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संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता १३१ इसी प्रकार सत्य भी भनेक प्रकारका है, तथापि दूसरेको जिस सत्यसे पीडा न हो ऐसा सत्य-प्रियसत्य उस सत्यसे अच्छा है जिससे दूसरोंको पीडा हो, और सब तपोंमे ब्रह्मचर्य तप सर्वोत्कृष्ट है, उसी प्रकार भगवान् महावीर भी लोकमें सर्वोत्तम थे ॥ २३ ॥
भाषा-टीका-अपनी और औरोंकी उन्नति तथा' भलाई के लिए जो परोपकारकी दृष्टिसे दिया जाय उसे दान कहते हैं । या अपने अधिकारको वस्तुमेंसे हटा कर जिस वस्तु पर किसी अन्यको अधिकार देदेना भी दान कहा जा सकता है। परन्तु यहा तो श्रद्धा और प्रतीति के साथ भक्ति भाव पूर्वक, परि'ग्रहका ममत्व भाव छोडकर कर्मीकी निर्जराके लिए अनुकम्पासे तथा मन, वचन कायकी शुद्धिसे फलकी इच्छा न रख कर दाता जिस पानमें कुछ पवित्र वस्तु देता है उसीका नाम दान है। । : और वह अनदान, औषधदान, ज्ञानदान, अभयदानके मेदसे' चार प्रकारका है। परन्तु उन सवमें प्राणियोंका भय हटा कर उन्हें सर्वथा निर्भय करदेना ही सर्वोत्तम दान अभयदान माना गया है। क्योंकि आत्मामें दश प्राण होने से प्राणी कहलाता है। जीवित रहनेकी इच्छा या जीवित रहना ही इसका खभाव रहनेसे इसकी 'जीव सज्ञा' है। दशप्राण 'द्रव्य'प्राण' हैं और भाव 'प्राण' अनन्त चतुष्टय कहलाते हैं, वास्तवमें यह जीव तीनों कालमें इन्हीं प्राणोंसे जीवित रहता है। अतः सव जीव जीवित रहनेकी इच्छा रखते हैं मरना कोई नहीं चाहता, किसीको मरना अभीष्ट नहीं है। अत जीवित रहनेके अभिलाषुओंको 'समय' दान देकर उनका सब प्रकारसे रक्षण करना मनुष्यका श्रेष्ठतम कर्तव्य है।
कहा भी है कि-"जिस प्रकार मुझे अपने प्राण प्रिय हैं उसी प्रकार अन्य देह धारियोंको भी अपना जीवन प्रिय है। स्वर्गका निवासी इन्द्र और विष्ठेका कीडा, महलमें रहने वाला राजा और झोपडीमें रहने वाला गरीब लकडहारा समान जीवन चाहते हैं। यह समझ कर किसी भी प्राणीके 'मन' नामक प्राणको भी कट न देना चाहिए।" . .
"क्योंकि अहिंसा परम धर्म है, हिंमा सव जगह पर निन्दित की गई है, यह स्वयंको प्रिय न होने के कारण औरों को भी अप्रिय है। क्योंकि अपनी और औरों की मनोदशामें कोई अन्तर नहीं है। अत. चतुर मनुष्य अपने मनमें