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वीरस्तुतिः।
अवश्य प्राप्त होगी। क्योंकि मणिमें डोरा पिरोने की अपेक्षा उसका बेध करना कठिन होता है। अतः उनकी स्तुति रूप कृति तो पहलेसे ही विराजमान है किन्तु मैं तो उनकी स्तुतिरूप मणिको अपनी अननुभूत टूटी फूटी लोक भाषाके डोरेमें ही पिरोनेका सतत प्रयत्न करूंगा । और यह मेरी अनल्पीयसी भक्तिके कारण अधिक कठिन नहीं है । परन्तु यह सब प्रभुकी कृपा ही है। मेरी इसमें कुछ विशेषता नहीं है। क्योंकि उन्होंने २५०० वर्ष पहले आत्मज्ञानका मार्ग भव्यात्माओंकेलिए परिमार्जित कर दिया है। इसमें मुझ सम अल्पमतिकी मजाल नहीं कि कुछ विशेषता पैदा कर सकूँ, यह सब प्रक्रिया उनकी ही वताई हुई तो है। वीर प्रभु का गुण गान करते समयआरंभमें गुरु और शिष्यकी वातें।
। अन्तिम तीर्थकर ज्ञातनन्दन महावीर प्रभुके गुणोंको जाननेकेलिए जिज्ञासु जम्बू ने जोकि एक मुमुक्षु अन्तेवासी शिष्य थे, वे वस्तुका निश्चय करनेमें सदैव सचेष्ट रहते थे, वे तत्वको पाकर असीम श्रद्धा और प्रतीति के साथ मनन करनेवाले महापुरुषों में से एक थे;
आचार्य और उसकी पहिचान __ वे भगवान् सुधर्माचार्यकी सेवामें सदाकाल तत्पर रहते थे। सुधा एक विशेष आचार्य तथा समझदार जैनसमाजके सच्चे नेता थे । वे चतुर समाजको हमेशा संगठन और सच्चरित्री रहनेका पूर्णतया प्रभावोत्पादक उपदेश कियाकरते थे। वे खयं मी विनयशील और आचारयुक्त थे। क्योकि जो खयं परिशुद्ध और गुणसमन्वित होता है वही चरित्राकांक्षीकी अध्यात्ममनोरथ माला को गूंथ सकता है अतः वही आचार्य होनेका सर्वाधिकारी है। कहा भी है कि-"जो सूत्र और अर्थका जाननेवाला है, आत्माके ज्ञानलक्षणको मांजकर जिसने चमकीला कर दिया है । चारोंसंघकेलिए जो (पृथ्वी की भान्ति) अवलम्वनभूत है, संघकी अशान्तिका नाश करदेता है, आत्म-तत्व का उपदेशक है, वही आचार्य होता है", __वह पांच प्रकारके आचारोंका स्वतः पालन करता है। आपकी देखा देखी संघ भी सदाचारका अनुकरण करता है। इस प्रकारसे आचारका याथातथ्यं उपदेश आचार्य के द्वारा ही मिलता है। क्योंकि