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२५४ - वीरस्तुतिः । . प्रमाणे अपनी शक्तिके प्रमाणसे ध्यान और विज्ञानसे, निज अपना, ध्रुवपद (परिणामकी स्थिरताको पाकर) शांतिरूप अचल पद, पहिचाणे-पह चानने से।
भावार्थ-आत्मगुणस्थानपर चढतेसमय परिपूर्ण शूरवीरता होनी चाहिए जिसे में अव जान सका हूं, किसलिए? आपकी वाणी द्वारा, अर्थात् आपके उपदेशसे, पुन. मेरी निजी शक्ति के अनुसार ध्यान और विज्ञानके साहाय्यसे भी कुछ जाना है, यानी ध्यान और विज्ञानका जितना वल होता है, उतना ही, अथवा उसी प्रमाणमें अपनी वीरताका स्थिरपद जीव इन निमित्तोंसे पहचान लेता है।
परमार्थ-भगवान्के पाससे वीरताकी यांचा का विचार करते समय भगवान्के प्रतिपादन किए हुए उपदेशका स्मरण हुआ, इससे स्वयं ही प्रसन्न होकर कहता है कि प्रभो ! मेरी जो जो भूल हुई हैं उनका मुझे भान हुआ, अव तक मे आपसे यही विनति करता रहा था कि-मुझे वीरता अर्पण करें, परन्तु मांगसे पहिले आपने फर्माया है कि समस्तआत्माएँ मेरे समान हैं। अत. जो वीरतामें पहले आपसे माग रहा था, वही वीरता मुझमें भी है। परन्तु खेद है कि इस बातकी मुझे जरासी भी खबर न थी, परन्तु आपकी वाणीसे-आपके तत्वपूर्ण उपदेशसे मुझे विश्वास हुआ है कि वह वीरता मुझमें भी पर्याप्त और अखंड है।
तव यह प्रश्न होता है कि जब आपके समान वीरता अपने में भी है तव तुम उसे क्यों नहीं जानते थे? और भगवान्ने कहा है कि इसके अतिरिक्त वीरता अपने मात्मामे है, इसका प्रत्यक्ष अनुभव हो सकता है, इसी प्रकार गुरु परम्परासे यदि विशेष ज्ञान प्राप्त हुआ हो तो उससे भी अनुभव हो सकता है, जिस प्रकार ध्यान और ज्ञानकी विशेषता है, इसी प्रकार आत्मानुभवकी भी विशेषता जाननी चाहिए। मुमुक्षुओंको ज्ञान और ध्यान को गुरुगमतासे जान कर आत्मानुभव करने में प्रवृत्ति करनी चाहिए, क्योंकि इस स्तवनका आशय यही है, और हमारी धारणा भी यही है ॥ ६ ॥
आलम्बन साधन जे त्यागे, पर परिणतिने भागे रे, - अक्षय दर्शन ज्ञान वैरागे, 'आनन्दघन' प्रभु जागे रे, ॥ ७॥