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१३० : वीरस्तुतिः। ..
“जात्यार्थ्या, इक्ष्वाकवो, विदेहा, हरयोऽम्वाष्ठा, ज्ञाताः कुरवो, वुवुनाला, उग्रा, भोगा, राजन्या इत्येवमादयः क्षत्रिया आर्यकुलोद्भवाः" ।।
'.. . .. (तत्त्वार्थसूत्रम् ३-१५) ज्ञातखण्डोद्यानोऽपि ज्ञातवंशस्य परिचयमादत्ते, यथा--! .
"वहिया ये 'णायसंडे आपुच्छिताण णायए सबे।। दिवसे मुहत्तसेसे कमाणामं समणुपत्तो ।।..---
। (आवश्यकचूर्णि पृ० २६७) पुनश्च- .
. . .. • “उत्तरखत्तियकुण्डपुरसंनिवेसस्स मज्झेणं निगच्छत्ति र ता जेणेव *णायसंडे' उजाणे तेणे व उवागच्छइ............महावीरे लोयं करेइ ।" (श्री आचारांगसूत्रः२-१५-८०) । श्रीहेमचन्द्राचार्योऽपि परिशिष्टपर्वणि ज्ञातनन्दनमिति शब्दप्रयोग कृत्वा प्रणमस्करोति, यथा
- कल्याणपादपाराम, श्रुतगंगाहिमाचलम् , . ... 'विश्वाम्भोजरविं देवं, वन्दे श्रीज्ञातनन्दम् ॥ , इत्यादिप्रमाणैर्भगवान् महावीरो ज्ञातवंशमलंकृतवान् । ' अन्वयार्थ जैसे [ दाणाण ] दान-धर्ममें [अभयप्पयाण ] अमयदान [सेठं] श्रेष्ठ है, [वा] और [सच्चेसु] सत्योंमें [अणवजं ] पाप रहित-दूसरोंको पीडा न देनेवाला सत्य-वचन [वा ] और [तवेसु ] सव तपोंमें [वंभचेरं] ब्रह्मचर्यको [उत्तम ] अच्छा [वयंति ] कहा है, उसी प्रकार [-समणे ] दयालुश्रमण [ णायपुत्ते ] ज्ञातृ-पुत्र-महावीर [ लोगुत्तमे ] लोकमे ] श्रेष्ठ थे ॥ २३ ॥ । भावार्थ-ख परके हितकेलिए किसीवस्तुका निष्काम अर्पण करना दात है, दान अनेक प्रकारका होनेपर भी 'अभयदान' सव दानोंमे उत्तम है,