SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ७७ प्रतिष्ठाशालियों में भगवान् अद्वितीय प्रभाववाले थे। जहां जीवोंको केवलज्ञान प्राप्त होता है उस जम्बूद्वीपके मध्यमें जिस प्रकार सुमेरु पर्वत दृढ, अचल, और श्रेष्ठ है इसी प्रकार प्रभुकी वाणी भी अनेकान्त रूप सकल श्रेष्ठ है तथा वे खयं भी पर्वतकी तरह दृढ थे । सुमेरुपर्वत खर्गवासिओंको वडा सुहावना लगता है और हर्ष पैदा करता है इसी भान्ति प्रभु भी ज्ञान, दर्शन, सुख और शक्ति आदिक अनन्त गुणोंसे युक्त और भव्य आत्माओंके लिए अनुपम आनन्ददायक थे ॥ ९ ॥ • गुजराती अनुवाद-वीर्यान्तरायनो सर्वथा नाश थवाथी भगवान् अनन्त-शक्तिमान् हता, तेमज धैर्य-शौर्य-सहिष्णुतादि शारीरिक वले करी प्रतिपूर्ण वलवान् हता। प्रतिष्ठा शालिओमा भगवान् अद्वितीय प्रभाव वाळा हता, ज्या जीवोने केवलज्ञान प्राप्त थाय छे ते जंबूद्वीपमा मेरु पर्वत जेम दृढअचल-भने श्रेष्ठ छे, तेम भगवान् पण वीर्यादिक गुणे करी श्रेष्ठ तथा दृढ हता। मेरु पर्वत जेम स्वर्गवासी देवोने हर्ष उत्पन्न करे छे तथा अनेक गुणोए करी शोभित छे, तेमज प्रभु पण ज्ञान-दर्शन-सुख अने शक्ति आदिक अनन्त गुणोए करी शोमे छे, तेमज मव्यात्माओने आनन्द प्रद छे ॥ ९ ॥ सयं सहस्साण उ जोयणाणं, तिकंडगे पंडगवेजयंते। से जोयणे णवणवति सहस्से, उद्बुस्सितो हे सहस्समेगं ॥१०॥ संस्कृतच्छाया शतं सहस्राणां तु योजनानाम् , त्रिकण्डकः पण्डकवैजयन्तः। स योजने नवनवतिसहने ऊोच्छ्रितोऽधः सहस्रमेकम् ॥१०॥ सं० टीका-पुनश्चापि मेरुवर्णनायाह, 'सयं इति,' स सुमेरुयोजनसहस्राणां शतमुच्छ्रितोऽस्ति "मेरुः सुमेरुहेमाद्रिः रत्नसानुः सुरालयः इत्यमरः।" तथा त्रीणि कण्डकानि यस्य स त्रिकण्डकः । भौम
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy