूप वीर्यकेद्वारा कर्मग्रहण करता है, इस कर्मग्रहण करने की दशाको अभिसंधिज कहते हैं, और तव फिर मति उपर्युक्त वीर्यको प्रहण करती है।
देहकम्पनरूप सूक्ष्म-क्रिया, और शरीरसकुचनरूप, एवं उसका प्रसरण करणरूप, प्रसारणकी क्रियाको स्थूल क्रिया कहते हैं, इस प्रकार स्थूल और सूक्ष्म क्रियाके रंगसे सब आत्मा वडी उमंगसे योगी होते हैं। अर्थात् । मन-वचन- और कायके योगको प्राप्त होते है ॥ २॥
असंख्य प्रदेशे वीर्य असंखो, योग असंखित कंखेरे, पुद्गल गण तेणे लेशु विशेषे, यथाशक्ति मति लेखेरे ॥३॥
शब्दार्थ-असख्य प्रदेशे आत्माके असंख्य प्रदेश हैं, (अत. उन उन प्रदेशोंका वीर्य एकत्र करने पर) वीर्य असखो-असख्य-जो गिना न जाय इतना भात्म-बल है, (इसीसे आत्मा) योग असखित असंख्य योग-मनवचन-काय के व्यापार, (उनकी) कंखेरे-अमिलषित अर्थको पूर्ण करनेमे समर्थ होता है, [ और ] पुद्गल गण-पुद्गलकी विविध वर्गणाओंको, तेणे इसी कारण, लेशु विशेषे लेश्या विषेशसे-भिन्न भिन्न लेश्याओंसे, यथाशक्तिशक्तिके अनुसार, मतिबुद्धि, अनुभवाकित रहती है, एकके पश्चात् एक को ग्रहण करके माप करती रहती है ।
परमार्थ-आत्माके असख्य प्रदेश हैं, और उन एक एक प्रदेशमें असंख्य वीर्य-शक्ति है, इससे असंख्य गेगकी आकांक्षा उत्पन्न होती है,
और योग सामर्थ्यके अनुसार आत्मा कर्म-वर्गणाके पुद्गलोंको यथाशक्ति ग्रहण करता है ॥ ३॥..